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सामाजिक संविदा

सूची सामाजिक संविदा

सामाजिक संविदा (Social contract) कहने से प्राय: दो अर्थों का बोध होता है। प्रथमत: सामाजिक संविदा-विशेष, जिसके अनुसार प्राकृतिक अवस्था में रहने वाले कुछ व्यक्तियों ने संगठित समाज में प्रविष्ट होने के लिए आपस में संविदा या ठहराव किया, अत: यह राज्य की उत्पत्ति का सिद्धांत है। दूसररे को सरकारी-संविदा कह सकते हैं। इस संविदा या ठहराव का राज्य की उत्पत्ति से कोई संबंध नहीं वरन् राज्य के अस्तित्व की पूर्व कल्पना कर यह उन मान्यताओं का विवेचन करता है जिन पर उस राज्य का शासन प्रबंध चले। ऐतिहासिक विकास में संविदा के इन दोनों रूपों का तार्किक क्रम सामाजिक संविदा की चर्चा बाद में शुरू हुई। परंतु जब संविदा के आधार पर ही समस्त राजनीति शास्त्र का विवेचन प्रारंभ हुआ तब इन दोनों प्रकार की संविदाओं का प्रयोग किया जाने लगा - सामाजिक संविदा का राज्य की उत्पत्ति के लिए तथा सरकारी संविदा का उसकी सरकार को नियमित करने के लिए। .

14 संबंधों: डेविड ह्यूम, दीघनिकाय, धर्म, भीष्म, मनुस्मृति, महाभारत, रूसो, शांतिपर्व, सुकरात, सोफ़िस्त, जार्ज विल्हेम फ्रेड्रिक हेगेल, इन्द्र, अराजकता, अर्थशास्त्र (ग्रन्थ)

डेविड ह्यूम

डेविड ह्यूम (१७११-१७७६) आधुनिक काल के विश्वविख्यात दार्शनिक थे। वे स्काटलैंड (एडिनबरा) के निवासी थे। आपके मुख्य ग्रंथ हैं - 'मानव प्रज्ञा की एक परीक्षा' (An Enquiry Concerning Human Understanding) और 'नैतिक सिद्धांतों की एक परीक्षा' (An Enquiry Concerning the Principles of Morals) ह्यूम का दर्शन अनुभव की पृष्ठभूमि में परमोत्कृष्ट है। आपके अनुसार यह अनुभव (impression) और एकमात्र अनुभव ही है जो वास्तविक है। अनुभव के अतिरिक्त कोई भी ज्ञान सर्वोपरि नहीं है। बुद्धि से किसी भी ज्ञान का आविर्भाव नहीं होता। बुद्धि के सहारे मनुष्य अनुभव से प्राप्त विषयों का मिश्रण (संश्लेषण) एवं विच्छेदन (विश्लेषण) करता है। इस बुद्धि से नए ज्ञान की वृद्धि नहीं होती। .

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दीघनिकाय

दीघनिकाय (संस्कृत:दीर्घनिकाय) बौद्ध ग्रंथ त्रिपिटक के सुत्तपिटक का प्रथम निकाय है। दीघनिकाय में कुल ३४ सुत्त सूत्र है। यह लम्बे सूत्रों का संकलन है। इन सुत्रों के आकार दीर्घ (लम्बा) हैं इसी लिए इस निकाय को दीघनिकाय (पालि दीघ.

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धर्म

धर्मचक्र (गुमेत संग्रहालय, पेरिस) धर्म का अर्थ होता है, धारण, अर्थात जिसे धारण किया जा सके, धर्म,कर्म प्रधान है। गुणों को जो प्रदर्शित करे वह धर्म है। धर्म को गुण भी कह सकते हैं। यहाँ उल्लेखनीय है कि धर्म शब्द में गुण अर्थ केवल मानव से संबंधित नहीं। पदार्थ के लिए भी धर्म शब्द प्रयुक्त होता है यथा पानी का धर्म है बहना, अग्नि का धर्म है प्रकाश, उष्मा देना और संपर्क में आने वाली वस्तु को जलाना। व्यापकता के दृष्टिकोण से धर्म को गुण कहना सजीव, निर्जीव दोनों के अर्थ में नितांत ही उपयुक्त है। धर्म सार्वभौमिक होता है। पदार्थ हो या मानव पूरी पृथ्वी के किसी भी कोने में बैठे मानव या पदार्थ का धर्म एक ही होता है। उसके देश, रंग रूप की कोई बाधा नहीं है। धर्म सार्वकालिक होता है यानी कि प्रत्येक काल में युग में धर्म का स्वरूप वही रहता है। धर्म कभी बदलता नहीं है। उदाहरण के लिए पानी, अग्नि आदि पदार्थ का धर्म सृष्टि निर्माण से आज पर्यन्त समान है। धर्म और सम्प्रदाय में मूलभूत अंतर है। धर्म का अर्थ जब गुण और जीवन में धारण करने योग्य होता है तो वह प्रत्येक मानव के लिए समान होना चाहिए। जब पदार्थ का धर्म सार्वभौमिक है तो मानव जाति के लिए भी तो इसकी सार्वभौमिकता होनी चाहिए। अतः मानव के सन्दर्भ में धर्म की बात करें तो वह केवल मानव धर्म है। हिन्दू, मुस्लिम, ईसाई, जैन या बौद्ध आदि धर्म न होकर सम्प्रदाय या समुदाय मात्र हैं। “सम्प्रदाय” एक परम्परा के मानने वालों का समूह है। (पालि: धम्म) भारतीय संस्कृति और दर्शन की प्रमुख संकल्पना है। 'धर्म' शब्द का पश्चिमी भाषाओं में कोई तुल्य शब्द पाना बहुत कठिन है। साधारण शब्दों में धर्म के बहुत से अर्थ हैं जिनमें से कुछ ये हैं- कर्तव्य, अहिंसा, न्याय, सदाचरण, सद्-गुण आदि। .

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भीष्म

भीष्म अथवा भीष्म पितामह महाभारत के सबसे महत्वपूर्ण पात्रों में से एक थे। भीष्म पितामह गंगा तथा शान्तनु के पुत्र थे। उनका मूल नाम देवव्रत था। इन्होंने आजीवन ब्रह्मचर्य जैसी प्रतिज्ञा लेके मृत्यु को भी अपने अधीन कर लिया था। आज के समय मे ब्रह्मचारी कोई नही है। सब इन्द्रियों के ग़ुलाम है, और कहते है की स्वतंत्र है । इनके दूसरे नाम गाँगेय, शांतनव, नदीज, तालकेतु आदि हैं। भगवान परशुराम के शिष्य देवव्रत अपने समय के बहुत ही विद्वान व शक्तिशाली पुरुष थे। महाभारत के अनुसार हर तरह की शस्त्र विद्या के ज्ञानी और ब्रह्मचारी देवव्रत को किसी भी तरह के युद्ध में हरा पाना असंभव था। उन्हें संभवत: उनके गुरु परशुराम ही हरा सकते थे लेकिन इन दोनों के बीच हुआ युद्ध पूर्ण नहीं हुआ और दो अति शक्तिशाली योद्धाओं के लड़ने से होने वाले नुकसान को आंकते हुए इसे भगवान शिव द्वारा रोक दिया गया। इन्हें अपनी उस भीष्म प्रतिज्ञा के लिये भी सर्वाधिक जाना जाता है जिसके कारण इन्होंने राजा बन सकने के बावजूद आजीवन हस्तिनापुर के सिंहासन के संरक्षक की भूमिका निभाई। इन्होंने आजीवन विवाह नहीं किया व ब्रह्मचारी रहे। इसी प्रतिज्ञा का पालन करते हुए महाभारत में उन्होने कौरवों की तरफ से युद्ध में भाग लिया था। इन्हें इच्छा मृत्यु का वरदा था। यह कौरवों के पहले प्रधान सेनापति थे। जो सर्वाधिक दस दिनो तक कौरवों के प्रधान सेनापति रहे थे। कहा जाता है कि द्रोपदी ने शरसय्या पर लेटे हुए भीष्मपितामह से पूछा की उनकी आंखों के सामने चीर हरण हो रहा था और वे चुप रहे तब भीष्मपितामह ने जवाब दिया कि उस समय मै कौरवों के नमक खाता था इस वजह से मुझे मेरी आँखों के सामने एक स्त्री के चीरहरण का कोई फर्क नही पड़ा,परंतु अब अर्जुन ने बानो की वर्षा करके मेरा कौरवों के नमक ग्रहण से बना रक्त निकाल दिया है, अतः अब मुझे अपने पापों का ज्ञान हो रहा है अतः मुझे क्षमा करें द्रोपदी। महाभारत युद्ध खत्म होने पर इन्होंने गंगा किनारे इच्छा मृत्यु ली। .

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मनुस्मृति

मनुस्मृति हिन्दू धर्म का एक प्राचीन धर्मशास्त्र (स्मृति) है। इसे मानव-धर्म-शास्त्र, मनुसंहिता आदि नामों से भी जाना जाता है। यह उपदेश के रूप में है जो मनु द्वारा ऋषियों को दिया गया। इसके बाद के धर्मग्रन्थकारों ने मनुस्मृति को एक सन्दर्भ के रूप में स्वीकारते हुए इसका अनुसरण किया है। धर्मशास्त्रीय ग्रंथकारों के अतिरिक्त शंकराचार्य, शबरस्वामी जैसे दार्शनिक भी प्रमाणरूपेण इस ग्रंथ को उद्धृत करते हैं। परंपरानुसार यह स्मृति स्वायंभुव मनु द्वारा रचित है, वैवस्वत मनु या प्राचनेस मनु द्वारा नहीं। मनुस्मृति से यह भी पता चलता है कि स्वायंभुव मनु के मूलशास्त्र का आश्रय कर भृगु ने उस स्मृति का उपवृहण किया था, जो प्रचलित मनुस्मृति के नाम से प्रसिद्ध है। इस 'भार्गवीया मनुस्मृति' की तरह 'नारदीया मनुस्मृति' भी प्रचलित है। मनुस्मृति वह धर्मशास्त्र है जिसकी मान्यता जगविख्यात है। न केवल भारत में अपितु विदेश में भी इसके प्रमाणों के आधार पर निर्णय होते रहे हैं और आज भी होते हैं। अतः धर्मशास्त्र के रूप में मनुस्मृति को विश्व की अमूल्य निधि माना जाता है। भारत में वेदों के उपरान्त सर्वाधिक मान्यता और प्रचलन ‘मनुस्मृति’ का ही है। इसमें चारों वर्णों, चारों आश्रमों, सोलह संस्कारों तथा सृष्टि उत्पत्ति के अतिरिक्त राज्य की व्यवस्था, राजा के कर्तव्य, भांति-भांति के विवादों, सेना का प्रबन्ध आदि उन सभी विषयों पर परामर्श दिया गया है जो कि मानव मात्र के जीवन में घटित होने सम्भव है। यह सब धर्म-व्यवस्था वेद पर आधारित है। मनु महाराज के जीवन और उनके रचनाकाल के विषय में इतिहास-पुराण स्पष्ट नहीं हैं। तथापि सभी एक स्वर से स्वीकार करते हैं कि मनु आदिपुरुष थे और उनका यह शास्त्र आदिःशास्त्र है। मनुस्मृति में चार वर्णों का व्याख्यान मिलता है वहीं पर शूद्रों को अति नीच का दर्जा दिया गया और शूद्रों का जीवन नर्क से भी बदतर कर दिया गया मनुस्मृति के आधार पर ही शूद्रों को तरह तरह की यातनाएं मनुवादियों द्वारा दी जाने लगी जो कि इसकी थोड़ी सी झलक फिल्म तीसरी आजादी में भी दिखाई गई है आगे चलकर बाबासाहेब आंबेडकर ने सर्वजन हिताय संविधान का निर्माण किया और मनु स्मृति में आग लगा दी गई जो कि समाज के लिए कल्याणकारी साबित हुई और छुआछूत ऊंच-नीच का आडंबर समाप्त हो गया। .

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महाभारत

महाभारत हिन्दुओं का एक प्रमुख काव्य ग्रंथ है, जो स्मृति वर्ग में आता है। कभी कभी केवल "भारत" कहा जाने वाला यह काव्यग्रंथ भारत का अनुपम धार्मिक, पौराणिक, ऐतिहासिक और दार्शनिक ग्रंथ हैं। विश्व का सबसे लंबा यह साहित्यिक ग्रंथ और महाकाव्य, हिन्दू धर्म के मुख्यतम ग्रंथों में से एक है। इस ग्रन्थ को हिन्दू धर्म में पंचम वेद माना जाता है। यद्यपि इसे साहित्य की सबसे अनुपम कृतियों में से एक माना जाता है, किन्तु आज भी यह ग्रंथ प्रत्येक भारतीय के लिये एक अनुकरणीय स्रोत है। यह कृति प्राचीन भारत के इतिहास की एक गाथा है। इसी में हिन्दू धर्म का पवित्रतम ग्रंथ भगवद्गीता सन्निहित है। पूरे महाभारत में लगभग १,१०,००० श्लोक हैं, जो यूनानी काव्यों इलियड और ओडिसी से परिमाण में दस गुणा अधिक हैं। हिन्दू मान्यताओं, पौराणिक संदर्भो एवं स्वयं महाभारत के अनुसार इस काव्य का रचनाकार वेदव्यास जी को माना जाता है। इस काव्य के रचयिता वेदव्यास जी ने अपने इस अनुपम काव्य में वेदों, वेदांगों और उपनिषदों के गुह्यतम रहस्यों का निरुपण किया हैं। इसके अतिरिक्त इस काव्य में न्याय, शिक्षा, चिकित्सा, ज्योतिष, युद्धनीति, योगशास्त्र, अर्थशास्त्र, वास्तुशास्त्र, शिल्पशास्त्र, कामशास्त्र, खगोलविद्या तथा धर्मशास्त्र का भी विस्तार से वर्णन किया गया हैं। .

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रूसो

महान दार्शनिक '''रूसो''' जीन-जक्क़ुएस रूसो (1712 - 78) की गणना पश्चिम के युगप्रवर्तक विचारकों में है। किंतु अंतर्विरोध तथा विरोधाभासों से पूर्ण होने के कारण उसके दर्शन का स्वरूप विवादास्पद रहा है। अपने युग की उपज होते हुए भी उसने तत्कालीन मान्यताओं का विरोध किया, बद्धिवाद के युग में उसने बुद्धि की निंदा की (विश्वकोश के प्रणेताओं (Encyclopaedists) से उसका विरोध इस बात पर था) और सहज मानवीय भावनाओं को अत्यधिक महत्व दिया। सामाजिक प्रसंविदा (सोशल कंट्रैक्ट) की शब्दावली का अवलंबन करते हुए भी उसने इस सिद्धांत की अंतरात्मा में सर्वथा नवीन अर्थ का सन्निवेश किया। सामाजिक बंधन तथा राजनीतिक दासता की कटु आलोचना करते हुए भी उसने राज्य को नैतिकता के लिए अनिवार्य बताया। आर्थिक असमानता और व्यक्तिगत संपत्ति को अवांछनीय मानते हुए भी रूसो साम्यवादी नहीं था। घोर व्यक्तिवाद से प्रारंभ होकर उसे दर्शन की परिणति समष्टिवाद में होती है। स्वतंत्रता और जनतंत्र का पुजारी होते हुए भी वह राबेसपीयर जैसे निरंकुशतावादियों का आदर्श बन जाता है। .

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शांतिपर्व

शान्ति पर्व में युधिष्ठिर ऋषियों से एवं भीष्म से राजधर्म, न्याय, सुशासन आदि का उपदेश लेते हैं। शान्तिपर्व महाभारत का १२वाँ पर्व है। शान्तिपर्व में धर्म, दर्शन, राजानीति और अध्यात्म ज्ञान का विशद निरूपण किया गया है। इसके अन्तर्गत ३ उपपर्व हैं-.

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सुकरात

सुकरात को सूफियों की भाँति मौलिक शिक्षा और आचार द्वारा उदाहरण देना ही पसंद था। वस्तुत: उसके समसामयिक भी उसे सूफी समझते थे। सूफियों की भाँति साधारण शिक्षा तथा मानव सदाचार पर वह जोर देता था और उन्हीं की तरह पुरानी रूढ़ियों पर प्रहार करता था। वह कहता था, ""सच्चा ज्ञान संभव है बशर्ते उसके लिए ठीक तौर पर प्रयत्न किया जाए; जो बातें हमारी समझ में आती हैं या हमारे सामने आई हैं, उन्हें तत्संबंधी घटनाओं पर हम परखें, इस तरह अनेक परखों के बाद हम एक सचाई पर पहुँच सकते हैं। ज्ञान के समान पवित्रतम कोई वस्तु नहीं हैं।' बुद्ध की भाँति सुकरात ने कोई ग्रंथ नहीं लिखा। बुद्ध के शिष्यों ने उनके जीवनकाल में ही उपदेशों को कंठस्थ करना शुरु किया था जिससे हम उनके उपदेशों को बहुत कुछ सीधे तौर पर जान सकते हैं; किंतु सुकरात के उपदेशों के बारे में यह भी सुविधा नहीं। सुकरात का क्या जीवनदर्शन था यह उसके आचरण से ही मालूम होता है, लेकिन उसकी व्याख्या भिन्न-भिन्न लेखक भिन्न-भिन्न ढंग से करते हैं। कुछ लेखक सुक्रात की प्रसन्नमुखता और मर्यादित जीवनयोपभोग को दिखलाकर कहते हैं कि वह भोगी था। दूसरे लेखक शारीरिक कष्टों की ओर से उसकी बेपर्वाही तथा आवश्यकता पड़ने पर जीवनसुख को भी छोड़ने के लिए तैयार रहने को दिखलाकर उसे सादा जीवन का पक्षपाती बतलाते हैं। सुकरात को हवाई बहस पसंद न थी। वह अथेन्स के बहुत ही गरीब घर में पैदा हुआ था। गंभीर विद्वान् और ख्यातिप्राप्त हो जाने पर भी उसने वैवाहिक जीवन की लालसा नहीं रखी। ज्ञान का संग्रह और प्रसार, ये ही उसके जीवन के मुख्य लक्ष्य थे। उसके अधूरे कार्य को उसके शिष्य अफलातून और अरस्तू ने पूरा किया। इसके दर्शन को दो भागों में बाँटा जा सकता है, पहला सुक्रात का गुरु-शिष्य-यथार्थवाद और दूसरा अरस्तू का प्रयोगवाद। तरुणों को बिगाड़ने, देवनिंदा और नास्तिक होने का झूठा दोष उसपर लगाया गया था और उसके लिए उसे जहर देकर मारने का दंड मिला था। सुकरात ने जहर का प्याला खुशी-खुशी पिया और जान दे दी। उसे कारागार से भाग जाने का आग्रह उसे शिष्यों तथा स्नेहियों ने किया किंतु उसने कहा- भाइयो, तुम्हारे इस प्रस्ताव का मैं आदर करता हूँ कि मैं यहाँ से भाग जाऊँ। प्रत्येक व्यक्ति को जीवन और प्राण के प्रति मोह होता है। भला प्राण देना कौन चाहता है? किंतु यह उन साधारण लोगों के लिए हैं जो लोग इस नश्वर शरीर को ही सब कुछ मानते हैं। आत्मा अमर है फिर इस शरीर से क्या डरना? हमारे शरीर में जो निवास करता है क्या उसका कोई कुछ बिगाड़ सकता है? आत्मा ऐसे शरीर को बार बार धारण करती है अत: इस क्षणिक शरीर की रक्षा के लिए भागना उचित नहीं है। क्या मैंने कोई अपराध किया है? जिन लोगों ने इसे अपराध बताया है उनकी बुद्धि पर अज्ञान का प्रकोप है। मैंने उस समय कहा था-विश्व कभी भी एक ही सिद्धांत की परिधि में नहीं बाँधा जा सकता। मानव मस्तिष्क की अपनी सीमाएँ हैं। विश्व को जानने और समझने के लिए अपने अंतस् के तम को हटा देना चाहिए। मनुष्य यह नश्वर कायामात्र नहीं, वह सजग और चेतन आत्मा में निवास करता है। इसलिए हमें आत्मानुसंधान की ओर ही मुख्य रूप से प्रवृत्त होना चाहिए। यह आवश्यक है कि हम अपने जीवन में सत्य, न्याय और ईमानदारी का अवलंबन करें। हमें यह बात मानकर ही आगे बढ़ना है कि शरीर नश्वर है। अच्छा है, नश्वर शरीर अपनी सीमा समाप्त कर चुका। टहलते-टहलते थक चुका हूँ। अब संसार रूपी रात्रि में लेटकर आराम कर रहा हूँ। सोने के बाद मेरे ऊपर चादर उड़ देना। .

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सोफ़िस्त

आधुनिक प्रचलन में, सोफ़िस्त वह व्यक्ति है, जो दूसरों को अपने मत में करने के लिए युक्तियों, एवं व्याख्याओं का आविष्कार कर सके। किंतु यह "सोफ़िस्त" का मूल अर्थ नहीं है। प्राचीन यूनानी दर्शनकाल में, ज्ञानाश्रयी दार्शनिक ही सोफ़िस्त थे। तब "फ़िलॉसफ़ॉस" का प्रचलन न था। ईसा पूर्व पाँचवीं तथा चौथी शताब्दियों में यूनान के कुछ सीमावर्ती दार्शनिकों ने सांस्कृतिक विचारों के विरुद्ध आंदोलन किया। एथेंस नगर प्राचीन यूनानी संस्कृति का केंद्र था। वहाँ इस आंदोलन की हँसी उड़ाई गई। अफलातून (प्लेटो) के कुछ संवादों के नाम सोफ़िस्त कहे जानेवाले दार्शनिकों के नामों पर हैं। उनमें सुकरात और प्रमुख सोफ़िस्तों के बीच विवाद प्रस्तुत करते हुए अंत में सोफ़िस्तों को निरुतर करा दिया गया है। सुकरात के आत्मत्याग से यूनान में उसका सम्मान इतना अधिक हो गया था कि सुकरात को सोफिस्त आंदोलन का विरोधी समझकर, परंपरा ने "सोफ़िस्त" शब्द अपमानसूचक मान लिया। .

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जार्ज विल्हेम फ्रेड्रिक हेगेल

जार्ज विलहेम फ्रेड्रिक हेगेल (1770-1831) सुप्रसिद्ध दार्शनिक थे। वे कई वर्ष तक बर्लिन विश्वविद्यालय में प्राध्यापक रहे और उनका देहावसान भी उसी नगर में हुआ। .

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इन्द्र

इन्द्र (या इंद्र) हिन्दू धर्म में सभी देवताओं के राजा का सबसे उच्च पद था जिसकी एक अलग ही चुनाव-पद्धति थी। इस चुनाव पद्धति के विषय में स्पष्ट वर्णन उपलब्ध नहीं है। वैदिक साहित्य में इन्द्र को सर्वोच्च महत्ता प्राप्त है लेकिन पौराणिक साहित्य में इनकी महत्ता निरन्तर क्षीण होती गयी और त्रिदेवों की श्रेष्ठता स्थापित हो गयी। .

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अराजकता

अराजकता (anarchy) एक आदर्श है जिसका सिद्धांत अराजकतावाद (Anarchism) है। अराजकतावाद राज्य को समाप्त कर व्यक्तियों, समूहों और राष्ट्रों के बीच स्वतंत्र और सहज सहयोग द्वारा समस्त मानवीय संबंधों में न्याय स्थापित करने के प्रयत्नों का सिद्धांत है। अराजकतावाद के अनुसार कार्यस्वातंत्र्य जीवन का गत्यात्मक नियम है और इसीलिए उसका मंतव्य है कि सामाजिक संगठन व्यक्तियों के कार्य स्वातंत्र्य के लिए अधिकतम अवसर प्रदान करे। मानवीय प्रकृति में आत्मनियमन की ऐसी शक्ति है जो बाह्य नियंत्रण से मुक्त रहने पर सहज ही सुव्यवस्था स्थापित कर सकती है। मनुष्य पर अनुशासन का आरोपण ही सामाजिक और नैतिक बुराइयों का जनक है। इसलिए हिंसा पर आश्रित राज्य तथा उसकी अन्य संस्थाएँ इन बुराइयों को दूर नहीं कर सकतीं। मनुष्य स्वभावत: अच्छा है, किंतु ये संस्थाएँ मनुष्य को भ्रष्ट कर देती हैं। बाह्य नियंत्रण से मुक्त, वास्तविक स्वतंत्रता का सहयोगी सामूहिक जीवन प्रमुख रीति से छोटे समूहों से संभव है; इसलिए सामाजिक संगठन का आदर्श संघवादी है। .

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अर्थशास्त्र (ग्रन्थ)

अर्थशास्त्र, कौटिल्य या चाणक्य (चौथी शती ईसापूर्व) द्वारा रचित संस्कृत का एक ग्रन्थ है। इसमें राज्यव्यवस्था, कृषि, न्याय एवं राजनीति आदि के विभिन्न पहलुओं पर विचार किया गया है। अपने तरह का (राज्य-प्रबन्धन विषयक) यह प्राचीनतम ग्रन्थ है। इसकी शैली उपदेशात्मक और सलाहात्मक (instructional) है। यह प्राचीन भारतीय राजनीति का प्रसिद्ध ग्रंथ है। इसके रचनाकार का व्यक्तिनाम विष्णुगुप्त, गोत्रनाम कौटिल्य (कुटिल से व्युत्पत्र) और स्थानीय नाम चाणक्य (पिता का नाम चणक होने से) था। अर्थशास्त्र (15.431) में लेखक का स्पष्ट कथन है: चाणक्य सम्राट् चंद्रगुप्त मौर्य (321-298 ई.पू.) के महामंत्री थे। उन्होंने चंद्रगुप्त के प्रशासकीय उपयोग के लिए इस ग्रंथ की रचना की थी। यह मुख्यत: सूत्रशैली में लिखा हुआ है और संस्कृत के सूत्रसाहित्य के काल और परंपरा में रखा जा सकता है। यह शास्त्र अनावश्यक विस्तार से रहित, समझने और ग्रहण करने में सरल एवं कौटिल्य द्वारा उन शब्दों में रचा गया है जिनका अर्थ सुनिश्चित हो चुका है। (अर्थशास्त्र, 15.6)' अर्थशास्त्र में समसामयिक राजनीति, अर्थनीति, विधि, समाजनीति, तथा धर्मादि पर पर्याप्त प्रकाश पड़ता है। इस विषय के जितने ग्रंथ अभी तक उपलब्ध हैं उनमें से वास्तविक जीवन का चित्रण करने के कारण यह सबसे अधिक मूल्यवान् है। इस शास्त्र के प्रकाश में न केवल धर्म, अर्थ और काम का प्रणयन और पालन होता है अपितु अधर्म, अनर्थ तथा अवांछनीय का शमन भी होता है (अर्थशास्त्र, 15.431)। इस ग्रंथ की महत्ता को देखते हुए कई विद्वानों ने इसके पाठ, भाषांतर, व्याख्या और विवेचन पर बड़े परिश्रम के साथ बहुमूल्य कार्य किया है। शाम शास्त्री और गणपति शास्त्री का उल्लेख किया जा चुका है। इनके अतिरिक्त यूरोपीय विद्वानों में हर्मान जाकोबी (ऑन दि अथॉरिटी ऑव कौटिलीय, इं.ए., 1918), ए. हिलेब्रांड्ट, डॉ॰ जॉली, प्रो॰ए.बी.

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