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सांख्य दर्शन

सूची सांख्य दर्शन

भारतीय दर्शन के छः प्रकारों में से सांख्य भी एक है जो प्राचीनकाल में अत्यंत लोकप्रिय तथा प्रथित हुआ था। यह अद्वैत वेदान्त से सर्वथा विपरीत मान्यताएँ रखने वाला दर्शन है। इसकी स्थापना करने वाले मूल व्यक्ति कपिल कहे जाते हैं। 'सांख्य' का शाब्दिक अर्थ है - 'संख्या सम्बंधी' या विश्लेषण। इसकी सबसे प्रमुख धारणा सृष्टि के प्रकृति-पुरुष से बनी होने की है, यहाँ प्रकृति (यानि पंचमहाभूतों से बनी) जड़ है और पुरुष (यानि जीवात्मा) चेतन। योग शास्त्रों के ऊर्जा स्रोत (ईडा-पिंगला), शाक्तों के शिव-शक्ति के सिद्धांत इसके समानान्तर दीखते हैं। भारतीय संस्कृति में किसी समय सांख्य दर्शन का अत्यंत ऊँचा स्थान था। देश के उदात्त मस्तिष्क सांख्य की विचार पद्धति से सोचते थे। महाभारतकार ने यहाँ तक कहा है कि ज्ञानं च लोके यदिहास्ति किंचित् सांख्यागतं तच्च महन्महात्मन् (शांति पर्व 301.109)। वस्तुत: महाभारत में दार्शनिक विचारों की जो पृष्ठभूमि है, उसमें सांख्यशास्त्र का महत्वपूर्ण स्थान है। शान्ति पर्व के कई स्थलों पर सांख्य दर्शन के विचारों का बड़े काव्यमय और रोचक ढंग से उल्लेख किया गया है। सांख्य दर्शन का प्रभाव गीता में प्रतिपादित दार्शनिक पृष्ठभूमि पर पर्याप्त रूप से विद्यमान है। इसकी लोकप्रियता का कारण एक यह अवश्य रहा है कि इस दर्शन ने जीवन में दिखाई पड़ने वाले वैषम्य का समाधान त्रिगुणात्मक प्रकृति की सर्वकारण रूप में प्रतिष्ठा करके बड़े सुंदर ढंग से किया। सांख्याचार्यों के इस प्रकृति-कारण-वाद का महान गुण यह है कि पृथक्-पृथक् धर्म वाले सत्, रजस् तथा तमस् तत्वों के आधार पर जगत् की विषमता का किया गया समाधान बड़ा बुद्धिगम्य प्रतीत होता है। किसी लौकिक समस्या को ईश्वर का नियम न मानकर इन प्रकृतियों के तालमेल बिगड़ने और जीवों के पुरुषार्थ न करने को कारण बताया गया है। यानि, सांख्य दर्शन की सबसे बड़ी महानता यह है कि इसमें सृष्टि की उत्पत्ति भगवान के द्वारा नहीं मानी गयी है बल्कि इसे एक विकासात्मक प्रक्रिया के रूप में समझा गया है और माना गया है कि सृष्टि अनेक अनेक अवस्थाओं (phases) से होकर गुजरने के बाद अपने वर्तमान स्वरूप को प्राप्त हुई है। कपिलाचार्य को कई अनीश्वरवादी मानते हैं पर भग्वदगीता और सत्यार्थप्रकाश जैसे ग्रंथों में इस धारणा का निषेध किया गया है। .

39 संबंधों: तमस्, दर्शनशास्त्र, न्याय, पञ्चतत्त्व, पिंगला, पुराण, पुरुष, प्रकृति, ब्रह्मसूत्र, बौद्ध धर्म, भारत की संस्कृति, महाभारत, योग, रामायण, रजस्, शांतिपर्व, शाक्त, शंकराचार्य, श्रीमद्भगवद्गीता, शून्य, शून्यता, सत्, सत्यार्थ प्रकाश, सांख्यसूत्र, सांख्यकारिका, स्मृति, सृष्टि, सूत्र, ईड़ा, ईश्वरकृष्ण, विज्ञानभिक्षु, वेद, वेदान्त दर्शन, वेदव्यास, कपिल, कैवल्य, अद्वैत वेदान्त, अर्धनारीश्वर, उदयवीर शास्त्री

तमस्

सांख्य दर्शन में, प्रकृति के तीन गुण बताए गए हैं - सत्, रजस् और तमस्। तमस् गुण के प्रधान होने पर व्यक्ति को सत्य-असत्य का कुछ पता नहीं चलता, यानि वो अज्ञान के अंधकार (तम) में रहता है। यानि कौन सी बात उसके लिए अच्छी है वा कौन सी बुरी ये यथार्थ पता नहीं चलता और इस स्वभाव के व्यक्ति को ये जानने की जिज्ञासा भी नहीं होती। .

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दर्शनशास्त्र

दर्शनशास्त्र वह ज्ञान है जो परम् सत्य और प्रकृति के सिद्धांतों और उनके कारणों की विवेचना करता है। दर्शन यथार्थ की परख के लिये एक दृष्टिकोण है। दार्शनिक चिन्तन मूलतः जीवन की अर्थवत्ता की खोज का पर्याय है। वस्तुतः दर्शनशास्त्र स्वत्व, अर्थात प्रकृति तथा समाज और मानव चिंतन तथा संज्ञान की प्रक्रिया के सामान्य नियमों का विज्ञान है। दर्शनशास्त्र सामाजिक चेतना के रूपों में से एक है। दर्शन उस विद्या का नाम है जो सत्य एवं ज्ञान की खोज करता है। व्यापक अर्थ में दर्शन, तर्कपूर्ण, विधिपूर्वक एवं क्रमबद्ध विचार की कला है। इसका जन्म अनुभव एवं परिस्थिति के अनुसार होता है। यही कारण है कि संसार के भिन्न-भिन्न व्यक्तियों ने समय-समय पर अपने-अपने अनुभवों एवं परिस्थितियों के अनुसार भिन्न-भिन्न प्रकार के जीवन-दर्शन को अपनाया। भारतीय दर्शन का इतिहास अत्यन्त पुराना है किन्तु फिलॉसफ़ी (Philosophy) के अर्थों में दर्शनशास्त्र पद का प्रयोग सर्वप्रथम पाइथागोरस ने किया था। विशिष्ट अनुशासन और विज्ञान के रूप में दर्शन को प्लेटो ने विकसित किया था। उसकी उत्पत्ति दास-स्वामी समाज में एक ऐसे विज्ञान के रूप में हुई जिसने वस्तुगत जगत तथा स्वयं अपने विषय में मनुष्य के ज्ञान के सकल योग को ऐक्यबद्ध किया था। यह मानव इतिहास के आरंभिक सोपानों में ज्ञान के विकास के निम्न स्तर के कारण सर्वथा स्वाभाविक था। सामाजिक उत्पादन के विकास और वैज्ञानिक ज्ञान के संचय की प्रक्रिया में भिन्न भिन्न विज्ञान दर्शनशास्त्र से पृथक होते गये और दर्शनशास्त्र एक स्वतंत्र विज्ञान के रूप में विकसित होने लगा। जगत के विषय में सामान्य दृष्टिकोण का विस्तार करने तथा सामान्य आधारों व नियमों का करने, यथार्थ के विषय में चिंतन की तर्कबुद्धिपरक, तर्क तथा संज्ञान के सिद्धांत विकसित करने की आवश्यकता से दर्शनशास्त्र का एक विशिष्ट अनुशासन के रूप में जन्म हुआ। पृथक विज्ञान के रूप में दर्शन का आधारभूत प्रश्न स्वत्व के साथ चिंतन के, भूतद्रव्य के साथ चेतना के संबंध की समस्या है। .

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न्याय

यह तय करना मानव-जाति के लिए हमेशा से एक समस्या रहा है कि न्याय का ठीक-ठीक अर्थ क्या होना चाहिए और लगभग सदैव उसकी व्याख्या समय के संदर्भ में की गई है। मोटे तौर पर उसका अर्थ यह रहा है कि अच्छा क्या है इसी के अनुसार इससे संबंधित मान्यता में फेर-बदल होता रहा है। जैसा कि डी.डी.

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पञ्चतत्त्व

पञ्चतत्व से निमन्लिखित का बोध हो सकता है-.

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पिंगला

पिंगला, योग शास्त्रों के मुताबिक तीन प्रमुख नाड़ियों में से एक है। इससे शरीर में प्राण शक्ति का वहन होता है जिसके फलस्वरूप शरीर में ताप बढ़ता है। इससे शरीर को श्रम, तनाव और थकावट सहने की क्षमता प्रदान करता है। यह मनुष्य को बहिर्मुखी बनाता है। Category:योग.

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पुराण

पुराण, हिंदुओं के धर्म संबंधी आख्यान ग्रंथ हैं। जिनमें सृष्टि, लय, प्राचीन ऋषियों, मुनियों और राजाओं के वृत्तात आदि हैं। ये वैदिक काल के बहुत्का बाद के ग्रन्थ हैं, जो स्मृति विभाग में आते हैं। भारतीय जीवन-धारा में जिन ग्रन्थों का महत्वपूर्ण स्थान है उनमें पुराण भक्ति-ग्रंथों के रूप में बहुत महत्वपूर्ण माने जाते हैं। अठारह पुराणों में अलग-अलग देवी-देवताओं को केन्द्र मानकर पाप और पुण्य, धर्म और अधर्म, कर्म और अकर्म की गाथाएँ कही गई हैं। कुछ पुराणों में सृष्टि के आरम्भ से अन्त तक का विवरण किया गया है। 'पुराण' का शाब्दिक अर्थ है, 'प्राचीन' या 'पुराना'।Merriam-Webster's Encyclopedia of Literature (1995 Edition), Article on Puranas,, page 915 पुराणों की रचना मुख्यतः संस्कृत में हुई है किन्तु कुछ पुराण क्षेत्रीय भाषाओं में भी रचे गए हैं।Gregory Bailey (2003), The Study of Hinduism (Editor: Arvind Sharma), The University of South Carolina Press,, page 139 हिन्दू और जैन दोनों ही धर्मों के वाङ्मय में पुराण मिलते हैं। John Cort (1993), Purana Perennis: Reciprocity and Transformation in Hindu and Jaina Texts (Editor: Wendy Doniger), State University of New York Press,, pages 185-204 पुराणों में वर्णित विषयों की कोई सीमा नहीं है। इसमें ब्रह्माण्डविद्या, देवी-देवताओं, राजाओं, नायकों, ऋषि-मुनियों की वंशावली, लोककथाएं, तीर्थयात्रा, मन्दिर, चिकित्सा, खगोल शास्त्र, व्याकरण, खनिज विज्ञान, हास्य, प्रेमकथाओं के साथ-साथ धर्मशास्त्र और दर्शन का भी वर्णन है। विभिन्न पुराणों की विषय-वस्तु में बहुत अधिक असमानता है। इतना ही नहीं, एक ही पुराण के कई-कई पाण्डुलिपियाँ प्राप्त हुई हैं जो परस्पर भिन्न-भिन्न हैं। हिन्दू पुराणों के रचनाकार अज्ञात हैं और ऐसा लगता है कि कई रचनाकारों ने कई शताब्दियों में इनकी रचना की है। इसके विपरीत जैन पुराण जैन पुराणों का रचनाकाल और रचनाकारों के नाम बताए जा सकते हैं। कर्मकांड (वेद) से ज्ञान (उपनिषद्) की ओर आते हुए भारतीय मानस में पुराणों के माध्यम से भक्ति की अविरल धारा प्रवाहित हुई है। विकास की इसी प्रक्रिया में बहुदेववाद और निर्गुण ब्रह्म की स्वरूपात्मक व्याख्या से धीरे-धीरे मानस अवतारवाद या सगुण भक्ति की ओर प्रेरित हुआ। पुराणों में वैदिक काल से चले आते हुए सृष्टि आदि संबंधी विचारों, प्राचीन राजाओं और ऋषियों के परंपरागत वृत्तांतों तथा कहानियों आदि के संग्रह के साथ साथ कल्पित कथाओं की विचित्रता और रोचक वर्णनों द्वारा सांप्रदायिक या साधारण उपदेश भी मिलते हैं। पुराण उस प्रकार प्रमाण ग्रंथ नहीं हैं जिस प्रकार श्रुति, स्मृति आदि हैं। पुराणों में विष्णु, वायु, मत्स्य और भागवत में ऐतिहासिक वृत्त— राजाओं की वंशावली आदि के रूप में बहुत कुछ मिलते हैं। ये वंशावलियाँ यद्यपि बहुत संक्षिप्त हैं और इनमें परस्पर कहीं कहीं विरोध भी हैं पर हैं बडे़ काम की। पुराणों की ओर ऐतिहासिकों ने इधर विशेष रूप से ध्यान दिया है और वे इन वंशावलियों की छानबीन में लगे हैं। .

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पुरुष

पुरुष शब्द का प्रयोग वैदिक साहित्य में कई जगह मिलता है। जीवात्मा (आत्मा) को कपिल मुनि कृत सांख्य शास्त्र में पुरुष कहा गया है - ध्यान दीजिये इसमें यह लिंग द्योतक न होकर आत्मा द्योतक है। वेदों में नर के लिए पुम् (पुंस, और पुमान) मूलों का इस्तेमाल मिलता है। इसके अलावे बृहदारण्यक उपनिषत में ईश्वर के लिए पुरुष शब्द का इस्तेमाल मिलता है। .

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प्रकृति

प्रकृति, व्यापकतम अर्थ में, प्राकृतिक, भौतिक या पदार्थिक जगत या ब्रह्माण्ड हैं। "प्रकृति" का सन्दर्भ भौतिक जगत के दृग्विषय से हो सकता हैं, और सामन्यतः जीवन से भी हो सकता हैं। प्रकृति का अध्ययन, विज्ञान के अध्ययन का बड़ा हिस्सा हैं। यद्यपि मानव प्रकृति का हिस्सा हैं, मानवी क्रिया को प्रायः अन्य प्राकृतिक दृग्विषय से अलग श्रेणी के रूप में समझा जाता हैं। .

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ब्रह्मसूत्र

ब्रहमसूत्र, हिन्दुओं के छः दर्शनों में से एक है। इसके रचयिता बादरायण हैं। इसे वेदान्त सूत्र, उत्तर-मीमांसा सूत्र, शारीरिक सूत्र और भिक्षु सूत्र आदि के नाम से भी जाना जाता है। इस पर अनेक भाष्य भी लिखे गये हैं। वेदान्त के तीन मुख्य स्तम्भ माने जाते हैं - उपनिषद्, भगवदगीता एवं ब्रह्मसूत्र। इन तीनों को प्रस्थान त्रयी कहा जाता है। इसमें उपनिषदों को श्रुति प्रस्थान, गीता को स्मृति प्रस्थान और ब्रह्मसूत्रों को न्याय प्रस्थान कहते हैं। ब्रह्म सूत्रों को न्याय प्रस्थान कहने का अर्थ है कि ये वेदान्त को पूर्णतः तर्कपूर्ण ढंग से प्रस्तुत करता है। (न्याय .

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बौद्ध धर्म

बौद्ध धर्म भारत की श्रमण परम्परा से निकला धर्म और महान दर्शन है। इसा पूर्व 6 वी शताब्धी में बौद्ध धर्म की स्थापना हुई है। बौद्ध धर्म के संस्थापक गौतम बुद्ध है। भगवान बुद्ध का जन्म 563 ईसा पूर्व में लुंबिनी, नेपाल और महापरिनिर्वाण 483 ईसा पूर्व कुशीनगर, भारत में हुआ था। उनके महापरिनिर्वाण के अगले पाँच शताब्दियों में, बौद्ध धर्म पूरे भारतीय उपमहाद्वीप में फैला और अगले दो हजार वर्षों में मध्य, पूर्वी और दक्षिण-पूर्वी जम्बू महाद्वीप में भी फैल गया। आज, हालाँकि बौद्ध धर्म में चार प्रमुख सम्प्रदाय हैं: हीनयान/ थेरवाद, महायान, वज्रयान और नवयान, परन्तु बौद्ध धर्म एक ही है किन्तु सभी बौद्ध सम्प्रदाय बुद्ध के सिद्धान्त ही मानते है। बौद्ध धर्म दुनिया का चौथा सबसे बड़ा धर्म है।आज पूरे विश्व में लगभग ५४ करोड़ लोग बौद्ध धर्म के अनुयायी है, जो दुनिया की आबादी का ७वाँ हिस्सा है। आज चीन, जापान, वियतनाम, थाईलैण्ड, म्यान्मार, भूटान, श्रीलंका, कम्बोडिया, मंगोलिया, तिब्बत, लाओस, हांगकांग, ताइवान, मकाउ, सिंगापुर, दक्षिण कोरिया एवं उत्तर कोरिया समेत कुल 18 देशों में बौद्ध धर्म 'प्रमुख धर्म' धर्म है। भारत, नेपाल, अमेरिका, ऑस्ट्रेलिया, इंडोनेशिया, रूस, ब्रुनेई, मलेशिया आदि देशों में भी लाखों और करोडों बौद्ध हैं। .

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भारत की संस्कृति

कृष्णा के रूप में नृत्य करते है भारत उपमहाद्वीप की क्षेत्रीय सांस्कृतिक सीमाओं और क्षेत्रों की स्थिरता और ऐतिहासिक स्थायित्व को प्रदर्शित करता हुआ मानचित्र भारत की संस्कृति बहुआयामी है जिसमें भारत का महान इतिहास, विलक्षण भूगोल और सिन्धु घाटी की सभ्यता के दौरान बनी और आगे चलकर वैदिक युग में विकसित हुई, बौद्ध धर्म एवं स्वर्ण युग की शुरुआत और उसके अस्तगमन के साथ फली-फूली अपनी खुद की प्राचीन विरासत शामिल हैं। इसके साथ ही पड़ोसी देशों के रिवाज़, परम्पराओं और विचारों का भी इसमें समावेश है। पिछली पाँच सहस्राब्दियों से अधिक समय से भारत के रीति-रिवाज़, भाषाएँ, प्रथाएँ और परंपराएँ इसके एक-दूसरे से परस्पर संबंधों में महान विविधताओं का एक अद्वितीय उदाहरण देती हैं। भारत कई धार्मिक प्रणालियों, जैसे कि हिन्दू धर्म, जैन धर्म, बौद्ध धर्म और सिख धर्म जैसे धर्मों का जनक है। इस मिश्रण से भारत में उत्पन्न हुए विभिन्न धर्म और परम्पराओं ने विश्व के अलग-अलग हिस्सों को भी बहुत प्रभावित किया है। .

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महाभारत

महाभारत हिन्दुओं का एक प्रमुख काव्य ग्रंथ है, जो स्मृति वर्ग में आता है। कभी कभी केवल "भारत" कहा जाने वाला यह काव्यग्रंथ भारत का अनुपम धार्मिक, पौराणिक, ऐतिहासिक और दार्शनिक ग्रंथ हैं। विश्व का सबसे लंबा यह साहित्यिक ग्रंथ और महाकाव्य, हिन्दू धर्म के मुख्यतम ग्रंथों में से एक है। इस ग्रन्थ को हिन्दू धर्म में पंचम वेद माना जाता है। यद्यपि इसे साहित्य की सबसे अनुपम कृतियों में से एक माना जाता है, किन्तु आज भी यह ग्रंथ प्रत्येक भारतीय के लिये एक अनुकरणीय स्रोत है। यह कृति प्राचीन भारत के इतिहास की एक गाथा है। इसी में हिन्दू धर्म का पवित्रतम ग्रंथ भगवद्गीता सन्निहित है। पूरे महाभारत में लगभग १,१०,००० श्लोक हैं, जो यूनानी काव्यों इलियड और ओडिसी से परिमाण में दस गुणा अधिक हैं। हिन्दू मान्यताओं, पौराणिक संदर्भो एवं स्वयं महाभारत के अनुसार इस काव्य का रचनाकार वेदव्यास जी को माना जाता है। इस काव्य के रचयिता वेदव्यास जी ने अपने इस अनुपम काव्य में वेदों, वेदांगों और उपनिषदों के गुह्यतम रहस्यों का निरुपण किया हैं। इसके अतिरिक्त इस काव्य में न्याय, शिक्षा, चिकित्सा, ज्योतिष, युद्धनीति, योगशास्त्र, अर्थशास्त्र, वास्तुशास्त्र, शिल्पशास्त्र, कामशास्त्र, खगोलविद्या तथा धर्मशास्त्र का भी विस्तार से वर्णन किया गया हैं। .

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योग

पद्मासन मुद्रा में यौगिक ध्यानस्थ शिव-मूर्ति योग भारत और नेपाल में एक आध्यात्मिक प्रकिया को कहते हैं जिसमें शरीर, मन और आत्मा को एक साथ लाने (योग) का काम होता है। यह शब्द, प्रक्रिया और धारणा बौद्ध धर्म,जैन धर्म और हिंदू धर्म में ध्यान प्रक्रिया से सम्बंधित है। योग शब्द भारत से बौद्ध धर्म के साथ चीन, जापान, तिब्बत, दक्षिण पूर्व एशिया और श्री लंका में भी फैल गया है और इस समय सारे सभ्य जगत्‌ में लोग इससे परिचित हैं। इतनी प्रसिद्धि के बाद पहली बार ११ दिसंबर २०१४ को संयुक्त राष्ट्र महासभा ने प्रत्येक वर्ष २१ जून को विश्व योग दिवस के रूप में मान्यता दी है। भगवद्गीता प्रतिष्ठित ग्रंथ माना जाता है। उसमें योग शब्द का कई बार प्रयोग हुआ है, कभी अकेले और कभी सविशेषण, जैसे बुद्धियोग, संन्यासयोग, कर्मयोग। वेदोत्तर काल में भक्तियोग और हठयोग नाम भी प्रचलित हो गए हैं पतंजलि योगदर्शन में क्रियायोग शब्द देखने में आता है। पाशुपत योग और माहेश्वर योग जैसे शब्दों के भी प्रसंग मिलते है। इन सब स्थलों में योग शब्द के जो अर्थ हैं वह एक दूसरे के विरोधी हैं परंतु इस प्रकार के विभिन्न प्रयोगों को देखने से यह तो स्पष्ट हो जाता है, कि योग की परिभाषा करना कठिन कार्य है। परिभाषा ऐसी होनी चाहिए जो अव्याप्ति और अतिव्याप्ति दोषों से मुक्त हो, योग शब्द के वाच्यार्थ का ऐसा लक्षण बतला सके जो प्रत्येक प्रसंग के लिये उपयुक्त हो और योग के सिवाय किसी अन्य वस्तु के लिये उपयुक्त न हो। .

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रामायण

रामायण आदि कवि वाल्मीकि द्वारा लिखा गया संस्कृत का एक अनुपम महाकाव्य है। इसके २४,००० श्लोक हैं। यह हिन्दू स्मृति का वह अंग हैं जिसके माध्यम से रघुवंश के राजा राम की गाथा कही गयी। इसे आदिकाव्य तथा इसके रचयिता महर्षि वाल्मीकि को 'आदिकवि' भी कहा जाता है। रामायण के सात अध्याय हैं जो काण्ड के नाम से जाने जाते हैं। .

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रजस्

सांख्य दर्शन में सत्त्व, रजस् और तमस - ये तीन गुण बताये गये हैं। इनमें रजस् मध्यम स्वभाव है जिसके प्रधान होने पर व्यक्ति यथार्थ जानता तो है पर लौकिक सुखों की इच्छा के कारण उपयुक्त समय उपयुक्त कार्य नहीं कर पाता है। उदाहरणार्थ किसी व्यक्ति को पता हो कि उसके बॉस ने किसी के साथ अन्याय किया हो लेकिन अपनी पदोन्नति के लोभ में वो उसकी आलोचना या अपनी नाख़ुशी नहीं जताता है। इमके बारे में गीता सहित कई ग्रंथों में बताया गया है। .

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शांतिपर्व

शान्ति पर्व में युधिष्ठिर ऋषियों से एवं भीष्म से राजधर्म, न्याय, सुशासन आदि का उपदेश लेते हैं। शान्तिपर्व महाभारत का १२वाँ पर्व है। शान्तिपर्व में धर्म, दर्शन, राजानीति और अध्यात्म ज्ञान का विशद निरूपण किया गया है। इसके अन्तर्गत ३ उपपर्व हैं-.

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शाक्त

महिषासुरमर्दिनी देवी दुर्गा शाक्त सम्प्रदाय' हिन्दू धर्म के तीन प्रमुख सम्प्रदायों में से एक है। इस सम्प्रदाय में सर्वशक्तिमान को देवी (पुरुष नहीं, स्त्री) माना जाता है। कई देवियों की मान्यता है जो सभी एक ही देवी के विभिन्न रूप हैं। शाक्त मत के अन्तर्गत भी कई परम्पराएँ मिलतीं हैं जिसमें लक्ष्मी से लेकर भयावह काली तक हैं। कुछ शाक्त सम्प्रदाय अपनी देवी का सम्बन्ध शिव या विष्णु से बताते हैं। हिन्दुओं के श्रुति तथा स्मृति ग्रन्थ, शाक्त परम्परा का प्रधान ऐतिहासिक आधार बनाते हुए दिखते हैं। इसके अलावा शाक्त लोग देवीमाहात्म्य, देवीभागवत पुराण तथा शाक्त उपनिषदों (जैसे, देवी उपनिषद) पर आस्था रखते हैं। शाक्त अर्थात 'भगवती शक्ति की उपासना'। शाक्त धर्म शक्ति की साधना का विज्ञान है। इसके मतावलंबी शाक्त धर्म को भी प्राचीन वैदिक धर्म के बराबर ही पुराना मानते हैं। यह बात उल्लेखनीय है कि इस धर्म का विकास वैदिक धर्म के साथ ही साथ या सनातन धर्म में इसे समावेशित करने की ज़रूरत के साथ ही हुआ। यह हिन्दू धर्म में पूजा का एक प्रमुख स्वरूप है, जिसे अब 'हिन्दू धर्म' कहा जाता है, उसे तीन अंतःप्रवाहित, परस्परव्यापी धाराओं में विभाजित किया जा सकता है। वैष्णववाद, भगवान विष्णु की उपासना; शैववाद, भगवान शिव की पूजा; तथा शाक्तवाद, देवी के शक्ति रूप की उपासना। इस प्रकार शाक्तवाद दक्षिण एशिया में विभिन्न देवी परम्पराओं को नामित करने वाला आम शब्द है, जिसका सामान्य केन्द्र बिन्दु देवियों की पूजा है। 'शक्ति की पूजा' शक्ति के अनुयायियों को अक्सर 'शाक्त' कहा जाता है। शाक्त न केवल शक्ति की पूजा करते हैं, बल्कि उसके शक्ति–आविर्भाव को मानव शरीर एवं जीवित ब्रह्माण्ड की शक्ति या ऊर्जा में संवर्धित, नियंत्रित एवं रूपान्तरित करने का प्रयास भी करते हैं। विशेष रूप से माना जाता है कि शक्ति, कुंडलिनी के रूप में मानव शरीर के गुदा आधार तक स्थित होती है। जटिल ध्यान एवं यौन–यौगिक अनुष्ठानों के ज़रिये यह कुंडलिनी शक्ति जागृत की जा सकती है। इस अवस्था में यह सूक्ष्म शरीर की सुषुम्ना से ऊपर की ओर उठती है। मार्ग में कई चक्रों को भेदती हुई, जब तक सिर के शीर्ष में अन्तिम चक्र में प्रवेश नहीं करती और वहाँ पर अपने पति-प्रियतम शिव के साथ हर्षोन्मादित होकर नहीं मिलती। भगवती एवं भगवान के पौराणिक संयोजन का अनुभव हर्षोन्मादी–रहस्यात्मक समाधि के रूप में मनों–दैहिक रूप से किया जाता है, जिसका विस्फोटी परमानंद कहा जाता है कि कपाल क्षेत्र से उमड़कर हर्षोन्माद एवं गहनानंद की बाढ़ के रूप में नीचे की ओर पूरे शरीर में बहता है। 'मान्यता' हिन्दुओं के शाक्त सम्प्रदाय में भगवती दुर्गा को ही दुनिया की पराशक्ति और सर्वोच्च देवता माना जाता है यह पुराण वस्तुत: 'दुर्गा चरित्र' एवं 'दुर्गा सप्तशती' के वर्णन के लिए प्रसिद्ध है। इसीलिए इसे शाक्त सम्प्रदाय का पुराण भी कहा जाता है। शास्त्रों में कहा गया है- 'मातर: सर्वभूतानां गाव:' यानी गाय समस्त प्राणियों की माता है। इसी कारण आर्य संस्कृति में पनपे शैव, शाक्त, वैष्णव, गाणपत्य, जैन, बौद्ध, सिक्ख आदि सभी धर्म-संप्रदायों में उपासना एवं कर्मकांड की पद्धतियों में भिन्नता होने पर भी वे सब गौ के प्रति आदर भाव रखते हैं। हिन्दू धर्म के अनेक सम्प्रदायों में विभिन्न प्रकार के तिलक, चन्दन, हल्दी और केसर युक्त सुगन्धित पदार्थों का प्रयोग करके बनाया जाता है। वैष्णव गोलाकार बिन्दी, शाक्त तिलक और शैव त्रिपुण्ड्र से अपना मस्तक सुशोभित करते हैं। 'धर्म ग्रंथ' शाक्त सम्प्रदाय में देवी दुर्गा के संबंध में 'श्रीदुर्गा भागवत पुराण' एक प्रमुख ग्रंथ है, जिसमें 108 देवी पीठों का वर्णन किया गया है। उनमें से भी 51-52 शक्ति पीठों का बहुत ही महत्त्वपूर्ण स्थान है। इसी में दुर्गा सप्तशति भी है। 'दर्शन' शाक्तों का यह मानना है कि दुनिया की सर्वोच्च शक्ति स्त्रेण है। इसीलिए वे देवी दुर्गा को ही ईश्वर रूप में पूजते हैं। दुनिया के सभी धर्मों में ईश्वर की जो कल्पना की गई है, वह पुरुष के समान की गई है। अर्थात ईश्वर पुरुष जैसा हो सकता है, किंतु शाक्त धर्म दुनिया का एकमात्र ऐसा धर्म है, जो सृष्टि रचनाकार को जननी या स्त्रेण मानता है। सही मायने में यही एकमात्र धर्म स्त्रियों का धर्म है। शिव तो शव है, शक्ति परम प्रकाश है। हालाँकि शाक्त दर्शन की सांख्य समान ही है। 'प्राचीनता' सिंधु घाटी सभ्यता में भी मातृदेवी की पूजा के प्रमाण मिलते हैं। शाक्त सम्प्रदाय प्राचीन सम्प्रदाय है। गुप्त काल में यह उत्तर-पूर्वी भारत, कम्बोडिया, जावा, बोर्निया और मलाया प्राय:द्वीपों के देशों में लोकप्रिय था। बौद्ध धर्म के प्रचलन के बाद इसका प्रभाव कम हुआ। हिन्दू आस्था का प्रतिबिम्ब' सैद्धांतिक या लोकप्रिय धार्मिक प्रवर्ग के रूप में शाक्तवाद इस हिन्दू आस्था का प्रतिबिम्ब है कि ग्रामीण एवं संस्कृत की किंवदन्तियों की असंख्य देवियाँ एक महादेवी की अभिव्यक्तियाँ हैं। आमतौर पर माना जाता है कि महादेवी की अवधारणा प्राचीन है। लेकिन ऐतिहासिक रूप से शायद इसका कालांकन मध्य काल का है। जब अत्यधिक विषम स्थानीय एवं अखिल भारतीय परम्पराओं का एकीकरण सैद्धांतिक रूप से एकीकृत धर्मशास्त्र में किया जाता था। धर्मशास्त्र प्रवर्ग के ऐतिहासिक और सैद्धांतिक रूप से भिन्न परम्पराओं में प्रयुक्त किया जा सकता है। मध्यकालीन पुराणों की विभिन्न देवियों की पौराणिक कथाओं से लेकर दो प्रमुख देवी शाखाओं या शाक्त तंत्रवाद कुलों से पूर्ववर्ती एवं वर्तमान, वस्तुतः असंख्य स्थानीय ग्रामीण देवियों तक है। 'लोकप्रियता' ऐतिहासिक रूप से शाक्तवाद दक्षिण एशिया के बाहरी इलाक़े में लोकप्रिय रहा है। विशेष रूप से कश्मीर, दक्षिण भारत, असम और बंगाल में, हालाँकि इसके तांत्रिक प्रतीक और अनुष्ठान कम से कम छठी शताब्दी से हिन्दू परम्पराओं में सर्वव्यापी रहे हैं। हाल में परम्परागत प्रवासी भारतीय जनसंख्या के साथ, कुछ भारत विद्या शैक्षिक समुदाय में और विभिन्न नवयुग एवं नारीवादोन्मुखी परम्पराओं के साथ, सामान्यतः पश्चिम में ज़्यादा लोकप्रिय शीर्षक तंत्रवाद या तंत्र के अंतर्गत परम्परागत, दार्शनिक एवं लोकप्रिय शाक्तवाद के विविध स्वरूपों ने प्रवेश किया है। शाक्त संस्कृति’ कृष्ण काल में ब्रज में शाक्त संस्कृति का प्रभाव बहुत बढ़ा। ब्रज में महामाया, महाविद्या, करोली, सांचोली आदि विख्यात शक्तिपीठ हैं। मथुरा के राजा कंस ने वासुदेव द्वारा यशोदा से उत्पन्न जिस कन्या का वध किया था, उसे भगवान श्रीकृष्ण की प्राणरक्षिका देवी के रूप में पूजा जाता है। देवी शक्ति की यह मान्यता ब्रज से सौराष्ट्र तक फैली है। द्वारका में भगवान द्वारकानाथ के शिखर पर चर्चित सिंदूरी आकर्षक देवी प्रतिमा को कृष्ण की भगिनी बतलाया गया है, जो शिखर पर विराजमान होकर सदा इनकी रक्षा करती हैं। ब्रज तो तांत्रिकों का आज से 100 वर्ष पूर्व तक प्रमुख गढ़ था। यहाँ के तांत्रिक भारत भर में प्रसिद्ध रहे हैं। कामवन भी राजा कामसेन के समय तंत्र विद्या का मुख्य केंद्र था, उसके दरबार में अनेक तांत्रिक रहते थे। 'उद्देश्य' सभी सम्प्रदायों के समान ही शाक्त सम्प्रदाय का उद्देश्य भी मोक्ष है। फिर भी शक्ति का संचय करो, शक्ति की उपासना करो, शक्ति ही जीवन है, शक्ति ही धर्म है, शक्ति ही सत्य है, शक्ति ही सर्वत्र व्याप्त है और शक्ति की सभी को आवश्यकता है। बलवान बनो, वीर बनो, निर्भय बनो, स्वतंत्र बनो और शक्तिशाली बनो। इसीलिए नाथ और शाक्त सम्प्रदाय के साधक शक्तिमान बनने के लिए तरह-तरह के योग और साधना करते रहते हैं। सिद्धियाँ प्राप्त करते रहते हैं। शक्ति से ही मोक्ष पाया जा सकता है। शक्ति नहीं है तो सिद्ध, बुद्धि और समृद्धि का कोई मतलब नहीं है। .

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शंकराचार्य

शंकराचार्य आम तौर पर अद्वैत परम्परा के मठों के मुखिया के लिये प्रयोग की जाने वाली उपाधि है। शंकराचार्य हिन्दू धर्म में सर्वोच्च धर्म गुरु का पद है जो कि बौद्ध धर्म में दलाईलामा एवं ईसाई धर्म में पोप के समकक्ष है। इस पद की परम्परा आदि गुरु शंकराचार्य ने आरम्भ की। यह उपाधि आदि शंकराचार्य, जो कि एक हिन्दू दार्शनिक एवं धर्मगुरु थे एवं जिन्हें हिन्दुत्व के सबसे महान प्रतिनिधियों में से एक के तौर पर जाना जाता है, के नाम पर है। उन्हें जगद्गुरु के तौर पर सम्मान प्राप्त है एक उपाधि जो कि पहले केवल भगवान कृष्ण को ही प्राप्त थी। उन्होंने सनातन धर्म की प्रतिष्ठा हेतु भारत के चार क्षेत्रों में चार मठ स्थापित किये तथा शंकराचार्य पद की स्थापना करके उन पर अपने चार प्रमुख शिष्यों को आसीन किया। तबसे इन चारों मठों में शंकराचार्य पद की परम्परा चली आ रही है। यह पद अत्यंत गौरवमयी माना जाता है। चार मठ निम्नलिखित हैं.

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श्रीमद्भगवद्गीता

कुरु क्षेत्र की युद्धभूमि में श्रीकृष्ण ने अर्जुन को जो उपदेश दिया था वह श्रीमद्भगवदगीता के नाम से प्रसिद्ध है। यह महाभारत के भीष्मपर्व का अंग है। गीता में १८ अध्याय और ७०० श्लोक हैं। जैसा गीता के शंकर भाष्य में कहा है- तं धर्मं भगवता यथोपदिष्ट वेदव्यास: सर्वज्ञोभगवान् गीताख्यै: सप्तभि: श्लोकशतैरु पनिबंध। ज्ञात होता है कि लगभग ८वीं सदी के अंत में शंकराचार्य (७८८-८२०) के सामने गीता का वही पाठ था जो आज हमें उपलब्ध है। १०वीं सदी के लगभग भीष्मपर्व का जावा की भाषा में एक अनुवाद हुआ था। उसमें अनेक मूलश्लोक भी सुरक्षित हैं। श्रीपाद कृष्ण बेल्वेलकर के अनुसार जावा के इस प्राचीन संस्करण में गीता के केवल साढ़े इक्यासी श्लोक मूल संस्कृत के हैं। उनसे भी वर्तमान पाठ का समर्थन होता है। गीता की गणना प्रस्थानत्रयी में की जाती है, जिसमें उपनिषद् और ब्रह्मसूत्र भी संमिलित हैं। अतएव भारतीय परंपरा के अनुसार गीता का स्थान वही है जो उपनिषद् और ब्रह्मसूत्रों का है। गीता के माहात्म्य में उपनिषदों को गौ और गीता को उसका दुग्ध कहा गया है। इसका तात्पर्य यह है कि उपनिषदों की जो अध्यात्म विद्या थी, उसको गीता सर्वांश में स्वीकार करती है। उपनिषदों की अनेक विद्याएँ गीता में हैं। जैसे, संसार के स्वरूप के संबंध में अश्वत्थ विद्या, अनादि अजन्मा ब्रह्म के विषय में अव्ययपुरुष विद्या, परा प्रकृति या जीव के विषय में अक्षरपुरुष विद्या और अपरा प्रकृति या भौतिक जगत के विषय में क्षरपुरुष विद्या। इस प्रकार वेदों के ब्रह्मवाद और उपनिषदों के अध्यात्म, इन दोनों की विशिष्ट सामग्री गीता में संनिविष्ट है। उसे ही पुष्पिका के शब्दों में ब्रह्मविद्या कहा गया है। गीता में 'ब्रह्मविद्या' का आशय निवृत्तिपरक ज्ञानमार्ग से है। इसे सांख्यमत कहा जाता है जिसके साथ निवृत्तिमार्गी जीवनपद्धति जुड़ी हुई है। लेकिन गीता उपनिषदों के मोड़ से आगे बढ़कर उस युग की देन है, जब एक नया दर्शन जन्म ले रहा था जो गृहस्थों के प्रवृत्ति धर्म को निवृत्ति मार्ग के समकक्ष और उतना ही फलदायक मानता था। इसी का संकेत देनेवाला गीता की पुष्पिका में ‘योगशास्त्रे’ शब्द है। यहाँ ‘योगशास्त्रे’ का अभिप्राय नि:संदेह कर्मयोग से ही है। गीता में योग की दो परिभाषाएँ पाई जाती हैं। एक निवृत्ति मार्ग की दृष्टि से जिसमें ‘समत्वं योग उच्यते’ कहा गया है अर्थात् गुणों के वैषम्य में साम्यभाव रखना ही योग है। सांख्य की स्थिति यही है। योग की दूसरी परिभाषा है ‘योग: कर्मसु कौशलम’ अर्थात् कर्मों में लगे रहने पर भी ऐसे उपाय से कर्म करना कि वह बंधन का कारण न हो और कर्म करनेवाला उसी असंग या निर्लेप स्थिति में अपने को रख सके जो ज्ञानमार्गियों को मिलती है। इसी युक्ति का नाम बुद्धियोग है और यही गीता के योग का सार है। गीता के दूसरे अध्याय में जो ‘तस्य प्रज्ञाप्रतिष्ठिता’ की धुन पाई जाती है, उसका अभिप्राय निर्लेप कर्म की क्षमतावली बुद्धि से ही है। यह कर्म के संन्यास द्वारा वैराग्य प्राप्त करने की स्थिति न थी बल्कि कर्म करते हुए पदे पदे मन को वैराग्यवाली स्थिति में ढालने की युक्ति थी। यही गीता का कर्मयोग है। जैसे महाभारत के अनेक स्थलों में, वैसे ही गीता में भी सांख्य के निवृत्ति मार्ग और कर्म के प्रवृत्तिमार्ग की व्याख्या और प्रशंसा पाई जाती है। एक की निंदा और दूसरे की प्रशंसा गीता का अभिमत नहीं, दोनों मार्ग दो प्रकार की रु चि रखनेवाले मनुष्यों के लिए हितकर हो सकते हैं और हैं। संभवत: संसार का दूसरा कोई भी ग्रंथ कर्म के शास्त्र का प्रतिपादन इस सुंदरता, इस सूक्ष्मता और निष्पक्षता से नहीं करता। इस दृष्टि से गीता अद्भुत मानवीय शास्त्र है। इसकी दृष्टि एकांगी नहीं, सर्वांगपूर्ण है। गीता में दर्शन का प्रतिपादन करते हुए भी जो साहित्य का आनंद है वह इसकी अतिरिक्त विशेषता है। तत्वज्ञान का सुसंस्कृत काव्यशैली के द्वारा वर्णन गीता का निजी सौरभ है जो किसी भी सहृदय को मुग्ध किए बिना नहीं रहता। इसीलिए इसका नाम भगवद्गीता पड़ा, भगवान् का गाया हुआ ज्ञान। .

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शून्य

शून्य (0) एक अंक है जो संख्याओं के निरूपण के लिये प्रयुक्त आजकी सभी स्थानीय मान पद्धतियों का अपरिहार्य प्रतीक है। इसके अलावा यह एक संख्या भी है। दोनों रूपों में गणित में इसकी अत्यन्त महत्वपूर्ण भूमिका है। पूर्णांकों तथा वास्तविक संख्याओं के लिये यह योग का तत्समक अवयव (additive identity) है। .

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शून्यता

शून्यवाद या शून्यता बौद्धों की महायान शाखा माध्यमिक नामक विभाग का मत या सिद्धान्त है जिसमें संसार को शून्य और उसके सब पदार्थों को सत्ताहीन माना जाता है (विज्ञानवाद से भिन्न)। "माध्यमिक न्याय" ने "शून्यवाद" को दार्शनिक सिद्धांत के रूप में अंगीकृत किया है। इसके अनुसार ज्ञेय और ज्ञान दोनों ही कल्पित हैं। पारमार्थिक तत्व एकमात्र "शून्य" ही है। "शून्य" सार, असत्, सदसत् और सदसद्विलक्षण, इन चार कोटियों से अलग है। जगत् इस "शून्य" का ही विवर्त है। विवर्त का मूल है संवृति, जो अविद्या और वासना के नाम से भी अभिहित होती है। इस मत के अनुसार कर्मक्लेशों की निवृत्ति होने पर मनुष्य निर्वाण प्राप्त कर उसी प्रकार शांत हो जाता है जैसे तेल और बत्ती समाप्त होने पर प्रदीप। .

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सत्

सत् यथार्थता का दूसरा नाम है। श्रेणी:शब्दार्थ.

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सत्यार्थ प्रकाश

सत्यार्थ प्रकाश की रचना आर्य समाज के संस्थापक महर्षि दयानन्द सरस्वती ने की। यद्यपि उनकी मातृभाषा गुजराती थी और संस्कृत का इतना ज्ञान था कि संस्कृत में धाराप्रवाह बोल लेते थे, तथापि इस ग्रन्थ को उन्होंने हिन्दी में रचा। कहते हैं कि जब स्वामी जी 1872 में कलकत्ता में केशवचन्द्र सेन से मिले तो उन्होंने स्वामी जी को यह सलाह दी कि आप संस्कृत छोड़कर हिन्दी बोलना आरम्भ कर दें तो भारत का असीम कल्याण हो। तभी से स्वामी जी के व्याख्यानों की भाषा हिन्दी हो गयी और शायद इसी कारण स्वामी जी ने सत्यार्थ प्रकाश की भाषा भी हिन्दी ही रखी। स्वामी जी पूरे देश में घूम-घूमकर शास्त्रार्थ एवं व्याख्यान कर रहे थे। इससे उनके अनुयायियों ने अनुरोध किया कि यदि इन शास्त्रार्थों एवं व्याख्यानों को लिपिबद्ध कर दिया जाय तो ये अमर हो जायेंगे। सत्यार्थ प्रकाश की रचना उनके अनुयायियों के इस अनुरोध के कारण ही सम्भव हुई। सत्यार्थ प्रकाश की रचना का प्रमुख उद्देश्य आर्य समाज के सिद्धान्तों का प्रचार-प्रसार था। इसके साथ-साथ इसमें ईसाई, इस्लाम एवं अन्य कई पन्थों व मतों का खण्डन भी है। उस समय हिन्दू शास्त्रों का गलत अर्थ निकाल कर हिन्दू धर्म एवं संस्कृति को बदनाम करने का षड्यन्त्र भी चल रहा था। इसी को ध्यान में रखकर महर्षि दयानन्द ने इसका नाम सत्यार्थ प्रकाश (सत्य+अर्थ+प्रकाश) अर्थात् सही अर्थ पर प्रकाश डालने वाला (ग्रन्थ) रखा। .

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सांख्यसूत्र

सांख्यसूत्र, हिन्दुओं के सांख्य दर्शन का प्रमुख ग्रन्थ है। परम्परा से कपिल इसके रचयिता माने जाते हैं। इसे सांख्यप्रवचनसूत्र भी कहते हैं। अपने वर्तमान रूप में, यह अपने मूल रूप में नहीं उपलब्ध है। यद्यपि सांख्य दर्शन कम से कम ईसा-पूर्व तीसरी चौथी शताब्दी से प्रचलित रहा है किन्तु वर्तमान में उपलब्ध ग्रन्थ का रचनाकाल ईसा के उपरान्त १४वीं शती माना जाता है। इस पर पहला भाष्य १६वीं शती में किया गया था। इसमें सृष्टि (cosmology) का विवेचन है जो ब्रह्माण्ड के स्तर पर भी है और व्यक्ति के स्तर पर भी। इसमें छ: अध्याय हैं। इसमें प्रकृति एवं पुरुष दोनों के द्वैत स्वरूप का विवेचन है। इसके अलावा कैवल्य (मोक्ष) का विवेचन है; 'ज्ञान का सिद्धान्त' प्रतिपादित किया गया है; आदि .

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सांख्यकारिका

सांख्यकारिका सांख्य दर्शन का सबसे पुराना उपलब्ध ग्रन्थ है। इसके रचयिता ईश्वरकृष्ण हैं। संस्कृत के एक विशेष प्रकार के श्लोकों को "कारिका" कहते हैं। सांख्यकारिकाओं का समय बहुमत से ई. तृतीय शताब्दी का मध्य माना जाता है। वस्तुत: इनका समय इससे पर्याप्त पूर्व का प्रतीत होता है। इसमें ईश्वरकृष्ण ने कहा है कि इसकी शिक्षा कपिल से आसुरी को, आसुरी से पंचाशिका को और पंचाशिका से उनको प्राप्त हुई। इसमें उन्होने सांख्य दर्शन की 'षष्टितंत्र' नामक कृति का भी उल्लेख किया है। सांख्यकारिका में ७२ श्लोक हैं जो आर्या छन्द में लिखे हैं। ऐसा अनुमान किया जाता है कि अन्तिम ३ श्लोक बाद में जोड़े गये (प्रक्षिप्त) हैं। सांख्‍यकारिका पर विभिन्न विद्वानों द्वारा अनेक टीकाएँ की गयीं जिनमें युक्तिदीपिका, गौडपादभाष्‍यम्, जयमंगला, तत्‍वकौमुदी, नारायणकृत सांख्‍यचन्द्रिका आदि प्रमुख हैं। सांख्यकारिका पर सबसे प्राचीन भाष्य गौड़पाद द्वारा रचित है। दूसरा महत्वपूर्ण भाष्य वाचस्पति मिश्र द्वार रचित सांख्यतत्वकौमुदी है। सांख्यकारिका का चीनी भाषा में अनुवाद ६ठी शती में हुआ। सन् १८३२ में क्रिश्चियन लासेन ने इसका लैटिन में अनुवाद किया। एच टी कोलब्रुक ने इसको सर्वप्रथम अंग्रेजीं में रूपान्तरित किया। सांख्यकारिका का आरम्भिक श्लोक इस प्रकार है- सांख्यकारिका, सांख्यदर्शन का बहुत ही महत्त्वपूर्ण प्रकरण ग्रन्थ है जिसने अत्यधिक लोकप्रियता प्राप्त की है। आज सांख्यदर्शन के जो ग्रन्थ प्राप्त होते हैं, उनमें व्याख्या-ग्रन्थ ही अधिक हैं। मूल ग्रन्थ तो केवल तीन ही प्राप्त होते हैं- सांख्यकारिका, तत्त्वसमास एवं सांख्यप्रवचनसूत्र। आज प्राप्त होने वाले सांख्यदर्शन के अन्य ग्रन्थ इन तीन मूल ग्रन्थों की ही टीका या व्याख्या के रूप में हैं। इन व्याख्या-ग्रन्थों में से अधिकांश ‘सांख्यकारिका’ की ही व्याख्याओं और इन व्याख्याओं की भी अनुव्याख्याओं के रूप में हैं। इस प्रकार ईश्वरकृष्ण की ‘सांख्यकारिका’ सांख्यदर्शन का प्रमुख प्रतिनिधि ग्रन्थ है। शंकर आदि आचार्यों ने ही नहीं, अपितु ईसा की चौदहवीं शताब्दी तक के आचार्यों ने ‘तत्त्वसमास’ या ‘सांख्यप्रवचनसूत्र’ को अपने ग्रन्थों में उद्धृत न कर ‘सांख्यकारिका’ को ही उद्धृत किया है। साथ ही पन्द्रहवीं शताब्दी में होने वाले अनिरुद्ध से पूर्व किसी ने इन सूत्र-ग्रन्थों की व्याख्या भी नहीं की, जबकि विभिन्न विद्वानों के द्वारा बहुत पहले से ही ‘सांख्यकारिका’ की व्याख्याएँ प्रस्तुत की जा रही हैं। अतः स्पष्ट है कि सांख्यदर्शन के आज उपलब्ध होने वाले उक्त तीन मूल ग्रन्थों - सांख्यकारिका, तत्त्वसमास एवं सांख्य-प्रवचनसूत्र- में से ‘सांख्यकारिका’ प्राचीनतम है। चूंकि शंकर आदि आचार्यों के द्वारा इसे उद्धृत किया जाता रहा है, अतः यह भी स्पष्ट है कि यह सांख्यदर्शन की एक प्रामाणिक कृति मानी जाती रही है। सांख्यकारिकाकार ईश्वरकृष्ण ने यह घोषणा भी की है कि सांख्य के प्रथम आचार्य परमर्षि कपिल ने जो ज्ञान अपने शिष्य आसुरि को दिया, उसे आसुरी ने अपने शिष्य पंचशिख को दिया, पंचशिख ने उसे विस्तृत किया और फिर उसके बाद शिष्य-परम्परा से प्राप्त-उसी विस्तृत ज्ञान को संक्षिप्त रूप से उन्होनें सांख्यकारिका की सत्तर कारिकाओं में प्रस्तुत कर दिया है। इस घोषणा से सांख्यकारिका की रूप में प्रामाणिकता स्पष्ट होती है कि इसमें सांख्य के परम्परागत ज्ञान को प्रस्तुत किया गया है। कहना न होगा कि इस ज्ञान और प्रामाणिकता के अनुरूप ही इस ग्रन्थ को दार्शनिक क्षेत्र में परम सम्मान प्राप्त हुआ है। .

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स्मृति

स्मृति हिन्दू धर्म के उन धर्मग्रन्थों का समूह है जिनकी मान्यता श्रुति से नीची श्रेणी की हैं और जो मानवों द्वारा उत्पन्न थे। इनमें वेद नहीं आते। स्मृति का शाब्दिक अर्थ है - "याद किया हुआ"। यद्यपि स्मृति को वेदों से नीचे का दर्ज़ा हासिल है लेकिन वे (रामायण, महाभारत, गीता, पुराण) अधिकांश हिन्दुओं द्वारा पढ़ी जाती हैं, क्योंकि वेदों को समझना बहुत कठिन है और स्मृतियों में आसान कहानियाँ और नैतिक उपदेश हैं। इसकी सीमा में विभिन्न धार्मिक ग्रन्थों—गीता, महाभारत, विष्णुसहस्रनाम की भी गणना की जाने लगी। शंकराचार्य ने इन सभी ग्रन्थों को स्मृति ही माना है। मनु ने श्रुति तथा स्मृति महत्ता को समान माना है। गौतम ऋषि ने भी यही कहा है कि ‘वेदो धर्ममूल तद्धिदां च स्मृतिशीले'। हरदत्त ने गौतम की व्खाख्या करते हुए कहा कि स्मृति से अभिप्राय है मनुस्मृति से। परन्तु उनकी यह व्याख्या उचित नहीं प्रतीत होती क्योंकि स्मृति और शील इन शब्दों का प्रयोग स्रोत के रूप में किया है, किसी विशिष्ट स्मृति ग्रन्थ या शील के लिए नहीं। स्मृति से अभिप्राय है वेदविदों की स्मरण शक्ति में पड़ी उन रूढ़ि और परम्पराओं से जिनका उल्लेख वैदिक साहित्य में नहीं किया गया है तथा शील से अभिप्राय है उन विद्वानों के व्यवहार तथा आचार में उभरते प्रमाणों से। फिर भी आपस्तम्ब ने अपने धर्म-सूत्र के प्रारम्भ में ही कहा है ‘धर्मज्ञसमयः प्रमाणं वेदाश्च’। स्मृतियों की रचना वेदों की रचना के बाद लगभग ५०० ईसा पूर्व हुआ। छठी शताब्दी ई.पू.

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सृष्टि

सृष्टि के मुख्यतः दो अर्थ होते हैं (1) संसार और (2) निर्माण। .

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सूत्र

सूत्र, किसी बड़ी बात को अतिसंक्षिप्त रूप में अभिव्यक्त करने का तरीका है। इसका उपयोग साहित्य, व्याकरण, गणित, विज्ञान आदि में होता है। सूत्र का शाब्दिक अर्थ धागा या रस्सी होता है। जिस प्रकार धागा वस्तुओं को आपस में जोड़कर एक विशिष्ट रूप प्रदान करतअ है, उसी प्रकार सूत्र भी विचारों को सम्यक रूप से जोड़ता है। हिन्दू (सनातन धर्म) में सूत्र एक विशेष प्रकार की साहित्यिक विधा का सूचक भी है। जैसे पतंजलि का योगसूत्र और पाणिनि का अष्टाध्यायी आदि। सूत्र साहित्य में छोटे-छोटे किन्तु सारगर्भित वाक्य होते हैं जो आपस में भलीभांति जुड़े होते हैं। इनमें प्रायः पारिभाषिक एवं तकनीकी शब्दों का खुलकर किया जाता है ताकि गूढ से गूढ बात भी संक्षेप में किन्तु स्पष्टता से कही जा सके। प्राचीन काल में सूत्र साहित्य का महत्व इसलिये था कि अधिकांश ग्रन्थ कंठस्थ किये जाने के ध्येय से रचे जाते थे; अतः इनका संक्षिप्त होना विशेष उपयोगी था। चूंकि सूत्र अत्यन्त संक्षिप्त होते थे, कभी-कभी इनका अर्थ समझना कठिन हो जाता था। इस समस्या के समाधान के रूप में अनेक सूत्र ग्रन्थों के भाष्य भी लिखने की प्रथा प्रचलित हुई। भाष्य, सूत्रों की व्याख्या (commentary) करते थे। बौद्ध धर्म में सूत्र उन उपदेशपरक ग्रन्थों को कहते हैं जिनमें गौतम बुद्ध की शिक्षाएं संकलित हैं। .

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ईड़ा

कई योग शास्त्रों में ईड़ा को तीन प्रमुख नाड़ियों में से एक माना गया है। अन्य दो के नाम हैं - पिंगला और सुषुम्ना। ईड़ा ऋणात्मक ऊर्जा का वाह करती है। शिव स्वरोदय ईड़ा द्वारा उत्पादित ऊर्जा को चन्द्रमा के सदृश्य मानता है अतः इसे चन्द्रनाड़ी भी कहा जाता है। इसकी प्रकृति शीतल, विश्रामदायक और चित्त को अंतर्मुखी करनेवाली मानी जाती है। इसका उद्गम मूलाधार चक्र माना जाता है - जो मेरुदण्ड के सबसे नीचे स्थित है। स्वरयोग के अनुसार जब श्वास का प्रवाह बाईँ नसिका-रंध्र में होता है तो वह मानसिक कार्यों के हेतु मनस शक्ति प्रदान करती है। इसे मांशपेशियों में शिथिलता आती है और शरीर का तापमान कम होता है। यह इस बात का भी संकेत है कि इस अवधि में मन अन्तर्मुखी तथा सृजनात्मक होता है। ऐसी स्थिति में मनुष्य को थकाने वाले और परिश्रम के कार्य को टालना चाहिए। Category:योग.

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ईश्वरकृष्ण

ईश्वरकृष्ण एक प्रसिद्ध सांख्य दर्शनकार थे। इनका काल विवादग्रस्त है। डॉ॰ तकाकुसू के अनुसार उनका समय ४५० ई. के लगभग और डॉ॰ वि.

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विज्ञानभिक्षु

विज्ञानभिक्षु (1550 - 1600) भारत के दार्शनिक थे। वे एक प्रकार से सांख्य के अंतिम आचार्य हैं। इन्होंने ही सांख्यमत में ईश्वरवाद का समावेश किया था। इन्होंने तीन दर्शनों पर भाष्य-ग्रंथ लिखे हैं- सांख्यप्रवचनभाष्य (सांख्यसूत्र); योगवार्तिक (व्यासभाष्य), विज्ञानामृतभाष्य (ब्रह्मसूत्र)। विज्ञानभिक्षु पूरे औचित्य के साथ सांख्यसूत्र पर अपना भाष्य प्रस्तुत करते हुए कहते हैं कि सांख्य 'कालभक्षित' हो गया था। इस तंत्रप्रणाली को पुन: पुनर्जीवित करने के लिए ही वे प्रयत्नशील रहे हैं। लुप्त हुए सांख्य के स्वरुप निर्माण की दिशा में अग्रसर होते हुए वे सदैव उपनिषद् और पुराणों के युग के अनंतर वियुक्त होने वाले सांख्य और वेदांत में सामंजस्य स्थापित करनेके प्रति प्रयत्नशील थे। विज्ञानभिक्षु वेदान्त के प्रति भी आस्थाशील थे। 'विज्ञानामृत' नाम से ब्रह्मसूत्र पर उनका भाष्य इस तथ्य को प्रमाणित करता है। इस बात को स्वीकार करने के अनेक कारण विद्यमान हैं जिनके आधार पर बताया जा सकता है कि सांख्य दर्शन धीरे-धीरे वेदांत दर्शन में विलुप्त होता प्रतीत होता है। यहां तक कि विज्ञानभिक्षु ने वेदांतिक मिथ्या प्रतीति सूचक माया को सांख्य की यथार्थ प्रतीतिसूचक प्रकृति को एक समान प्रतिपादित किये जाने का प्रयत्न किया था। यही कारण है कि परवर्ती बौद्ध तार्किकों के आविर्भाव के फलस्वरुप मीमांसा करने के प्रयास में भले ही अनेक तत्वमनीषी अविभूत हुए पर सांख्यमतवाद का किसी भी दृष्टिकोण से गंभीर अध्ययन प्रस्तुत नहीं किया गया। वस्तुत: एक ऐसे संशोधन के बाद जिसने सांख्यदर्शन का वेदांत की परिधि में पहुंचा दिया था, सांख्य का एक स्वतंत्र संप्रदाय के रूप में अस्तित्व समाप्त हो चुका था। सांख्य दर्शन के संबंध में मूलत: इन दो परस्पर विरोधी मताग्रहों के निराकरण के लिए शंकराचार्य का ब्रह्मसूत्र हमारी पर्याप्त सहायता कर सकता है। लक्ष्य करने की बात है कि ब्रह्मसूत्र ने सांख्यदर्शन के खंडन पर अत्यधिक बल दिया था क्योंकि ब्रह्रमसूत्रकार सांख्य को अपना घोर प्रतिद्वंद्वी स्वीकार करता था और था भी, क्योंकि सांख्य के प्रधानवाद अथवा कारणवाद में जहां एक मूल-भौतिक तत्व को विश्व का आद्यकारण बताया गया था, अद्वैत वेदांत के मूल चेतन कारणवाद के नितांत विपरीत खड़ा था। यही कारण था कि ब्रह्मसूत्र के प्रथम चार सूत्रों में ब्रह्म तथा वेदांत ग्रंथो के स्वरुप के संबंध में कुछ मौलिक महत्व की बातों का स्पष्टीकरण करते ही ब्रह्म सूत्रकार तत्काल अगले सात सूत्रों में यह स्पष्ट करने के लिए व्यग्र हो उठते हैं कि ब्रह्म एक चेतन तत्व है, जिसका पृथक्करण सांख्य दर्शन के 'प्रधान'से किया जाना चाहिए जो अचेतन अथवा भौतिक होने के कारण विश्व का मूल नहीं हो सकता। .

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वेद

वेद प्राचीन भारत के पवितत्रतम साहित्य हैं जो हिन्दुओं के प्राचीनतम और आधारभूत धर्मग्रन्थ भी हैं। भारतीय संस्कृति में वेद सनातन वर्णाश्रम धर्म के, मूल और सबसे प्राचीन ग्रन्थ हैं, जो ईश्वर की वाणी है। ये विश्व के उन प्राचीनतम धार्मिक ग्रंथों में हैं जिनके पवित्र मन्त्र आज भी बड़ी आस्था और श्रद्धा से पढ़े और सुने जाते हैं। 'वेद' शब्द संस्कृत भाषा के विद् शब्द से बना है। इस तरह वेद का शाब्दिक अर्थ 'ज्ञान के ग्रंथ' है। इसी धातु से 'विदित' (जाना हुआ), 'विद्या' (ज्ञान), 'विद्वान' (ज्ञानी) जैसे शब्द आए हैं। आज 'चतुर्वेद' के रूप में ज्ञात इन ग्रंथों का विवरण इस प्रकार है -.

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वेदान्त दर्शन

वेदान्त ज्ञानयोग की एक शाखा है जो व्यक्ति को ज्ञान प्राप्ति की दिशा में उत्प्रेरित करता है। इसका मुख्य स्रोत उपनिषद है जो वेद ग्रंथो और अरण्यक ग्रंथों का सार समझे जाते हैं। उपनिषद् वैदिक साहित्य का अंतिम भाग है, इसीलिए इसको वेदान्त कहते हैं। कर्मकांड और उपासना का मुख्यत: वर्णन मंत्र और ब्राह्मणों में है, ज्ञान का विवेचन उपनिषदों में। 'वेदान्त' का शाब्दिक अर्थ है - 'वेदों का अंत' (अथवा सार)। वेदान्त की तीन शाखाएँ जो सबसे ज्यादा जानी जाती हैं वे हैं: अद्वैत वेदान्त, विशिष्ट अद्वैत और द्वैत। आदि शंकराचार्य, रामानुज और श्री मध्वाचार्य जिनको क्रमश: इन तीनो शाखाओं का प्रवर्तक माना जाता है, इनके अलावा भी ज्ञानयोग की अन्य शाखाएँ हैं। ये शाखाएँ अपने प्रवर्तकों के नाम से जानी जाती हैं जिनमें भास्कर, वल्लभ, चैतन्य, निम्बारक, वाचस्पति मिश्र, सुरेश्वर और विज्ञान भिक्षु। आधुनिक काल में जो प्रमुख वेदान्ती हुये हैं उनमें रामकृष्ण परमहंस, स्वामी विवेकानंद, अरविंद घोष, स्वामी शिवानंद राजा राममोहन रॉय और रमण महर्षि उल्लेखनीय हैं। ये आधुनिक विचारक अद्वैत वेदान्त शाखा का प्रतिनिधित्व करते हैं। दूसरे वेदान्तो के प्रवर्तकों ने भी अपने विचारों को भारत में भलिभाँति प्रचारित किया है परन्तु भारत के बाहर उन्हें बहुत कम जाना जाता है। .

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वेदव्यास

ऋषि कृष्ण द्वेपायन वेदव्यास महाभारत ग्रंथ के रचयिता थे। महाभारत के बारे में कहा जाता है कि इसे महर्षि वेदव्यास के गणेश को बोलकर लिखवाया था। वेदव्यास महाभारत के रचयिता ही नहीं, बल्कि उन घटनाओं के साक्षी भी रहे हैं, जो क्रमानुसार घटित हुई हैं। अपने आश्रम से हस्तिनापुर की समस्त गतिविधियों की सूचना उन तक तो पहुंचती थी। वे उन घटनाओं पर अपना परामर्श भी देते थे। जब-जब अंतर्द्वंद्व और संकट की स्थिति आती थी, माता सत्यवती उनसे विचार-विमर्श के लिए कभी आश्रम पहुंचती, तो कभी हस्तिनापुर के राजभवन में आमंत्रित करती थी। प्रत्येक द्वापर युग में विष्णु व्यास के रूप में अवतरित होकर वेदों के विभाग प्रस्तुत करते हैं। पहले द्वापर में स्वयं ब्रह्मा वेदव्यास हुए, दूसरे में प्रजापति, तीसरे द्वापर में शुक्राचार्य, चौथे में बृहस्पति वेदव्यास हुए। इसी प्रकार सूर्य, मृत्यु, इन्द्र, धनजंय, कृष्ण द्वैपायन अश्वत्थामा आदि अट्ठाईस वेदव्यास हुए। इस प्रकार अट्ठाईस बार वेदों का विभाजन किया गया। उन्होने ही अट्ठारह पुराणों की भी रचना की, ऐसा माना जाता है। वेदव्यास यह व्यास मुनि तथा पाराशर इत्यादि नामों से भी जाने जाते है। वह पराशर मुनि के पुत्र थे, अत: व्यास 'पाराशर' नाम से भि जाने जाते है। महर्षि वेदव्यास को भगवान का ही रूप माना जाता है, इन श्लोकों से यह सिद्ध होता है। नमोऽस्तु ते व्यास विशालबुद्धे फुल्लारविन्दायतपत्रनेत्र। येन त्वया भारततैलपूर्णः प्रज्ज्वालितो ज्ञानमयप्रदीपः।। अर्थात् - जिन्होंने महाभारत रूपी ज्ञान के दीप को प्रज्वलित किया ऐसे विशाल बुद्धि वाले महर्षि वेदव्यास को मेरा नमस्कार है। व्यासाय विष्णुरूपाय व्यासरूपाय विष्णवे। नमो वै ब्रह्मनिधये वासिष्ठाय नमो नम:।। अर्थात् - व्यास विष्णु के रूप है तथा विष्णु ही व्यास है ऐसे वसिष्ठ-मुनि के वंशज का मैं नमन करता हूँ। (वसिष्ठ के पुत्र थे 'शक्ति'; शक्ति के पुत्र पराशर, और पराशर के पुत्र पाराशर (तथा व्यास)) .

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कपिल

कपिल प्राचीन भारत के एक प्रभावशाली मुनि थे। इन्हें सांख्यशास्त्र (यानि तत्व पर आधारित ज्ञान) के प्रवर्तक के रूप में जाना जाता है जिसके मान्य अर्थों के अनुसार विश्व का उद्भव विकासवादी प्रक्रिया से हुआ है। कई लोग इन्हें अनीश्वरवादी मानते हैं लेकिन गीता में इन्हें श्रेष्ठ मुनि कहा गया है। कपिल ने सर्वप्रथम विकासवाद का प्रतिपादन किया और संसार को एक क्रम के रूप में देखा। संसार को स्वाभाविक गति से उत्पन्न मानकर इन्होंने संसार के किसी अति प्राकृतिक कर्ता का निषेध किया। सुख दु:ख प्रकृति की देन है तथा पुरुष अज्ञान में बद्ध है। अज्ञान का नाश होने पर पुरुष और प्रकृति अपने-अपने स्थान पर स्थित हो जाते हैं। अज्ञानपाश के लिए ज्ञान की आवश्यकता है अत: कर्मकांड निरर्थक है। ज्ञानमार्ग का यह प्रवर्तन भारतीय संस्कृति को कपिल की देन है। यदि बुद्ध, महावीर जैसे नास्तिक दार्शनिक कपिल से प्रभावित हों तो आश्चर्य नहीं। आस्तिक दार्शनिकों में से वेदांत, योग और पौराणिक स्पष्ट रूप में सांख्य के त्रिगुणवाद और विकासवाद को अपनाते हैं। इस प्रकार कपिल प्रवर्तित सांख्य का प्रभाव प्राय: सभी दर्शनों पर पड़ा है। कपिल ने क्या उपदेश दिया, इस पर विवाद और शोध होता रहा है। तत्वसमाससूत्र को उसके टीकाकार कपिल द्वारा रचित मानते हैं। सूत्र छोटे और सरल हैं। इसीलिए मैक्समूलर ने उन्हें बहुत प्राचीन बतलाया। 8वीं शताब्दी के जैन ग्रंथ 'भगवदज्जुकीयम्‌' में सांख्य का उल्लेख करते हुए कहा गया है– 'तत्वसमाससूत्र' में भी ऐसा ही पाठ मिलता है। साथ ही तत्वसमाससूत्र के टीकाकार भावागणेश कहते हैं कि उन्होंने टीका लिखते समय पंचशिख लिखित टीका से सहायता ली है। रिचार्ड गार्वे के अनुसार पंचशिख का काल प्रथम शताब्दी का होना चाहिए। अत: भगवज्जुकीयम्‌ तथा भावागणेश की टीका को यदि प्रमाण मानें तो 'तत्वसमाससूत्र' का काल ईसा की पहली शताब्दी तक ले जाया जा सकता है। इसके पूर्व इसकी स्थिति के लिए सबल प्रमाण का अभाव है। सांख्यप्रवचनसूत्र को भी कुछ टीकाकार कपिल की कृति मानते हैं। कौमुदीप्रभा के कर्ता स्वप्नेश्वर 'सांख्यप्रवचनसूत्र' को पंचशिख की कृति मानते हैं और कहते हैं कि यह ग्रंथ कपिल द्वारा निर्मित इसलिए माना गया है कि कपिल सांख्य के प्रवर्तक हैं। यही बात 'तत्वसमास' के बारे में भी कही जा सकती है। परंतु सांख्यप्रवचनसूत्र का विवरण माधव के 'सर्वदर्शनसंग्रह' में नहीं है और न तो गुणरत्न में ही इसके आधार पर सांख्य का विवरण दिया है। अत: विद्वान्‌ लोग इसे 14वीं शताब्दी का ग्रंथ मानते हैं। लेकिन गीता (१०.२६) में इनका ज़िक्र आने से ये और प्राचीन लगते हैं। .

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कैवल्य

विवेक उत्पन्न होने पर औपाधिक दुख सुखादि - अहंकार, प्रारब्ध, कर्म और संस्कार के लोप हो जाने से आत्मा के चितस्वरूप होकर आवागमन से मुक्त हो जाने की स्थिति को कैवल्य कहते हैं। पातंजलसूत्र के अनुसार चित्‌ द्वारा आत्मा के साक्षात्कार से जब उसके कर्त्तृत्त्व आदि अभिमान छूटकर कर्म की निवृत्ति हो जाती है तब विवेकज्ञान के उदय होने पर मुक्ति की ओर अग्रसारित आत्मा के चित्स्वरूप में जो स्थिति उत्पन्न होती हैं उसकी संज्ञा कैवल्य है। वेदांत के अनुसार परामात्मा में आत्मा की लीनता और न्याय के अनुसार अदृष्ट के नाश होने के फलस्वरूप आत्मा की जन्ममरण से मुक्तावस्था को कैवल्य कहा गया है। योगसूत्रों के भाष्यकार व्यास के अनुसार, जिन्होंने कर्मबंधन से मुक्त होकर कैवल्य प्राप्त किया है, उन्हें 'केवली' कहा जाता है। ऐसे केवली अनेक हुए है। बुद्धि आदि गुणों से रहित निर्मल ज्योतिवाले केवली आत्मरूप में स्थिर रहते हैं। हिंदू धर्मग्रंथों में शुक, जनक आदि ऋषियों को जीवन्मुक्त बताया है जो जल में कमल की भाँति, संसार में रहते हुए भी मुक्त जीवों के समान निर्लेप जीवनयापन करते है। जैन ग्रंथों में केवलियों के दो भेद - संयोगकेवली और अयोगकेवली बताए गए है। .

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अद्वैत वेदान्त

अद्वैत वेदान्त वेदान्त की एक शाखा। अहं ब्रह्मास्मि अद्वैत वेदांत यह भारत में प्रतिपादित दर्शन की कई विचारधाराओँ में से एक है, जिसके आदि शंकराचार्य पुरस्कर्ता थे। भारत में परब्रह्म के स्वरूप के बारे में कई विचारधाराएं हैँ। जिसमें द्वैत, अद्वैत या केवलाद्वैत, विशिष्टाद्वैत, शुद्धाद्वैत, द्वैताद्वैत जैसी कई सैद्धांतिक विचारधाराएं हैं। जिस आचार्य ने जिस रूप में ब्रह्म को जाना उसका वर्णन किया। इतनी विचारधाराएं होने पर भी सभी यह मानते है कि भगवान ही इस सृष्टि का नियंता है। अद्वैत विचारधारा के संस्थापक शंकराचार्य हैं, जिसे शांकराद्वैत या केवलाद्वैत भी कहा जाता है। शंकराचार्य मानते हैँ कि संसार में ब्रह्म ही सत्य है। बाकी सब मिथ्या है (ब्रह्म सत्य, जगत मिथ्या)। जीव केवल अज्ञान के कारण ही ब्रह्म को नहीं जान पाता जबकि ब्रह्म तो उसके ही अंदर विराजमान है। उन्होंने अपने ब्रह्मसूत्र में "अहं ब्रह्मास्मि" ऐसा कहकर अद्वैत सिद्धांत बताया है। वल्लभाचार्य अपने शुद्धाद्वैत दर्शन में ब्रह्म, जीव और जगत, तीनों को सत्य मानते हैं, जिसे वेदों, उपनिषदों, ब्रह्मसूत्र, गीता तथा श्रीमद्भागवत द्वारा उन्होंने सिद्ध किया है। अद्वैत सिद्धांत चराचर सृष्टि में भी व्याप्त है। जब पैर में काँटा चुभता है तब आखोँ से पानी आता है और हाथ काँटा निकालनेके लिए जाता है। ये अद्वैत का एक उत्तम उदाहरण है। शंकराचार्य का ‘एकोब्रह्म, द्वितीयो नास्ति’ मत था। सृष्टि से पहले परमब्रह्म विद्यमान थे। ब्रह्म सत और सृष्टि जगत असत् है। शंकराचार्य के मत से ब्रह्म निर्गुण, निष्क्रिय, सत-असत, कार्य-कारण से अलग इंद्रियातीत है। ब्रह्म आंखों से नहीं देखा जा सकता, मन से नहीं जाना जा सकता, वह ज्ञाता नहीं है और न ज्ञेय ही है, ज्ञान और क्रिया के भी अतीत है। माया के कारण जीव ‘अहं ब्रह्म’ का ज्ञान नहीं कर पाता। आत्मा विशुद्ध ज्ञान स्वरूप निष्क्रिय और अनंत है, जीव को यह ज्ञान नहीं रहता। .

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अर्धनारीश्वर

कोई विवरण नहीं।

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उदयवीर शास्त्री

आचार्य उदयवीर शास्त्री (6 जनवरी 1894 - 16 जनवरी 1991) भारतीय दर्शन के उद्भट विद्वान् थे। उन्होने कपिल मुनि के प्राचीन सांख्य, गोतम मुनि के न्याय पर बहुत शोधपरक काम किया है जिसके लिए सन् १९५० के दशक में उन्हें भारत के कई राज्यों से पुरस्कार मिले। अपने जीवन के तीसरे दशक मे वो लाहौर में रहे थे। उनके भाष्यों में यानि टीकाओं में उदाहरण परंपराओं से लिए जाते थे जो सुबोध होते थे। .

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