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ब्रजनिधि

सूची ब्रजनिधि

प्रतापसिंह 'ब्रजनिधि' (संवत् 1821-1860) जयपुरनरेश तथा हिन्दी कवि थे। 'ब्रजनिधि' उनका काव्यप्रयुक्त उपनाम है। प्रतापसिंह ब्रजनिधि ने भवननिर्माण में भी विशेष रुचि दिखाई। चंद्रमहल के कई विशाल भवन रिधसिधपोल, बड़ा दीवानखाना, गोविंद जी के पिछाड़ी का हौज, हवामहल, गोवर्धननाथ, ब्रजराजबिहारी, ठाकुर ब्रजनिधि तथा मदनमोहन जी के मंदिर आपके स्थापत्य कलाप्रेम के द्योतक हैं। प्रतापसिंह 14 वर्ष की अवस्था में सिंहासनारूढ़ हो गए थे। युद्धों में अत्यधिक व्यस्त एवं रोगों से ग्रस्त रहने पर भी इन्होंने अपने अल्प जीवन में लगभग 1400 वृत्तों का प्रणयन किया। लोकविश्रुत है कि महाराज परम भागवत थे। भक्ति-रस-तरंग अथवा मन की उमंग में वे जो पद, रेखते अथवा छंद रचते थे, उन्हें उसी दिन या अगले दिन अपने इष्टदेव गोविंददेव तथा ठाकुर ब्रजनिधि महाराज को समर्पित करते थे। कम से कम पाँच वृत्त नित्य भेंट करने का उनका नियम था। .

18 संबंधों: चौपाई, दोहा, नागरीदास, नीतिशतकम्, फ़ारसी भाषा, बरवै, ब्रजभाषा, भर्तृहरि, शृंगारशतकम्, सवैया, संगीत, सोरठा, हवामहल, जयपुर, घनानन्द, घनाक्षरी, वैराग्यशतकम्, आइन-ए-अकबरी

चौपाई

चौपाई मात्रिक सम छन्द का एक भेद है। प्राकृत तथा अपभ्रंश के १६ मात्रा के वर्णनात्मक छन्दों के आधार पर विकसित हिन्दी का सर्वप्रिय और अपना छन्द है। गोस्वामी तुलसीदास ने रामचरित मानस में चौपाइ छन्द का बहुत अच्छा निर्वाह किया है। चौपाई में चार चरण होते हैं, प्रत्येक चरण में १६-१६ मात्राएँ होती हैं तथा अन्त में गुरु होता है। .

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दोहा

दोहा, मात्रिक अर्द्धसम छंद है। दोहे के चार चरण होते हैं। इसके विषम चरणों (प्रथम तथा तृतीय) में १३-१३ मात्राएँ और सम चरणों (द्वितीय तथा चतुर्थ) में ११-११ मात्राएँ होती हैं। विषम चरणों के आदि में प्राय: जगण (। ऽ।) टालते है, लेकिन इस की आवश्यकता नहीं है। 'बड़ा हुआ तो' पंक्ति का आरम्भ ज-गण से ही होता है.

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नागरीदास

नागरीदास ब्रज-भक्ति-साहित्य में सर्वाधिक प्रसिद्धि पानेवाले कवि एवं कृष्णगढ़ (राजस्थान) के राजा थे। इनका नाम सांवतसिंह था। नागरीदास बल्लभकुल के गोस्वामी रणछोड़ जी के शिष्य थे। इनके इष्टदेव श्री कल्याणराय जी तथा श्री नृत्यगोपाल जी थे। ये दोनों भगवत् विग्रह कृष्णगढ़ में आज भी विराजमालन हैं। नागरीदास का जन्म संवत् १७५६ में हुआ था। इनके पिता का नाम राजसिंह था। सावंतसिंह ने १३ वर्ष की अवस्था में ही बूँदी के हाड़ा जैतसिंह को मारा था। यह बड़े शूरवीर थे। राजसिंह के स्वर्गवासी होने पर बादशाह अहमदशाह ने इनको कृष्णगढ़ की गद्दी पर बिठाना चाहा परन्तु इनके भाई बहादुरसिंह जोधपुर नरेश की सहायता से पहले ही राज्य पर अधिकार कर बैठे थे। सावंतसिंह ने मरहठों से संधि कर ली, और बहादुरसिंह को हराकर राज्य पर अधिकार जमा लिया। किंतु गृहकलह से इनका मन विरक्त हो गया, और यह मत इन्होंने बना लिया कि 'सबै कलह इक राज में, राज कहल को मूल।' राज्य का शासन भार सा प्रतीत होने लगा। कृष्णभक्त तो थे ही, राज्य की ओर से विरक्ति हो जाने के फलस्वरूप इनके मन में ब्रजवास करने की इच्छा प्रबल हो उठी- राजकाज छोड़कर नागरीदास वृन्दावन को चल दिए। इनके रचे पद ब्रजमंडल में पहले ही काफी प्रसिद्ध हो चुके थे, अत: ब्रजवासियों ने बड़े प्रेम से इनका स्वागत किया। नागरीदास जी ने स्वयं लिखा है - सर्वस्व त्यागकर अब ब्रज की रज को ही सर्वस्व मान लिया- .

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नीतिशतकम्

नीतिशतकम् भर्तृहरि के तीन प्रसिद्ध शतकों जिन्हें कि शतकत्रय कहा जाता है, में से एक है। इसमें नीति सम्बन्धी सौ श्लोक हैं। .

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फ़ारसी भाषा

फ़ारसी, एक भाषा है जो ईरान, ताजिकिस्तान, अफ़गानिस्तान और उज़बेकिस्तान में बोली जाती है। यह ईरान, अफ़ग़ानिस्तान, ताजिकिस्तान की राजभाषा है और इसे ७.५ करोड़ लोग बोलते हैं। भाषाई परिवार के लिहाज़ से यह हिन्द यूरोपीय परिवार की हिन्द ईरानी (इंडो ईरानियन) शाखा की ईरानी उपशाखा का सदस्य है और हिन्दी की तरह इसमें क्रिया वाक्य के अंत में आती है। फ़ारसी संस्कृत से क़ाफ़ी मिलती-जुलती है और उर्दू (और हिन्दी) में इसके कई शब्द प्रयुक्त होते हैं। ये अरबी-फ़ारसी लिपि में लिखी जाती है। अंग्रेज़ों के आगमन से पहले भारतीय उपमहाद्वीप में फ़ारसी भाषा का प्रयोग दरबारी कामों तथा लेखन की भाषा के रूप में होता है। दरबार में प्रयुक्त होने के कारण ही अफ़गानिस्तान में इस दारी कहा जाता है। .

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बरवै

वरबै यह अर्ध सम मात्रिक छंद है। .

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ब्रजभाषा

ब्रजभाषा मूलत: ब्रज क्षेत्र की बोली है। (श्रीमद्भागवत के रचनाकाल में "व्रज" शब्द क्षेत्रवाची हो गया था। विक्रम की 13वीं शताब्दी से लेकर 20वीं शताब्दी तक भारत के मध्य देश की साहित्यिक भाषा रहने के कारण ब्रज की इस जनपदीय बोली ने अपने उत्थान एवं विकास के साथ आदरार्थ "भाषा" नाम प्राप्त किया और "ब्रजबोली" नाम से नहीं, अपितु "ब्रजभाषा" नाम से विख्यात हुई। अपने विशुद्ध रूप में यह आज भी आगरा, हिण्डौन सिटी,धौलपुर, मथुरा, मैनपुरी, एटा और अलीगढ़ जिलों में बोली जाती है। इसे हम "केंद्रीय ब्रजभाषा" भी कह सकते हैं। ब्रजभाषा में ही प्रारम्भ में काव्य की रचना हुई। सभी भक्त कवियों ने अपनी रचनाएं इसी भाषा में लिखी हैं जिनमें प्रमुख हैं सूरदास, रहीम, रसखान, केशव, घनानंद, बिहारी, इत्यादि। फिल्मों के गीतों में भी ब्रजभाषा के शब्दों का प्रमुखता से प्रयोग किया जाता है। .

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भर्तृहरि

भर्तृहरि एक महान संस्कृत कवि थे। संस्कृत साहित्य के इतिहास में भर्तृहरि एक नीतिकार के रूप में प्रसिद्ध हैं। इनके शतकत्रय (नीतिशतक, शृंगारशतक, वैराग्यशतक) की उपदेशात्मक कहानियाँ भारतीय जनमानस को विशेष रूप से प्रभावित करती हैं। प्रत्येक शतक में सौ-सौ श्लोक हैं। बाद में इन्होंने गुरु गोरखनाथ के शिष्य बनकर वैराग्य धारण कर लिया था इसलिये इनका एक लोकप्रचलित नाम बाबा भरथरी भी है। .

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शृंगारशतकम्

शृंगारशतकम् भर्तृहरि के तीन प्रसिद्ध शतकों जिन्हें कि शतकत्रय कहा जाता है, में से एक है। इसमें शृंगार सम्बन्धी सौ श्लोक हैं। .

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सवैया

सवैया एक छन्द है। यह चार चरणों का समपाद वर्णछंद है। वर्णिक वृत्तों में 22 से 26 अक्षर के चरण वाले जाति छन्दों को सामूहिक रूप से हिन्दी में सवैया कहने की परम्परा है। इस प्रकार सामान्य जाति-वृत्तों से बड़े और वर्णिक दण्डकों से छोटे छन्द को सवैया समझा जा सकता है। कवित्त - घनाक्षरी के समान ही हिन्दी रीतिकाल में विभिन्न प्रकार के सवैया प्रचलित रहे हैं। .

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संगीत

नेपाल की नुक्कड़ संगीत-मण्डली द्वारा पारम्परिक संगीत सुव्यवस्थित ध्वनि, जो रस की सृष्टि करे, संगीत कहलाती है। गायन, वादन व नृत्य ये तीनों ही संगीत हैं। संगीत नाम इन तीनों के एक साथ व्यवहार से पड़ा है। गाना, बजाना और नाचना प्रायः इतने पुराने है जितना पुराना आदमी है। बजाने और बाजे की कला आदमी ने कुछ बाद में खोजी-सीखी हो, पर गाने और नाचने का आरंभ तो न केवल हज़ारों बल्कि लाखों वर्ष पहले उसने कर लिया होगा, इसमें संदेह नहीं। गान मानव के लिए प्राय: उतना ही स्वाभाविक है जितना भाषण। कब से मनुष्य ने गाना प्रारंभ किया, यह बतलाना उतना ही कठिन है जितना कि कब से उसने बोलना प्रारंभ किया। परंतु बहुत काल बीत जाने के बाद उसके गान ने व्यवस्थित रूप धारण किया। जब स्वर और लय व्यवस्थित रूप धारण करते हैं तब एक कला का प्रादुर्भाव होता है और इस कला को संगीत, म्यूजिक या मौसीकी कहते हैं। .

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सोरठा

सोरठा एक मात्रिक छंद है। यह दोहा का ठीक उलटा होता है। इसके विषम चरणों चरण में 11-11 मात्राएँ और सम चरणों (द्वितीय तथा चतुर्थ) चरण में 13-13 मात्राएँ होती हैं। विषम चरणों के अंत में एक गुरु और एक लघु मात्रा का होना आवश्यक होता है। उदाहरण - भट्ट मथुरानाथ शास्त्री ने अपने पूर्वज श्रीकृष्ण भट्ट कविकलानिधि का सोरठा छंद में निबद्ध संस्कृत-कविता में इन शब्दों में स्मरण किया था- .

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हवामहल

हवामहल हवा महल भारतीय राज्य राजस्थान की राजधानी जयपुर में एक राजसी-महल है। इसे सन 1798 में महाराजा सवाई प्रताप सिंह ने बनवाया था और इसे किसी 'राजमुकुट' की तरह वास्तुकार लाल चंद उस्ता द्वारा डिजाइन किया गया था। इसकी अद्वितीय पांच-मंजिला इमारत जो ऊपर से तो केवल डेढ़ फुट चौड़ी है, बाहर से देखने पर मधुमक्खी के छत्ते के समान दिखाई देती है, जिसमें ९५३ बेहद खूबसूरत और आकर्षक छोटी-छोटी जालीदार खिड़कियाँ हैं, जिन्हें झरोखा कहते हैं। इन खिडकियों को जालीदार बनाने के पीछे मूल भावना यह थी कि बिना किसी की निगाह पड़े "पर्दा प्रथा" का सख्ती से पालन करतीं राजघराने की महिलायें इन खिडकियों से महल के नीचे सडकों के समारोह व गलियारों में होने वाली रोजमर्रा की जिंदगी की गतिविधियों का अवलोकन कर सकें। इसके अतिरिक्त, "वेंचुरी प्रभाव" के कारण इन जटिल संरचना वाले जालीदार झरोखों से सदा ठंडी हवा, महल के भीतर आती रहती है, जिसके कारण तेज़ गर्मी में भी महल सदा वातानुकूलित सा ही रहता है। चूने, लाल और गुलाबी बलुआ पत्थर से निर्मित यह महल जयपुर के व्यापारिक केंद्र के हृदयस्थल में मुख्य मार्ग पर स्थित है। यह सिटी पैलेस का ही हिस्सा है और ज़नाना कक्ष या महिला कक्ष तक फैला हुआ है। सुबह-सुबह सूर्य की सुनहरी रोशनी में इसे दमकते हुए देखना एक अनूठा एहसास देता है। .

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जयपुर

जयपुर जिसे गुलाबी नगर के नाम से भी जाना जाता है, भारत में राजस्थान राज्य की राजधानी है। आमेर के तौर पर यह जयपुर नाम से प्रसिद्ध प्राचीन रजवाड़े की भी राजधानी रहा है। इस शहर की स्थापना १७२८ में आमेर के महाराजा जयसिंह द्वितीय ने की थी। जयपुर अपनी समृद्ध भवन निर्माण-परंपरा, सरस-संस्कृति और ऐतिहासिक महत्व के लिए प्रसिद्ध है। यह शहर तीन ओर से अरावली पर्वतमाला से घिरा हुआ है। जयपुर शहर की पहचान यहाँ के महलों और पुराने घरों में लगे गुलाबी धौलपुरी पत्थरों से होती है जो यहाँ के स्थापत्य की खूबी है। १८७६ में तत्कालीन महाराज सवाई रामसिंह ने इंग्लैंड की महारानी एलिज़ाबेथ प्रिंस ऑफ वेल्स युवराज अल्बर्ट के स्वागत में पूरे शहर को गुलाबी रंग से आच्छादित करवा दिया था। तभी से शहर का नाम गुलाबी नगरी पड़ा है। 2011 की जनगणना के अनुसार जयपुर भारत का दसवां सबसे अधिक जनसंख्या वाला शहर है। राजा जयसिंह द्वितीय के नाम पर ही इस शहर का नाम जयपुर पड़ा। जयपुर भारत के टूरिस्ट सर्किट गोल्डन ट्रायंगल (India's Golden Triangle) का हिस्सा भी है। इस गोल्डन ट्रायंगल में दिल्ली,आगरा और जयपुर आते हैं भारत के मानचित्र में उनकी स्थिति अर्थात लोकेशन को देखने पर यह एक त्रिभुज (Triangle) का आकार लेते हैं। इस कारण इन्हें भारत का स्वर्णिम त्रिभुज इंडियन गोल्डन ट्रायंगल कहते हैं। भारत की राजधानी दिल्ली से जयपुर की दूरी 280 किलोमीटर है। शहर चारों ओर से दीवारों और परकोटों से घिरा हुआ है, जिसमें प्रवेश के लिए सात दरवाजे हैं। बाद में एक और द्वार भी बना जो 'न्यू गेट' कहलाया। पूरा शहर करीब छह भागों में बँटा है और यह १११ फुट (३४ मी.) चौड़ी सड़कों से विभाजित है। पाँच भाग मध्य प्रासाद भाग को पूर्वी, दक्षिणी एवं पश्चिमी ओर से घेरे हुए हैं और छठा भाग एकदम पूर्व में स्थित है। प्रासाद भाग में हवा महल परिसर, व्यवस्थित उद्यान एवं एक छोटी झील हैं। पुराने शह के उत्तर-पश्चिमी ओर पहाड़ी पर नाहरगढ़ दुर्ग शहर के मुकुट के समान दिखता है। इसके अलावा यहां मध्य भाग में ही सवाई जयसिंह द्वारा बनावायी गईं वेधशाला, जंतर मंतर, जयपुर भी हैं। जयपुर को आधुनिक शहरी योजनाकारों द्वारा सबसे नियोजित और व्यवस्थित शहरों में से गिना जाता है। देश के सबसे प्रतिभाशाली वास्तुकारों में इस शहर के वास्तुकार विद्याधर भट्टाचार्य का नाम सम्मान से लिया जाता है। ब्रिटिश शासन के दौरान इस पर कछवाहा समुदाय के राजपूत शासकों का शासन था। १९वीं सदी में इस शहर का विस्तार शुरु हुआ तब इसकी जनसंख्या १,६०,००० थी जो अब बढ़ कर २००१ के आंकड़ों के अनुसार २३,३४,३१९ और २०१२ के बाद ३५ लाख हो चुकी है। यहाँ के मुख्य उद्योगों में धातु, संगमरमर, वस्त्र-छपाई, हस्त-कला, रत्न व आभूषण का आयात-निर्यात तथा पर्यटन-उद्योग आदि शामिल हैं। जयपुर को भारत का पेरिस भी कहा जाता है। इस शहर के वास्तु के बारे में कहा जाता है कि शहर को सूत से नाप लीजिये, नाप-जोख में एक बाल के बराबर भी फ़र्क नहीं मिलेगा। .

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घनानन्द

घनानंद की काव्य रचनाओं का अंग्रेज़ी अनुवाद घनानंद (१६७३- १७६०) रीतिकाल की तीन प्रमुख काव्यधाराओं- रीतिबद्ध, रीतिसिद्ध और रीतिमुक्त के अंतिम काव्यधारा के अग्रणी कवि हैं। ये 'आनंदघन' नाम स भी प्रसिद्ध हैं। आचार्य रामचंद्र शुक्ल ने रीतिमुक्त घनानन्द का समय सं.

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घनाक्षरी

घनाक्षरी या कवित्त एक वार्णिक छन्द है। हिन्दी साहित्य में घनाक्षरी के प्रथम दर्शन भक्तिकाल में होते हैं। निश्चित रूप से कहना कठिन है कि हिन्दी में घनाक्षरी वृत्तों का प्रचलन कब से हुआ। घनाक्षरी छंद में मधुर भावों की अभिव्यक्ति उतनी सफलता के साथ नहीं हो सकती जितनी ओजपूर्ण भावों की। इस छन्द में चार चरण होते हैं और प्रत्येक चरण में १६, १५ के विराम से ३१ वर्ण होते हैं। प्रत्येक चरण के अन्त में गुरू वर्ण होना चाहिये। छन्द की गति को ठीक रखने के लिये ८, ८, ८ और ७ वर्णों पर यति रहना चाहिये। जैसे – घनाक्षरी छंद का उदाहरण "चन्दा झा" रचित "मिथिला भाषा रामायण " से दिया जा सकता है। " नाव अरि लाब नहि,उतरक दाब नहि, एक बुद्धि आब नहि,साग़र अपार में। वीर अरि छोट नहि, संग एक गोट नहि, लंका लघु कोट नहि, विदित संसार में। " Dhanakshri chand...

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वैराग्यशतकम्

वैराग्यशतकम् भर्तृहरि के तीन प्रसिद्ध शतकों जिन्हें कि शतकत्रय कहा जाता है, में से एक है। इसमें वैराग्य सम्बन्धी सौ श्लोक हैं। शतकत्रय में अन्य दो हैं- शृंगारशतकम् व नीतिशतकम्। .

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आइन-ए-अकबरी

अकबर का दरबार, अकबरनामा की पाण्डुलिपि में दिखाया गया एक चित्र आइन-ए-एकबरी (अर्थ:अकबर के संस्थान), एक १६वीं शताब्दी का ब्यौरेवार ग्रन्थ है। इसकी रचना अकबर के ही एक नवरतन दरबारी अबुल फज़ल ने की थी। इसमें अकबर के दरबार, उसके प्रशासन के बारे में चर्चा की गई है। इसके तीन ख्ण्ड हैं, जिनमें अंतिम खंड अकबरनामा (اکبر نامه), के नाम से है। ये खंड स्वयं तीन प्रखंडों में है। .

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यहां पुनर्निर्देश करता है:

सवाई प्रताप सिंह, जयपुरनरेश प्रतापसिंह

निवर्तमानआने वाली
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