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व्यक्तिनिष्ठ मूल्य सिद्धान्त

सूची व्यक्तिनिष्ठ मूल्य सिद्धान्त

व्यक्तिनिष्ठ मूल्य सिद्धान्त (subjective theory of value) के अनुसार किसी वस्तु का मूल्य उस वास्तु में निहित किसी गुण से निर्धारित नहीं होता, न ही इस बात से निर्धारित होता है कि उसके निर्माण में कितना श्रम लगा है, बल्कि वस्तु का मूल्य इस बात पर निर्भर करता है कि कोई व्यक्ति उस वस्तु को कितना महत्व देता है। हीरा और जल का विरोधाभास इसका सबसे सीधा प्रमाण है। .

3 संबंधों: माँग और आपूर्ति, मूल्य विरोधाभास, सीमान्त उपयोगिता

माँग और आपूर्ति

किसी वस्तु का मूल्य (P) वह बिन्दु है जहाँ आपूर्ति वक्र (supply, S) और माँग वक्र (demand, D) मिलते हैं। इस चित्र में माँग में वृद्धि (D1 से D2) तथा उसके कारण किसी उत्पाद के मूल्य में वृद्धि एवं विक्रित मात्रा (Q) में वृद्धि को दर्शाया गया है। अर्थशास्त्र में माँग और आपूर्ति की सहायता से पूर्णतः प्रतिस्पर्धी बाजार में बेचे गये वस्तुओं कीमत और मात्रा की विवेचना, व्याख्या और पुर्वानुमान लगाया जाता है। यह अर्थशास्त्र के सबसे मुलभूत प्रारुपों में से एक है। क्रमश: बड़े सिद्धान्तों और प्रारूपों के विकास के लिए इसका विशद रूप से प्रयोग होता है। माँग किसी नियत समयकाल में किसी उत्पाद की वह मात्रा है, जिसे नियत दाम पर उपभोक्ता खरीदना चाहता है और खरीदने में सक्षम है। माँग को सामान्यतः एक तालिका या ग्राफ़ के रूप में प्रदर्शित करते हैं जिसमें कीमत और इच्छित मात्रा का संबन्ध दिखाया जाता है। आपूर्ति वस्तु की वह मात्रा है जिसे नियत समय में दिये गये दाम पर उत्पादक या विक्रेता बाजार में बेचने के लिए तैयार है। आपूर्ति को सामान्यतः एक तालिका या ग्राफ़ के रूप में प्रदर्शित करते हैं जिसमें कीमत और आपूर्ति की मात्रा का संबन्ध दिखाया जाता है। .

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मूल्य विरोधाभास

मानव जीवन के लिए हीरे की तुलना में जल अधिक उपयोगी है, फिर भी बाजार में हीरे का मूल्य जल की तुलना में बहुत अधिक होता है। यह विरोधाभास मूल्य विरोधाभास (paradox of value या diamond–water paradox) कहलाता है। .

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सीमान्त उपयोगिता

अर्थशास्त्र में, किसी वस्तु या सेवा के उपभोग में इकाई वृद्धि करने पर प्राप्त होने वाले लाभ को उस वस्तु या सेवा की सीमान्त उपयोगिता (marginal utility) कहते हैं। अर्थशास्त्री कभी-कभी ह्रासमान सीमान्त उपयोगिता के नियम (law of diminishing marginal utility) की बात करते हैं जिसका अर्थ यह है कि किसी उत्पाद या सेवा के प्रथम अंश से जितना उपयोगिता प्राप्त होती है उतनी उपयोगिता उतने ही बाग से बाद में नहीं मिलती। .

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