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वीरेन्द्र खरे 'अकेला'

सूची वीरेन्द्र खरे 'अकेला'

‘अकेला’ जी ने सन्-1990 से ग़ज़ल-गीत लेखन की यात्रा शुरू की जो अनवरत जारी है। ग़ज़ल संग्रह ‘शेष बची चौथाई रात’(1999-अयन प्रकाशन, दिल्ली) के प्रकाशन ने ग़ज़ल के क्षेत्र में उन्हें स्थापित किया और राष्ट्रीय ख्याति दिलाई। दूसरे ग़ज़ल-गीत संग्रह ‘सुब्ह की दस्तक’(2006-सार्थक प्रकाशन दिल्ली) एवं तीसरे ग़ज़ल संग्रह ‘अंगारों पर शबनम’ (2012-अयन प्रकाशन, दिल्ली) ने उनकी साहित्यिक पहचान को और पुख़्तगी देते हुए उन्हें देश के प्रथम पंक्ति के हिन्दी ग़ज़लकारों के बीच खड़ा कर दिया है। प्रकाशित कृतियों के अलावा ‘अकेला’ जी की बहुत सी रचनाएं वसुधा, वागर्थ, कथादेश, महकता आँचल, सृजन-पथ, राष्ट्रधर्म, कादम्बिनी जैसी प्रतिष्ठित पत्रिकाओं में भी समय-समय पर प्रकाशित होकर प्रशंसित होती रही हैं। उन्होंने कवि-सम्मेलनों, मुशायरों, काव्य-गोष्ठियों तथा आकाशवाणी के माध्यम से भी काफी लोकप्रियता हासिल की है। देश की अनेक साहित्यिक संस्थाओं द्वारा उन्हें पुरस्कृत एवं सम्मानित भी किया गया है। अपनी ग़ज़लों के तीखे तेवरों के कारण वीरेन्द्र खरे ‘अकेला’ बुन्देलखण्ड के दुष्यंत कुमार कहे जाते हैं। उनकी ग़ज़लों में जीवन की सच्ची-तपती-सुलगती आग पूरी तेजस्विता के साथ विद्यमान है। वे देश और समाज में व्याप्त दुख-दर्दों, अभावों, असफलताओं, विसंगतियों और छल-छद्मों को अनूठे अंदाज़ में पेश कर अपने पाठकों में विपरीत परिस्थितियों से लड़ने का हौसला भर देते हैं। वीरेन्द्र खरे ‘अकेला’ ने हिन्दी ग़ज़ल को नए विषय, नई सोच, नए प्रतीक और सम्यक शिल्पगत कसावट देकर इस विधा की उल्लेखनीय सेवा की है और इस क्षेत्र में अपनी विशिष्ट पहचान क़ायम की है। लेखन के अलावा ‘अकेला’ जी एक रंगकर्मी के रूप में भी सक्रिय रहे हैं। वे भारतीय जन नाट्य संघ (इप्टा) की ज़िला इकाई-छतरपुर के लम्बे समय से पदाधिकारी हैं और क़िस्सा कल्पनापुर का, ख़ूबसूरत बहू बाजीराव मस्तानी तथा महाबली छत्रसाल आदि नाटकों में महत्त्वपूर्ण भूमिकाएँ अभिनीत कर चुके हैं। ग़ज़ल-संग्रह 'शेष बची चौथाई रात' पर अभियान जबलपुर द्वारा 'हिन्दी भूषण' अलंकरण। मध्यप्रदेश हिंदी साहित्य सम्मेलन एवं बुंदेलखंड हिंदी साहित्य-संस्कृति मंच सागर द्वारा कपूर चंद वैसाखिया 'तहलका ' सम्मान अ०भा० साहित्य संगम, उदयपुर द्वारा काव्य कृति ‘सुबह की दस्तक’ पर राष्ट्रीय प्रतिभा सम्मान के अन्तर्गत 'काव्य-कौस्तुभ' सम्मान तथा लायन्स क्लब द्वारा ‘छतरपुर गौरव’ सम्मान।.

9 संबंधों: बुन्देलखण्ड के दुष्यंत कुमार, भारत, भारतीय, मध्य प्रदेश, हिन्दी, छतरपुर, १८ अगस्त, १९६८, २१वीं शताब्दी

बुन्देलखण्ड के दुष्यंत कुमार

बुन्देलखण्ड के दुष्यंत कुमार-वीरेन्द्र खरे 'अकेला'(लेख-'अना' क़ासमी) शायरी वो नहीं जो काग़ज़ का सीना सियाह कर दे। शायरी वो है जो एहसास की नर्मो-नाजुक उंगलियों से दिल की गहराई में लफ़्ज़ों की टीस उकेर दे और ऐसे शायर को उसकी किताबें नहीं बल्कि वो शेर ज़िन्दा रखते हैं जो लोगों की जुबान की ख़ुश्बू बन कर ज़हनो-दिल पर ज़रूर नक्श हो गये हैं। यही वजह है कि उनके शेर कहीं भी किसी की भी ज़ुबानी सुनने को मिल जाते हैं। ‘अकेला’ जी ने ग़ज़लें, गीत, मुक्तक, छन्द, दोहे और आज़ाद नज़्में, हर विधा में अपनी सलाहियत के जौहर दिखाए हैं। सबसे पहले मैं उनकी ग़ज़ल का तअ़र्रूफ़ कराता हूँ। ग़ज़ल एक ऐसी विधा है जिसमें शायर अपने दिल की बात अपनी शायरी की ज़बान में कम से कम लफ़्ज़ों में जितने प्रभावशाली तरीक़े से कह लेता है उतना शायरी की किसी और विधा में मुमकिन नहीं। यानी एक ग़ज़ल में अगर सात शेर हैं तो उसमें अलग अलग सात मज़मून हैं, सात अलग अलग भावनाएँ हैं और उस पर भी शायर की कोशिश ये है कि हर मज़मून की तह तक उतरने की कोशिश करे और अपने हर मज़मून के साथ सामयीन को जोड़ने की पूरी कोशिश करे। एक ज़माने में ग़ज़ल फ़ारसी वालों की मीरास मानी जाती थी जिसका मक़ान बादशाहों और नवाबों के दरबार हुआ करते थे। जिसका कुल सरमाया हुस्नो-इश्क़ और नाज़ुक मिज़ाजी ही हुआ करता था। फ़ारसी से उर्दू तक इस ग़ज़ल को आने में जिन जिन रास्तों से गुज़रना पड़ा ठीक वही रास्ते हिन्दी ग़ज़ल को उर्दू ग़ज़ल से रास्ता तय करके अपने मक़ाम तक आने में दरपेश आये। हर अच्छी चीज़ किसी की मीरास (विरासत) नहीं होती। आखि़र ग़ज़ल की इतनी अच्छी विधा को बादशाहों और नवाबों के महल कहाँ तक बाँध पाते। ग़ज़ल की ये विधा जब ऐवानों से निकल कर दिल्ली की सड़कों पर आयी तो इसने वहाँ के लोगों की अपनी आम ज़बान को अपनाया। अब ऐसे ख़ास मोड़ का बयान करना यहाँ बहुत ज़रूरी है कि क्या वो तमाम शायर जो फ़ारसी से हट कर ग़ज़ल कह रहे थे उन सभी के नामों से हम वाक़िफ़ है? नहीं, उनमें से आज जो नाम बाक़ी हैं ये सिर्फ़ उन शायरों के नाम बाक़ी हैं जिन्होंने बेसमझे-बूझे शायरी नहीं की थी, बल्कि ये वो लोग हैं जो फ़ारसी से, फ़ारसी ग़ज़ल के लबो-लहजे, उसके औज़ान और उसकी तमाम नज़ाक़तों से वाक़िफ़ थे और ऐसे लोगों ने जब फ़ारसी से हट कर उस दौर की अवाम की लश्करी ज़बान उर्दू में शायरी की तो वो फ़ारसी ग़ज़ल का पूरा रंग उर्दू ग़ज़ल में भरने में कामयाब हुए और जब फ़ारसी दाँ तबक़े ने उस उर्दू ग़ज़ल को सुना और पढ़ा तो उसे कहना पड़ा कि हाँ वाक़ई ये ग़ज़ल है। सिर्फ़ लफ़्ज़ बदले हैं ग़ज़ल की आत्मा नहीं बदली। जब तक उर्दू ग़ज़ल ने अपने आप को फ़ारसी ग़ज़ल की कसौटी पर नहीं रखा तब तक उर्दू के ये दो दो मिसरे ग़ज़ल के मक़ाम तक नहीं पहुंचे। ये बात बिलकुल समझ में आने वाली है कि अगर किसी भी ज़बान का शायर दोहा या कोई सवैया लिखे तो उसे पैमाना हिन्दी विधा के दोहे या सवैये को ही बनाना पड़ेगा। उसकी नाप-तौल भी उसी पैमाने पर होगी और अगर ऐसा नहीं है तो किसी को हरगिज़ ये हक़ हासिल नहीं कि वो अपने हिसाब से कोई भी पैमाना मुक़र्रर कर ले और उसे दोहा या सवैया का नाम दे दे। फ़ारसी दाँ लोगों ने उस दौर में उर्दू ग़ज़ल को जो नकारा था, उसकी अस्ल वजह यही थी और आज भी जो लोग हिन्दी ग़ज़ल को ग़ज़ल नहीं मानते उसकी भी अस्ल वजह यही है। हिन्दी के ज़्यादातर ग़जलकार जो उर्दू की औज़ाने-शायरी से वाक़िफ़ नहीं हैं उन्होंने जब ग़ज़ल लिखी तो वो ग़ज़ल की कसौटी पर खरी नहीं उतरी और उसे ग़ज़ल नहीं स्वीकारा गया। लेकिन कुछ लोग ऐसे भी आये जो ग़ालिबो-मीर की ज़बान से वाक़िफ़ थे, ग़ज़ल जिनकी आत्मा में सरायत थी, जो अमीर खुसरो से लेकर बशीर बद्र तक के ग़ज़ल के सफ़र से वाक़िफ़ थे और इसके साथ ही हिन्दी भाषा पर भी उनका अधिकार था। ऐसे कुछ लोगों ने जब यही दो दो मिसरों वाली हिन्दी शायरी की तो उर्दू वाले भी चौंक गए और उन्होने कहा कि ये तो ग़ज़ल है। ऐसे शुरू हुई हिन्दी ग़ज़ल; फ़ारसी से उर्दू की तरह-उर्दू से हिन्दी ग़ज़ल का ये मोड़ बहुत ज़रूरी था क्योंकि आज की अवामी ज़बान वालों को ख़ालिस उर्दू समझ में आना मुमकिन नहीं। ज़रूरत खुद अपने रास्ते बना लेती है और इस रास्ते के खूबसूरत मोड़ पर जो चंद लोग खड़े हैं, जिनकी शायरी के आधार पर आने वाले साहित्यिक नस्लें हिन्दी ग़ज़ल का अपना पैमाना बनाएंगी उनमें एक नाम वीरेन्द्र खरे ‘अकेला’ का भी है। अब ज़रा देखें उर्दू ग़ज़ल के नशेबो-फ़राज़ ‘अकेला’ साहब की हिन्दी ग़ज़ल में - कहाँ खुश देख पाती है किसी को भी कभी दुनिया सुकूँ में देखकर हमको न कर ले खुदकुशी दुनिया जो पैसा हो, तो सब अपने न हो तो सब पराये हैं ज़रा सी उम्र में ही मैंने यारो देख ली दुनिया • * * * * * * * ये घातों पर घातें देखो/क़िस्मत की सौगातें देखो धरती को जन्नत कर देंगे/मक्कारों की बातें देखो उर्दू से हिन्दी ग़ज़ल के जिस खूबसूरत मोड़ पर ‘अकेला’ खड़े हैं सिर्फ़ यही बात उनके नाम को सदियों ज़िन्दा रखने के लिए काफ़ी है, मगर इनके इस बस्फ़ के साथ एक और जो सिफ़त मौजूद है कि वो अपने दौर के तमाम हालात को इतने क़रीब से देख रहे हैं जैसे आज का युग उन्हें घूर रहा हो और वो खडे़ उसे आँख दिखा रहे हों। ‘अकेला’ साहब शायरी के साथ तकल्लुफ़ात नहीं बरतते बल्कि हर वो सच्ची बात जे़रे-क़लम ले आते हैं जो आज के समाज की सही मंज़रकशी कर सके। कुछ उदाहरण देखें- रिश्ते आते कहाँ हैं उसके लिए लड़का अच्छा है पर कमाता नहीं • * * * * * जा गवाहों पे कुछ खर्च कर और बेदाग़ हो जा बरी एक कथरी मयस्सर है बस वो ही चादर है वो ही दरी • * * * * * अरे चूहे तू दावे लाख कर लेकिन यही सच है गले में बिल्लियों के घंटियाँ पहना नहीं सकता • * * * * * * * जनता की तक़लीफ़ें सुनने का ये ढंग निराला है देखो बैठे हैं साहब जी रूई ठूंसे कान में • * * * * * * * इन तमाम शरों में आज शेरों में आज की कड़वी सच्चाईयों को बेलाग तरीक़े से कहा गया है। इन इज़ाफी खुसूसियात के अलावा भी वीरेन्द्र खरे 'अकेला' की ग़ज़लों में कई और ऐसे पहलू हैं जो दिल को टटोलते हैं, कभी आँखों को नम करते हैं, कभी लबों पर मुस्कान लाते हैं, कभी दिमाग़ को झिझोड़ते हैं तो कभी पीठ पर थपकियाँ देकर हौसला बँधाते हैं। ये एक मुख़्तसर सा तअ़र्रूफ़ था ‘अकेला’ की ग़ज़लों का। ‘अकेला’ ने सिर्फ़ ग़ज़लें ही नहीं कहीं बल्कि मौजूदा दौर की हिन्दी शायरी की तमाम विधाओं पर तबा आज़माई की है और एक मजे हुए खिलाड़ी की तरह अपने क़लम के जौहर साहित्य के हर मैदान में दिखाए हैं। यूँ लगता है जैसे अल्फ़ाज़, अहसास, शऊर और इनके साथ लफ़्ज़ों के खेल पर ‘अकेला’ जी को पूरी तरह दस्तरस हासिल है। उन्होंने जिस विधा को भी छुआ उसे पाया-ए-तकमील तक पहुँचाया। ‘अकेला' के गीत और आज़ाद नज़्में इस बात की पुख़्ता गवाह हैं। ‘अकेला' के गीतों और आज़ाद नज़्मों में सच्चाई का एक ऐसा अक्स देखने को मिलता है जो हालात और समाज पर कभी तीखे और कभी नर्म तंज़ (व्यंग्य) से पुर होता है। यही वजह है कि हर शख़्स उन्हें पढ़कर सोचने पर मजबूर हो जाता है शायद इसी लिए आज ‘अकेला’ के गीत और कविताएँ हज़ारों दिलों की धड़कन बन गये हैं। गीत और आज़ाद नज़्म से एक उदाहरण देखें- भीष्म पितामह नित्य प्रतिज्ञाएँ करते हैं भंग धर्मराज अक्सर दिखाई देते अधर्म के संग विदुर नीति को त्याग सदा चलते अनीति की चाल कर्ण महादानी हड़पा करते औरों का माल हमारे पाठ्यक्रम में/शामिल है/ एक बहुत छोटा सा पाठ कोमलता पर/ और चलती है/ एक पूरी किताब/ निष्ठुरता सिखाने वाली/ इन उदाहरणों से स्पष्ट है कि ‘अकेला’ को ग़ज़लों की तरह गीतों और आज़ाद नज़्मों की ज़मीन पर भी मलका हासिल है। अस्ल बात ये है जैसा कि इक़बाल ने कहा है-“दिल से जो बात निकलती है असर रखती है।” ‘अकेला’ एक सच्चा आदमी है वो कुछ भी सोचता, बोलता और लिखता पूरी सच्चाई के साथ है और सच बात अपना एक असर छोड़ती है। अब ये सच्चाई चाहे एक ग़रीब आदमी की रोज़ी रोटी जुटाने के लिए दर दर भटकने की हो, चाहे राजनेताओं के पाखण्डों के खि़लाफ़ हो या फिर मौजूदा चौपट व्यवस्था को बदलने की कोशिशों की शक्ल में हो। बहरहाल सच्चाई अपनी रोशनी छोड़ कर ही जाती है और इसी सच्चाई की मौजूदगी ने ‘अकेला’ की शायरी को एक ऐसी जगमगाहट दी है जो लोगों को बरबस अपनी ओर खींचती है। राजनेताओं के तथाकथित बड़प्पन की ये सच्चाई क्या खूब है- “आत्मकथ्य ऊँचे हैं बोनी करनी है/ऐसे में कुछ हालत कहाँ सुधरनी है। प्रभु को है परहेज़ चरण-रज देने में/कहिये फिर किस तरह अहिल्या तरनी है। चलनी में जल भरने का प्रहसन जारी/ ये दुखड़े प्रतिबंधित होंगे तो कैसे। सच्चाई का ये बयाँ भी कम नहीं है- दो धन दो को चार सिद्ध करते रह गए अभागे सात पे नौ उनहत्तर जिनने बाँचा वो हैं आगे विद्या नई, पुरानी विद्याओं से है कुछ हट के ‘अकेला’ की रचनाओं की मक़बूलियत का राज़ एक और भी है और वो ये है कि उनकी रचनाओं को न तो आजकल के काव्य मंचों की फूहड़ता का रोग लग पाया है और न तथाकथित शुद्ध साहित्यिक खेमे की अति बौद्धिकता ही उन पर हावी हो पायी है। उन्होंने कविता को उसके स्वाभाविक रूप में प्रस्तुत करके उसे दुर्लभ प्रजाति का जीव होने से बचा लिया है। आप सभी जानते हैं कि आजकल हिन्दी कविता एक ऐसे दुर्दशा के दौर से गुज़र रही है जैसे कोई शहज़ादी किसी जंगल में अपना रास्ता भटक गई हो। एक तरफ़ तो मंच की वो शायरी है जिसे साहित्य से कुछ लेना देना नहीं है। जो भद्दे चुटकुलों और स्तरहीन रचनाओं के ज़रिये पब्लिक को बेवकूफ़ बना कर पैसा बटोरने की होड़ में जुटी है जैसा कि ख़ुद ‘अकेला’ ने कहा है-“ बेतुके भद्दे लतीफ़े, कर्णप्रिय तुकबंदियाँ/मंचवालों की नज़र में शायरी इतनी ही थी।” और दूसरी तरफ़ शुद्ध साहित्य के नाम पर उन रचनाकारों की रचनाएँ हैं जिन्हें हल करने में हमारी डिक्शनरियाँ ही ओछी पड़ जायें या जिनके शब्द तो सब समझ में आयें मगर अर्थ निकालने में पसीना मार जाये। ऐसे में ‘अकेला’ ने जिस सधे हुए ज़हन के साथ जनता की बात जनता की ज़बान में पूरी काव्यात्मकता का निर्वाह करते हुए जिस तरीक़े से क़लमबंद की है, वही उनकी ख़ासियत बन गयी। और यही कारण है कि ‘अकेला’ की शायरी को साहित्यिक गोष्ठियों और मंचों पर एक जैसी मक़बूलियत हासिल हो रही है। जहाँ कहीं भी मंच पर ‘अकेला’ जाते हैं तो बस छा जाते हैं और इस बात को साबित कर देते हैं कि अच्छी शायरी भी मंच पर सुनी जाती है। ये अलग बात है कि वो मंचों पर कम दिखाई देते हैं। दरअसल मंचों का अपना एक सिस्टम है- ‘गिव इन टेक’ का सिस्टम कि अगर किसी कवि को मंचों तक जाना है तो पहले उसे कोई मंच डालना होगा, फिर वो जिन कवियों को बुलाएगा, बदले में वो कवि उसे बुला लेंगे और जो पेमेण्ट वो उन्हें देगा वही पेमेण्ट उसे बुलाकर लौटा दिया जायेगा। इतना हाथ घुमा कर कान पकड़ने की ‘अकेला’ में सलाहियत ही नहीं। ‘अकेला’ की आज़ाद नज़्में भी बहुत अच्छी हैं आज़ाद नज़्में लिखना बड़ा मुश्किल फ़न है। ये और बात कि आजकल लोगों ने इसे शॉर्टकट मान लिया है और आज़ाद कविता करने वालों की एक बड़ी भीड़ जमा हो गयी है। इनमें कुछ तो वो हैं जो छन्दबद्ध लिखने में नाकामी के बाद छन्द मुक्त पर उतर आये और कुछ वो हैं जिन्हें कवि बन कर बुद्धिजीवी कहलाने का शौक़ चढ़ा तो इस विधा का सहारा ले लिया और समझा चलो अच्छा है कि इसमें न रूल्स हैं न रेग्यूलेशन, फ्री स्टाइल गेम है। पर ऐसा नहीं है। छन्द मुक्त रचनाएँ वही बेहतर लिख सकता है जिसे छन्दबद्ध रचनाओं पर उबूर हासिल हो। ठीक उसी तरह जैसे एक अच्छा ड्राइवर जो भरे रोड पर कुशलता पूर्वक गाड़ी चलाना जानता हो और ट्राफिक के तमाम नियमों का पालन करता हो, अगर उसे कभी खेतों, खलिहानों, पगडंडियों, पहाड़ियों पर गाड़ी दौड़ाना पड़ जाये तो बेहतर तरीके़ से अपने ड्राइविंग के फ़न को आज़माते हुए इस तरह गाड़ी दौड़ायेगा कि गाड़ी की दुर्दशा न हो, दुर्घटना में हाथ-पैर न टूटें और सही सलामत मंज़िल को भी पहुँचा जा सके। ‘अकेला’ शायरी के ट्राफिक के पूरे रूल से वाक़िफ़ हैं। इनके क़लम की गाड़ी लाल, हरी, पीली बत्ती देखकर जिस तरह चलती है उसी तरह जंगलों और रेगज़ारों में भी इनके हाथ बहकते नहीं। इन पर बशीर बद्र का ये शेर पूरी तरह खरा उतरता है कि- “ हम भी दरिया हैं हमें अपना हुनर मालूम है जिस तरफ़ भी चल पड़ेंगे रास्ता हो जायेगा।” भाई वीरेन्द्र खरे ने जब अपना तख़ल्लुस ‘अकेला’ रखा होगा तब न जाने क्या ख़्याल इनके ज़हन में रहा होगा। भले ही उनका ये सफ़र कभी अकेले ही शुरू हुआ हो लेकिन आज लोगों ने इस ‘अकेला’ को अकेला नहीं रहने दिया बल्कि एक भीड़ उसके साथ है। ‘अकेला’ के लिए ये कहना हक़-ब-जानिब होगा कि- “ मैं अकेला ही चला था जानिबे-मंज़िल मगर लोग साथ आते गये और कारवाँ बनता गया।” मेरी दुआ है कि अल्लाह वीरेन्द्र खरे ‘अकेला’ के क़लम को और भी तक़वीयत (सामर्थ्य) अता करे और ये क़लम के ऐसे धनी बनें कि सदियों इन्हें याद रखा जाये। 'अना' क़ासमी हिन्दी ग़ज़ल और गीत के क्षेत्र में युवा कवि वीरेन्द्र खरे ‘अकेला’ का नाम बहुत जाना पहचाना है। बुन्देलखण्ड में दूसरे दुष्यन्त कुमार कहे जाने वाले ‘अकेला’ ने अपनी मूल छवि के अनुरूप आम लोगों के दुख-दर्दों को समर्थ वाणी देने वाली हिन्दी ग़ज़लें कह कर दुष्यन्त कुमार की ग़ज़ल परम्परा को तो आगे बढ़ाया ही है साथ ही उन्होंने पारम्परिक हिन्दी गीत विधा को कथ्य और शिल्प की दृष्टि से एक नवीन सर्वग्राही रूप प्रदान करने का सराहनीय कार्य भी किया है। ‘अकेला’ की यह दूसरी कृति उनकी साहित्यिक प्रतिष्ठा को और पुख़्तगी देगी, ऐसा मेरा विश्वास है। -डॉ॰ गंगा प्रसाद बरसैंया श्रेणी:बुंदेलखंडी कवि.

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भारत

भारत (आधिकारिक नाम: भारत गणराज्य, Republic of India) दक्षिण एशिया में स्थित भारतीय उपमहाद्वीप का सबसे बड़ा देश है। पूर्ण रूप से उत्तरी गोलार्ध में स्थित भारत, भौगोलिक दृष्टि से विश्व में सातवाँ सबसे बड़ा और जनसंख्या के दृष्टिकोण से दूसरा सबसे बड़ा देश है। भारत के पश्चिम में पाकिस्तान, उत्तर-पूर्व में चीन, नेपाल और भूटान, पूर्व में बांग्लादेश और म्यान्मार स्थित हैं। हिन्द महासागर में इसके दक्षिण पश्चिम में मालदीव, दक्षिण में श्रीलंका और दक्षिण-पूर्व में इंडोनेशिया से भारत की सामुद्रिक सीमा लगती है। इसके उत्तर की भौतिक सीमा हिमालय पर्वत से और दक्षिण में हिन्द महासागर से लगी हुई है। पूर्व में बंगाल की खाड़ी है तथा पश्चिम में अरब सागर हैं। प्राचीन सिन्धु घाटी सभ्यता, व्यापार मार्गों और बड़े-बड़े साम्राज्यों का विकास-स्थान रहे भारतीय उपमहाद्वीप को इसके सांस्कृतिक और आर्थिक सफलता के लंबे इतिहास के लिये जाना जाता रहा है। चार प्रमुख संप्रदायों: हिंदू, बौद्ध, जैन और सिख धर्मों का यहां उदय हुआ, पारसी, यहूदी, ईसाई, और मुस्लिम धर्म प्रथम सहस्राब्दी में यहां पहुचे और यहां की विविध संस्कृति को नया रूप दिया। क्रमिक विजयों के परिणामस्वरूप ब्रिटिश ईस्ट इण्डिया कंपनी ने १८वीं और १९वीं सदी में भारत के ज़्यादतर हिस्सों को अपने राज्य में मिला लिया। १८५७ के विफल विद्रोह के बाद भारत के प्रशासन का भार ब्रिटिश सरकार ने अपने ऊपर ले लिया। ब्रिटिश भारत के रूप में ब्रिटिश साम्राज्य के प्रमुख अंग भारत ने महात्मा गांधी के नेतृत्व में एक लम्बे और मुख्य रूप से अहिंसक स्वतन्त्रता संग्राम के बाद १५ अगस्त १९४७ को आज़ादी पाई। १९५० में लागू हुए नये संविधान में इसे सार्वजनिक वयस्क मताधिकार के आधार पर स्थापित संवैधानिक लोकतांत्रिक गणराज्य घोषित कर दिया गया और युनाईटेड किंगडम की तर्ज़ पर वेस्टमिंस्टर शैली की संसदीय सरकार स्थापित की गयी। एक संघीय राष्ट्र, भारत को २९ राज्यों और ७ संघ शासित प्रदेशों में गठित किया गया है। लम्बे समय तक समाजवादी आर्थिक नीतियों का पालन करने के बाद 1991 के पश्चात् भारत ने उदारीकरण और वैश्वीकरण की नयी नीतियों के आधार पर सार्थक आर्थिक और सामाजिक प्रगति की है। ३३ लाख वर्ग किलोमीटर क्षेत्रफल के साथ भारत भौगोलिक क्षेत्रफल के आधार पर विश्व का सातवाँ सबसे बड़ा राष्ट्र है। वर्तमान में भारतीय अर्थव्यवस्था क्रय शक्ति समता के आधार पर विश्व की तीसरी और मानक मूल्यों के आधार पर विश्व की दसवीं सबसे बडी अर्थव्यवस्था है। १९९१ के बाज़ार-आधारित सुधारों के बाद भारत विश्व की सबसे तेज़ विकसित होती बड़ी अर्थ-व्यवस्थाओं में से एक हो गया है और इसे एक नव-औद्योगिकृत राष्ट्र माना जाता है। परंतु भारत के सामने अभी भी गरीबी, भ्रष्टाचार, कुपोषण, अपर्याप्त सार्वजनिक स्वास्थ्य-सेवा और आतंकवाद की चुनौतियां हैं। आज भारत एक विविध, बहुभाषी, और बहु-जातीय समाज है और भारतीय सेना एक क्षेत्रीय शक्ति है। .

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भारतीय

भारत देश के निवासियों को भारतीय कहा जाता है। भारत को हिन्दुस्तान नाम से भी पुकारा जाता है और इसीलिये भारतीयों को हिन्दुस्तानी भी कहतें है।.

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मध्य प्रदेश

मध्य प्रदेश भारत का एक राज्य है, इसकी राजधानी भोपाल है। मध्य प्रदेश १ नवंबर, २००० तक क्षेत्रफल के आधार पर भारत का सबसे बड़ा राज्य था। इस दिन एवं मध्यप्रदेश के कई नगर उस से हटा कर छत्तीसगढ़ की स्थापना हुई थी। मध्य प्रदेश की सीमाऐं पांच राज्यों की सीमाओं से मिलती है। इसके उत्तर में उत्तर प्रदेश, पूर्व में छत्तीसगढ़, दक्षिण में महाराष्ट्र, पश्चिम में गुजरात, तथा उत्तर-पश्चिम में राजस्थान है। हाल के वर्षों में राज्य के सकल घरेलू उत्पाद की विकास दर राष्ट्रीय औसत से ऊपर हो गया है। खनिज संसाधनों से समृद्ध, मध्य प्रदेश हीरे और तांबे का सबसे बड़ा भंडार है। अपने क्षेत्र की 30% से अधिक वन क्षेत्र के अधीन है। इसके पर्यटन उद्योग में काफी वृद्धि हुई है। राज्य में वर्ष 2010-11 राष्ट्रीय पर्यटन पुरस्कार जीत लिया। .

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हिन्दी

हिन्दी या भारतीय विश्व की एक प्रमुख भाषा है एवं भारत की राजभाषा है। केंद्रीय स्तर पर दूसरी आधिकारिक भाषा अंग्रेजी है। यह हिन्दुस्तानी भाषा की एक मानकीकृत रूप है जिसमें संस्कृत के तत्सम तथा तद्भव शब्द का प्रयोग अधिक हैं और अरबी-फ़ारसी शब्द कम हैं। हिन्दी संवैधानिक रूप से भारत की प्रथम राजभाषा और भारत की सबसे अधिक बोली और समझी जाने वाली भाषा है। हालांकि, हिन्दी भारत की राष्ट्रभाषा नहीं है क्योंकि भारत का संविधान में कोई भी भाषा को ऐसा दर्जा नहीं दिया गया था। चीनी के बाद यह विश्व में सबसे अधिक बोली जाने वाली भाषा भी है। विश्व आर्थिक मंच की गणना के अनुसार यह विश्व की दस शक्तिशाली भाषाओं में से एक है। हिन्दी और इसकी बोलियाँ सम्पूर्ण भारत के विविध राज्यों में बोली जाती हैं। भारत और अन्य देशों में भी लोग हिन्दी बोलते, पढ़ते और लिखते हैं। फ़िजी, मॉरिशस, गयाना, सूरीनाम की और नेपाल की जनता भी हिन्दी बोलती है।http://www.ethnologue.com/language/hin 2001 की भारतीय जनगणना में भारत में ४२ करोड़ २० लाख लोगों ने हिन्दी को अपनी मूल भाषा बताया। भारत के बाहर, हिन्दी बोलने वाले संयुक्त राज्य अमेरिका में 648,983; मॉरीशस में ६,८५,१७०; दक्षिण अफ्रीका में ८,९०,२९२; यमन में २,३२,७६०; युगांडा में १,४७,०००; सिंगापुर में ५,०००; नेपाल में ८ लाख; जर्मनी में ३०,००० हैं। न्यूजीलैंड में हिन्दी चौथी सर्वाधिक बोली जाने वाली भाषा है। इसके अलावा भारत, पाकिस्तान और अन्य देशों में १४ करोड़ १० लाख लोगों द्वारा बोली जाने वाली उर्दू, मौखिक रूप से हिन्दी के काफी सामान है। लोगों का एक विशाल बहुमत हिन्दी और उर्दू दोनों को ही समझता है। भारत में हिन्दी, विभिन्न भारतीय राज्यों की १४ आधिकारिक भाषाओं और क्षेत्र की बोलियों का उपयोग करने वाले लगभग १ अरब लोगों में से अधिकांश की दूसरी भाषा है। हिंदी हिंदी बेल्ट का लिंगुआ फ़्रैंका है, और कुछ हद तक पूरे भारत (आमतौर पर एक सरल या पिज्जाइज्ड किस्म जैसे बाजार हिंदुस्तान या हाफ्लोंग हिंदी में)। भाषा विकास क्षेत्र से जुड़े वैज्ञानिकों की भविष्यवाणी हिन्दी प्रेमियों के लिए बड़ी सन्तोषजनक है कि आने वाले समय में विश्वस्तर पर अन्तर्राष्ट्रीय महत्त्व की जो चन्द भाषाएँ होंगी उनमें हिन्दी भी प्रमुख होगी। 'देशी', 'भाखा' (भाषा), 'देशना वचन' (विद्यापति), 'हिन्दवी', 'दक्खिनी', 'रेखता', 'आर्यभाषा' (स्वामी दयानन्द सरस्वती), 'हिन्दुस्तानी', 'खड़ी बोली', 'भारती' आदि हिन्दी के अन्य नाम हैं जो विभिन्न ऐतिहासिक कालखण्डों में एवं विभिन्न सन्दर्भों में प्रयुक्त हुए हैं। .

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छतरपुर

छतरपुर भारत के मध्य प्रदेश प्रांत का एक शहर है। विश्व प्रसिद्ध खजुराहो के मंदिर इसी जिले में हैं। छतरपुर नगर, उत्तर-भारत मध्य प्रदेश राज्य, मध्य भारत में स्थित है। इसकी पूर्वी सीमा के पास से सिंघारी नदी बहती है। आरंभ में पन्ना सरदारों द्वारा शासित इस नगर पर 18वीं शताब्दी में कुंवर सोन सिंह का अधिकार हो गया। यह चारों ओर से पहाड़ों से घिरा है और वृक्षों, तालाबों तथा नदियों की बहुतायत के कारण अत्यंत दर्शनीय स्थल है। राव सागर, प्रताप सागर और किशोर सागर यहाँ के तीन महत्त्वपूर्ण तालाब हैं। छतरपुर का एक देशी राज्य था जो अब एक जिला हैं। इसमें मुख्यत: मैदानी भाग था। जिले की समुद्रतट से औसत ऊँचाई ६०० फुट है। केन यहाँ की प्रमुख नदी है। उर्मल और कुतुरी उसकी सहायता नदियाँ हैं। यहाँ पुरातत्व की दृष्टि से महत्व के स्थानों में खुजराहो, १८वीं सदी की इमारतें, छतरपुर से १० मील पश्चिम स्थित राजगढ़ के पास एक किले के अवशेष एवं चंदेलों द्वारा निर्मित अनेक तालाब हैं। कोदो, तिल, जौ, बाजरा, चना, गेहूँ तथा कपास यहाँ के मुख्य कृषिपदार्थ हैं। छतरपुर नगर छतरपुर जिले का प्रधान कार्यालय है। यह बाँदा-सागर-सड़क पर स्थित है। पहले नगर तीन ओर से दीवालों से घिरा था। नगर के केंद्र में रामहल तथा अन्य कई अच्छे मकान हैं। यहाँ एक स्नातकोत्तर डिग्री कालेज तथा कुछ स्कूल हैं। ताँबे के बर्तन, लकड़ी के सामान तथा साबुन निर्माण यहाँ के उद्योगों में प्रमुख हैं। समुद्र की सतह से ऊँचाई १,००० फुट है। नगर के कई तालाबों में रानी ताल प्रमुख हैं। .

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१८ अगस्त

18 अगस्त ग्रेगोरी कैलंडर के अनुसार वर्ष का 230वॉ (लीप वर्ष में 231 वॉ) दिन है। साल में अभी और 135 दिन बाकी है। .

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१९६८

1968 ग्रेगोरी कैलंडर का एक साधारण वर्ष है। .

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२१वीं शताब्दी

२१वीं शताब्दी ऍनो डोमिनो या आम युग की वर्तमान शताब्दी हैं, ग्रेगोरी कालदर्शक के अनुसार। इसका प्रारम्भ जनवरी १, २००१ को हुआ और दिसम्बर ३१, २१०० पर अंत होगा। ग्रेगरी पंचांग के अनुसार ईसा की इक्कीसवीं शताब्दी १ जनवरी २००१ से ३१ दिसम्बर २१०० तक मानी जाती हैं। यह ३रीं सहस्त्राब्दी की पहली शताब्दी है। यह 2000s के रूप में विख्यात शताब्दी से भिन्न हैं जिसका प्रारम्भ जनवरी १, २००० को हुआ और दिसम्बर ३१, २०९९ पर अंत होगी। .

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