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विकासवाद का इतिहास

सूची विकासवाद का इतिहास

अर्न्स्ट हैकेल द्वारा प्रतिपादित "जीवन वृक्ष"; इससे स्पष्ट होता है कि १९वीं शती में यह विचार आगे आने लगा था कि जीवों का क्रमिक विकास होकर मनुष्य बना है। विकासवाद (Evolutionary thought) की धारणा है कि समय के साथ जीवों में क्रमिक-परिवर्तन होते हैं। इस सिद्धान्त के विकास का लम्बा इतिहास है। १८वीं शती तक पश्चिमी जीववैज्ञानिक चिन्तन में यह विश्वास जड़ जमाये था कि प्रत्येक जीव में कुछ विलक्षण गुण हैं जो बदले नहीं जा सकते। इसे इशेंसियलिज्म (essentialism) कहा जाता है। पुनर्जागरण काल में यह धारणा बदलने लगी। १९वीं शती के आरम्भ में लैमार्क ने अपना विकासवाद का सिद्धान्त दिया जो क्रम-विकास (evolution) से सम्बन्धित प्रथम पूर्णत: निर्मित वैज्ञानिक सिद्धान्त था। .

6 संबंधों: डार्विनवाद, पुनर्जागरण, लैमार्क, लैमार्कवाद, जीवजाति का उद्भव, क्रम-विकास

डार्विनवाद

'''चार्ल्स डार्विन''' जैव-उद्विकास (organic-evolution) एवं प्राकृतिक चयन (natuaral selection) से सम्बन्धित चार्ल्स डार्विन के विचारों को डार्विनवाद कहते हैं। .

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पुनर्जागरण

फ्लोरेंस पुनर्जागरण का केन्द्र था पुनर्जागरण या रिनैंसा यूरोप में मध्यकाल में आये एक संस्कृतिक आन्दोलन को कहते हैं। यह आन्दोलन इटली से आरम्भ होकर पूरे यूरोप फैल गया। इस आन्दोलन का समय चौदहवीं शताब्दी से लेकर सत्रहवीं शताब्दी तक माना जाता है।.

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लैमार्क

जीन बैप्टिस्ट डी लामार्क लैमार्क या जीन बैप्टिस्ट पियेर आंत्वान द मॉनेट शीवेलियर द (Lamark, Jean Baptiste Pierre Antoine De Monet Chevalier De; 1744 से 1829 ई.) फ्रांसीसी जैवविज्ञानी थे। लामार्क प्रथम वैज्ञानिक थे, जिन्होंने कशेरुकी और अकशेरुकी जीवों में भेद किया और सर्वप्रथम इनवर्टीब्रेट (invertebrate) शब्द का उपयोग किया। 1802 ई. में इन्होंने जीव, या पौधों के अध्ययन के लिए बायोलोजी (Biologie) शब्द का उपयोग किया। इन्होंने मौसम विज्ञान और मौसम की पूर्वसूचनाओं से संबंधित वार्षिक रिपोर्टों का भी प्रकाशन किया था। ये विकासवाद के जन्मदाता हैं। इनका विकासवाद का सिद्धांत लामार्कवाद कहलाता है। .

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लैमार्कवाद

180px.p1090470।फ्रांस के प्रसिद जीववैज्ञानिक लेमार्क्क का विकास सिदांत। लैमार्कवाद, फ्रांस के जीववैज्ञानिक लैमार्क द्वारा प्रतिपादित विकासका सिद्धान्त (विकासवाद) था जो किसी समय बहुत मान्य हुआ था किन्तु बाद में इसे अस्वीकार कर दिया गया। संक्षेप में लामार्क का विकासवाद (या, लैमार्कवाद) यह है - वातावरण के परिवर्तन के कारण जीव की उत्पत्ति, अंगों का व्यवहार या अव्यवहार, जीवनकाल में अर्जित गुणों का जीवों द्वारा अपनी संतति में पारेषण। इस मत और डार्विन के मत में यह अंतर है कि इस मत में डारविन के प्राकृतिक वरण के सिद्धांत का अभाव है। .

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जीवजाति का उद्भव

'आन द ओरिजिन ऑफ स्पेसीज' के सन् 1859 संस्करण का मुखपृष्ठ पृथ्वी पर जीवों का किस प्रकार आविर्भाव हुआ और किस प्रकार उनका विकास हुआ, इसके विषय में हमेशा से बड़ा हो वाद विवाद रहा है। नए प्रकार के जीव की उत्पत्ति के विषय में चार्ल्स डार्विन ने 1858 ईo में 'प्राकृतिक वरण' (Natural Selection) का सिद्धांत प्रतिपादित किया और 1858 ईo में एक पुस्तक 'जीवजाति का उद्भव', (Origin of Species), प्रकाशित की। .

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क्रम-विकास

आनुवांशिकता का आधार डीएनए, जिसमें परिवर्तन होने पर नई जातियाँ उत्पन्न होती हैं। क्रम-विकास या इवोलुशन (English: Evolution) जैविक आबादी के आनुवंशिक लक्षणों के पीढ़ी दर पीढ़ी परिवर्तन को कहते हैं। क्रम-विकास की प्रक्रियायों के फलस्वरूप जैविक संगठन के हर स्तर (जाति, सजीव या कोशिका) पर विविधता बढ़ती है। पृथ्वी के सभी जीवों का एक साझा पूर्वज है, जो ३.५–३.८ अरब वर्ष पूर्व रहता था। इसे अंतिम सार्वजानिक पूर्वज कहते हैं। जीवन के क्रम-विकासिक इतिहास में बार-बार नयी जातियों का बनना (प्रजातिकरण), जातियों के अंतर्गत परिवर्तन (अनागेनेसिस), और जातियों का विलुप्त होना (विलुप्ति) साझे रूपात्मक और जैव रासायनिक लक्षणों (जिसमें डीएनए भी शामिल है) से साबित होता है। जिन जातियों का हाल ही में कोई साझा पूर्वज था, उन जातियों में ये साझे लक्षण ज्यादा समान हैं। मौजूदा जातियों और जीवाश्मों के इन लक्षणों के बीच क्रम-विकासिक रिश्ते (वर्गानुवंशिकी) देख कर हम जीवन का वंश वृक्ष बना सकते हैं। सबसे पुराने बने जीवाश्म जैविक प्रक्रियाओं से बने ग्रेफाइट के हैं, उसके बाद बने जीवाश्म सूक्ष्मजीवी चटाई के हैं, जबकि बहुकोशिकीय जीवों के जीवाश्म बहुत ताजा हैं। इस से हमें पता चलता है कि जीवन सरल से जटिल की तरफ विकसित हुआ है। आज की जैव विविधता को प्रजातिकरण और विलुप्ति, दोनों द्वारा आकार दिया गया है। पृथ्वी पर रही ९९ प्रतिशत से अधिक जातियाँ विलुप्त हो चुकी हैं। पृथ्वी पर जातियों की संख्या १ से १.४ करोड़ अनुमानित है। इन में से १२ लाख प्रलेखित हैं। १९ वीं सदी के मध्य में चार्ल्स डार्विन ने प्राकृतिक वरण द्वारा क्रम-विकास का वैज्ञानिक सिद्धांत दिया। उन्होंने इसे अपनी किताब जीवजाति का उद्भव (१८५९) में प्रकाशित किया। प्राकृतिक चयन द्वारा क्रम-विकास की प्रक्रिया को निम्नलिखित अवलोकनों से साबित किया जा सकता है: १) जितनी संतानें संभवतः जीवित रह सकती हैं, उस से अधिक पैदा होती हैं, २) आबादी में रूपात्मक, शारीरिक और व्यवहारिक लक्षणों में विविधता होती है, ३) अलग-अलग लक्षण उत्तर-जीवन और प्रजनन की अलग-अलग संभावना प्रदान करते हैं, और ४) लक्षण एक पीढ़ी से अगली पीढ़ी को दिए जाते हैं। इस प्रकार, पीढ़ी दर पीढ़ी आबादी उन शख़्सों की संतानों द्वारा प्रतिस्थापित हो जाती है जो उस बाईओफीसिकल परिवेश (जिसमें प्राकृतिक चयन हुआ था) के बेहतर अनुकूलित हों। प्राकृतिक वरण की प्रक्रिया इस आभासी उद्देश्यपूर्णता से उन लक्षणों को बनती और बरकरार रखती है जो अपनी कार्यात्मक भूमिका के अनुकूल हों। अनुकूलन का प्राकृतिक वरण ही एक ज्ञात कारण है, लेकिन क्रम-विकास के और भी ज्ञात कारण हैं। माइक्रो-क्रम-विकास के अन्य गैर-अनुकूली कारण उत्परिवर्तन और जैनेटिक ड्रिफ्ट हैं। .

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