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वामनावतार

सूची वामनावतार

वामन कुएँ से पानी निकालने जाते हुए वामन विष्णु के पाँचवे तथा त्रेता युग के पहले अवतार थे। इसके साथ ही यह विष्णु के पहले ऐसे अवतार थे जो मानव रूप में प्रकट हुए — अलबत्ता बौने ब्राह्मण के रूप में। इनको दक्षिण भारत में उपेन्द्र के नाम से भी जाना जाता है। .

29 संबंधों: तप, तुलसीदास, त्रिलोक, त्रेतायुग, दक्षिण भारत, पाताल, प्रह्लाद, पृथ्वी, बलि, बली, ब्रह्मा, बैकुण्ठ, भागवत पुराण, भू लोक, महात्मा, शुक्राचार्य, श्रीरामचरितमानस, सुदर्शन चक्र, स्वर्ग लोक, वामन पुराण, विरोचन, विष्णु, विष्णु पुराण, गंगा नदी, आदित्य, इन्द्र, कश्यप, अदिति, असुर

तप

जैन तपस्वी तपस् या तप का मूल अर्थ था प्रकाश अथवा प्रज्वलन जो सूर्य या अग्नि में स्पष्ट होता है। किंतु धीरे-धीरे उसका एक रूढ़ार्थ विकसित हो गया और किसी उद्देश्य विशेष की प्राप्ति अथवा आत्मिक और शारीरिक अनुशासन के लिए उठाए जानेवाले दैहिक कष्ट को तप कहा जाने लगा। .

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तुलसीदास

गोस्वामी तुलसीदास (1511 - 1623) हिंदी साहित्य के महान कवि थे। इनका जन्म सोरों शूकरक्षेत्र, वर्तमान में कासगंज (एटा) उत्तर प्रदेश में हुआ था। कुछ विद्वान् आपका जन्म राजापुर जिला बाँदा(वर्तमान में चित्रकूट) में हुआ मानते हैं। इन्हें आदि काव्य रामायण के रचयिता महर्षि वाल्मीकि का अवतार भी माना जाता है। श्रीरामचरितमानस का कथानक रामायण से लिया गया है। रामचरितमानस लोक ग्रन्थ है और इसे उत्तर भारत में बड़े भक्तिभाव से पढ़ा जाता है। इसके बाद विनय पत्रिका उनका एक अन्य महत्वपूर्ण काव्य है। महाकाव्य श्रीरामचरितमानस को विश्व के १०० सर्वश्रेष्ठ लोकप्रिय काव्यों में ४६वाँ स्थान दिया गया। .

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त्रिलोक

त्रिलोक हिन्दू मान्यता में तीन विश्व अर्थात् तीन लोक कहे जाते हैं। यह तीन लोक देवलोक, भूलोक तथा पाताल लोक माने जाते हैं। श्रेणी:हिन्दू धर्म.

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त्रेतायुग

हिन्दु काल सारणी त्रेतायुग हिंदू मान्यताओं के अनुसार चार युगों में से एक युग है। त्रेता युग मानवकाल के द्वितीय युग को कहते हैं। इस युग में विष्णु के पाँचवे, छठे तथा सातवें अवतार प्रकट हुए थे। यह अवतार वामन, परशुराम और राम थे। यह मान्यता है कि इस युग में ॠषभ रूपी धर्म तीन पैरों में खड़े हुए थे। इससे पहले सतयुग में वह चारों पैरों में खड़े थे। इसके बाद द्वापर युग में वह दो पैरों में और आज के अनैतिक युग में, जिसे कलियुग कहते हैं, सिर्फ़ एक पैर पर ही खड़े रहे। यह काल राम के देहान्त से समाप्त होता है। त्रेतायुग १२,९६,००० वर्ष का था। ब्रह्मा का एक दिवस 10,000 भागों में बंटा होता है, जिसे चरण कहते हैं: चारों युग 4 चरण (1,728,000 सौर वर्ष)सत युग 3 चरण (1,296,000 सौर वर्ष) त्रेता युग 2 चरण (864,000 सौर वर्ष)द्वापर युग 1 चरण (432,000 सौर वर्ष)कलि युग यह चक्र ऐसे दोहराता रहता है, कि ब्रह्मा के एक दिवस में 1000 महायुग हो जाते हैं जब द्वापर युग में गंधमादन पर्वत पर महाबली भीम सेन हनुमान जी से मिले तो हनुमान जी से कहा - की हे पवन कुमार आप तो युगों से प्रथ्वी पर निवास कर रहे हो आप महा ज्ञान के भण्डार हो बल बुधि में प्रवीण हो कृपया आप मेरे गुरु बनकर मुझे सिस्य रूप में स्वीकार कर के मुझे ज्ञान की भिक्षा दीजिये तो हनुमान जी ने कहा - हे भीम सेन सबसे पहले सतयुग आया उसमे जो कामना मन में आती थी वो कृत (पूरी)हो जाती थी इसलिए इसे क्रेता युग (सत युग)कहते थे इसमें धर्म को कभी हानि नहीं होती थी उसके बाद त्रेता युग आया इस युग में यग करने की परवर्ती बन गयी थी इसलिए इसे त्रेता युग कहते थे त्रेता युग में लोग कर्म करके कर्म फल प्राप्त करते थे, हे भीम सेन फिर द्वापर युग आया इस युग में विदों के ४ भाग हो गये और लूग सत भ्रष्ट हो गए धर्म के मार्ग से भटकने लगे है अधर्म बढ़ने लगा, परन्तु हे भीम सेन अब जो युग आएगा वो है कलयूग इस युग में धर्म ख़त्म हो जायेगा मनुष्य को उसकी इच्छा के अनुसार फल नहीं मिलेगा चारो और अधर्म ही अधर्म का साम्राज्य ही दिखाई देगा .

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दक्षिण भारत

भारत के दक्षिणी भाग को दक्षिण भारत भी कहते हैं। अपनी संस्कृति, इतिहास तथा प्रजातीय मूल की भिन्नता के कारण यह शेष भारत से अलग पहचान बना चुका है। हलांकि इतना भिन्न होकर भी यह भारत की विविधता का एक अंगमात्र है। दक्षिण भारतीय लोग मुख्यतः द्रविड़ भाषा जैसे तेलुगू,तमिल, कन्नड़ और मलयालम बोलते हैं और मुख्यतः द्रविड़ मूल के हैं। .

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पाताल

पाताल हिन्दू धर्म के अनुसार पृथ्वी के नीचे होते हैं। विष्णु पुराण के अनुसार सात प्रकार के पाताल लोक होते हैं। .

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प्रह्लाद

भगवान नृसिंह द्वारा हिरण्यकश्यप का वध और हाथ जोड़े हुए प्रह्लादविष्णुपुराण की एक कथा के अनुसार जिस समय असुर संस्कृति शक्तिशाली हो रही थी, उस समय असुर कुल में एक अद्भुत, प्रह्लाद नामक बालक का जन्म हुआ था। उसका पिता, असुर राज हिरण्यकश्यप देवताओं से वरदान प्राप्त कर के निरंकुश हो गया था। उसका आदेश था, कि उसके राज्य में कोई विष्णु की पूजा नही करेगा। परंतु प्रह्लाद विष्णु भक्त था और ईश्वर में उसकी अटूट आस्था थी। इस पर क्रोधित होकर हिरण्यकश्यप ने उसे मृत्यु दंड दिया। हिरण्यकश्यप की बहन, होलिका, जिस को आग से न मरने का वर था, प्रह्लाद को लेकर अग्नि में बैठ गई, परंतु ईश्वर की कृपा से प्रह्लाद को कुछ न हुआ और वह स्वयं भस्म हो गई। अगले दिन भग्वान विष्णु ने नरसिंह अवतार लेकर हिरण्यकश्यप को मार दिया और सृष्टि को उसके अत्याचारों से मुक्ति प्रदान की। इस ही अवसर को याद कर होली मनाई जाती है। इस प्रकार प्रह्लाद की कहानी होली के पर्व से जुड़ी हुई है।हमें भी प्रह्लाद की तरह बनना चाहिए।प्रियरंजन .

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पृथ्वी

पृथ्वी, (अंग्रेज़ी: "अर्थ"(Earth), लातिन:"टेरा"(Terra)) जिसे विश्व (The World) भी कहा जाता है, सूर्य से तीसरा ग्रह और ज्ञात ब्रह्माण्ड में एकमात्र ग्रह है जहाँ जीवन उपस्थित है। यह सौर मंडल में सबसे घना और चार स्थलीय ग्रहों में सबसे बड़ा ग्रह है। रेडियोधर्मी डेटिंग और साक्ष्य के अन्य स्रोतों के अनुसार, पृथ्वी की आयु लगभग 4.54 बिलियन साल हैं। पृथ्वी की गुरुत्वाकर्षण, अंतरिक्ष में अन्य पिण्ड के साथ परस्पर प्रभावित रहती है, विशेष रूप से सूर्य और चंद्रमा से, जोकि पृथ्वी का एकमात्र प्राकृतिक उपग्रह हैं। सूर्य के चारों ओर परिक्रमण के दौरान, पृथ्वी अपनी कक्षा में 365 बार घूमती है; इस प्रकार, पृथ्वी का एक वर्ष लगभग 365.26 दिन लंबा होता है। पृथ्वी के परिक्रमण के दौरान इसके धुरी में झुकाव होता है, जिसके कारण ही ग्रह की सतह पर मौसमी विविधताये (ऋतुएँ) पाई जाती हैं। पृथ्वी और चंद्रमा के बीच गुरुत्वाकर्षण के कारण समुद्र में ज्वार-भाटे आते है, यह पृथ्वी को इसकी अपनी अक्ष पर स्थिर करता है, तथा इसकी परिक्रमण को धीमा कर देता है। पृथ्वी न केवल मानव (human) का अपितु अन्य लाखों प्रजातियों (species) का भी घर है और साथ ही ब्रह्मांड में एकमात्र वह स्थान है जहाँ जीवन (life) का अस्तित्व पाया जाता है। इसकी सतह पर जीवन का प्रस्फुटन लगभग एक अरब वर्ष पहले प्रकट हुआ। पृथ्वी पर जीवन की उत्पत्ति के लिये आदर्श दशाएँ (जैसे सूर्य से सटीक दूरी इत्यादि) न केवल पहले से उपलब्ध थी बल्कि जीवन की उत्पत्ति के बाद से विकास क्रम में जीवधारियों ने इस ग्रह के वायुमंडल (the atmosphere) और अन्य अजैवकीय (abiotic) परिस्थितियों को भी बदला है और इसके पर्यावरण को वर्तमान रूप दिया है। पृथ्वी के वायुमंडल में आक्सीजन की वर्तमान प्रचुरता वस्तुतः जीवन की उत्पत्ति का कारण नहीं बल्कि परिणाम भी है। जीवधारी और वायुमंडल दोनों अन्योन्याश्रय के संबंध द्वारा विकसित हुए हैं। पृथ्वी पर श्वशनजीवी जीवों (aerobic organisms) के प्रसारण के साथ ओजोन परत (ozone layer) का निर्माण हुआ जो पृथ्वी के चुम्बकीय क्षेत्र (Earth's magnetic field) के साथ हानिकारक विकिरण को रोकने वाली दूसरी परत बनती है और इस प्रकार पृथ्वी पर जीवन की अनुमति देता है। पृथ्वी का भूपटल (outer surface) कई कठोर खंडों या विवर्तनिक प्लेटों में विभाजित है जो भूगर्भिक इतिहास (geological history) के दौरान एक स्थान से दूसरे स्थान को विस्थापित हुए हैं। क्षेत्रफल की दृष्टि से धरातल का करीब ७१% नमकीन जल (salt-water) के सागर से आच्छादित है, शेष में महाद्वीप और द्वीप; तथा मीठे पानी की झीलें इत्यादि अवस्थित हैं। पानी सभी ज्ञात जीवन के लिए आवश्यक है जिसका अन्य किसी ब्रह्मांडीय पिण्ड के सतह पर अस्तित्व ज्ञात नही है। पृथ्वी की आतंरिक रचना तीन प्रमुख परतों में हुई है भूपटल, भूप्रावार और क्रोड। इसमें से बाह्य क्रोड तरल अवस्था में है और एक ठोस लोहे और निकल के आतंरिक कोर (inner core) के साथ क्रिया करके पृथ्वी मे चुंबकत्व या चुंबकीय क्षेत्र को पैदा करता है। पृथ्वी बाह्य अंतरिक्ष (outer space), में सूर्य और चंद्रमा समेत अन्य वस्तुओं के साथ क्रिया करता है वर्तमान में, पृथ्वी मोटे तौर पर अपनी धुरी का करीब ३६६.२६ बार चक्कर काटती है यह समय की लंबाई एक नाक्षत्र वर्ष (sidereal year) है जो ३६५.२६ सौर दिवस (solar day) के बराबर है पृथ्वी की घूर्णन की धुरी इसके कक्षीय समतल (orbital plane) से लम्बवत (perpendicular) २३.४ की दूरी पर झुका (tilted) है जो एक उष्णकटिबंधीय वर्ष (tropical year) (३६५.२४ सौर दिनों में) की अवधी में ग्रह की सतह पर मौसमी विविधता पैदा करता है। पृथ्वी का एकमात्र प्राकृतिक उपग्रह चंद्रमा (natural satellite) है, जिसने इसकी परिक्रमा ४.५३ बिलियन साल पहले शुरू की। यह अपनी आकर्षण शक्ति द्वारा समुद्री ज्वार पैदा करता है, धुरिय झुकाव को स्थिर रखता है और धीरे-धीरे पृथ्वी के घूर्णन को धीमा करता है। ग्रह के प्रारंभिक इतिहास के दौरान एक धूमकेतु की बमबारी ने महासागरों के गठन में भूमिका निभाया। बाद में छुद्रग्रह (asteroid) के प्रभाव ने सतह के पर्यावरण पर महत्वपूर्ण बदलाव किया। .

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बलि

बलि (sacrifice) के दो रूप हैं। वैदिक पंचमहायज्ञ के अंतर्गत जो भूतयज्ञ हैं, वे धर्मशास्त्र में बलि या बलिहरण या भूतबलि शब्द से अभिहित होते हैं। दूसरा पशु आदि का बलिदान है। विश्वदेव कर्म करने के समय जो अन्नभाग अलग रख लिया जाता है, वह प्रथमोक्त बलि है। यह अन्न भाग देवयज्ञ के लक्ष्यभूत देव के प्रति एवं जल, वृक्ष, गृहपशु तथा इंद्र आदि देवताओं के प्रति उत्सृष्ट (समर्पित) होता है। गृह्यसूत्रों में इस कर्म का सविस्तार प्रतिपादन है। बलि रूप अन्नभाग अग्नि में छोड़ा नहीं जाता, बल्कि भूमि में फेंक दिया जाता है। इस प्रक्षेप क्रिया के विषय में मतभेद है। स्मार्त पूजा में पूजोपकरण (जिससे देवता की पूजा की जाती है) भी बलि कहलाता है (बलि पूजोपहार: स्यात्‌)। यह बलि भी देव के पति उत्सृष्ट होती है। देवता के उद्देश्य में छाग आदि पशुओं का जो हनन किया जाता है वह बलिदान कहलाता है (बलिउएतादृश उत्सर्ग योग्य पशु)। तंत्र आदि में महिष, छाग, गोधिका, शूकर, कृष्णसार, शरभ, हरि (वानर) आदि अनेक पशुओं को बलि के रूप में माना गया है। इक्षु, कूष्मांड आदि नानाविध उद्भिद् और फल भी बलिदान माने गए हैं। बलि के विषय में अनेक विधिनिषेध हैं। बलि को बलिदानकाल में पूर्वाभिमुख रखना चाहिए और खंडधारी बलिदानकारी उत्तराभिमुख रहेगा - यह प्रसिद्ध नियम है। बलि योग्य पशु के भी अनेक स्वरूप लक्षण कहे गए हैं। पंचमहायज्ञ के अंतर्गत बलि के कई अवांतर भेद कहे गए हैं - आवश्यक बलि, काम्यबलि आदि इस प्रसंग में ज्ञातव्य हैं। कई आचार्यों ने छागादि पशुओं के हनन को तामसपक्षीय कर्म माना है, यद्यपि तंत्र में ऐसे वचन भी हैं जिनसे पशु बलिदान को सात्विक भी माना गया है। कुछ ऐसी पूजाएँ हैं जिनमें पशु बलिदान अवश्य अनुष्ठेय होता है। वीरतंत्र, भावचूड़ामणि, यामल, तंत्रचूड़ामणि, प्राणतोषणी, महानिर्वाणतंत्र, मातृकाभेदतंत्र, वैष्णवीतंत्र, कृत्यमहार्णव, वृहन्नीलतंत्र, आदि ग्रंथों में बलिदान (विशेषकर पशुबलिदान) संबंधी चर्चा है। .

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बली

बली या मावेली विरोचन और देवाम्बा का पुत्र तथा प्रह्लाद का पौत्र था। वह एक दयालु असुर राजा था। तपस्या तथा बल के माध्यम से उसने देवताओं से अनेकों वरदान प्राप्त कर लिए थे तथा त्रिलोक का आधिपत्य हासिल कर लिया था। इस वजह से उसमें दंभ और अहंकार भर गया था। उसके इसी दंभ और अहंकार को शान्त करने के लिए भगवान विष्णु को वामनावतार का सहारा लेना पड़ा। हिन्दू पौराणिक कथाओं के अनुसार दक्षिण भारत के केरल राज्य में आज भी वामनावतार (विष्णु के पाँचवे अवतार) द्वारा उसे पाताल लोक भेजे जाने के बाद उसके वापस धरती पर वार्षिक आगमन पर ओणम का त्योहार मनाया जाता है। .

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ब्रह्मा

ब्रह्मा  सनातन धर्म के अनुसार सृजन के देव हैं। हिन्दू दर्शनशास्त्रों में ३ प्रमुख देव बताये गये है जिसमें ब्रह्मा सृष्टि के सर्जक, विष्णु पालक और महेश विलय करने वाले देवता हैं। व्यासलिखित पुराणों में ब्रह्मा का वर्णन किया गया है कि उनके चार मुख हैं, जो चार दिशाओं में देखते हैं।Bruce Sullivan (1999), Seer of the Fifth Veda: Kr̥ṣṇa Dvaipāyana Vyāsa in the Mahābhārata, Motilal Banarsidass, ISBN 978-8120816763, pages 85-86 ब्रह्मा को स्वयंभू (स्वयं जन्म लेने वाला) और चार वेदों का निर्माता भी कहा जाता है।Barbara Holdrege (2012), Veda and Torah: Transcending the Textuality of Scripture, State University of New York Press, ISBN 978-1438406954, pages 88-89 हिन्दू विश्वास के अनुसार हर वेद ब्रह्मा के एक मुँह से निकला था। ज्ञान, विद्या, कला और संगीत की देवी सरस्वती ब्रह्मा की पत्नी हैं। बहुत से पुराणों में ब्रह्मा की रचनात्मक गतिविधि उनसे बड़े किसी देव की मौजूदगी और शक्ति पर निर्भर करती है। ये हिन्दू दर्शनशास्त्र की परम सत्य की आध्यात्मिक संकल्पना ब्रह्मन् से अलग हैं।James Lochtefeld, Brahman, The Illustrated Encyclopedia of Hinduism, Vol.

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बैकुण्ठ

भगवान विष्णु का आवास। भगवान विष्णु जिस लोक में निवास करते हैं उसे बैकुण्ठ कहा जाता है। सरल शब्दों में बैकुण्ठ धाम जगतपालक भगवान विष्णु की दुनिया है। वैसे ही, जैसे कैलाश पर महादेव व ब्रह्मलोक में ब्रह्मदेव बसते हैं। इसके कई नाम हैं - साकेत, गोलोक, परमधाम, परमस्थान, परमपद, परमव्योम, सनातन आकाश, शाश्वत-पद, ब्रह्मपुर। शास्त्रों के अनुसार बहुत ही पुण्य से मनुष्य को इस लोक में स्थान मिलता है। जो यहां पहुंच जाता है उसे पुनः गर्भ में नहीं आता क्योंकि उसे मोक्ष की प्राप्ति हो जाती है। अध्यात्म की नजर से बैकुण्ठ धाम मन की अवस्था है। बैकुण्ठ कोई स्थान न होकर आध्यात्मिक अनुभूति का धरातल है। जिसे बैकुण्ठ धाम जाना हो, उसके लिए ज्ञान ही उम्मीद की किरण है। इससे वह ईश्वर के स्वरूप से एकाकार हो जाता है। लेकिन जिसके भीतर परम ज्ञान है, भगवान के प्रति अनन्य भक्ति है, वे ही बैकुण्ठ पहुंच सकते हैं। वहीं मानवीय जिंदगी के लिए बैकुण्ठ की सार्थकता ढूंढे तो बैकुण्ठ का शाब्दिक अर्थ है - जहां कुंठा न हो। कुंठा यानी निष्क्रियता, अकर्मण्यता, निराशा, हताशा, आलस्य और दरिद्रता। इसका मतलब यह हुआ कि बैकुण्ठ धाम ऐसा स्थान है जहां कर्महीनता नहीं है, निष्क्रियता नहीं है। व्यावहारिक जीवन में भी जिस स्थान पर निष्क्रियता नहीं होती उस स्थान पर रौनक होती है। .

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भागवत पुराण

सन १५०० में लिखित एक भागवत पुराण मे यशोदा कृष्ण को स्नान कराते हुए भागवत पुराण (Bhaagwat Puraana) हिन्दुओं के अट्ठारह पुराणों में से एक है। इसे श्रीमद्भागवतम् (Shrimadbhaagwatam) या केवल भागवतम् (Bhaagwatam) भी कहते हैं। इसका मुख्य वर्ण्य विषय भक्ति योग है, जिसमें कृष्ण को सभी देवों का देव या स्वयं भगवान के रूप में चित्रित किया गया है। इसके अतिरिक्त इस पुराण में रस भाव की भक्ति का निरुपण भी किया गया है। परंपरागत तौर पर इस पुराण का रचयिता वेद व्यास को माना जाता है। श्रीमद्भागवत भारतीय वाङ्मय का मुकुटमणि है। भगवान शुकदेव द्वारा महाराज परीक्षित को सुनाया गया भक्तिमार्ग तो मानो सोपान ही है। इसके प्रत्येक श्लोक में श्रीकृष्ण-प्रेम की सुगन्धि है। इसमें साधन-ज्ञान, सिद्धज्ञान, साधन-भक्ति, सिद्धा-भक्ति, मर्यादा-मार्ग, अनुग्रह-मार्ग, द्वैत, अद्वैत समन्वय के साथ प्रेरणादायी विविध उपाख्यानों का अद्भुत संग्रह है। .

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भू लोक

पृथ्वी के ऊपर के सभी लोक हिन्दू धर्म में विष्णु पुराण के अनुसार, कृतक त्रैलोक्य -- भूः, भुवः और स्वः – ये तीनों लोक मिलकर कृतक त्रैलोक्य कहलाते हैं। जितनी दूर तक सूर्य, चंद्रमा आदि का प्रकाश जाता है, वह पृथ्वी प्रदेश कहलाता है। श्रेणी:हिन्दू धर्म श्रेणी:विष्णु पुराण श्रेणी:हिन्दू कथाएं श्रेणी:हिन्दू इतिहास श्रेणी:भू लोक श्रेणी:नक्षत्र मंडल.

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महात्मा

महात्मा शब्द दो शब्दों महा और आत्मा के मेल से बना है और इसका अर्थ होता है एक महान व्यक्ति मूलत: यह शब्द संस्कृत का है पर अब यह शब्द हिन्दी सहित बिश्व की सभी प्रमुख भाषाओं मे इसी अर्थ मे प्रयुक्त होता है। ऋग्वेद में सभी मनुष्य जो पृथ्वी पर विचरण करते है, और महान कार्यों को करने के बाद जगत का कल्याण करने की कामना हमेशा अपने मन, कर्म और वाणी के अन्दर रखते है, महात्मा कहलाते हैं। महात्मा शब्द आधुनिक ईसाई धर्म मे प्रयोग होने वाले सेंट (संत) शब्द से बहुत हद तक मेल खाता है। इस उपाधि को प्रमुख हस्तियों जैसे मोहनदास करमचंद गांधी और ज्योतिराव फुले के लिए आम तौर पर प्रयुक्त किया जाता है। कई स्रोतों, जैसे दत्ता और रॉबिन्सन की रवीन्द्रनाथ टैगोर: एक संकलन, के अनुसार रवीन्द्रनाथ टैगोर पहले व्यक्ति थे जिन्होने गांधी जो को पहले पहल 21 यह उपाधि प्रदान की थी। नाम से पुकारा था, जबकि कुछों के मुताबिक नौत्तमलाल भगवानजी मेहता ने जैतपुर के कमरीबाई विद्यालय मे पहली बार 21 जनवरी 1915 को गांधी को " महात्मा " शीर्षक प्रदान किया था। शब्द का इस्तेमाल सिद्ध, मुक्त आत्माओं और पेशेवरों का उल्लेख करने के लिए भी किया जाता है। तकनीकी अर्थ में इस शब्द को लोकप्रियता विश्व मे थिओसोफीकल साहित्य मे प्रयोग होने के बाद मिली.

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शुक्राचार्य

शुक्र ग्रह के रूप में शुक्राचार्य की मूर्ति असुराचार्य, भृगु ऋषि तथा हिरण्यकशिपु की पुत्री दिव्या के पुत्र जो शुक्राचार्य के नाम से अधिक ख्यात हें। इनका जन्म का नाम 'शुक्र उशनस' है। पुराणों के अनुसार याह दैत्यों के गुरू तथा पुरोहित थे। कहते हैं, भगवान के वामनावतार में तीन पग भूमि प्राप्त करने के समय, यह राजा बलि की झारी के मुख में जाकर बैठ गए और बलि द्वारा दर्भाग्र से झारी साफ करने की क्रिया में इनकी एक आँख फूट गई। इसीलिए यह "एकाक्ष" भी कहे जाते थे। आरंभ में इन्होंने अंगिरस ऋषि का शिष्यत्व ग्रहण किया किंतु जब वह अपने पुत्र के प्रति पक्षपात दिखाने लगे तब इन्होंने शंकर की आराधना कर मृतसंजीवनी विद्या प्राप्त की जिसके बल पर देवासुर संग्राम में असुर अनेक बार जीते। इन्होंने 1,000 अध्यायोंवाले "बार्हस्पत्य शास्त्र" की रचना की। 'गो' और 'जयंती' नाम की इनकी दो पत्नियाँ थीं। असुरों के आचार्य होने के कारण ही इन्हें 'असुराचार्य' कहते हैं। .

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श्रीरामचरितमानस

गीताप्रेस गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीरामचरितमानस का आवरण श्री राम चरित मानस अवधी भाषा में गोस्वामी तुलसीदास द्वारा १६वीं सदी में रचित एक महाकाव्य है। इस ग्रन्थ को हिंदी साहित्य की एक महान कृति माना जाता है। इसे सामान्यतः 'तुलसी रामायण' या 'तुलसीकृत रामायण' भी कहा जाता है। रामचरितमानस भारतीय संस्कृति में एक विशेष स्थान रखता है। उत्तर भारत में 'रामायण' के रूप में बहुत से लोगों द्वारा प्रतिदिन पढ़ा जाता है। शरद नवरात्रि में इसके सुन्दर काण्ड का पाठ पूरे नौ दिन किया जाता है। रामायण मण्डलों द्वारा शनिवार को इसके सुन्दरकाण्ड का पाठ किया जाता है। श्री रामचरित मानस के नायक राम हैं जिनको एक महाशक्ति के रूप में दर्शाया गया है जबकि महर्षि वाल्मीकि कृत रामायण में श्री राम को एक मानव के रूप में दिखाया गया है। तुलसी के प्रभु राम सर्वशक्तिमान होते हुए भी मर्यादा पुरुषोत्तम हैं। त्रेता युग में हुए ऐतिहासिक राम-रावण युद्ध पर आधारित और हिन्दी की ही एक लोकप्रिय भाषा अवधी में रचित रामचरितमानस को विश्व के १०० सर्वश्रेष्ठ लोकप्रिय काव्यों में ४६वाँ स्थान दिया गया। .

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सुदर्शन चक्र

हाथ में सुदर्शन चक्र लिए विष्णु भगवन सुदर्शन चक्र भगवान विष्णु का शस्त्र है। इसको उन्होंने स्वयं तथा उनके कृष्ण अवतार ने धारण किया है। किंवदंती है कि इस चक्र को विष्णु ने गढ़वाल के श्रीनगर स्थित कमलेश्वर शिवालय में तपस्या कर के प्राप्त किया था। सुदर्शन चक्र अस्त्र के रूप में प्रयोग किया जाने वाला एक चक्र, जो चलाने के बाद अपने लक्ष्य पर पहुँचकर वापस आ जाता है। यह चक्र भगवानविष्णु को 'हरिश्वरलिंग' (शंकर) से प्राप्त हुआ था। सुदर्शन चक्र को विष्णु ने उनके कृष्ण के अवतार में धारण किया था। श्रीकृष्ण ने इस चक्र से अनेक राक्षसों का वध किया था। सुदर्शन चक्र भगवान विष्णु का अमोघ अस्त्र है। पुराणों में उल्लेख मिलता है कि इस चक्र ने देवताओं की रक्षा तथा राक्षसों के संहार में अतुलनीय भूमिका का निर्वाह किया था। सुदर्शन चक्र एक ऐसा अचूक अस्त्र था कि जिसे छोड़ने के बाद यह लक्ष्य का पीछा करता था और उसका काम तमाम करके वापस छोड़े गए स्थान पर आ जाता था। चक्र को विष्णु की तर्जनी अंगुली में घूमते हुए बताया जाता है। सबसे पहले यह चक्र उन्हीं के पास था। सिर्फ देवताओं के पास ही चक्र होते थे। चक्र सिर्फ उस मानव को ही प्राप्त होता था जिसे देवता लोग नियुक्त करते थे। भगवान विष्णु को सुदर्शन चक्र की प्राप्ति से सम्बन्धित एक अन्य प्रसंग निम्नलिखित है- एक बार जब दैत्यों के अत्याचार बहुत बढ़ गए, तब सभी देवता श्रीहरि विष्णु के पास आए। तब भगवान विष्णु ने कैलाश पर्वत पर जाकर भगवान शिव की विधिपूर्वक आराधना की। वे हजार नामों से शिव की स्तुति करने लगे। वे प्रत्येक नाम पर एक कमल पुष्प भगवान शिव को चढ़ाते। तब भगवान शंकर ने विष्णु की परीक्षा लेने के लिए उनके द्वारा लाए एक हजार कमल में से एक कमल का फूल छिपा दिया। शिव की माया के कारण विष्णु को यह पता न चला। एक फूल कम पाकर भगवान विष्णु उसे ढूँढने लगे। परंतु फूल नहीं मिला। तब विष्णु ने एक फूल की पूर्ति के लिए अपना एक नेत्र निकालकर शिव को अर्पित कर दिया। विष्णु की भक्ति देखकर भगवान शंकर बहुत प्रसन्न हुए और श्रीहरि के समक्ष प्रकट होकर वरदान मांगने के लिए कहा। तब विष्णु ने दैत्यों को समाप्त करने के लिए अजेय शस्त्र का वरदान माँगा। तब भगवान शंकर ने विष्णु को सुदर्शन चक्र प्रदान किया। विष्णु ने उस चक्र से दैत्यों का संहार किया। इस प्रकार देवताओं को दैत्यों से मुक्ति मिली तथा सुदर्शन चक्र उनके स्वरूप के साथ सदैव के लिए जुड़ गया। भगवान विष्णु और श्रीकृष्ण ने इस चक्र से अनेक राक्षसों का वध किया था। भगवान विश्वकर्मा की बेटी का विवाह भगवान सूर्य से हुआ था। शादी के बाद भी उनकी बेटी खुश नहीं थी, कारण, सूर्य की गर्मी और उनका ताप जिसके कारण वो अपना वैवाहिक जीवन नहीं जी पा रही थी, और फिर बेटी के कहने पर भगवान ने सूर्य से थोड़ी सी चमक और ताप ले के पुष्पक विमान का निर्माण किया। इसके साथ ही साथ भगवान शिव के त्रिशूल और भगवान विष्णु के सुदर्शन चक्र का निर्माण किया था। प्राचीन और प्रामाणिक शास्त्रों में ऐसी मान्यता है कि इसका निर्माण भगवान शंकर ने किया था। निर्माण के बाद भगवान शिव ने इसे श्री विष्णु को सौंप दिया था। सुदर्शन चक्र भगवान विष्णु को कैसे प्राप्त हुआ, इस विषय में एक कथा प्रचलित है, जो इस प्रकार है- प्राचीन समय में 'वीतमन्यु' नामक एक ब्राह्मण थे। वह वेदों के ज्ञाता थे। उनकी 'आत्रेयी' नाम की पत्नी थी, जो सदाचार युक्त थीं। उन्हें लोग 'धर्मशीला' के नाम से भी बुलाते थे। इस ब्राह्मण दंपति का एक पुत्र था, जिसका नाम 'उपमन्यु' था। परिवार बेहद निर्धनता में पल रहा था। गरीबी इस कदर थी कि धर्मशीला अपने पुत्र को दूध भी नहीं दे सकती थी। वह बालक दूध के स्वाद से अनभिज्ञ था। धर्मशीला उसे चावल का धोवन ही दूध कहकर पिलाया करती थी। एक दिन ऋषि वीतमन्यु अपने पुत्र के साथ कहीं प्रीतिभोज में गये। वहाँ उपमन्यु ने दूध से बनी हुई खीर का भोजन किया, तब उसे दूध के वास्तविक स्वाद का पता लग गया। घर आकर उसने चावल के धोवन को पीने से इंकार कर दिया। दूध पाने के लिए हठ पर अड़े बालक से उसकी माँ धर्मशीला ने कहा- "पुत्र, यदि तुम दूध को क्या, उससे भी अधिक पुष्टिकारक तथा स्वादयुक्त पेय पीना चाहते हो तो विरूपाक्ष महादेव की सेवा करो। उनकी कृपा से अमृत भी प्राप्त हो सकता है।" उपमन्यु ने अपनी माँ से पूछा- "माता, आप जिन विरूपाक्ष भगवान की सेवा-पूजा करने को कह रही हैं, वे कौन हैं?" धर्मशीला ने अपने पुत्र को बताया कि प्राचीन काल में श्रीदामा नाम से विख्यात एक महान असुर राज था। उसने सारे संसार को अपने अधीन करके लक्ष्मी को भी अपने वश में कर लिया। उसके यश और प्रताप से तीनों लोक श्रीहीन हो गये। उसका मान इतना बढ़ गया था कि वह भगवान विष्णु के श्रीवत्स को ही छीन लेने की योजना बनाने लगा। उस महाबलशाली असुर की इस दूषित मनोभावना को जानकर उसे मारने की इच्छा से भगवान विष्णु महेश्वर शिव के पास गये। उस समय महेश्वर हिमालय की ऊंची चोटी पर योगमग्न थे। तब भगवान विष्णु जगन्नाथ के पास जाकर एक हजार वर्ष तक पैर के अंगूठे पर खड़े रह कर परब्रह्म की उपासना करते रहे। भगवान विष्णु की इस प्रकार कठोर साधना से प्रसन्न होकर भगवान शिव ने उन्हें 'सुदर्शन चक्र' प्रदान किया। उन्होंने सुदर्शन चक्र को देते हुए भगवान विष्णु से कहा- "देवेश! यह सुदर्शन नाम का श्रेष्ठ आयुध बारह अरों, छह नाभियों एवं दो युगों से युक्त, तीव्र गतिशील और समस्त आयुधों का नाश करने वाला है। सज्जनों की रक्षा करने के लिए इसके अरों में देवता, राशियाँ, ऋतुएँ, अग्नि, सोम, मित्र, वरुण, शचीपति इन्द्र, विश्वेदेव, प्रजापति, हनुमान,धन्वन्तरि, तप तथा चैत्र से लेकर फाल्गुन तक के बारह महीने प्रतिष्ठित हैं। आप इसे लेकर निर्भीक होकर शत्रुओं का संहार करें। तब भगवान विष्णु ने उस सुदर्शन चक्र से असुर श्रीदामा को युद्ध में परास्त करके मार डाला। इस आयुध की खासियत थी कि इसे तेजी से हाथ से घुमाने पर यह हवा के प्रवाह से मिल कर प्रचंड़ वेग से अग्नि प्रज्जवलित कर दुश्मन को भस्म कर देता था। यह अत्यंत सुंदर, तीव्रगामी, तुरंत संचालित होने वाला एक भयानक अस्त्र था। भगवान श्री कृष्ण के पास यह देवी की कृपा से आया। यह चांदी की शलाकाओं से निर्मित था। इसकी ऊपरी और निचली सतहों पर लौह शूल लगे हुए थे। इसके साथ ही इसमें अत्यंत विषैले किस्म के विष, जिसे द्विमुखी पैनी छुरियों मे रखा जाता था, इसका भी उपयोग किया गया था। इसके नाम से ही विपक्षी सेना में मौत का भय छा जाता था। श्रेणी:पुराण श्रेणी:हिन्दू पौराणिक हथियार श्रेणी:शस्त्र.

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स्वर्ग लोक

स्वर्ग लोक या देवलोक हिन्दू मान्यता के अनुसार ब्रह्माण्ड के उस स्थान को कहते हैं जहाँ हिन्दू देवी-देवताओं का वास है। रघुवंशम् महाकाव्य में महाकवि कालिदास स्मृद्धिशाली राज्य को ही स्वर्ग की उपमा देते हैं। तद्रक्ष कल्याणपरम्पराणां भोक्तारमूर्जस्वलमात्मदेहम्। महीतलस्पर्शनमात्रभिन्नमृद्धं हि राज्यं पदमैन्यमाहुः।। अर्थात् हे राजन्! तुम उत्तरोत्तर सुखों का भोग करने वाले अत्यन्त बल से युक्त अपने शरीर की रक्षा करो, क्योंकि विद्वान् लोग समृद्धिशाली राज्यो को केवल पृथ्वीतल के सम्बन्ध होने से अलग हुआ इन्द्रसम्बन्धी स्थान (स्वर्ग) कहते हैं। हिन्दू धर्म में विष्णु पुराण के अनुसार, कृतक त्रैलोक्य -- भूः, भुवः और स्वः – ये तीनों लोक मिलकर कृतक त्रैलोक्य कहलाते हैं। सूर्य और ध्रुव के बीच जो चौदह लाख योजन का अन्तर है, उसे स्वर्लोक कहते हैं। हिंदु धर्म में, संस्कृत शब्द स्वर्ग को मेरु पर्वत के ऊपर के लोकों हेतु प्रयुक्त होता है। यह वह स्थान है, जहाँ पुण्य करने वाला, अपने पुण्य क्षीण होने तक, अगले जन्म लेने से पहले तक रहता है। यह स्थान उन आत्माओं हेतु नियत है, जिन्होंने पुण्य तो किए हैं, परंतु उन्में अभी मोक्ष या मुक्ति नहीं मिलनी है। यहाँ सब प्रकार के आनंद हैं, एवं पापों से परे रहते हैं। इसकी राजधानी है अमरावती, जिसका द्वारपाल है, इंद्र का वाहन ऐरावत। यहाँ के राजा हैं, इंद्र, देवताओं के प्रधान। श्रेणी:हिन्दू धर्म.

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वामन पुराण

वामन पुराण में मुख्यरूप से भगवान विष्णु के दिव्य माहात्म्य का व्याख्यान है। विष्णु के वामन अवतार से संबंधित यह दस हजार श्लोकों का पुराण शिवलिंग पूजा, गणेश -स्कन्द आख्यान, शिवपार्वती विवाह आदि विषयों से परिपूर्ण है। इसमें भगवान वामन, नर-नारायण, भगवती दुर्गा के उत्तम चरित्र के साथ भक्त प्रह्लाद तथा श्रीदामा आदि भक्तों के बड़े रम्य आख्यान हैं। इसके अतिरिक्त, शिवजीका लीला-चरित्र, जीवमूत वाहन-आख्यान, दक्ष-यज्ञ-विध्वंस, हरिका कालरूप, कामदेव-दहन, अंधक-वध, लक्ष्मी-चरित्र, प्रेतोपाख्यान, विभिन्न व्रत, स्तोत्र और अन्त में विष्णुभक्ति के उपदेशों के साथ इस पुराणका उपसंहार हुआ है। .

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विरोचन

विरोचन हिन्दू पौराणिक गाथाओ के अनुसार भक्त प्रह्लाद का पुत्र तथा बली का पिता और एक असुर राजा था। छान्दोग्य उपनिषद् के अनुसार इन्द्र और वह प्रजापति के पास आत्मन् के बारे में शिक्षा ग्रहण करने गये और ३२ वर्ष तक ब्रह्मचर्य का पालन किया। लेकिन अंत में विरोचन ने प्रजापति की शिक्षा को ग़लत समझ लिया और असुरों को आत्मन् की जगह शरीर को पूजने की शिक्षा देने लगा। इसी कारणवश असुर मृतक की देह को सुगंध, माला तथा आभूषणों से सुसज्जित करते थे। विरोचन देवताओं के साथ युद्ध में वीरगति को प्राप्त हुआ। .

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विष्णु

वैदिक समय से ही विष्णु सम्पूर्ण विश्व की सर्वोच्च शक्ति तथा नियन्ता के रूप में मान्य रहे हैं। हिन्दू धर्म के आधारभूत ग्रन्थों में बहुमान्य पुराणानुसार विष्णु परमेश्वर के तीन मुख्य रूपों में से एक रूप हैं। पुराणों में त्रिमूर्ति विष्णु को विश्व का पालनहार कहा गया है। त्रिमूर्ति के अन्य दो रूप ब्रह्मा और शिव को माना जाता है। ब्रह्मा को जहाँ विश्व का सृजन करने वाला माना जाता है, वहीं शिव को संहारक माना गया है। मूलतः विष्णु और शिव तथा ब्रह्मा भी एक ही हैं यह मान्यता भी बहुशः स्वीकृत रही है। न्याय को प्रश्रय, अन्याय के विनाश तथा जीव (मानव) को परिस्थिति के अनुसार उचित मार्ग-ग्रहण के निर्देश हेतु विभिन्न रूपों में अवतार ग्रहण करनेवाले के रूप में विष्णु मान्य रहे हैं। पुराणानुसार विष्णु की पत्नी लक्ष्मी हैं। कामदेव विष्णु जी का पुत्र था। विष्णु का निवास क्षीर सागर है। उनका शयन शेषनाग के ऊपर है। उनकी नाभि से कमल उत्पन्न होता है जिसमें ब्रह्मा जी स्थित हैं। वह अपने नीचे वाले बाएँ हाथ में पद्म (कमल), अपने नीचे वाले दाहिने हाथ में गदा (कौमोदकी),ऊपर वाले बाएँ हाथ में शंख (पाञ्चजन्य) और अपने ऊपर वाले दाहिने हाथ में चक्र(सुदर्शन) धारण करते हैं। शेष शय्या पर आसीन विष्णु, लक्ष्मी व ब्रह्मा के साथ, छंब पहाड़ी शैली के एक लघुचित्र में। .

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विष्णु पुराण

विष्णुपुराण अट्ठारह पुराणों में अत्यन्त महत्त्वपूर्ण तथा प्राचीन है। यह श्री पराशर ऋषि द्वारा प्रणीत है। यह इसके प्रतिपाद्य भगवान विष्णु हैं, जो सृष्टि के आदिकारण, नित्य, अक्षय, अव्यय तथा एकरस हैं। इस पुराण में आकाश आदि भूतों का परिमाण, समुद्र, सूर्य आदि का परिमाण, पर्वत, देवतादि की उत्पत्ति, मन्वन्तर, कल्प-विभाग, सम्पूर्ण धर्म एवं देवर्षि तथा राजर्षियों के चरित्र का विशद वर्णन है। भगवान विष्णु प्रधान होने के बाद भी यह पुराण विष्णु और शिव के अभिन्नता का प्रतिपादक है। विष्णु पुराण में मुख्य रूप से श्रीकृष्ण चरित्र का वर्णन है, यद्यपि संक्षेप में राम कथा का उल्लेख भी प्राप्त होता है। अष्टादश महापुराणों में श्रीविष्णुपुराण का स्थान बहुत ऊँचा है। इसमें अन्य विषयों के साथ भूगोल, ज्योतिष, कर्मकाण्ड, राजवंश और श्रीकृष्ण-चरित्र आदि कई प्रंसगों का बड़ा ही अनूठा और विशद वर्णन किया गया है। श्री विष्णु पुराण में भी इस ब्रह्माण्ड की उत्पत्ति, वर्ण व्यवस्था, आश्रम व्यवस्था, भगवान विष्णु एवं माता लक्ष्मी की सर्वव्यापकता, ध्रुव प्रह्लाद, वेनु, आदि राजाओं के वर्णन एवं उनकी जीवन गाथा, विकास की परम्परा, कृषि गोरक्षा आदि कार्यों का संचालन, भारत आदि नौ खण्ड मेदिनी, सप्त सागरों के वर्णन, अद्यः एवं अर्द्ध लोकों का वर्णन, चौदह विद्याओं, वैवस्वत मनु, इक्ष्वाकु, कश्यप, पुरुवंश, कुरुवंश, यदुवंश के वर्णन, कल्पान्त के महाप्रलय का वर्णन आदि विषयों का विस्तृत विवेचन किया गया है। भक्ति और ज्ञान की प्रशान्त धारा तो इसमें सर्वत्र ही प्रच्छन्न रूप से बह रही है। यद्यपि यह पुराण विष्णुपरक है तो भी भगवान शंकर के लिये इसमे कहीं भी अनुदार भाव प्रकट नहीं किया गया। सम्पूर्ण ग्रन्थ में शिवजी का प्रसंग सम्भवतः श्रीकृ्ष्ण-बाणासुर-संग्राम में ही आता है, सो वहाँ स्वयं भगवान कृष्ण महादेवजी के साथ अपनी अभिन्नता प्रकट करते हुए श्रीमुखसे कहते हैं- .

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गंगा नदी

गंगा (गङ्गा; গঙ্গা) भारत की सबसे महत्त्वपूर्ण नदी है। यह भारत और बांग्लादेश में कुल मिलाकर २,५१० किलोमीटर (कि॰मी॰) की दूरी तय करती हुई उत्तराखण्ड में हिमालय से लेकर बंगाल की खाड़ी के सुन्दरवन तक विशाल भू-भाग को सींचती है। देश की प्राकृतिक सम्पदा ही नहीं, जन-जन की भावनात्मक आस्था का आधार भी है। २,०७१ कि॰मी॰ तक भारत तथा उसके बाद बांग्लादेश में अपनी लंबी यात्रा करते हुए यह सहायक नदियों के साथ दस लाख वर्ग किलोमीटर क्षेत्रफल के अति विशाल उपजाऊ मैदान की रचना करती है। सामाजिक, साहित्यिक, सांस्कृतिक और आर्थिक दृष्टि से अत्यन्त महत्त्वपूर्ण गंगा का यह मैदान अपनी घनी जनसंख्या के कारण भी जाना जाता है। १०० फीट (३१ मी॰) की अधिकतम गहराई वाली यह नदी भारत में पवित्र मानी जाती है तथा इसकी उपासना माँ तथा देवी के रूप में की जाती है। भारतीय पुराण और साहित्य में अपने सौन्दर्य और महत्त्व के कारण बार-बार आदर के साथ वंदित गंगा नदी के प्रति विदेशी साहित्य में भी प्रशंसा और भावुकतापूर्ण वर्णन किये गये हैं। इस नदी में मछलियों तथा सर्पों की अनेक प्रजातियाँ तो पायी ही जाती हैं, मीठे पानी वाले दुर्लभ डॉलफिन भी पाये जाते हैं। यह कृषि, पर्यटन, साहसिक खेलों तथा उद्योगों के विकास में महत्त्वपूर्ण योगदान देती है तथा अपने तट पर बसे शहरों की जलापूर्ति भी करती है। इसके तट पर विकसित धार्मिक स्थल और तीर्थ भारतीय सामाजिक व्यवस्था के विशेष अंग हैं। इसके ऊपर बने पुल, बांध और नदी परियोजनाएँ भारत की बिजली, पानी और कृषि से सम्बन्धित ज़रूरतों को पूरा करती हैं। वैज्ञानिक मानते हैं कि इस नदी के जल में बैक्टीरियोफेज नामक विषाणु होते हैं, जो जीवाणुओं व अन्य हानिकारक सूक्ष्मजीवों को जीवित नहीं रहने देते हैं। गंगा की इस अनुपम शुद्धीकरण क्षमता तथा सामाजिक श्रद्धा के बावजूद इसको प्रदूषित होने से रोका नहीं जा सका है। फिर भी इसके प्रयत्न जारी हैं और सफ़ाई की अनेक परियोजनाओं के क्रम में नवम्बर,२००८ में भारत सरकार द्वारा इसे भारत की राष्ट्रीय नदी तथा इलाहाबाद और हल्दिया के बीच (१६०० किलोमीटर) गंगा नदी जलमार्ग को राष्ट्रीय जलमार्ग घोषित किया है। .

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आदित्य

ये कश्यप ऋषि पत्नी अदिति से उत्पन्न हुऐ थे और इनकी गणना बारह आदित्यों में की जाती है इसको भगवन सूर्य के नाम से भी जाना जाता है:- .

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इन्द्र

इन्द्र (या इंद्र) हिन्दू धर्म में सभी देवताओं के राजा का सबसे उच्च पद था जिसकी एक अलग ही चुनाव-पद्धति थी। इस चुनाव पद्धति के विषय में स्पष्ट वर्णन उपलब्ध नहीं है। वैदिक साहित्य में इन्द्र को सर्वोच्च महत्ता प्राप्त है लेकिन पौराणिक साहित्य में इनकी महत्ता निरन्तर क्षीण होती गयी और त्रिदेवों की श्रेष्ठता स्थापित हो गयी। .

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कश्यप

आंध्र प्रदेश में कश्यप प्रतिमा वामन अवतार, ऋषि कश्यप एवं अदिति के पुत्र, महाराज बलि के दरबार में। कश्यप ऋषि एक वैदिक ऋषि थे। इनकी गणना सप्तर्षि गणों में की जाती थी। हिन्दू मान्यता अनुसार इनके वंशज ही सृष्टि के प्रसार में सहायक हुए। .

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अदिति

अदिति कश्यप ऋषि की दूसरी पत्नी थीं। इनके बारह पुत्र हुए जो आदित्य कहलाए (अदितेः अपत्यं पुमान् आदित्यः)। उन्हें देवता भी कहा जाता है। अतः अदिति को देवमाता कहा जाता है। संस्कृत शब्द अदिति का अर्थ होता है 'असीम'। .

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असुर

मैसूर में महिषासुर की प्रतिमा हिन्दू धर्मग्रन्थों में असुर वे लोग हैं जो 'सुर' (देवताओं) से संघर्ष करते हैं। धर्मग्रन्थों में उन्हें शक्तिशाली, अतिमानवीय, अर्धदेवों के रूप में चित्रित किया गया है। ये अच्छे और बुरे दोनों गुणों वाले हैं। अच्छे गुणों वाले असुरों को 'अदित्य' तथा बुरे गुणों से युक्त असुरों को 'दानव' कहा गया है। 'असुर' शब्द का प्रयोग ऋग्वेद में लगभग १०५ बार हुआ है। उसमें ९० स्थानों पर इसका प्रयोग 'शोभन' अर्थ में किया गया है और केवल १५ स्थलों पर यह 'देवताओं के शत्रु' का वाचक है। 'असुर' का व्युत्पत्तिलभ्य अर्थ है- प्राणवंत, प्राणशक्ति संपन्न ('असुरिति प्राणनामास्त: शरीरे भवति, निरुक्ति ३.८) और इस प्रकार यह वैदिक देवों के एक सामान्य विशेषण के रूप में व्यवहृत किया गया है। विशेषत: यह शब्द इंद्र, मित्र तथा वरुण के साथ प्रयुक्त होकर उनकी एक विशिष्ट शक्ति का द्योतक है। इंद्र के तो यह वैयक्तिक बल का सूचक है, परंतु वरुण के साथ प्रयुक्त होकर यह उनके नैतिक बल अथवा शासनबल का स्पष्टत: संकेत करता है। असुर शब्द इसी उदात्त अर्थ में पारसियों के प्रधान देवता 'अहुरमज़्द' ('असुर: मेधावी') के नाम से विद्यमान है। यह शब्द उस युग की स्मृति दिलाता है जब वैदिक आर्यों तथा ईरानियों (पारसीकों) के पूर्वज एक ही स्थान पर निवास कर एक ही देवता की उपासना में निरत थे। अनंतर आर्यों की इन दोनों शाखाओं में किसी अज्ञात विरोध के कारण फूट पड़ी गई। फलत: वैदिक आर्यों ने 'न सुर: असुर:' यह नवीन व्युत्पत्ति मानकर असुर का प्रयोग दैत्यों के लिए करना आरंभ किया और उधर ईरानियों ने भी देव शब्द का ('द एव' के रूप में) अपने धर्म के दानवों के लिए प्रयोग करना शुरू किया। फलत: वैदिक 'वृत्रघ्न' (इंद्र) अवस्ता में 'वेर्थ्रोघ्न' के रूप में एक विशिष्ट दैत्य का वाचक बन गया तथा ईरानियों का 'असुर' शब्द पिप्रु आदि देवविरोधी दानवों के लिए ऋग्वेद में प्रयुक्त हुआ जिन्हें इंद्र ने अपने वज्र से मार डाला था। (ऋक्. १०।१३८।३-४)। शतपथ ब्राह्मण की मान्यता है कि असुर देवदृष्टि से अपभ्रष्ट भाषा का प्रयोग करते हैं (तेऽसुरा हेलयो हेलय इति कुर्वन्त: पराबभूवु)। पतंजलि ने अपने 'महाभाष्य' के पस्पशाह्निक में शतपथ के इस वाक्य को उधृत किया है। शबर स्वामी ने 'पिक', 'नेम', 'तामरस' आदि शब्दों को असूरी भाषा का शब्द माना है। आर्यों के आठ विवाहों में 'आसुर विवाह' का संबंध असुरों से माना जाता है। पुराणों तथा अवांतर साहित्य में 'असुर' एक स्वर से दैत्यों का ही वाचक माना गया है। .

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यहां पुनर्निर्देश करता है:

भगवान् वामन, वामन, वामन अवतार, वामन् अवतार

निवर्तमानआने वाली
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