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वज्रसत्त्व

सूची वज्रसत्त्व

तिब्बती शैली के वज्रसत्त्व (चीन के चिंग वंश) जिनके दाहिने हाथ में वज्र है और बायें हाथ में घण्टी है। वज्रसत्त्व (तिब्बती:। རྡོ་རྗེ་སེམས་དཔའ།, संक्षेप में རྡོར་སེམས།; Монгол: Доржсэмбэ) महायान तथा मन्त्रयान/वज्रयान बौद्ध परम्परा में बोधिसत्त्व का नाम है। .

3 संबंधों: तिब्बती भाषा, बोधिसत्व, आदिबुद्ध

तिब्बती भाषा

तिब्बती भाषा (तिब्बती लिपि में: བོད་སྐད་, ü kä), तिब्बत के लोगों की भाषा है और वहाँ की राजभाषा भी है। यह तिब्बती लिपि में लिखी जाती है। ल्हासा में बोली जाने वाली भाषा को मानक तिब्बती माना जाता है। .

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बोधिसत्व

बौद्ध धर्म में, बोधिसत्व (बोधिसत्त्व; बोधिसत्त) सत्त्व के लिए प्रबुद्ध (शिक्षा दिये हुये) को कहते हैं। पारम्परिक रूप से महान दया से प्रेरित, बोधिचित्त जनित, सभी संवेदनशील प्राणियों के लाभ के लिए सहज इच्छा से बुद्धत्व प्राप्त करने वाले को बोधिसत्व माना जाता है। तिब्बती बौद्ध धर्म के अनुसार, बोधिसत्व मानव द्वारा जीवन में प्राप्त करने योग्य चार उत्कृष्ठ अवस्थाओं में से एक है। बोधिसत्व शब्द का उपयोग समय के साथ विकसित हुआ। प्राचीन भारतीय बौद्ध धर्म के अनुसार, उदाहरण के लिए गौतम बुद्ध के पूर्व जीवन को विशिष्ट रूप से प्रदर्शित करने के लिए काम में लिया जाता था।http://www.britannica.com/EBchecked/topic/70982/bodhisattva दस पारमिताओं का पूर्ण पालन करने वाला बोधिसत्व कहलाता है। बोधिसत्व जब दस बलों या भूमियों (मुदिता, विमला, दीप्ति, अर्चिष्मती, सुदुर्जया, अभिमुखी, दूरंगमा, अचल, साधुमती, धम्म-मेघा) को प्राप्त कर लेते हैं तब " गौतम बुद्ध " कहलाते हैं, बुद्ध बनना ही बोधिसत्व के जीवन की पराकाष्ठा है। इस पहचान को बोधि (ज्ञान) नाम दिया गया है। कहा जाता है कि बुद्ध शाक्यमुनि केवल एक बुद्ध हैं - उनके पहले बहुत सारे थे और भविष्य में और होंगे। उनका कहना था कि कोई भी बुद्ध बन सकता है अगर वह दस पारमिताओं का पूर्ण पालन करते हुए बोधिसत्व प्राप्त करे और बोधिसत्व के बाद दस बलों या भूमियों को प्राप्त करे। बौद्ध धर्म का अन्तिम लक्ष्य है सम्पूर्ण मानव समाज से दुःख का अंत। "मैं केवल एक ही पदार्थ सिखाता हूँ - दुःख है, दुःख का कारण है, दुःख का निरोध है, और दुःख के निरोध का मार्ग है" (बुद्ध)। बौद्ध धर्म के अनुयायी अष्टांगिक मार्ग पर चलकर न के अनुसार जीकर अज्ञानता और दुःख से मुक्ति और निर्वाण पाने की कोशिश करते हैं। .

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आदिबुद्ध

वज्रसत्व (तिब्बत) आदिबुद्ध अर्थात्‌ बुद्धों में आदिम। इन्हें पंचध्यानी बुद्धों में आदिम अथवा प्रथम कहा गया है। कुछ लोगों के अनुसार प्रारंभ में रूप, वेदना, संज्ञा, संस्कार और विज्ञान नामक पाँच बौद्ध तत्वों अथवा स्कंधों के मूर्तरूप पंचध्यानी बुद्धों की रचना हुई। बुद्धों के कुलों की कल्पना के साथ कुलेशों की भी कल्पना हुई। आदिबुद्ध संबंधी सिद्धांत के अभ्युदयकाल के संबंध में विभिन्न मत हैं। कुछ के अनुसार 10वीं ईसवी शताब्दी, दूसरे मत के अनुसार सातवीं शताब्दी तथा तीसरे मत के अनुसार प्रथम ईसवी शताब्दी में इस सिद्धांत का अभ्युदय हुआ। इतना निश्चित है कि यह आदिबुद्धसिद्धांत बौद्धों का ईश्वरवादी सिद्धांत मान लिया गया है। लगभग छठी सातवीं ई. शताब्दी में तत्कालीन वज्रयानी आचार्यों ने आस्तिक मतों को एक पूर्ण विकसित अद्वैतवादी दर्शन की ओर अभिमुख होते देखा और उन लोगों ने बहुदेववादी बौद्ध देवमंडल को संस्कृत करने के उद्देश्य से उस समय के पंचस्कंधों के अधिष्ठाता उन ध्यानी बुद्धों के कुलों और कुलेशों का विकास किया जो अपने-अपने कुलों के आदिबुद्ध थे। हिंदू ईश्वरवादी सिद्धांतों से प्रेरणा ग्रहण करते हुए उन लागों ने इन सभी कुलों के भी प्रथम अथवा आदिम बुद्ध की विचारणा के क्रम में आदिबुद्ध अथवा वज्रधरसिद्धांत का विकास किया। आदिबुद्ध को ही वज्रयान का सर्वोच्च देवता स्थिर किया गया और यह माना गया कि पंचध्यानी बुद्धों का उन्हीं से विकास हुआ। इस सिद्धांत का प्रवर्तन कुछ मतों के अनुसार नालंदा विहार में 10वीं शताब्दी के प्रारंभ में हुआ। दूसरे मतों के अनुसार इसका प्रवर्तन सातवीं शताब्दी में ही मध्यभारत में हुआ। प्रवर्तन के उपरांत इनके स्वरूप की कल्पना की गई, मूर्तियाँ बनीं और पूजाविधान भी स्थिर हुआ। आदिबुद्धसिद्धांत से संबंधित विशेष तंत्र कालचक्रतंत्र है। इसे ही मूल तंत्र माना जाता है जिसमें आदिबुद्धसिद्धांत का प्रवर्तन हुआ। इस दृष्टि से इस तंत्रविशेष का भी समय 10वीं शताब्दी निश्चित हाता है। इस सिद्धांत को सर्वप्रथम कालचक्रयान में ही स्वीकार किया गया। आदिबुद्ध के दूसरे दो प्रसिद्ध नाम हैं वज्रसत्व और वज्रधर। कुछ लोगों के अनुसर वज्रधर की कल्पना आदिबुद्ध के बाद की है अर्थात्‌ वज्रधर का ध्यानी बुद्ध अक्षोभ्य से विकसित बोधिसत्व वज्रपाणि से विकास हुआ। इस प्रकार वज्रसत्व परवर्ती विकास है। प्राय: वज्रधर और वज्रसत्व को एक मान लिया जाता है। आदिबुद्ध इन सभी ध्यानी बुद्धों के जनक हैं और साथ ही तांत्रिक बौद्ध देवमंडल के सर्वोच्च देवता हैं। आदिबुद्ध की मानवाकृति में अभिव्यक्ति दो रूपों में मिलती है-एकाकी रूप में और युगनद्ध रूप में। एकाकी रूप में आदिबुद्ध प्रभूतभावेन अलंकृत और वज्रपर्यंक आसन में अथवा ध्यानमुद्रा में अभिव्यक्त होते हैं। उनके दोनों पैर एक दूसरे पर आरोपित रहते हैं और दोनों तलवे ऊर्ध्वमुख रहते हैं। उनके दाहिने हाथ में वज्र, बाएँ हाथ में घंटा और शेष दोनों हाथ वक्ष भाग पर एक दूसरे पर वज्रहुँकार मद्रा में स्थित रहते हैं। इस अभिव्यक्ति में वज्र परमतत्व शून्य का और घंटा उस प्रज्ञा का प्रतीक है जिसकी ध्वनि दूर-दूर तक प्रसारित होती है। कभी-कभी ए प्रतीक कमल पर दोनों तरफ दिखाए जाते हैं जिनमें से वज्र दाहिनी ओर और घंटा बाईं ओर प्रदर्शित होता है। युगनद्ध मुद्रा में आदिबुद्ध अथवा बज्रधर उपर्युक्त विशेषताओं के अतिरिक्त अपनी उस शक्ति से भी संपरिष्वक्त रहते हैं जिसे प्रज्ञापारमिता कहा जाता है। यह शक्ति आकार में लघुतरे और प्रभूतभावेन अलंकृत होती है। यह दाहिने हाथ में कर्तरी और बाएँ हाथ में कपाल धारण किए रहती हैं। कर्तरी अज्ञान के विनाश का प्रतीक है और कपाल पूर्ण एकता का। युगनद्ध मुद्रा में यह प्रतीकीकृत होता है कि द्वयता और अद्वय में भेद मिथ्या है और दोनों जललवणभावेन विमिश्रित हैं। तिब्बती लामा धर्म में इन्हें प्राय: नीलवर्ण, प्राय: नग्न, बुद्धापुरुप आसन और ध्यानमुद्रा में अंकित किया जाता है। इस सिद्धांत के तांत्रिक बौद्ध धर्म में पूर्णतया प्रतिष्ठित हो जाने के बाद आदिबुद्ध के विभिन्न पक्षों एवं रूपों के प्रति आस्था रखनेवाले बौद्धों ने अपने को विभिन्न संप्रदायों में विभक्त कर लिया। किसी-किसी ने पंचध्यानी बुद्धों में से ही किसी को आदिबुद्ध मान लिया, किसी ने वज्रसत्व को ही आदिबुद्ध के रूप में स्वीकार कर लिया और किसी ने समंतभद्र या वज्रपाणि जैसे बोधिसत्व को ही आदिबुद्ध की मान्यता दे दी। इस प्रकार आदिबुद्ध मत विभिन्न संप्रदायों में विभक्त हो गया। नेपाल में आज भी बौद्ध आदिबुद्ध से संबंधित विभिन्न संप्रदायों में विभक्त हैं। वहाँ कुछ बौद्ध संप्रदाय वैरोचन अथवा अक्षोभ्य को आदिबुद्ध मानते हैं और कुछ अमिताभ को। इस आदिबुद्ध के अभ्युदय तथा उनके मत के प्रसारक्षेत्र, मंदिरादि के संबंध में कथाएँ मिलती हैं। इनके अभ्युदय के संबंध में स्वयंभूपुराण के आधार पर कहा जाता है कि आदिबुद्ध स्वयं नेपाल के कालीदह क्षेत्र में सर्वप्रथम एक ज्वाला के रूप में प्रकट हुए और मंजुश्री ने उस ज्वाला की रक्षा के लिए उसपर एक मंदिर का निर्माण कराया। यही प्राचीन मंदिर स्वयंभू चैत्य के रूप में आज भी प्रसिद्ध है। इस प्रकार आदिबुद्ध की एक ऐसी ज्वाला के रूप में पूजा की जाती है जिसे वज्रचार्य नित्य, स्वयंभू और स्वतंत्र मानते हैं। .

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