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लौह धातुकर्म का इतिहास

सूची लौह धातुकर्म का इतिहास

दिल्ली का लौह स्तम्भदिल्ली का लोह स्तम्भ भारत के लोहे तथा इस्पात की कई विशेषतायें थी। वह पू्र्णतया ज़ंग मुक्त थे। इस का प्रत्यक्षप्रमाण पच्चीस फुट ऊंचा कुतुब मीनार के स्मीप दिल्ली स्थित लोह स्तम्भ है जो लग भग 1600 वर्ष पूर्व गुप्त वँश के सम्राट चन्द्रगुप्त विक्रमादित्य के काल का है और धातु ज्ञान का आश्चर्य जनक कीर्तिमान है। इस लोह स्तम्भ का व्यास 16.4 इन्च है तथा वज़न साढे छः टन है। 16 शताब्दियों तक मौसम के उतार चढाव झेलने के पश्चात भी इसे आज तक ज़ंग नहीं लगा। कुछ प्रमाणों के अनुसार यह स्तम्भ पहले विष्णु मन्दिर का गरूड़ स्तम्भ था। मुस्लिमशासकों ने मन्दिर को लूट कर ध्वस्त कर दिया था और स्तम्भ को उखाड कर उसे विजय चिन्ह स्वरूप ‘कुव्वतुल-इसलाम मसजिद’ के समीप दिल्ली में गाड़ दिया था। हाल ही में ईन्डियन इन्टीच्यूट ऑफ टेकनोलोजीकानपुर के विशेषज्ंयों नें स्तम्भ का निरीक्षण कर के अपना मत प्रगट किया है कि स्तम्भ को जंग से सुरक्षितरखने के लिये उस पर मिसाविट नाम के रसायन की ऐक पतली सी परतचढाई गयी थी जो लोह, आक्सीजन तथा हाईड्रोजन के मिश्रण से तैय्यार की गयी थी। यही परिक्रिया आजकल अणुशक्ति के प्रयाग में लाये जाने वाले पदार्थों को सुरक्षित रखने के लिये डिब्बे बनाने में प्रयोग की जाती है। सुरक्षा परत को बनाने में उच्च कोटि का पदार्थ प्रयोग किया गया था जिस में फासफोरस की मात्रा लोहे की तुलना में एक प्रतिशतके लगभग थी। आज कल यह अनुपात आधे प्रतिशत तक भी नहीं होता। फासफोरस का अधिक प्रयोग प्राचीन भारतीय धातु ज्ञान तथा तकनीक का प्रमाण है जो धातु वैज्ंयिानिकों को आश्चर्य चकित कर रही है। आजकल विकसित देश टेक्नोलोजी ट्राँसफर को हथियार बना कर अविकसित देशों पर आर्थिक दबाव बढाते हैं। जो लोग पाश्चात्य तकनीक की नकल करने की वकालत करते हैं उन्हें स्वदेशी तकनीक पर शोध करना चाहिये ताकि हम आत्म निर्भर हो सकें लौह धातुकर्म (Ferrous Metallurgy) का आरम्भ प्रागैतिहासिक काल में ही हो गया था। इस्पात निर्माण (steelmaking) का ज्ञान भी प्रागैतिहासिक काल से ही है। .

12 संबंधों: चारकोल, धातुकर्म, निष्कर्षण, बेसेमर प्रक्रिया, भारतीय धातुकर्म का इतिहास, लोहस धातुकर्म, लोहा, खनिज, औद्योगिक क्रांति, कच्चा लोहा, कांसा, अयस्क

चारकोल

चारकोल लकड़ी का कोयला, या काठकोयला या चारकोल (Charcoal) काला-भूरा, सछिद्र, ठोस पदार्थ है जो लकड़ी, हड्डी आदि को आक्सीजन की अनुपस्थिति में गरम करके उसमें से जल एवं अन्य वाष्शील पदार्थों को निकालकर बनाया जाता है। इस क्रिया को "उष्माविघटन" (Pyrolysis) कहते हैं। चारकोल में कार्बन की उच्च मात्रा (लगभग ८०%) होती है। यह लकड़ी को ४०० °C से 700 °C तक हवा की अनुपस्थिति में गरम करके बनाया जाता है। इसका कैलोरीजनन मान (calorific value) 29,000 से 35,000 kJ/kg के बीच होता है जो कि लकड़ी के कैलोरीजनन मान (12,000 से 21,000 kJ/kg) से बहुत अधिक है। चारकोल का उपयोग धातुकर्म में ईंधन के रूप में, औद्योगिक ईंधन के रूप में, खाने बनाने के इंधन के रूप में, बारूद निर्माण के लिये, शुद्धीकरण और फिल्तरण के लिए, कलाकारी, चिकित्सा, आदि के लिये किया जाता है। .

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धातुकर्म

धातुनिर्माता कारखाने में इस्पात का निर्माण दिल्ली का लौह-स्तम्भ भारतीय धातुकर्म के गौरव का साक्षी है। धातुकर्म पदार्थ विज्ञान और पदार्थ अभियांत्रिकी का एक क्षेत्र है, जिसके अंतर्गत धातुओं, उनसे बनी मिश्रधातुओं और अंतर्धात्विक यौगिकों के भौतिक और रासायनिक गुणों का अध्ययन किया जाता है। .

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निष्कर्षण

कॉन्टिनुअस हॉपर तलकर्ष जल की विद्यमान गहराई के बढ़ा, बंदरगाह, नदी, नहर और सागरतट से दूर जलक्षेत्रों को नौचालन के योग्य गहरा बनाने और उस गहराई को बनाए रखने, समुद्री संरचनाओं के लिए नींव डालने, नदियों को गहरी, चौड़ी या सीधी करने, सिंचाई के लिए नहर काटने और निम्न तल पर स्थित भूमि का उद्धार करने के लिए पदार्थों के हटाने की कला को तलकर्षण (Dredging) कहा जाता है। तलकर्षण का महत्व इस बात से स्पष्ट हो जाता है कि स्वेज नहर का निर्माण तलकर्षण द्वारा 30,000,000 टन रेत हटाने पर ही संम्भव हो सका। तलकर्षण के लिए जो मशीनें प्रयुक्त होती हैं, उन्हें निकर्षक या झामयंत्र (dredger) कहते हैं। इन मशीनों से जल के अंदर जमे पदार्थ निकाले जाते हैं और उनकी व्यवस्था की जाती है। .

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बेसेमर प्रक्रिया

बेसेमर प्रक्रिया, पिघले हुए ढलवां लोहे (पिग आयरन) से बड़े पैमाने पर स्टील के उत्पादन के लिए पहली सस्ती औद्योगिक प्रक्रिया थी। इस प्रक्रिया का नाम इसके अविष्कारक हेनरी बेसेमर के नाम पर रखा गया जिन्होंने 1855 में इस प्रक्रिया का पेटेंट करवाया.

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भारतीय धातुकर्म का इतिहास

समुद्रगुप्त की स्वर्ण मुद्रा (350—375 ई. जिस पर गरुड़ स्तम्भ चित्रित है (ब्रिटिश संग्रहालय) दिल्ली का लौह स्तम्भ जयसिंह द्वितीय द्वारा निर्मित पहियों पर चलने वाली विश्व की सबसे बड़ी तोप (१७२०) भारत में धातुकर्म का इतिहास प्रागैतिहासिक काल (दूसरी तीसरी सहस्राब्दी ईसापूर्व) से आरम्भ होकर आधुनिक काल तक जारी है। .

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लोहस धातुकर्म

लोहस धातुकर्म (Ferrous metallurgy) में प्रथम स्थान लोह उत्पादन का आता है। भारत अति प्राचीन काल में लोह उत्पादन में अग्रणी रहा है। दिल्ली का लोहस्तंभ इस बात प्रत्यक्ष प्रमाण है। भारत की लोह अयस्क की खदानें विश्व की श्रेष्ठतम एवं विशालतम खदानों में से हैं। अनुमान लगाया गया है कि भारत के भूगर्भ में लगभग 10 अरब टन लोह अयस्क विद्यमान है। .

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लोहा

एलेक्ट्रोलाइटिक लोहा तथा उसका एक घन सेमी का टुकड़ा लोहा या लोह (Iron) आवर्त सारणी के आठवें समूह का पहला तत्व है। धरती के गर्भ में और बाहर मिलाकर यह सर्वाधिक प्राप्य तत्व है (भार के अनुसार)। धरती के गर्भ में यह चौथा सबसे अधिक पाया जाने वाला तत्व है। इसके चार स्थायी समस्थानिक मिलते हैं, जिनकी द्रव्यमान संख्या 54, 56, 57 और 58 है। लोह के चार रेडियोऐक्टिव समस्थानिक (द्रव्यमान संख्या 52, 53, 55 और 59) भी ज्ञात हैं, जो कृत्रिम रीति से बनाए गए हैं। लोहे का लैटिन नाम:- फेरस .

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खनिज

विभिन्न प्रकार के खनिज खनिज ऐसे भौतिक पदार्थ हैं जो खान से खोद कर निकाले जाते हैं। कुछ उपयोगी खनिज पदार्थों के नाम हैं - लोहा, अभ्रक, कोयला, बॉक्साइट (जिससे अलुमिनियम बनता है), नमक (पाकिस्तान व भारत के अनेक क्षेत्रों में खान से नमक निकाला जाता है!), जस्ता, चूना पत्थर इत्यादि। .

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औद्योगिक क्रांति

'''वाष्प इंजन''' औद्योगिक क्रांति का प्रतीक था। अट्ठारहवीं शताब्दी के उत्तरार्ध तथा उन्नीसवीं शताब्दी के पूर्वार्ध में कुछ पश्चिमी देशों के तकनीकी, सामाजिक, आर्थिक एवं सांस्कृतिक स्थिति में काफी बड़ा बदलाव आया। इसे ही औद्योगिक क्रान्ति (Industrial Revolution) के नाम से जाना जाता है। यह सिलसिला ब्रिटेन से आरम्भ होकर पूरे विश्व में फैल गया। "औद्योगिक क्रांति" शब्द का इस संदर्भ में उपयोग सबसे पहले आरनोल्ड टायनबी ने अपनी पुस्तक "लेक्चर्स ऑन दि इंड्स्ट्रियल रिवोल्यूशन इन इंग्लैंड" में सन् 1844 में किया। औद्योगिक क्रान्ति का सूत्रपात वस्त्र उद्योग के मशीनीकरण के साथ आरम्भ हुआ। इसके साथ ही लोहा बनाने की तकनीकें आयीं और शोधित कोयले का अधिकाधिक उपयोग होने लगा। कोयले को जलाकर बने वाष्प की शक्ति का उपयोग होने लगा। शक्ति-चालित मशीनों (विशेषकर वस्त्र उद्योग में) के आने से उत्पादन में जबरदस्त वृद्धि हुई। उन्नीसवी सदी के प्रथम् दो दशकों में पूरी तरह से धातु से बने औजारों का विकास हुआ। इसके परिणामस्वरूप दूसरे उद्योगों में काम आने वाली मशीनों के निर्माण को गति मिली। उन्नीसवी शताब्दी में यह पूरे पश्चिमी यूरोप तथा उत्तरी अमेरिका में फैल गयी। अलग-अलग इतिहासकार औद्योगिक क्रान्ति की समयावधि अलग-अलग मानते नजर आते हैं जबकि कुछ इतिहासकार इसे क्रान्ति मानने को ही तैयार नहीं हैं। अनेक विचारकों का मत है कि गुलाम देशों के स्रोतों के शोषण और लूट के बिना औद्योगिक क्रान्ति सम्भव नही हुई होती, क्योंकि औद्योगिक विकास के लिये पूंजी अति आवश्यक चीज है और वह उस समय भारत आदि गुलाम देशों के संसाधनों के शोषण से प्राप्त की गयी थी। .

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कच्चा लोहा

कच्चा लोहा या 'पिग आइरन' लौह अयस्क को अधिक कार्बन वाले ईँधन (जैसे कोक के साथ प्रगलित करने पर जो माधयमिक उत्पाद (intermediate product) बनता है उसे कच्चा लोहा (Pig iron) कहते हैं। इसमें प्रायः चूने के पत्थर को फ्लक्स के रूप में प्रयोग करते हैं। ईंधन के रूप में चारकोल और एंथ्रासाइट भी प्रयोग किये जा सकते हैं। कच्चे लोहे में कार्बन की मात्रा बहुत अधिक होती है (प्रायः 3.5–4.5%)। इसके कारण कच्चा लोहा बहुत भंगुर (brittle) होता है। इसे वेल्ड भी नहीं किया जा सकता। अतः इसका सीधे तौर पर बहुत कम उपयोग होता है। वात्या भट्ठी से कच्चा लोहा ही निकलता है। वस्तुतः 'कच्चा लोहा' लौह, कार्बन, सिलिकन, मैंगनीज, फॉस्फोरस और गंधक की मिश्रधातु है। यह एक माध्यमिक उत्पाद है जिसकी और प्रसंस्करण करके अन्य उत्पाद बनाये जाते हैं। अन्य चीजें बनाने के लिए यह एक 'कच्चा माल' है इसी से इसका 'पिग आइरन' नाम पड़ा है। .

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कांसा

कांसे की प्राचीन ढलाई। कांसा या कांस्य, किसी तांबे या ताम्र-मिश्रित धातु मिश्रण को कहा जाता है, प्रायः जस्ते के संग, परंतु कई बार फासफोरस, मैंगनीज़, अल्युमिनियम या सिलिकॉन आदि के संग भी होते हैं। (देखें अधोलिखित सारणी.) यह पुरावस्तुओं में महत्वपूर्ण था, जिसने उस युग को कांस्य युग नाम दिया। इसे अंग्रेजी़ में ब्रोंज़ कहते हैं, जो की फारसी मूल का शब्द है, जिसका अर्थ पीतल है। काँसा (संस्कृत कांस्य) संस्कृत कोशों के अनुसार श्वेत ताँबे अथवा घंटा बनाने की धातु को कहते हैं। विशुद्ध ताँबा लाल होता है; उसमें राँगा मिलाने से सफेदी आती है। इसलिए ताँबे और राँगे की मिश्रधातु को काँसा या कांस्य कहते हैं। साधारण बोलचाल में कभी–कभी पीतल को भी काँसा कह देते हैं, जा ताँबे तथा जस्ते की मिश्रधातु है और पीला होता है। ताँबे और राँगे की मिश्रधातु को 'फूल' भी कहते हैं। इस लेख में काँसा से अभिप्राय ताँबे और राँगे की मिश्रधातु से है। अंग्रेजी में इसे ब्रॉज (bronze) कहते हैं। काँसा, ताँबे की अपेक्षा अधिक कड़ा होता है और कम ताप पर पिघलता है। इसलिए काँसा सुविधापूर्वक ढाला जा सकता है। 16 भाग ताँबे और 1 भाग राँगे की मिश्रधातु बहुत कड़ी नहीं होती। इसे नरम गन-मेटल (gun-metal) कहते हैं। राँगे का अनुपात दुगुना कर देने से कड़ा गन-मेटल बनता है। 7 भाग ताँबा और 1 भाग राँगा रहने पर मिश्रधातु कड़ी, भंगुर और सुस्वर होती है। घंटा बनाने के लिए राँगे का अनुपात और भी बढ़ा दिया जाता है; साधारणत: 3 से 5 भाग तक ताँबे और 1 भाग राँगे की मिश्रधातु इस काम में लिए प्रयुक्त होती है। दर्पण बनाने के लिए लगभग 2 भाग ताँबा और एक भाग राँगे का उपयोग होता था, परंतु अब तो चाँदी की कलईवाले काँच के दर्पणों के आगे इसका प्रचलन मिट गया है। मशीनों के धुरीधरों (bearings) के लिए काँसे का बहुत प्रयोग होता है, क्योंकि घर्षण (friction) कम होता है, परंतु धातु को अधिक कड़ी कर देने के उद्देश्य से उसमें कुछ अन्य धातुएँ भी मिला दी जाती हैं। उदाहरणत:, 24 अथवा अधिक भाग राँगा, 4 भाग ताँबा और 8 भाग ऐंटिमनी प्रसिद्ध 'बैबिट' मेटल है जिसका नाम आविष्कारक आइज़क (Issac Babiitt) पर पड़ा है। इसका धुरीधरों के लिए बहुत प्रयोग होता है। काँसे में लगभग 1 प्रतिशत फ़ास्फ़ोरस मिला देने से मिश्रधातु अधिक कड़ी और चिमड़ी हो जाती है। ऐसी मिश्रधातु को फ़ॉस्फ़र ब्रॉज कहते हैं। ताँबे आर ऐल्युमिनियम की मिश्रधातु को ऐल्युमिनियम ब्रॉंज़ कहते हैं। यह धातु बहुत पुष्ट होती है और हवा या पानी में इसका अपक्षरण नहीं होता। .

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अयस्क

लोहे का एक अयस्क उन शैलों को अयस्क (ore) कहते हैं जिनमें वे खनिज हों जिनमें कोई धातु आदि महत्वपूर्ण तत्व हों। अयस्कों को खनन करके बाहर लाया जाता है; फिर इनका शुद्धीकरण करके महत्वपूर्ण तत्व प्राप्त किये जाते हैं। .

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