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लिंग

सूची लिंग

व्याकरण से सम्बन्धित 'लिंग' के लिये लिंग (व्याकरण) देखें। ---- मानव पुरुष और स्त्री का वाह्य दृष्य जीवविज्ञान में लिंग (Sex, Gender) से तात्पर्य उन पहचानों या लक्षणों से जिनके द्वारा जीवजगत् में नर को मादा से पृथक् पहचाना जाता है। जंतुओं में असंख्य जंतु ऐसे होते हैं जिन्हें केवल बाह्य चिह्नों से ही नर, या मादा नहीं कहा जा सकता। नर तथा मादा का निर्णय दो प्रकार के चिह्नों, प्राथमिक (primary) और गौण (secondary) लैंगिक लक्षणों (sexual characters), द्वारा किया जाता है। वानस्पतिक जगत् में नर तथा मादा का भेद, विकसित प्राणियों की भाँति, पृथक्-पृथक् नहीं पाया जाता। जो की सत्य है। .

28 संबंधों: ऍक्स गुण सूत्र, डिम्बग्रंथि, दाढ़ी, नर, निषेचन, प्रजीवगण, भग, युग्मज, यौन अंग, लिंग (व्याकरण), शिश्न, स्तन, सूक्ष्मदर्शी, सींग, हिजड़ा, जनन, जोंक, जीव विज्ञान, वाई गुण सूत्र, व्याकरण, वृषण, वैशेषिक दर्शन, गुणसूत्र, आनुवंशिकी, आकारिकी, इलेक्ट्रॉन सूक्ष्मदर्शी, कणाद, केंचुआ

ऍक्स गुण सूत्र

एक्स गुण सूत्र के विभिन्न हिस्सों का चित्रण एक्स गुण सूत्र किसी भी स्तनधारी श्रेणी के जानवर (जिसमें मनुष्य भी शामिल हैं) में लिंग की पहचान देने वाला एक गुण सूत्र है। इन जीवों में केवल ऐसे दो लिंग-भेद करने वाले गुण सूत्र होते हैं - एक्स गुण सूत्र और वाई गुण सूत्र। इनका नाम अंग्रेजी (रोमन लिपि) के "X" और "Y" अक्षरों पर पड़ा है क्योंकि इनके आकार उनसे मिलते-जुलते हैं। नरों में एक वाई और एक एक्स गुण सूत्र होता है, जबकि मादाओं में दो एक्स गुण सूत्र होते हैं। साधारण तौर पर किसी भी पुत्र का एक्स गुण सूत्र उसकी माता के दो एक्स गुण सूत्रों में से एक होता है और किसी भी पुत्री के एक्स गुण सूत्र एक तो पिता के इकलौते एक्स गुण सूत्र से और दूसरा माता के दो में से एक एक्स गुण सूत्र से आते हैं।, Institute of Medicine (U.S.). Committee on Understanding the Biology of Sex and Gender Differences, Theresa M. Wizemann, Mary Lou Pardue, National Academies Press, 2001, ISBN 978-0-309-07281-6,...

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डिम्बग्रंथि

डिम्बग्रंथि स्त्री जननांग या स्त्री प्रजनन प्रणाली का एक भाग हैं। महिलाओं में गर्भाशय के दोनों ओर डिम्बग्रंथियां होती है। यह देखने में बादाम के आकार की लगभग ३.५ सेमी लम्बी और २ सेमी चौड़ी होती है। इसके ऊपर ही डिम्बनलिकाओं कि तंत्रिकाएं होती है जो अंडों को अपनी ओर आकर्षित करती है। डिम्बग्रंथियों का रंग गुलाबी होता है। उम्र बढ़ने के साथ-साथ ये हल्के सफेद रंग की हो जाती है। वृद्वावस्था में यह सिकुड़कर छोटी हो जाती है। इनका प्रमुख कार्य अंडे बनाना तथा उत्तेजित द्रव और हार्मोन्स बनाना होता है। डिम्बग्रंथियों के मुख्य हार्मोन्स ईस्ट्रोजन और प्रोजैस्ट्रोन है। माहवारी (मासिक-धर्म) स्थापीत होने के पूर्व इसका कोई काम नहीं होता है। परन्तु माहवारी के बाद इसमें प्रत्येक महीने डिम्ब बनते और छोड़े जाते है, जो शुक्राणुओं के साथ मिलकर गर्भधारण करते है। .

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दाढ़ी

दाढ़ी वयस्क नर मनुष्य के मुँह में गाल, ठोड़ी और गले में बालों की उपज को कहते हैं। वैसे तो दाढ़ी केवल वयस्क नर मनुष्य के ही होती है लेकिन कभी-कभी हार्मोन की गड़बड़ी के कारण यह बच्चों और महिलाओं के मुँह में भी उग आती है। दाढ़ी शब्द की उतपत्ति दाढ़ शब्द से हुयी है जिसका अर्थ है पिछला जबड़ा। क्योंकि बाल दाढ़ के बाहर यानि गाल पर उगते हैं इसलिए इसे दाढ़ी कहा जाता है। .

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नर

मानव के नरों को पुरुष (♂) कहा जाता है। एक जीव का लिंग है जो की छोटे मोबाइल गमेट्स पैदा करता हैं जिसे की स्पर्म या शुक्राणु भी कहते हैं। हर एक शुक्राणु एक मादा अंडे के साथ क्रिया कर एक गर्भ के रूप में विकास कर सकता हैं। हर कोई प्रजाति इस पुरुष और स्त्री के पहचान से नहीं जानी जा सकती है। इंसानों और जानवरों में लिंग जहाँ लिंग (अंग) से बताया जा सकता हैं वही अन्य जीवो में यह कई अन्य बातों पर निर्भर करता हैं। .

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निषेचन

एक शुक्राणु कोशिका, अण्डाणु को निशेचित कर रही है। जन्तुओं के मादा के अंडाणु और नर के शुक्राणु मिलकर एकाकार हो जाते हैं और नये 'जीव' का सृजन करते हैं; इसे या निषेचन (Fertilisation) कहते हैं। .

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प्रजीवगण

प्रजीवगण (प्रोटोज़ोआ) एक एककोशिकीय जीव है। इनकी कोशिका प्रोकैरियोटिक प्रकार की होती है। ये साधारण सूक्ष्मदर्शी यंत्र से आसानी से देखे जा सकते हैं। कुछ प्रोटोज़ोआ जन्तुओं या मनुष्य में रोग उत्पन्न करते हैं, उन्हे रोगकारक प्रोटोज़ोआ कहते हैं। श्रेणी:प्रोटोज़ोआ श्रेणी:मलेरिया.

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भग

भग भग स्तनधारी मादा (मनुष्यों मे महिला) के एक शरीर का हिस्सा है। भग का अर्थ बाहर से दिखाई देने वाले मादा जननांग है। मारवाडी भाषा मे भोसिया, सिसिया, भोसरा, भोल, वारसा और अतार कहते है| भग की रचना मे सामान्य रूप से दिखाई देने वाले दो मांसल संरचनायें होती हैं जिन्हें भगोष्ट (भग+होठ) (लेबिया) कहते है। बाहरी भगोष्ट (लेबिया मेजोरा) जो गद्देदार होते हैं आंतरिक जननांग संरचनाओं को सुरक्षा प्रदान करते हैं। भीतरी भगोष्ट (लेबिया माइनोरा) भगशेफ के हुड से जुड़े हुए होते हैं और यह योनि को आवरण प्रदान करते हैं और संभोग के दौरान शिश्न के स्नेहन में सहायता करते हैं। बहुत से लोगों समझते हैं कि भग ही योनि होती है पर योनि शब्द उस नलिका को परिभाषित करता है जो गर्भाशय से भग को जोड़ती है। .

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युग्मज

दो युग्मक कोशिकाएँ (gamete cells) लैंगिक प्रजनन के द्वारा संयुक्त होकर जिस कोशिका का निर्माण करतीं हैं उसे युग्मज या युग्मनज या गैमीट (zygote) या जाइकोसाइट (zygocyte) कहते हैं। बहुकोशिकीय प्राणियों में युग्मज ही भ्रूण का आदिरूप है। एककोशीय प्राणियों में युग्मज स्वयं विभक्त होकर नयी संताने उत्पन्न करता है जो प्रायः अर्धसूत्री विभाजन की प्रक्रिया द्वारा सम्पन्न होता है। .

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यौन अंग

यौन अंग, शरीर के वह अंग होते हैं, जो किसी जीव की प्रजनन प्रकिया में सम्मिलित होने के साथ साथ उसके प्रजनन तंत्र का रचना भी करते हैं। स्तनधारियों के प्रमुख यौन अंग हैं: -.

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लिंग (व्याकरण)

व्याकरण के सन्दर्भ में लिंग से तात्पर्य भाषा के ऐसे प्रावधानों से है जो वाक्य के कर्ता के स्त्री/पुरुष/निर्जीव होने के अनुसार बदल जाते हैं। विश्व की लगभग एक चौथाई भाषाओं में किसी न किसी प्रकार की लिंग व्यवस्था है। हिन्दी में दो लिंग होते हैं (पुल्लिंग तथा स्त्रीलिंग) जबकि संस्कृत में तीन लिंग होते हैं- पुल्लिंग, स्त्रीलिंग तथा नपुंसक लिंग। फ़ारसी जैसे भाषाओं में लिंग होता नहीं, और भी अंग्रेज़ी में लिंग सिर्फ़ सर्वनाम में होता है।; उदाहरण श्रेणी:व्याकरण.

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शिश्न

शिश्न की संरचना: 1 — मूत्राशय, 2 — जघन संधान, 3 — पुरस्थ ग्रन्थि, 4 — कोर्पस कैवर्नोसा, 5 — शिश्नमुंड, 6 — अग्रत्वचा, 7 — कुहर (मूत्रमार्ग), 8 — वृषणकोष, 9 — वृषण, 10 — अधिवृषण, 11— शुक्रवाहिनी शिश्न (Penis) कशेरुकी और अकशेरुकी दोनो प्रकार के कुछ नर जीवों का एक बाह्य यौन अंग है। तकनीकी रूप से शिश्न मुख्यत: स्तनधारी जीवों में प्रजनन हेतु एक प्रवेशी अंग है, साथ ही यह मूत्र निष्कासन हेतु एक बाहरी अंग के रूप में भी कार्य करता है। शिश्न आमतौर स्तनधारी जीवों और सरीसृपों में पाया जाता है। हिन्दी में शिश्न को लिंग भी कहते हैं पर, इन दोनो शब्दों के प्रयोग में अंतर होता है, जहाँ शिश्न का प्रयोग वैज्ञानिक और चिकित्सीय संदर्भों में होता है वहीं लिंग का प्रयोग आध्यात्म और धार्मिक प्रयोगों से संबंद्ध है। दूसरे अर्थो में लिंग शब्द, किसी व्यक्ति के पुरुष (नर) या स्त्री (मादा) होने का बोध भी कराता है। हिन्दी में सभी संज्ञायें या तो पुल्लिंग या फिर स्त्रीलंग होती हैं। .

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स्तन

स्तन रूपांतरित स्वेद ग्रंथियां है, जो दुग्ध उत्पन्न करती हैं और यह दुग्ध नवजात और छोटे बच्चों के पीने के काम आता है। प्रत्येक स्तन में एक चूचुक और स्तनमण्डल (एरिओला) होता है। स्तनमण्डल का रंग गुलाबी से लेकर गहरा भूरा तक हो सकता है साथ ही इस क्षेत्र में बहुत सी स्वेदजनक ग्रंथियां भी उपस्थित होती हैं। स्त्री और पुरुष दोनों में स्तन का विकास समान भ्रूणीय ऊतकों से होता है परन्तु यौवनारम्भ पर स्त्रियों के अंडाशय से स्रावित हार्मोन ईस्ट्रोजन स्त्रियों में स्तन के विकास के लिए मुख्य रूप से उत्तरदायी है, जबकि पुरुषों में इस हार्मोन की उपस्थिति बहुत कम मात्रा में होने के कारण स्तनों का विकास नहीं होता, हालांकि बाल्यवस्था में चूचुक और मण्डल स्त्री-पुरूष दोनों में एक समान होते हैं। बच्चे के जन्म के समय में उसके वक्षस्थल हल्के उभरे हुए हो सकते हैं। यदि इन उभरे हुए स्तनों को दबाया जाए तो 1-2 बूंदे दूध की भी निकलती है। यह दूध मां के इस्ट्रोजन हार्मोन के प्रभाव के कारण होता है और जिसे आम भाषा में जादूगरनी का दूध कहकर पुकारा जाता है। स्त्रियों के शरीर में प्रोजेस्ट्रोन हार्मोन दूध का निर्माण करता है। वैसे दूध बनाने का प्रमुख कार्य प्रोलेक्टीन का है जो पिट्यूटी ग्रंथि से प्रसव के बाद निकलता है। स्तनों के अंदर कुछ फाइबर्स कोशिकाओं के कारण स्तन छोटे-छोटे हिस्सों में बंटा रहता है जिसमें दूध बनाने वाली ग्रंथियां होती है। यह ग्रंथियां आपस में मिलकर एक नलिका बनाती है जो निप्पल में जाकर खुलती है तथा जहां से दूध रिस्ता है। यह नलिका निप्पल के पास आकर कुछ चौड़ी हो जाती है जहां दूध भी इकट्ठा हो सकता है। स्तनों में मांसपेशियां नहीं होती। केवल एक तरह का लिंगामेंट इसे बांधे रहता है, जिसको कूपरलिगामेंट कहते हैं। इसलिए अधिक वजन के कारण या अच्छा सहारा न मिलने के कारण स्तन नीचे की ओर लटक जाते हैं। बच्चे के जन्म के बाद स्तनपान कराना अमृत के समान होता है। बच्चे के शरीर का विकास तथा समय के अनुसार शरीर में परिवर्तन आना यह गुण मां के दूध में पर्याप्त मात्रा में उपलब्ध होता है। गर्भावस्था की अवधि के दौरान मां के शरीर में अधिक चर्बी जम जाती है। परन्तु मां के शरीर की चर्बी स्तनपान के साथ-साथ कम होती चली जाती है। मां अपने पहले जैसे सामान्य वजन पर आ जाती है। .

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सूक्ष्मदर्शी

सूक्ष्मदर्शी या सूक्ष्मबीन (माइक्रोस्कोप) वह यंत्र है जिसकी सहायता से आँख से न दिखने योग्य सूक्ष्म वस्तुओं को भी देखा जा सकता है। सूक्ष्मदर्शी की सहायता से चीजों का अवलोकन व जांच किया जाता है वह सूक्ष्मदर्शन कहलाता है। सूक्ष्मदर्शी का इतिहास लगभग ४०० वर्ष पुराना है। सबसे पहले नीदरलैण्ड में सन १६०० के आस-पास किसी काम के योग्य सूक्ष्मदर्शी का विकास हुआ। .

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सींग

सींग एक पशु अंग है। यह गाय, बैल, भैंस, हिरण, गैंडा आदि जानवरों के मस्तक पर स्थित रहता हेेो श्रेणी:प्राणी शारीरिकी.

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हिजड़ा

पाकिस्तान में विरोध करते हुए कुछ हिजड़े ऐसे मानव हिजड़ा कहलाते हैं जो लैंगिक रूप से न नर होते हैं न मादा। जन्म के समय लैंगिक विकृति के कारण ऐसा होता है। 'हिजड़ा' शब्द दक्षिण एशिया में प्रचलित है। अधिकांश हिजड़े शारीरिक रूप से 'नर' होते हैं या अन्त:लिंगी (intersex) किन्तु कुछ मादा (स्त्री) भी होते हैं। वे अपने-आप के लिये प्राय: स्त्रीलिंग भाषा का प्रयोग करते हैं (जैसे, मैं सुन्दर लग रही हूँ?)। .

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जनन

जनन (Reproduction) द्वारा कोई जीव (वनस्पति या प्राणी) अपने ही सदृश किसी दूसरे जीव को जन्म देकर अपनी जाति की वृद्धि करता है। जन्म देने की इस क्रिया को जनन कहते हैं। जनन जीवितों की विशेषता है। जीव की उत्पत्ति किसी पूर्ववर्ती जीवित जीव से ही होती है। निर्जीव पिंड से सजीव की उत्पत्ति नहीं देखी गई है। संभवत: विषाणु (Virus) इसके अपवाद हों (देखें, स्वयंजनन, Abiogenesis)। जनन के दो उद्देश्य होते हैं एक व्यक्तिविशेष का संरक्षण और दूसरा जाति की शृंखला बनाए रखना। दोनों का आधार पोषण है। पोषण से ही संरक्षण, वृद्धि और जनन होते हैं। जीवधारियों के अंतअंतहेलनस्पति और प्राणी दोनों आते हैं। दोनों में ही जैविक घटनाएँ घटित होती है। दोनों की जननविधियों में समानता है, पर सूक्ष्म विस्तार में अंतर अवश्य है। अत: उनका विचार अलग अलग किया जा रहा है। .

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जोंक

जोंक जोंक एनिलिडा संघ का जन्तु है। यह उभयलिंगी होता है। स्वच्छ जलाशयों में मिलता है। इसका शरीर लम्बा, चपटा एवं खंडों में विभक्त रहता है। यह वाह्य परजीवी है। इसके शरीर के दोनों सिरों पर पोषक से चिपकने के लिए चूषक मिलते हैं। इसके अगले चूषक के मध्य में तिकोना मुखछिद्र होता है। .

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जीव विज्ञान

जीवविज्ञान भांति-भांति के जीवों का अध्ययन करता है। जीवविज्ञान प्राकृतिक विज्ञान की तीन विशाल शाखाओं में से एक है। यह विज्ञान जीव, जीवन और जीवन के प्रक्रियाओं के अध्ययन से सम्बन्धित है। इस विज्ञान में हम जीवों की संरचना, कार्यों, विकास, उद्भव, पहचान, वितरण एवं उनके वर्गीकरण के बारे में पढ़ते हैं। आधुनिक जीव विज्ञान एक बहुत विस्तृत विज्ञान है, जिसकी कई शाखाएँ हैं। 'बायलोजी' (जीवविज्ञान) शब्द का प्रयोग सबसे पहले लैमार्क और ट्रविरेनस नाम के वैज्ञानिको ने १८०२ ई० में किया। जिन वस्तुओं की उत्पत्ति किसी विशेष अकृत्रिम जातीय प्रक्रिया के फलस्वरूप होती है, जीव कहलाती हैं। इनका एक परिमित जीवनचक्र होता है। हम सभी जीव हैं। जीवों में कुछ मौलिक प्रक्रियाऐं होती हैं.

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वाई गुण सूत्र

वाई गुण सूत्र के विभिन्न हिस्सों का चित्रण वाई गुण सूत्र किसी भी स्तनधारी श्रेणी के जानवर (जिसमें मनुष्य भी शामिल हैं) में लिंग की पहचान देने वाला एक गुण सूत्र है। इन जीवों में केवल ऐसे दो लिंग-भेद करने वाले गुण सूत्र होते हैं - एक्स गुण सूत्र और वाई गुण सूत्र। इनका नाम अंग्रेज़ी के "X" और "Y" अक्षरों पर पड़ा है क्योंकि इनके आकार उनसे मिलते-जुलते हैं। नरों में एक वाई और एक एक्स गुण सूत्र होता है, जबकि मादाओं में दो एक्स गुण सूत्र होते हैं। साधारण तौर पर किसी भी पिता का यह इकलौता वाई गुण सूत्र बिना किसी बदलाव के उसके पुत्रों में जाता है। इसलिए वाई गुण सूत्र के अध्ययन से किसी भी पुरुष के पितृवंश समूह का पता लगाया जा सकता है। वाई गुण सूत्र पर एक एस॰आर॰वाई॰ (SRY) नाम की जीन मौजूद होती है जो नर की विकास-आयु में शरीर को अंडकोषों को विकसित करने का आदेश देती है।, Institute of Medicine (U.S.). Committee on Understanding the Biology of Sex and Gender Differences, Theresa M. Wizemann, Mary Lou Pardue, National Academies Press, 2001, ISBN 978-0-309-07281-6,...

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व्याकरण

किसी भी भाषा के अंग प्रत्यंग का विश्लेषण तथा विवेचन व्याकरण (ग्रामर) कहलाता है। व्याकरण वह विद्या है जिसके द्वारा किसी भाषा का शुद्ध बोलना, शुद्ध पढ़ना और शुद्ध लिखना आता है। किसी भी भाषा के लिखने, पढ़ने और बोलने के निश्चित नियम होते हैं। भाषा की शुद्धता व सुंदरता को बनाए रखने के लिए इन नियमों का पालन करना आवश्यक होता है। ये नियम भी व्याकरण के अंतर्गत आते हैं। व्याकरण भाषा के अध्ययन का महत्त्वपूर्ण हिस्सा है। किसी भी "भाषा" के अंग प्रत्यंग का विश्लेषण तथा विवेचन "व्याकरण" कहलाता है, जैसे कि शरीर के अंग प्रत्यंग का विश्लेषण तथा विवेचन "शरीरशास्त्र" और किसी देश प्रदेश आदि का वर्णन "भूगोल"। यानी व्याकरण किसी भाषा को अपने आदेश से नहीं चलाता घुमाता, प्रत्युत भाषा की स्थिति प्रवृत्ति प्रकट करता है। "चलता है" एक क्रियापद है और व्याकरण पढ़े बिना भी सब लोग इसे इसी तरह बोलते हैं; इसका सही अर्थ समझ लेते हैं। व्याकरण इस पद का विश्लेषण करके बताएगा कि इसमें दो अवयव हैं - "चलता" और "है"। फिर वह इन दो अवयवों का भी विश्लेषण करके बताएगा कि (च् अ ल् अ त् आ) "चलता" और (ह अ इ उ) "है" के भी अपने अवयव हैं। "चल" में दो वर्ण स्पष्ट हैं; परंतु व्याकरण स्पष्ट करेगा कि "च" में दो अक्षर है "च्" और "अ"। इसी तरह "ल" में भी "ल्" और "अ"। अब इन अक्षरों के टुकड़े नहीं हो सकते; "अक्षर" हैं ये। व्याकरण इन अक्षरों की भी श्रेणी बनाएगा, "व्यंजन" और "स्वर"। "च्" और "ल्" व्यंजन हैं और "अ" स्वर। चि, ची और लि, ली में स्वर हैं "इ" और "ई", व्यंजन "च्" और "ल्"। इस प्रकार का विश्लेषण बड़े काम की चीज है; व्यर्थ का गोरखधंधा नहीं है। यह विश्लेषण ही "व्याकरण" है। व्याकरण का दूसरा नाम "शब्दानुशासन" भी है। वह शब्दसंबंधी अनुशासन करता है - बतलाता है कि किसी शब्द का किस तरह प्रयोग करना चाहिए। भाषा में शब्दों की प्रवृत्ति अपनी ही रहती है; व्याकरण के कहने से भाषा में शब्द नहीं चलते। परंतु भाषा की प्रवृत्ति के अनुसार व्याकरण शब्दप्रयोग का निर्देश करता है। यह भाषा पर शासन नहीं करता, उसकी स्थितिप्रवृत्ति के अनुसार लोकशिक्षण करता है। .

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वृषण

अंडकोष पुरूष के नीचे एक थैली होती है। इसे स्क्रोटम कहा जाता है। इस थैली की त्वचा ढीली होती है। जो गर्मियों में अधिक बढ़कर लटक जाती है तथा सर्दियों में सिकुड़कर छोटी होती है। इसके अंदर वृषण होते है इनका मुख्य कार्य शुक्राणु और पुरूष उत्तेजित द्रव को बनाना होता है। वे पुरूष जो आग के सामने कार्य करते है, अधिक गर्म पानी से नहाते हैं। यह कच्छा को अधिक कसकर बांधते हैं। उनके अंडकोष से शुक्राणु कम मात्रा में या नहीं बन पाते है। अंडकोश की लंबाई 5 cm सेमी और चौड़ाई 2.5 सेमी होती है। इसमें रक्त का संचार बहुत अधिक होता है। दोनों तरफ के अंडकोष एक नलिका के द्वारा जुड़े होते हैं। जिसको वास डिफेरेन्स कहते है तथा दूसरी तरफ ये अन्य ग्रंथि से जुड़े रहते हैं। जिनको सेमिनाल वेसाईकल कहते है। Image:Hanging testicles.JPG| Image:Human_Scrotum.JPG| .

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वैशेषिक दर्शन

वैशेषिक हिन्दुओं के षडदर्शनों में से एक दर्शन है। इसके मूल प्रवर्तक ऋषि कणाद हैं (ईसा पूर्व दूसरी शताब्दी)। यह दर्शन न्याय दर्शन से बहुत साम्य रखता है किन्तु वास्तव में यह एक स्वतंत्र भौतिक विज्ञानवादी दर्शन है। इस प्रकार के आत्मदर्शन के विचारों का सबसे पहले महर्षि कणाद ने सूत्र रूप में लिखा। कणाद एक ऋषि थे। ये "उच्छवृत्ति" थे और धान्य के कणों का संग्रह कर उसी को खाकर तपस्या करते थे। इसी लिए इन्हें "कणाद" या "कणभुक्" कहते थे। किसी का कहना है कि कण अर्थात् परमाणु तत्व का सूक्ष्म विचार इन्होंने किया है, इसलिए इन्हें "कणाद" कहते हैं। किसी का मत है कि दिन भर ये समाधि में रहते थे और रात्रि को कणों का संग्रह करते थे। यह वृत्ति "उल्लू" पक्षी की है। किस का कहना है कि इनकी तपस्या से प्रसन्न होकर ईश्वर ने उलूक पक्षी के रूप में इन्हें शास्त्र का उपदेश दिया। इन्हीं कारणों से यह दर्शन "औलूक्य", "काणाद", "वैशेषिक" या "पाशुपत" दर्शन के नामों से प्रसिद्ध है। पठन-पाठन में विशेष प्रचलित न होने के कारण वैशेषिक सूत्रों में अनेक पाठभेद हैं तथा 'त्रुटियाँ' भी पर्याप्त हैं। मीमांसासूत्रों की तरह इसके कुछ सूत्रों में पुनरुक्तियाँ हैं - जैसे "सामान्यविशेषाभावेच" (4 बार) "सामान्यतोदृष्टाच्चा विशेष:" (2 बार), "तत्त्वं भावेन" (4 बार), "द्रव्यत्वनित्यत्वे वायुना व्यख्याते" (3 बार), "संदिग्धस्तूपचार:" (2 बार)। .

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गुणसूत्र

गुण सूत्र का चित्र १ क्रोमेटिड २ सेन्ट्रोमियर ३ छोटी भुजा ४ लम्बी भुजा गुणसूत्र या क्रोमोज़ोम (Chromosome) सभी वनस्पतियों व प्राणियों की कोशिकाओं में पाये जाने वाले तंतु रूपी पिंड होते हैं, जो कि सभी आनुवांशिक गुणों को निर्धारित व संचारित करते हैं। प्रत्येक प्रजाति में गुणसूत्रों की संख्या निश्चित रहती हैं। मानव कोशिका में गुणसूत्रों की संख्या ४६ होती है जो २३ के जोड़े में होते है। इनमे से २२ गुणसूत्र नर और मादा में समान और अपने-अपने जोड़े के समजात होते है। इन्हें सम्मिलित रूप से समजात गुणसूत्र (Autosomes) कहते है। २३वें जोड़े के गुणसूत्र स्त्री और पुरूष में समान नहीं होते जिन्हे विषमजात गुणसूत्र (heterosomes) कहते है। .

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आनुवंशिकी

पैतृक गुणसूत्रों के पुनर्संयोजन के फलस्वरूप एक ही पीढी की संतानें भी भिन्न हो सकती हैं। आनुवंशिकी (जेनेटिक्स) जीव विज्ञान की वह शाखा है जिसके अंतर्गत आनुवंशिकता (हेरेडिटी) तथा जीवों की विभिन्नताओं (वैरिएशन) का अध्ययन किया जाता है। आनुवंशिकता के अध्ययन में ग्रेगर जॉन मेंडेल की मूलभूत उपलब्धियों को आजकल आनुवंशिकी के अंतर्गत समाहित कर लिया गया है। प्रत्येक सजीव प्राणी का निर्माण मूल रूप से कोशिकाओं द्वारा ही हुआ होता है। इन कोशिकाओं में कुछ गुणसूत्र (क्रोमोसोम) पाए जाते हैं। इनकी संख्या प्रत्येक जाति (स्पीशीज) में निश्चित होती है। इन गुणसूत्रों के अंदर माला की मोतियों की भाँति कुछ डी एन ए की रासायनिक इकाइयाँ पाई जाती हैं जिन्हें जीन कहते हैं। ये जीन गुणसूत्र के लक्षणों अथवा गुणों के प्रकट होने, कार्य करने और अर्जित करने के लिए जिम्मेवार होते हैं। इस विज्ञान का मूल उद्देश्य आनुवंशिकता के ढंगों (पैटर्न) का अध्ययन करना है अर्थात्‌ संतति अपने जनकों से किस प्रकार मिलती जुलती अथवा भिन्न होती है। .

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आकारिकी

आकारिकी अथवा आकार विज्ञान (अंग्रेजी में मॉरफ़ॉलाजी) शब्द वनस्पति विज्ञान तथा जंतु विज्ञान के अंतर्गत उन सभी अध्ययनों के लिए प्रयुक्त होता है। जिनका मुख्य विषय जीवपिंड का आकार और रचना है। पादप आकारिकी में पादपों के आकार और रचना तथा उनके अंगों (मूल, स्तंभ, पत्ती, फूल आदि) एवं इन अंगों के परस्पर संबंध और संपूर्ण पादप से उसके अंगों के संबंध का विचार किया जाता है। आकार विज्ञान का अध्ययन जनन तथा परिवर्तन के विभिन्न स्तरों पर जीवपिंड के इतिहास के तथ्यों का केवल निर्धारण मात्र हो सकता है। परंतु आजकल, जैसा सामान्यत: समझा जाता है, आकारिकी का आधार अधिक व्यापक है। इसका उद्देश्य विभिन्न पादपवर्गो के आकार में निहित समानताओं का पता लगाना है। इसलिए यह तुलनात्मक अध्ययन है जो उद्विकासात्मक परिवर्तन और परिवर्धन के दृष्टिकोण से किया जाता है। इस प्रकार आकारिकी पादपों के वर्गीकरण की स्थापना और उनके विकासात्मक अथवा जातिगत इतिहास के पुनर्निर्माण में सहायक है। आकारिकीय अध्ययन की निम्नलिखित पद्धतियाँ हैं: (1) जीवित पादपों के प्रौढ़ आकारों की तुलना, (2) पुरोद्भिदी अर्थात् जीवों के अवशिष्टों (फ़ॉसिल) के अध्ययन के आधार पर प्राचीन, लुप्त, निश्चित आकारों के साथ जीवित पादपों की तुलना, (3) प्रत्येक पादप के परिवर्धन का निरीक्षण। आकार विज्ञान के प्राय: दो उपविभाग किए जाते हैं - बाह्म आकार विज्ञान, जिसका संबंध पादप अंगों के सापेक्ष स्थान तथा बाह्म आकार से है और शरीररचना, जो पादपों की बाह्म और आँतरिक संरचना का अध्ययन है। कौशिकी अथवा कोशाध्ययन, जिसका संबंध आँतरिक रचना से है, आकार विज्ञान के उपविभाग के रूप में विकसित हुआ, किंतु अब यह जीवविज्ञान की ही एक स्वतंत्र शाखा माना जाता है। आकार विज्ञान का अध्ययन कुछ विशिष्ट रूप भी धारण कर सकता है; जैसे, इसका संबंध पादप के प्रारंभिक विकास से, आकार और संरचना के निर्णायक कारणों से अथवा पादप के उन भागों से, जो कुछ विशिष्ट कार्य करनेवाले समझे जाते हैं, हो सकता है। आकार विज्ञान के इन खंडों को क्रमानुसार भ्रूण विज्ञान, आकारजनन (मॉर्फ़ोजेनेसिस) तथा अंगवर्णना (ऑर्गेनोग्रैफ़ी) कहते हैं। पीढ़ियों के एकांतरण की क्रिया पादप आकारिकी की इतनी प्रमुख और महत्वपूर्ण विशेषता है कि बहुत वर्षो तक यह आकार विज्ञान के अध्ययन का प्रधान लक्ष्य बनी रही। शरीररचना का संबंध स्थूल और सूक्ष्म बाह्म और आँतरिक बनावट से है। शरीररचना का एक विशिष्ट विषय है औतिकी (हिस्टॉलोजी) जिसका संबंध जीवपिंड की सूक्ष्म रचना से है। प्राणि आकारिकी-यद्यपि आकार विज्ञान में (जिसका संबंध प्राणी के सामान्य आकार और उसके अंगों की संरचना से है) तथा शरीररचना में (जिसका संबंध स्थूल और सूक्ष्म रचनात्मक विस्तार से है) भेद किया जा सकता है, तो भी वास्ताविक व्यवहार में प्राणिशास्त्री इन दोनों शब्दों का प्रयोग पर्यायवाची रूप में करते हैं। अतएव प्राणिशास्त्री आकार विज्ञान शब्द के व्यावहारिक अर्थ में शरीररचना विषयक समस्त अध्ययन को भी सम्मिलित करते हैं। प्राणियों के आकार के विभिन्न प्रकार और उनके रूपांतर प्राणि आकारिकी के अध्ययन के विषय हैं। आकार मुख्यतया शरीर की सममिति पर निर्भर है। सममिति के प्रकारों के अध्ययन से पता चलता है कि शीर्षप्राधान्य (सेफ़लाइज़ेशन), जो अग्र तंत्रिकाओं तथा संवेदी रचनाओं की सघनता के कारण सिर का उत्तरोत्तर भेदकरण है, शरीर की द्विपार्श्विक सममिति के साथ साथ होता है। ज्यों ज्यों हम रचना की संश्लिष्टता (जटिलता) के क्रम में ऊपर चढ़ते जाते हैं, शीर्षप्राधान्य की क्रिया अधिकधिक स्पष्ट होती जाती है और मस्तिष्क के अत्यधिक परिवर्धन के साथ वानर तथा मुनष्य में पहुँचकर पूर्णता को प्राप्त होती है। सममिति में अंतर परिवर्धन के समय अन्य अक्षों की अपेक्षा एक अक्ष के अनुदिश अधिक वृद्धि होने से होता है। आकार के रूपांतरों में परिस्थिति के अनुकूल चलने की विशेषता होती है। रचना संबंधी समानता के लिए सधर्मता (होमोलॉजी) शब्द का व्यवहार होता है और कार्य संबंधी या दैहिक समानता के लिए कार्यसादृश्य (अनैलोजी) का। सधर्मता शरीररचना संबंधी अंतर्निहित समानता है। जिससे समान विकासात्मक उत्पत्ति ज्ञात होती है, परंतु कार्यसादृश्य (अनैलोजी) में इस तरह की कोई विशेषता नहीं है। प्रयोगात्मक भ्रूणतत्व इस प्रश्न का उत्तर देने का प्रयत्न करता है कि किसी प्राणी के शरीर के अंतिम आकार या रचना का अस्तित्व अंडे में उसी रूप में पहले से ही होता है अथवा वे परिवर्धन के समय पर्यावरण के तत्वों पर निर्भर हैं और इन तत्वों द्वारा ये दोनों परिवर्तित किए जा सकते हैं। श्रेणी:जीव विज्ञान.

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इलेक्ट्रॉन सूक्ष्मदर्शी

'''ट्रान्समिशन एलेक्ट्रान सूक्ष्मदर्शी''' का आरेख इलेक्ट्रान सूक्ष्मदर्शी एक विशेष प्रकार का सूक्ष्मदर्शी है जो नमूने (specimen) को देखने के लिये एलेक्ट्रॉन किरण पुंज का उपयोग करता है और उच्च प्रवर्धिक छबि प्राप्त कराता है। इसकी विभेदन क्षमता (resolving power) प्रकाशीय सूक्ष्मदर्शी से बहुत अच्छी होती है। .

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कणाद

आधुनिक दौर में अणु विज्ञानी जॉन डाल्टन के भी हजारों साल पहले महर्षि कणाद ने यह रहस्य उजागर किया कि द्रव्य के परमाणु होते हैं। उनके अनासक्त जीवन के बारे में यह रोचक मान्यता भी है कि किसी काम से बाहर जाते तो घर लौटते वक्त रास्तों में पड़ी चीजों या अन्न के कणों को बटोरकर अपना जीवनयापन करते थे। इसीलिए उनका नाम कणाद भी प्रसिद्ध हुआ। .

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केंचुआ

केंचुआ यह एक कृमि है जो लंबा, वर्तुलाकार, ताम्रवर्ण का होता है और बरसात के दिनों में गीली मिट्टी पर रेंगता नजर आता है। केंचुआ ऐनेलिडा (Annelida) संघ (Phylum) का सदस्य है। ऐनेलिडा विखंड (Metameric) खंडयुक्त द्विपार्श्व सममितिवाले (bilatrally symmetrical) प्राणी हैं। इनके शरीर के खंडों पर आदर्शभूत रूप से काईटिन (Chitin) के बने छोटे-छोटे सुई जैसे अंग होते है। इन्हें सीटा (Seta) कहते हैं। सीटा चमड़े के अंदर थैलियों में पाए जाते हैं और ये ही थैलियाँ सीटा का निर्माण भी करती हैं। ऐनेलिडा संघ में खंडयुक्त कीड़े आते हैं। इनका शरीर लंबा होता है और कई खंडों में बँटा रहता है। ऊ पर से देखने पर उथले खात (Furrows) इन खंडों को एक दूसरे से अलग करते हैं और अंदर इन्हीं खातों के नीचे मांसपेशीयुक्त पर्दे होते हैं, जिनको पट या भिक्तिका कह सकते हैं। पट शरीर के अंदर की जगह को खंडों में बाँटते हैं (चित्र 1 क)। प्रत्येक आदर्शभूत खंड में बाहर उपांग का एक जोड़ा होता है और अंदर एक जोड़ी तंत्रिकागुच्छिका (nerve ganglion) एक जोड़ी उत्सर्जन अंग (नेफ्रिडिया Nephridia), एक जोड़ा जननपिंड (गॉनैड्स Gonads), तथा रक्तनलिकाओं की जोड़ी और पांचनांग एवं मांसपेशियाँ होती हैं। केंचुए के शरीर में लगभग 100 से 120 तक खंड होते हैं। इसके शरीर के बाहरी खंडीकरण के अनुरूप भीतरी खंडीकरण भी होता है। इसके आगे के सिरे में कुछ ऐसे खंड मिलते हैं जो बाहरी रेखाओं द्वारा दो या तीन भागों में बँटे रहते हैं। इस प्रकार एक खंड दो या तीन उपखंडों में बँट जाता है। खंडों को उपखंडों में बाँटनेवाली रेखाएँ केवल बाहर ही पाई जाती हैं। भीतर के खंड उपखंडों में विभाजित नहीं होते। केंचुए का मुख शरीर के पहले खंड में पाया जाता है। यह देखने में अर्धचन्द्राकार होता है। इसके सामने एक मांसल प्रवर्ध लटकता रहता है, जिसको प्रोस्टोमियम (Prostomium) कहते हैं। पहला खंड, जिसमें मुख घिरा रहता है परितुंड (पेरिस्टोमियम Peristomium) कहलाता है। शरीर के अंतिम खंड में मलद्वार या गुदा होती है। इसलिये इसका गुदाखंड कहते हैं। वयस्क केंचुए में 14वें 15वें और 16वें खंड एक दूसरे से मिल जाते हैं और एक मोटी पट्टी बनाते हैं, जिसको क्लाइटेलम (Clitellum) कहते हैं। इसकी दीवार में ग्रंथियाँ भी होती हैं, जो विशेष प्रकार के रस पैदा कर सकती हैं। इनसे पैदा हुए रस अंडों की रक्षा के लिये कोकून बनाते हैं। पाँचवे और छठे, छठे और सातवें, सातवें और आठवें और नवें के बीचवाली अंतखंडीय खातों में अगल-बगल छोटे छोटे छेद होते हैं, जिनको शुक्रधानी रध्रं (Spermathecal pores) कहते हैं। इनमें लैंगिक संपर्क के समय शुक्र दूसरे केंचुए से आकर एकत्रित हो जाता है। 14वें खंड के बीच में एक छोटा मादा जनन-छिद्र होता है और 18वें खंड के अगल बगल नर-जनन-----छिद्रों का एक जोड़ा होता है। क. केंचुए का बाह्य तथा अंतर्खंडीकरण; ख. आगे के तीन खंड बढ़ाकर दिखाए गए हैं। मुखाग्र (प्रोस्टोमियम), पहले खंड में प्रो॰ स्पष्ट है; ग. नर जननांग (क्लाइटेलम) वाले खंड बढ़ाकर दिखाए गए हैं घ. केंचुए के शरीर के खंड; ड़ सीटा; च. शरीर के अगले भाग का पार्श्वीय चित्र, जिसमें शुक्रधानी रध्रं दिखलाया गया है। रेखा में ही, उनके आगे और पीछे उभरे हुए, पापिला (Papillae) होते हैं। इनको जनन पापिला कहते हैं। जनन पापिला की उपस्थिति एवं बनावट भिन्न भिन्न जाति के कें चुओं में भिन्न होती है। पहले 12 खंडों को छोड़कर सब खंडों के बीचवाली अंतर्खंडीय रेखाओं के बीच में छोटे छोटे छिद्र होते हैं। चूँकि ये पृष्ठीय पक्ष में होते हैं, इसलिये इन्हें पृष्ठीय छिद्र कहते हैं। ये छिद्र शरीर की गुहा को बाहर से संबंधित करते हैं। पहला पृष्ठछिद्र 12वें और 13वें खंड के बीच की खात में पाया जाता है। अंतिम खात को छोड़कर बाकी सबमें एक एक छेद होता है। पहले दो खंडों को छोड़कर बाकी शरीर की दीवार पर अनेक अनियमित रूप से बिखरे छिद्र होते हैं। ये उत्सर्जन अंग के बाहरी छिद्र हैं। इनको नफ्ऱेीडियोपोर्स (Nephridio-pores) कहते हैं। केंचुए का लगभग तीन चौथाई भाग शरीर की दीवार के अंदर गड़ा होता है और थोड़ा सा ही भाग बाहर निकला रहता है। ये पहले और अंतिम खंडों को छोड़कर सब खंडों के बीच में पाए जाते हैं। प्राय: ये खंडों के बीच में उभरी हुई स्पष्ट रेखा सी बना लेते हैं। (चित्र 1 घ तथा च)। एक खंड में लगभग 200 सीटा होते हैं। इनको यदि निकाल कर देखा जाय तो इनका रंग हल्का पीला होगा। यदि सीटा के ऊपर और नीचे के सिरों को खींच दिया जाए, जैसा चित्र में दिखाया गया है, तो आकार में सीटा अंग्रेजी अक्षर S से मिलता है। प्रत्येक सीटा एक थैले में स्थित रहता है। वह थैला बाहरी दीवार के धँस जाने से बनता है और यही थैला सीटा का निर्माण करता है। सीटा अपनी लंबाई के लगभग बीच में कुछ फूल जाता है। इन गाँठों को नोड्यूल (Nodules) नाम दिया जाता है। सीटा विशेषकर केंचुए को चलने में सहायता करते हैं। जैसा पहले बता चुके हैं, इन खंडों के अनुरूप पट या भित्तियाँ होती हैं, जो शरीर की गुहा को खंडों में बाँटती हैं। केंचुआ के पाचनांग लंबी, पतली दीवारवाली नली के रूप में होते हैं, जो मुख से गुदा तक फैली रहती हैं, केंचुए का केंद्रीय तंत्र स्पष्ट होता है और इसकी मुख्य तंत्रिका आँतों के नीचे शरीर के प्रतिपृष्ठ भाग से होती हुई जाती है। प्रत्येक खंड में तंत्रिका फूलकर गुच्छिका बनाती हैं। इससे अनेक तंत्रिकाएँ निकलकर शरीर के विभिन्न अंगों में जाती हैं। केंचुए का एक छोटा सा मस्तिष्क भी होता है। इसका आकार साधारण होता है और यह आँतों के अगले भाग में स्थित रहता है। इसके अलावा शरीर में कई समांतर रक्तनलिकाएँ होती हैं। इनमें रक्त का संचार करने के लिये चार बड़ी बड़ी स्पंदनशील नलिकाएँ रहती हैं। ये सिकुड़ती और फैलती रहती हैं। इससे रक्त का संचार होता रहता है। जहाँ तक प्रजनन अंगों का संबंध है, एक ही केंचुए में दोनों लिंगों के अंग पाए जाते हैं इसीलिये इन्हें द्विलिंगीय (hermaphrodite) कहते हैं। किंतु उनमें स्वसंसेचन संभव नहीं हैं; परसंसेचन ही होता है। दो केंचुए एक दूसरे से संपर्क में आते हैं और संसेचन करते हैं। केंचुए पृथ्वी के अंदर लगभग 1 या 1 फुट की गहराई तक रहते हैं। यह अधिकतर पृथ्वी पर पाई जानेवाली सड़ी पत्ती बीज, छोटे कीड़ों के डिंभ (लार्वे), अंडे इत्यादि खाते हैं। ये सब पदार्थ मिट्टी में मिले रहते हैं। इन्हें ग्रहण करने के लिये केंचुए को पूरी मिट्टी निगल जानी पड़ती है। ये पृथ्वी के भीतर बिल बनाकर रहने वाले जंतु हैं। इनके बिल कभी कभी छह या सात फुट की गहराई तक चले जाते हैं। वर्षा ऋ तु में, जब बिल पानी से भर जाते हैं, केंचुए बाहर निकल आते हैं। इनका बिल बनाने का तरीका रोचक है। ये किसी स्थान में मिट्टी खाना प्रारंम्भ करते हैं और सिर को अंदर घुसेड़ते हुए मिट्टी खाते जाते हैं। मिट्टी के अंदर जो पोषक वस्तुएँ होती हैं उन्हें इनकी आँतें ग्रहण कर लेती हैं। शेष मिट्टी मलद्वारा से बाहर निकलती जाती हैं। केंचुए के मल, जो अधिकतर मिट्टी का बना होता है, मोटी सेंवई की आकृति का होता है। इसको वर्म कास्टिंग (worm casting) कहते हैं। प्राय: बरसात के पश्चात पेड़ों के नीचे, चरागाहों और खेतों में, वर्म कास्टिंग के ढेर अधिक संख्या में दिखाई पड़ते हैं। केंचुए रात में कार्य करनवाले प्राणी है। भोजन और प्रजनन के लिये वे रात में ही बाहर निकलते हैं; दिन में छिपे रहते हैं। साधारणत: शरीर को बिल के बाहर निकालने के पश्चात ये अपना पिछला हिस्सा बिल के अंदर ही रखते हैं, जिसमें तनिक भी संकट आने पर यह तुरंत बिल के अंदर घुस जाएँ। फेरिटाइमा (Pheretima) जाति के केंचुए पृथ्वी के बाहर बहुत कम निकलते हैं। इनकी सारी क्रियाएँ पृथ्वी के अंदर ही होती है। केंचुए मछलियों का प्रिय भोजन है। मछली पकड़नेवाले काँटे में केंचुए को लगा देते हैं, जिसको खाने के कारण वे काँटे में फँस जाती हैं। केंचुए की कुछ जातियाँ प्रकाश देनेवाली होती हैं। इनके चमड़े की बाहरी झिल्ली प्रकाश को दिन में ग्रहण कर लेती है और रात्रि में चमकती रहती है। भारत में कई जातियों के केंचुए पाए जाते हैं। इनमें से केवल दो ऐसे हैं जो आसानी से प्राप्त होते हैं। एक है फेरिटाइमा और दूसरा है यूटाइफियस। फेरिटाइमा पॉसथ्यूमा (Pheretima Posthuma) सारे भारतवर्ष में मिलता है। उपर्युक्त केंचुए का वर्णन इसी का है। फेरिटाइमा और यूटाइफियस केवल शरीररचना में ही भिन्न नहीं होते, वरन्‌ इनकी वर्म कास्टिंग भी भिन्न प्रकार की होती है। फेरिटाइमा की वर्म कास्टिंग मिट्टी की पृथक्‌ गोलियों के छोटे ढेर जैसी होती है और यूटाइफियस की कास्टिंग मिट्टी की उठी हुई रेखाओं के समान होती है। केंचुए किसानों के सच्चे मित्र और सहायक हैं। इनका मिट्टी खाने का ढंग लाभदायक है। ये पृथ्वी को एक प्रकार से जोतकर किसानों के लिये उपजाऊ बनाते हैं। वर्म कास्टिंग की ऊपरी मिट्टी सूख जाती है, फिर बारीक होकर पृथ्वी की सतह पर फैल जाती है। इस तरह जहाँ केंचुए रहते हैं वहाँ की मिट्टी पोली हो जाती है, जिससे पानी और हवा पृथ्वी की भीतर सुगमता से प्रवेश कर सकती है। इस प्रकार केंचुए हल के समान कार्य करते हैं। डारविन ने बताया है कि एक एकड़ में 10,000 से ऊपर केंचुए रहते हैं। ये केंचुए एक वर्ष में 14 से 18 टन, या 400 से 500 मन मिट्टी पृथ्वी के नीचे से लाकर सतह पर एकत्रित कर देते हैं। इससे पृथ्वी की सतह 1/5 इंच ऊंची हो जाती है। यह मिट्टी केंचुओं के पाचन अंग से होकर आती है, इसलिये इसमें नाइट्रोजनयुक्त पदार्थ भी मिल जाते हैं और यह खाद का कार्य करती हैं। इस प्रकार वे मनुष्य के लिये पृथ्वी को उपजाऊ बनाते रहते हैं। यदि इनको पूर्ण रूप से पृथ्वी से हटा दिया जाए तो हमारे लिये समस्या उत्पन्न हो जायगी। (सत्यनारायण प्रसाद.).

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