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राजस्थान का इतिहास

सूची राजस्थान का इतिहास

पुरातत्ववेत्ताओं के अनुसार राजस्थान का इतिहास पूर्व पाषाणकाल से प्रारंभ होता है। आज से करीब एक लाख वर्ष पहले मनुष्य मुख्यतः बनास नदी के किनारे या अरावली के उस पार की नदियों के किनारे निवास करता था। आदिम मनुष्य अपने पत्थर के औजारों की मदद से भोजन की तलाश में हमेशा एक स्थान से दूसरे स्थान को जाते रहते थे, इन औजारों के कुछ नमूने बैराठ, रैध और भानगढ़ के आसपास पाए गए हैं। अतिप्राचीनकाल में उत्तर-पश्चिमी राजस्थान वैसा बीहड़ मरुस्थल नहीं था जैसा वह आज है। इस क्षेत्र से होकर सरस्वती और दृशद्वती जैसी विशाल नदियां बहा करती थीं। इन नदी घाटियों में हड़प्पा, ‘ग्रे-वैयर’ और रंगमहल जैसी संस्कृतियां फली-फूलीं। यहां की गई खुदाइयों से खासकरकालीबंग के पास, पांच हजार साल पुरानी एक विकसित नगर सभ्यता का पता चला है। हड़प्पा, ‘ग्रे-वेयर’ और रंगमहल संस्कृतियां सैकडों किलोमीटर दक्षिण तक राजस्थान के एक बहुत बड़े इलाके में फैली हुई थीं। इस बात के प्रमाण मौजूद हैं कि ईसा पूर्व चौथी सदी और उसके पहले यह क्षेत्र कई छोटे-छोटे गणराज्यों में बंटा हुआ था। इनमें से दो गणराज्य मालवा और सिवि इतने शक्तिशाली थे कि उन्होंने सिकंदर महान को पंजाब से सिंध की ओर लौटने के लिए बाध्य कर दिया था। उस समय उत्तरी बीकानेर पर एक गणराज्यीय योद्धा कबीले यौधेयत का अधिकार था। महाभारत में उल्लिखित मत्स्य पूर्वी राजस्थान और जयपुर के एक बड़े हिस्से पर शासन करते थे। जयपुर से 80 कि॰मी॰ उत्तर में बैराठ, जो तब 'विराटनगर' कहलाता था, उनकी राजधानी थी। इस क्षेत्र की प्राचीनता का पता अशोक के दो शिलालेखों और चौथी पांचवी सदी के बौद्ध मठ के भग्नावशेषों से भी चलता है। भरतपुर, धौलपुर और करौली उस समय सूरसेन जनपद के अंश थे जिसकी राजधानी मथुरा थी। भरतपुर के नोह नामक स्थान में अनेक उत्तर-मौर्यकालीन मूर्तियां और बर्तन खुदाई में मिले हैं। शिलालेखों से ज्ञात होता है कि कुषाणकाल तथा कुषाणोत्तर तृतीय सदी में उत्तरी एवं मध्यवर्ती राजस्थान काफी समृद्ध इलाका था। राजस्थान के प्राचीन गणराज्यों ने अपने को पुनर्स्थापित किया और वे मालवा गणराज्य के हिस्से बन गए। मालवा गणराज्य हूणों के आक्रमण के पहले काफी स्वायत्त् और समृद्ध था। अंततः छठी सदी में तोरामण के नेतृत्तव में हूणों ने इस क्षेत्र में काफी लूट-पाट मचाई और मालवा पर अधिकार जमा लिया। लेकिन फिर यशोधर्मन ने हूणों को परास्त कर दिया और दक्षिण पूर्वी राजस्थान में गुप्तवंश का प्रभाव फिर कायम हो गया। सातवीं सदी में पुराने गणराज्य धीरे-धीरे अपने को स्वतंत्र राज्यों के रूप में स्थापित करने लगे। इनमें से मौर्यों के समय में चित्तौड़ गुबिलाओं के द्वारा मेवाड़ और गुर्जरों के अधीन पश्चिमी राजस्थान का गुर्जरात्र प्रमुख राज्य थे। लगातार होने वाले विदेशी आक्रमणों के कारण यहां एक मिली-जुली संस्कृति का विकास हो रहा था। रूढ़िवादी हिंदुओं की नजर में इस अपवित्रता को रोकने के लिए कुछ करने की आवश्यकता थी। सन् 647 में हर्ष की मृत्यु के बाद किसी मजबूत केंद्रीय शक्ति के अभाव में स्थानीय स्तर पर ही अनेक तरह की परिस्थितियों से निबटा जाता रहा। इन्हीं मजबूरियों के तहत पनपे नए स्थानीय नेतृत्व में जाति-व्यवस्था और भी कठोर हो गई। .

30 संबंधों: चित्तौड़गढ़, धौलपुर, नोह, पंजाब क्षेत्र, बनास नदी, बैराठ, बीकानेर, भरतपुर, मथुरा, मरुस्थल, महाभारत, मालवा, मेवाड़, यशोधर्मन, राजस्थान की समय रेखा, सरस्वती नदी, सिंध, सिकंदर, हड़प्पा, हर्षवर्धन, हूण लोग, जयपुर, वल्लभ भाई पटेल, गुप्त राजवंश, गुर्जर, करौली, अभिलेख, अरावली, अशोक, १९४८

चित्तौड़गढ़

पद्मिनी महल का तैलचित्र चित्तौड़गढ़ राजस्थान का एक शहर है। यह शूरवीरों का शहर है जो पहाड़ी पर बने दुर्ग के लिए प्रसिद्ध है। चित्तौड़गढ़ की प्राचीनता का पता लगाना कठिन कार्य है, किन्तु माना जाता है कि महाभारत काल में महाबली भीम ने अमरत्व के रहस्यों को समझने के लिए इस स्थान का दौरा किया और एक पंडित को अपना गुरु बनाया, किन्तु समस्त प्रक्रिया को पूरी करने से पहले अधीर होकर वे अपना लक्ष्य नहीं पा सके और प्रचण्ड गुस्से में आकर उसने अपना पाँव जोर से जमीन पर मारा, जिससे वहाँ पानी का स्रोत फूट पड़ा, पानी के इस कुण्ड को भीम-ताल कहा जाता है; बाद में यह स्थान मौर्य अथवा मूरी राजपूतों के अधीन आ गया, इसमें भिन्न-भिन्न राय हैं कि यह मेवाड़ शासकों के अधीन कब आया, किन्तु राजधानी को उदयपुर ले जाने से पहले 1568 तक चित्तौड़गढ़ मेवाड़ की राजधानी रहा। यहाँ पर रोड वंशी राजपूतों ने बहुत समय राज किया। यह माना जाता है गुलिया वंशी बप्पा रावल ने 8वीं शताब्दी के मध्य में अंतिम सोलंकी राजकुमारी से विवाह करने पर चित्तौढ़ को दहेज के एक भाग के रूप में प्राप्त किया था, बाद में उसके वंशजों ने मेवाड़ पर शासन किया जो 16वीं शताब्दी तक गुजरात से अजमेर तक फैल चुका था। अजमेर से खण्डवा जाने वाली ट्रेन के द्वारा रास्ते के बीच स्थित चित्तौरगढ़ जंक्शन से करीब २ मील उत्तर-पूर्व की ओर एक अलग पहाड़ी पर भारत का गौरव राजपूताने का सुप्रसिद्ध चित्तौड़गढ़ का किला बना हुआ है। समुद्र तल से १३३८ फीट ऊँची भूमि पर स्थित ५०० फीट ऊँची एक विशाल (ह्वेल मछ्ली) आकार में, पहाड़ी पर निर्मित्त यह दुर्ग लगभग ३ मील लम्बा और आधे मील तक चौड़ा है। पहाड़ी का घेरा करीब ८ मील का है तथा यह कुल ६०९ एकड़ भूमि पर बसा है। चित्तौड़गढ़, वह वीरभूमि है जिसने समूचे भारत के सम्मुख शौर्य, देशभक्ति एवम् बलिदान का अनूठा उदाहरण प्रस्तुत किया। यहाँ के असंख्य राजपूत वीरों ने अपने देश तथा धर्म की रक्षा के लिए असिधारारुपी तीर्थ में स्नान किया। वहीं राजपूत वीरांगनाओं ने कई अवसर पर अपने सतीत्व की रक्षा के लिए अपने बाल-बच्चों सहित जौहर की अग्नि में प्रवेश कर आदर्श उपस्थित किये। इन स्वाभिमानी देशप्रेमी योद्धाओं से भरी पड़ी यह भूमि पूरे भारत वर्ष के लिए प्रेरणा स्रोत बनकर रह गयी है। यहाँ का कण-कण हममें देशप्रेम की लहर पैदा करता है। यहाँ की हर एक इमारतें हमें एकता का संकेत देती हैं। .

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धौलपुर

धौलपुर राजस्‍थान का एक छोटा सा शहर है। यह धौलपुर जिले में आता है। धौलपुर विशेष रूप से बलुआ पत्थर के लिए जाना जाता है। यहां बनाई जाने वाली अधिकतर इमारतों का निर्माण इन बलुआ पत्थरों से ही किया जाता है। धौलपुर में कई मंदिर, किले, झील और महल है जहां घूमा जा सकता है। .

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नोह

नोह राजस्थान के भरतपुर ज़िले से 6 किलोमीटर दूर भरतपुर-आगरा मार्ग पर स्थित है। आर.सी.

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पंजाब क्षेत्र

पंजाब दक्षिण एशिया का क्षेत्र है जिसका फ़ारसी में मतलब पांच नदियों का क्षेत्र है। पंजाब ने भारतीय इतिहास को कई मोड़ दिये हैं। अतीत में शकों, हूणों, पठानों व मुगलों ने इसी पंजाब के रास्ते भारत में प्रवेश किया था। आर्यो का आगमन भी हिन्दुकुश पार कर इसी पंजाब के रास्ते ही हुआ था। पंजाब की सिन्धु नदी की घाटी में आर्यो की सभ्यता का विकास हुआ। उस समय इस भूख़ड का नाम सप्त सिन्धु अर्थात सात सागरों का देश था। समय के साथ सरस्वती जलस्रोत सूख् गया। अब रह गयीं पाँच नदियाँ-झेलम, चेनाब, राबी, व्यास और सतलज इन्हीं पाँच नदियों का प्रांत पंजाब हुआ। पंजाब का नामाकरण फारसी के दो शब्दों से हुआ है। पंज का अर्थ है पाँच और आब का अर्थ होता है जल। .

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बनास नदी

thumb कोटा के निकट बनास नदी का दृष्य बनास एक मात्र ऐसी नदी है जो संपूर्ण चक्र राजस्थान में ही पूरा करती है। बन + आस अर्थात बनास अर्थात (वन की आशा) के रूप में जानी जाने वाली यह नदी राजसमंद जिले के अरावली पर्वत श्रेणियों में कुंभलगढ़ के पास 'वीरों का मठ' से निकलती है। यह नाथद्वारा, कंकरोली, राजसमंद और भीलवाड़ा जिले में बहती हुई टौंक, सवाई माधोपुर के पश्चात रामेश्वरम (त्रिवेणी) के नजदीक सवाई माधोपुर चंबल में गिर जाती है। इसकी लंबाई लगभग 512 किलोमीटर है। इसकी सहायक नदियों में बेडच, कोठरी, मांसी, खारी, मुरेल व धुन्ध है। बेडच नदी १९० किलोमीटर लंबी है तथा गोगु्न्दा पहाड़ियों (उदयपुर) से निकलती है। कोठारी नदी उत्तरी राजसमंद जिले के दिवेर पहाड़ियों से निकलती है। यह १४५ किलोमीटर लंबी है तथा यह उदयपुर, भीलवाड़ा में बहती हुई बनास में मिल जाती है। .

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बैराठ

बैराठ राजस्थान की राजधानी जयपुर से लगभग 85 किलोमीटर दूर स्थित है। प्राचीन ग्रंथों में इसका नाम विराटपुर मिलता है। यह प्राचीन मत्स्य प्रदेश की राजधानी था। बैराठ का क्षेत्र लगभग 8 किमी लंबाई तथा 5 किमी चौड़ाई में फैला है। यह आसपास में पहाड़ियो से घिरा है। कस्बे के चारों ओर टीले ही टीले हैं। इन टीलों में पुरातत्व की दृष्टि से बीजक की पहाड़ी, भीमजी की डूंगरी तथा महादेव जी की डूंगरी अधिक महत्वपूर्ण है। यह स्थान मौर्यकालीन तथा उसके पीछे के काल के अवशेष का प्रतीक है, किंतु खुदाई से प्राप्त सामग्री से यह अनुमान लगाया जाता है कि यह क्षेत्र सिंधु घाटी सभ्यता के प्रागैतिहासिक काल का समकालीन है। वैसे यहां पर मौर्यकालीन अवशेषों के अलावा मध्यकालीन अवशेष भी मिले हैं। यहाँ की बीजक डूँगरी से कैप्टन बर्ट ने अशोक का ‘भाब्रू शिलालेख’ खोजा था। इनके अतिरिक्त यहाँ से बौद्ध स्तूप, बौद्ध मंदिर (गोल मंदिर) और अशोक स्तंभ के साक्ष्य मिले हैं। ये सभी अवशेष मौर्ययुगीन हैं। ऐसा माना जाता है कि हूण आक्रान्ता मिहिरकुल ने बैराठ का विध्वंस कर दिया था। चीनी यात्री युवानच्वांग ने भी अपने यात्रा वृत्तान्त में बैराठ का उल्लेख किया है। विराटनगर नाम से प्राय: लोगों को भ्रम हो जाता है। विराटनगर नामक एक क़स्बा नेपाल की सीमा में भी है। किन्तु नेपाल का विराट नगर, महाभारत कालीन विराटनगर नहीं है। महाभारतकालीन गौरव में आराध्यदेव भगवान श्री केशवराय का मंदिर,जिसमे 3 ही कृष्ण एवम् 3 ही विष्णु की प्रतिमाये स्थित है। 64 खम्बे व108 टोड़ी है। ये केशवराय मंदिर विश्व दर्शन के लिए महत्वपूर्ण तीर्थस्थल है।इस सम्बन्ध विराटनगर पौराणिक, प्रगेतिहासिक, महाभारतकालीन तथा गुप्तकालीन ही नहीं मुगलकालीन महत्वपूर्ण घटनाओ को भी अपने में समेटे हुए, राजस्थान के जयपुर और अलवर जिले की सीमा पर स्थित है विराटनगर में पौराणिक शक्तिपीठ, गुहा चित्रों के अवशेष, बोद्ध माथों के भग्नावशेष, अशोक का शिला लेख और मुगलकालीन भवन विद्यमान है। अनेक जलाशय और कुंड इस क्षेत्र की शोभा बढा रहे हैं। प्राकर्तिक शोभा से प्रान्त परिपूर्ण है। विराटनगर के निकट सरिस्का राष्ट्रीय व्याघ्र अभ्यारण, भर्तृहरी का तपोवन, पाण्डुपोल नाल्देश्वर और सिलिसेढ़ जैसे रमणीय तथा दर्शनीय स्थल लाखों श्रद्धालुओं और पर्यटकों को आकर्षित करते है। यहाँ के दर्शय दर्शनीय स्थलो में प्रसिद्ध श्रीकेश्वराय मंदिर नगर के मध्य आकर्षक का केंद्र है। जिसमे भगवान केशव एवम् विष्णु के साथ कोई देवी (शक्ति) नहीं है। भगवान केशव का जो रूप महाभारत में था। उसी स्वरूप में भगवन श्रीकृष्ण का मंदिर दर्शनीय है। जो विराटनगर पर्यटन नगरी में सुविख्यात है। ईंटों का ही अधिक प्रयोग- यह कारण अभी समझ में नहीं आया है कि बैराठ के आसपास पत्थरों की कमी नहीं है, फिर भी भवन निर्माण के लिए मिट्टी से पकाई गई ईंटों का ही अधिक प्रयोग किया गया है। मठों, स्तूपों, मंदिरों, मकानों तथा चबूतरों आदि सभी के निर्माण के लिए मिट्टी की ईंटों का ही प्रयोग किया गया है। यद्यपि यहां के आसपास के लोग अपने नए मकान के निर्माण के लिए यहां की अधिकांष ईंटें निकाल कर ले गए फिर भी बहुत-सी ईंटें बच गई। प्राप्त ईंटों में अधिकतर 20 x 10.5 x 3 इंच और 21 x 13 x 3 इंच के आकार की है। फर्श बिछाने के लिए उपयोग में लाई गई टाइलों का आकार बड़ा अर्थात 26 x 26 इंच के आकार का है। इन ईंटों की बनावट मोहनजोदड़ो में मिली ईंटों के समान है। शायद इन ईंटों का प्रयोग बौद्ध मठ के निर्माण के लिए किया गया होगा। यहां एक खंडहरनुमा भवन मिला है जिसमें 6-7 छोटे कमरे हैं। ये ईंटें इसी भवन के आसपास बिखरी मिली है। विद्वानों के अनुसार यह खंडहर किसी बौद्ध मठ का है। खंडहर की दीवारें 20 इंच मोटी है तथा कमरों में आने जाने का मार्ग अत्यंत संकड़ा है। खंडहर के अवशेष गोदाम तथा चबूतरों के अस्तित्व की और संकेत करते हैं। यूनानी मुद्राएं- कमरों के उत्खनन से प्राप्त होने वाली सामग्री में मुद्राएं काफी महत्वपूर्ण है। यहां कुल 36 मुद्राएं मिली है। ये मिट्टी के भांड में कपड़े से बंधी हुई प्राप्त हुई है। इनमें से 8 पंचमार्क चांदी की मुद्राएं हैं तथा 28 इंडो ग्रीक व यूनानी शासकों की मुद्राएं हैं। बौद्ध मठ से मुद्राएं प्राप्त होना आश्चर्यजनक है किंतु यह अनुमान लगाया जाता है कि ये किसी भिक्षु ने छुपा कर रखी होगी। ये मुद्राएं यह प्रमाणित करती है कि यहां यूनानी शासकों का अधिकार था। 16 मुद्राएं यूनानी राजा मिनेंडर की हैं। इससे यह स्पष्ट होता है कि 50 ई. तक बैराठ बौद्धों का निवास स्थली रहा होगा। पुरातत्ववेत्ताओं के अनुसार बैराठ के बौद्धमठ से प्राप्त सामग्री लगभग 250 ई. पू.

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बीकानेर

बीकानेर राजस्थान राज्य का एक शहर है। बीकानेर राज्य का पुराना नाम जांगल देश था। इसके उत्तर में कुरु और मद्र देश थे, इसलिए महाभारत में जांगल नाम कहीं अकेला और कहीं कुरु और मद्र देशों के साथ जुड़ा हुआ मिलता है। बीकानेर के राजा जंगल देश के स्वामी होने के कारण अब तक "जंगल धर बादशाह' कहलाते हैं। बीकानेर राज्य तथा जोधपुर का उत्तरी भाग जांगल देश था राव बीका द्वारा १४८५ में इस शहर की स्थापना की गई। ऐसा कहा जाता है कि नेरा नामक व्यक्ति गड़रिया था, जब राव बीका ने नेरा से एक शुभ जगह के बारे में पूछा तो उसने इस जगह के बारे में एक जवाब दिया उसने कहा की इस जगह पर मेरी एक भेड़ का मेमना ३ दिन तक भेड़ के साथ ७ सियारों के बीच एकला रहा और सियारों ने भेड़ और उसके बच्चे को कोई नुकसान नहीं पहुचायां और उसने इस बात के साथ एक शर्त रख दी की उसके नाम को नगर के नाम के साथ जोड़ा जाए। इसी कारण इसका नाम बीका+नेर, बीकानेर पड़ा। अक्षय तृतीया के यह दिन आज भी बीकानेर के लोग पतंग उड़ाकर स्मरण करते हैं। बीकानेर का इतिहास अन्य रियासतों की तरह राजाओं का इतिहास है। ने नवीन बीकानेर रेल नहर व अन्य आधारभूत व्यवस्थाओं से समृद्ध किया। बीकानेर की भुजिया मिठाई व जिप्सम तथा क्ले आज भी पूरे विश्व में अपनी विशिष्ट पहचान रखती हैं। यहां सभी धर्मों व जातियों के लोग शांति व सौहार्द्र के साथ रहते हैं यह यहां की दूसरी महत्वपूर्ण विशिष्टता है। यदि इतिहास की बात चल रही हो तो इटली के टैसीटोरी का नाम भी बीकानेर से बहुत प्रेम से जुड़ा हुआ है। बीकानेर शहर के ५ द्वार आज भी आंतरिक नगर की परंपरा से जीवित जुड़े हैं। कोटगेट, जस्सूसरगेट, नत्थूसरगेट, गोगागेट व शीतलागेट इनके नाम हैं। बीकानेर की भौगोलिक स्तिथि ७३ डिग्री पूर्वी अक्षांस २८.०१ उत्तरी देशंतार पर स्थित है। समुद्र तल से ऊंचाई सामान्य रूप से २४३मीटर अथवा ७९७ फीट है .

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भरतपुर

भरतपुर राजस्थान का एक प्रमुख शहर होने के साथ-साथ देश का सबसे प्रसिद्ध पक्षी उद्यान भी है। 29 वर्ग कि॰मी॰ में फैला यह उद्यान पक्षी प्रेमियों के लिए किसी स्वर्ग से कम नहीं है। विश्‍व धरोहर सूची में शामिल यह स्थान प्रवासी पक्षियों का भी बसेरा है। भरतपुर शहर की बात की जाए तो इसकी स्थापना जाट शासक राजा सूरजमल ने की थी और यह अपने समय में जाटों का गढ़ हुआ करता था। यहाँ के मंदिर, महल व किले जाटों के कला कौशल की गवाही देते हैं। राष्ट्रीय उद्यान के अलावा भी देखने के लिए यहाँ अनेक जगह हैं इसका नामकरण राम के भाई भरत के नाम पर किया गया है। लक्ष्मण इस राज परिवार के कुलदेव माने गये हैं। इसके पूर्व यह जगह सोगडिया जाट सरदार रुस्तम के अधिकार में था जिसको महाराजा सूरजमल ने जीता और 1733 में भरतपुर नगर की नींव डाली .

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मथुरा

मथुरा उत्तरप्रदेश प्रान्त का एक जिला है। मथुरा एक ऐतिहासिक एवं धार्मिक पर्यटन स्थल के रूप में प्रसिद्ध है। लंबे समय से मथुरा प्राचीन भारतीय संस्कृति एवं सभ्यता का केंद्र रहा है। भारतीय धर्म,दर्शन कला एवं साहित्य के निर्माण तथा विकास में मथुरा का महत्त्वपूर्ण योगदान सदा से रहा है। आज भी महाकवि सूरदास, संगीत के आचार्य स्वामी हरिदास, स्वामी दयानंद के गुरु स्वामी विरजानंद, कवि रसखान आदि महान आत्माओं से इस नगरी का नाम जुड़ा हुआ है। मथुरा को श्रीकृष्ण जन्म भूमि के नाम से भी जाना जाता है। .

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मरुस्थल

अटाकामा मरुस्थल मरुस्थल या रेगिस्तान ऐसे भौगोलिक क्षेत्रों को कहा जाता है जहां जलपात (वर्षा तथा हिमपात का योग) अन्य क्षेत्रों की अपेक्षा काफी कम होती है। प्रायः (गलती से) रेतीले रेगिस्तानी मैदानों को मरुस्थल कहा जाता है जोकि गलत है। यह बात और है कि भारत में सबसे कम वर्षा वाला क्षेत्र (थार) एक रेतीला मैदान है। मरूस्थल (कम वर्षा वाला क्षेत्र) का रेतीला होना आवश्यक नहीं। मरुस्थल का गर्म होना भी आवश्यक नहीं है। अंटार्कटिक, जोकि बर्फ से ढका प्रदेश है, विश्व का सबसे बड़ा मरुस्थल है ! विश्व के अन्य देशों में कई ऐसे मरुस्थल हैं जो रेतीले नहीं है। .

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महाभारत

महाभारत हिन्दुओं का एक प्रमुख काव्य ग्रंथ है, जो स्मृति वर्ग में आता है। कभी कभी केवल "भारत" कहा जाने वाला यह काव्यग्रंथ भारत का अनुपम धार्मिक, पौराणिक, ऐतिहासिक और दार्शनिक ग्रंथ हैं। विश्व का सबसे लंबा यह साहित्यिक ग्रंथ और महाकाव्य, हिन्दू धर्म के मुख्यतम ग्रंथों में से एक है। इस ग्रन्थ को हिन्दू धर्म में पंचम वेद माना जाता है। यद्यपि इसे साहित्य की सबसे अनुपम कृतियों में से एक माना जाता है, किन्तु आज भी यह ग्रंथ प्रत्येक भारतीय के लिये एक अनुकरणीय स्रोत है। यह कृति प्राचीन भारत के इतिहास की एक गाथा है। इसी में हिन्दू धर्म का पवित्रतम ग्रंथ भगवद्गीता सन्निहित है। पूरे महाभारत में लगभग १,१०,००० श्लोक हैं, जो यूनानी काव्यों इलियड और ओडिसी से परिमाण में दस गुणा अधिक हैं। हिन्दू मान्यताओं, पौराणिक संदर्भो एवं स्वयं महाभारत के अनुसार इस काव्य का रचनाकार वेदव्यास जी को माना जाता है। इस काव्य के रचयिता वेदव्यास जी ने अपने इस अनुपम काव्य में वेदों, वेदांगों और उपनिषदों के गुह्यतम रहस्यों का निरुपण किया हैं। इसके अतिरिक्त इस काव्य में न्याय, शिक्षा, चिकित्सा, ज्योतिष, युद्धनीति, योगशास्त्र, अर्थशास्त्र, वास्तुशास्त्र, शिल्पशास्त्र, कामशास्त्र, खगोलविद्या तथा धर्मशास्त्र का भी विस्तार से वर्णन किया गया हैं। .

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मालवा

1823 में बने एक एक ऐतिहासिक मानचित्र में मालवा को दिखाया गया है। विंध्याचल का दृश्य, यह मालवा की दक्षिणी सीमा को निर्धारित करता है। इससे इस क्षेत्र की कई नदियां निकली हैं। मालवा, ज्वालामुखी के उद्गार से बना पश्चिमी भारत का एक अंचल है। मध्य प्रदेश के पश्चिमी भाग तथा राजस्थान के दक्षिणी-पूर्वी भाग से गठित यह क्षेत्र प्राचीन काल से ही एक स्वतंत्र राजनीतिक इकाई रहा है। मालवा का अधिकांश भाग चंबल नदी तथा इसकी शाखाओं द्वारा संचित है, पश्चिमी भाग माही नदी द्वारा संचित है। यद्यपि इसकी राजनीतिक सीमायें समय समय पर थोड़ी परिवर्तित होती रही तथापि इस छेत्र में अपनी विशिष्ट सभ्यता, संस्कृति एंव भाषा का विकास हुआ है। मालवा के अधिकांश भाग का गठन जिस पठार द्वारा हुआ है उसका नाम भी इसी अंचल के नाम से मालवा का पठार है। इसे प्राचीनकाल में 'मालवा' या 'मालव' के नाम से जाना जाता था। वर्तमान में मध्यप्रदेश प्रांत के पश्चिमी भाग में स्थित है। समुद्र तल से इसकी औसत ऊँचाई ४९६ मी.

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मेवाड़

राजस्थान के अन्तर्गत मेवाड़ की स्थिति मेवाड़ राजस्थान के दक्षिण-मध्य में एक रियासत थी। इसे 'उदयपुर राज्य' के नाम से भी जाना जाता था। इसमें आधुनिक भारत के उदयपुर, भीलवाड़ा, राजसमंद, तथा चित्तौडगढ़ जिले थे। सैकड़ों सालों तक यहाँ रापपूतों का शासन रहा और इस पर गहलौत तथा सिसोदिया राजाओं ने १२०० साल तक राज किया। बाद में यह अंग्रेज़ों द्वारा शासित राज बना। १५५० के आसपास मेवाड़ की राजधानी थी चित्तौड़। राणा प्रताप सिंह यहीं का राजा था। अकबर की भारत विजय में केवल मेवाड़ का राणा प्रताप बाधक बना रहा। अकबर ने सन् 1576 से 1586 तक पूरी शक्ति के साथ मेवाड़ पर कई आक्रमण किए, पर उसका राणा प्रताप को अधीन करने का मनोरथ सिद्ध नहीं हुआ स्वयं अकबर, प्रताप की देश-भक्ति और दिलेरी से इतना प्रभावित हुआ कि प्रताप के मरने पर उसकी आँखों में आंसू भर आये। उसने स्वीकार किया कि विजय निश्चय ही राणा की हुई। यह एक ऐतिहासिक सत्य है कि देश के स्वतंत्रता संग्राम में प्रताप जैसे महान देशप्रेमियों के जीवन से ही प्रेरणा प्राप्त कर अनेक देशभक्त हँसते-हँसते बलिवेदी पर चढ़ गए। महाराणा प्रताप की मृत्यु पर उसके उत्तराधिकारी अमर सिंह ने मुगल सम्राट जहांगीर से संधि कर ली। उसने अपने पाटवी पुत्र को मुगल दरबार में भेजना स्वीकार कर लिया। इस प्रकार १०० वर्ष बाद मेवाड़ की स्वतंत्रता का भी अन्त हुआ। .

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यशोधर्मन

मंदसौर के सौंधनी में यशोधर्मन का विजय स्तम्भ यशोधर्मन के विजय-स्तम्भ के बारे में शिलालेख यशोधर्मन् छठी शताब्दी के आरम्भिक काल में मालवा के महाराजा थे। छठी शती ई0 के द्वितीय चरण में मालवा प्रांत के स्थानीय शासक के रूप से आगे बढ़कर यशोधर्मन् पूरे उत्तरी भारत पर छा गया। उसका उदय उल्कापात की भाँति तीव्र गति से हुआ था और उसी की भाँति बिना अधिक स्पष्ट प्रभाव छोड़े वह इतिहास से लुप्त हो गया। .

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राजस्थान की समय रेखा

यह राजस्थान के इतिहास की समय रेखा है।.

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सरस्वती नदी

सरस्वती एक पौराणिक नदी जिसकी चर्चा वेदों में भी है। ऋग्वेद (२ ४१ १६-१८) में सरस्वती का अन्नवती तथा उदकवती के रूप में वर्णन आया है। यह नदी सर्वदा जल से भरी रहती थी और इसके किनारे अन्न की प्रचुर उत्पत्ति होती थी। कहते हैं, यह नदी पंजाब में सिरमूरराज्य के पर्वतीय भाग से निकलकर अंबाला तथा कुरुक्षेत्र होती हुई कर्नाल जिला और पटियाला राज्य में प्रविष्ट होकर सिरसा जिले की दृशद्वती (कांगार) नदी में मिल गई थी। प्राचीन काल में इस सम्मिलित नदी ने राजपूताना के अनेक स्थलों को जलसिक्त कर दिया था। यह भी कहा जाता है कि प्रयाग के निकट तक आकार यह गंगा तथा यमुना में मिलकर त्रिवेणी बन गई थी। कालांतर में यह इन सब स्थानों से तिरोहित हो गई, फिर भी लोगों की धारणा है कि प्रयाग में वह अब भी अंत:सलिला होकर बहती है। मनुसंहिता से स्पष्ट है कि सरस्वती और दृषद्वती के बीच का भूभाग ही ब्रह्मावर्त कहलाता था। .

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सिंध

सिंध सिंध पाकिस्तान के चार प्रान्तों में से एक है। यह देश के दक्षिण-पूर्व में बसा हुआ है जिसके दक्षिण में अरब की खाड़ी है। सिन्ध का सबसे बड़ा शहर कराँची है और यहाँ देश की 15 प्रतिशत जनता वास करती है। यह सिन्धियों का मूल स्थान है साथ ही यहाँ विभाजन के दौरान आकर बसे मोहाज़िरों की भी बहुतायात है। .

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सिकंदर

सिकंदर (Alexander) (356 ईपू से 323 ईपू) मकदूनियाँ, (मेसेडोनिया) का ग्रीक प्रशासक था। वह एलेक्ज़ेंडर तृतीय तथा एलेक्ज़ेंडर मेसेडोनियन नाम से भी जाना जाता है। इतिहास में वह कुशल और यशस्वी सेनापतियों में से एक माना गया है। अपनी मृत्यु तक वह उन सभी भूमि मे से लगभग आधी भूमि जीत चुका था, जिसकी जानकारी प्राचीन ग्रीक लोगों को थी(सत्य ये है की वह पृथ्वी के मात्र 5 प्रतीशत हिस्से को ही जीत पाया था) और उसके विजय रथ को रोकने में सबसे मुख्य भूमिका भारत के महान राजा पुरु (जिन्हे युनानी इतिहासकारों नें पोरस से सम्बोधित किया है।)और भारत के क्षेत्रीय सरदारो की थी, जिन्होंने सिकंदर की सेना में अपने पराक्रम के दम पर भारत के प्रति खौफ पैदा कर उसके हौसले पस्त कर दिये और उसे भारत से लौटने पर मजबूर कर दिया।। उसने अपने कार्यकाल में इरान, सीरिया, मिस्र, मसोपोटेमिया, फिनीशिया, जुदेआ, गाझा, बॅक्ट्रिया और भारत में पंजाब(जिसके राजा पुरु थे।) तक के प्रदेश पर विजय हासिल की थी परन्तु बाद में वो मगध की विशाल सेना से डर कर लौट गया ।।उल्लेखनीय है कि उपरोक्त क्षेत्र उस समय फ़ारसी साम्राज्य के अंग थे और फ़ारसी साम्राज्य सिकन्दर के अपने साम्राज्य से कोई 40 गुना बड़ा था। फारसी में उसे एस्कंदर-ए-मक्दुनी (मॅसेडोनिया का अलेक्ज़ेंडर, एस्कन्दर का अपभ्रंश सिकन्दर है) औऱ हिंदी में अलक्षेन्द्र कहा गया है। .

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हड़प्पा

सिंधु घाटी सभ्यता मे हड़प्पा का स्थान हड़प्पा पूर्वोत्तर पाकिस्तान के पंजाब प्रांत का एक पुरातात्विक स्थल है। यह साहिवाल शहर से २० किलोमीटर पश्चिम में स्थित है। सिन्धु घाटी सभ्यता के अनेकों अवशेष यहाँ से प्राप्त हुए हैं। सिंधु घाटी सभ्यता को इसी शहर के नाम के कारण हड़प्पा सभ्यता भी कहा जाता है। १९२१ में जब जॉन मार्शल भारत के पुरातात्विक विभाग के निर्देशक थे तब दयाराम साहनी ने इस जगह पर सर्वप्रथम खुदाई का कार्य करवाया था। दयाराम साहनी के अलावा माधव स्वरुप व मार्तीमर वीहलर ने भी खुदाई का कार्य किया था। हड़प्पा शहर का अधिकांश भाग रेलवे लाइन निर्माण के कारण नष्ट हो गया था। .

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हर्षवर्धन

हर्षवर्धन का साम्राज्य हर्ष का टीला हर्षवर्धन (590-647 ई.) प्राचीन भारत में एक राजा था जिसने उत्तरी भारत में अपना एक सुदृढ़ साम्राज्य स्थापित किया था। वह हिंदू सम्राट् था जिसने पंजाब छोड़कर शेष समस्त उत्तरी भारत पर राज्य किया। शशांक की मृत्यु के उपरांत वह बंगाल को भी जीतने में समर्थ हुआ। हर्षवर्धन के शासनकाल का इतिहास मगध से प्राप्त दो ताम्रपत्रों, राजतरंगिणी, चीनी यात्री युवान् च्वांग के विवरण और हर्ष एवं बाणभट्टरचित संस्कृत काव्य ग्रंथों में प्राप्त है। शासनकाल ६०६ से ६४७ ई.। वंश - थानेश्वर का पुष्यभूति वंश। उसके पिता का नाम 'प्रभाकरवर्धन' था। राजवर्धन उसका बड़ा भाई और राज्यश्री उसकी बड़ी बहन थी। ६०५ ई. में प्रभाकरवर्धन की मृत्यु के पश्चात् राजवर्धन राजा हुआ पर मालव नरेश देवगुप्त और गौड़ नरेश शंशांक की दुरभिसंधि वश मारा गया। हर्षवर्धन 606 में गद्दी पर बैठा। हर्षवर्धन ने बहन राज्यश्री का विंध्याटवी से उद्धार किया, थानेश्वर और कन्नौज राज्यों का एकीकरण किया। देवगुप्त से मालवा छीन लिया। शंशाक को गौड़ भगा दिया। दक्षिण पर अभियान किया पर आंध्र पुलकैशिन द्वितीय द्वारा रोक दिया गया। उसने साम्राज्य को सुंदर शासन दिया। धर्मों के विषय में उदार नीति बरती। विदेशी यात्रियों का सम्मान किया। चीनी यात्री युवेन संग ने उसकी बड़ी प्रशंसा की है। प्रति पाँचवें वर्ष वह सर्वस्व दान करता था। इसके लिए बहुत बड़ा धार्मिक समारोह करता था। कन्नौज और प्रयाग के समारोहों में युवेन संग उपस्थित था। हर्ष साहित्य और कला का पोषक था। कादंबरीकार बाणभट्ट उसका अनन्य मित्र था। हर्ष स्वयं पंडित था। वह वीणा बजाता था। उसकी लिखी तीन नाटिकाएँ नागानंद, रत्नावली और प्रियदर्शिका संस्कृत साहित्य की अमूल्य निधियाँ हैं। हर्षवर्धन का हस्ताक्षर मिला है जिससे उसका कलाप्रेम प्रगट होता है। गुप्त साम्राज्य के पतन के बाद भारत में (मुख्यतः उत्तरी भाग में) अराजकता की स्थिति बना हुई थी। ऐसी स्थिति में हर्ष के शासन ने राजनैतिक स्थिरता प्रदान की। कवि बाणभट्ट ने उसकी जीवनी हर्षचरित में उसे चतुःसमुद्राधिपति एवं सर्वचक्रवर्तिनाम धीरयेः आदि उपाधियों से अलंकृत किया। हर्ष कवि और नाटककार भी था। उसके लिखे गए दो नाटक प्रियदर्शिका और रत्नावली प्राप्त होते हैं। हर्ष का जन्म थानेसर (वर्तमान में हरियाणा) में हुआ था। थानेसर, प्राचीन हिन्दुओं के तीर्थ केन्द्रों में से एक है तथा ५१ शक्तिपीठों में एक है। यह अब एक छोटा नगर है जो दिल्ली के उत्तर में हरियाणा राज्य में बने नये कुरुक्षेत्र के आस-पडोस में स्थित है। हर्ष के मूल और उत्पत्ति के संर्दभ में एक शिलालेख प्राप्त हुई है जो कि गुजरात राज्य के गुन्डा जिले में खोजी गयी है। .

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हूण लोग

हूण बंजारे लोग थे जिनका मूल स्थान वोल्गा के पूर्व में था। वे ३७० ई में यूरोप में पहुँचे और वहाँ विशाल हूण साम्राज्य खड़ा किया। हूण वास्तव में चीन के पास रहने वाली एक जाति थी। इन्हें चीनी लोग "ह्यून यू" अथवा "हून यू" कहते थे। कालान्तर में इसकी दो शाखाएँ बन गईँ जिसमें से एक वोल्गा नदी के पास बस गई तथा दूसरी शाखा ने ईरान पर आक्रमण किया और वहाँ के सासानी वंश के शासक फिरोज़ को मार कर राज्य स्थापित कर लिया। बदलते समय के साथ-साथ कालान्तर में इसी शाखा ने भारत पर आक्रमण किया इसकी पश्चिमी शाखा ने यूरोप के महान रोमन साम्राज्य का पतन कर दिया। यूरोप पर आक्रमण करने वाले हूणों का नेता अट्टिला था। भारत पर आक्रमण करने वाले हूणों को श्वेत हूण तथा यूरोप पर आक्रमण करने वाले हूणों को अश्वेत हूण कहा गया भारत पर आक्रमण करने वाले हूणों के नेता क्रमशः तोरमाण व मिहिरकुल थे तोरमाण ने स्कन्दगुप्त को शासन काल में भारत पर आक्रमण किया था। .

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जयपुर

जयपुर जिसे गुलाबी नगर के नाम से भी जाना जाता है, भारत में राजस्थान राज्य की राजधानी है। आमेर के तौर पर यह जयपुर नाम से प्रसिद्ध प्राचीन रजवाड़े की भी राजधानी रहा है। इस शहर की स्थापना १७२८ में आमेर के महाराजा जयसिंह द्वितीय ने की थी। जयपुर अपनी समृद्ध भवन निर्माण-परंपरा, सरस-संस्कृति और ऐतिहासिक महत्व के लिए प्रसिद्ध है। यह शहर तीन ओर से अरावली पर्वतमाला से घिरा हुआ है। जयपुर शहर की पहचान यहाँ के महलों और पुराने घरों में लगे गुलाबी धौलपुरी पत्थरों से होती है जो यहाँ के स्थापत्य की खूबी है। १८७६ में तत्कालीन महाराज सवाई रामसिंह ने इंग्लैंड की महारानी एलिज़ाबेथ प्रिंस ऑफ वेल्स युवराज अल्बर्ट के स्वागत में पूरे शहर को गुलाबी रंग से आच्छादित करवा दिया था। तभी से शहर का नाम गुलाबी नगरी पड़ा है। 2011 की जनगणना के अनुसार जयपुर भारत का दसवां सबसे अधिक जनसंख्या वाला शहर है। राजा जयसिंह द्वितीय के नाम पर ही इस शहर का नाम जयपुर पड़ा। जयपुर भारत के टूरिस्ट सर्किट गोल्डन ट्रायंगल (India's Golden Triangle) का हिस्सा भी है। इस गोल्डन ट्रायंगल में दिल्ली,आगरा और जयपुर आते हैं भारत के मानचित्र में उनकी स्थिति अर्थात लोकेशन को देखने पर यह एक त्रिभुज (Triangle) का आकार लेते हैं। इस कारण इन्हें भारत का स्वर्णिम त्रिभुज इंडियन गोल्डन ट्रायंगल कहते हैं। भारत की राजधानी दिल्ली से जयपुर की दूरी 280 किलोमीटर है। शहर चारों ओर से दीवारों और परकोटों से घिरा हुआ है, जिसमें प्रवेश के लिए सात दरवाजे हैं। बाद में एक और द्वार भी बना जो 'न्यू गेट' कहलाया। पूरा शहर करीब छह भागों में बँटा है और यह १११ फुट (३४ मी.) चौड़ी सड़कों से विभाजित है। पाँच भाग मध्य प्रासाद भाग को पूर्वी, दक्षिणी एवं पश्चिमी ओर से घेरे हुए हैं और छठा भाग एकदम पूर्व में स्थित है। प्रासाद भाग में हवा महल परिसर, व्यवस्थित उद्यान एवं एक छोटी झील हैं। पुराने शह के उत्तर-पश्चिमी ओर पहाड़ी पर नाहरगढ़ दुर्ग शहर के मुकुट के समान दिखता है। इसके अलावा यहां मध्य भाग में ही सवाई जयसिंह द्वारा बनावायी गईं वेधशाला, जंतर मंतर, जयपुर भी हैं। जयपुर को आधुनिक शहरी योजनाकारों द्वारा सबसे नियोजित और व्यवस्थित शहरों में से गिना जाता है। देश के सबसे प्रतिभाशाली वास्तुकारों में इस शहर के वास्तुकार विद्याधर भट्टाचार्य का नाम सम्मान से लिया जाता है। ब्रिटिश शासन के दौरान इस पर कछवाहा समुदाय के राजपूत शासकों का शासन था। १९वीं सदी में इस शहर का विस्तार शुरु हुआ तब इसकी जनसंख्या १,६०,००० थी जो अब बढ़ कर २००१ के आंकड़ों के अनुसार २३,३४,३१९ और २०१२ के बाद ३५ लाख हो चुकी है। यहाँ के मुख्य उद्योगों में धातु, संगमरमर, वस्त्र-छपाई, हस्त-कला, रत्न व आभूषण का आयात-निर्यात तथा पर्यटन-उद्योग आदि शामिल हैं। जयपुर को भारत का पेरिस भी कहा जाता है। इस शहर के वास्तु के बारे में कहा जाता है कि शहर को सूत से नाप लीजिये, नाप-जोख में एक बाल के बराबर भी फ़र्क नहीं मिलेगा। .

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वल्लभ भाई पटेल

श्रेणी: सरदार वल्लभ भाई पटेल (સરદાર વલ્લભભાઈ પટેલ; 31 अक्टूबर, 1875 - 15 दिसंबर, 1950) भारत के स्वतंत्रता संग्राम सेनानी थे। भारत की आजादी के बाद वे प्रथम गृह मंत्री और उप-प्रधानमंत्री बने। बारडोली सत्याग्रह का नेतृत्व कर रहे पटेल को सत्याग्रह की सफलता पर वहाँ की महिलाओं ने सरदार की उपाधि प्रदान की। आजादी के बाद विभिन्न रियासतों में बिखरे भारत के भू-राजनीतिक एकीकरण में केंद्रीय भूमिका निभाने के लिए पटेल को भारत का बिस्मार्क और लौह पुरूष भी कहा जाता है। .

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गुप्त राजवंश

गुप्त राज्य लगभग ५०० ई इस काल की अजन्ता चित्रकला गुप्त राजवंश या गुप्त वंश प्राचीन भारत के प्रमुख राजवंशों में से एक था। मौर्य वंश के पतन के बाद दीर्घकाल तक भारत में राजनीतिक एकता स्थापित नहीं रही। कुषाण एवं सातवाहनों ने राजनीतिक एकता लाने का प्रयास किया। मौर्योत्तर काल के उपरान्त तीसरी शताब्दी इ. में तीन राजवंशो का उदय हुआ जिसमें मध्य भारत में नाग शक्‍ति, दक्षिण में बाकाटक तथा पूर्वी में गुप्त वंश प्रमुख हैं। मौर्य वंश के पतन के पश्चात नष्ट हुई राजनीतिक एकता को पुनस्थापित करने का श्रेय गुप्त वंश को है। गुप्त साम्राज्य की नींव तीसरी शताब्दी के चौथे दशक में तथा उत्थान चौथी शताब्दी की शुरुआत में हुआ। गुप्त वंश का प्रारम्भिक राज्य आधुनिक उत्तर प्रदेश और बिहार में था। गुप्त वंश पर सबसे ज्यादा रिसर्च करने वाले इतिहासकार डॉ जयसवाल ने इन्हें जाट बताया है।इसके अलावा तेजराम शर्माhttps://books.google.co.in/books?id.

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गुर्जर

सम्राट मिहिर भोज की मूर्ति:भारत उपवन, अक्षरधाम मन्दिर, नई दिल्ली गुर्जर समाज, प्राचीन एवं प्रतिष्ठित समाज में से एक है। यह समुदाय गुज्जर, गूजर, गोजर, गुर्जर, गूर्जर और वीर गुर्जर नाम से भी जाना जाता है। गुर्जर मुख्यत: उत्तर भारत, पाकिस्तान और अफ़्ग़ानिस्तान में बसे हैं। इस जाति का नाम अफ़्ग़ानिस्तान के राष्ट्रगान में भी आता है। गुर्जरों के ऐतिहासिक प्रभाव के कारण उत्तर भारत और पाकिस्तान के बहुत से स्थान गुर्जर जाति के नाम पर रखे गए हैं, जैसे कि भारत का गुजरात राज्य, पाकिस्तानी पंजाब का गुजरात ज़िला और गुजराँवाला ज़िला और रावलपिंडी ज़िले का गूजर ख़ान शहर।; आधुनिक स्थिति प्राचीन काल में युद्ध कला में निपुण रहे गुर्जर मुख्य रूप से खेती और पशुपालन के व्यवसाय से जुड़े हुए हैं। गुर्जर अच्छे योद्धा माने जाते थे और इसीलिए भारतीय सेना में अभी भी इनकी अच्छी ख़ासी संख्या है| गुर्जर महाराष्ट्र (जलगाँव जिला), दिल्ली, राजस्थान, हरियाणा, मध्य प्रदेश, उत्तर प्रदेश, हिमाचल प्रदेश, जम्मू कश्मीर जैसे राज्यों में फैले हुए हैं। राजस्थान में सारे गुर्जर हिंदू हैं। सामान्यत: गुर्जर हिन्दू, सिख, मुस्लिम आदि सभी धर्मो में देखे जा सकते हैं। मुस्लिम तथा सिख गुर्जर, हिन्दू गुर्जरो से ही परिवर्तित हुए थे। पाकिस्तान में गुजरावालां, फैसलाबाद और लाहौर के आसपास इनकी अच्छी ख़ासी संख्या है। .

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करौली

करौली राजस्‍थान का ऐतिहासिक नगर है। यह करौली जिला का मुख्यालय है। इसकी स्‍थापना 955 ई. के आसपास राजा विजय पाल ने की थी जिनके बारे में कहा जाता है कि वे भगवान कृष्‍ण के वंशज थे। 1818 में करौली राजपूताना एजेंसी का हिस्‍सा बना। 1947 में भारत की आजादी के बाद यहां के शासक महाराज गणेश पाल देव ने भारत का हिस्‍सा बनने का निश्‍चय किया। 7 अप्रैल 1949 में करौली भारत में शामिल हुआ और राजस्‍थान राज्‍य का हिस्‍सा बना।करौली का सिटी पेलेस राजस्‍थान के प्रमुख पर्यटक स्‍थलों में से एक है। मदन मोहन जी का मंदिर देश-विदेश में बसे श्रृद्धालुओं के बीच बहुत लोकप्रिय है। अपने ऐतिहासिक किलों और मंदिरों के लिए मशहूर करौली दर्शनीय स्‍थल है। .

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अभिलेख

कंधार स्थित सम्राट अशोक के द्वारा उत्कीर्ण एक पाषाण अभिलेख अभिलेख पत्थर अथवा धातु जैसी अपेक्षाकृत कठोर सतहों पर उत्कीर्ण किये गये पाठन सामाग्री को कहते है। प्राचीन काल से इसका उपयोग हो रहा है। शासको के द्वारा अपने आदेशो को इस तरह उत्कीर्ण करवाते थे, ताकि लोग उन्हे देख सके एवं पढ़ सके और पालन कर सके। आधुनिक युग मे भी इसका उपयोग हो रहा है। .

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अरावली

अरावली पर्वत श्रंखला की तुलना अमेरिका के अल्पेशियन पर्वतो से की जाती है अरावली भारत के पश्चिमी भाग राजस्थान में स्थित एक पर्वतमाला है। भारत की भौगोलिक संरचना में अरावली प्राचीनतम पर्वत है। यह संसार की सबसे प्राचीन पर्वत श्रृंखला है जो राजस्थान को उत्तर से दक्षिण दो भागों में बांटती है। अरावली का सर्वोच्च पर्वत शिखर सिरोही जिले में गुरुशिखर (1722 /1727 मी.) है, जो माउंट आबू में है। अरावली पर्वत श्रंखला की कुल लम्बाई गुजरात से दिल्ली तक ६९२ किलीमीटर है, अरावली पर्वत श्रंखला का लगभग ८० % विस्तार राजस्थान में है, दिल्ली में स्थित राष्ट्रपति भवन रायशेला पहाड़ी पर बना हुआ है जो अरावली का की भाग है, अरावली की औसत ऊंचाई ९३० मीटर है तथा अरावली के दक्षिण की ऊंचाई व चौड़ाई सर्वाधिक है, अरावली या अर्वली उत्तर भारतीय पर्वतमाला है। राजस्थान राज्य के पूर्वोत्तर क्षेत्र से गुज़रती 550 किलोमीटर लम्बी इस पर्वतमाला की कुछ चट्टानी पहाड़ियाँ दिल्ली के दक्षिण हिस्से तक चली गई हैं। शिखरों एवं कटकों की श्रृखलाएँ, जिनका फैलाव 10 से 100 किलोमीटर है, सामान्यत: 300 से 900 मीटर ऊँची हैं। यह पर्वतमाला, दो भागों में विभाजित है- सांभर-सिरोही पर्वतमाला- जिसमें माउण्ट आबू के गुरु शिखर (अरावली पर्वतमाला का शिखर, ऊँचाई 1,722 मीटर) सहित अधिकतर ऊँचे पर्वत हैं। सांभर-खेतरी पर्वतमाला- जिसमें तीन विच्छिन्न कटकीय क्षेत्र आते हैं। अरावली पर्वतमाला प्राकृतिक संसाधनों (एवं खनिज़) से परिपूर्ण है और पश्चिमी मरुस्थल के विस्तार को रोकने का कार्य करती है। यह अनेक प्रमुख नदियों- बाना, लूनी, साखी एवं साबरमती का उदगम स्थल है। इस पर्वतमाला में केवल दक्षिणी क्षेत्र में सघन वन हैं, अन्यथा अधिकांश क्षेत्रों में यह विरल, रेतीली एवं पथरीली (गुलाबी रंग के स्फ़टिक) है। अरावली की अन्य उच्च चोटियां:- १ गुरु शिखर - सिरोही (1722 m) २ सेर - सिरोही (1597m) ३ दिलवाडा - सिरोही(इसे हाल ही में जोड़ा गया है, इसी पर्वत पर प्रसिद्ध जैन मंदिर स्थित हैं).

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अशोक

चक्रवर्ती सम्राट अशोक (ईसा पूर्व ३०४ से ईसा पूर्व २३२) विश्वप्रसिद्ध एवं शक्तिशाली भारतीय मौर्य राजवंश के महान सम्राट थे। सम्राट अशोक का पूरा नाम देवानांप्रिय अशोक मौर्य (राजा प्रियदर्शी देवताओं का प्रिय) था। उनका राजकाल ईसा पूर्व २६९ से २३२ प्राचीन भारत में था। मौर्य राजवंश के चक्रवर्ती सम्राट अशोक ने अखंड भारत पर राज्य किया है तथा उनका मौर्य साम्राज्य उत्तर में हिन्दुकुश की श्रेणियों से लेकर दक्षिण में गोदावरी नदी के दक्षिण तथा मैसूर तक तथा पूर्व में बांग्लादेश से पश्चिम में अफ़ग़ानिस्तान, ईरान तक पहुँच गया था। सम्राट अशोक का साम्राज्य आज का संपूर्ण भारत, पाकिस्तान, अफ़ग़ानिस्तान, नेपाल, बांग्लादेश, भूटान, म्यान्मार के अधिकांश भूभाग पर था, यह विशाल साम्राज्य उस समय तक से आज तक का सबसे बड़ा भारतीय साम्राज्य रहा है। चक्रवर्ती सम्राट अशोक विश्व के सभी महान एवं शक्तिशाली सम्राटों एवं राजाओं की पंक्तियों में हमेशा शिर्ष स्थान पर ही रहे हैं। सम्राट अशोक ही भारत के सबसे शक्तिशाली एवं महान सम्राट है। सम्राट अशोक को ‘चक्रवर्ती सम्राट अशोक’ कहाँ जाता है, जिसका अर्थ है - ‘सम्राटों का सम्राट’, और यह स्थान भारत में केवल सम्राट अशोक को मिला है। सम्राट अशोक को अपने विस्तृत साम्राज्य से बेहतर कुशल प्रशासन तथा बौद्ध धर्म के प्रचार के लिए भी जाना जाता है। सम्राट अशोक ने संपूर्ण एशिया में तथा अन्य आज के सभी महाद्विपों में भी बौद्ध धर्म धर्म का प्रचार किया। सम्राट अशोक के संदर्भ के स्तंभ एवं शिलालेख आज भी भारत के कई स्थानों पर दिखाई देते है। इसलिए सम्राट अशोक की ऐतिहासिक जानकारी एन्य किसी भी सम्राट या राजा से बहूत व्यापक रूप में मिल जाती है। सम्राट अशोक प्रेम, सहिष्णूता, सत्य, अहिंसा एवं शाकाहारी जीवनप्रणाली के सच्चे समर्थक थे, इसलिए उनका नाम इतिहास में महान परोपकारी सम्राट के रूप में ही दर्ज हो चुका है। जीवन के उत्तरार्ध में सम्राट अशोक भगवान बुद्ध की मानवतावादी शिक्षाओं से प्रभावित होकर बौद्ध हो गये और उन्ही की स्मृति में उन्होने कई स्तम्भ खड़े कर दिये जो आज भी नेपाल में उनके जन्मस्थल - लुम्बिनी - में मायादेवी मन्दिर के पास, सारनाथ, बोधगया, कुशीनगर एवं आदी श्रीलंका, थाईलैंड, चीन इन देशों में आज भी अशोक स्तम्भ के रूप में देखे जा सकते है। सम्राट अशोक ने बौद्ध धर्म का प्रचार भारत के अलावा श्रीलंका, अफ़ग़ानिस्तान, पश्चिम एशिया, मिस्र तथा यूनान में भी करवाया। सम्राट अशोक अपने पूरे जीवन में एक भी युद्ध नहीं हारे। सम्राट अशोक के ही समय में २३ विश्वविद्यालयों की स्थापना की गई जिसमें तक्षशिला, नालंदा, विक्रमशिला, कंधार आदि विश्वविद्यालय प्रमुख थे। इन्हीं विश्वविद्यालयों में विदेश से कई छात्र शिक्षा पाने भारत आया करते थे। ये विश्वविद्यालय उस समय के उत्कृट विश्वविद्यालय थे। शिलालेख सुरु करने वाला पहला शासक अशोक ही था, .

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१९४८

1948 ग्रेगोरी कैलंडर का एक अधिवर्ष है। .

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यहां पुनर्निर्देश करता है:

राजस्थान में प्रचीन सभ्यताओं के केन्द्र

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