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मुख्तारनामा

सूची मुख्तारनामा

मुख्तारनामा या अधिकार पत्र (power of attorney (POA) या letter of attorney) एक लिखित दस्तावेज है जिसमें कोई व्यक्ति किसी दूसरे व्यक्ति को यह अधिकार देता है कि वह उसके किसी निजी कार्य, व्यापार या किसी कानूनी कार्य के लिये उसका प्रतिनिधित्व करे (अर्थात उसकी ओर से कार्य करे)। जिसको यह अधिकार दिया जाता है उसे मुख्तार या एटार्नी (attorney) कहते हैं। अधिकार पत्र के सम्बन्ध में कानून, एजेन्सी कानून के अन्तर्गत बनाया गया है। अधिकार पत्र एक लिखित साधन है जो कि किसी व्यक्ति को उसके लिखने वाले व्यक्ति की जगह कार्य कर सकने का अधिकार देता है। यह निम्न दो प्रकार का होता है -.

6 संबंधों: पंजीकरण, भारतीय संविदा अधिनियम १८७२, स्टाम्प शुल्क, विलेख, इच्छापत्र, अधिवक्ता

पंजीकरण

पंजीकरण (Registration) किसी चीज को आधिकारिक रूप से रिकार्ड करने की विधि है। प्राय: किसी चीज का पंजीकरण करने के पीछे अधिक अधिकार प्राप्त करने, या मालिकाना हक की रक्षा के लिए किया जाता है क्योंकि नियम के अनुसार कोई चीज यदि वैधानिक रूप से प्रयोग की जानी है तो उसका पंजीकरण होना ही चाहिए। जन्म, मरण, विवाह आदि का पंजीकरण करने से इन घटनाओं के होने की तिथि सिद्ध करने में आसानी होती है। गाडियाँ इसलिए पंजीकृत की जाती हैं कि उनका स्वामित्व सिद्ध किया जा सके। .

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भारतीय संविदा अधिनियम १८७२

भारतीय संविदा अधिनियम, १८७२ (Indian Contract Act, 1872) भारत का मुख्य संविदा कानून है। यह अधिनियम भारत में अंग्रेजी शासन के समय पारित हुआ था। यह 'इंग्लिश कॉमन ला' पर आधारित है। यह अधिनियम संविदाओं के निर्माण, निष्‍पादन और प्रवर्तनीयता से संबंधित सामान्‍य सिद्धांतों तथा क्षतिपूर्ति एवं गारंटी, जमानत और गिरवी, तथा अभिकरण (एजेंसी) जैसी विशेष प्रकार की संविदाओं से संबंधित नियम निर्धारित करता है। यद्यपि भागीदारी अधिनियम; माल बिक्री अधिनियम; परक्राम्‍य लिखत अधिनियम और कम्‍पनी अधिनियम, तकनीकी दृ‍ष्टि से संविदा कानून के भाग हैं, फिर भी इन्‍हें पृथक अधिनियमनों में शामिल किया गया है। भारतीय संविदा अधिनियम, 1872 के अनुसार, संविदा कानून द्वारा प्रवर्तनीय करार है। कानून द्वारा प्रवर्तित न किए जा सकने वाले करार संविदाएं नहीं होते। ‘’करार’’ से अभिप्राय है एक दूसरे के प्रतिफल का ध्‍यान रखते हुए दिया जाने वाला आश्‍वासन। और आश्‍वासन त‍ब दिया जाता है जब कोई प्रस्‍ताव स्‍वीकारा जाता है। इसका निहितार्थ यह है कि करार एक स्‍वीकृत प्रस्‍ताव है। दूसरे शब्‍दों में, करार में ‘’पेशकश’’ और इसकी ‘’स्‍वीकृति’’ निहित होती है। व्यापारिक सन्नियम में उन अधिनियमों को सम्मिलित किया जाता है जो व्यवसाय एवं वाणिज्यिक क्रियाओं के नियमन एवं नियन्त्रण के लिए बनाये जाते हैं। व्यापारिक या व्यावसायिक सन्नियम के अन्तर्गत वे राजनियम आते हैं जो व्यापारियों, बैंकर्स तथा व्यवसायियों के साधारण व्यवहारों से सम्बन्धित हैं और जो सम्पित्त के अधिकारों एवं वाणिज्य में संलग्न व्यिक्तयों से सम्बन्ध रखते हैं। भारतीय अनुबन्ध अधिनियम, व्यावसायिक सन्नियम की एक महत्वपूर्ण शाखा है, क्योंकि अधिकांश व्यापारिक व्यवहार चाहे वे साधारण व्यक्तियों द्वारा किये जायें या व्यवसायियों द्वारा किये जायें, 'अनुबन्धों’ पर ही आधारित होते हैं। भारतीय अनुबन्ध अधिनियम 25 अप्रैल, 1872 को पारित किया गया था और 1 सितम्बर 1872 से लागू हुआ था। भारतीय अनुबन्ध अधिनियम को दो भागों में बांटा जा सकता है। इसमें प्रथम भाग में धारा 1 से 75 तक है जो अनुबन्ध के सामान्य सिद्धान्तों से सम्बिन्धत हैं और सभी प्रकार के अनुबन्धों पर लागू होती हैं। द्वितीय भाग में धारा 76 से 266 तक है जो विशिष्ट प्रकार के अनुबन्धों जैसे वस्तु विक्रय, क्षतिपूर्ति एवं गारण्टी, निक्षेप, गिरवी, एजेन्सी तथा साझेदारी से सम्बिन्धत हैं। 1930 में वस्तु विक्रय से सम्बिन्धत धाराओं को निरस्त करके पृथक से वस्तु विक्रय अधिनियम बनाया गया है। इसी प्रकार 1932 में साझेदारी अनुबन्धों से सम्बिन्धत धाराओं को इस अधिनियम में से निरस्त कर दिया गया और पृथक साझेदारी अधिनियम बनाया गया। .

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स्टाम्प शुल्क

स्टाम्प शुल्क (Stamp duty) एक प्रकार का कर है जो दस्तावेजों पर लगाया जाता है। ऐतिहासिक रूप से यह अधिकांश प्रपत्रों जैसे चेक, रसीद, भूमि पंजीकरण आदि पर लगाया जाता रहा है। यह राज्य सरकार द्वारा लगाया जाता हैं। .

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विलेख

विलेख (deed) एक लिखित कानूनी दस्तावेज है जो किसी अधिकार या सम्पत्ति के स्वामित्व आदि की घोषणा करता है। कानूनी शब्दावली विलेख को दस्तावेज (document) (या चमड़े के कागज या कागज पर अन्य पढ़े जा सकने योग्य आवेदन या शब्द) के रूप में परिभाषित करता है, जो कानूनी रूप में किसी कार्य के होने की व्यवस्था करते हैं। साधारण रूप से यह कहा जा सकता है कि विलेख दस्तावेज होते हैं, लेकिन सभी दस्तावेज विलेख नहीं होते। लेकिन भारत में विलेख और अनुबन्ध में कोई अन्तर नहीं माना जाता है। हाँ, अनुबन्ध मौखिक हो सकता है, लेकिन विलेख, जैसा कि इसके नाम से लगता है, हमेशा लिखित में ही होता है। साधारणतः इसके निम्न भाग हैं- किसी लेनदेन के कानूनी प्रभाव का निर्धारण करते समय जब अस्पष्ट शब्दों का प्रयोग किया गया है तो न्यायालय प्रायः उस निर्वचन को मानता है जो विलेख को सही मानता है, यदि पक्षों ने उसकी वैधता की कल्पना के अनुसार कार्य किया है। सम्पूर्ण विलेख को पढ़ना चाहिए और यथासम्भव उसके प्रत्येक भाग को पूरा करना चाहिए। .

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इच्छापत्र

इच्छापत्र या मृत्युपत्र (Will या testament) किसी व्यक्ति द्वारा निर्मित वह पत्रक (दस्तावेज) है जिसमें वह अपनी मृत्यु के बाद किसी एक या अनेक व्यक्तियों को अपनी सम्पत्ति का उत्तराधिकारी घोषित करता है। .

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अधिवक्ता

अधिवक्ता, अभिभाषक या वकील (ऐडवोकेट advocate) के अनेक अर्थ हैं, परंतु हिंदी में ऐसे व्यक्ति से है जिसको न्यायालय में किसी अन्य व्यक्ति की ओर से उसके हेतु या वाद का प्रतिपादन करने का अधिकार प्राप्त हो। अधिवक्ता किसी दूसरे व्यक्ति के स्थान पर (या उसके तरफ से) दलील प्रस्तुत करता है। इसका प्रयोग मुख्यत: कानून के सन्दर्भ में होता है। प्राय: अधिकांश लोगों के पास अपनी बात को प्रभावी ढ़ंग से कहने की क्षमता, ज्ञान, कौशल, या भाषा-शक्ति नहीं होती। अधिवक्ता की जरूरत इसी बात को रेखांकित करती है। अन्य बातों के अलावा अधिवक्ता का कानूनविद (lawyer) होना चाहिये। कानूनविद् उसको कहते हैं जो कानून का विशेषज्ञ हो या जिसने कानून का व्यावसायिक अध्ययन किया हो। वकील की भूमिका कानूनी न्यायालय में काफी भिन्न होती है। भारतीय न्यायप्रणाली में ऐसे व्यक्तियों की दो श्रेणियाँ हैं: (१) ऐडवोकेट तथा (२) वकील। ऐडवोकेट के नामांकन के लिए भारतीय "बार काउंसिल' अधिनियम के अंतर्गत प्रत्येक प्रादेशिक उच्च न्यायालय के अपने-अपने नियम हैं। उच्चतम न्यायालय में नामांकित ऐडवोकेट देश के किसी भी न्यायालय के समक्ष प्रतिपादन कर सकता है। वकील, उच्चतम या उच्च न्यायालय के समक्ष प्रतिपादन नहीं कर सकता। ऐडवोकेट जनरल अर्थात्‌ महाधिवक्ता शासकीय पक्ष का प्रतिपादन करने के लिए प्रमुखतम अधिकारी है। अभी महाराष्ट्र के महाधीवक्ता रोहित देव है। ● अपनी मुकद्दमे की पैरवी स्वम कर सकते है इसके लिए कुछ कुछ महत्वपूर्ण बातो को धयान में रखने की जरूरत है क्यो की वकील के पास अनेको मुकद्दमे देखने की जिम्मेदारी होती है इस कारण से जितनी बातें पीड़ित की रखनी होती है नही रख पाते इस कारण मुकद्दमा हल्का हो जाता है मुवक्किल अपना पछ रखने के लिए स्वतंत्र है वह अपनी बात अच्छे से प्रस्तुत कर सकता है क्यो की उसे न किसी वकालत नामे की जरूरत नही होती है न वकालत के डिग्री की............#लेख जारी है .

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