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मानक मॉडल से परे भौतिकी

सूची मानक मॉडल से परे भौतिकी

मानक मॉडल से परे भौतिकी (Physics beyond the Standard Model) का तात्पर्य उस भौतिकी से है जो सैद्धांतिक विकास को समझने के लिए मानक मॉडल की अपूर्णता को दूर करे, यथा उत्क्रम समस्या, डार्क मैटर, ब्रह्मांडीय नियतांक समस्या, प्रबल आवेश-समता समस्या, न्यूट्रिनो दोलन आदि। अन्य समस्या मानक मॉडल के गणितीय ढ़ाँचे के साथ है – मानक मॉडल सामान्य आपेक्षिकता के संगत नहीं है। मानक मॉडल ज्ञात दिक्-काल में विचित्रता जैसे महाविस्फोट सिद्धांत और घटना क्षितिज में ब्लैक होल को समझाने में असमर्थ है। .

13 संबंधों: एंटीमैटर, डार्क मैटर, दिक्-काल, न्यूट्रिनो, बिग बैंग सिद्धांत, ब्लैक होल (काला छिद्र), मानक प्रतिमान, सामान्य आपेक्षिकता, सैद्धान्तिक भौतिकी, हरीशचंद्र अनुसंधान संस्थान, घटना क्षितिज, कण भौतिकी, उत्क्रम समस्या

एंटीमैटर

एंटीमैटर क्लाउड कण भौतिकी में, प्रतिद्रव्य या एंटीमैटर (antimatter) वस्तुतः पदार्थ के एंटीपार्टिकल के सिद्धांत का विस्तार है। दूसरे शब्दों में, जिस प्रकार पदार्थ कणों का बना होता है उसी प्रकार प्रतिद्रव्य प्रतिकणों से मिलकर बना होता है। उदाहरण के लिये, एक एंटीइलेक्ट्रॉन (एक पॉज़ीट्रॉन, जो एक घनात्मक आवेश सहित एक इलेक्ट्रॉन होता है) एवं एक एंटीप्रोटोन (ऋणात्मक आवेश सहित एक प्रोटोन) मिल कर एक एंटीहाईड्रोजन परमाणु ठीक उसी प्रकार बना सकते हैं, जिस प्रकार एक इलेक्ट्रॉन एवं एक प्रोटोन मिल कर हाईड्रोजन परमाणु बनाते हैं। साथ ही पदार्थ एवं एंटीमैटर के संगम का परिणाम दोनों का विनाश (एनिहिलेशन) होता है, ठीक वैसे ही जैसे एंटीपार्टिकल एवं कण का संगम होता है। जिसके परिणामस्वरूप उच्च-ऊर्जा फोटोन (गामा किरण) या अन्य पार्टिकल-एंटीपार्टिकल युगल बनते हैं। वैसे विज्ञान कथाओं और साइंस फिक्शन चलचित्रों में कई बार एंटीमैटर का नाम सुना जाता रहा है। एंटीहाइड्रोजन परमाणु का त्रिआयामी चित्र एंटीमैटर केवल एक काल्पनिक तत्व नहीं, बल्कि असली तत्व होता है। इसकी खोज बीसवीं शताब्दी के पूर्वाद्ध में हुई थी। तब से यह आज तक वैज्ञानिकों के लिए कौतूहल का विषय बना हुआ है। जिस तरह सभी भौतिक वस्तुएं मैटर यानी पदार्थ से बनती हैं और स्वयं मैटर में प्रोटोन, इलेक्ट्रॉन और न्यूट्रॉन होते हैं, उसी तरह एंटीमैटर में एंटीप्रोटोन, पोसिट्रॉन्स और एंटीन्यूट्रॉन होते हैं।। नवभारत टाइम्स। १२ नवम्बर २००८। हिन्दुस्तान लाइव। ५ मार्च २०१० एंटीमैटर इन सभी सूक्ष्म तत्वों को दिया गया एक नाम है। सभी पार्टिकल और एंटीपार्टिकल्स का आकार एक समान किन्तु आवेश भिन्न होते हैं, जैसे कि एक इलैक्ट्रॉन ऋणावेशी होता है जबकि पॉजिट्रॉन घनावेशी चार्ज होता है। जब मैटर और एंटीमैटर एक दूसरे के संपर्क में आते हैं तो दोनों नष्ट हो जाते हैं। ब्रह्मांड की उत्पत्ति का सिद्धांत महाविस्फोट (बिग बैंग) ऐसी ही टकराहट का परिणाम था। हालांकि, आज आसपास के ब्रह्मांड में ये नहीं मिलते हैं लेकिन वैज्ञानिकों के अनुसार ब्रह्मांड के आरंभ के लिए उत्तरदायी बिग बैंग के एकदम बाद हर जगह मैटर और एंटीमैटर बिखरा हुआ था। विरोधी कण आपस में टकराए और भारी मात्रा में ऊर्जा गामा किरणों के रूप में निकली। इस टक्कर में अधिकांश पदार्थ नष्ट हो गया और बहुत थोड़ी मात्रा में मैटर ही बचा है निकटवर्ती ब्रह्मांड में। इस क्षेत्र में ५० करोड़ प्रकाश वर्ष दूर तक स्थित तारे और आकाशगंगा शामिल हैं। वैज्ञानिकों के अनुमान के अनुसार सुदूर ब्रह्मांड में एंटीमैटर मिलने की संभावना है। अंतरराष्ट्रीय स्तर के खगोलशास्त्रियों के एक समूह ने यूरोपीय अंतरिक्ष एजेंसी (ईएसए) के गामा-किरण वेधशाला से मिले चार साल के आंकड़ों के अध्ययन के बाद बताया है कि आकाश गंगा के मध्य में दिखने वाले बादल असल में गामा किरणें हैं, जो एंटीमैटर के पोजिट्रान और इलेक्ट्रान से टकराने पर निकलती हैं। पोजिट्रान और इलेक्ट्रान के बीच टक्कर से लगभग ५११ हजार इलेक्ट्रान वोल्ट ऊर्जा उत्सर्जित होती है। इन रहस्यमयी बादलों की आकृति आकाशगंगा के केंद्र से परे, पूरी तरह गोल नहीं है। इसके गोलाई वाले मध्य क्षेत्र का दूसरा सिरा अनियमित आकृति के साथ करीब दोगुना विस्तार लिए हुए हैं।। याहू जागरण। १४ जनवरी २००९ एंटीमैटर की खोज में रत वैज्ञानिकों का मानना है कि ब्लैक होल द्वारा तारों को दो हिस्सों में चीरने की घटना में एंटीमैटर अवश्य उत्पन्न होता होगा। इसके अलावा वे लार्ज हैडरन कोलाइडर जैसे उच्च-ऊर्जा कण-त्वरकों द्वारा एंटी पार्टिकल उत्पन्न करने का प्रयास भी कर रहे हैं। पार्टिकल एवं एंटीपार्टिकल पृथ्वी पर एंटीमैटर की आवश्यकता नहीं होती, लेकिन वैज्ञानिकों ने प्रयोगशालाओं में बहुत थोड़ी मात्रा में एंटीमैटर का निर्माण किया है। प्राकृतिक रूप में एंटीमैटर पृथ्वी पर अंतरिक्ष तरंगों के पृथ्वी के वातावरण में आ जाने पर अस्तित्व में आता है या फिर रेडियोधर्मी पदार्थ के ब्रेकडाउन से अस्तित्व में आता है। शीघ्र नष्ट हो जाने के कारण यह पृथ्वी पर अस्तित्व में नहीं आता, लेकिन बाह्य अंतरिक्ष में यह बड़ी मात्र में उपलब्ध है जिसे अत्याधुनिक यंत्रों की सहायता से देखा जा सकता है। एंटीमैटर नवीकृत ईंधन के रूप में बहुत उपयोगी होता है। लेकिन इसे बनाने की प्रक्रिया फिल्हाल इसके ईंधन के तौर पर अंतत: होने वाले प्रयोग से कहीं अधिक महंगी पड़ती है। इसके अलावा आयुर्विज्ञान में भी यह कैंसर का पेट स्कैन (पोजिस्ट्रान एमिशन टोमोग्राफी) के द्वारा पता लगाने में भी इसका प्रयोग होता है। साथ ही कई रेडिएशन तकनीकों में भी इसका प्रयोग प्रयोग होता है। नासा के मुताबिक, एंटीमैटर धरती का सबसे महंगा मैटेरियल है। 1 मिलिग्राम एंटीमैटर बनाने में 250 लाख डॉलर रुपये तक लग जाते हैं। एंटीमैटर का इस्तेमाल अंतरिक्ष में दूसरे ग्रहों पर जाने वाले विमानों में ईधन की तरह किया जा सकता है। 1 ग्राम एंटीमैटर की कीमत 312500 अरब रुपये (3125 खरब रुपये) है। .

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डार्क मैटर

खगोलशास्त्र तथा ब्रह्माण्ड विज्ञान में आन्ध्र पदार्थ या डार्क मैटर (dark matter) एक,प्रायोगिक आधार पर अप्रमाणित परंतु गणितीय आधार पर प्रमाणित, पदार्थ है। इसकी विशेषता है कि अन्य पदार्थ अपने द्वारा उत्सर्जित विकिरण से पहचाने जा सकते हैं किन्तु आन्ध्र पदार्थ अपने द्वारा उत्सर्जित विकिरण से पहचाने नहीं जा सकते। इनके अस्तित्व (presence) का अनुमान दृष्यमान पदार्थों पर इनके द्वारा आरोपित गुरुत्वीय प्रभावों से किया जाता है। आन्ध्र पदार्थ के बारे में माना जाता है कि इस ब्रह्मांड का 85 प्रतिशत आन्ध्र पदार्थ का ही बना है और यूरोप के वैज्ञानिकों का अनुमान है कि उन्होंने आन्ध्र पदार्थ खोज निकाला है। वैज्ञानिकों का मानना है कि आन्ध्र पदार्थ न्यूट्रालिनॉस नाम के कणों या पार्टिकल से बना है। इसकी खासियत है कि यह साधारण मैटर से कोई क्रिया नहीं करता। हर सेकंड हमारे शरीर के आर-पार हजारों न्यूट्रालिनॉस गुजरते रहते हैं। वे अदृश्य हैं। इसी वजह से हम अंतरिक्ष में मौजूद आन्ध्र पदार्थ के बादल के दूसरी ओर मौजूद आकाशगंगाओं को देख पाते हैं। पामेला नाम के एक यूरोपियन स्पेस प्रोब ने कुछ ऐसे हाई एनर्जी पार्टिकल खोजे हैं, जो हमारी आकाशगंगा के केंद्र से निकले हैं। उनसे निकलने वाला रेडिएशन ठीक उसी तरह का है, जैसा आन्ध्र पदार्थ के लिए तय किया गया था। इस खोज के डिटेल स्वीडन के स्टॉकहोम में आयोजित एक कॉन्फरन्स में रखे गए। गौरतलब है कि, यूरोप में शुरू हुई महामशीन या लार्ज हैड्रॉन कोलाइडर के ढेरों मकसदों में से एक आन्ध्र पदार्थ की खोज करना भी है। .

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दिक्-काल

दिक्-काल या स्पेस-टाइम (spacetime) की संकल्पना, अल्बर्ट आइंस्टीन द्वारा उनके सापेक्षता के सिद्धांत में दी गई थी| उनके अनुसार तीन दिशाओं की तरह, समय भी एक आयाम है और भौतिकी में इन्हें एक साथ चार आयामों के रूप में देखना चाहिए। उन्होंने कहा कि वास्तव में ब्रह्माण्ड की सभी चीज़ें इस चार-आयामी दिक्-काल में रहती हैं। उन्होंने यह भी कहा कि कभी-कभी ऐसी परिस्थितियाँ बन जाती हैं जब भिन्न वस्तुओं को इन सभी-आयामों का अनुभव अलग-अलग प्रतीत हो। दिक् (space) और काल (time) का संबध हमारे नित्य व्यवहार में इतना अधिक आता है कि इनके विषय में कुछ अधूरी सी किंतु दृढ़ धारणाएँ हमारे मन में बचपन से ही होना स्वाभाविक है। कवियों ने दिक्‌ और काल की गंभीर, विशाल तथा सुंदर कल्पनाओं का वर्णन किया है। दर्शन में और पाश्चात्य मनोविज्ञान में भी इनके विषय में पुरातन काल से सोच विचार होता आ रहा है। कणाद (३०० ई. पू.) के वैशेषिक दर्शन में आकाश, दिक्‌ और काल की धारणाएँ सुस्पष्ट दी गई हैं और इनके गुणों का भी वर्णन किया गया है। इंद्रियजन्य अनुभवों से जो ज्ञान मिलता है उसमें दिक्‌ और काल का संबंध अवश्य ही होता है। इस ज्ञान की यदि वास्तविकता समझा जाए तो दिक्‌ और काल वस्तविकता से अलग नहीं हो सकते। प्रत्येक दार्शनिक संप्रदाय ने वस्तविकता, दिक्‌ और काल, इनके परस्पर संबंधों की अपनी अपनी धारणाएँ दी हैं, जिनमें ऐकमत्य नहीं है। गणित में भी दिक्‌ और काल का अप्रत्यक्ष रीति से संबंध आता है। अत: प्रतिष्ठित भौतिकी (क्लासिकल फिजिक्स) का विकास इन्हीं धारणाओं पर निर्भर रहा। भौतिकी के कुछ प्रायोगिक फल जब इन धारणाओं से विसंगत दिखाई देने लगे, तब ये धारणाएँ विचलित होने लगीं एवं आपेक्षितावाद ने दिक्‌ और काल का नया स्वरूप स्थापित किया, जो अनेक प्रयोगों द्वारा प्रमाणित और फलत: अब सर्वसम्मत हो चुका है। दिक्‌ तथा काल का यह नया स्वरूप केवल भिन्न ही नहीं वरन्‌ (हमारी इनके विषय की व्यावहारिक कल्पनाओं के कारण) समझने में भी अत्यंत कठिन है, क्योंकि इसके प्रतिपादन में विशिष्ट गणित का उपयोग आवश्यक होता है। अत: जहाँ-जहाँ दिक्‌ तथा काल संबंध आता है उसका स्पष्टीकरण पहले स्थूल दृष्टि से, तत्पश्चात्‌ सूक्ष्म दृष्टि से और अंत में भौतिकी की दृष्टि से करना अधिक सरल होगा। इंद्रियजन्य अनुभवों से जो दिक्‌ के गुणों का प्रत्यय आता है, उससे दिक्‌ के विभिन्न प्रकार माने जा सकते हैं। अनुभवों के बुद्धि पर जो परिणाम होते हैं उनका पृथक्करण करके धारणाएँ बनती हैं। इस प्रकार स्वानुभव से दिक्‌ की जो धारणा बनती है उसे "स्व-दिक्‌' अथवा "व्यक्तिगत दिक्‌' कहा जाता है। इंद्रियजन्य अनुभवों में अनेक अनुभव समस्त व्यक्तियों के लिए समान होते हैं और ऐसे अनुभव जिस घटना से मिलते हैं, उसे "वास्तव' कहा जाता है। वास्तव घटनाओं के समुदायों से "वास्तविकता' की धारणा बनती है। इंद्रियों से दृष्टि, स्पर्श, ध्वनि, रस और गंध के अनुभव मिलते हैं, किंतु ये अनुभव सर्वदा विश्वास के योग्य होते हैं, ऐसा नहीं है। प्रकाशकीय संभ्रम तो सुप्रसिद्ध हैं ही। स्पर्श के भी संभ्रम व्यवहार में नित्य प्रतीत होते हैं, जैसे दो दाँतों के बीच की खोह जीभ को जितनी लगती है उससे कम छोटी उँगली को लगती है। प्राय: ऐसा ही प्रकार सब तरह के इंद्रियजन्य अनुभवों का होता है। अत: इन अपूर्ण अनुभवों से व्यक्तिगत दिक्‌ की जो धारणा बनती है वह भ्रममूलक ही होती है। मापनदंड तथा अन्य उचित यंत्रों की सहायता से इंद्रियों की मर्यादित ग्राहकता बढ़ाई जा सकती है और इस प्रकार अनेक घटनाओं का भ्रमनिरसन हो सकता है। प्रयोगों में मापन करके दिक्‌ की जो धारणा होती है उसे "भौतिक दिक्‌ कहा जाता है। मापन के लिए मापनदंड का उपयोग किया जाता है। अनुभवों में दिक्‌ का संबंध चार प्रकार से आता है और इन चारों प्रकारों पर विचार करके दिक्‌ के गुणों की व्यावहारिक कल्पनाएँ बनती हैं। किसी वस्तु के स्थल का निर्देश जब वहाँ कहकर किया जाता है, तब दिक्‌ के एक स्वरूप की कल्पना आती है और इसका अर्थ यह भी माना जाता है कि दिक्‌ का अस्तित्व (अनुभवों से) स्वतंत्र है। किसी वस्तु के स्थल का निर्देश अन्य वस्तु के "सापेक्ष' करने पर दिक्‌ की "सापेक्ष स्थिति' में दूसरा स्वरूप दिखई देता है। दिक्‌ का तीसरा स्वरूप वस्तुओं के "आकार' से मिलता है, जिससे दिक्‌ की विभाज्यता की भी कल्पना की जा सकती है। आकाश की ओर देखने से दिक्‌ की "विशालता' (अथवा अनंतता) का चौथा स्वरूप दिखाई देता है। इन चार प्रकार के स्वरूपों से ही प्राय: दिक्‌ के संबध में व्यावहारिक धारणाएँ बनती हैं और दिक्‌ के गुण भी सूचित होते हैं। घटनाओं से प्राप्त इंद्रियजन्य अनुभवों का विचर किया जाए तो उनके दो प्रकार होते हैं। घटनाओं के स्थानभेद से दिक्‌ की कल्पना होती है और उनके क्रम-भेद से काल की कल्पना होती है। इस प्रकार दिक्‌ और काल हमारी विचारधारा में संदिग्ध रूप से प्रवेश करते हैं। दिक्‌ जैसा ही काल भी व्यक्तिगत (अथवा स्व-काल) होता है और प्रत्येक व्यक्ति की कालगणना स्वतंत्र तथा स्वेच्छ होती है। इतना ही नहीं, इस स्व-काल की गणना में भी परिवर्तन होता है और वह व्यक्ति के स्वास्थ्य, अवस्था इत्यादि स्थितियों पर निर्भर करता है, जैसे, किसी कार्य में मनुष्य मग्न हो तो काल तेजी से कटता है। अत: व्यक्तिगत अथवा स्व-काल विश्वास योग्य नहीं रहता। किसी प्राकृतिक घटना से - दिन और रात से - जो काल का मापन होगा वह व्यक्तिगत नहीं रहेगा और सब लोगों के लिए समान होगा। अत: ऐसे काल को सार्वजनिक काल कहा जाता है। दिन और रात काल के स्थूल विभाग हैं। इनके छोटे विभाग किए जाएँ तो व्यवहार में कालमापन के लिए वे अधिक उपयुक्त होते हैं। इसलिए प्रहर, घटिका, पल विपल अथवा घंटा, मिनट, सेकंड इत्यादि विभाग किए गए। सामान्यत: काल का मापन घड़ी से होता है। दिक्‌ की भाँति काल के भी चार स्वरूप व्यवहार में दिखाई देते हैं। किसी घटना अथवा अनुभव से "कब?' प्रश्न उपस्थित होता है और इसका दिक्‌ विषयक "कहाँ' से साम्य है। इस कल्पना से काल का अस्तित्व (अनुभवों से) स्वतंत्र समझा जाता है। किसी घटना के काल के सापेक्ष दूसरी घटना का वर्णन करते समय काल का सापेक्ष स्वरूप दिखाई देता है। दो घटनाओं के बीच के काल से काल का जो स्वरूप दिखाई देता है वह दिक्‌ के आकार से समान है। वैसे ही काल के अनादि, अनंत इत्यादि विशेषणों से काल की विशालता दिखाई दती है। दिक्‌ तथा काल के चारों स्वरूपों को, या गुणों को कहिए, मिलाकर विचार करने पर इनके विषय में हमारी जो धारणाएँ बनती हैं उनको "स्व' या "व्यक्तिगत' अथवा "मनोवैज्ञानिक' दिक्‌ और काल कहा जाता है। दिक्‌ तथा काल की धारणाओं को निश्चित रूप देने के लिए उनका मापन करने के साधन आवश्यक होते हैं। दिक्‌ के मापन के लिए दृढ़ पदार्थों के दंड, औजार तथा यंत्र उपयोग में लाए जाते हैं। इन उपकरणों से लंबाई, कोण, क्षेत्रफल, आयतन इत्यादि वस्तुओं के गुणों के मापन होते है। इन मापनों के समय बिंदु, रेखा, समतल इत्यादि की धारणाएँ बनती जाती हैं। जब अनेक पुनरावृत्तियों से ये धारणाएँ दृढ़ हो जाती हैं, तब बिंदु, रेखा, समतल इत्यादि का स्थान मौलिक होता है और भौतिक वस्तुएँ इन धारणाओं से दूर हो जाती हैं। अब इन धारणाओं की और यूक्लिडीय ज्यामिति की मौलिक धारणाओं की समानता स्पष्ट होगी। दृढ़ वस्तुओं को समाविष्ट करके दिक्‌ के, अथवा वस्तुओं के, मापन से दिक्‌ की जो धारणा होती है उसे ज्यामितीय अथवा यूक्लिडीय दिक्‌ कहा जाता है। यह स्पष्ट है कि दिक्‌ की इस धारणा से उसके जो गुण समझे जाते हैं वे केवल यूक्लिडीय ज्यामिति की परिभाषाओं, स्वयंसिद्ध और कल्पनाओं के ऊपर ही निर्भर होते हैं। दिक्‌ की हमारी व्यावहारिक धारणा और मापन से निश्चित की हुई यह ज्यामितीय धारणा, क्रमश: हमारी स्थूल दृष्टि और सूक्ष्म दृष्टि के स्वरूप हैं। यूक्लिडीय ज्यामिति पर निर्धारित दिक्‌ की यह धारणा यद्यपि स्वाभाविक दिखाई देती होगी, तथापि इसका विश्लेषण करने की आवश्यता है। यूक्लिडीय ज्यामिति में कुछ परिभाषाएँ (जैसे बिंदु, रेखा, तल इत्यादि) तथा कुछ स्वयंसिद्ध तथ्य दिए हुए हैं और इनका तार्किक दृष्टि से विकास किया गया है। ये धारणाएँ केवल काल्पनिक और स्वतंत्र हैं। थोड़ा ही विचार करने पर यह स्पष्ट होगा कि यूक्लिडीय ज्यामिति का व्यवहार की वस्तुओं से कोई भी वास्तविक संबंध नहीं है। अपनी मूल कल्पनाओं को विकसित करते समय उनका परस्पर तर्कसंगत संबंध रखना और एक "काल्पनिक' गणित शास्त्र का निर्मांण करना, इतना ही इस ज्यामिति का मूल उद्देश्य था। इस उद्देश्य में यह ज्यामिति अत्यंत ही सफल रही। इस ज्यामिति का और भी विस्तार करके उसे "व्यावहारिक' बनाने के लिए "आदर्श दृढ़ वस्तु' की परिभाषा यह है कि इसके दो बिंदुओं का अंतर किसी भी परिस्थिति में उतना ही रहता है। मापन दंड अथवा अन्य औजारों का उपयोग इसी विशेषता पर निर्भर करता है। वस्तुत: इस प्रकार "आदर्श दृढ़ वस्तु' को समाविष्ट करने पर यूक्लिडीय ज्यामिति का स्वरूप बदल जाता है और उसको अब हम भौतिकी का एक विभाग समझ सकते हैं। किंतु व्यवहार में यूक्लिडीय ज्यामिति का यह परिवर्तन इस दृष्टि से नहीं देखा जाता। मापन करने पर व्यावहारिक वस्तुओं के मापन के लिए यूक्लिडीय ज्यामिति के सिद्धांत यथार्थ दिखाई देते हैं। इसलिए यूक्लिडीय ज्यामिति को "वास्तविक' समझा जाने लगा। व्यावहारिक अनुभव और यूक्लिडीय ज्यामिति का दृष्टि से न्यूटन ने अपनी दिक्‌ और काल की धारणाएँ निश्चित रूप से प्रस्तुत की और प्रतिष्ठित भौतिकी का विकास प्राय: वर्तमान शताब्दी के प्रारंभ तक इन्हीं धारणाओं पर निर्भर रहा। न्यूटन ने दिक्‌ को स्वतंत्र सत्ता समझकर उसके गुण भी दिए। न्यूटन के अनुसार दिक्‌ के गुण सर्व दिशाओं में तथा सर्व बिंदुओं पर समान ही होते हैं, अर्थात्‌ दिक्‌ समदिक्‌, समांग तथा एक समान है। अत: पदार्थों के गुण दिक्‌ में सभी स्थानों पर समान ही होते हैं। दिक्‌ अनंत है और न्यूटन के दिक्‌ में लंबाई, काल तथा गति से अबाधित रहती है। काल के विषय में भी न्यूटन ने अपनी धारणा दी है और यह धारणा भी उस समय के भौतिकी के विकास के अनुसार ही थी। न्यूटन के अनुसार काल भी एक स्वतंत्र सत्ता है। काल का विशेष गुण यह है कि वह समान गति से सतत और सर्वत्र "बहता' है और किसी भी परिस्थिति का उसके ऊपर कोई भी परिणाम नहीं होता। काल भी अनंत है। सारांश में, न्यूटन के अनुसार दिक्‌ तथा काल दोनों ही स्वतंत्र और निरपेक्ष सत्ताएँ होती हैं। न्यूटन आदि की यांत्रिकी इन्हीं धारणाओं पर निर्भर थी। यांत्रिकी में गति और त्वरण, इन दोनों के लिए दिक्‌ और काल को निश्चित रूप देना आवश्यक था और उस समय तो इन धारणाओं में कोई भी त्रुटि दिखाई नहीं देती थी। वैसे ही भौतिकी में न्यूटन का इतना प्रभाव था कि इन धारणाओं पर शंका प्रदर्शित करना संभव नहीं था। बोल्याई, लोबातचेवस्की, रीमान इत्यादि गणितज्ञों ने यह सिद्ध किया कि यूक्लिडीय ज्यामिति के कुछ स्वयंतथ्यों में उचित परिवर्तन करने पर अयूक्लिडीय ज्यामितियों का निर्माण हो सकता है। यद्यपि अयूक्लिडीय ज्यामितियों के अनेक सिद्धांत यूक्लिडीय ज्यामिति के सिद्धांतों से भिन्न होते हैं, तथापि वे अयोग्य नहीं होते हैं। विशेषत: रीमान के अयूक्लिडीय ज्यामिति से यह स्पष्ट हुआ कि यूक्लिडीय ज्यामिति ही केवल मौलिक नहीं है। यद्यपि अयूक्लिडीय ज्यामितियाँ कल्पना करने में कठिन होती हैं, तथापि तर्कसम्मत होने से उनके फल अत्यंत रोचक तथा उपयुक्त होते हैं। इनमें तीन से अधिक विमितियों के दिक्‌ की (जिसे हम "अति दिक्‌' कह सकते हैं) जो कल्पना होती है, उस दिक्‌ की वक्रता की कल्पना विशेष रूप से उपयुक्त हुई। .

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न्यूट्रिनो

न्यूट्रिनो (Neutrino) यह एक नया कण (Particle) है जिसका सर्वप्रथम आविष्कार सन्‌ १९३० में पौली ने किया था। इस कण का प्रथम सैद्धांतिक आधार प्रसिद्ध भौतिकीविद फर्मी ने सन्‌ १९३४ में बतलाया। .

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बिग बैंग सिद्धांत

महाविस्फोट प्रतिरूप के अनुसार, यह ब्रह्मांड अति सघन और ऊष्म अवस्था से विस्तृत हुआ है और अब तक इसका विस्तार चालू है। एक सामान्य धारणा के अनुसार अंतरिक्ष स्वयं भी अपनी आकाशगंगाओं सहित विस्तृत होता जा रहा है। ऊपर दर्शित चित्र ब्रह्माण्ड के एक सपाट भाग के विस्तार का कलात्मक दृश्य है। ब्रह्मांड का जन्म एक महाविस्फोट के परिणामस्वरूप हुआ। इसी को महाविस्फोट सिद्धान्त या बिग बैंग सिद्धान्त कहते हैं।।अमर उजाला।। श्य़ामरत्न पाठक, तारा भौतिकविद, जिसके अनुसार से लगभग बारह से चौदह अरब वर्ष पूर्व संपूर्ण ब्रह्मांड एक परमाण्विक इकाई के रूप में था।।बीबीसी हिन्दी।। बीबीसी संवाददाता, लंदन:ममता गुप्ता और महबूब ख़ान उस समय मानवीय समय और स्थान जैसी कोई अवधारणा अस्तित्व में नहीं थी।।हिन्दुस्तान लाइव।।२७ अक्टूबर, २००९ महाविस्फोट सिद्धांत के अनुसार लगभग १३.७ अरब वर्ष पूर्व इस धमाके में अत्यधिक ऊर्जा का उत्सजर्न हुआ। यह ऊर्जा इतनी अधिक थी जिसके प्रभाव से आज तक ब्रह्मांड फैलता ही जा रहा है। सारी भौतिक मान्यताएं इस एक ही घटना से परिभाषित होती हैं जिसे महाविस्फोट सिद्धांत कहा जाता है। महाविस्फोट नामक इस महाविस्फोट के धमाके के मात्र १.४३ सेकेंड अंतराल के बाद समय, अंतरिक्ष की वर्तमान मान्यताएं अस्तित्व में आ चुकी थीं। भौतिकी के नियम लागू होने लग गये थे। १.३४वें सेकेंड में ब्रह्मांड १०३० गुणा फैल चुका था और क्वार्क, लैप्टान और फोटोन का गर्म द्रव्य बन चुका था। १.४ सेकेंड पर क्वार्क मिलकर प्रोटॉन और न्यूट्रॉन बनाने लगे और ब्रह्मांड अब कुछ ठंडा हो चुका था। हाइड्रोजन, हीलियम आदि के अस्तित्त्व का आरंभ होने लगा था और अन्य भौतिक तत्व बनने लगे थे। महाविस्फोट सिद्धान्त के आरंभ का इतिहास आधुनिक भौतिकी में जॉर्ज लिमेत्री ने लिखा हुआ है। लिमेत्री एक रोमन कैथोलिक पादरी थे और साथ ही वैज्ञानिक भी। उनका यह सिद्धान्त अल्बर्ट आइंसटीन के प्रसिद्ध सामान्य सापेक्षवाद के सिद्धांत पर आधारित था। महाविस्फोट सिद्धांत दो मुख्य धारणाओं पर आधारित होता है। पहला भौतिक नियम और दूसरा ब्रह्माण्डीय सिद्धांत। ब्रह्माण्डीय सिद्वांत के मुताबिक ब्रह्मांड सजातीय और समदैशिक (आइसोट्रॉपिक) होता है। १९६४ में ब्रिटिश वैज्ञानिक पीटर हिग्गस ने महाविस्फोट के बाद एक सेकेंड के अरबें भाग में ब्रह्मांड के द्रव्यों को मिलने वाले भार का सिद्धांत प्रतिपादित किया था, जो भारतीय वैज्ञानिक सत्येन्द्र नाथ बोस के बोसोन सिद्धांत पर ही आधारित था। इसे बाद में 'हिग्गस-बोसोन' के नाम से जाना गया। इस सिद्धांत ने जहां ब्रह्मांड की उत्पत्ति के रहस्यों पर से पर्दा उठाया, वहीं उसके स्वरूप को परिभाषित करने में भी मदद की।। दैट्स हिन्दी॥।१० सितंबर, २००८। इंडो-एशियन न्यूज सर्विस। .

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ब्लैक होल (काला छिद्र)

बड़े मैग्लेनिक बादल के सामने में एक ब्लैक होल का बनावटी दृश्य। ब्लैक होल स्च्वार्ज़स्चिल्ड त्रिज्या और प्रेक्षक दूरी के बीच का अनुपात 1:9 है। आइंस्टाइन छल्ला नामक गुरुत्वीय लेंसिंग प्रभाव उल्लेखनीय है, जो बादल के दो चमकीले और बड़े परंतु अति विकृत प्रतिबिंबों का निर्माण करता है, अपने कोणीय आकार की तुलना में. सामान्य सापेक्षता (जॅनॅरल रॅलॅटिविटि) में, एक ब्लैक होल ऐसी खगोलीय वस्तु होती है जिसका गुरुत्वाकर्षण क्षेत्र इतना शक्तिशाली होता है कि प्रकाश सहित कुछ भी इसके खिंचाव से बच नहीं सकता है। ब्लैक होल के चारों ओर एक सीमा होती है जिसे घटना क्षितिज कहा जाता है, जिसमें वस्तुएं गिर तो सकती हैं परन्तु बाहर कुछ भी नहीं आ सकता। इसे "ब्लैक (काला)" इसलिए कहा जाता है क्योंकि यह अपने ऊपर पड़ने वाले सारे प्रकाश को अवशोषित कर लेता है और कुछ भी परावर्तित नहीं करता, थर्मोडाइनामिक्स (ऊष्मप्रवैगिकी) में ठीक एक आदर्श ब्लैक-बॉडी की तरह। ब्लैक होल का क्वांटम विश्लेषण यह दर्शाता है कि उनमें तापमान और हॉकिंग विकिरण होता है। अपने अदृश्य भीतरी भाग के बावजूद, एक ब्लैक होल अन्य पदार्थों के साथ अन्तः-क्रिया के माध्यम से अपनी उपस्थिति प्रकट कर सकता है। एक ब्लैक होल का पता तारों के उस समूह की गति पर नजर रख कर लगाया जा सकता है जो अन्तरिक्ष के खाली दिखाई देने वाले एक हिस्से का चक्कर लगाते हैं। वैकल्पिक रूप से, एक साथी तारे से आप एक अपेक्षाकृत छोटे ब्लैक होल में गैस को गिरते हुए देख सकते हैं। यह गैस सर्पिल आकार में अन्दर की तरफ आती है, बहुत उच्च तापमान तक गर्म हो कर बड़ी मात्रा में विकिरण छोड़ती है जिसका पता पृथ्वी पर स्थित या पृथ्वी की कक्षा में घूमती दूरबीनों से लगाया जा सकता है। इस तरह के अवलोकनों के परिणाम स्वरूप यह वैज्ञानिक सर्व-सम्मति उभर कर सामने आई है कि, यदि प्रकृति की हमारी समझ पूर्णतया गलत साबित न हो जाये तो, हमारे ब्रह्मांड में ब्लैक होल का अस्तित्व मौजूद है। सैद्धांतिक रूप से, कोई भी मात्रा में तत्त्व (matter) एक ब्लैक होल बन सकता है यदि वह इतनी जगह के भीतर संकुचित हो जाय जिसकी त्रिज्या अपनी समतुल्य स्च्वार्ज्स्चिल्ड त्रिज्या के बराबर हो। इसके अनुसार हमारे सूर्य का द्रव्यमान ३ कि.

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मानक प्रतिमान

मूलभूत कणों का, आमान बोसॉनों (सबसे दायां स्तम्भ) के साथ मानक प्रतिमान। मानक प्रतिमान या मानक मॉडल, भौतिकशास्त्र का एक सिद्धान्त है जिसका संबंध विद्युत्-चुम्बकीय, दुर्बल तथा प्रबल नाभिकीय अन्तःक्रियाओं से है। ये ऐसी अन्तःक्रियाएँ हैं, जो कि ज्ञात उपपारमाण्विक कणों की गतिकी की व्याख्या करती हैं। इसका विकास बीसवीं सदी के मध्य से लेकर देर-सदी तक हुआ। ये कई हाथों से बुना हुआ एक पट है, जो कि कभी तो नई प्रायोगिक खोजों से आगे बढ़ा तो कभी सैद्धान्तिक प्रगतियों से। इसका विकास सही अर्थों में सहकार के साथ हुआ है, जो महाद्वीपों और दशकों में विस्तृत है। इसका आज का प्रारूप 1970 के दशक के मध्य में बना, जबकि क्वार्क का अस्तित्व सुनिश्चित किया गया। उसके बाद तो तल क्वार्क (1977), शीर्ष क्वार्क (1995) और टॉ क्वार्क (2000) की खोज ने मानक प्रतिमान की साख और बढ़ा दी। अधिक हाल की घटना के रूप में 2011-2012 में हिग्स बोसॉन की खोज ने इसके सारे अनुमानित कणों का समुच्चय पूरा कर दिया है। प्रायोगिक परिणामों की दीर्घ शृंख्ला की सफलतापूर्वक व्याख्या कररने के कारण मानक प्रतिमान को कभी कभी "लगभग सबकुछ का सिद्धान्त" भी कहा जाता है। मानक प्रतिमान मौलिक अन्तःक्रियाओं का सम्पूर्ण सिद्धान्त होते होते रह जाता है, क्योंकि इसमें से गुरुत्वाकर्षण का समूचा सिद्धान्त ही गायब है, साथ ही यह विश्व के त्वरित विस्तार की भविष्यवाणी भी नहीं करता है (जैसा कि अन्धकार-ऊर्जा द्वारा वर्णित है)। .

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सामान्य आपेक्षिकता

सामान्य आपेक्षिकता सिद्धांत या सामान्य सापेक्षता सिद्धांत, जिसे अंग्रेजी में "जॅनॅरल थिओरी ऑफ़ रॅलॅटिविटि" कहते हैं, एक वैज्ञानिक सिद्धांत है जो कहता है कि ब्रह्माण्ड में किसी भी वस्तु की तरफ़ जो गुरुत्वाकर्षण का खिंचाव देखा जाता है उसका असली कारण है कि हर वस्तु अपने मान और आकार के अनुसार अपने इर्द-गिर्द के दिक्-काल (स्पेस-टाइम) में मरोड़ पैदा कर देती है। बरसों के अध्ययन के बाद जब १९१६ में अल्बर्ट आइंस्टीन ने इस सिद्धांत की घोषणा की तो विज्ञान की दुनिया में तहलका मच गया और ढाई-सौ साल से क़ायम आइज़क न्यूटन द्वारा १६८७ में घोषित ब्रह्माण्ड का नज़रिया हमेशा के लिए उलट दिया गया। भौतिक शास्त्र पर इसका इतना गहरा प्रभाव पड़ा कि लोग आधुनिक भौतिकी (माडर्न फ़िज़िक्स) को शास्त्रीय भौतिकी (क्लासिकल फ़िज़िक्स) से अलग विषय बताने लगे और अल्बर्ट आइंस्टीन को आधुनिक भौतिकी का पिता माना जाने लगा। .

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सैद्धान्तिक भौतिकी

सैद्धान्तिक भौतिकी भौतिकशास्त्र की उस शाखा को कहते हैं जिसमें किसी प्राकृतिक परिघटना को युक्तिसंगत करने, समझाने और प्रागुक्त करने के लिए भौतिक वस्तुओं और निकायों के सारग्रहण और गणितीय मॉडल को काम में लिया जाता है। .

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हरीशचंद्र अनुसंधान संस्थान

हरीशचंद्र अनुसंधान संस्थान (अंग्रेज़ी: हरीशचंद्र रिसर्च इंस्टीट्यूट) भारत के उत्तर प्रदेश राज्य में इलाहाबाद में स्थित एक अनुसंधान संस्थान है। इसका नाम प्रसिद्ध भारतीय गणितज्ञ हरीशचन्द्र के नाम पर रखा गया है। यह एक स्वायत्त संस्थान है, जिसका वित्तपोषण परमाणु ऊर्जा विभाग, भारत सरका द्वारा किया जाता है। यहां विभिन्न संकायों के ३० के लगभग सदस्य हैं। इस संस्थान में गणित एवं सैद्धांतिक भौतिकी पर अनुसंधान के विशेष प्रबंध हैं। इसकी स्थापना १९६६ में बी.एस.

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घटना क्षितिज

'''पहली स्थिति''': काले छिद्र के घटना चक्र से दूर दिक्-काल सामान्य है और कोई वस्तु किसी भी दिशा में जा सकती है '''दूसरी स्थिति''': घटना चक्र के पास गुरुत्वाकर्षण भयंकर है और सामान्य सापेक्षता के सिद्धांत का पालन करते हुए दिक्-काल में मरोड़े पैदा हो चुकी हैं - अब अधिकतर दिशाएँ वस्तु को घटना चक्र की और खींच रहीं हैं '''तीसरी स्थिति''': वस्तु घटना चक्र के अन्दर है जहाँ दिक्-काल इतनी ज़बरदस्त तरीक़े से मुड़ी हुई है के सारी दिशाएँ केवल काले छिद्र के केंद्र की तरफ़ जाती हैं - वापसी असंभव है - घटना चक्र से बाहर बैठा कोई भी इस वस्तु को नहीं देख सकता और घटना चक्र के अन्दर पैदा हुआ कोई भी प्रकाश घटना चक्र को पार कर के बहार नहीं जा सकता भौतिकी के सामान्य सापेक्षता सिद्धांत में, घटना क्षितिज दिक्-काल में एक ऐसी सीमा होती है जिसके पार होने वाली घटनाएँ उसकी सीमा के बाहर के ब्रह्माण्ड पर कोई असर नहीं कर सकती और न ही उसकी सीमा के बाहर बैठे किसी दर्शक या श्रोता को यह कभी भी ज्ञात हो सकता है के इस क्षितिज के पार क्या हो रहा है। आम भाषा में इसे "वापसी असंभव" की सीमा कह सकते हैं, यानि इसके पार गुरुत्वाकर्षण इतना भयंकर हो जाता है के कोई भी चीज़, चाहे वस्तु हो या प्रकाश, यहाँ से बहार नहीं निकल सकता। इसकी सब से अधिक दी जाने वाली मिसाल "काला छिद्र" (ब्लैक होल) है। काले छिद्रों के घटना क्षितिजों के अन्दर अगर किसी वस्तु से प्रकाश उत्पन्न होता है तो वह हमेशा के लिए घटना क्षितिज सीमा के अन्दर ही रहता है - उस से बाहर वाला उसे कभी नहीं देख सकता। यही वजह है के काले छिद्र काले लगते हैं - उनसे कोई रोशनी नहीं निकलती। जब कोई चीज़ काले छिद्र की गुरुत्वाकर्षक चपेड़ में आकर उसकी तरफ़ गिरने लगती है तो जैसे-जैसे वह घटना क्षितिज की सीमा के क़रीब आने लगती है वैसे-वैसे गुरुत्वाकर्षण के भयंकर प्रकोप से सापेक्षता सिद्धांत के अद्भुत प्रभाव दिखने लगते हैं। दूर से देखने वालों को ऐसा लगता है के उस वस्तु की काले छिद्र के तरफ़ गिरने की गति धीमी होती जा रही है और उसकी छवि में लालिमा बढ़ती जा रही है। दर्शक कभी भी नहीं देख पाते की वस्तु घटना चक्र को पार ही कर जाए। लेकिन उस वस्तु को ऐसा कोई प्रभाव महसूस नहीं होता - उसे लगता है के वह तेज़ी से काले छिद्र की तरफ़ गिरकर घटना क्षितिज पार कर जाती है। सापेक्षता की वजह से देखने वाले और उस वस्तु की समय की गतियाँ बहुत ही भिन्न हो जाती हैं। .

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कण भौतिकी

कण भौतिकी, भौतिकी की एक शाखा है जिसमें मूलभूत उप परमाणविक कणो के पारस्परिक संबन्धो तथा उनके अस्तित्व का अध्ययन किया जाता है, जिनसे पदार्थ तथा विकिरण निर्मित हैं। हमारी अब तक कि समझ के अनुसार कण क्वांटम क्षेत्रों के उत्तेजन (excitations) हैं। दूसरे कणों के साथ इनकी अन्तःक्रिया की अपनी गतिकी है। कण भौतिकी के क्षेत्र में अधिकांश रुचि मूलभूत क्षेत्रों (fundamental fields) में है। मौलिक क्षेत्रों और उनकी गतिशीलताओ के सार को सिद्धान्त के रूप में प्रस्तुत किया गया है। इसिलिये कण भौतिकी में अधिकतर स्टैंडर्ड मॉडल (Standard Model) के मूल कणों तथा उनके सम्भावित विस्तार के बारे में अध्यन किया जाता है। .

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उत्क्रम समस्या

सैद्धान्तिक भौतिकी में उत्क्रम समस्या (English: Hierarchy Problem हाइरार्की समस्या) दुर्बल नाभिकीय व गुरुत्व बलों के मध्य विशाल भिन्नता है। भौतिक वैज्ञानिक अभी तक इसको समझा पाने में असमर्थ हैं, जैसे - दुर्बल बल, गुरुत्व से 1032 (१०३२) गुणा प्रबल क्यों हैं। .

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