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महाराष्ट्र राष्ट्रभाषा सभा, पुणे

सूची महाराष्ट्र राष्ट्रभाषा सभा, पुणे

मराठीभाषी प्रदेश में राष्ट्रभाषा का प्रचार करने के हेतु गांधी जी की प्रेरणा से पूना में महाराष्ट्र राष्ट्रभाषा सभा की स्थापना हुई। आचार्य काकासाहब कालेलकर की अध्यक्षता में 22 मई 1937 को पूना में महाराष्ट्र के रचनात्मक कार्यकर्ताओं, राजनीतिक और सांस्कृतिक नेताओं आदि का सम्मेलन संपन्न हुआ जिसमें महाराष्ट्र हिंदी प्रचार समिति के नाम से एक संगठन बनाया गया। आठ साल तक यह समिति, राष्ट्रभाषा प्रचार समिति, वर्धा से संबद्ध रही। भाषा विषयक सिद्धांत के मतभेद के कारण इस संगठन ने सम्मेलन तथा वर्धा समिति से संबंध तोड़ दिया। 12 अक्टूबर 1945 को महाराष्ट्र के प्रमुख कार्यकर्ताओं की एक बैठक हुई, जिसमें स्वतंत्र रूप से कार्य करने का निश्चय किया गया। संस्था अब "महाराष्ट्र राष्ट्रभाषा सभा" के नाम से काम करने लगी। .

14 संबंधों: नागपुर, पुणे, मराठी भाषा, महात्मा गांधी, मुम्बई, राष्ट्रभाषा, राष्ट्रभाषा प्रचार समिति, वर्धा, हमारी बात, हिन्दुस्तानी भाषा, हिन्दी, औरंगाबाद, काका कालेलकर, अखिल भारतीय हिंदी साहित्य सम्मेलन, उर्दू भाषा

नागपुर

नागपुर (अंग्रेज़ी: Nagpur, मराठी: नागपूर) महाराष्ट्र राज्य का एक प्रमुख शहर है। नागपुर भारत के मध्य में स्थित है। महाराष्ट्र की इस उपराजधानी की जनसंख्या २४ लाख (१९९८ जनगणना के अनुसार) है। नागपुर भारत का १३वा व विश्व का ११४ वां सबसे बड़ा शहर हैं। यह नगर संतरों के लिये काफी मशहूर है। इसलिए इसे लोग संतरों की नगरी भी कहते हैं। हाल ही में इस शहर को देश के सबसे स्वच्छ व सुदंर शहर का इनाम मिला है। नागपुर भारत देश का दूसरे नंबर का ग्रीनेस्ट (हरित शहर) शहर माना जाता है। बढ़ते इन्फ्रास्ट्रकचर की वजह से नागपुर की गिनती जल्द ही महानगरों में की जायेगी। नागपुर, एक जिला है व ऐतिहासिक विदर्भ (पूर्व महाराष्ट्र का भाग) का एक प्रमुख शहर भी। नागपुर शहर की स्थापना गोण्ड राज्य ने की थी। फिर वह राजा भोसले के उपरान्त मराठा साम्राज्य में शामिल हो गया। १९वी सदी मैं अंग्रेज़ी हुकुमत ने उसे मध्य प्रान्त व बेरार की राजधानी बना दिया। आज़ादी के बाद राज्य पुनर्रचना ने नागपुर को महाराष्ट्र की उपराजधानी बना दिया। नागपुर राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ और विश्व हिंदू परिषद जैसी राष्ट्रवादी संघटनाओ का एक प्रमुख केंद्र है। .

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पुणे

पुणे भारत के महाराष्ट्र राज्य का एक महत्त्वपूर्ण शहर है। यह शहर महाराष्ट्र के पश्चिम भाग, मुला व मूठा इन दो नदियों के किनारे बसा है और पुणे जिला का प्रशासकीय मुख्यालय है। पुणे भारत का छठवां सबसे बड़ा शहर व महाराष्ट्र का दूसरा सबसे बड़ा शहर है। सार्वजनिक सुखसुविधा व विकास के हिसाब से पुणे महाराष्ट्र मे मुंबई के बाद अग्रसर है। अनेक नामांकित शिक्षणसंस्थायें होने के कारण इस शहर को 'पूरब का ऑक्सफोर्ड' भी कहा जाता है। पुणे में अनेक प्रौद्योगिकी और ऑटोमोबाईल उपक्रम हैं, इसलिए पुणे भारत का ”डेट्राइट” जैसा लगता है। काफी प्राचीन ज्ञात इतिहास से पुणे शहर महाराष्ट्र की 'सांस्कृतिक राजधानी' माना जाता है। मराठी भाषा इस शहर की मुख्य भाषा है। पुणे शहर मे लगभग सभी विषयों के उच्च शिक्षण की सुविधा उपलब्ध है। पुणे विद्यापीठ, राष्ट्रीय रासायनिक प्रयोगशाला, आयुका, आगरकर संशोधन संस्था, सी-डैक जैसी आंतरराष्ट्रीय स्तर के शिक्षण संस्थान यहाँ है। पुणे फिल्म इन्स्टिट्युट भी काफी प्रसिद्ध है। पुणे महाराष्ट्र व भारत का एक महत्त्वपूर्ण औद्योगिक केंद्र है। टाटा मोटर्स, बजाज ऑटो, भारत फोर्ज जैसे उत्पादनक्षेत्र के अनेक बड़े उद्योग यहाँ है। 1990 के दशक मे इन्फोसिस, टाटा कंसल्टंसी सर्विसे, विप्रो, सिमैंटेक, आइ.बी.एम जैसे प्रसिद्ध सॉफ्टवेअर कंपनियों ने पुणे मे अपने केंन्द्र खोले और यह शहर भारत का एक प्रमुख सूचना प्रौद्योगिकी उद्योगकेंद्र के रूप मे विकसित हुआ। .

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मराठी भाषा

मराठी भारत के महाराष्ट्र प्रांत में बोली जानेवाली सबसे मुख्य भाषा है। भाषाई परिवार के स्तर पर यह एक आर्य भाषा है जिसका विकास संस्कृत से अपभ्रंश तक का सफर पूरा होने के बाद आरंभ हुआ। मराठी भारत की प्रमुख भाषओं में से एक है। यह महाराष्ट्र और गोवा में राजभाषा है तथा पश्चिम भारत की सह-राजभाषा हैं। मातृभाषियों कि संख्या के आधार पर मराठी विश्व में पंद्रहवें और भारत में चौथे स्थान पर है। इसे बोलने वालों की कुल संख्या लगभग ९ करोड़ है। यह भाषा 900 ईसवी से प्रचलन में है और यह भी हिन्दी के समान संस्कृत आधारित भाषा है। .

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महात्मा गांधी

मोहनदास करमचन्द गांधी (२ अक्टूबर १८६९ - ३० जनवरी १९४८) भारत एवं भारतीय स्वतंत्रता आंदोलन के एक प्रमुख राजनैतिक एवं आध्यात्मिक नेता थे। वे सत्याग्रह (व्यापक सविनय अवज्ञा) के माध्यम से अत्याचार के प्रतिकार के अग्रणी नेता थे, उनकी इस अवधारणा की नींव सम्पूर्ण अहिंसा के सिद्धान्त पर रखी गयी थी जिसने भारत को आजादी दिलाकर पूरी दुनिया में जनता के नागरिक अधिकारों एवं स्वतन्त्रता के प्रति आन्दोलन के लिये प्रेरित किया। उन्हें दुनिया में आम जनता महात्मा गांधी के नाम से जानती है। संस्कृत भाषा में महात्मा अथवा महान आत्मा एक सम्मान सूचक शब्द है। गांधी को महात्मा के नाम से सबसे पहले १९१५ में राजवैद्य जीवराम कालिदास ने संबोधित किया था।। उन्हें बापू (गुजराती भाषा में બાપુ बापू यानी पिता) के नाम से भी याद किया जाता है। सुभाष चन्द्र बोस ने ६ जुलाई १९४४ को रंगून रेडियो से गांधी जी के नाम जारी प्रसारण में उन्हें राष्ट्रपिता कहकर सम्बोधित करते हुए आज़ाद हिन्द फौज़ के सैनिकों के लिये उनका आशीर्वाद और शुभकामनाएँ माँगीं थीं। प्रति वर्ष २ अक्टूबर को उनका जन्म दिन भारत में गांधी जयंती के रूप में और पूरे विश्व में अन्तर्राष्ट्रीय अहिंसा दिवस के नाम से मनाया जाता है। सबसे पहले गान्धी ने प्रवासी वकील के रूप में दक्षिण अफ्रीका में भारतीय समुदाय के लोगों के नागरिक अधिकारों के लिये संघर्ष हेतु सत्याग्रह करना शुरू किया। १९१५ में उनकी भारत वापसी हुई। उसके बाद उन्होंने यहाँ के किसानों, मजदूरों और शहरी श्रमिकों को अत्यधिक भूमि कर और भेदभाव के विरुद्ध आवाज उठाने के लिये एकजुट किया। १९२१ में भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस की बागडोर संभालने के बाद उन्होंने देशभर में गरीबी से राहत दिलाने, महिलाओं के अधिकारों का विस्तार, धार्मिक एवं जातीय एकता का निर्माण व आत्मनिर्भरता के लिये अस्पृश्‍यता के विरोध में अनेकों कार्यक्रम चलाये। इन सबमें विदेशी राज से मुक्ति दिलाने वाला स्वराज की प्राप्ति वाला कार्यक्रम ही प्रमुख था। गाँधी जी ने ब्रिटिश सरकार द्वारा भारतीयों पर लगाये गये नमक कर के विरोध में १९३० में नमक सत्याग्रह और इसके बाद १९४२ में अंग्रेजो भारत छोड़ो आन्दोलन से खासी प्रसिद्धि प्राप्त की। दक्षिण अफ्रीका और भारत में विभिन्न अवसरों पर कई वर्षों तक उन्हें जेल में भी रहना पड़ा। गांधी जी ने सभी परिस्थितियों में अहिंसा और सत्य का पालन किया और सभी को इनका पालन करने के लिये वकालत भी की। उन्होंने साबरमती आश्रम में अपना जीवन गुजारा और परम्परागत भारतीय पोशाक धोती व सूत से बनी शाल पहनी जिसे वे स्वयं चरखे पर सूत कातकर हाथ से बनाते थे। उन्होंने सादा शाकाहारी भोजन खाया और आत्मशुद्धि के लिये लम्बे-लम्बे उपवास रखे। .

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मुम्बई

भारत के पश्चिमी तट पर स्थित मुंंबई (पूर्व नाम बम्बई), भारतीय राज्य महाराष्ट्र की राजधानी है। इसकी अनुमानित जनसंख्या ३ करोड़ २९ लाख है जो देश की पहली सर्वाधिक आबादी वाली नगरी है। इसका गठन लावा निर्मित सात छोटे-छोटे द्वीपों द्वारा हुआ है एवं यह पुल द्वारा प्रमुख भू-खंड के साथ जुड़ा हुआ है। मुम्बई बन्दरगाह भारतवर्ष का सर्वश्रेष्ठ सामुद्रिक बन्दरगाह है। मुम्बई का तट कटा-फटा है जिसके कारण इसका पोताश्रय प्राकृतिक एवं सुरक्षित है। यूरोप, अमेरिका, अफ़्रीका आदि पश्चिमी देशों से जलमार्ग या वायुमार्ग से आनेवाले जहाज यात्री एवं पर्यटक सर्वप्रथम मुम्बई ही आते हैं इसलिए मुम्बई को भारत का प्रवेशद्वार कहा जाता है। मुम्बई भारत का सर्ववृहत्तम वाणिज्यिक केन्द्र है। जिसकी भारत के सकल घरेलू उत्पाद में 5% की भागीदारी है। यह सम्पूर्ण भारत के औद्योगिक उत्पाद का 25%, नौवहन व्यापार का 40%, एवं भारतीय अर्थ व्यवस्था के पूंजी लेनदेन का 70% भागीदार है। मुंबई विश्व के सर्वोच्च दस वाणिज्यिक केन्द्रों में से एक है। भारत के अधिकांश बैंक एवं सौदागरी कार्यालयों के प्रमुख कार्यालय एवं कई महत्वपूर्ण आर्थिक संस्थान जैसे भारतीय रिज़र्व बैंक, बम्बई स्टॉक एक्स्चेंज, नेशनल स्टऑक एक्स्चेंज एवं अनेक भारतीय कम्पनियों के निगमित मुख्यालय तथा बहुराष्ट्रीय कंपनियां मुम्बई में अवस्थित हैं। इसलिए इसे भारत की आर्थिक राजधानी भी कहते हैं। नगर में भारत का हिन्दी चलचित्र एवं दूरदर्शन उद्योग भी है, जो बॉलीवुड नाम से प्रसिद्ध है। मुंबई की व्यवसायिक अपॊर्ट्युनिटी, व उच्च जीवन स्तर पूरे भारतवर्ष भर के लोगों को आकर्षित करती है, जिसके कारण यह नगर विभिन्न समाजों व संस्कृतियों का मिश्रण बन गया है। मुंबई पत्तन भारत के लगभग आधे समुद्री माल की आवाजाही करता है। .

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राष्ट्रभाषा

राष्ट्रभाषा एक देश की संस्कृति का महत्वपूर्ण हिस्सा होती है, जिसे सम्पूर्ण राष्ट्र में भाषा कार्यों में (जैसे लिखना, पढ़ना और वार्तालाप) के लिए प्रमुखता से प्रयोग में लाया जाता है। वह भाषा जिसमें राष्ट्र के काम किए जायें। राष्ट्र के काम-धाम या सरकारी कामकाज के लिये स्वीकृत भाषा। .

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राष्ट्रभाषा प्रचार समिति, वर्धा

राष्ट्रभाषा एक देश की संस्कृति का अभिन्न हिस्सा होती है, जिसे सम्पूर्ण राष्ट्र में भाषा कार्यों में (जैसे लिखना, पढ़ना और वार्तालाप) के लिए प्रमुखता से प्रयोग में लाया जाता है। वह भाषा जिसमें राष्ट्र के काम किए जायें। राष्ट्र के काम-धाम या सरकारी कामकाज के लिये स्वीकृत भाषा। राष्ट्रभाषा के मामले को, जो इस देश में बेहद उलझ गया है और उस पर लिखना या बात करना औसत दर्जे के प्रचारकों का काम समझा जाने लगा है। आज अपनी भाषा में लिखने पर भी लोग भाषा पर बात करना अवांछित समझते हैं। भाषा का प्रश्न मानवीय है, खासकर भारत में, जहाँ साम्राज्यवादी भाषा जनता को जनतंत्र से अलग कर रही है। हिन्दी और अंग्रेजी की स्पर्द्धा देशी भाषाओं और राष्ट्रभाषा के द्वंद्व में बदल गई है, मनों को जोड़ने वाला सूत्र तलवार करार दे दिया गया है, पराधीनता की भाषा स्वाधीनता का गर्व हो गई है। निश्चय ही इसके पीछे दास मन की सक्रियता है। कैसा अजब लगता है, जब कोई इसलिए आंदोलन करे कि हमें दासता दो, बेड़ियाँ पहनाओ ! भाषा के बारे में हमारा सोच और रवैया वही है जो जीवन के बारे में है। कोई भी मूल्य नष्ट होने से बचा है कि भाषा और स्वाभिमान बचे रहें ? मुझे लगता है कि अब राजनीति, नौकरशाही, पूँजीवाद या साम्राज्यवाद को कोसना बेकार है; जब तक जनता खुद ही अपना हित-अनहित न देखेगी, तब तक कुछ नहीं बदलेगा। इसलिए कोई भी समस्या हो, वह सीधे जनता को निवेदित या संबोधित होनी चाहिए। लोगों को विभाजनकारी षड्यंत्रों के हवाले करके हम भाषा के भीतर कोई संवेदन, कोई हार्दिकता पैदा नहीं कर रहे हैं। अहिन्दीभाषी अगर गलती से यह समझ रहे हों कि हिन्दी न रहेगी तो उनका भला होगा, तो उन्हीं से बात करनी होगी कि हिन्दी चली जाएगी तो अंग्रेजी आएगी, राजभाषा के रूप में अंग्रेजी का चरित्र देशी भाषा और जनता से नफरत करना सिखाता है। हिन्दी की कोई स्पर्द्धा देशी भाषाओं से नहीं है। वह उन्हें फूलते-फलते देखना चाहती है, उनसे आत्मालाप करना चाहती है। राष्ट्रभाषा हिन्दी के बारे में कुछ कहने में झिझक होती है, क्योंकि सौभाग्य या दुर्भाग्य से हम हिन्दीभाषी हैं, जबकि यह होना हमने नहीं चुना है। हिन्दी को राष्ट्रभाषा बनाने का स्वप्न भी हिन्दीभाषियों का नहीं था। राष्ट्रभाषा के रूप में इसकी आवश्यकता सबसे पहले अहिन्दीभाषियों ने ही अनुभव की। हिन्दीभाषियों ने तो उनके स्वर में स्वर मिलाया, ताकि उन्हें नाकारा न मान लिया जाए। फिर भी विडंबना यह है कि उन्हीं पर हिन्दी थोपने या हिन्दी का साम्रज्यवाद स्थापित करने का आरोप लगाया जाता है। यह हिन्दी हम पर किसने थोपी है ? हमारी हिन्दी तो संतों-भक्तों की गोद में पली है, आज तक कभी वह सत्ता की मोहताज नहीं रही। माखनलाल चतुर्वेदी के शब्दों में तो वह सिंहासनों से तिरस्कृत रही है। हिन्दी को कभी संस्कृत, पाली, अरबी, फारसी या अंग्रेजी की तरह राज्याश्रय नहीं मिला। तमगा बनने की उसकी इच्छा रही ही नहीं, अलबत्ता वह देश की बाँसुरी, तलवार और ढाल जरूर बनी है। जब भी देश को एक सूत्र में पिरोने की जरूरत पड़ी, जब भी उसके विद्रोह को वाणी देने की आवश्यकता हुई, हिन्दी ने पहले की है। तभी राजा राममोहन राय के पहले समाचार-पत्र की वह भाषा बनी। गांधी की अखंड भारत की आवाज को उसने जन-जन तक पहुँचाया। अफ्रीका से लौटने पर जब गांधी जी ने पहला भाषण हिन्दी में दिया था और कुछ लोगों ने आपत्ति की थी तो उन्होंने कहा था कि मैं हिन्दी में नहीं, भारत की भाषा में बोल रहा हूँ। हिन्दी में ही सुभाषचंद्र बोस की ललकार दसों दिशाओं में गूँजी थी। संभवतः इन्हीं सेवाओं को याद करके स्वतंत्र भारत के संविधान में हिन्दी को राष्ट्रभाषा और राजभाषा का सम्मान दिया गया। भारतीय जनता के संवाद और एकात्मता के लिए इस रूप में मात्र उसकी अनिवार्यता को रेखांकित किया गया था। क्या देश को आज एकात्मता और संवाद की जरूरत नहीं रह गई है ? स्वाधीनता निश्चिंतता और पूर्णविराम नहीं, एक सतत तप है। जिस दिन इस तथ्य को कोई देश भूल जाता है, वही उसके विघटन का पहला दिन होता है। ठीक उसी वक्त देश अपनी पहचान खोने लगता है और अपने अस्तित्व से इंकार करने लगता है। आज हम विघटन के उसी चरम दौर से गुजर रहे हैं। राष्ट्रभाषा को खारिज करने के बहाने, अनजाने ही हम समस्त देशी भाषाओं को निरस्त करते चले जा रहे हैं। यह किसी भयावह संकट की पूर्व सूचना है। पिछले दिनों अर्थात् उन्नीसवीं शती के उत्तरार्द्ध में, भारत में तीन दुर्घटनाएँ एक साथ तेजी से घटित हुईं-उग्र प्रांतीयतावाद, सांप्रदायिक उन्माद और अंग्रेजी की पूर्ण प्रतिष्ठा। ये बातें अकारण एक साथ पैदा नहीं हुईं-इनका एक-दूसरे से नाभि नाल संबंध है-ये सभी राष्ट्र की अस्मिता को खंडित करने और उसे फिर से प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष पराधीनता के अंधे कुएँ में धकेलने वाली घटनाएँ हैं। इन तीनों मामलों में विदेशी शक्तियों के साथ विघटनकारी शक्तियों की दिलचस्पी अकारण नहीं है। सबसे पहले आपसे अपनी भाषा छीनी जा रही है, ताकि आप किसी भी मामले में परस्पर आत्मीय संवाद कायम न कर सकें, जैसे आक्रामण सेनाएँ पुलों को उड़ा देती हैं। गूँगा और संवादहीन देश आपस में सिर्फ अपना माथा ही फोड़ सकता है। आपको अपनी भाषा के बदले जो परदेशी भाषा दी गई है वह जोड़ने वाली नहीं है, क्योंकि वह भारत की जनता को परस्पर जोड़ने के लिए लाई भी नहीं गई थी। गुलामों को अधिक गुलाम बनाने का इससे नायाब तरीका अंग्रेजों के पास दूसरा न था। इस सत्य को न समझते हुए आज भी कुछ लोग तर्क देते हैं कि अंग्रेजी शिक्षा पाए हुए कुछ लोगों ने ही स्वाधीनता और सामाजिक सुधारों के लिए संघर्ष किया था। यानी अंग्रेजी शिक्षा ने ही उनमें स्वाधीनता की आकांक्षा पैदा की थी; उन्हें स्वाधीनता के लिए एकजुट किया था। यह सुनकर लगता है कि ये लोग इतिहास की क्रूरता को चुनौती देने वाले इतिहास से अपरिचित हैं। विकल्पहीन अवस्था में हमेशा विद्रोही शक्तियाँ प्राप्त साधनों को ही हथियार बना लेती हैं, जैसे आसन्न उपस्थित शत्रु से निपटने के लिए पत्थर, डंडा या नाखून तक बंदूक बन जाते हैं। जापानियों, चीनियों यहूदियों यहाँ तक कि खुद अंग्रेजों ने भी अपने-अपने पराधीन काल में विजेताओं की भाषाएँ शस्त्रों की तरह इस्तेमाल की थीं, जिन्हें स्वाधीनता के बाद सबने फेंक दिया। आज भी अफ्रीकी नीग्रो, गोरों के विरुद्ध अंग्रेजी में ही साहित्य लिख रहे हैं, परंतु इसकी तीव्र वेदना उनके साहित्य में झलकती है। इसीलिए वे अपनी बोलियों के जरिए स्वयं अपनी भाषा गढ़ने में व्यस्त हैं। इस दृष्टि से किसी अनिवार्य ऐतिहासिक तदर्थता को प्रमाण के रूप में लेना चीजों का सरलीकरण करना और सच्चाई को भुलाना है। स्वाधीनता के बाद से हमारे देश में, हिन्दी के बारे में कुतर्कों के ऐसे जाल लगातार फैलाए जाते रहे हैं। उन्हीं का परिणाम है कि हिन्दी आज तक अपना अनिवार्य ऐतिहासिक स्थान नहीं पा सकी है। मेरी जानकारी में किसी महत्त्वपूर्ण स्वाधीन राष्ट्र में उसकी राष्ट्रभाषा इतने समय तक अपदस्थ नहीं रही। यहाँ तो स्थिति यह है कि यह सिलसिला लगातार तेज होता जा रहा है। यह स्थिति क्यों पैदा हुई, इसके क्या कारण रहे हैं, इस पर हम अगले पृष्ठों में विचार करेंगे, परंतु आज तो देश के आम पढ़े लिखे लोगों की मानसिकता को इतना प्रदूषित किया जा चुका है कि कभी-कभी लगता है कि राष्ट्रभाषा के बारे में बात करना और सांप्रदायिक दंगे कराना एक ही बात है। ऐसी क्रूर और गुलाम मानसिकता पैदाकरने वाले लोग ही आज बड़ी हसरत से अंग्रेज और अंग्रेजी राज को याद करते हैं-इससे क्या यह साबित नहीं होता कि भारत में अंग्रेजों और अंग्रेजी राज की भूमिका को अलग करना सरासर नासमझी दिखाना है। कथित उदारता दिखाते हुए, स्वाधीनता के प्रारंभिक नाजुक और भावनापूर्ण काल में हम भयानक चूक कर बैठे थे। तब क्या पता था (जबकि होना चाहिए था) कि हिन्दी के साथ 15 वर्षो तक अंग्रेजी जारी करने का निर्णय हिन्दी को अपदस्थ करने की भूमिका साबित होगा। इस अंतराल में अंग्रेजों के उच्छिष्ट नौकरशाहों, स्वार्थी राजनीतिज्ञों, विदेशी शक्तियों, मतलबी पूँजीपतियों वगैरह ने अपनी रणनीति तैयार कर ली थी और भारतीय भाषाओं तथा प्रांतवाद को आगे करके राष्ट्रभाषा पर चौतरफा आक्रमण कर दिया था। इतिहास में भी हम देख चुके हैं कि मामूली छूट के सहारे ही ईस्ट इंडिया कंपनी ने भारत में अपना जाल फैलाया था और बाद में समस्त देशी राज्यों को एक-एक कर हड़पते हुए संपूर्ण संप्रभुता हासिल कर ली थी। वही चरित्र तो अंग्रेजी का है-एक राजभाषा के रूप में। इतिहास और संस्कृति के मर्मज्ञ डॉ॰ राममनोहर लोहिया ने बहुत सही आंदोलन चलाया था-अंग्रेजी हटाओ। इस बारे में उन्होंने उस बुजुर्गी सलाह को नजर अंदाज कर दिया था कि हिन्दी को समर्थ बनाइए, नाहक अंग्रेजी का विरोध क्यों करते हैं ?’ लोहिया जानते थे कि इस दिखावटी अहिंसक सलाह के निहितार्थ क्या हैं ? वास्तव में किसी भी विदेशी भाषा को राष्ट्रभाषा का विकल्प बनाए रखना पराधीनता को स्वाधीनता का विकल्प बनाए रखने की तरह है। वे यह भी जानते थे कि अंग्रेजी की उपस्थिति में कोई भी देशी भाषा पनप नहीं सकती, क्योंकि अपने ऐतिहासिक चरित्र के अनुरूप वह एक से दूसरी को पिटवाने का काम करती रहेगी। (२).

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हमारी बात

हमारी बात 1943 में बनी हिन्दी भाषा की फिल्म है। .

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हिन्दुस्तानी भाषा

150px हिन्दुस्तानी (नस्तलीक़: ہندوستانی, अन्तर्राष्ट्रीय ध्वन्यात्मक लिपि: / hindustɑːniː /) भाषा हिन्दी और उर्दू का एकीकृत रूप है। ये हिन्दी और उर्दू, दोनो के बोलचाल की भाषा है। इसमें संस्कृत के तत्सम शब्द और अरबी-फ़ारसी के उधार लिये गये शब्द, दोनों कम होते हैं। यही हिन्दी और उर्दू का वह रूप है जो भारत की जनता रोज़मर्रा के जीवन में उपयोग करती है और हिन्दी सिनेमा इसी पर आधारित है। ये हिन्द यूरोपीय भाषा परिवार की हिन्द आर्य शाखा में आती है। ये देवनागरी या फ़ारसी-अरबी, किसी भी लिपि में लिखी जा सकती है। .

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हिन्दी

हिन्दी या भारतीय विश्व की एक प्रमुख भाषा है एवं भारत की राजभाषा है। केंद्रीय स्तर पर दूसरी आधिकारिक भाषा अंग्रेजी है। यह हिन्दुस्तानी भाषा की एक मानकीकृत रूप है जिसमें संस्कृत के तत्सम तथा तद्भव शब्द का प्रयोग अधिक हैं और अरबी-फ़ारसी शब्द कम हैं। हिन्दी संवैधानिक रूप से भारत की प्रथम राजभाषा और भारत की सबसे अधिक बोली और समझी जाने वाली भाषा है। हालांकि, हिन्दी भारत की राष्ट्रभाषा नहीं है क्योंकि भारत का संविधान में कोई भी भाषा को ऐसा दर्जा नहीं दिया गया था। चीनी के बाद यह विश्व में सबसे अधिक बोली जाने वाली भाषा भी है। विश्व आर्थिक मंच की गणना के अनुसार यह विश्व की दस शक्तिशाली भाषाओं में से एक है। हिन्दी और इसकी बोलियाँ सम्पूर्ण भारत के विविध राज्यों में बोली जाती हैं। भारत और अन्य देशों में भी लोग हिन्दी बोलते, पढ़ते और लिखते हैं। फ़िजी, मॉरिशस, गयाना, सूरीनाम की और नेपाल की जनता भी हिन्दी बोलती है।http://www.ethnologue.com/language/hin 2001 की भारतीय जनगणना में भारत में ४२ करोड़ २० लाख लोगों ने हिन्दी को अपनी मूल भाषा बताया। भारत के बाहर, हिन्दी बोलने वाले संयुक्त राज्य अमेरिका में 648,983; मॉरीशस में ६,८५,१७०; दक्षिण अफ्रीका में ८,९०,२९२; यमन में २,३२,७६०; युगांडा में १,४७,०००; सिंगापुर में ५,०००; नेपाल में ८ लाख; जर्मनी में ३०,००० हैं। न्यूजीलैंड में हिन्दी चौथी सर्वाधिक बोली जाने वाली भाषा है। इसके अलावा भारत, पाकिस्तान और अन्य देशों में १४ करोड़ १० लाख लोगों द्वारा बोली जाने वाली उर्दू, मौखिक रूप से हिन्दी के काफी सामान है। लोगों का एक विशाल बहुमत हिन्दी और उर्दू दोनों को ही समझता है। भारत में हिन्दी, विभिन्न भारतीय राज्यों की १४ आधिकारिक भाषाओं और क्षेत्र की बोलियों का उपयोग करने वाले लगभग १ अरब लोगों में से अधिकांश की दूसरी भाषा है। हिंदी हिंदी बेल्ट का लिंगुआ फ़्रैंका है, और कुछ हद तक पूरे भारत (आमतौर पर एक सरल या पिज्जाइज्ड किस्म जैसे बाजार हिंदुस्तान या हाफ्लोंग हिंदी में)। भाषा विकास क्षेत्र से जुड़े वैज्ञानिकों की भविष्यवाणी हिन्दी प्रेमियों के लिए बड़ी सन्तोषजनक है कि आने वाले समय में विश्वस्तर पर अन्तर्राष्ट्रीय महत्त्व की जो चन्द भाषाएँ होंगी उनमें हिन्दी भी प्रमुख होगी। 'देशी', 'भाखा' (भाषा), 'देशना वचन' (विद्यापति), 'हिन्दवी', 'दक्खिनी', 'रेखता', 'आर्यभाषा' (स्वामी दयानन्द सरस्वती), 'हिन्दुस्तानी', 'खड़ी बोली', 'भारती' आदि हिन्दी के अन्य नाम हैं जो विभिन्न ऐतिहासिक कालखण्डों में एवं विभिन्न सन्दर्भों में प्रयुक्त हुए हैं। .

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औरंगाबाद

कोई विवरण नहीं।

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काका कालेलकर

काका कालेलकर (1885 - 21 अगस्त 1981) के नाम से विख्यात दत्तात्रेय बालकृष्ण कालेलकर भारत के प्रसिद्ध शिक्षाशास्त्री, पत्रकार और स्वतंत्रता संग्राम सेनानी थे। काकासाहेब कालेलकर ने गुजराती और हिन्दी में साहित्यरचना की। उन्होने हिन्दी की महान सेवा की। उनके द्वारा रचित जीवन–व्यवस्था नामक निबन्ध–संग्रह के लिये उन्हें सन् 1965 में साहित्य अकादमी पुरस्कार से सम्मानित किया गया। वे साबरमती आश्रम के सदस्य थे और अहमदाबाद में गुजरात विद्यापीठ की स्थापना में उन्होंने महत्वपूर्ण योगदान दिया। गांधी जी के निकटतम सहयोगी होने का कारण ही वे 'काका' के नाम से जाने गए। वे सर्वोदय पत्रिका के संपादक भी रहे। 1930 में पूना का यरवदा जेल में गांधी जी के साथ उन्होंने महत्वपूर्ण समय बिताया। .

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अखिल भारतीय हिंदी साहित्य सम्मेलन

अखिल भारतीय हिन्दी साहित्य सम्मेलन, हिन्दी भाषा एवं साहित्य तथा देवनागरी का प्रचार-प्रसार को समर्पित एक प्रमुख सार्वजनिक संस्था है। इसका मुख्यालय प्रयाग (इलाहाबाद) में है जिसमें छापाखाना, पुस्तकालय, संग्रहालय एवं प्रशासनिक भवन हैं। हिंदी साहित्य सम्मेलन ने ही सर्वप्रथम हिंदी लेखकों को प्रोत्साहित करने के लिए उनकी रचनाओं पर पुरस्कारों आदि की योजना चलाई। उसके मंगलाप्रसाद पारितोषिक की हिंदी जगत् में पर्याप्त प्रतिष्ठा है। सम्मेलन द्वारा महिला लेखकों के प्रोत्साहन का भी कार्य हुआ। इसके लिए उसने सेकसरिया महिला पारितोषिक चलाया। सम्मेलन के द्वारा हिंदी की अनेक उच्च कोटि की पाठ्य एवं साहित्यिक पुस्तकों, पारिभाषिक शब्दकोशों एवं संदर्भग्रंथों का भी प्रकाशन हुआ है जिनकी संख्या डेढ़-दो सौ के करीब है। सम्मेलन के हिंदी संग्रहालय में हिंदी की हस्तलिखित पांडुलिपियों का भी संग्रह है। इतिहास के विद्वान् मेजर वामनदास वसु की बहुमूल्य पुस्तकों का संग्रह भी सम्मेलन के संग्रहालय में है, जिसमें पाँच हजार के करीब दुर्लभ पुस्तकें संगृहीत हैं। .

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उर्दू भाषा

उर्दू भाषा हिन्द आर्य भाषा है। उर्दू भाषा हिन्दुस्तानी भाषा की एक मानकीकृत रूप मानी जाती है। उर्दू में संस्कृत के तत्सम शब्द न्यून हैं और अरबी-फ़ारसी और संस्कृत से तद्भव शब्द अधिक हैं। ये मुख्यतः दक्षिण एशिया में बोली जाती है। यह भारत की शासकीय भाषाओं में से एक है, तथा पाकिस्तान की राष्ट्रभाषा है। इस के अतिरिक्त भारत के राज्य तेलंगाना, दिल्ली, बिहार और उत्तर प्रदेश की अतिरिक्त शासकीय भाषा है। .

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