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महाभारत में विभिन्न अवतार

सूची महाभारत में विभिन्न अवतार

यहाँ पर महाभारत में वर्णित अवतारों की सूची दी गयी है और साथ में वे किस देवता के अवतार हैं, यह भी दर्शाया गया है। .

67 संबंधों: त्रिजटा, दन्तवक्र, दुर्योधन, दुर्वासा ऋषि, द्रुपद, द्रौपदी, द्रोणाचार्य, द्वापर युग, देवकी, धृष्टद्युम्न, नर-नारायण अवतार, नकुल, परीक्षित, पाण्डु, प्रद्युम्न, बलराम, ब्रह्मा, बृहस्पति, बोधिसत्व, भरत चक्रवर्ती, भीम, भीष्म, मरुद्गण, महाभारत, माद्री, यम, युधिष्ठिर, रुद्र, रुक्मिणी, लक्ष्मी, शची, शान्तनु, शिशुपाल, शिव, शकुनि, शेषनाग, सत्यकि, सनत्कुमार, सहदेव, सुभद्रा, सूर्य, हनुमान, जरासन्ध, वरुण (देव), वसु, वसुदेव, वायु, विदुर, विष्णु, व्यास, ..., गांधारी, इन्द्र, कर्ण, कश्यप, काम, कालनेमि, कंस, कुन्ती, कौरव, कृष्ण, अदिति, अभिमन्यु, अर्जुन, अश्वत्थामा, अश्विनीकुमार (पौराणिक पात्र), अवतार, अग्नि सूचकांक विस्तार (17 अधिक) »

त्रिजटा

त्रिजटा रामायण की एक पात्रा हैं। त्रिजटा मुख्य साध्वी, राक्षसी प्रमुख थी। मन्दोदरी ने सीताजी की देख-रेख के लिए उसे विशेष रूप से सुपुर्द किया था। वह राक्षसी होते हुए भी सीता की हितचिंतक थी। रावन के बाहर होने पर लंका की सत्ता मन्दोदरी के हाथ में थी तथा मन्दोदरी ने सीता के साथ रावन को महल में प्रवेष की अनुमति नहीं दिया। श्रेणी:रामायण के पात्र.

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दन्तवक्र

दन्तवक्र का उल्लेख पौराणिक महाकाव्य 'महाभारत' में हुआ है। महाभारत के अनुसार श्रुतदेवा का विवाह करूषाघिपति वृद्धशर्मा से हुआ था और उसका पुत्र था दन्तवक्र। जब शाल्व ने द्वारका पर आक्रमण किया, तब दन्तवक्र भी शाल्व की ओर से कृष्ण के विरुद्ध युद्ध में लड़ा था।.

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दुर्योधन

Duryodana was defeated by Bhima - A scene from Razmanama.

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दुर्वासा ऋषि

दुर्वासा हिंदुओं के एक महान ऋषि हैं। वे अपने क्रोध के लिए जाने जाते हैं। दुर्वासा सतयुग, त्रैता एवं द्वापर तीनों युगों के एक प्रसिद्ध सिद्ध योगी महर्षि हैं। वे महादेव शंकर के अंश से आविर्भूत हुए हैं। कभी-कभी उनमें अकारण ही भयंकर क्रोध भी देखा जाता है। वे सब प्रकार के लौकिक वरदान देने में समर्थ हैं। महर्षि अत्रि जी सृष्टिकर्ता ब्रह्माजी के मानस पुत्र थे। उनकी पत्नी अनसूयाजी के पातिव्रत धर्म की परीक्षा लेने हेतु ब्रह्मा, विष्णु और महेश तीनों ही पत्‍ि‌नयों के अनुरोध पर श्री अत्री और अनसूयाजी के चित्रकुट स्थित आश्रम में शिशु रूप में उपस्थित हुए। ब्रह्मा जी चंद्रमा के रूप में, विष्णु दत्तात्रेय के रूप में और महेश दुर्वासा के रूप में उपस्थित हुए। बाद में देव पत्नियों के अनुरोध पर अनसूयाजी ने कहा कि इस वर्तमान स्वरूप में वे पुत्रों के रूप में मेरे पास ही रहेंगे। साथ ही अपने पूर्ण स्वरूप में अवस्थित होकर आप तीनों अपने-अपने धाम में भी विराजमान रहेंगे। यह कथा सतयुग के प्रारम्भ की है। पुराणों और महाभारत में इसका विशद वर्णन है। दुर्वासा जी कुछ बड़े हुए, माता-पिता से आदेश लेकर वे अन्न जल का त्याग कर कठोर तपस्या करने लगे। विशेषत: यम-नियम, आसन, प्राणायाम, ध्यान-धारणा आदि अष्टांग योग का अवलम्बन कर वे ऐसी सिद्ध अवस्था में पहुंचे कि उनको बहुत सी योग-सिद्धियां प्राप्त हो गई। अब वे सिद्ध योगी के रूप में विख्यात हो गए। तत्पश्चात् यमुना किनारे इसी स्थल पर उन्होंने एक आश्रम का निर्माण किया और यहीं पर रहकर आवश्यकता के अनुसार बीच-बीच में भ्रमण भी किया। दुर्वासा आश्रम के निकट ही यमुना के दूसरे किनारे पर महाराज अम्बरीष का एक बहुत ही सुन्दर राजभवन था। एक बार राजा निर्जला एकादशी एवं जागरण के उपरांत द्वादशी व्रत पालन में थे। समस्त क्रियाएं सम्पन्न कर संत-विप्र आदि भोज के पश्चात भगवत प्रसाद से पारण करने को थे कि महर्षि दुर्वासा आ गए। महर्षि को देख राजा ने प्रसाद ग्रहण करने का निवेदन किया, पर ऋषि यमुना स्नान कर आने की बात कहकर चले गए। पारण काल निकलने जा रहा था। धर्मज्ञ ब्राह्मणों के परामर्श पर श्री चरणामृत ग्रहण कर राजा का पारण करना ही था कि ऋषि उपस्थित हो गए तथा क्रोधित होकर कहने लगे कि तुमने पहले पारण कर मेरा अपमान किया है। भक्त अम्बरीश को जलाने के लिए महर्षि ने अपनी जटा निचोड़ क्रत्या राक्षसी उत्पन्न की, परन्तु प्रभु भक्त अम्बरीश अडिग खडे रहे। भगवान ने भक्त रक्षार्थ चक्र सुदर्शन प्रकट किया और राक्षसी भस्म हुई। दुर्वासाजी चौदह लोकों में रक्षार्थ दौड़ते फिरे। शिवजी की चरण में पहुंचे। शिवजी ने विष्णु के पास भेजा। विष्णु जी ने कहा आपने भक्त का अपराध किया है। अत:यदि आप अपना कल्याण चाहते हैं, तो भक्त अम्बरीश के निकट ही क्षमा प्रार्थना करें। जब से दुर्वासाजी अपने प्राण बचाने के लिए इधर-उधर भाग रहे थे, तब से महाराज अम्बरीशने भोजन नहीं किया था। उन्होंने दुर्वासाजी के चरण पकड़ लिए और बडे़ प्रेम से भोजन कराया। दुर्वासाजी भोजन करके तृप्त हुए और आदर पूर्वक राजा से भोजन करने का आग्रह किया। दुर्वासाजी ने संतुष्ट होकर महाराज अम्बरीश के गुणों की प्रशंसा की और आश्रम लौट आए। महाराज अम्बरीश के संसर्ग से महर्षि दुर्वासा का चरित्र बदल गया। अब वे ब्रह्म ज्ञान और अष्टांग योग आदि की अपेक्षा शुद्ध भक्ति मार्ग की ओर झुक गए। महर्षि दुर्वासा जी शंकर जी के अवतार एवं प्रकाश हैं। शंकर जी के ईश्वर होने के कारण ही उनका निवास स्थान ईशापुर के नाम से प्रसिद्ध है। आश्रम का पुनर्निर्माण त्रिदण्डि स्वामी श्रीमद्भक्ति वेदान्त गोस्वामी जी ने कराया। सम्प्रति व्यवस्था सन्त रास बिहारी दास आश्रम पर रह कर देख रहे हैं। ब्रज मण्डल के अंतर्गत प्रमुख बारह वनों में से लोहवनके अंतर्गत यमुना के किनारे मथुरा में दुर्वासाजी का अत्यन्त प्राचीन आश्रम है। यह महर्षि दुर्वासा की सिद्ध तपस्या स्थली एवं तीनों युगों का प्रसिद्ध आश्रम है। भारत के समस्त भागों से लोग इस आश्रम का दर्शन करने और तरह-तरह की लौकिक कामनाओं की पूर्ति करने के लिए आते हैं। .

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द्रुपद

द्रुपद पांचाल के राजा और द्रौपदी, धृष्टद्युम्न, शिखंडी,सत्यजीत,उत्तमानुज,युद्धमन्यु,प्रियदर्शन, सुमित्र,चित्रकेतु,सुकेतु, ध्वजकेतु,वीरकेतु,सुरथ एवं शत्रुंजय के पिता थे और महाभारत के युद्ध में पाण्डवोण की ओर से लड़े थे। .

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द्रौपदी

द्रौपदी महाभारत के सबसे प्रसिद्ध पात्रों में से एक है। इस महाकाव्य के अनुसार द्रौपदी पांचाल देश के राजा द्रुपद की पुत्री है जो बाद में पांचों पाण्डवों की पत्नी बनी। द्रौपदी पंच-कन्याओं में से एक हैं जिन्हें चिर-कुमारी कहा जाता है। ये कृष्णा, यज्ञसेनी, महाभारती, सैरंध्री आदि अन्य नामो से भी विख्यात है। द्रौपदी का विवाह पाँचों पाण्डव भाईयों से हुआ था। पांडवों द्वारा इनसे जन्मे पांच पुत्र (क्रमशः प्रतिविंध्य, सुतसोम, श्रुतकीर्ती, शतानीक व श्रुतकर्मा) उप-पांडव नाम से विख्यात थे। .

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द्रोणाचार्य

द्रोणाचार्य ऋषि भरद्वाज तथा घृतार्ची नामक अप्सरा के पुत्र तथा धर्नुविद्या में निपुण परशुराम के शिष्य थे। कुरू प्रदेश में पांडु के पाँचों पुत्र तथा धृतराष्ट्र के सौ पुत्रों के वे गुरु थे। महाभारत युद्ध के समय वह कौरव पक्ष के सेनापति थे। गुरु द्रोणाचार्य के अन्य शिष्यों में एकलव्य का नाम उल्लेखनीय है। उसने गुरुदक्षिणा में अपना अंगूठा द्रोणाचार्य को दे दिया था। कौरवो और पांडवो ने द्रोणाचार्य के आश्रम मे ही अस्त्रो और शस्त्रो की शिक्षा पायी थी। अर्जुन द्रोणाचार्य के प्रिय शिष्य थे। वे अर्जुन को विश्व का सर्वश्रेष्ठ धनुर्धर बनाना चाहते थे। महाभारत की कथा के अनुसार महर्षि भरद्वाज एकबार नदी ने स्नान करने गए। स्नान के समाप्ति के बाद उन्होंने देखा की अप्सरा घृताची नग्न होकर स्नान कर रही है। यह देखकर वह कामातुर हो परे और उनके शिश्न से बीर्ज टपक पड़ा। उन्हीने ये बीर्ज एक द्रोण कलश में रखा, जिससे एक पुत्र जन्मा। दूसरे मत से कामातुर भरद्वाज ने घृताची से शारीरिक मिलान किया, जिनकी योनिमुख द्रोण कलश के मुख के समान थी। द्रोण (दोने) से उत्पन्न होने का कारण उनका नाम द्रोणाचार्य पड़ा। अपने पिता के आश्रम में ही रहते हुये वे चारों वेदों तथा अस्त्र-शस्त्रों के ज्ञान में पारंगत हो गये। द्रोण के साथ प्रषत् नामक राजा के पुत्र द्रुपद भी शिक्षा प्राप्त कर रहे थे तथा दोनों में प्रगाढ़ मैत्री हो गई। उन्हीं दिनों परशुराम अपनी समस्त सम्पत्ति को ब्राह्मणों में दान कर के महेन्द्राचल पर्वत पर तप कर रहे थे। एक बार द्रोण उनके पास पहुँचे और उनसे दान देने का अनुरोध किया। इस पर परशुराम बोले, "वत्स! तुम विलम्ब से आये हो, मैंने तो अपना सब कुछ पहले से ही ब्राह्मणों को दान में दे डाला है। अब मेरे पास केवल अस्त्र-शस्त्र ही शेष बचे हैं। तुम चाहो तो उन्हें दान में ले सकते हो।" द्रोण यही तो चाहते थे अतः उन्होंने कहा, "हे गुरुदेव! आपके अस्त्र-शस्त्र प्राप्त कर के मुझे अत्यधिक प्रसन्नता होगी, किन्तु आप को मुझे इन अस्त्र-शस्त्रों की शिक्षा-दीक्षा देनी होगी तथा विधि-विधान भी बताना होगा।" इस प्रकार परशुराम के शिष्य बन कर द्रोण अस्त्र-शस्त्रादि सहित समस्त विद्याओं के अभूतपूर्व ज्ञाता हो गये। शिक्षा प्राप्त करने के पश्चात द्रोण का विवाह कृपाचार्य की बहन कृपी के साथ हो गया। कृपी से उनका एक पुत्र हुआ। यह महाभारत का वह महत्त्वपूर्ण पात्र बना जिसका नाम अश्वत्थामा था। द्रोणाचार्य ब्रह्मास्त्र का प्रयोग जानते थे जिसके प्रयोग करने की विधि उन्होंने अपने पुत्र अश्वत्थामा को भी सिखाई थी। द्रोणाचार्य का प्रारंभिक जीवन गरीबी में कटा उन्होंने अपने सहपाठी द्रु, पद से सहायता माँगी जो उन्हें नहीं मिल सकी। एक बार वन में भ्रमण करते हुए गेंद कुएँ में गिर गई। इसे देखकर द्रोणाचार्य का ने अपने धनुषर्विद्या की कुशलता से उसको बाहर निकाल लिया। इस अद्भुत प्रयोग के विषय में तथा द्रोण के समस्त विषयों मे प्रकाण्ड पण्डित होने के विषय में ज्ञात होने पर भीष्म पितामह ने उन्हें राजकुमारों के उच्च शिक्षा के नियुक्त कर राजाश्रय में ले लिया और वे द्रोणाचार्य के नाम से विख्यात हुये। .

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द्वापर युग

द्वापर मानवकाल के तृतीय युग को कहते हैं। यह काल कृष्ण के देहान्त से समाप्त होता है। ब्रह्मा का एक दिवस 10,000 भागों में बंटा होता है, जिसे चरण कहते हैं: चारों युग 4 चरण (1,728,000 सौर वर्ष)सत युग 3 चरण (1,296,000 सौर वर्ष) त्रेता युग 2 चरण (864,000 सौर वर्ष)द्वापर युग 1 चरण (432,000 सौर वर्ष)कलि युग यह चक्र ऐसे दोहराता रहता है, कि ब्रह्मा के एक दिवस में 1000 महायुग हो जाते हैं श्रेणी:हिन्दू काल गणना.

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देवकी

कृष्ण और बलराम का माता-पिता से मिलनः राजा रवि वर्मा की कलाकृतिदेवकी महाभारत काल में मथुरा के राजा उग्रसेन के भाई देवक की कन्या थी और श्रीकृष्ण और बलराम की माता थीं। उनको अदिति का अवतार भी माना जाता है। यह भी माना जाता है कि उनका पुनर्जन्म पृष्णि के रूप में हुआ और उस जन्म में उनका विवाह राज सुतपस से हुआ। देवकी के रूप में इनका विवाह वसुदेव से हुआ। उग्रसेन के क्रूर बेटे कंस को जब यह भविष्यवाणी सुना कि उसका वध देवकी के आठवें बेटे के हाथों होगा तो उसने देवकी और वसुदेव को कारागार में डाल दिया और उनके छ: बेटों की जन्म होते ही हत्या कर दी। बलराम इनके सातवें पुत्र थे। आठवें बच्चे कृष्ण (जो वास्तव में भगवान विष्णु का अवतार थे) का जन्म होते ही वसुदेव उसे पास में ही एक दूसरे गाँव गोकुल में छोड़ आए जहाँ नंद और उनकी पत्नी यशोदा ने उसका पालन-पोषण किया। लौटते समय वसुदेव यशोदा की कन्या महामाया को अपने साथ लेते आए। कहते हैं कि जब कंस ने उसको मारने की चेष्टा की तो वह हाथ से छूट गई और आकाश की ओर जाते हुआ उसने भविष्यवाणी कि कि तुझे मारनेवाला तो गोकुल में जन्म ले चुका है। जब कंस को पता चला कि देवकी का आठवाँ पुत्र गायब हो चुका है तो उसने वसुदेव और देवकी को कारागार से मुक्त कर दिया। मुक्त होने के बाद वे लोग मथुरा में रहने लगे। वसुदेव की दूसरी पत्नी रोहिणी से सुभद्रा नामक कृष्ण की एक बहन थीं। इसका विवाह अर्जुन से हुआ और अभिमन्यु की माता थीं। .

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धृष्टद्युम्न

धृष्टद्युम्न पांचालराज द्रुपद का अग्नि तुल्य तेजस्वी पुत्र। यह पृषत अथवा जंतु राजा का नाती, एवं द्रुपद राजा का पुत्र था। द्रोणाचार्य का विनाश करने के लिये, प्रज्त्रलित अग्निकुंड से इसका प्रादुर्भाव हुआ था। फिर उसी वेदी में से द्रौपदी प्रकट हुई थी। अतः इन दोनों को ‘अयोनिसंभव’ एवं इसे द्रौपदी का ‘अग्रज बंधु’ कहा जाता है। अग्नि के अंश से इसका जन्म हुआ था। इसे ‘याज्ञसेनि’, अथवा ‘यज्ञसेनसुत’ भी कहते थे। द्रोण से बदला लेने के लिये, द्रुपद ने याज एवं उपयाज नामक मुनियों के द्वारा एक यज्ञ करवाया। उस यज्ञ के ‘हविष्य’ सिद्ध होते ही, याज ने द्रुपद की रानी सौत्रामणी को, उसका ग्रहण करने के लिये बुलाया। महारानी के आने में जरा देर हुई। फिर याज ने क्रोध से कहा, ‘रानी! इस हविष्य को यज ने तयार किया है, एवं उपयाज ने उसका संस्कार किया है। इस कारण इससे संतान की उत्पत्ति अनिवार्य है। तुम इसे लेने आवो, या न आओ’। इतना कह कर, याज ने उस हविष्य की अग्नि में आहुति दी। फिर उस प्रज्वलित अग्नि से, यह एक तेजस्वी वीरपुरुष के रुपो में प्रकट हुआ। इसके अंगों की कांति अग्निज्वाला के समान तेजस्वी थी। इसके मस्तक पर किरीट, अंगों मे उत्तम कवच, एवं हाथों में खड्ग, बाण एवं धनुष थे। अग्नि से बाहेर आते ही, यह गर्जना करता हुआ एक रथ पर जा चढा मानो कही युद्ध के लिये जा रहा हो। उसी समय, आकाशवाणी हुई, ‘यह कुमार पांचालों का दुःख दूर करेगा। द्रोणवध के लिये इसका अवतार हुआ है उपस्थित पांचालो को बडी प्रसन्नता हुई। वे ‘साधु, साधु’; कह कर, इसे शाबाशी देने लगे। द्रौपदी स्वयंवर के समय, ‘मत्स्यवेध’ के प्रण की घोषणा द्रुपद ने धृष्टद्युम्न के द्वारा ही करवायी थी स्वयंवर के लिये, पांडव ब्राह्मणो के वंश में आये थे। अर्जुन द्वारा द्रौपदीजीति जाने पर, ‘एक ब्राह्मण ने क्षत्रियकन्या को जीत लिया’, यह बात सारे राजमंडल में फैल गयी। सारा क्षत्रिय राजमंडल क्रुद्ध हो गया। बात युद्ध तक आ गयी। फिर इसने गुप्तरुप से पांडवों के व्यवहार का निरीक्षण किया, एवं सारे राजाओं को विश्वास दिलाया ‘ब्राह्मणरुपधारी व्यक्तियॉं पांडव राजपुत्र है’ । धृष्टद्युम्न अत्यंत पराक्रमी था। इसे द्रोणाचार्य ने धनुर्विद्या सिखाई। भारतीय युद्ध में यह पांडवपक्ष मे था। प्रथम यह पांडवों की सेना में एक अतिरथी था। इसकी युद्धचपलता देख कर, युधिष्ठिर ने इसे कृष्ण की सलाह से सेनापति बना दिया युद्धप्रसंग में धृष्टद्युम्न ने बडे ही कौशल्य से अपना उत्तरदायित्व सम्हाला था। द्रोण सेनापति था, तब भीम ने अश्वत्थामा नामक हाथी को मार कर, किंवदंती फैला दी कि, ‘अश्वत्थामा मृत हो गया’। तब पुत्रवध की वार्ता सत्य मान कर, उद्विग्र मन से द्रोणाचार्य ने शस्त्रसंन्यास किया। तब अच्छा अवसर पा कर, धृष्टद्युम्न ने द्रोण का शिरच्छेद किया धृष्टद्युम्न ने द्रोणाचार्य की असहाय स्थिति में उसका वध किया। यह देख कर सात्यकि ने धृष्टद्युम्न की बहुत भर्त्सना की। तब दोनों में युद्ध छिडने की स्थिति आ गयी। परंतु कृष्ण ने वह प्रसंग टाल दिया। आगे चल कर, युद्ध की अठारहवे दिन, द्रोणपुत्र अश्वत्थामन ने अपने पिता के वध का बदला लेने के लिये, कौरवसेना का सैनापत्य स्वीकार किया। उसी रात को त्वेष एवं क्रोध के कारण पागलसा हो कर, वह पांडवों के शिबिर में सर्वसंहार के हेतु घुस गया। सर्वप्रथम अपने पिता के खूनी धृष्टद्युम्न के निवास में वह गया। उस समय वह सो रहा था। अश्वत्थामन ने इसे लत्ताप्रकार कर के जागृत किया। फिर धृष्टद्युम्न शस्त्रप्रहार से मृत्यु स्वीकारने के लिये तयार हुआ। किंतु अश्वत्थामन् ने कहा, ‘मेरे पिता को निःशस्त्र अवस्था में तुमने मारा हैं। इसलिये शस्त्र से मरने के लायक तुम नहीं हो’। पश्चात् अश्वत्थामन् ने इसे लाथ एवं मुक्के से कुचल कर, इसका वध किया। बाद में उसने पांडवकुल का ही पूरा संहारा किया। .

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नर-नारायण अवतार

नर-नारायण हिन्दू धर्म में भगवान विष्णु के दशावतार में से एक अवतार था। इस अवतार में विष्णु जी ने नर और नारायण रूप में अवतार लिये थे। इस रूप में बद्रीनाथ तीर्थ में तपस्या की थी। श्रेणी:अवतार श्रेणी:दशावतार.

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नकुल

नकुल महान हिन्दू काव्य महाभारत में पाँच पांडवो में से एक था। नकुल और सहदेव, दोनों माता माद्री के असमान जुड़वा पुत्र थे, जिनका जन्म दैवीय चिकित्सकों अश्विन के वरदान स्वरूप हुआ था, जो स्वयं भी समान जुड़वा बंधु थे। नकुल, का अर्थ है, परम विद्वता। महाभारत में नकुल का चित्रण एक बहुत ही रूपवान, प्रेम युक्त और बहुत सुंदर व्यक्ति के रूप में की गई है। अपनी सुंदरता के कारण नकुल की तुलना काम और प्रेम के देवता, "कामदेव" से की गई है। पांडवो के अंतिम और तेरहवें वर्ष के अज्ञातवास में नकुल ने अपने रूप को कौरवों से छिपाने के लिए अपने शरीर पर धूल लीप कर छिपाया। श्रीकृष्ण द्वारा नरकासुर का वध करने के पश्चात नकुल द्वारा घुड़ प्रजनन और प्रशिक्षण में निपुण होने का महाभारत में अभिलेखाकरण है। वह एक योग्य पशु शल्य चिकित्सक था, जिसे घुड़ चिकित्सा में महारथ प्राप्त था। अज्ञातवास के समय में नकुल भेष बदल कर और अरिष्ठनेमि नाम के छद्मनाम से महाराज विराट की राजधानी उपपलव्य की घुड़शाला में शाही घोड़ों की देखभाल करने वाले सेवक के रूप में रहा था। वह अपनी तलवारबाज़ी और घुड़सवारी की कला के लिए भी विख्यात था। अनुश्रुति के अनुसार, वह बारिश में बिना जल को छुए घुड़सवारी कर सकता था। नकुल का विवाह द्रौपदी के अतिरिक्त जरासंध की पुत्री से भी हुआ था। नकुल नाम का अर्थ होता है जो प्रेम से परिपूर्ण हो और इस नाम की नौ पुरुष विशेषताएँ हैं: बुद्धिमत्ता, सकेन्द्रित, परिश्रमी, रूपवान, स्वास्थ्य, आकर्षकता, सफ़लता, आदर और शर्त रहित प्रेम। .

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परीक्षित

महाभारत के अनुसार परीक्षित अर्जुन के पौत्र, अभिमन्यु और उत्तरा के पुत्र तथा जनमेजय के पिता थे। जब ये गर्भ में थे तब उत्तरा के पुकारने पर विष्णु ने अश्वत्थामा के ब्रह्मास्त्र से उनकी रक्षा की थी। इसलिए इनका नाम 'विष्णुरात' पड़ा। भागवत (१, १२, ३०) के अनुसार गर्भकाल में अपने रक्षक विष्णु को ढूँढ़ने के कारण उन्हें 'परीक्षित, (परिअ ईक्ष) कहा गया किंतु महाभारत (आश्व., ७०, १०) के अनुसार कुरुवंश के परिक्षीण होने पर जन्म होने से वे 'परिक्षित' कहलाए। महाभारत में इनके विषय में लिखा है कि जिस समय ये अभिमन्यु की पत्नी उत्तरा के गर्भ में थे, द्रोणाचार्य के पुत्र अश्वत्थामा ने गर्भ में ही इनकी हत्या कर पांडुकुल का नाश करने के अभिप्राय से ऐषीक नाम के अस्त्र को उत्तरा के गर्भ में प्रेरित किया जिसका फल यह हुआ कि उत्तरा के गर्भ से परीक्षित का झुलसा हुआ मृत पिंड बाहर निकला। श्रीकृष्ण को पांडुकुल का नामशेष हो जाना मंजूर न था, इसलिये उन्होंने अपने योगबल से मृत भ्रूण को जीवित कर दिया। परिक्षीण या विनष्ट होने से बचाए जाने के कारण इस बालक का नाम परीक्षित रखा गया। परीक्षित ने कृपाचार्य से अस्त्रविद्या सीखी थी जो महाभारत युद्ध में कुरुदल के प्रसिद्ध महारथी थे। युधिष्ठिर आदि पांडव संसार से भली भाँति उदासीन हो चुके थे और तपस्या के अभिलाषी थे। अतः वे शीघ्र ही परीक्षित को हस्तिनापुर के सिंहासन पर बिठा द्रौपदी समेत तपस्या करने चले गए। परीक्षित जब राजसिंहासन पर बैठे तो महाभारत युद्ध की समाप्ति हुए कुछ ही समय हुआ था, भगवान कृष्ण उस समय परमधाम सिधार चुके थे और युधिष्ठिर को राज्य किए ३६ वर्ष हुए थे। राज्यप्राप्ति के अनंतर गंगातट पर उन्होंने तीन अश्वमेघ यज्ञ किए जिनमें अंतिम बार देवताओं ने प्रत्यक्ष आकर बलि ग्रहण किया था। इनके विषय में सबसे मुख्य बात यह है के इन्हीं के राज्यकाल में द्वापर का अंत और कलियुग का आरंभ होना माना जाता है। इस संबंध में भागवत में यह कथा है— परीक्षित की मृत्यु के बाद, फिर कलियुग की रोक टोक करनेवाला कोई न रहा और वह उसी दिन से अकंटक भाव से शासन करने लगा। पिता की मृत्यु का बदला लेने के लिये जनमेजय ने सर्पसत्र किया जिसमें सारे संसार के सर्प मंत्रबल से खिंच आए और यज्ञ की अग्नि में उनकी आहुति हुई। .

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पाण्डु

महाभारत के अनुसार पाण्डु अम्बालिका और ऋषि व्यास के पुत्र थे। वे पाण्डवों के पिता और धृतराष्ट्र के कनिष्ट भ्राता थे। जिस समय हस्तिनापुर का सिंहासन सम्भालने के लिए धृतराष्ट्र को मनोनीत किया जा रहा था तब विदुर ने राजनीति ज्ञान की दुहाई दी कि एक नेत्रहीन व्यक्ति राजा नहीं हो सकता, तब पाण्डु को नरेश घोषित किया गया। एक बार महाराज पाण्डु अपनी दोनों रानियों कुन्ती और माद्री के साथ वन विहार कर रहे थे। एक दिन उन्होंने मृग के भ्रम में बाण चला दिया जो एक ऋषि को लग गया। उस समय ऋषि अपनी पत्नी के साथ सहवासरत थे और उसी अवस्था में उन्हें बाण लग गया। इसलिए उन्होंने पाण्डु को श्राप दे दिया की जिस अवस्था में उनकी मृत्यु हो रही है उसी प्रकार जब भी पाण्डु अपनी पत्नियों के साथ सहवासरत होंगे तो उनकी भी मृत्यु हो जाएगी। उस समय पाण्डु की कोई संतान नहीं थी और इस कारण वे विचलित हो गए। यह बात उन्होंने अपनी बड़ी रानी कुन्ती को बताई। तब कुन्ती ने कहा की ऋषि दुर्वासा ने उन्हें वरदान दिया था की वे किसी भी देवता का आवाहन करके उनसे संतान प्राप्त सकतीं हैं। तब पाण्डु के कहने पर कुन्ती ने एक-एक कर कई देवताओं का आवाहन किया। इस प्रकार माद्री ने भी देवताओं का आवाहन किया। तब कुन्ती को तीन और माद्री को दो पुत्र प्राप्त हुए जिनमें युधिष्ठिर सबसे ज्येष्ठ थे। कुंती के अन्य पुत्र थे भीम और अर्जुन तथा माद्री के पुत्र थे नकुल व सहदेव। एक दिन वर्षाऋतु का समय था और पाण्डु और माद्री वन में विहार कर रहे थे। उस समय पाण्डु अपने काम वेग पर नियंत्रण न रख सके और माद्री के साथ सहवास किया। तब ऋषि का श्राप महाराज पाण्डु की मृत्यु के रूप में फलित हुआ। .

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प्रद्युम्न

..प्रद्युम्न श्री कृष्ण के पुत्र थे। यह पूर्व जन्म में ये काम देव थे, जो भगवान शंकर (शंकर) की तपस्या में विघ्न डालने के कारण उनके द्वारा भश्म कर दिये गये थे। तब काम देव की पत्नी के प्रार्थना करने पर भगवान शंकर ने प्रशन्न होकर कामदेव को जीवित तो कर दिया मगर शरीर नहीं दिया। इस अवस्था को काम देव ने कृष्ण जी का पुत्र बनकर समाप्त किया।।.

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बलराम

पांचरात्र शास्त्रों के अनुसार बलराम (बलभद्र) भगवान वासुदेव के ब्यूह या स्वरूप हैं। उनका कृष्ण के अग्रज और शेष का अवतार होना ब्राह्मण धर्म को अभिमत है। जैनों के मत में उनका संबंध तीर्थकर नेमिनाथ से है। बलराम या संकर्षण का पूजन बहुत पहले से चला आ रहा था, पर इनकी सर्वप्राचीन मूर्तियाँ मथुरा और ग्वालियर के क्षेत्र से प्राप्त हुई हैं। ये शुंगकालीन हैं। कुषाणकालीन बलराम की मूर्तियों में कुछ व्यूह मूर्तियाँ अर्थात् विष्णु के समान चतुर्भुज प्रतिमाए हैं और कुछ उनके शेष से संबंधित होने की पृष्ठभूमि पर बनाई गई हैं। ऐसी मूर्तियों में वे द्विभुज हैं और उनका मस्तक मंगलचिह्नों से शोभित सर्पफणों से अलंकृत है। बलराम का दाहिना हाथ अभयमुद्रा में उठा हुआ है और बाएँ में मदिरा का चषक है। बहुधा मूर्तियों के पीछे की ओर सर्प का आभोग दिखलाया गया है। कुषाण काल के मध्य में ही व्यूहमूर्तियों का और अवतारमूर्तियों का भेद समाप्तप्राय हो गया था, परिणामत: बलराम की ऐसी मूर्तियाँ भी बनने लगीं जिनमें नागफणाओं के साथ ही उन्हें हल मूसल से युक्त दिखलाया जाने लगा। गुप्तकाल में बलराम की मूर्तियों में विशेष परिवर्तन नहीं हुआ। उनके द्विभुज और चतुर्भुज दोनों रूप चलते थे। कभी-कभी उनका एक ही कुंडल पहने रहना "बृहत्संहिता" से अनुमोदित था। स्वतंत्र रूप के अतिरिक्त बलराम तीर्थंकर नेमिनाथ के साथ, देवी एकानंशा के साथ, कभी दशावतारों की पंक्ति में दिखलाई पड़ते हैं। कुषाण और गुप्तकाल की कुछ मूर्तियों में बलराम को सिंहशीर्ष से युक्त हल पकड़े हुए अथवा सिंहकुंडल पहिने हुए दिखलाया गया है। इनका सिंह से संबंध कदाचित् जैन परंपरा पर आधारित है। मध्यकाल में पहुँचते-पहुँचते ब्रज क्षेत्र के अतिरिक्त - जहाँ कुषाणकालीन मदिरा पीने वाले द्विभुज बलराम मूर्तियों की परंपरा ही चलती रही - बलराम की प्रतिमा का स्वरूप बहुत कुछ स्थिर हो गया। हल, मूसल तथा मद्यपात्र धारण करनेवाले सर्पफणाओं से सुशोभित बलदेव बहुधा समपद स्थिति में अथवा कभी एक घुटने को किंचित झुकाकर खड़े दिखलाई पड़ते हैं। कभी-कभी रेवती भी साथ में रहती हैं। .

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ब्रह्मा

ब्रह्मा  सनातन धर्म के अनुसार सृजन के देव हैं। हिन्दू दर्शनशास्त्रों में ३ प्रमुख देव बताये गये है जिसमें ब्रह्मा सृष्टि के सर्जक, विष्णु पालक और महेश विलय करने वाले देवता हैं। व्यासलिखित पुराणों में ब्रह्मा का वर्णन किया गया है कि उनके चार मुख हैं, जो चार दिशाओं में देखते हैं।Bruce Sullivan (1999), Seer of the Fifth Veda: Kr̥ṣṇa Dvaipāyana Vyāsa in the Mahābhārata, Motilal Banarsidass, ISBN 978-8120816763, pages 85-86 ब्रह्मा को स्वयंभू (स्वयं जन्म लेने वाला) और चार वेदों का निर्माता भी कहा जाता है।Barbara Holdrege (2012), Veda and Torah: Transcending the Textuality of Scripture, State University of New York Press, ISBN 978-1438406954, pages 88-89 हिन्दू विश्वास के अनुसार हर वेद ब्रह्मा के एक मुँह से निकला था। ज्ञान, विद्या, कला और संगीत की देवी सरस्वती ब्रह्मा की पत्नी हैं। बहुत से पुराणों में ब्रह्मा की रचनात्मक गतिविधि उनसे बड़े किसी देव की मौजूदगी और शक्ति पर निर्भर करती है। ये हिन्दू दर्शनशास्त्र की परम सत्य की आध्यात्मिक संकल्पना ब्रह्मन् से अलग हैं।James Lochtefeld, Brahman, The Illustrated Encyclopedia of Hinduism, Vol.

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बृहस्पति

कोई विवरण नहीं।

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बोधिसत्व

बौद्ध धर्म में, बोधिसत्व (बोधिसत्त्व; बोधिसत्त) सत्त्व के लिए प्रबुद्ध (शिक्षा दिये हुये) को कहते हैं। पारम्परिक रूप से महान दया से प्रेरित, बोधिचित्त जनित, सभी संवेदनशील प्राणियों के लाभ के लिए सहज इच्छा से बुद्धत्व प्राप्त करने वाले को बोधिसत्व माना जाता है। तिब्बती बौद्ध धर्म के अनुसार, बोधिसत्व मानव द्वारा जीवन में प्राप्त करने योग्य चार उत्कृष्ठ अवस्थाओं में से एक है। बोधिसत्व शब्द का उपयोग समय के साथ विकसित हुआ। प्राचीन भारतीय बौद्ध धर्म के अनुसार, उदाहरण के लिए गौतम बुद्ध के पूर्व जीवन को विशिष्ट रूप से प्रदर्शित करने के लिए काम में लिया जाता था।http://www.britannica.com/EBchecked/topic/70982/bodhisattva दस पारमिताओं का पूर्ण पालन करने वाला बोधिसत्व कहलाता है। बोधिसत्व जब दस बलों या भूमियों (मुदिता, विमला, दीप्ति, अर्चिष्मती, सुदुर्जया, अभिमुखी, दूरंगमा, अचल, साधुमती, धम्म-मेघा) को प्राप्त कर लेते हैं तब " गौतम बुद्ध " कहलाते हैं, बुद्ध बनना ही बोधिसत्व के जीवन की पराकाष्ठा है। इस पहचान को बोधि (ज्ञान) नाम दिया गया है। कहा जाता है कि बुद्ध शाक्यमुनि केवल एक बुद्ध हैं - उनके पहले बहुत सारे थे और भविष्य में और होंगे। उनका कहना था कि कोई भी बुद्ध बन सकता है अगर वह दस पारमिताओं का पूर्ण पालन करते हुए बोधिसत्व प्राप्त करे और बोधिसत्व के बाद दस बलों या भूमियों को प्राप्त करे। बौद्ध धर्म का अन्तिम लक्ष्य है सम्पूर्ण मानव समाज से दुःख का अंत। "मैं केवल एक ही पदार्थ सिखाता हूँ - दुःख है, दुःख का कारण है, दुःख का निरोध है, और दुःख के निरोध का मार्ग है" (बुद्ध)। बौद्ध धर्म के अनुयायी अष्टांगिक मार्ग पर चलकर न के अनुसार जीकर अज्ञानता और दुःख से मुक्ति और निर्वाण पाने की कोशिश करते हैं। .

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भरत चक्रवर्ती

भरत चक्रवर्ती, प्रथम तीर्थंकर ऋषभदेव के ज्येष्ठ पुत्र थे। जैन और हिन्दू पुराणों के अनुसार वह चक्रवर्ती सम्राट थे और उन्ही के नाम पर भारत का नाम "भारतवर्ष" पड़ा। हिन्दू ग्रन्थ, स्कन्द पुराण (अध्याय ३७) के अनुसार: "ऋषभदेव नाभिराज के पुत्र थे, ऋषभ के पुत्र भरत थे, और इनके ही नाम पर इस देश का नाम "भारतवर्ष" पड़ा"| ऋषभो मरुदेव्याश्च ऋषभात भरतो भवेत् भरताद भारतं वर्षं, भरतात सुमतिस्त्वभूत् — विष्णु पुराण (2, 1, 31) ततश्च भारतं वर्षमेतल्लोकेषुगीयते भरताय यत: पित्रा दत्तं प्रतिष्ठिता वनम - विष्णु पुराण (2, 1, 32) .

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भीम

हिन्दू धर्म के महाकाव्य महाभारत के अनुसार भीम पाण्डवों में दूसरे स्थान पर थे। वे पवनदेव के वरदान स्वरूप कुन्ती से उत्पन्न हुए थे, लेकिन अन्य पाण्डवों के विपरीत भीम की प्रशंसा पाण्डु द्वारा की गई थी। सभी पाण्डवों में वे सर्वाधिक बलशाली और श्रेष्ठ कद-काठी के थे एवं युधिष्ठिर के सबसे प्रिय सहोदर थे। उनके पौराणिक बल का गुणगान पूरे काव्य में किया गया है। जैसे:- "सभी गदाधारियों में भीम के समान कोई नहीं है और ऐसा भी कोई को गज की सवारी करने में इतना योग्य हो और बल में तो वे दस हज़ार हाथियों के समान है। युद्ध कला में पारंगत और सक्रिय, जिन्हे यदि क्रोध दिलाया जाए जो कई धृतराष्ट्रों को वे समाप्त कर सकते हैं। सदैव रोषरत और बलवान, युद्ध में तो स्वयं इन्द्र भी उन्हें परास्त नहीं कर सकते।" वनवास काल में इन्होने अनेक राक्षसों का वध किया जिसमे बकासुर एवं हिडिंब आदि प्रमुख हैं एवं अज्ञातवास में विराट नरेश के साले कीचक का वध करके द्रौपदी की रक्षा की। यह गदा युद़्ध में बहुत ही प्रवीण थे एवं बलराम के शिष़्य थे। युधिष्ठिर के राजसूय यज्ञ में राजाओं की कमी होने पर उन्होने मगध के शासक जरासंघ को परास्त करके ८६ राजाओं को मुक्त कराया। द्रौपदी के चीरहरण का बदला लेने के लिए उन्होने दुःशासन की क्षाती फाड कर उसका रक्त पान किया। महाभारत के युद्ध में भीम ने ही सारे कौरव भाईयों का वध किया था। इन्ही के द्वारा दुर्योधन के वध के साथ ही महाभारत के युद्ध का अंत हो गया। .

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भीष्म

भीष्म अथवा भीष्म पितामह महाभारत के सबसे महत्वपूर्ण पात्रों में से एक थे। भीष्म पितामह गंगा तथा शान्तनु के पुत्र थे। उनका मूल नाम देवव्रत था। इन्होंने आजीवन ब्रह्मचर्य जैसी प्रतिज्ञा लेके मृत्यु को भी अपने अधीन कर लिया था। आज के समय मे ब्रह्मचारी कोई नही है। सब इन्द्रियों के ग़ुलाम है, और कहते है की स्वतंत्र है । इनके दूसरे नाम गाँगेय, शांतनव, नदीज, तालकेतु आदि हैं। भगवान परशुराम के शिष्य देवव्रत अपने समय के बहुत ही विद्वान व शक्तिशाली पुरुष थे। महाभारत के अनुसार हर तरह की शस्त्र विद्या के ज्ञानी और ब्रह्मचारी देवव्रत को किसी भी तरह के युद्ध में हरा पाना असंभव था। उन्हें संभवत: उनके गुरु परशुराम ही हरा सकते थे लेकिन इन दोनों के बीच हुआ युद्ध पूर्ण नहीं हुआ और दो अति शक्तिशाली योद्धाओं के लड़ने से होने वाले नुकसान को आंकते हुए इसे भगवान शिव द्वारा रोक दिया गया। इन्हें अपनी उस भीष्म प्रतिज्ञा के लिये भी सर्वाधिक जाना जाता है जिसके कारण इन्होंने राजा बन सकने के बावजूद आजीवन हस्तिनापुर के सिंहासन के संरक्षक की भूमिका निभाई। इन्होंने आजीवन विवाह नहीं किया व ब्रह्मचारी रहे। इसी प्रतिज्ञा का पालन करते हुए महाभारत में उन्होने कौरवों की तरफ से युद्ध में भाग लिया था। इन्हें इच्छा मृत्यु का वरदा था। यह कौरवों के पहले प्रधान सेनापति थे। जो सर्वाधिक दस दिनो तक कौरवों के प्रधान सेनापति रहे थे। कहा जाता है कि द्रोपदी ने शरसय्या पर लेटे हुए भीष्मपितामह से पूछा की उनकी आंखों के सामने चीर हरण हो रहा था और वे चुप रहे तब भीष्मपितामह ने जवाब दिया कि उस समय मै कौरवों के नमक खाता था इस वजह से मुझे मेरी आँखों के सामने एक स्त्री के चीरहरण का कोई फर्क नही पड़ा,परंतु अब अर्जुन ने बानो की वर्षा करके मेरा कौरवों के नमक ग्रहण से बना रक्त निकाल दिया है, अतः अब मुझे अपने पापों का ज्ञान हो रहा है अतः मुझे क्षमा करें द्रोपदी। महाभारत युद्ध खत्म होने पर इन्होंने गंगा किनारे इच्छा मृत्यु ली। .

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मरुद्गण

मरुद्गण (.

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महाभारत

महाभारत हिन्दुओं का एक प्रमुख काव्य ग्रंथ है, जो स्मृति वर्ग में आता है। कभी कभी केवल "भारत" कहा जाने वाला यह काव्यग्रंथ भारत का अनुपम धार्मिक, पौराणिक, ऐतिहासिक और दार्शनिक ग्रंथ हैं। विश्व का सबसे लंबा यह साहित्यिक ग्रंथ और महाकाव्य, हिन्दू धर्म के मुख्यतम ग्रंथों में से एक है। इस ग्रन्थ को हिन्दू धर्म में पंचम वेद माना जाता है। यद्यपि इसे साहित्य की सबसे अनुपम कृतियों में से एक माना जाता है, किन्तु आज भी यह ग्रंथ प्रत्येक भारतीय के लिये एक अनुकरणीय स्रोत है। यह कृति प्राचीन भारत के इतिहास की एक गाथा है। इसी में हिन्दू धर्म का पवित्रतम ग्रंथ भगवद्गीता सन्निहित है। पूरे महाभारत में लगभग १,१०,००० श्लोक हैं, जो यूनानी काव्यों इलियड और ओडिसी से परिमाण में दस गुणा अधिक हैं। हिन्दू मान्यताओं, पौराणिक संदर्भो एवं स्वयं महाभारत के अनुसार इस काव्य का रचनाकार वेदव्यास जी को माना जाता है। इस काव्य के रचयिता वेदव्यास जी ने अपने इस अनुपम काव्य में वेदों, वेदांगों और उपनिषदों के गुह्यतम रहस्यों का निरुपण किया हैं। इसके अतिरिक्त इस काव्य में न्याय, शिक्षा, चिकित्सा, ज्योतिष, युद्धनीति, योगशास्त्र, अर्थशास्त्र, वास्तुशास्त्र, शिल्पशास्त्र, कामशास्त्र, खगोलविद्या तथा धर्मशास्त्र का भी विस्तार से वर्णन किया गया हैं। .

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माद्री

माद्री राजा पाण्डु की दूसरी रानी थी। उसके बेटे नकुल और सहदेव थे। माद्री पारस में माद्रा राज्य की राजकुमारी राजा शल्य की बहिन थी। पुरानी पारसी में माद्रा को मादा कहा गया है। ये मेड साम्राज्य का नाम था। पाण्डव श्रेणी:महाभारत के पात्र.

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यम

; महर्षि पतंजलि द्वारा योगसूत्र में वर्णित पाँच यम-.

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युधिष्ठिर

प्राचीन भारत के महाकाव्य महाभारत के अनुसार युधिष्ठिर पांच पाण्डवों में सबसे बड़े भाई थे। वह पांडु और कुंती के पहले पुत्र थे। युधिष्ठिर को धर्मराज (यमराज) पुत्र भी कहा जाता है। वो भाला चलाने में निपुण थे और वे कभी झूठ नहीं बोलते थे। महाभारत के अंतिम दिन उसने अपने मामा शलय का वध किया जो कौरवों की तरफ था। .

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रुद्र

रुद्र देवता वैदिक वाङ्मय में एक शक्तिशाली देवता माने गये हैं। ये ऋग्वेद में वर्णन की मात्रात्मक दृष्टि से गौण देवता के रूप में ही वर्णित हैं। ऋग्वेद में रुद्र की स्तुति 'बलवानों में सबसे अधिक बलवान' कहकर की गयी है। यजुर्वेद का रुद्राध्याय रुद्र देवता को समर्पित है। इसके अन्तर्गत आया हुआ मंत्र शैव सम्प्रदाय में भी बहुत महत्त्वपूर्ण माना जाता है। रुद्र को ही कल्याणकारी होने से शिव कहा गया है। वैदिक वाङ्मय में मुख्यतः एक ही रुद्र की बात कही गयी हैं; परन्तु पुराणों में एकादश रुद्र की मान्यता अत्यधिक प्रधान हो गयी है। .

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रुक्मिणी

रुक्मिणी भगवान कृष्ण की पत्नी थी। रुक्मिणी को लक्ष्मी का अवतार भी माना जाता है। उन्होंने श्रीकृष्ण से प्रेम विवाह किया था श्रेणी:कृष्ण.

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लक्ष्मी

लक्ष्मी हिन्दू धर्म की एक प्रमुख देवी हैं। वो भगवान विष्णु की पत्नी हैं और धन, सम्पदा, शान्ति और समृद्धि की देवी मानी जाती हैं। दीपावली के त्योहार में उनकी गणेश सहित पूजा की जाती है। गायत्री की कृपा से मिलने वाले वरदानों में एक लक्ष्मी भी है। जिस पर यह अनुग्रह उतरता है, वह दरिद्र, दुर्बल, कृपण, असंतुष्ट एवं पिछड़ेपन से ग्रसित नहीं रहता। स्वच्छता एवं सुव्यवस्था के स्वभाव को भी 'श्री' कहा गया है। यह सद्गुण जहाँ होंगे, वहाँ दरिद्रता, कुरुपता टिक नहीं सकेगी। पदार्थ को मनुष्य के लिए उपयोगी बनाने और उसकी अभीष्ट मात्रा उपलब्ध करने की क्षमता को लक्ष्मी कहते हैं। यों प्रचलन में तो 'लक्ष्मी' शब्द सम्पत्ति के लिए प्रयुक्त होता है, पर वस्तुतः वह चेतना का एक गुण है, जिसके आधार पर निरुपयोगी वस्तुओं को भी उपयोगी बनाया जा सकता है। मात्रा में स्वल्प होते हुए भी उनका भरपूर लाभ सत्प्रयोजनों के लिए उठा लेना एक विशिष्ट कला है। वह जिसे आती है उसे लक्ष्मीवान्, श्रीमान् कहते हैं। शेष अमीर लोगों को धनवान् भर कहा जाता है। गायत्री की एक किरण लक्ष्मी भी है। जो इसे प्राप्त करता है, उसे स्वल्प साधनों में भी अथर् उपयोग की कला आने के कारण सदा सुसम्पन्नों जैसी प्रसन्नता बनी रहती है। .

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शची

ऐरावत पर सवार इन्द्र और शाची; जैन ग्रन्थ पंचकल्याणक (१६७०-८०) से) शची इन्द्र की पत्नी और पुलोमा की कन्या थीं। द्रौपदी इन्हीं के अंश से उत्पन्न हुई थीं और ये स्वयं प्रकृति की अन्यतम कला से जन्मी थीं। जयंत शची के ही पुत्र थे। शची को 'इन्द्राणी', 'ऐन्द्री', 'महेन्द्री', 'पुलोमजा', 'पौलोमी' आदि नामों से भी जाना जाता है। ब्रह्महत्या के भय से एक बार जब इन्द्र जलगर्भ में छिपे हुए थे तो देवताओं ने नहुष को इंद्रपद दे दिया। नहुष ने शची पर कुदृष्टि की तो बृहस्पति की आज्ञा से उन्होंने भुवनेश्वरी की आराधना की और उनसे अभय प्राप्त किया। फिर शची ने मानसरोवर जाकर छिपे हुए इंद्र से अपनी सारी कथा कही। इंद्र की सलाह से शची ने नहुष से कहलाया 'यदि सप्तर्षियों के कंधे पर रखी पालकी में बैठकर आवें तो मैं तुम्हारे साथ चलूँगी।' नहुष ने ऐसा ही किया। ऋषियों को धीरे धीरे चलते देखकर उसने आदेश दिया 'सर्प सर्प' (जल्दी चलो) अंततोगत्वा ऋषियों के शाप से नहुष को सर्प हो जाना पड़ा। अपने विवाह के पूर्व शची ने शंकर से सुंदर पति, स्वेच्छामत रूप तथा सुख एवं आयु का वरदान माँगा था। ऋग्वेद में शचीरचित कुछ सूक्त हैं जिनमें सपत्नी का नाश करने के लिए प्रार्थना की गई है (ऋचा, 10-159)। कुछ विद्वानों के मत से सूक्त बहुत बाद की रचनाएँ हैं। श्रेणी:पौराणिक पात्र श्रेणी:ऋषिकाएँ.

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शान्तनु

शांतनु महाभारत के एक प्रमुख पात्र हैं। वे हस्तिनापुर के महाराज प्रतीप के पुत्र थे। उनका विवाह गंगा से हुआ था। जिससे उनका देवव्रत नाम का पुत्र हुआ। यही देवव्रत आगे चलकर महाभारत के प्रमुख पात्र भीष्म के नाम से जाने गए। शान्तनु का दूसरा विवाह निषाद कन्या सत्यवती से हुआ था। इस विवाह को कराने के लिए ही देवव्रत ने राजगद्दी पर न बैठने और आजीवन कुँवारा रहने की भीष्म प्रतिज्ञा की थी, जिसके कारण उनका नाम भीष्म पड़ा। सत्यवती के चित्रांगद और विचित्रवीर्य नामक दो पुत्र थे। श्रेणी:महाभारत के पात्र.

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शिशुपाल

ग़शिशुपाल महाभारत कालीन चेदि राज्य का स्वामी था। महाभारत में चेदि जनपद के निवासियों के लिए आदि पर्व के तिरसठवें अध्याय, छंद संख्या १०-१२ में लिखा है-"चेदि के जनपद धर्मशील, संतोषी ओर साधु हैं। यहाँ हास-परिहास में भी कोई झूठ नहीं बोलता, फिर अन्य अवसरों पर तो बोल ही कैसे सकता है। पुत्र सदा गुरुजनों के हित में लगे रहते हैं, पिता अपने जीते-जी उनका बँटवारा नहीं करते। यहाँ के लोग बैलों को भार ढोने में लगाते और दीनों एवं अनाथों का पोषण करते हैं। सब वर्णों के लोग सदा अपने-अपने धर्म में स्थित रहते हैं"। स्पष्ट है कि शिशुपाल की राज्य व्यवस्था अच्छी थी और चेदि जनपद के लोग सदाचार को महत्त्व देते थे। महाभारत में वर्णन है कि विदर्भराज के रुक्म, रुक्मरथ, रुक्मबाहु, रुक्मकेस तथा रुक्ममाली नामक पाँच पुत्र और एक पुत्री रुक्मणी थी। रुक्मणी सर्वगुण सम्पन्न तथा अति सुन्दरी थी। उसके माता-पिता उसका विवाह कृष्ण के साथ करना चाहते थे किन्तु रुक्म (रुक्मणी का बड़ा भाई) चाहता था कि उसकी बहन का विवाह चेदिराज शिशुपाल के साथ हो। अतः उसने रुक्मणी का टीका शिशुपाल के यहाँ भिजवा दिया। रुक्मणी कृष्ण पर आसक्त थी इसलिये उसने कृष्ण को एक ब्राह्मण के हाथों संदेशा भेजा। कृष्ण ने संदेश लाने वाले ब्राह्मण से कहा, "हे ब्राह्मण देवता! जैसा रुक्मणी मुझसे प्रेम करती हैं वैसे ही मैं भी उन्हीं से प्रेम करता हूँ। मैं जानता हूँ कि रुक्मणी के माता-पिता रुक्मणी का विवाह मुझसे ही करना चाहते हैं परन्तु उनका बड़ा भाई रुक्म मुझ से शत्रुता रखने के कारण उन्हें ऐसा करने से रोक रहा है। तुम जाकर राजकुमारी रुक्मणी से कह दो कि मैं अवश्य ही उनको ब्याह कर लाउँगा।" कृष्ण ने रुक्मणी से विवाह किया पर चेदिराज शिशुपाल ने इसे अपमान समझा और वह कृष्ण को अपना दुश्मन समझने लगा। युधिष्ठिर ने जब राजसूय यज्ञ की तैयारी की तब सभी प्रमुख राजाओं को यज्ञ में आने का निमंत्रण दिया गया जिसमें चेदिराज शिशुपाल भी था। देवपूजा के समय कृष्ण का सम्मान देखकर वह जल गया और उनको गालियाँ देने लगा। उसके इन कटु वचनों की निन्दा करते हुये श्री कृष्ण के अनेक भक्त सभा छोड़ कर चले गये क्योंकि वे श्री कृष्ण की निन्दा नहीं सुन सकते थे। अर्जुन और भीमसेन अनेक राजाओं के साथ उसे मारने के लिये उद्यत हो गये किन्तु श्री कृष्ण ने उन सभी को रोक दिया। जब शिशुपाल श्री कृष्ण को एक सौ गाली दे चुका तब श्री कृष्ण ने गरज कर कहा, "बस शिशुपाल! अब मेरे विषय में तेरे मुख से एक भी अपशब्द निकला तो तेरे प्राण नहीं बचेंगे। मैंने तेरे एक सौ अपशब्दों को क्षमा करने की प्रतिज्ञा की थी इसी लिये अब तक तेरे प्राण बचे रहे।" श्री कृष्ण के इन वचनों को सुन कर सभा में उपस्थित शिशुपाल के सारे समर्थक भय से थर्रा गये किन्तु शिशुपाल का विनाश समीप था, अतः उसने काल के वश होकर अपनी तलवार निकालते हुये श्री कृष्ण को फिर से गाली दी। शिशुपाल के मुख से अपशब्द के निकलते ही श्री कृष्ण ने अपना सुदर्शन चक्र चला दिया और पलक झपकते ही शिशुपाल का सिर कट कर गिर गया। मप्र के अशोकनगर जिले में है 'चंदेरी'। यहां एक किंवदंती सदियों से प्रचलित है। और वह यह कि यहां कभी ढाई प्रहर सोने की बारिश हुई थी। यह बारिश द्वापरयुग में तब हुई थी, जब यहां का राजा शिशुपाल हुआ करता था। शिशुपाल ने भगवान श्रीकृष्ण को अपमानित किया था। जिसके चलते भगवान ने उसका सिर, शरीर से सुदर्शन चक्र के द्वारा अलग कर दिया था। तब उसके राज्य चेदि (वर्तमान में संभवतः चंदेरी) में ढाई प्रहर सोने की बारिश हुई थी। यह क्षेत्र बुंदेलखंड में आता है। सोने की बारिश तो द्वारयुग में हुई थी! लेकिन अलग-अलग तरह की बारिश होती रही है। इसका उल्लेख हमारे वैदिक ग्रंथों में भी मिलता है। .

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शिव

शिव या महादेव हिंदू धर्म में सबसे महत्वपूर्ण देवताओं में से एक है। वह त्रिदेवों में एक देव हैं। इन्हें देवों के देव भी कहते हैं। इन्हें भोलेनाथ, शंकर, महेश, रुद्र, नीलकंठ,गंगाधार के नाम से भी जाना जाता है। तंत्र साधना में इन्हे भैरव के नाम से भी जाना जाता है। हिन्दू धर्म के प्रमुख देवताओं में से हैं। वेद में इनका नाम रुद्र है। यह व्यक्ति की चेतना के अन्तर्यामी हैं। इनकी अर्धांगिनी (शक्ति) का नाम पार्वती है। इनके पुत्र कार्तिकेय और गणेश हैं, तथा पुत्री अशोक सुंदरी हैं। शिव अधिक्तर चित्रों में योगी के रूप में देखे जाते हैं और उनकी पूजा शिवलिंग तथा मूर्ति दोनों रूपों में की जाती है। शिव के गले में नाग देवता विराजित हैं और हाथों में डमरू और त्रिशूल लिए हुए हैं। कैलाश में उनका वास है। यह शैव मत के आधार है। इस मत में शिव के साथ शक्ति सर्व रूप में पूजित है। भगवान शिव को संहार का देवता कहा जाता है। भगवान शिव सौम्य आकृति एवं रौद्ररूप दोनों के लिए विख्यात हैं। अन्य देवों से शिव को भिन्न माना गया है। सृष्टि की उत्पत्ति, स्थिति एवं संहार के अधिपति शिव हैं। त्रिदेवों में भगवान शिव संहार के देवता माने गए हैं। शिव अनादि तथा सृष्टि प्रक्रिया के आदिस्रोत हैं और यह काल महाकाल ही ज्योतिषशास्त्र के आधार हैं। शिव का अर्थ यद्यपि कल्याणकारी माना गया है, लेकिन वे हमेशा लय एवं प्रलय दोनों को अपने अधीन किए हुए हैं। राम, रावण, शनि, कश्यप ऋषि आदि इनके भक्त हुए है। शिव सभी को समान दृष्टि से देखते है इसलिये उन्हें महादेव कहा जाता है। .

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शकुनि

शकुनि गंधार साम्राज्य का राजा था। यह स्थान आज के अफ़्ग़ानिस्तान में है। वह हस्तिनापुर महाराज और कौरवों के पिता धृतराष्ट्र का साला था और कौरवों का मामा। दुर्योधन की कुटिल नीतियों के पीछे शकुनि का हाथ माना जाता है और वह कुरुक्षेत्र के युद्ध के लिए दोषियों में प्रमुख माना जाता है। उसने कई बार पाण्डवों के साथ छल किया और अपने भांजे दुर्योधन को पाण्डवों के प्रति कुटिल चालें चलने के लिए उकसाया। .

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शेषनाग

'''शेष-शायी विष्णु''' (शेष पर शयन करते विष्णु) कद्रू से उत्पन्न कश्यप के पुत्र जो नागों में प्रमुख थे। इनके सहस्र (हजार) फणों के कारण इनका दूसरा नाम 'अनंत' है। यह सदा पाताल में ही रहते थे और इनकी एक कला क्षीरसागर में भी है जिसपर विष्णु भगवान शयन करते हैं। अपनी तपस्या द्वारा इन्होंने ब्रह्मा से संपूर्ण पृथ्वी धारण करने का वरदान प्राप्त किया था। लक्ष्मण जी शेषनाग के ही अवतार माने जाते हैं।.

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सत्यकि

सत्यकि यादवों के एक कुल का राजकुमार, वासुदेव कृष्ण का अभिन्न मित्र एवं महाभारत के समय पाण्डवों की ओर से लडने वाला एक योद्धा था। वह उन चंद लोंगों में से था जो कि महाभारत के बाद जीवित बच गए थे। .

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सनत्कुमार

ब्रह्मा के चार मानसपुत्रों (कुमारों) को सामूहिक रूप से सनत्कुमार कहते हैं। .

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सहदेव

सहदेव महाभारत में पाँच पांडवों में से एक और सबसे छोटा था। वह माता माद्री के असमान जुड़वा पुत्रों में से एक थे, जिनका जन्म देव चिकित्सक अश्विनों के वरदान स्वरूप हुआ था। जब नकुल और सहदेव का जन्म हुआ था तब यह आकाशवाणी हुई की, ‘शक्ति और रूप में ये जुड़वा बंधु स्वयं जुड़वा अश्विनों से भी बढ़कर होंगे।’ .

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सुभद्रा

कृष्ण और बलराम की बहन, महाभारत की एक पात्र। कृष्ण के सुझाव पर सुभद्रा का विवाह अर्जुन से हुआ था, अभिमन्यु इनका ही पुत्र था। श्रेणी:महाभारत के पात्र.

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सूर्य

सूर्य अथवा सूरज सौरमंडल के केन्द्र में स्थित एक तारा जिसके चारों तरफ पृथ्वी और सौरमंडल के अन्य अवयव घूमते हैं। सूर्य हमारे सौर मंडल का सबसे बड़ा पिंड है और उसका व्यास लगभग १३ लाख ९० हज़ार किलोमीटर है जो पृथ्वी से लगभग १०९ गुना अधिक है। ऊर्जा का यह शक्तिशाली भंडार मुख्य रूप से हाइड्रोजन और हीलियम गैसों का एक विशाल गोला है। परमाणु विलय की प्रक्रिया द्वारा सूर्य अपने केंद्र में ऊर्जा पैदा करता है। सूर्य से निकली ऊर्जा का छोटा सा भाग ही पृथ्वी पर पहुँचता है जिसमें से १५ प्रतिशत अंतरिक्ष में परावर्तित हो जाता है, ३० प्रतिशत पानी को भाप बनाने में काम आता है और बहुत सी ऊर्जा पेड़-पौधे समुद्र सोख लेते हैं। इसकी मजबूत गुरुत्वाकर्षण शक्ति विभिन्न कक्षाओं में घूमते हुए पृथ्वी और अन्य ग्रहों को इसकी तरफ खींच कर रखती है। सूर्य से पृथ्वी की औसत दूरी लगभग १४,९६,००,००० किलोमीटर या ९,२९,६०,००० मील है तथा सूर्य से पृथ्वी पर प्रकाश को आने में ८.३ मिनट का समय लगता है। इसी प्रकाशीय ऊर्जा से प्रकाश-संश्लेषण नामक एक महत्वपूर्ण जैव-रासायनिक अभिक्रिया होती है जो पृथ्वी पर जीवन का आधार है। यह पृथ्वी के जलवायु और मौसम को प्रभावित करता है। सूर्य की सतह का निर्माण हाइड्रोजन, हिलियम, लोहा, निकेल, ऑक्सीजन, सिलिकन, सल्फर, मैग्निसियम, कार्बन, नियोन, कैल्सियम, क्रोमियम तत्वों से हुआ है। इनमें से हाइड्रोजन सूर्य के सतह की मात्रा का ७४ % तथा हिलियम २४ % है। इस जलते हुए गैसीय पिंड को दूरदर्शी यंत्र से देखने पर इसकी सतह पर छोटे-बड़े धब्बे दिखलाई पड़ते हैं। इन्हें सौर कलंक कहा जाता है। ये कलंक अपने स्थान से सरकते हुए दिखाई पड़ते हैं। इससे वैज्ञानिकों ने निष्कर्ष निकाला है कि सूर्य पूरब से पश्चिम की ओर २७ दिनों में अपने अक्ष पर एक परिक्रमा करता है। जिस प्रकार पृथ्वी और अन्य ग्रह सूरज की परिक्रमा करते हैं उसी प्रकार सूरज भी आकाश गंगा के केन्द्र की परिक्रमा करता है। इसको परिक्रमा करनें में २२ से २५ करोड़ वर्ष लगते हैं, इसे एक निहारिका वर्ष भी कहते हैं। इसके परिक्रमा करने की गति २५१ किलोमीटर प्रति सेकेंड है। Barnhart, Robert K. (1995) The Barnhart Concise Dictionary of Etymology, page 776.

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हनुमान

हनुमान (संस्कृत: हनुमान्, आंजनेय और मारुति भी) परमेश्वर की भक्ति (हिंदू धर्म में भगवान की भक्ति) की सबसे लोकप्रिय अवधारणाओं और भारतीय महाकाव्य रामायण में सबसे महत्वपूर्ण व्यक्तियों में प्रधान हैं। वह कुछ विचारों के अनुसार भगवान शिवजी के ११वें रुद्रावतार, सबसे बलवान और बुद्धिमान माने जाते हैं। रामायण के अनुसार वे जानकी के अत्यधिक प्रिय हैं। इस धरा पर जिन सात मनीषियों को अमरत्व का वरदान प्राप्त है, उनमें बजरंगबली भी हैं। हनुमान जी का अवतार भगवान राम की सहायता के लिये हुआ। हनुमान जी के पराक्रम की असंख्य गाथाएं प्रचलित हैं। इन्होंने जिस तरह से राम के साथ सुग्रीव की मैत्री कराई और फिर वानरों की मदद से राक्षसों का मर्दन किया, वह अत्यन्त प्रसिद्ध है। ज्योतिषीयों के सटीक गणना के अनुसार हनुमान जी का जन्म 1 करोड़ 85 लाख 58 हजार 112 वर्ष पहले तथा लोकमान्यता के अनुसार त्रेतायुग के अंतिम चरण में चैत्र पूर्णिमा को मंगलवार के दिन चित्रा नक्षत्र व मेष लग्न के योग में सुबह 6.03 बजे भारत देश में आज के झारखंड राज्य के गुमला जिले के आंजन नाम के छोटे से पहाड़ी गाँव के एक गुफ़ा में हुआ था। इन्हें बजरंगबली के रूप में जाना जाता है क्योंकि इनका शरीर एक वज्र की तरह था। वे पवन-पुत्र के रूप में जाने जाते हैं। वायु अथवा पवन (हवा के देवता) ने हनुमान को पालने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई थी। मारुत (संस्कृत: मरुत्) का अर्थ हवा है। नंदन का अर्थ बेटा है। हिंदू पौराणिक कथाओं के अनुसार हनुमान "मारुति" अर्थात "मारुत-नंदन" (हवा का बेटा) हैं। हनुमान प्रतिमा .

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जरासन्ध

A painting from the Mahabharata Balabhadra fighting Jarasandha जरासंध महाभारत कालीन मगध राज्य का नरेश था। वह बहुत ही शक्तिशाली राजा था और उसका सपना चक्रवती सम्राट बनने का था। यद्यपि वह एक शक्तिशाली राजा तो था, लेकिन वह था बहुत क्रूर। अजेय हो क अपना सपना पूरा करने के लिए उसने बहुत से राजाओं को अपने कारागार में बंदी बनाकर रखा था। वह मथुरा के यदुवँशी नरेश कंस का ससुर एवं परम मित्र था उसकी दोनो पुत्रियो आसित एव्म प्रापित का विवाह कंस से हुआ था। श्रीकृष्ण से कंस वध का प्रतिशोध लेने के लिए उसने १७ बार मथुरा पर चढ़ाई की लेकिन हर बार उसे असफल होना पड़ा। जरासंध श्री कृष्ण का परम शत्रु और एक योद्धा था। .

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वरुण (देव)

वरुण हिन्दू धर्म के एक प्रमुख देवता हैं। प्राचीन वैदिक धर्म में उनका स्थान बहुत ही महत्त्वपूर्ण था पर वेदों में उसका रूप इतना अमूर्त हैं कि उसका प्राकृतिक चित्रण मुश्किल है। माना जाता है कि वरुण की स्थिति अन्य वैदिक देवताओं की अपेक्षा प्राचीन है, इसीलिए वैदिक युग में वरुण किसी प्राकृतिक उपादान का वाचक नहीं है। अग्नि व इंद्र की अपेक्षा वरुण को संबोधित सूक्तों की मात्रा बहुत कम है फिर भी उसका महत्व कम नहीं है। इंद्र को महान योद्धा के रूप में जाना जाता है तो वरुण को नैतिक शक्ति का महान पोषक माना गया है, वह ऋत (सत्य) का पोषक है। अधिकतर सूक्तों में वस्र्ण के प्रति उदात्त भक्ति की भावना दिखाई देती है। ऋग्वेद के अधिकतर सूक्तों में वरुण से किए गए पापों के लिए क्षमा प्रार्थना की गई हैं। वरुण को अन्य देवताओं जैसे इंद्र आदि के साथ भी वर्णित किया गया है। वरुण से संबंधित प्रार्थनाओं में भक्ति भावना की पराकाष्ठा दिखाई देती है। उदाहरण के लिए ऋग्वेद के सातवें मंडल में वस्र्ण के लिए सुंदर प्रार्थना गीत मिलते हैं। उनको "असुर" की उपाधी दी गयी थी, मतलब की वो "देव" देवताओं के समूह से अलग थे। उनके पास जादुई शक्ति मानी जाती थी, जिसका नाम था माया। उनको इतिहासकार मानते हैं कि असुर वरुण ही पारसी धर्म में "अहुरा मज़्दा" कहलाए। बाद की पौराणिक कथाओं में वरुण को मामूली जल-देव बना दिया गया। श्रेणी:हिन्दू धर्म श्रेणी:इन्द्र लोक के देवता.

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वसु

हिन्दू धर्म में आठ वसु हैं जो इन्द्र या विष्णु के रक्षक देव हैं। 'वसु' शब्द का अर्थ 'वसने वाला' या 'वासी' है। .

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वसुदेव

वसुदेव यदुवंशी शूर तथा मारिषा के पुत्र, कृष्ण के पिता, कुंती के भाई और मथुरा के राजा उग्रसेन के मंत्री थे। इनका विवाह देवक अथवा आहुक की सात कन्याओं से हुआ था जिनमें देवकी सर्वप्रमुख थी। वसुदेव के नाम पर ही कृष्ण को 'वासुदेव' (अर्थात् 'वसुदेव के पुत्र') कहते हैं। वसुदेव के जन्म के समय देवताओं ने आनक और दुंदुभि बजाई थी जिससे इनका एक नाम 'आनकदुंदुभि' भी पड़ा। वसुदेव ने स्यमंतपंचक क्षेत्र में अश्वमेध यज्ञ किया था। कृष्ण की मृत्यु से उद्विग्न होकर इन्होंने प्रभासक्षेत्र में देहत्याग किया। श्रेणी:महाभारत के पात्र श्रेणी:महाभारत के पात्र.

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वायु

वायु पंचमहाभूतों मे एक हैं| अन्य है पृथिवी, जल, अग्नि व आकाश वायु वस्तुत: गैसो का मिश्रण है, जिसमे अनेक प्रकार की गैस जैसे जारक, प्रांगार द्विजारेय, नाट्रोजन, उदजन ईत्यादि शामिल है।.

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विदुर

विदुर की आत्मा का युधिष्ठिर में प्रवेश thumb विदुर (अर्थ कुशल, बुद्धिमान अथवा मनीषी) हिन्दू ग्रन्थ महाभारत के केन्द्रीय पात्रों में से एक व हस्तिनापुर के प्रधानमंत्री, कौरवो और पांडवो के काका और धृतराष्ट्र एवं पाण्डु के भाई थे। उनका जन्म एक दासी के गर्भ से हुआ था। विदुर को धर्मराज का अवतार भी माना जाता है। .

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विष्णु

वैदिक समय से ही विष्णु सम्पूर्ण विश्व की सर्वोच्च शक्ति तथा नियन्ता के रूप में मान्य रहे हैं। हिन्दू धर्म के आधारभूत ग्रन्थों में बहुमान्य पुराणानुसार विष्णु परमेश्वर के तीन मुख्य रूपों में से एक रूप हैं। पुराणों में त्रिमूर्ति विष्णु को विश्व का पालनहार कहा गया है। त्रिमूर्ति के अन्य दो रूप ब्रह्मा और शिव को माना जाता है। ब्रह्मा को जहाँ विश्व का सृजन करने वाला माना जाता है, वहीं शिव को संहारक माना गया है। मूलतः विष्णु और शिव तथा ब्रह्मा भी एक ही हैं यह मान्यता भी बहुशः स्वीकृत रही है। न्याय को प्रश्रय, अन्याय के विनाश तथा जीव (मानव) को परिस्थिति के अनुसार उचित मार्ग-ग्रहण के निर्देश हेतु विभिन्न रूपों में अवतार ग्रहण करनेवाले के रूप में विष्णु मान्य रहे हैं। पुराणानुसार विष्णु की पत्नी लक्ष्मी हैं। कामदेव विष्णु जी का पुत्र था। विष्णु का निवास क्षीर सागर है। उनका शयन शेषनाग के ऊपर है। उनकी नाभि से कमल उत्पन्न होता है जिसमें ब्रह्मा जी स्थित हैं। वह अपने नीचे वाले बाएँ हाथ में पद्म (कमल), अपने नीचे वाले दाहिने हाथ में गदा (कौमोदकी),ऊपर वाले बाएँ हाथ में शंख (पाञ्चजन्य) और अपने ऊपर वाले दाहिने हाथ में चक्र(सुदर्शन) धारण करते हैं। शेष शय्या पर आसीन विष्णु, लक्ष्मी व ब्रह्मा के साथ, छंब पहाड़ी शैली के एक लघुचित्र में। .

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व्यास

कोई विवरण नहीं।

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गांधारी

गांधारी महाभारत की एक पात्र हैं। वो महाराज धृतराष्ट्र की पत्नी थी और प्रमुख खलनायक दुर्योधन की माँ थीं। गांधारी देख सकती थीं लेकिन पति के आँखों से विकलांग होने के कारण उन्होंने खुद की आँखों पर भी हमेशा के लिए एक पट्टी बाँध ली थी। महाभारत के अनुसार वो सौ पुत्रों की माता थीं। .

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इन्द्र

इन्द्र (या इंद्र) हिन्दू धर्म में सभी देवताओं के राजा का सबसे उच्च पद था जिसकी एक अलग ही चुनाव-पद्धति थी। इस चुनाव पद्धति के विषय में स्पष्ट वर्णन उपलब्ध नहीं है। वैदिक साहित्य में इन्द्र को सर्वोच्च महत्ता प्राप्त है लेकिन पौराणिक साहित्य में इनकी महत्ता निरन्तर क्षीण होती गयी और त्रिदेवों की श्रेष्ठता स्थापित हो गयी। .

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कर्ण

जावानी रंगमंच में कर्ण। कर्ण महाभारत के सबसे प्रमुख पात्रों में से एक है। कर्ण की वास्तविक माँ कुन्ती थी। कर्ण का जन्म कुन्ती का पाण्डु के साथ विवाह होने से पूर्व हुआ था। कर्ण दुर्योधन का सबसे अच्छा मित्र था और महाभारत के युद्ध में वह अपने भाइयों के विरुद्ध लड़ा। वह सूर्य पुत्र था। कर्ण को एक आदर्श दानवीर माना जाता है क्योंकि कर्ण ने कभी भी किसी माँगने वाले को दान में कुछ भी देने से कभी भी मना नहीं किया भले ही इसके परिणामस्वरूप उसके अपने ही प्राण संकट में क्यों न पड़ गए हों। कर्ण की छवि आज भी भारतीय जनमानस में एक ऐसे महायोद्धा की है जो जीवनभर प्रतिकूल परिस्थितियों से लड़ता रहा। बहुत से लोगों का यह भी मानना है कि कर्ण को कभी भी वह सब नहीं मिला जिसका वह वास्तविक रूप से अधिकारी था। तर्कसंगत रूप से कहा जाए तो हस्तिनापुर के सिंहासन का वास्तविक अधिकारी कर्ण ही था क्योंकि वह कुरु राजपरिवार से ही था और युधिष्ठिर और दुर्योधन से ज्येष्ठ था, लेकिन उसकी वास्तविक पहचान उसकी मृत्यु तक अज्ञात ही रही। कर्ण की छवि द्रौपदी का अपमान किए जाने और अभिमन्यु वध में उसकी नकारात्मक भूमिका के कारण धूमिल भी हुई थी लेकिन कुल मिलाकर कर्ण को एक दानवीर और महान योद्धा माना जाता है। .

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कश्यप

आंध्र प्रदेश में कश्यप प्रतिमा वामन अवतार, ऋषि कश्यप एवं अदिति के पुत्र, महाराज बलि के दरबार में। कश्यप ऋषि एक वैदिक ऋषि थे। इनकी गणना सप्तर्षि गणों में की जाती थी। हिन्दू मान्यता अनुसार इनके वंशज ही सृष्टि के प्रसार में सहायक हुए। .

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काम

काम, जीवन के चार पुरुषार्थों (धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष) में से एक है। प्रत्येक प्राणी के भीतर रागात्मक प्रवृत्ति की संज्ञा काम है। वैदिक दर्शन के अनुसार काम सृष्टि के पूर्व में जो एक अविभक्त तत्व था वह विश्वरचना के लिए दो विरोधी भावों में आ गया। इसी को भारतीय विश्वास में यों कहा जाता है कि आरंभ में प्रजापति अकेला था। उसका मन नहीं लगा। उसने अपने शरीर के दो भाग। वह आधे भाग से स्त्री और आधे भाग से पुरुष बन गया। तब उसने आनंद का अनुभव किया। स्त्री और पुरुष का युग्म संतति के लिए आवश्यक है और उनका पारस्परिक आकर्षण ही कामभाव का वास्तविक स्वरूप है। प्रकृति की रचना में प्रत्येक पुरुष के भीतर स्त्री और प्रत्येक स्त्री के भीतर पुरुष की सत्ता है। ऋग्वेद में इस तथ्य की स्पष्ट स्वीकृति पाई जाती है, जैसा अस्यवामीय सूक्त में कहा है—जिन्हें पुरुष कहते हैं वे वस्तुत: स्त्री हैं; जिसके आँख हैं वह इस रहस्य को देखता है; अंधा इसे नहीं समझता। (स्त्रिय: सतीस्तां उ मे पुंस आहु: पश्यदक्षण्वान्न बिचेतदन्ध:। - ऋग्वेद, ३। १६४। १६)। इस सत्य को अर्वाचीन मनोविज्ञान शास्त्री भी पूरी तरह स्वीकार करते हैं। वे मानते हैं कि प्रत्येक पुरुष के मन में एक आदर्श सुंदरी स्त्री बसती है जिसे "अनिमा' कहते हैं और प्रत्येक स्त्री के मन में एक आदर्श तरुण का निवास होता है जिसे "अनिमस' कहते हैं। वस्तुत: न केवल भावात्मक जगत्‌ में किंतु प्राणात्मक और भौतिक संस्थान में भी स्त्री और पुरुष की यह अन्योन्य प्रतिमा विद्यमान रहती है, ऐसा प्रकृति की रचना का विधान है। कायिक, प्राणिक और मानसिक, तीन ही व्यक्तित्व के परस्पर संयुक्त धरातल हैं और इन तीनों में काम का आकर्षण समस्त रागों और वासनाओं के प्रबल रूप में अपना अस्तित्व रखता हे। अर्वाचीन शरीरशास्त्री इसकी व्याख्या यों करते हैं कि पुरुष में स्त्रीलिंगी हार्मोन (Female sex hormones) और स्त्री में पुरुषलिंगी हार्मोंन (male sex hormones) होते हैं। भारतीय कल्पना के अनुसार यही अर्धनारीश्वर है, अर्थात प्रत्येक प्राणी में पुरुष और स्त्री के दोनों अर्ध-अर्ध भाव में सम्मिलित रूप से विद्यमान हैं और शरीर का एक भी कोष ऐसा नहीं जो इस योषा-वृषा-भाव से शून्य हो। यह कहना उपयुक्त होगा कि प्राणिजगत्‌ की मूल रचना अर्धनारीश्वर सूत्र से प्रवृत्त हुई और जितने भी प्राण के मूर्त रूप हैं सबमें उभयलिंगी देवता ओत प्रोत है। एक मूल पक्ष के दो भागों की कल्पना को ही "माता-पिता' कहते हैं। इन्हीं के नाम द्यावा-पृथिवी और अग्नि-सोम हैं। द्यौ: पिता, पृथिवी मता, यही विश्व में माता-पिता हैं। प्रत्येक प्राणी के विकास का जो आकाश या अंतराल है, उसी की सहयुक्त इकाई द्यावा पृथिवी इस प्रतीक के द्वारा प्रकट की जाती है। इसी को जायसी ने इस प्रकार कहा है: द्यावा पृथिवी, माता पिता, योषा वृषा, पुरुष का जो दुर्धर्ष पारस्परिक राग है, वही काम है। कहा जाता है, सृष्टि का मूल प्रजापति का ईक्षण अर्थात्‌ मन है। विराट् में केंद्र के उत्पत्ति को ही मन कहते हैं। इस मन का प्रधान लक्षण काम है। प्रत्येक केंद्र में मन और काम की सत्ता है, इसलिए भारतीय परिभाषा में काम को मनसिज या संकल्पयोनि कहा गया है। मन का जो प्रबुद्ध रूप है उसे ही मन्यु कहते हैं। मन्यु भाव की पूर्ति के लिए जाया भाव आवश्यक है। बिना जाया के मन्यु भाव रौद्र या भयंकर हो जाता है। इसी को भारतीय आख्यान में सत्ती में सती से वियुक्त होने पर शिव के भैरव रूप द्वारा प्रकट किया गया है। वस्तुत: जाया भाव से असंपृक्त प्राण विनाशकारी है। अतृप्त प्राण जिस केंद्र में रहता है उसका विघटन कर डालता है। प्रकृति के विधान में स्त्री पुरुष का सम्मिलन सृष्टि के लिए आवश्यक है और उस सम्मिलन के जिस फल की निष्पति होती है उसे ही कुमार कहते हैं। प्राण का बालक रूप ही नई-नई रचना के लिए आवश्यक है और उसी में अमृतत्व की श्रृंखला की बार-बार लौटनेवाली कड़ियाँ दिखाई पड़ती हैं। आनंद काम का स्वरूप है। यदि मानव के भीतर का आकाश आनंद से व्याप्त न हो तो उसका आयुष्यसूत्र अविच्छन्न हो जाए। पत्नी के रूप में पति अपने आकाश को उससे परिपूर्ण पाता है। अर्वाचीन मनोविज्ञान का मौलिक अन्वेषण यह है कि काम सब वासनाओं की मूलभूत वासना है। यहाँ तक तो यह मान्यता समुचित है, किंतु भारतीय विचार के अनुसार काम रूप की वासना स्वयं ईश्वर का रूप है। वह कोई ऐसी विकृति नहीं है जिसे हेय माना जाए। इस नियम के अनुसार काम प्रजनन के लिए अनिवार्य है और उसका वह छंदोमय मर्यादित रूप अत्यंत पवित्र है। काम वृत्ति की वीभत्स व्याख्या न इष्ट है, न कल्याणकारी। मानवीय शरीर में जिस श्रद्धा, मेधा, क्षुधा, निद्रा, स्मृति आदि अनेक वृत्तियों का समावेश है, उसी प्रकार काम वृत्ति भी देवी की एक कला रूप में यहाँ निवास करती है और वह चेतना का अभिन्न अंग है। .

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कालनेमि

कालनेमि रामायण में एक मायावी राक्षस एवं लंकेश्वर रावण का मामा था। कालनेमि का उल्लेख सनातन धर्म से संबंधित रामायण काव्य में अता है जब लंका युद्ध के समय रावण के पुत्र मेघनाद द्वारा छोड़े गए शक्तिबाण से लक्ष्मण मूर्छित हो गये तो सुषेन वैद्य ने इसका उपचार संजीवनी बूटी बताया जो कि हिमालय पर्वत पर उपलब्ध था। हनुमान ने तुरंत हिमालय के लिये प्रस्थान किया। रावण ने हनुमान को रोकने हेतु मायावी कालनेमि राक्षस को आज्ञा दी। कालनेमि ने माया की रचना की तथा हनुमान को मार्ग में रोक लिया। हनुमान को मायावी कालनेमि का कुटिल उद्देश्य ज्ञात हुआ तो उन्होने उसका वध कर दिया। हनुमान जी ने कालनेमि दानव का वध जिस जगह पर किया आज वह स्थान सुल्तानपुर जिले के कादीपुर तहसील में विजेथुवा महावीरन नाम से सुविख्यात है एवं इस स्थान पर "भगवान हनुमान" को समर्पित एक सुप्रसिद्ध पौराणिक मंदिर भी स्थापित है। .

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कंस

कृष्ण द्वारा कंस का वध किया गया कंस हिन्दू पौराणिक कथाएँ अनुसार यदुकुल के राजा था जिसकी राजधानी मथुरा थी। वह भगवान कृष्ण की मां देवकी का भाई है। कंस को प्रारंभिक स्रोतों में मानव और पुराणों में एक राक्षस के रूप में वर्णित किया गया है। कंस का जन्म राजा उग्रसेन और रानी पद्मावती के यहाँ हुआ था। हालांकि महत्वाकांक्षा से और अपने व्यक्तिगत विश्वासियों, बाणासुर और नरकासुर की सलाह पर, कंस ने अपने पिता को अपदस्थ किया और मथुरा के राजा के रूप में खुद को स्थापित किया। कंस ने मगध के राजा जरासन्ध की बेटियों अस्थी और प्रिप्ती से शादी करने का फैसला किया। एक दिन आकाशवाणी हुई कि देवकी का आठवां पुत्र उसे मार डालेगा। इसलिये उसने देवकी और उसके पति वसुदेव को कैद कर दिया और उनके शुरुआती छः बच्चों को मार डाला (सातवाँ बलराम भी बच गए)। हालांकि आठवें बेटे भगवान विष्णु के अवतार कृष्ण को गोकुल ले जाया गया, जहां उन्हें ग्वाला के मुखिया नंदा की देखभाल में पाला गया था। कंस ने कृष्ण को मारने के लिए कई राक्षसों को भेजा, जिनमें से सभी की कृष्ण द्वारा हत्या कर दी गई थी। अंत में, कृष्ण मथुरा पहुँचते हैं और अपने मामा कंस को मार डालते हैं। .

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कुन्ती

Gandhari, blindfolded, supporting Dhrtarashtra and following Kunti when Dhrtarashtra became old and infirm and retired to the forest. A miniature painting from a sixteenth century manuscript of part of the Razmnama कुंती महाभारत में वर्णित पांडव जो कि पाँच थे, में से बङे तीन की माता थीं। कुन्ती पंच-कन्याओं में से एक हैं जिन्हें चिर-कुमारी कहा जाता है। कुन्ती वसुदेव जी की बहन और भगवान श्रीकृष्ण की बुआ थी। महाराज कुन्तिभोज ने कुन्ती को गोद लिया था। ये हस्तिनापुर के नरेश महाराज पांडु की पहली पत्नी थीं। कुंती को कुंआरेपन में महर्षि दुर्वासा ने एक वरदान दिया था जिसमें कुंती किसी भी देवता का आवाहन कर सकती थी और उन देवताओं से संतान प्राप्त कर सकती थी। पाण्डु एवं कुंती ने इस वरदान का प्रयोग किया एवं धर्मराज, वायु एवं इंद्र देवता का आवाहन किया। अर्जुन तीसरे पुत्र थे जो देवताओं के राजा इंद्र से हुए। कुंती का एक नाम पृथा भी था। उधिस्थिर यमराज और कुंती का पुत्र था। भीम वायु और कुंती का पुत्र था। अर्जुन इन्द्र और कुंती का पुत्र था। सहदेव और नकुल अश्विनीकुमार और माद्री का पुत्र था। और अश्विनीकुमार देवो के वेध है। .

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कौरव

कौरव महाभारत के विशिष्ट पात्र हैं। कौरवों की संख्या १०० थी तथा वे सभी सहोदर थे। युधिष्ठिर के पुत्र लछमण कुमार की पत्नी गर्भवती थी उसका मायका मथुरा में था सीरीपत जी की पुत्री थी महाभारत युद्ध समाप्त होने के बाद वो अपने मायके चली गयी वहां कुलगुरु कृपाचार्य के वंशज रहते थे उन्होंने उस लड़की की रक्षा की कानावती से पुत्र कानकुंवर हुआ नौ पीढ़ी तक मथुरा में रहने के बाद विजय पाल ने बिहार स्टेट में वैशाली का राज किया जो अब मध्य प्रदेश के नरसिंहपुर-ग्वालियर-भिंड-दतिया जबलपुर, विदिशा, भोपाल, रायसेन, होशंगाबाद, आदि जिलो में रहते हैं। .

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कृष्ण

बाल कृष्ण का लड्डू गोपाल रूप, जिनकी घर घर में पूजा सदियों से की जाती रही है। कृष्ण भारत में अवतरित हुये भगवान विष्णु के ८वें अवतार और हिन्दू धर्म के ईश्वर हैं। कन्हैया, श्याम, केशव, द्वारकेश या द्वारकाधीश, वासुदेव आदि नामों से भी उनको जाना जाता हैं। कृष्ण निष्काम कर्मयोगी, एक आदर्श दार्शनिक, स्थितप्रज्ञ एवं दैवी संपदाओं से सुसज्ज महान पुरुष थे। उनका जन्म द्वापरयुग में हुआ था। उनको इस युग के सर्वश्रेष्ठ पुरुष युगपुरुष या युगावतार का स्थान दिया गया है। कृष्ण के समकालीन महर्षि वेदव्यास द्वारा रचित श्रीमद्भागवत और महाभारत में कृष्ण का चरित्र विस्तुत रूप से लिखा गया है। भगवद्गीता कृष्ण और अर्जुन का संवाद है जो ग्रंथ आज भी पूरे विश्व में लोकप्रिय है। इस कृति के लिए कृष्ण को जगतगुरु का सम्मान भी दिया जाता है। कृष्ण वसुदेव और देवकी की ८वीं संतान थे। मथुरा के कारावास में उनका जन्म हुआ था और गोकुल में उनका लालन पालन हुआ था। यशोदा और नन्द उनके पालक माता पिता थे। उनका बचपन गोकुल में व्यतित हुआ। बाल्य अवस्था में ही उन्होंने बड़े बड़े कार्य किये जो किसी सामान्य मनुष्य के लिए सम्भव नहीं थे। मथुरा में मामा कंस का वध किया। सौराष्ट्र में द्वारका नगरी की स्थापना की और वहाँ अपना राज्य बसाया। पांडवों की मदद की और विभिन्न आपत्तियों में उनकी रक्षा की। महाभारत के युद्ध में उन्होंने अर्जुन के सारथी की भूमिका निभाई और भगवद्गीता का ज्ञान दिया जो उनके जीवन की सर्वश्रेष्ठ रचना मानी जाती है। १२५ वर्षों के जीवनकाल के बाद उन्होंने अपनी लीला समाप्त की। उनकी मृत्यु के तुरंत बाद ही कलियुग का आरंभ माना जाता है। .

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अदिति

अदिति कश्यप ऋषि की दूसरी पत्नी थीं। इनके बारह पुत्र हुए जो आदित्य कहलाए (अदितेः अपत्यं पुमान् आदित्यः)। उन्हें देवता भी कहा जाता है। अतः अदिति को देवमाता कहा जाता है। संस्कृत शब्द अदिति का अर्थ होता है 'असीम'। .

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अभिमन्यु

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अर्जुन

शिव अर्जुन को अस्त्र देते हुए। महाभारत के मुख्य पात्र हैं। महाराज पाण्डु एवं रानी कुन्ती के वह तीसरे पुत्र थे। द्रौपदी, कृष्ण और बलराम की बहन सुभद्रा, नाग कन्या उलूपी और मणिपुर नरेश की पुत्री चित्रांगदा इनकी पत्नियाँ थीं। इनके भाई क्रमशः युधिष्ठिर, भीम, नकुल, सहदेव। .

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अश्वत्थामा

महाभारत युद्ध से पुर्व गुरु द्रोणाचार्य अनेक स्थानो में भ्रमण करते हुए हिमालय (ऋषिकेश) प्‌हुचे। वहाँ तमसा नदी के किनारे एक दिव्य गुफा में तपेश्वर नामक स्वय्मभू शिवलिंग है। यहाँ गुरु द्रोणाचार्य और उनकी पत्नी माता कृपि ने शिव की तपस्या की। इनकी तपस्या से खुश होकर भगवान शिव ने इन्हे पुत्र प्राप्ति का वरदान दिया। कुछ समय बाद माता कृपि ने एक सुन्दर तेजश्वी बाल़क को जन्म दिया। जन्म ग्रहण करते ही इनके कण्ठ से हिनहिनाने की सी ध्वनि हुई जिससे इनका नाम अश्वत्थामा पड़ा। जन्म से ही अश्वत्थामा के मस्तक में एक अमूल्य मणि विद्यमान थी। जो कि उसे दैत्य, दानव, शस्त्र, व्याधि, देवता, नाग आदि से निर्भय रखती थी। महाभारत युद्ध के समय गुरु द्रोणाचार्य जी ने हस्तिनापुर (मेरठ) राज्य के प्रति निष्ठा होने के कारण कौरवों का साथ देना उचित समझा। अश्वत्थामा भी अपने पिता की तरह शास्त्र व शस्त्र विद्या में निपूण थे। महाभारत के युद्ध में उन्होंने सक्रिय भाग लिया था। महाभारत युद्ध में ये कौरव-पक्ष के एक सेनापति थे। उन्होंने भीम-पुत्र घटोत्कच को परास्त किया तथा घटोत्कच पुत्र अंजनपर्वा का वध किया। उसके अतिरिक्त द्रुपदकुमार, शत्रुंजय, बलानीक, जयानीक, जयाश्व तथा राजा श्रुताहु को भी मार डाला था। उन्होंने कुंतीभोज के दस पुत्रों का वध किया। पिता-पुत्र की जोड़ी ने महाभारत युद्ध के समय पाण्डव सेना को तितर-बितर कर दिया। पांडवों की सेना की हार देख़कर श्रीकृष्ण ने युधिष्ठिर से कूटनीति सहारा लेने को कहा। इस योजना के तहत यह बात फेला दी गई कि "अश्वत्थामा मारा गया" जब गुरु द्रोणाचार्य ने धर्मराज युधिष्ठिर से अश्वत्थामा की सत्यता जानना चाही तो उन्होने जवाब दिया-"अश्वत्थामा मारा गया परन्तु हाथी", परन्तु उन्होंने बड़े धीरे स्वर में "परन्तु हाथी" कहा, और झूट बोलने से बच गए। इस घटना से पूर्व पांडवों और उनके पक्ष के लोगों की श्री कृष्ण के साथ विस्तृत मंथना हुई कि ये सत्य होगा कि नहीं कि "परन्तु हाथी" को इतने स्वर में बोला जाए। श्रीकृष्ण ने उसी समय शन्खनाद किया, जिसके शोर से गुरु द्रोणाचार्य आखरी शब्द नहीं सुन पाए। अपने प्रिय पुत्र की मृत्यु का समाचार सुनकर आपने शस्त्र त्याग दिये और युद्ध भूमि में आखें बन्द कर शोक अवस्था में बैठ गये। गुरु द्रोणाचार्य जी को निहत्ता जानकर द्रोपदी के भाई द्युष्टद्युम्न ने तलवार से उनका सिर काट डाला। गुरु द्रोणाचार्य की निर्मम हत्या के बाद पांडवों की जीत होने लगी। इस तरह महाभारत युद्ध में अर्जुन के तीरों एवं भीमसेन की गदा से कौरवों का नाश हो गया। दुष्ट और अभिमानी दुर्योधन की जाँघ भी भीमसेन ने मल्लयुद्ध में तोड़ दी। अपने राजा दुर्योधन की ऐसी दशा देखकर और अपने पिता द्रोणाचार्य की मृत्यु का स्मरण कर अश्वत्थामा अधीर हो गया। दुर्योधन पानी को बान्धने की कला जानता था। सो जिस तालाब के पास गदायुध्द चल रहा था उसी तालाब में घुस गया और पानी को बान्धकर छुप गया। दुर्योधन के पराजय होते ही युद्ध में पाण्डवो की जीत पक्की हो गई थी सभी पाण्डव खेमे के लोग जीत की खुशी में मतवाले हो रहे थे। अश्वत्थामा ने द्रोणाचार्य वध के पश्चात अपने पिता की निर्मम हत्या का बदला लेने के लिए पांडवों पर नारायण अस्त्र का प्रयोग किया था। जिसके आगे सारी पाण्डव सेना ने हथियार डाल दिया था। युद्ध पश्चात अश्वत्थामा ने द्रोपदी के पाँचो पुत्र और द्युष्टद्युम्न का वध कर दिया। अश्वत्थामा ने अभिमन्यु पुत्र परीक्षित पर बह्मशीर्ष अस्त्र का प्रयोग किया। अश्वत्थामा अमर है और आज भी जीवित हैं। भगवान क्रष्ण के श्राप के कारण अश्वत्थामा को कोड रोग हो गया। आज भी वह जीवित है। छुप कर वह पांडवों के शिविर में पहुँचा और घोर कालरात्रि में कृपाचार्य तथा कृतवर्मा की सहायता से पांडवों के बचे हुये वीर महारथियों को मार डाला। केवल यही नहीं, उसने पांडवों के पाँचों पुत्रों के सिर भी अश्वत्थामा ने काट डाले। अश्वत्थामा के इस कुकर्म की सभी ने निंदा की यहाँ तक कि दुर्योधन तक को भी यह अच्छा नहीं लगा। पुत्रों के हत्या से दुखी द्रौपदी विलाप करने लगी। उसके विलाप को सुन कर अर्जुन ने उस नीच कर्म हत्यारे ब्राह्मण के सिर को काट डालने की प्रतिज्ञा की। अर्जुन की प्रतिज्ञा सुन अश्वत्थामा भाग निकला। श्रीकृष्ण को सारथी बनाकर एवं अपना गाण्डीव धनुष लेकर अर्जुन ने उसका पीछा किया। अश्वत्थामा को कहीं भी सुरक्षा नहीं मिली तो भय के कारण उसने अर्जुन पर ब्रह्मास्त्र का प्रयोग कर दिया। अश्वत्थामा ब्रह्मास्त्र को चलाना तो जानता था पर उसे लौटाना नहीं जानता था। उस अति प्रचण्ड तेजोमय अग्नि को अपनी ओर आता देख अर्जुन ने श्रीकृष्ण से विनती की, “हे जनार्दन! आप ही इस त्रिगुणमयी श्रृष्टि को रचने वाले परमेश्वर हैं। श्रृष्टि के आदि और अंत में आप ही शेष रहते हैं। आप ही अपने भक्तजनों की रक्षा के लिये अवतार ग्रहण करते हैं। आप ही ब्रह्मास्वरूप हो रचना करते हैं, आप ही विष्णु स्वरूप हो पालन करते हैं और आप ही रुद्रस्वरूप हो संहार करते हैं। आप ही बताइये कि यह प्रचण्ड अग्नि मेरी ओर कहाँ से आ रही है और इससे मेरी रक्षा कैसे होगी?” श्रीकृष्ण बोले, “है अर्जुन! तुम्हारे भय से व्याकुल होकर अश्वत्थामा ने यह ब्रह्मास्त्र तुम पर ब्रह्मास्त्र से तुम्हारे प्राण घोर संकट में है। वह अश्वत्थामा इसका प्रयोग तो जानता है किन्तु इसके निवारण से अनभिज्ञ है। इससे बचने के लिये तुम्हें भी अपने ब्रह्मास्त्र का प्रयोग करना होगा क्यों कि अन्य किसी अस्त्र से इसका निवारण नहीं हो सकता।” श्रीकृष्ण की इस मन्त्रणा को सुनकर महारथी अर्जुन ने भी तत्काल आचमन करके अपना ब्रह्मास्त्र छोड़ दिया। दोनों ब्रह्मास्त्र परस्पर भिड़ गये और प्रचण्ड अग्नि उत्पन्न होकर तीनों लोकों को तप्त करने लगी। उनकी लपटों से सारी प्रजा दग्ध होने लगी। इस विनाश को देखकर अर्जुन ने दोंनों ब्रह्मास्त्रों को लौटा कर शांत कर दिया और झपट कर अश्वत्थामा को पकड़ कर बाँध लिया। श्रीकृष्ण बोले, “हे अर्जुन! धर्मात्मा, सोये हुये, असावधान, मतवाले, पागल, अज्ञानी, रथहीन, स्त्री तथा बालक को मारना धर्म के अनुसार वर्जित है। इसने धर्म के विरुद्ध आचरण किया है, सोये हुये निरपराध बालकों की हत्या की है। जीवित रहेगा तो पुनः पाप करेगा। अतः तत्काल इसका वध करके और इसका कटा हुआ सिर द्रौपदी के सामने रख कर अपनी प्रतिज्ञा पूरी करो।” श्रीकृष्ण के इन शब्दों को सुनने के बाद भी धीरवान अर्जुन को गुरुपुत्र पर दया ही आई और उन्होंने अश्वत्थामा को जीवित ही शिविर में ले जाकर द्रौपदी के सामने उपस्थित किया। पशु की तरह बँधे हुये गुरुपुत्र को देख कर ममतामयी द्रौपदी का कोमल हृदय पिघल गया। उसने गुरुपुत्र को नमस्कार किया और उसे बन्धनमुक्त करने के लिये अर्जुन से कहा, “हे आर्यपुत्र! ये गुरुपुत्र तथा ब्राह्मण हैं। ब्राह्मण सदा पूजनीय होता है और उसकी हत्या करना पाप है। आपने इनके पिता से ही इन अपूर्व शस्त्रास्त्रों का ज्ञान प्राप्त किया है। पुत्र के रूप में आचार्य द्रोण ही आपके सम्मुख बन्दी रूप में खड़े हैं। इनका वध करने से इनकी माता कृपी मेरी तरह ही कातर होकर पुत्र शोक में विलाप करेगी। पुत्र से विशेष मोह होने के कारण ही वह द्रोणाचार्य के साथ सती नहीं हुई। कृपी की आत्मा निरन्तर मुझे कोसेगी। इनके वध करने से मेरे मृत पुत्र लौट कर तो नहीं आ सकते! अतः आप इन्हें मुक्त कर दीजिये।” Draupadi and Ashvatthaman, Punjab Hills c. 1730 द्रौपदी के इन न्याय तथा धर्मयुक्त वचनों को सुन कर सभी ने उसकी प्रशंसा की किन्तु भीम का क्रोध शांत नहीं हुआ। इस पर श्रीकृष्ण ने कहा, “हे अर्जुन! शास्त्रों के अनुसार पतित ब्राह्मण का वध भी पाप है और आततायी को दण्ड न देना भी पाप है। अतः तुम वही करो जो उचित है।” उनकी बात को समझ कर अर्जुन ने अपनी तलवार से अश्वत्थामा के सिर के केश काट डाले और उसके मस्तक की मणि निकाल ली। मणि निकल जाने से वह श्रीहीन हो गया। श्रीहीन तो वह उसी क्षण हो गया था जब उसने बालकों की हत्या की थी किन्तु केश मुंड जाने और मणि निकल जाने से वह और भी श्रीहीन हो गया और उसका सिर झुक गया। अर्जुन ने उसे उसी अपमानित अवस्था में शिविर से बाहर निकाल दिया। श्रेणी:महाभारत के पात्र.

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अश्विनीकुमार (पौराणिक पात्र)

वैदिक साहित्य और हिन्दू धर्म में 'अश्विनौ' यानि दो अश्विनों का उल्लेख देवता के रूप में मिलता है जिन्हें अश्विनीकुमार के नाम से जाना जाता है। वे आयुर्वेद के आदि आचार्य माने जाते हैं। ऋग्वेद (१.३, १.२२, १.३४) के अलावे महाभारत में भी इनका वर्णन है। वैदिक व्याख्या के अनुसार गुणों से ये सूर्य से उत्पन्न माने जाते हैं। पौराणिक कथाओं में 'अश्विनीकुमार' त्वष्टा की पुत्री प्रभा नाम की स्त्री से उत्पन्न सूर्य के दो पुत्र। भारतीय दर्शन के विद्वान उदयवीर शास्त्री ने वैशेषिक शास्त्र की व्याख्या में अश्विनों को विद्युत-चुम्बकत्व बताया है जो आपस में जुड़े रहते हैं और सूर्य से उत्पन्न हुए हैं। इसके अलावे ये अश्व (द्रुत) गति से चलने वाले यानि 'आशु' भी हैं - इनके नाम का मूल यही है। .

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अवतार

अवतार का अर्थ अवतरित होना या उतरना है। हिंदू मान्यता के अनुसार जब-जब दुष्टों का भार पृथ्वी पर बढ़ता है और धर्म की हानि होती है तब-तब पापियों का संहार करके भक्तों की रक्षा करने के लिये भगवान अपने अंश अथवा पूर्णांश से पृथ्वी पर शरीर धारण करते हैं। .

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अग्नि

कोई विवरण नहीं।

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