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भारत के मेलों की सूची

सूची भारत के मेलों की सूची

कोई विवरण नहीं।

46 संबंधों: देसूरी, दीपावली मेला, नानकमत्ता, नौचन्दी मेला, पितृ पक्ष, पुष्कर मेला, पूर्णागिरी, बरेली, बलिया, बागेश्वर, बिठूर, बेवर, भीमताल (बहुविकल्पी), माघ मेला, मैनपुरी, यमुना नगर, रामायण मेला, शरद पूर्णिमा, शहीद मेला, सालासर, सिंहस्थ, सूरजकुण्ड हस्तशिल्प मेला, सोनपुर मेला, हरिद्वार, हरेला (पर्व), हल्द्वानी, खिचड़ी, गया, गंगासागर मेला, गोरखपुर, गोगामेड़ी, ओरछा, कतिकी मेला, कपाल मोचन मेला, कामाख्या, कालकाजी, काशीपुर, काशीपुर का चैती मेला, कुम्भ मेला, कुरुक्षेत्र, अल्मोड़ा, अजमेर, उत्तरायणी मेला, बागेश्वर, उत्तराखण्ड, उत्तरकाशी, उदयपुर

देसूरी

देसूरी राजस्थान के पाली जिले का एक गाँव एवं तहसील मुख्यालय है। यह अरावली पर्वत-श्रेणी के निकट स्थित है। इस तहसील में रणकपुर, परशुराम महादेव मन्दिर, एवं अन्य दर्शनीय पर्यटकस्थल हैं। .

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दीपावली मेला

नानकमत्ता साहिब ऐतिहासिक महत्व का सिक्खों का सुविख्यात धार्मिक स्थान होने के साथ-साथ यहाँ लगने वाला दीपावली का मेला भी इस क्षेत्र का विशालतम मेला माना जाता है। इसमे 5 से 10 लाख लोगों की भीड़ जमा होती है। गुरूद्वारा श्री नानकमत्ता साहिब उत्तराखण्ड के ऊधमसिंहनगर जिले में स्थित है। यह दिल्ली से 275 किमी दूर है तथा मुरादाबाद से 130 किमी दूर है। अन्तिम रेलवे स्टेशन रुद्रपुर-सिटी और छोटी लाइन का स्टेशन खटीमा या किच्छा है। यह रुद्रपुर-सिटी से 58 किमी, खटीमा से 16 किमी तथा किच्छा से 38 किमी है। दस दिनों तक चलने वाले मेले का दीपावली से दो दिन पूर्व शुभारम्भ हो जाता है। तीन दिनों तक तो सिख-पन्थ से लोगों के द्वारा बड़े-बड़े दीवान आयोजित किये जाते हैं। जिनमें उच्च कोटि के धार्मिक व्याख्यानकर्ता तथा रागी अपने भजन-कीर्तन तथा व्याख्यान देते हैं। इसके बाद आदिवासी रानाथारू जनजाति के लोगों के साथ-साथ इस क्षेत्र के सभी धर्मों के लोग और दूर-दराज से आने वाले दर्शनार्थियों का ताँता लगा रहता है। नानकमत्ता साहिब में आधुनिक सुविधाओं से युक्त 200 कमरों की एक सराय भी है। वह इस समय बिल्कुल भरी रहती है। इसके साथ ही मेलार्थियों के लिए अलग से टेण्ट लगाकर भी रहने की व्यवस्था गुरूद्वारा प्रबन्धक कमेटी, नानकमत्ता द्वारा की जाती है। गुरू महाराज के दरबार साहिब में बारहों मास तीन स्थानों पर अनवरतरूप से लंगर चलता रहता है। इसलिए इस मेले में खाने का कोई होटल नहीं होता है। हाँ, चाट-मिष्ठान आदि की बहुत सी दुकाने होती हैं। सुबह से शाम और रात तक चलने वाले लंगर में लाखों लोग प्रतिदिन प्रसाद के रूप मे लंगर छकते हैं। मेले की व्यवस्था सुचारूरूप से चलाने के लिए मेला-अवधि में यहाँ 24 घण्टे बाकायदा एक पुलिस कोतवाली अपना काम करती रहती है। आज की तेजी से भागती हुई जिन्दगी में भी इस मेले में 3-4 अस्थायी टेण्ट टाकीज, 2-3 नाटक कम्पनियाँ, सरकस, 10-15 झूले, मौत का कुआँ और इन्द्र-जाल, काला-जादू आदि अनेकों मनोरंजन के साधन यहाँ पर होते हैं। वस्त्रों, खिलौनों और घरेलू सामानों की तो इस मेले में हजारों दूकानें होती हैं। इसके साथ ही यहाँ पर तलवारों, कृपाणों, भाला, बरछी और लाठी-डण्डों की भी सैकड़ों दूकानें सजी होतीं हैं। .

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नानकमत्ता

नानकमत्ता उधम सिंह नगर जिला, उत्तराखण्ड उत्तरी भारत में स्थित एक शहर है। यह शहर अपने ऐतिहासिक सिख मंदिर गुरुद्वारा नानकमत्ता व बाउली साहिब के लिये प्रसिद्ध है। श्रेणी:उत्तराखण्ड के तीर्थ श्रेणी:ऊधम सिंह नगर के दर्शनीय स्थल.

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नौचन्दी मेला

नौचन्दी मेला उत्तर प्रदेश के प्रसिद्ध मेलों मे से एक है। नौचन्दी मेला मेरठ में प्रति वर्ष लगता है। यह मेला मेरठ की शान है।यहां का ऐतिहासिक नौचंदी मेला हिन्दू – मुस्लिम एकता का प्रतीक है। हजरत बाले मियां की दरगाह एवं नवचण्डी देवी (नौचन्दी देवी) का मंदिर एक दूसरे के निकट ही स्थित हैं। जहाँ मंदिर में भजन कीर्तन होते रहते हैं वहीं दरगाह पर कव्वाली आदि होती रहती है। मेले के दौरान मंदिर के घण्टों के साथ अज़ान की आवाज़ एक सांप्रदायिक अध्यात्म की प्रतिध्वनि देती है। नौचन्दी मेला प्रत्येक वर्ष नौचन्दी मैदान में लगता है। इसकी खासियत है कि नौचन्दी मेला केवल रात में लगता है। दिन में मैदान बिलकुल खाली होता है। यह मेला चैत्र मास के नवरात्रि त्यौहार से एक सप्ताह पहले से लग जाता है। लगभग होली के एक सप्ताह बाद। और एक माह तक चलता है। नौचन्दी मेले के नाम से यहां एक ट्रेन भी चलती है नौचन्दी एक्सप्रेस। यह मेरठ को राजधानी लखनऊ से जोड़ने वाली एकमात्र ट्रेन है। श्रेणी:मेरठ श्रेणी:भारत के मेले श्रेणी:उत्तर प्रदेश के दर्शनीय स्थल श्रेणी:उत्तर प्रदेश के मेले.

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पितृ पक्ष

श्रद्धया इदं श्राद्धम्‌ (जो श्र्द्धा से किया जाय, वह श्राद्ध है।) भावार्थ है प्रेत और पित्त्तर के निमित्त, उनकी आत्मा की तृप्ति के लिए श्रद्धापूर्वक जो अर्पित किया जाए वह श्राद्ध है। हिन्दू धर्म में माता-पिता की सेवा को सबसे बड़ी पूजा माना गया है। इसलिए हिंदू धर्म शास्त्रों में पितरों का उद्धार करने के लिए पुत्र की अनिवार्यता मानी गई हैं। जन्मदाता माता-पिता को मृत्यु-उपरांत लोग विस्मृत न कर दें, इसलिए उनका श्राद्ध करने का विशेष विधान बताया गया है। भाद्रपद पूर्णिमा से आश्विन कृष्णपक्ष अमावस्या तक के सोलह दिनों को पितृपक्ष कहते हैं जिसमे हम अपने पूर्वजों की सेवा करते हैं। आश्विन कृष्ण प्रतिपदा से लेकर अमावस्या तक ब्रह्माण्ड की ऊर्जा तथा उस उर्जा के साथ पितृप्राण पृथ्वी पर व्याप्त रहता है। धार्मिक ग्रंथों में मृत्यु के बाद आत्मा की स्थिति का बड़ा सुन्दर और वैज्ञानिक विवेचन भी मिलता है। मृत्यु के बाद दशगात्र और षोडशी-सपिण्डन तक मृत व्यक्ति की प्रेत संज्ञा रहती है। पुराणों के अनुसार वह सूक्ष्म शरीर जो आत्मा भौतिक शरीर छोड़ने पर धारण करती है प्रेत होती है। प्रिय के अतिरेक की अवस्था "प्रेत" है क्यों की आत्मा जो सूक्ष्म शरीर धारण करती है तब भी उसके अन्दर मोह, माया भूख और प्यास का अतिरेक होता है। सपिण्डन के बाद वह प्रेत, पित्तरों में सम्मिलित हो जाता है। पितृपक्ष भर में जो तर्पण किया जाता है उससे वह पितृप्राण स्वयं आप्यापित होता है। पुत्र या उसके नाम से उसका परिवार जो यव (जौ) तथा चावल का पिण्ड देता है, उसमें से अंश लेकर वह अम्भप्राण का ऋण चुका देता है। ठीक आश्विन कृष्ण प्रतिपदा से वह चक्र उर्ध्वमुख होने लगता है। 15 दिन अपना-अपना भाग लेकर शुक्ल पक्ष की प्रतिपदा से पितर उसी ब्रह्मांडीय उर्जा के साथ वापस चले जाते हैं। इसलिए इसको पितृपक्ष कहते हैं और इसी पक्ष में श्राद्ध करने से पित्तरों को प्राप्त होता है। पुराणों में कई कथाएँ इस उपलक्ष्य को लेकर हैं जिसमें कर्ण के पुनर्जन्म की कथा काफी प्रचलित है। एवं हिन्दू धर्म में सर्वमान्य श्री रामचरित में भी श्री राम के द्वारा श्री दशरथ और जटायु को गोदावरी नदी पर जलांजलि देने का उल्लेख है एवं भरत जी के द्वारा दशरथ हेतु दशगात्र विधान का उल्लेख भरत कीन्हि दशगात्र विधाना तुलसी रामायण में हुआ है। भारतीय धर्मग्रंथों के अनुसार मनुष्य पर तीन प्रकार के ऋण प्रमुख माने गए हैं- पितृ ऋण, देव ऋण तथा ऋषि ऋण। इनमें पितृ ऋण सर्वोपरि है। पितृ ऋण में पिता के अतिरिक्त माता तथा वे सब बुजुर्ग भी सम्मिलित हैं, जिन्होंने हमें अपना जीवन धारण करने तथा उसका विकास करने में सहयोग दिया। पितृपक्ष में हिन्दू लोग मन कर्म एवं वाणी से संयम का जीवन जीते हैं; पितरों को स्मरण करके जल चढाते हैं; निर्धनों एवं ब्राह्मणों को दान देते हैं। पितृपक्ष में प्रत्येक परिवार में मृत माता-पिता का श्राद्ध किया जाता है, परंतु गया श्राद्ध का विशेष महत्व है। वैसे तो इसका भी शास्त्रीय समय निश्चित है, परंतु ‘गया सर्वकालेषु पिण्डं दधाद्विपक्षणं’ कहकर सदैव पिंडदान करने की अनुमति दे दी गई है। अर्थात् जो अपने पितरों को तिल-मिश्रित जल की तीन-तीन अंजलियाँ प्रदान करते हैं, उनके जन्म से तर्पण के दिन तक के पापों का नाश हो जाता है। हमारे हिंदू धर्म-दर्शन के अनुसार जिस प्रकार जिसका जन्म हुआ है, उसकी मृत्यु भी निश्चित है; उसी प्रकार जिसकी मृत्यु हुई है, उसका जन्म भी निश्चित है। ऐसे कुछ विरले ही होते हैं जिन्हें मोक्ष प्राप्ति हो जाती है। पितृपक्ष में तीन पीढ़ियों तक के पिता पक्ष के तथा तीन पीढ़ियों तक के माता पक्ष के पूर्वजों के लिए तर्पण किया जाता हैं। इन्हीं को पितर कहते हैं। दिव्य पितृ तर्पण, देव तर्पण, ऋषि तर्पण और दिव्य मनुष्य तर्पण के पश्चात् ही स्व-पितृ तर्पण किया जाता है। भाद्रपद पूर्णिमा से आश्विन कृष्णपक्ष अमावस्या तक के सोलह दिनों को पितृपक्ष कहते हैं। जिस तिथि को माता-पिता का देहांत होता है, उसी तिथी को पितृपक्ष में उनका श्राद्ध किया जाता है। शास्त्रों के अनुसार पितृपक्ष में अपने पितरों के निमित्त जो अपनी शक्ति सामर्थ्य के अनुरूप शास्त्र विधि से श्रद्धापूर्वक श्राद्ध करता है, उसके सकल मनोरथ सिद्ध होते हैं और घर-परिवार, व्यवसाय तथा आजीविका में हमेशा उन्नति होती है। पितृ दोष के अनेक कारण होते हैं। परिवार में किसी की अकाल मृत्यु होने से, अपने माता-पिता आदि सम्मानीय जनों का अपमान करने से, मरने के बाद माता-पिता का उचित ढंग से क्रियाकर्म और श्राद्ध नहीं करने से, उनके निमित्त वार्षिक श्राद्ध आदि न करने से पितरों को दोष लगता है। इसके फलस्वरूप परिवार में अशांति, वंश-वृद्धि में रूकावट, आकस्मिक बीमारी, संकट, धन में बरकत न होना, सारी सुख सुविधाएँ होते भी मन असन्तुष्ट रहना आदि पितृ दोष हो सकते हैं। यदि परिवार के किसी सदस्य की अकाल मृत्यु हुई हो तो पितृ दोष के निवारण के लिए शास्त्रीय विधि के अनुसार उसकी आत्म शांति के लिए किसी पवित्र तीर्थ स्थान पर श्राद्ध करवाएँ। अपने माता-पिता तथा अन्य ज्येष्ठ जनों का अपमान न करें। प्रतिवर्ष पितृपक्ष में अपने पूर्वजों का श्राद्ध, तर्पण अवश्य करें। यदि इन सभी क्रियाओं को करने के पश्चात् पितृ दोष से मुक्ति न होती हो तो ऐसी स्थिति में किसी सुयोग्य कर्मनिष्ठ विद्वान ब्राह्मण से श्रीमद् भागवत् पुराण की कथा करवायें। वैसे श्रीमद् भागवत् पुराण की कथा कोई भी श्रद्धालु पुरुष अपने पितरों की आम शांति के लिए करवा सकता है। इससे विशेष पुण्य फल की प्राप्ति होती है। मत्स्य पुराण में तीन प्रकार के श्राद्ध प्रमुख बताये गए है। त्रिविधं श्राद्ध मुच्यते के अनुसार मत्स्य पुराण में तीन प्रकार के श्राद्ध बतलाए गए है, जिन्हें नित्य, नैमित्तिक एवं काम्य श्राद्ध कहते हैं। यमस्मृति में पांच प्रकार के श्राद्धों का वर्णन मिलता है। जिन्हें नित्य, नैमित्तिक, काम्य, वृद्धि और पार्वण के नाम से श्राद्ध है। नित्य श्राद्ध- प्रतिदिन किए जानें वाले श्राद्ध को नित्य श्राद्ध कहते हैं। इस श्राद्ध में विश्वेदेव को स्थापित नहीं किया जाता। यह श्राद्ध में केवल जल से भी इस श्राद्ध को सम्पन्न किया जा सकता है। नैमित्तिक श्राद्ध- किसी को निमित्त बनाकर जो श्राद्ध किया जाता है, उसे नैमित्तिक श्राद्ध कहते हैं। इसे एकोद्दिष्ट के नाम से भी जाना जाता है। एकोद्दिष्ट का मतलब किसी एक को निमित्त मानकर किए जाने वाला श्राद्ध जैसे किसी की मृत्यु हो जाने पर दशाह, एकादशाह आदि एकोद्दिष्ट श्राद्ध के अन्तर्गत आता है। इसमें भी विश्वेदेवोंको स्थापित नहीं किया जाता। काम्य श्राद्ध- किसी कामना की पूर्ति के निमित्त जो श्राद्ध किया जाता है। वह काम्य श्राद्ध के अन्तर्गत आता है। वृद्धि श्राद्ध- किसी प्रकार की वृद्धि में जैसे पुत्र जन्म, वास्तु प्रवेश, विवाहादि प्रत्येक मांगलिक प्रसंग में भी पितरों की प्रसन्नता हेतु जो श्राद्ध होता है उसे वृद्धि श्राद्ध कहते हैं। इसे नान्दीश्राद्ध या नान्दीमुखश्राद्ध के नाम भी जाना जाता है, यह एक प्रकार का कर्म कार्य होता है। दैनंदिनी जीवन में देव-ऋषि-पित्र तर्पण भी किया जाता है। पार्वण श्राद्ध- पार्वण श्राद्ध पर्व से सम्बन्धित होता है। किसी पर्व जैसे पितृपक्ष, अमावास्या या पर्व की तिथि आदि पर किया जाने वाला श्राद्ध पार्वण श्राद्ध कहलाता है। यह श्राद्ध विश्वेदेवसहित होता है। सपिण्डनश्राद्ध- सपिण्डनशब्द का अभिप्राय पिण्डों को मिलाना। पितर में ले जाने की प्रक्रिया ही सपिण्डनहै। प्रेत पिण्ड का पितृ पिण्डों में सम्मेलन कराया जाता है। इसे ही सपिण्डनश्राद्ध कहते हैं। गोष्ठी श्राद्ध- गोष्ठी शब्द का अर्थ समूह होता है। जो श्राद्ध सामूहिक रूप से या समूह में सम्पन्न किए जाते हैं। उसे गोष्ठी श्राद्ध कहते हैं। शुद्धयर्थश्राद्ध- शुद्धि के निमित्त जो श्राद्ध किए जाते हैं। उसे शुद्धयर्थश्राद्ध कहते हैं। जैसे शुद्धि हेतु ब्राह्मण भोजन कराना चाहिए। कर्मागश्राद्ध- कर्मागका सीधा साधा अर्थ कर्म का अंग होता है, अर्थात् किसी प्रधान कर्म के अंग के रूप में जो श्राद्ध सम्पन्न किए जाते हैं। उसे कर्मागश्राद्ध कहते हैं। यात्रार्थश्राद्ध- यात्रा के उद्देश्य से किया जाने वाला श्राद्ध यात्रार्थश्राद्ध कहलाता है। जैसे- तीर्थ में जाने के उद्देश्य से या देशान्तर जाने के उद्देश्य से जिस श्राद्ध को सम्पन्न कराना चाहिए वह यात्रार्थश्राद्ध ही है। इसे घृतश्राद्ध भी कहा जाता है। पुष्ट्यर्थश्राद्ध- पुष्टि के निमित्त जो श्राद्ध सम्पन्न हो, जैसे शारीरिक एवं आर्थिक उन्नति के लिए किया जाना वाला श्राद्ध पुष्ट्यर्थश्राद्ध कहलाता है। धर्मसिन्धु के अनुसार श्राद्ध के ९६ अवसर बतलाए गए हैं। एक वर्ष की अमावास्याएं'(12) पुणादितिथियां (4),'मन्वादि तिथियां (14) संक्रान्तियां (12) वैधृति योग (12), व्यतिपात योग (12) पितृपक्ष (15), अष्टकाश्राद्ध (5) अन्वष्टका (5) तथा पूर्वेद्यु:(5) कुल मिलाकर श्राद्ध के यह ९६ अवसर प्राप्त होते हैं।'पितरों की संतुष्टि हेतु विभिन्न पित्र-कर्म का विधान है। पुराणोक्त पद्धति से निम्नांकित कर्म किए जाते हैं:- एकोदिष्ट श्राद्ध, पार्वण श्राद्ध, नाग बलि कर्म, नारायण बलि कर्म, त्रिपिण्डी श्राद्ध, महालय श्राद्ध पक्ष में श्राद्ध कर्म उपरोक्त कर्मों हेतु विभिन्न संप्रदायों में विभिन्न प्रचलित परिपाटियाँ चली आ रही हैं। अपनी कुल-परंपरा के अनुसार पितरों की तृप्ति हेतु श्राद्ध कर्म अवश्य करना चाहिए। कैसे करें श्राद्ध कर्म महालय श्राद्ध पक्ष में पितरों के निमित्त घर में क्या कर्म करना चाहिए। मान्य स्थान गया जब बात आती है श्राद्ध कर्म की तो बिहार स्थित गया का नाम बड़ी प्रमुखता व आदर से लिया जाता है। गया समूचे भारत वर्ष में हीं नहीं सम्पूर्ण विश्व में दो स्थान श्राद्ध तर्पण हेतु बहुत प्रसिद्द है। वह दो स्थान है बोध गया और विष्णुपद मन्दिर | विष्णुपद मंदिर वह स्थान जहां माना जाता है कि स्वयं भगवान विष्णु के चरण उपस्थित है, जिसकी पूजा करने के लिए लोग देश के कोने-कोने से आते हैं। गया में जो दूसरा सबसे प्रमुख स्थान है जिसके लिए लोग दूर दूर से आते है वह स्थान एक नदी है, उसका नाम "फल्गु नदी" है। ऐसा माना जाता है कि मर्यादा पुरुषोत्तम भगवान राम ने स्वयं इस स्थान पर अपने पिता राजा दशरथ का पिंड दान किया था। तब से यह माना जाने लगा की इस स्थान पर आकर कोई भी व्यक्ति अपने पितरो के निमित्त पिंड दान करेगा तो उसके पितृ उससे तृप्त रहेंगे और वह व्यक्ति अपने पितृऋण से उरिण हो जायेगा | इस स्थान का नाम ‘गया’ इसलिए रखा गया क्योंकि भगवान विष्णु ने यहीं के धरती पर असुर गयासुर का वध किया था। तब से इस स्थान का नाम भारत के प्रमुख तीर्थस्थानो में आता है और बड़ी ही श्रद्धा और आदर से "गया जी" बोला जाता है। .

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पुष्कर मेला

पुष्कर मेला, 2006 अजमेर से ११ कि॰मी॰ दूर हिन्दुओं का प्रसिद्ध तीर्थ स्थल पुष्कर है। यहां पर कार्तिक पूर्णिमा को मेला लगता है, जिसमें बड़ी संख्या में देशी-विदेशी पर्यटक भी आते हैं। हजारों हिन्दु लोग इस मेले में आते हैं। व अपने को पवित्र करने के लिए पुष्कर झील में स्नान करते हैं। भक्तगण एवं पर्यटक श्री रंग जी एवं अन्य मंदिरों के दर्शन कर आत्मिक लाभ प्राप्त करते हैं। राज्य प्रशासन भी इस मेले को विशेष महत्व देता है। स्थानीय प्रशासन इस मेले की व्यवस्था करता है एवं कला संस्कृति तथा पर्यटन विभाग इस अवसर पर सांस्कृतिक कार्यक्रमों का आयाजन करते हैं। इस समय यहां पर पशु मेला भी आयोजित किया जाता है, जिसमें पशुओं से संबंधित विभिन्न कार्यक्रम भी किए जाते हैं, जिसमें श्रेष्ठ नस्ल के पशुओं को पुरस्कृत किया जाता है। इस पशु मेले का मुख्य आकर्षण होता है। भारत में किसी पौराणिक स्थल पर आम तौर पर जिस संख्या में पर्यटक आते हैं, पुष्कर में आने वाले पर्यटकों की संख्या उससे कहीं ज्यादा है। इनमें बडी संख्या विदेशी सैलानियों की है, जिन्हें पुष्कर खास तौर पर पसंद है। हर साल कार्तिक महीने में लगने वाले पुष्कर ऊंट मेले ने तो इस जगह को दुनिया भर में अलग ही पहचान दे दी है। मेले के समय पुष्कर में कई संस्कृतियों का मिलन सा देखने को मिलता है। एक तरफ तो मेला देखने के लिए विदेशी सैलानी पडी संख्या में पहुंचते हैं, तो दूसरी तरफ राजस्थान व आसपास के तमाम इलाकों से आदिवासी और ग्रामीण लोग अपने-अपने पशुओं के साथ मेले में शरीक होने आते हैं। मेला रेत के विशाल मैदान में लगाया जाता है। ढेर सारी कतार की कतार दुकानें, खाने-पीने के स्टाल, सर्कस, झूले और न जाने क्या-क्या। ऊंट मेला और रेगिस्तान की नजदीकी है इसलिए ऊंट तो हर तरफ देखने को मिलते ही हैं। लेकिन कालांतर में इसका स्वरूप विशाल पशु मेले का हो गया है। .

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पूर्णागिरी

पूर्णागिरि मन्दिर भारत के उत्तराखण्ड प्रान्त के टनकपुर में अन्नपूर्णा शिखर पर ५५०० फुट की ऊँचाई पर स्थित है। यह १०८ सिद्ध पीठों में से एक है। यह स्थान महाकाली की पीठ माना जाता है। कहा जाता है कि दक्ष प्रजापति की कन्या और शिव की अर्धांगिनी सती की नाभि का भाग यहाँ पर विष्णु चक्र से कट कर गिरा था। प्रतिवर्ष इस शक्ति पीठ की यात्रा करने आस्थावान श्रद्धालु कष्ट सहकर भी यहाँ आते हैं। .

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बरेली

बरेली उत्तरी भारत में उत्तर प्रदेश राज्य के बरेली जिले में स्थित एक शहर है। यह उत्तर प्रदेश में आठवां सबसे बड़ा महानगर, और भारत का ५०वां सबसे बड़ा शहर है। रामगंगा नदी के तट पर बसा यह शहर रोहिलखंड के ऐतिहासिक क्षेत्र की राजधानी था। .

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बलिया

बलिया (भोजपुरी: बलिया या बलिंयाँ) भारतीय राज्य उत्तर प्रदेश में एक नगर निगम वाला शहर है। यह अपने ही नाम के जिले का मुख्यालय भी है। इस शहर की पूर्वी सीमा गंगा और सरयू के संगम द्वारा बनायी जाती है। यह शहर वाराणसी से 155 किलोमीटर स्थित है। भोजपुरी यहाँ की प्राथमिक स्थानीय भाषा है। यह क्षेत्र गंगा और घाघरा के बीच के जलोढ़ मैदानों में स्थित है। अक्सर बाढ़ग्रस्त रहने वाले इस उपजाऊ क्षेत्र में चावल, जौ, मटर, ज्वार-बाजरा, दालें, तिलहन और गन्ना उगाया जाता है। .

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बागेश्वर

बागेश्वर उत्तराखण्ड राज्य में सरयू और गोमती नदियों के संगम पर स्थित एक तीर्थ है। यह बागेश्वर जनपद का प्रशासनिक मुख्यालय भी है। यहाँ बागेश्वर नाथ का प्राचीन मंदिर है, जिसे स्थानीय जनता "बागनाथ" या "बाघनाथ" के नाम से जानती है। मकर संक्रांति के दिन यहाँ उत्तराखण्ड का सबसे बड़ा मेला लगता है। स्वतंत्रता संग्राम में भी बागेश्वर का बड़ा योगदान है। कुली-बेगार प्रथा के रजिस्टरों को सरयू की धारा में बहाकर यहाँ के लोगों ने अपने अंचल में गाँधी जी के असहयोग आन्दोलन शुरवात सन १९२० ई. में की। सरयू एवं गोमती नदी के संगम पर स्थित बागेश्वर मूलतः एक ठेठ पहाड़ी कस्बा है। परगना दानपुर के 473, खरही के 66, कमस्यार के 166, पुँगराऊ के 87 गाँवों का समेकन केन्द्र होने के कारण यह प्रशासनिक केन्द्र बन गया। मकर संक्रान्ति के दौरान लगभग महीने भर चलने वाले उत्तरायणी मेले की व्यापारिक गतिविधियों, स्थानीय लकड़ी के उत्पाद, चटाइयाँ एवं शौका तथा भोटिया व्यापारियों द्वारा तिब्बती ऊन, सुहागा, खाल तथा अन्यान्य उत्पादों के विनिमय ने इसको एक बड़ी मण्डी के रूप में प्रतिष्ठापित किया। 1950-60 के दशक तक लाल इमली तथा धारीवाल जैसी प्रतिष्ठित वस्त्र कम्पनियों द्वारा बागेश्वर मण्डी से कच्चा ऊन क्रय किया जाता था। .

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बिठूर

बिठूर, उत्तर प्रदेश में कानपुर के पश्चिमोत्तर दिशा में २७ किमी दूर स्थित एक नगर है। मेरठ के अलावा बिठूर में भी सन १८५७ में भारतीय स्वतंत्रता का प्रथम संग्राम का श्रीगणेश हुआ था। यह शहर उत्तर प्रदेश के औद्योगिक शहर कानपुर से 22 किलोमीटर दूर कन्नौज रोड़ पर स्थित है। बिठूर उत्तर प्रदेश में गंगा किनारे एक ऐसा सोया हुआ सा, छोटा सा क़स्बा है जो किसी ज़माने में सत्ता का केंद्र हुआ करता था। कानपुर के पास आज यहाँ की पुरानी ऐतिहासिक इमारतें, बारादरियाँ और मंदिर जीर्ण-शीर्ण हालत में पड़ी हैं; लेकिन स्थानीय लोगों के पास इतिहास की वो यादें हैं जिनका पाठ हर बच्चे को स्कूल में सिखाया जाता है। ये नानाराव और तात्या टोपे जैसे लोगों की धरती रही है। टोपे परिवार की एक शाखा आज भी बैरकपुर में है और यहीं झाँसी की रानी लक्ष्मी बाई का बचपन बीता। उसी दौर में कानपुर से अपनी जान बचाकर भाग रहे अंग्रेज़ों को सतीचौरा घाट पर मौत के घाट उतार दिया गया। बाद में उसके बदले में अंग्रेज़ों ने गाँव के गाँव तबाह कर दिए औऱ एक एक पेड़ से लटका कर बीस-बीस लोगों को फाँसी दे दी गई। जीत के बाद अँग्रेज़ों ने बिठूर में नानाराव पेशवा के महल को तो मटियामेट कर ही दिया था, जब ताँत्या टोपे के रिश्तेदारों को 1860 में ग्वालियर जेल से रिहा किया गया तो उन्होंने बिठूर लौटकर पाया कि उनका घर भी जला दिया गया है। .

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बेवर

वेबर भारतीय राज्य उत्तर प्रदेश मैनपुरी जिले की एक नगर पंचायत और कस्बा है। बेवर में ७६ ग्राम पंचायत हैं। .

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भीमताल (बहुविकल्पी)

भीमताल उत्तराखण्ड राज्य के नैनीताल जनपद में स्थित एक प्रसिद्ध झील है, जिसके इर्द-गिर्द बसे नगर को भी इसी नाम से जाना जाता है। इससे संबंधित पृष्ठ निम्न हैं.

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माघ मेला

माघ मेला हिन्दुओं का सर्वाधिक प्रिय धार्मिक एवं सांस्कृतिक मेला है। हिन्दू पंचांग के अनुसार १४ या १५ जनवरी को मकर संक्रांति के दिन माघ महीने में यह मेला आयोजित होता है। यह भारत के सभी प्रमुख तीर्थ स्थलों में मनाया जाता है। नदी या सागर स्नान इसका मुख्य उद्देश्य होता है। धार्मिक गतिविधियों, सांस्कृतिक कार्यक्रमों तथा पारंपरिक हस्त शिल्प, भोजन और दैनिक उपयोग की पारंपरिक वस्तुओं की बिक्री भी की जाती है। धार्मिक महत्त्व के अलावा यह मेला एक विकास मेला भी है तथा इसमें राज्य सरकार विभिन्न विभागों के विकास योजनाओं को प्रदर्शित करती है। प्रयाग, उत्तरकाशी, हरिद्वार इत्यादि स्थलों का माघ मेला प्रसिद्ध है। कहते हैं, माघ के धार्मिक अनुष्ठान के फलस्वरूप प्रतिष्ठानपुरी के नरेश पुरुरवा को अपनी कुरूपता से मुक्ति मिली थी। वहीं भृगु ऋषि के सुझाव पर व्याघ्रमुख वाले विद्याधर और गौतम ऋषि द्वारा अभिशप्त इंद्र को भी माघ स्नान के महाम्त्य से ही श्राप से मुक्ति मिली थी। पद्म पुराण के महात्म्य के अनुसार-माघ स्नान से मनुष्य के शरीर में स्थित उपाताप जलकर भस्म हो जाते हैं। इस प्रकार माघमेले का धार्मिक महत्त्व भी है। .

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मैनपुरी

मैनपुरी भारत में उत्तर प्रदेश के आगरा मण्डल का एक प्रमुख शहर एवं लोकसभा क्षेत्र है। किलों के लिए प्रसिद्ध मैनपुरी उत्तर प्रदेश राज्य का एक जिला है। अकबर औछा, अम्बरपुर वेटलैंड, समान वन्यजीव अभ्यारण, बर्नहाल और करीमगंज आदि यहां के प्रमुख स्थलों में से है। ऐतिहासिक दृष्टि से भी यह स्थान काफी महत्वपूर्ण माना जाता है। यह जिला इत: जिले के उत्तर, फरूखाबाद एवं कन्नौज जिले के पूर्व, इटावा जिले के दक्षिण और फिरोजाबाद जिले के पश्चिम से घिरा हुआ है। मैनपुरी जिले का इतिहास प्रागैतिहासिक काल से ही है। मैनपुरी और उसके आस-पास की जगह पर कन्नौज के शासकवंश का शासन था। 1526 के दौरान यहां पर मुगल शासक बाबर, अठाहरवीं शताब्दी में मराठों और फिर अवध के नवाब वजीर ने शासन किया था। अंत में 1801 ई. में यहां ब्रिटिश शासकों ने शासन किया। मैनपुरी जिला कृषि उत्पादों का प्रमुख व्यावसायिक केन्द्र है। .

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यमुना नगर

यमुनानगर हरियाणा प्रान्त का एक शहर है। इसका पुराना नाम अब्दुल्ला पुर है। रेलवे स्टेशन का नाम जगाधरी है। पश्चिम कैनाल के किनारे स्थित है। लक्कड़ की मर्केट बहुत बड़ी है। एक पपेर मिल है। एक चीनी मिल है। चीनी मिल के पार्ट्स की मिल है। एक स्तर्चझ मिल भी है। यहाँ पर बहुत बड़ा और प्रशिद्ध बर्तन-बजार है| यमुनानगर, राज्य की राजधानी चंडीगढ़ के दक्षिण पूर्व में स्थित है| यह शहर प्लाईवुड इकाइयों के क्लस्टर के लिए जाना जाता है। यह भी बड़े उद्योगों को देश की बेहतरीन लकड़ी उपलब्ध कराने के लिए जाना जाता है। पुराने शहर को जगाधरी कहा जाता है। यह एक हरे रंग की स्वच्छ और समृद्ध औद्योगिक शहर है।हालांकि शहर में और आसपास औद्योगिक इकाइयों में हाल ही में प्रेरणा के कारण गंभीर हवा, पानी और मिट्टी प्रदूषण मुद्दों में हुई है। शहर है मल्टीप्लेक्स और विभिन्न उच्च अंत ब्रांड स्टोर के उद्घाटन के साथ तेजी से बदल रहे हैं। सरोज बाला यमुनानगर एम सी के निर्वाचित मेयर है।.

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रामायण मेला

रामायण मेला, उत्तर प्रदेश के चित्रकूट और अयोध्या में लगता है। रामायण मेले में अनेक धर्माचार्य, संत महात्मा, देश-विदेश के रामकथा मर्मज्ञ तथा विद्धान भाग लेते हैं। इस अवसर पर रामलीला, प्रवचन तथा विभिन्न संस्थाओं द्वारा सांस्कृतिक कार्यक्रम भी होते हैं। रामायण मेला के आयोजन की परिकल्पना डॉ॰ राममनोहर लोहिया ने सन् 1961 में की थी। उसी के तहत 1973 में पहली बार उत्तर प्रदेश के तत्कालीन मुख्यमंत्री कमलापति त्रिपाठी ने चित्रकूट में रामायण मेला आयोजित किया था, जबकि अयोध्या में इसकी शुरूआत 1982 में तत्कालीन मुख्यमंत्री श्रीपति मिश्र ने की थी जिसका उद्देश्य रामायण मेले को केन्द्र में रखकर अयोध्या का विकास करना था। आनन्द, प्रेम और शान्ति के आह्वान के मुख्य प्रयोजन के साथ राममनोहर लोहिया ने रामायण मेला आयोजित करने की संकल्पना की थी। उन्हें लगता था कि आयोजन से भारत की एकता जैसे लक्ष्य भी प्राप्त किए जाएँगे। लोहिया मानते थे कि कम्बन की तमिल रामायण, एकनाथ की मराठी रामायण, कृत्तिबास की बंगला रामायण और ऐसी ही दूसरी रामायणों ने अपनी-अपनी भाषा को जन्म और संस्कार दिया। उनका विचार था कि रामायण मेला में तुलसी की रामायण को केन्द्रित करके इन सभी रामायणों पर विचार किया जाएगा और बानगी के तौर पर उसका पाठ भी होगा। लोहिया का निजी मत था कि तुलसी एक रक्षक कवि थे। .

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शरद पूर्णिमा

शरद पूर्णिमा, जिसे कोजागरी पूर्णिमा या रास पूर्णिमा भी कहते हैं; हिन्दू पंचांग के अनुसार आश्विन मास की पूर्णिमा को कहते हैं। ज्‍योतिष के अनुसार, पूरे साल में केवल इसी दिन चन्द्रमा सोलह कलाओं से परिपूर्ण होता है।। हिन्दी लोक। हिन्दू धर्म में इस दिन कोजागर व्रत माना गया है। इसी को कौमुदी व्रत भी कहते हैं। इसी दिन श्रीकृष्ण ने महारास रचाया था। मान्यता है इस रात्रि को चन्द्रमा की किरणों से अमृत झड़ता है। तभी इस दिन उत्तर भारत में खीर बनाकर रात भर चाँदनी में रखने का विधान है। .

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शहीद मेला

"शहीद मेला" देश में शहीदों की याद में लगने वाला सबसे लंबी अवधि का मेला है जो कि 19 दिनों तक मैनपुरी जनपद के बेवर नामक स्थान पर लगता है|इस मेले में शहीद देशभक्तों को याद किया जाता है| .

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सालासर

सालासर गाँव.

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सिंहस्थ

सिंहस्थ उज्जैन का महान स्नान पर्व है। बारह वर्षों के अंतराल से यह पर्व तब मनाया जाता है जब बृहस्पति सिंह राशि पर स्थित रहता है। पवित्र क्षिप्रा नदी में पुण्य स्नान की विधियां चैत्र मास की पूर्णिमा से प्रारंभ होती हैं और पूरे मास में वैशाख पूर्णिमा के अंतिम स्नान तक भिन्न-भिन्न तिथियों में सम्पन्न होती है। उज्जैन के महापर्व के लिए पारम्परिक रूप से दस योग महत्वपूर्ण माने गए हैं। .

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सूरजकुण्ड हस्तशिल्प मेला

उत्तराखंड राज के थीम पर बना बद्रीनाथ मंदिर की तरह का मेले का प्रवेशद्वार सूरजकुंड हस्तशिल्प मेला, भारत की एवं शिल्पियों की हस्तकला का १५ दिन चलने वाला मेला लोगों को ग्रामीण माहौल और ग्रामीण संस्कृति का परिचय देता है। यह मेला हरियाणा राज्य के फरीदाबाद शहर के दिल्ली के निकटवर्ती सीमा से लगे सूरजकुंड क्षेत्र में प्रतिवर्ष लगता है। यह मेला लगभग ढाई दशक से आयोजित होता आ रहा है। वर्तमान में इस मेले में हस्तशिल्पी और हथकरघा कारीगरों के अलावा विविध अंचलों की वस्त्र परंपरा, लोक कला, लोक व्यंजनों के अतिरिक्त लोक संगीत और लोक नृत्यों का भी संगम होता है।। हिन्दुस्तान लाइव। २८ जनवरी २०१० इस मेले में हर वर्ष किसी एक राज्य को थीम बना कर उसकी कला, संस्कृति, सामाजिक परिवेश और परंपराओं को प्रदर्शित किया जाता है। वर्ष २०१० में राजस्थान थीम राज्य है। इसे दूसरी बार यह गौरव प्राप्त हुआ है। मेले में लगे स्टॉल हर क्षेत्र की कला से परिचित कराते हैं। सार्क देशों एवं थाईलैंड, तजाकिस्तान और मिस्र के कलाशिल्पी भी यहां आते हैं। पश्चिम बंगाल और असम के बांस और बेंत की वस्तुएं, पूर्वोत्तर राज्यों के वस्त्र, छत्तीसगढ़ और आंध्र प्रदेश से लोहे व अन्य धातु की वस्तुएं, उड़ीसा एवं तमिलनाडु के अनोखे हस्तशिल्प, मध्य प्रदेश, गुजरात, पंजाब और कश्मीर के आकर्षक परिधान और शिल्प, सिक्किम की थंका चित्रकला, मुरादाबाद के पीतल के बर्तन और शो पीस, दक्षिण भारत के रोजवुड और चंदन की लकड़ी के हस्तशिल्प भी यहां प्रदर्शित हैं। यहां अनेक राज्यों के खास व्यंजनों के साथ ही विदेशी खानपान का स्वाद भी मिलता है। मेला परिसर में चौपाल और नाट्यशाला नामक खुले मंच पर सारे दिन विभिन्न राज्यों के लोक कलाकार अपनी अनूठी प्रस्तुतियों से समा बांधते हैं। शाम के समय विशेष सांस्कृतिक कार्यक्रम होते हैं। दर्शक भगोरिया डांस, बीन डांस, बिहू, भांगड़ा, चरकुला डांस, कालबेलिया नृत्य, पंथी नृत्य, संबलपुरी नृत्य और सिद्घी गोमा नृत्य आदि का आनंद लेते हैं। विदेशों की सांस्कृतिक मंडलियां भी प्रस्तुति देती हैं। .

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सोनपुर मेला

सोनपुर मेला बिहार के सोनपुर में हर साल कार्तिक पूर्णिमा (नवंबर-दिसंबर) में लगता हैं। यह एशिया का सबसे बड़ा पशु मेला हैं। मेले को 'हरिहर क्षेत्र मेला' के नाम से भी जाना जाता है जबकि स्थानीय लोग इसे छत्तर मेला पुकारते हैं। बिहार की राजधानी पटना से लगभग 25 किमी तथा वैशाली जिले के मुख्यालय हाजीपुर से ३ किलोमीटर दूर सोनपुर में गंडक के तट पर लगने वाले इस मेले ने देश में पशु मेलों को एक अलग पहचान दी है। इस महीने के बाकी मेलों के उलट यह मेला कार्तिक पूर्णिमा पर स्नान के बाद शुरू होता है। एक समय इस पशु मेले में मध्य एशिया से कारोबारी आया करते थे। अब भी यह एशिया का सबसे बडा पशु मेला माना जाता है। सोनपुर पशु मेला में आज भी नौटंकी और नाच देखने के लिए भीड़ उमड़ती है। एक जमाने में यह मेला जंगी हाथियों का सबसे बड़ा केंद्र था। मौर्य वंश के संस्थापक चन्द्रगुप्त मौर्य (340 ई॰पु॰ -298 ई॰पु), मुगल सम्राट अकबर और 1857 के गदर के नायक वीर कुँवर सिंह ने भी से यहां हाथियों की खरीद की थी। सन् 1803 में रॉबर्ट क्लाइव ने सोनपुर में घोड़े के बड़ा अस्तबल भी बनवाया था। एक दौर में सोनपुर मेले में नौटंकी की मल्लिका गुलाब बाई का जलवा होता था। सोनपुर मेला में भू-राजस्व विभाग का स्टॉल से बिहार के सभी राजस्व ग्रामों का डिजिटल मानचित्र 150 रूपये मात्र सरकारी शुल्क के द्वारा कोई भी नागरिक तीन मिनट के अन्दर प्राप्त कर सकते हैं। यह कार्य राष्ट्रीय सूचना विज्ञान केन्द्र पटना के तकनीकी सहयोग के द्वारा किया गया है। समय के बदलते प्रभाव के असर से हरिहर क्षेत्र सोनपुर मेला, पशु बाजारों से हटकर अब आटो एक्स्पो मेले का रूप लेता जा रहा है। पिछले कई वर्षों से इस मेले में कई कंपनियों के शोरूम तथा बिक्री केंद्र यहां खुल रहे हैं। मेले में रेल ग्राम प्रदर्शनी लगी। रेलग्राम में टॉय ट्रेन चलाई जा रही। सोनपुर मेले के प्रति विदेशी पर्यटकों में भी खास आकर्षण देखा जाता है। जर्मनी, अमेरिका, फ्रांस एवं अन्य विदेशी पर्यटकों को आकर्षित करने के लिए स्विस कॉटेजों का निर्माण किया जाता है। पर्यटकों को पटना एयरपोर्ट से सोनपुर मेला आने व जाने के लिए प्रीपेड टैक्सी भी उपलब्ध कराई जायेगी। मेलों से जुडे तमाम आयोजन तो यहां होते ही हैं। यहां हाथियों व घोडों की खरीद हमेशा से सुर्खियों में रहती है। पहले यह मेला हाजीपुर में होता था। सिर्फ हरिहर नाथ की पूजा सोनपुर में होती थी लेकिन बाद में मुगल बादशाह औरंगजेब के आदेश से मेला भी सोनपुर में ही लगने लगा। 2001 में, सोनपुर मेला में लाया गया हाथियों की संख्या 92 थी, जबकि 2016 में 13 हाथियों ने इसे मेले में बनाया, केवल प्रदर्शन के लिए, बिक्री के लिए नहीं। 2017 में, मेले में 3 टस्कर था। हरिहर क्षेत्र 2017 सोनपुर मेला 32 दिनों का होगा। सोनपुर मेले का उदघाटन इस बार 2 नवंबर को तथा समापन 3 दिसंबर को किया जाएगा। मेला में नौका दौड़, दंगल, वाटर सर्फिंग, वाटर के¨नग सहित विभिन्न प्रकार के खेल व प्रतियोगिता का भी आयोजन किया जाएगा। .

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हरिद्वार

हरिद्वार, उत्तराखण्ड के हरिद्वार जिले का एक पवित्र नगर तथा हिन्दुओं का प्रमुख तीर्थ है। यह नगर निगम बोर्ड से नियंत्रित है। यह बहुत प्राचीन नगरी है। हरिद्वार हिन्दुओं के सात पवित्र स्थलों में से एक है। ३१३९ मीटर की ऊंचाई पर स्थित अपने स्रोत गोमुख (गंगोत्री हिमनद) से २५३ किमी की यात्रा करके गंगा नदी हरिद्वार में मैदानी क्षेत्र में प्रथम प्रवेश करती है, इसलिए हरिद्वार को 'गंगाद्वार' के नाम से भी जाना जाता है; जिसका अर्थ है वह स्थान जहाँ पर गंगाजी मैदानों में प्रवेश करती हैं। हरिद्वार का अर्थ "हरि (ईश्वर) का द्वार" होता है। पश्चात्कालीन हिंदू धार्मिक कथाओं के अनुसार, हरिद्वार वह स्थान है जहाँ अमृत की कुछ बूँदें भूल से घड़े से गिर गयीं जब God Dhanwantari उस घड़े को समुद्र मंथन के बाद ले जा रहे थे। ध्यातव्य है कि कुम्भ या महाकुम्भ से सम्बद्ध कथा का उल्लेख किसी पुराण में नहीं है। प्रक्षिप्त रूप में ही इसका उल्लेख होता रहा है। अतः कथा का रूप भी भिन्न-भिन्न रहा है। मान्यता है कि चार स्थानों पर अमृत की बूंदें गिरी थीं। वे स्थान हैं:- उज्जैन, हरिद्वार, नासिक और प्रयाग। इन चारों स्थानों पर बारी-बारी से हर १२वें वर्ष महाकुम्भ का आयोजन होता है। एक स्थान के महाकुम्भ से तीन वर्षों के बाद दूसरे स्थान पर महाकुम्भ का आयोजन होता है। इस प्रकार बारहवें वर्ष में एक चक्र पूरा होकर फिर पहले स्थान पर महाकुम्भ का समय आ जाता है। पूरी दुनिया से करोड़ों तीर्थयात्री, भक्तजन और पर्यटक यहां इस समारोह को मनाने के लिए एकत्रित होते हैं और गंगा नदी के तट पर शास्त्र विधि से स्नान इत्यादि करते हैं। एक मान्यता के अनुसार वह स्थान जहाँ पर अमृत की बूंदें गिरी थीं उसे हर की पौड़ी पर ब्रह्म कुण्ड माना जाता है। 'हर की पौड़ी' हरिद्वार का सबसे पवित्र घाट माना जाता है और पूरे भारत से भक्तों और तीर्थयात्रियों के जत्थे त्योहारों या पवित्र दिवसों के अवसर पर स्नान करने के लिए यहाँ आते हैं। यहाँ स्नान करना मोक्ष प्राप्त करवाने वाला माना जाता है। हरिद्वार जिला, सहारनपुर डिवीजनल कमिशनरी के भाग के रूप में २८ दिसम्बर १९८८ को अस्तित्व में आया। २४ सितंबर १९९८ के दिन उत्तर प्रदेश विधानसभा ने 'उत्तर प्रदेश पुनर्गठन विधेयक, १९९८' पारित किया, अंततः भारतीय संसद ने भी 'भारतीय संघीय विधान - उत्तर प्रदेश पुनर्गठन अधिनियम २०००' पारित किया और इस प्रकार ९ नवम्बर २०००, के दिन हरिद्वार भारतीय गणराज्य के २७वें नवगठित राज्य उत्तराखंड (तब उत्तरांचल), का भाग बन गया। आज, यह अपने धार्मिक महत्त्व के अतिरिक्त भी, राज्य के एक प्रमुख औद्योगिक केन्द्र के रूप में, तेज़ी से विकसित हो रहा है। तेज़ी से विकसित होता औद्योगिक एस्टेट, राज्य ढांचागत और औद्योगिक विकास निगम, SIDCUL (सिडकुल), भेल (भारत हैवी इलेक्ट्रिकल्स लिमिटेड) और इसके सम्बंधित सहायक इस नगर के विकास के साक्ष्य हैं। .

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हरेला (पर्व)

हरेला उत्तराखण्ड के परिवेश और खेती के साथ जुड़ा हुआ पर्व है। हरेला पर्व वैसे तो वर्ष में तीन बार आता है-.

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हल्द्वानी

हल्द्वानी, उत्तराखण्ड के नैनीताल ज़िले में स्थित एक नगर है जो काठगोदाम के साथ मिलकर हल्द्वानी-काठगोदाम नगर निगम बनाता है। हल्द्वानी उत्तराखण्ड के सर्वाधिक जनसँख्या वाले नगरों में से है और इसे "कुमाऊँ का प्रवेश द्वार" भी कहा जाता है। कुमाऊँनी भाषा में इसे "हल्द्वेणी" भी कहा जाता है क्योंकि यहाँ "हल्दू" (कदम्ब) प्रचुर मात्रा में मिलता था। सन् १८१६ में गोरखाओं को परास्त करने के बाद गार्डनर को कुमाऊँ का आयुक्त नियुक्त किया गया। बाद में जॉर्ज विलियम ट्रेल ने आयुक्त का पदभार संभाला और १८३४ में "हल्दु वनी" का नाम हल्द्वानी रखा। ब्रिटिश अभिलेखों से हमें ये ज्ञात होता है कि इस स्थान को १८३४ में एक मण्डी के रूप में उन लोगों के लिए बसाया गया था जो शीत ऋतु में भाभर आया करते थे। .

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खिचड़ी

खिचड़ी एक लोकप्रिय भारतीय व्यंजन है जो दाल तथा चावल को एक साथ उबाल कर तैयार किया जाता है। यह रोगियों के लिये विशेष रूप से उपयोगी है। उत्तरी भारत में मकर संक्रान्ति के पर्व को भी "खिचड़ी" के नाम से भी जाना जाता है। इस दिन खिचड़ी खाने का विशेष रूप से प्रचलन है। एक में मिलाया या मिलाकर पकाया हुआ दाल और चावल। क्रि० प्र०—उतारना।—चढ़ाना।—डालना।—भूतना।— पकाना। मुहा०—पकना पकना .

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गया

बोधगया का महाबोधि मन्दिर गया, झारखंड और बिहार की सीमा और फल्गु नदी के तट पर बसा भारत प्रान्त के बिहार राज्य का दूसरा बड़ा शहर है। वाराणसी की तरह गया की प्रसिद्धि मुख्य रूप से एक धार्मिक नगरी के रूप में है। पितृपक्ष के अवसर पर यहाँ हजारों श्रद्धालु पिंडदान के लिये जुटते हैं। गया सड़क, रेल और वायु मार्ग द्वारा पूरे भारत से जुड़ा है। नवनिर्मित गया अंतर्राष्ट्रीय हवाई अड्डा द्वारा यह थाइलैंड से भी सीधे जुड़ा हुआ है। गया से 17 किलोमीटर की दूरी पर बोधगया स्थित है जो बौद्ध तीर्थ स्थल है और यहीं बोधि वृक्ष के नीचे भगवान बुद्ध को ज्ञान की प्राप्ति हुई थी। गया बिहार के महत्वपूर्ण तीर्थस्थानों में से एक है। यह शहर खासकर हिन्दू तीर्थयात्रियों के लिए काफी प्रसिद्ध है। यहां का विष्णुपद मंदिर पर्यटकों के बीच लोकप्रिय है। दंतकथाओं के अनुसार भगवान विष्णु के पांव के निशान पर इस मंदिर का निर्माण कराया गया है। हिन्दू धर्म में इस मंदिर को अहम स्थान प्राप्त है। गया पितृदान के लिए भी प्रसिद्ध है। कहा जाता है कि यहां फल्गु नदी के तट पर पिंडदान करने से मृत व्यक्ति को बैकुण्ठ की प्राप्ति होती है। गया, मध्य बिहार का एक महत्वपूर्ण शहर है, जो गंगा की सहायक नदी फल्गु के पश्चिमी तट पर स्थित है। यह बोधगया से 13 किलोमीटर उत्तर तथा राजधानी पटना से 100 किलोमीटर दक्षिण में स्थित है। यहां का मौसम मिलाजुला है। गर्मी के दिनों में यहां काफी गर्मी पड़ती है और ठंड के दिनों में औसत सर्दी होती है। मानसून का भी यहां के मौसम पर व्यापक असर होता है। लेकिन वर्षा ऋतु में यहां का दृश्य काफी रोचक होता है। कहा जाता है कि गयासुर नामक दैत्य का बध करते समय भगवान विष्णु के पद चिह्न यहां पड़े थे जो आज भी विष्णुपद मंदिर में देखे जा सकते है। .

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गंगासागर मेला

गंगासागर मेला हिन्दुओं का एक प्रमुख त्योहार है। यह पश्चिम बंगाल में लगता है .

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गोरखपुर

300px गोरखपुर उत्तर प्रदेश राज्य के पूर्वी भाग में नेपाल के साथ सीमा के पास स्थित भारत का एक प्रसिद्ध शहर है। यह गोरखपुर जिले का प्रशासनिक मुख्यालय भी है। यह एक धार्मिक केन्द्र के रूप में मशहूर है जो बौद्ध, हिन्दू, मुस्लिम, जैन और सिख सन्तों की साधनास्थली रहा। किन्तु मध्ययुगीन सर्वमान्य सन्त गोरखनाथ के बाद उनके ही नाम पर इसका वर्तमान नाम गोरखपुर रखा गया। यहाँ का प्रसिद्ध गोरखनाथ मन्दिर अभी भी नाथ सम्प्रदाय की पीठ है। यह महान सन्त परमहंस योगानन्द का जन्म स्थान भी है। इस शहर में और भी कई ऐतिहासिक स्थल हैं जैसे, बौद्धों के घर, इमामबाड़ा, 18वीं सदी की दरगाह और हिन्दू धार्मिक ग्रन्थों का प्रमुख प्रकाशन संस्थान गीता प्रेस। 20वीं सदी में, गोरखपुर भारतीय स्वतंत्रता आंदोलन का एक केन्द्र बिन्दु था और आज यह शहर एक प्रमुख व्यापार केन्द्र बन चुका है। पूर्वोत्तर रेलवे का मुख्यालय, जो ब्रिटिश काल में 'बंगाल नागपुर रेलवे' के रूप में जाना जाता था, यहीं स्थित है। अब इसे एक औद्योगिक क्षेत्र के रूप में विकसित करने के लिये गोरखपुर औद्योगिक विकास प्राधिकरण (गीडा/GIDA) की स्थापना पुराने शहर से 15 किमी दूर की गयी है। .

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गोगामेड़ी

गोगामेड़ी राजस्थान के हनुमानगढ़ जिले का एक शहर है। यहां भाद्रपद माह के शुक्लपक्ष की नवमी को गोगाजी देवता का मेला भरता है। गोगादेव गुरुभक्त, वीर योद्ध ओ‍र प्रतापी राजा थे गुरु गोरखनाथ के परमशिस्य थे जिनकि याद में ये मेला भरता हे श्रेणी:हनुमानगढ़ जिले के गाँव.

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ओरछा

भारत के इतिहास में झांसी के पास स्थित ओरछा का एक अपना महत्व है। इससे जुड़ी तमाम कहानियां और किस्से पिछली कई दशकों से लोगों की जुबान पर हैं। .

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कतिकी मेला

कतकी मेला, उत्तर प्रदेश के बुन्देलखण्ड क्षेत्र में बांदा जिले में स्थित एक कस्बे कलिंजर के कालिंजर दुर्ग में प्रतिवर्ष कार्तिक पूर्णिमा के अवसर पर पाँच दिवस के लिये लगता है। इसमें हजारों श्रद्धालुओं कि भीड़ उमड़ती है। साक्ष्यों के अनुसार यह मेला चंदेल शासक परिमर्दिदेव (११६५-१२०२) के समय आरम्भ हुआ था, जो आज तक लगता आ रहा है। इस कालिंजर महोत्सव का उल्लेख सर्वप्रथम परिमर्दिदेव के मंत्री एवं नाटककार वत्सराज रचित नाटक रूपक षटकम में मिलता है। उनके शासनकाल में हर वर्ष मंत्री वत्सराज के दो नाटकों का मंचन इसी महोत्सव के अवसर पर किया जाता था। कालांतर में मदनवर्मन के समय एक पद्मावती नामक नर्तकी के नृत्य कार्यक्रमों का उल्लेख भी कालिंजर के इतिहास में मिलता है। उसका नृत्य उस समय महोत्सव का मुख्य आकर्षण हुआ करता था। एक सहस्र वर्ष से यह परंपरा आज भी कतकी मेले के रूप चलती चली आ रही है, जिसमें विभिन्न अंचलों के लाखों लोग यहाँ आकर विभिन्न सरोवरों में स्नान कर नीलकंठेश्वर महादेव के दर्शन कर पुण्य लाभ अर्जित करते हैं। तीर्थ-पर्यटक दुर्ग के ऊपर एवं नीचे लगे मेले में खरीददारी आदि भी करते हैं। इसके अलावा यहाँ ढेरों तीर्थयात्री तीन दिन का कल्पवास भी करते हैं। इस भीड़ के उत्साह के आगे दुर्ग की अच्छी चढ़ाई भी कम होती प्रतीत होती है। यहां ऊपर पहाड़ के बीचों-बीच गुफानुमा तीन खंड का नलकुंठ है जो सरग्वाह के नाम से प्रसिद्ध है। वहां भी श्रद्धालुओं की भीड़ जुटती है। .

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कपाल मोचन मेला

कपाल मोचन, भारत के पवित्र स्थलों में से एक है। हरियाणा प्रान्त के यमुनानगर ज़िले में स्थित इस तीर्थ के बारे में मान्यता है कि कपाल मोचन स्थित सोम सरोवर में स्नान करने से भगवान शिव ब्रह्मादोष से मुक्त हुए थे। इसी वजह से हर साल कार्तिक पूर्णिमा पर यहाँ मेला लगता है जिसमें लाखों लोग पाप मुक्ति के लिए सरोवर में स्नान करने पहुंचते हैं। यह कपाल मोचन मेला के नाम से विख्यात है। .

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कामाख्या

कामाख्या देवी कामाख्या, देवी या शक्ति के प्रधान नामों में से एक नाम है। यह तांत्रिक देवी हैं और काली तथा 'त्रिपुर सुन्दरी' के साथ इनका निकट समबन्ध है। इनकी कथा का उल्लेख कालिका पुराण और योगिनी तंत्र में विस्तृत रूप से हुआ है। समूचे असम और पूर्वोत्तर बंगाल में शक्ति अथवा कामाक्षी की पूजा का बड़ा महात्म्य है। असम के कामरूप में कामाख्या का प्रसिद्ध मन्दिर अवस्थित है। .

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कालकाजी

कालकाजी दिल्ली शहर का एक क्षेत्र है। यहां आवासीय क्षेत्र भी हैं। कार्यालय क्षेत्र भी हैं औरऔद्योगिक क्षेत्र तथाकाली देवी का प्रसिद्ध मंदिर भी है। यह दिल्ली मेट्रो रेल की दक्षिण विस्तार वाली येलो लाइन शाखा का एक प्रस्तावित स्टेशन भी है। कालकाजी दिल्ली के दक्षिणी दिल्ली जिला का एक उप मंडल भी है। श्रेणी:दिल्ली मेट्रो येलोलाइन श्रेणी:दिल्ली के उपमंडल.

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काशीपुर

काशीपुर निम्न में से कोई हो सकता है.

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काशीपुर का चैती मेला

चैती मेला (जिसे चैती का मेला भी कहा जाता है) क्षेत्र का प्रसिद्ध मेला है। इसका आयोजन नैनीताल जिले में काशीपुर में प्रतिवर्ष चैत्र मास की नवरात्रि में आयोजित किया जाता है। यह धार्मिक एवं पौराणिक रूप से ऐतिहासिक स्थान है। काशीपुर में कुँडेश्वरी मार्ग पर स्थित यह स्थान महाभारत से भी सम्बन्धित रहा है और यहीं बालासुन्दरी देवी का मन्दिर है जो इक्यावन शक्तिपीठों में से एक है। मेले के अवसर पर दूर-दूर से यहाँ श्रद्धालु आते हैं। .

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कुम्भ मेला

हरिद्वार के कुंभ मेले (2010) के दौरान गंगा किनारे स्नान घाट पर श्रद्धालु २००१ के प्रयाग कुम्भ मेले का दृष्य कुंभ पर्व हिंदू धर्म का एक महत्वपूर्ण पर्व है, जिसमें करोड़ों श्रद्धालु कुंभ पर्व स्थल हरिद्वार, प्रयाग, उज्जैन और नासिक में स्नान करते हैं। इनमें से प्रत्येक स्थान पर प्रति बारहवें वर्ष और प्रयाग में दो कुंभ पर्वों के बीच छह वर्ष के अंतराल में अर्धकुंभ भी होता है। २०१३ का कुम्भ प्रयाग में हुआ था। खगोल गणनाओं के अनुसार यह मेला मकर संक्रांति के दिन प्रारम्भ होता है, जब सूर्य और चन्द्रमा, वृश्चिक राशी में और वृहस्पति, मेष राशी में प्रवेश करते हैं। मकर संक्रांति के होने वाले इस योग को "कुम्भ स्नान-योग" कहते हैं और इस दिन को विशेष मंगलिक माना जाता है, क्योंकि ऐसा माना जाता है कि इस दिन पृथ्वी से उच्च लोकों के द्वार इस दिन खुलते हैं और इस प्रकार इस दिन स्नान करने से आत्मा को उच्च लोकों की प्राप्ति सहजता से हो जाती है। यहाँ स्नान करना साक्षात स्वर्ग दर्शन माना जाता है। .

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कुरुक्षेत्र

कुरुक्षेत्र(Kurukshetra) हरियाणा राज्य का एक प्रमुख जिला और उसका मुख्यालय है। यह हरियाणा के उत्तर में स्थित है तथा अम्बाला, यमुना नगर, करनाल और कैथल से घिरा हुआ है तथा दिल्ली और अमृतसर को जोड़ने वाले राष्ट्रीय राजमार्ग और रेलमार्ग पर स्थित है। इसका शहरी इलाका एक अन्य एटिहासिक स्थल थानेसर से मिला हुआ है। यह एक महत्वपूर्ण हिन्दू तीर्थस्थल है। माना जाता है कि यहीं महाभारत की लड़ाई हुई थी और भगवान कृष्ण ने अर्जुन को गीता का उपदेश यहीं ज्योतिसर नामक स्थान पर दिया था। यह क्षेत्र बासमती चावल के उत्पादन के लिए भी प्रसिद्ध है। .

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अल्मोड़ा

अल्मोड़ा भारतीय राज्य उत्तराखण्ड का एक महत्वपूर्ण नगर है। यह अल्मोड़ा जिले का मुख्यालय भी है। अल्मोड़ा दिल्ली से ३६५ किलोमीटर और देहरादून से ४१५ किलोमीटर की दूरी पर, कुमाऊँ हिमालय श्रंखला की एक पहाड़ी के दक्षिणी किनारे पर स्थित है। भारत की २०११ की जनगणना के अनुसार अल्मोड़ा की कुल जनसंख्या ३५,५१३ है। अल्मोड़ा की स्थापना राजा बालो कल्याण चंद ने १५६८ में की थी। महाभारत (८ वीं और ९वीं शताब्दी ईसा पूर्व) के समय से ही यहां की पहाड़ियों और आसपास के क्षेत्रों में मानव बस्तियों के विवरण मिलते हैं। अल्मोड़ा, कुमाऊं राज्य पर शासन करने वाले चंदवंशीय राजाओं की राजधानी थी। स्वतंत्रता की लड़ाई में तथा शिक्षा, कला एवं संस्कृति के उत्थान में अल्मोड़ा का विशेष हाथ रहा है। .

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अजमेर

अजमेर राजस्थान प्रान्त में अजमेर जिले का मुख्यालय एवं मुख्य नगर है। यह अरावली पर्वत श्रेणी की तारागढ़ पहाड़ी की ढाल पर स्थित है। यह नगर सातवीं शताब्दी में अजयराज सिंह नामक एक चौहान राजा द्वारा बसाया गया था। इस नगर का मूल नाम 'अजयमेरु' था। सन् १३६५ में मेवाड़ के शासक, १५५६ में अकबर और १७७० से १८८० तक मेवाड़ तथा मारवाड़ के अनेक शासकों द्वारा शासित होकर अंत में १८८१ में यह अंग्रेजों के आधिपत्य में चला गया। अजमेर में मेघवंशी, जाट, गुर्जर, रावत ब्राह्मण, गर्ग, भील व जैन समुदाय का बहुमत है नगर के उत्तर में अनासागर तथा कुछ आगे फ्वायसागर नामक कृत्रिम झीलें हैं। यहाँ का प्रसिद्ध मुसलमान फकीर मुइनुद्दीन चिश्ती का मकबरा प्रसिद्ध है। ढाई दिन के झोपड़े में कुल ४० स्तंभ हैं और सब में नए-नए प्रकार की नक्काशी है; कोई भी दो स्तंभ नक्काशी में समान नहीं हैं। तारागढ़ पहाड़ी की चोटी पर एक दुर्ग भी है। इसका आधुनिक नगर एक प्रसिद्ध रेलवे केन्द्र भी है। यहाँ पर नमक का व्यापार होता है जो साँभर झील से लाया जाता है। यहाँ खाद्य, वस्त्र तथा रेलवे के कारखाने हैं। तेल तैयार करना भी यहाँ का एक प्रमुख व्यापार है। .

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उत्तरायणी मेला, बागेश्वर

उत्तरायणी मेला उत्तरांचल राज्य के बागेश्वर शहर में आयोजित होता है। तहसील व जनपद बागेश्वर के अन्तर्गत सरयू गोमती व सुष्प्त भागीरथी नदियों के पावन सगंम पर उत्तरायणी मेला बागेश्वर का भव्य आयोजन किया जाता है। मान्यता है कि इस दिन सगंम में स्नान करने से पाप कट जाते है बागेश्वर दो पर्वत शिखरों की उपत्यका में स्थित है इसके एक ओर नीलेश्वर तथा दूसरी ओर भीलेश्वर शिखर विद्यमान हैं बागेश्वर समुद्र तट से लगभग 960 मीटर की ऊचांई पर स्थित है। .

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उत्तराखण्ड

उत्तराखण्ड (पूर्व नाम उत्तरांचल), उत्तर भारत में स्थित एक राज्य है जिसका निर्माण ९ नवम्बर २००० को कई वर्षों के आन्दोलन के पश्चात भारत गणराज्य के सत्ताइसवें राज्य के रूप में किया गया था। सन २००० से २००६ तक यह उत्तरांचल के नाम से जाना जाता था। जनवरी २००७ में स्थानीय लोगों की भावनाओं को ध्यान में रखते हुए राज्य का आधिकारिक नाम बदलकर उत्तराखण्ड कर दिया गया। राज्य की सीमाएँ उत्तर में तिब्बत और पूर्व में नेपाल से लगी हैं। पश्चिम में हिमाचल प्रदेश और दक्षिण में उत्तर प्रदेश इसकी सीमा से लगे राज्य हैं। सन २००० में अपने गठन से पूर्व यह उत्तर प्रदेश का एक भाग था। पारम्परिक हिन्दू ग्रन्थों और प्राचीन साहित्य में इस क्षेत्र का उल्लेख उत्तराखण्ड के रूप में किया गया है। हिन्दी और संस्कृत में उत्तराखण्ड का अर्थ उत्तरी क्षेत्र या भाग होता है। राज्य में हिन्दू धर्म की पवित्रतम और भारत की सबसे बड़ी नदियों गंगा और यमुना के उद्गम स्थल क्रमशः गंगोत्री और यमुनोत्री तथा इनके तटों पर बसे वैदिक संस्कृति के कई महत्त्वपूर्ण तीर्थस्थान हैं। देहरादून, उत्तराखण्ड की अन्तरिम राजधानी होने के साथ इस राज्य का सबसे बड़ा नगर है। गैरसैण नामक एक छोटे से कस्बे को इसकी भौगोलिक स्थिति को देखते हुए भविष्य की राजधानी के रूप में प्रस्तावित किया गया है किन्तु विवादों और संसाधनों के अभाव के चलते अभी भी देहरादून अस्थाई राजधानी बना हुआ है। राज्य का उच्च न्यायालय नैनीताल में है। राज्य सरकार ने हाल ही में हस्तशिल्प और हथकरघा उद्योगों को बढ़ावा देने के लिये कुछ पहल की हैं। साथ ही बढ़ते पर्यटन व्यापार तथा उच्च तकनीकी वाले उद्योगों को प्रोत्साहन देने के लिए आकर्षक कर योजनायें प्रस्तुत की हैं। राज्य में कुछ विवादास्पद किन्तु वृहत बाँध परियोजनाएँ भी हैं जिनकी पूरे देश में कई बार आलोचनाएँ भी की जाती रही हैं, जिनमें विशेष है भागीरथी-भीलांगना नदियों पर बनने वाली टिहरी बाँध परियोजना। इस परियोजना की कल्पना १९५३ मे की गई थी और यह अन्ततः २००७ में बनकर तैयार हुआ। उत्तराखण्ड, चिपको आन्दोलन के जन्मस्थान के नाम से भी जाना जाता है। .

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उत्तरकाशी

उत्तरकाशी ऋषिकेश से 155 किलोमीटर की दूरी पर स्थित एक शहर है, जो उत्तरकाशी जिले का मुख्यालय है। यह शहर भागीरथी नदी के तट पर बसा हुआ है। उत्तरकाशी धार्मिक दृष्‍िट से भी महत्‍वपूर्ण शहर है। यहां भगवान विश्‍वनाथ का प्रसिद्ध मंदिर है। यह शहर प्राकृतिक सौंदर्य से भरपूर है। यहां एक तरफ जहां पहाड़ों के बीच बहती नदियां दिखती हैं वहीं दूसरी तरफ पहाड़ों पर घने जंगल भी दिखते हैं। यहां आप पहाड़ों पर चढ़ाई का लुफ्त भी उठा सकते हैं। .

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उदयपुर

उदयपुर राजस्थान का एक नगर एवं पर्यटन स्थल है जो अपने इतिहास, संस्कृति एवम् अपने अाकर्षक स्थलों के लिये प्रसिद्ध है। इसे सन् 1559 में महाराणा उदय सिंह ने स्थापित किया था। अपनी झीलों के कारण यह शहर 'झीलों की नगरी के नाम से भी जाना जाता है। उदयपुर शहर सिसोदिया राजवंश द्वारा ‌शासित मेवाड़ की राजधानी रहा है। .

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