लोगो
यूनियनपीडिया
संचार
Google Play पर पाएं
नई! अपने एंड्रॉयड डिवाइस पर डाउनलोड यूनियनपीडिया!
इंस्टॉल करें
ब्राउज़र की तुलना में तेजी से पहुँच!
 

बैरम खां

सूची बैरम खां

बैरम खां की हत्या एक अफ़्गान ने पाटन में १५६१ में की थी।:अकबरनामा बैरम खां की विधवा और बच्चे को १५६१ में उसकी हत्या के बाद अहमदाबाद, ले जाया गया था।: अकबरनामा बैरम खान(بيرام خان) अब्दुल रहीम खानेखाना के पिता जाने-माने योद्धा थे। वह अकबर के संरक्षक थे। याहू जागरण व तुर्किस्तान से आए थे। उन्हीं के संरक्षण में अकबर बड़े हुए लेकिन दरबार के कुछ लोगों ने अकबर को बैरम खान के खिलाफ भड़का दिया और उन्हें संरक्षक पद से हटा दिया गया, वह जब हज के लिए जा रहे थे तो रास्ते में उनकी हत्या कर दी गई। उस समय अब्दुल रहीम ५ साल के थे। उन्हें अकबर ने अपने पास रख लिया। बैरम खाँ तेरह वर्षीय अकबर के अतालीक (शिक्षक) तथा अभिभावक थे। बैरम खाँ खान-ए-खाना की उपाधि से सम्मानित थे। वे हुमायूँ के साढ़ू और अंतरंग मित्र थे। रहीम की माँ वर्तमान हरियाणा प्रांत के मेवाती राजपूत जमाल खाँ की सुंदर एवं गुणवती कन्या सुल्ताना बेगम थी। जब रहीम पाँच वर्ष के ही थे, तब गुजरात के पाटन नगर में सन १५६१ में इनके पिता बैरम खाँ की हत्या कर दी गई। रहीम का पालन-पोषण अकबर ने अपने धर्म-पुत्र की तरह किया।। अभिव्यक्ति। डॉ॰ दर्शन सेठी मध्य कालीन युद्धों के अरबी इतिहास ग्रंथ के प्रथम अध्याय में बैरम खां द्वारा बनवाई गई `कल्ला मीनार' का उल्लेख है। इस स्थान का नाम सर मंजिल रखा गया था। सिकंदर शाह सूरी के साथ लड़ने में जितने सिर कटे थे या सैनिक मरे थे, उन्हें बटोर कर उन्हें ईंट, पत्थरें की जगह काम में लाया गया और यह ऊंची मीनार खड़ी की गई थी। मुगल बादशाहों ने और भी कितनी ही ऐसी कल्ला मीनारें युद्ध विजय के दर्प-प्रदर्शन के लिए बनवाई थीं। कल्ला, फारसी में सिर को कहते हैं। बैरम ख़ाँ हुमायूँ का सहयोगी तथा उसके नाबालिग पुत्र अकबर का वली अथवा संरक्षक था। वह बादशाह हुमायूँ का परम मित्र तथा सहयोगी भी था। अपने समस्त जीवन में बैरम ख़ाँ ने मुग़ल साम्राज्य की बहुत सेवा की थी। हुमायूँ को उसका राज्य फिर से हासिल करने तथा कितने ही युद्धों में उसे विजित कराने में बैरम ख़ाँ का बहुत बड़ा हाथ था। अकबर को भी भारत का सम्राट बनाने के लिए बैरम ख़ाँ ने असंख्य युद्ध किए और हेमू जैसे शक्तिशाली राजा को हराकर भारत में मुग़ल साम्राज्य की स्थापना में महत्त्वपूर्ण योगदान दिया। मुग़ल साम्राज्य में अकबर की दूधमाता माहम अनगा ही थी, जो बैरम ख़ाँ के विरुद्ध साज़िश करती रहती थी। ये इन्हीं साज़िशों का नतीजा था कि बैरम को हज के लिए आदेश दिया गया, जहाँ 1561 ई. में उसकी हत्या कर दी गई। वंश परिचय बैरम ख़ाँ का सम्बन्ध तूरान (मध्य एशिया) की तुर्कमान जाति से था। हैदराबाद के निज़ाम भी तुर्कमान थे। इतिहासकार कासिम फ़रिश्ता के अनुसार वह ईरान के कराकुइलु तुर्कमानों के बहारलु शाखा से सम्बद्ध था। अलीशकर बेग तुर्कमान तैमूर के प्रसिद्ध सरदारों में से एक था, जिसे हमदान, दीनवर, खुजिस्तान आदि पर शासक नियुक्त किया गया था। अलीशकर की सन्तानों में शेरअली बेग हुआ। तैमूरी शाह हुसेन बायकरा के बाद जब तूरान में सल्तनत बरबाद हुई, तो शेरअली काबुल की तरफ भाग्य परीक्षा करने के लिए आया। उसका बेटा यारअली और पोता सैफअली अफ़ग़ानिस्तान चले आये। यारअली को बाबर ने ग़ज़नी का हाकिम नियुक्त किया। थोड़े ही दिनों के बाद उसके मरने पर बेटे सैफअली को वहीं दर्जा मिला। वह भी जल्दी ही मर गया। अल्प वयस्क बैरम अपने घरवालों के साथ बल्ख चला गया। हुमायूँ से मित्रता बल्ख में वह कुछ दिनों तक पढ़ता-लिखता रहा। फिर वह समवयस्क शाहज़ादा हुमायूँ का नौकर और बाद में उसका मित्र हो गया। बैरम ख़ाँ को साहित्य और संगीत से भी बहुत प्रेम था। वह जल्दी ही अपने स्वामी का अत्यन्त प्रिय हो गया था। 16 वर्ष की आयु में ही एक लड़ाई में बैरम ख़ाँ ने बहुत वीरता दिखाई, उसकी ख्याति बाबर तक पहुँच गई, तब बाबर ने खुद उससे कहा: शाहज़ादा के साथ दरबार में हाजिर करो। बाबर के मरने के बाद वह हुमायूँ बादशाह की छाया के तौर पर रहने लगा। हुमायूँ ने चांपानेर (गुजरात) के क़िले पर घेरा डाला। किसी तरह से दाल ग़लती न देखकर चालीस मुग़ल बहादुर सीढ़ियों के साथ क़िले में उतर गए, जिनमें बैरम ख़ाँ भी था। क़िला फ़तह कर लिया गया। शेरशाह से चौसा में लड़ते वक़्त बैरम ख़ाँ भी साथ ही था। कन्नौज में भी वह लड़ा। इन सभी घटनाओं ने हुमायूँ और बैरम ख़ाँ को एक अटूट मित्रता में बाँध दिया था। जीवन दान कन्नौज की लड़ाई में पराजय के बाद मुग़ल सेना में जिसकी सींग जिधर समाई, वह उधर भागा। बैरम ख़ाँ अपने पुराने दोस्त सम्भल के मियाँ अब्दुल वहाब के पास पहुँचा। फिर लखनऊ के राजा मित्रसेन के पास जंगलों में दिन गुज़ारता रहा। शेरशाही हाकिम नसीर ख़ाँ को पता लगा। उसने बैरम ख़ाँ को पकड़ मंगवाया। नसीर ख़ाँ चाहता था कि बैरम ख़ाँ को कत्ल कर दें, पर दोस्तों की कोशिश से बैरम ख़ाँ किसी प्रकार से बच गया। अन्त में उसे शेरशाह के सामने हाजिर होना पड़ा, जिसने एक मामूली मुग़ल सरदार को महत्व न देकर उसे माफ कर दिया और जीवन दान दे दिया। कंधार के हाकिम का पद बैरम ख़ाँ फिर से गुजरात के सुल्तान महमूद के पास गया, पर उसे अपने स्वामी से मिलने की धुन थी। जब हिजरी 950 (1543-1544 ई.) में हुमायूँ ईरान से लौटकर काबुल लेते सिंध की ओर बढ़ा, तो बैरम ख़ाँ अपने आदमियों के साथ हुमायूँ की ओर से लड़ने लगा। हुमायूँ को इसकी ख़बर लगी तो उसकी खुशी का ठिकाना नहीं रहा। हिन्दुस्तान में सफलता मिलने वाली नहीं थी, इसलिए हुमायूँ ने ईरान का रास्ता किया। बैरम ख़ाँ भी उसके साथ था। शाही काफिले में कुल मिलाकर सत्तर आदमी से ज़्यादा नहीं थे। ईरान से लौटकर हुमायूँ ने कंधार को घेरा। उसने चाहा, भाई कामराँ को समझा-बुझाकर ख़ून-ख़राबा रोका जाए। उसे समझाने के लिए हुमायूँ ने बैरम ख़ाँ को काबुल भेजा, लेकिन वह कहाँ होने वाला था। कंधार पर अधिकार करके बैरम ख़ाँ को वहाँ का हाकिम नियुक्त किया गया। कंधार विजय के बारे में हुमायूँ ने स्वयं कहा- “रोज नौरोज बैरम’स्त इमरोज”। दिले अहबाब बेगम’स्त इमरोज। (आज नववर्ष दिन बैरम है। आज मित्रों के दिल बेफिकर हैं। ख़ानख़ाना की उपाधि जब हुमायूँ हिन्दुस्तान की ओर बढ़ते समय सतलुज नदी के किनारे माछीवाड़ा पहुँचा था, तब पता लगा दूसरी पार बेजवाड़ा में तीस हज़ार पठान डेरा डाले पड़े हैं। पठान लकड़ी जलाकर ताप रहे थे। रात को रौशनी ने लक्ष्य बतलाने में सहायता की। अपने एक हज़ार सवारों के साथ बैरम ख़ाँ उनके ऊपर टूट पड़ा। दुश्मन की संख्या का उनको पता नहीं था। तीरों की वर्षा से पठान घबरा गए। वे अपना सारा माल वहीं पर छोड़कर भाग गए। इसी विजय के उपलक्ष्य में हुमायूँ ने उसे ‘ख़ानख़ाना’ की उपाधि प्रदान की। तर्दीबेग बैरम ख़ाँ का प्रतिद्वन्द्वी था, लेकिन हेमू से हारकर भागने के समय बैरम ख़ाँ को मौक़ा मिल गया और उसने इस काँटे को निकाल बाहर किया। अकबर के गद्दी पर बैठने के दिन अबुल मसानी ने कुछ गड़बड़ी करनी चाही थी, लेकिन बैरम ख़ाँ ने जैसी ख़ूबसूरती से इस गुत्थी को सुलझाया, वह उसका ही काम था। हेमचन्द्र (हेमू) से पराजित होकर मुग़ल अमीर निराश हो चुके थे। वह काबुल लौट जाना चाहते थे, पर बैरम ख़ाँ ने उन्हें रोक दिया। साज़िश अकबर की दूधमाता माहम अनगा नित्य ही बैरम ख़ाँ के ख़िलाफ़ साज़िशें रचती रहती थी। मुग़ल दरबार में माहम अनगा का एक समूह था, जो हमेशा ही बैरम को नीचा दिखाने में लगा रहता था। हिजरी 961 (1553-1554 ई.) में इन लोगों ने चुगली लगाई कि बैरम ख़ाँ स्वतंत्र होना चाहता है, लेकिन बैरम ख़ाँ नमक-हराम नहीं था। हुमायूँ एक दिन जब स्वयं कंधार पहुँचा था, तब बैरम ख़ाँ ने बहुत चाहा कि बादशाह उसे अपने साथ ले चले, लेकिन कंधार भी एक बहुत महत्त्वपूर्ण स्थान था, जिसके लिए बैरम ख़ाँ से बढ़कर अच्छा शासक नहीं मिल सक बैरम ख़ाँ हुमायूँ का सहयोगी तथा उसके नाबालिग पुत्र अकबर का वली अथवा संरक्षक था। वह बादशाह हुमायूँ का परम मित्र तथा सहयोगी भी था। अपने समस्त जीवन में बैरम ख़ाँ ने मुग़ल साम्राज्य की बहुत सेवा की थी। हुमायूँ को उसका राज्य फिर से हासिल करने तथा कितने ही युद्धों में उसे विजित कराने में बैरम ख़ाँ का बहुत बड़ा हाथ था। अकबर को भी भारत का सम्राट बनाने के लिए बैरम ख़ाँ ने असंख्य युद्ध किए और हेमू जैसे शक्तिशाली राजा को हराकर भारत में मुग़ल साम्राज्य की स्थापना में महत्त्वपूर्ण योगदान दिया। मुग़ल साम्राज्य में अकबर की दूधमाता माहम अनगा ही थी, जो बैरम ख़ाँ के विरुद्ध साज़िश करती रहती थी। ये इन्हीं साज़िशों का नतीजा था कि बैरम को हज के लिए आदेश दिया गया, जहाँ 1561 ई. में उसकी हत्या कर दी गई। वंश परिचय बैरम ख़ाँ का सम्बन्ध तूरान (मध्य एशिया) की तुर्कमान जाति से था। हैदराबाद के निज़ाम भी तुर्कमान थे। इतिहासकार कासिम फ़रिश्ता के अनुसार वह ईरान के कराकुइलु तुर्कमानों के बहारलु शाखा से सम्बद्ध था। अलीशकर बेग तुर्कमान तैमूर के प्रसिद्ध सरदारों में से एक था, जिसे हमदान, दीनवर, खुजिस्तान आदि पर शासक नियुक्त किया गया था। अलीशकर की सन्तानों में शेरअली बेग हुआ। तैमूरी शाह हुसेन बायकरा के बाद जब तूरान में सल्तनत बरबाद हुई, तो शेरअली काबुल की तरफ भाग्य परीक्षा करने के लिए आया। उसका बेटा यारअली और पोता सैफअली अफ़ग़ानिस्तान चले आये। यारअली को बाबर ने ग़ज़नी का हाकिम नियुक्त किया। थोड़े ही दिनों के बाद उसके मरने पर बेटे सैफअली को वहीं दर्जा मिला। वह भी जल्दी ही मर गया। अल्प वयस्क बैरम अपने घरवालों के साथ बल्ख चला गया। हुमायूँ से मित्रता बल्ख में वह कुछ दिनों तक पढ़ता-लिखता रहा। फिर वह समवयस्क शाहज़ादा हुमायूँ का नौकर और बाद में उसका मित्र हो गया। बैरम ख़ाँ को साहित्य और संगीत से भी बहुत प्रेम था। वह जल्दी ही अपने स्वामी का अत्यन्त प्रिय हो गया था। 16 वर्ष की आयु में ही एक लड़ाई में बैरम ख़ाँ ने बहुत वीरता दिखाई, उसकी ख्याति बाबर तक पहुँच गई, तब बाबर ने खुद उससे कहा: शाहज़ादा के साथ दरबार में हाजिर करो। बाबर के मरने के बाद वह हुमायूँ बादशाह की छाया के तौर पर रहने लगा। हुमायूँ ने चांपानेर (गुजरात) के क़िले पर घेरा डाला। किसी तरह से दाल ग़लती न देखकर चालीस मुग़ल बहादुर सीढ़ियों के साथ क़िले में उतर गए, जिनमें बैरम ख़ाँ भी था। क़िला फ़तह कर लिया गया। शेरशाह से चौसा में लड़ते वक़्त बैरम ख़ाँ भी साथ ही था। कन्नौज में भी वह लड़ा। इन सभी घटनाओं ने हुमायूँ और बैरम ख़ाँ को एक अटूट मित्रता में बाँध दिया था। जीवन दान कन्नौज की लड़ाई में पराजय के बाद मुग़ल सेना में जिसकी सींग जिधर समाई, वह उधर भागा। बैरम ख़ाँ अपने पुराने दोस्त सम्भल के मियाँ अब्दुल वहाब के पास पहुँचा। फिर लखनऊ के राजा मित्रसेन के पास जंगलों में दिन गुज़ारता रहा। शेरशाही हाकिम नसीर ख़ाँ को पता लगा। उसने बैरम ख़ाँ को पकड़ मंगवाया। नसीर ख़ाँ चाहता था कि बैरम ख़ाँ को कत्ल कर दें, पर दोस्तों की कोशिश से बैरम ख़ाँ किसी प्रकार से बच गया। अन्त में उसे शेरशाह के सामने हाजिर होना पड़ा, जिसने एक मामूली मुग़ल सरदार को महत्व न देकर उसे माफ कर दिया और जीवन दान दे दिया। कंधार के हाकिम का पद बैरम ख़ाँ फिर से गुजरात के सुल्तान महमूद के पास गया, पर उसे अपने स्वामी से मिलने की धुन थी। जब हिजरी 950 (1543-1544 ई.) में हुमायूँ ईरान से लौटकर काबुल लेते सिंध की ओर बढ़ा, तो बैरम ख़ाँ अपने आदमियों के साथ हुमायूँ की ओर से लड़ने लगा। हुमायूँ को इसकी ख़बर लगी तो उसकी खुशी का ठिकाना नहीं रहा। हिन्दुस्तान में सफलता मिलने वाली नहीं थी, इसलिए हुमायूँ ने ईरान का रास्ता किया। बैरम ख़ाँ भी उसके साथ था। शाही काफिले में कुल मिलाकर सत्तर आदमी से ज़्यादा नहीं थे। ईरान से लौटकर हुमायूँ ने कंधार को घेरा। उसने चाहा, भाई कामराँ को समझा-बुझाकर ख़ून-ख़राबा रोका जाए। उसे समझाने के लिए हुमायूँ ने बैरम ख़ाँ को काबुल भेजा, लेकिन वह कहाँ होने वाला था। कंधार पर अधिकार करके बैरम ख़ाँ को वहाँ का हाकिम नियुक्त किया गया। कंधार विजय के बारे में हुमायूँ ने स्वयं कहा- “रोज नौरोज बैरम’स्त इमरोज”। दिले अहबाब बेगम’स्त इमरोज। (आज नववर्ष दिन बैरम है। आज मित्रों के दिल बेफिकर हैं। ख़ानख़ाना की उपाधि जब हुमायूँ हिन्दुस्तान की ओर बढ़ते समय सतलुज नदी के किनारे माछीवाड़ा पहुँचा था, तब पता लगा दूसरी पार बेजवाड़ा में तीस हज़ार पठान डेरा डाले पड़े हैं। पठान लकड़ी जलाकर ताप रहे थे। रात को रौशनी ने लक्ष्य बतलाने में सहायता की। अपने एक हज़ार सवारों के साथ बैरम ख़ाँ उनके ऊपर टूट पड़ा। दुश्मन की संख्या का उनको पता नहीं था। तीरों की वर्षा से पठान घबरा गए। वे अपना सारा माल वहीं पर छोड़कर भाग गए। इसी विजय के उपलक्ष्य में हुमायूँ ने उसे ‘ख़ानख़ाना’ की उपाधि प्रदान की। तर्दीबेग बैरम ख़ाँ का प्रतिद्वन्द्वी था, लेकिन हेमू से हारकर भागने के समय बैरम ख़ाँ को मौक़ा मिल गया और उसने इस काँटे को निकाल बाहर किया। अकबर के गद्दी पर बैठने के दिन अबुल मसानी ने कुछ गड़बड़ी करनी चाही थी, लेकिन बैरम ख़ाँ ने जैसी ख़ूबसूरती से इस गुत्थी को सुलझाया, वह उसका ही काम था। हेमचन्द्र (हेमू) से पराजित होकर मुग़ल अमीर निराश हो चुके थे। वह काबुल लौट जाना चाहते थे, पर बैरम ख़ाँ ने उन्हें रोक दिया। साज़िश अकबर की दूधमाता माहम अनगा नित्य ही बैरम ख़ाँ के ख़िलाफ़ साज़िशें रचती रहती थी। मुग़ल दरबार में माहम अनगा का एक समूह था, जो हमेशा ही बैरम को नीचा दिखाने में लगा रहता था। हिजरी 961 (1553-1554 ई.) में इन लोगों ने चुगली लगाई कि बैरम ख़ाँ स्वतंत्र होना चाहता है, लेकिन बैरम ख़ाँ नमक-हराम नहीं था। हुमायूँ एक दिन जब स्वयं कंधार पहुँचा था, तब बैरम ख़ाँ ने बहुत चाहा कि बादशाह उसे अपने साथ ले चले, लेकिन कंधार भी एक बहुत महत्त्वपूर्ण स्थान था, जिसके लिए बैरम ख़ाँ से बढ़कर अच्छा शासक नहीं मिल सक .

4 संबंधों: तुर्किस्तान, रहीम, अकबर, अकबरनामा

तुर्किस्तान

सन् १९१४ के नक़्शे में रूसी तुर्किस्तान दर्शाया गया है तुर्किस्तान (अंग्रेज़ी: Turkistan या Turkestan, फ़ारसी) मध्य एशिया के एक बड़ा भूभाग का पारम्परिक नाम है जहाँ तुर्की भाषाएँ बोलने वाले तुर्क लोग रहते हैं। इस नाम द्वारा परिभाषित इलाक़े की सीमाएँ समय के साथ बदलती रहीं हैं और इसका प्रयोग भी तुर्किस्तान से बाहर रहने वाले लोग ही अधिक करते थे।, Anita Sengupta, Lexington Books, 2009, ISBN 978-0-7391-3606-5,...

नई!!: बैरम खां और तुर्किस्तान · और देखें »

रहीम

अब्दुल रहीम ख़ान-ए-ख़ाना या सिर्फ रहीम, एक मध्यकालीन कवि, सेनापति, प्रशासक, आश्रयदाता, दानवीर, कूटनीतिज्ञ, बहुभाषाविद, कलाप्रेमी, एवं विद्वान थे। वे भारतीय सामासिक संस्कृति के अनन्य आराधक तथा सभी संप्रदायों के प्रति समादर भाव के सत्यनिष्ठ साधक थे। उनका व्यक्तित्व बहुमुखी प्रतिभा से संपन्न था। वे एक ही साथ कलम और तलवार के धनी थे और मानव प्रेम के सूत्रधार थे। जन्म से एक मुसलमान होते हुए भी हिंदू जीवन के अंतर्मन में बैठकर रहीम ने जो मार्मिक तथ्य अंकित किये थे, उनकी विशाल हृदयता का परिचय देती हैं। हिंदू देवी-देवताओं, पर्वों, धार्मिक मान्यताओं और परंपराओं का जहाँ भी आपके द्वारा उल्लेख किया गया है, पूरी जानकारी एवं ईमानदारी के साथ किया गया है। आप जीवन भर हिंदू जीवन को भारतीय जीवन का यथार्थ मानते रहे। रहीम ने काव्य में रामायण, महाभारत, पुराण तथा गीता जैसे ग्रंथों के कथानकों को उदाहरण के लिए चुना है और लौकिक जीवन व्यवहार पक्ष को उसके द्वारा समझाने का प्रयत्न किया है, जो भारतीय सांस्कृति की वर झलक को पेश करता है। .

नई!!: बैरम खां और रहीम · और देखें »

अकबर

जलाल उद्दीन मोहम्मद अकबर (१५ अक्तूबर, १५४२-२७ अक्तूबर, १६०५) तैमूरी वंशावली के मुगल वंश का तीसरा शासक था। अकबर को अकबर-ऐ-आज़म (अर्थात अकबर महान), शहंशाह अकबर, महाबली शहंशाह के नाम से भी जाना जाता है। अंतरण करने वाले के अनुसार बादशाह अकबर की जन्म तिथि हुमायुंनामा के अनुसार, रज्जब के चौथे दिन, ९४९ हिज़री, तदनुसार १४ अक्टूबर १५४२ को थी। सम्राट अकबर मुगल साम्राज्य के संस्थापक जहीरुद्दीन मुहम्मद बाबर का पौत्र और नासिरुद्दीन हुमायूं एवं हमीदा बानो का पुत्र था। बाबर का वंश तैमूर और मंगोल नेता चंगेज खां से संबंधित था अर्थात उसके वंशज तैमूर लंग के खानदान से थे और मातृपक्ष का संबंध चंगेज खां से था। अकबर के शासन के अंत तक १६०५ में मुगल साम्राज्य में उत्तरी और मध्य भारत के अधिकाश भाग सम्मिलित थे और उस समय के सर्वाधिक शक्तिशाली साम्राज्यों में से एक था। बादशाहों में अकबर ही एक ऐसा बादशाह था, जिसे हिन्दू मुस्लिम दोनों वर्गों का बराबर प्यार और सम्मान मिला। उसने हिन्दू-मुस्लिम संप्रदायों के बीच की दूरियां कम करने के लिए दीन-ए-इलाही नामक धर्म की स्थापना की। उसका दरबार सबके लिए हर समय खुला रहता था। उसके दरबार में मुस्लिम सरदारों की अपेक्षा हिन्दू सरदार अधिक थे। अकबर ने हिन्दुओं पर लगने वाला जज़िया ही नहीं समाप्त किया, बल्कि ऐसे अनेक कार्य किए जिनके कारण हिन्दू और मुस्लिम दोनों उसके प्रशंसक बने। अकबर मात्र तेरह वर्ष की आयु में अपने पिता नसीरुद्दीन मुहम्मद हुमायुं की मृत्यु उपरांत दिल्ली की राजगद्दी पर बैठा था। अपने शासन काल में उसने शक्तिशाली पश्तून वंशज शेरशाह सूरी के आक्रमण बिल्कुल बंद करवा दिये थे, साथ ही पानीपत के द्वितीय युद्ध में नवघोषित हिन्दू राजा हेमू को पराजित किया था। अपने साम्राज्य के गठन करने और उत्तरी और मध्य भारत के सभी क्षेत्रों को एकछत्र अधिकार में लाने में अकबर को दो दशक लग गये थे। उसका प्रभाव लगभग पूरे भारतीय उपमहाद्वीप पर था और इस क्षेत्र के एक बड़े भूभाग पर सम्राट के रूप में उसने शासन किया। सम्राट के रूप में अकबर ने शक्तिशाली और बहुल हिन्दू राजपूत राजाओं से राजनयिक संबंध बनाये और उनके यहाँ विवाह भी किये। अकबर के शासन का प्रभाव देश की कला एवं संस्कृति पर भी पड़ा। उसने चित्रकारी आदि ललित कलाओं में काफ़ी रुचि दिखाई और उसके प्रासाद की भित्तियाँ सुंदर चित्रों व नमूनों से भरी पड़ी थीं। मुगल चित्रकारी का विकास करने के साथ साथ ही उसने यूरोपीय शैली का भी स्वागत किया। उसे साहित्य में भी रुचि थी और उसने अनेक संस्कृत पाण्डुलिपियों व ग्रन्थों का फारसी में तथा फारसी ग्रन्थों का संस्कृत व हिन्दी में अनुवाद भी करवाया था। अनेक फारसी संस्कृति से जुड़े चित्रों को अपने दरबार की दीवारों पर भी बनवाया। अपने आरंभिक शासन काल में अकबर की हिन्दुओं के प्रति सहिष्णुता नहीं थी, किन्तु समय के साथ-साथ उसने अपने आप को बदला और हिन्दुओं सहित अन्य धर्मों में बहुत रुचि दिखायी। उसने हिन्दू राजपूत राजकुमारियों से वैवाहिक संबंध भी बनाये। अकबर के दरबार में अनेक हिन्दू दरबारी, सैन्य अधिकारी व सामंत थे। उसने धार्मिक चर्चाओं व वाद-विवाद कार्यक्रमों की अनोखी शृंखला आरंभ की थी, जिसमें मुस्लिम आलिम लोगों की जैन, सिख, हिन्दु, चार्वाक, नास्तिक, यहूदी, पुर्तगाली एवं कैथोलिक ईसाई धर्मशस्त्रियों से चर्चाएं हुआ करती थीं। उसके मन में इन धार्मिक नेताओं के प्रति आदर भाव था, जिसपर उसकी निजि धार्मिक भावनाओं का किंचित भी प्रभाव नहीं पड़ता था। उसने आगे चलकर एक नये धर्म दीन-ए-इलाही की भी स्थापना की, जिसमें विश्व के सभी प्रधान धर्मों की नीतियों व शिक्षाओं का समावेश था। दुर्भाग्यवश ये धर्म अकबर की मृत्यु के साथ ही समाप्त होता चला गया। इतने बड़े सम्राट की मृत्यु होने पर उसकी अंत्येष्टि बिना किसी संस्कार के जल्दी ही कर दी गयी। परम्परानुसार दुर्ग में दीवार तोड़कर एक मार्ग बनवाया गया तथा उसका शव चुपचाप सिकंदरा के मकबरे में दफना दिया गया। .

नई!!: बैरम खां और अकबर · और देखें »

अकबरनामा

अकबरनामा का शाब्दिक अर्थ है अकबर की कहानी | इसे अबुल फजल जो की अकबर के दरबारी ने लिखा है। इसमे अकबर के जीवन काल की सुंदर व्याख्या है। श्रेणी:अकबर श्रेणी:मुगल श्रेणी:भारत का इतिहास श्रेणी:चित्र जोड़ें अकबरनामा 3 जिल्दो में प्राप्त होता है जिसमें तीसरा अत्यंत महत्वपूर्ण है जो आईने अकबरी के नाम से प्रसिद्ध है.

नई!!: बैरम खां और अकबरनामा · और देखें »

यहां पुनर्निर्देश करता है:

बैरम ख़ान, बैरम खाँ, बैरम खान

निवर्तमानआने वाली
अरे! अब हम फेसबुक पर हैं! »