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बैताल पचीसी

सूची बैताल पचीसी

विक्रम और बेताल बैताल पचीसी (वेताल पचीसी या बेताल पच्चीसी; संस्कृत: बेतालपंचविंशतिका) पच्चीस कथाओं से युक्त एक कथा ग्रन्थ है। इसके रचयिता बेतालभट्ट बताये जाते हैं जो न्याय के लिये प्रसिद्ध राजा विक्रम के नौ रत्नों में से एक थे। ये कथायें राजा विक्रम की न्याय-शक्ति का बोध कराती हैं। बेताल प्रतिदिन एक कहानी सुनाता है और अन्त में राजा से ऐसा प्रश्न कर देता है कि राजा को उसका उत्तर देना ही पड़ता है। उसने शर्त लगा रखी है कि अगर राजा बोलेगा तो वह उससे रूठकर फिर से पेड़ पर जा लटकेगा। लेकिन यह जानते हुए भी सवाल सामने आने पर राजा से चुप नहीं रहा जाता। .

9 संबंधों: पञ्चतन्त्र, बृहत्कथा, सिंहासन बत्तीसी, संस्कृत भाषा, सोमदेव, हितोपदेश, विक्रमादित्य, गुणाढ्य, कथासरित्सागर

पञ्चतन्त्र

'''पंचतन्त्र''' का विश्व में प्रसार संस्कृत नीतिकथाओं में पंचतंत्र का पहला स्थान माना जाता है। यद्यपि यह पुस्तक अपने मूल रूप में नहीं रह गयी है, फिर भी उपलब्ध अनुवादों के आधार पर इसकी रचना तीसरी शताब्दी ईसा पूर्व के आस- पास निर्धारित की गई है। इस ग्रंथ के रचयिता पं॰ विष्णु शर्मा है। उपलब्ध प्रमाणों के आधार पर कहा जा सकता है कि जब इस ग्रंथ की रचना पूरी हुई, तब उनकी उम्र लगभग ८० वर्ष थी। पंचतंत्र को पाँच तंत्रों (भागों) में बाँटा गया है.

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बृहत्कथा

बृहत्कथा गुणाढ्य द्वारा पैशाची भाषा में रचित काव्य है। 'वृहत्कथा' का शाब्दिक अर्थ है - 'लम्बी कथा'। इसमें एक लाख श्लोक हैं। इसमें पाण्डववंश के वत्सराज के पुत्र नरवाहनदत्त का चरित (कथा) वर्णित है। इसका मूल रूप प्राप्त नहीं होता किन्तु यह कथासरित्सागर, बृहत्कथामंजरी तथा बृहत्कथाश्लोकसंग्रहः आदि संस्कृत ग्रंथों में रूपान्तरित रूप में विद्यमान है। पंचतंत्र, हितोपदेश, वेतालपंचविंशति आदि कथाएँ सम्भवतः इसी से ली गयी हैं। .

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सिंहासन बत्तीसी

सिंहासन बत्तीसी (संस्कृत:सिंहासन द्वात्रिंशिका, विक्रमचरित) एक लोककथा संग्रह है। प्रजावत्सल, जननायक, प्रयोगवादी एवं दूरदर्शी महाराजा विक्रमादित्य भारतीय लोककथाओं के एक बहुत ही चर्चित पात्र रहे हैं। प्राचीनकाल से ही उनके गुणों पर प्रकाश डालने वाली कथाओं की बहुत ही समृद्ध परम्परा रही है। सिंहासन बत्तीसी भी ३२ कथाओं का संग्रह है जिसमें ३२ पुतलियाँ विक्रमादित्य के विभिन्न गुणों का कथा के रूप में वर्णन करती हैं। .

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संस्कृत भाषा

संस्कृत (संस्कृतम्) भारतीय उपमहाद्वीप की एक शास्त्रीय भाषा है। इसे देववाणी अथवा सुरभारती भी कहा जाता है। यह विश्व की सबसे प्राचीन भाषा है। संस्कृत एक हिंद-आर्य भाषा हैं जो हिंद-यूरोपीय भाषा परिवार का एक शाखा हैं। आधुनिक भारतीय भाषाएँ जैसे, हिंदी, मराठी, सिन्धी, पंजाबी, नेपाली, आदि इसी से उत्पन्न हुई हैं। इन सभी भाषाओं में यूरोपीय बंजारों की रोमानी भाषा भी शामिल है। संस्कृत में वैदिक धर्म से संबंधित लगभग सभी धर्मग्रंथ लिखे गये हैं। बौद्ध धर्म (विशेषकर महायान) तथा जैन मत के भी कई महत्त्वपूर्ण ग्रंथ संस्कृत में लिखे गये हैं। आज भी हिंदू धर्म के अधिकतर यज्ञ और पूजा संस्कृत में ही होती हैं। .

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सोमदेव

सोमदेव (अनुमानतः ग्यारहवीं शताब्दी) कथासरित्सागर के रचयिता हैं। वे कश्मीर के निवासी थे। सोमदेव के जीवन के बारे में कुछ भी पता नहीं है। उनके पिता का नाम 'राम' था। सम्भवतः १०६३ और १०८१ के मध्य उन्होने रानी सूर्यमती के चित्तविनोद के लिये उन्होने इस महाग्रन्थ की रचना की। सूर्यमती जालन्धर की राजकुमारी और कश्मीर के राजा अनन्तदेव की पत्नी थीं। कहा जाता है कि भयानक राजनैतिक अशान्ति, रक्तपात और जटिल परिस्थितियों के कारण बिषादग्रस्त हुई रानी के मानसिक स्वास्थ्य के लिये इस ग्रन्थ की रचना हुई। सोमदेव शैव ब्राह्मण थे। तथापि बौद्ध धर्म के प्रति भी उनकी अगाध श्रद्धा थी। कथासरित्सागर के किसी-किसी कथा में इसी कारण बौद्ध प्रभाव परिलक्षित होता है। .

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हितोपदेश

हितोपदेश भारतीय जन-मानस तथा परिवेश से प्रभावित उपदेशात्मक कथाएँ हैं। हितोपदेश की कथाएँ अत्यन्त सरल व सुग्राह्य हैं। विभिन्न पशु-पक्षियों पर आधारित कहानियाँ इसकी खास विशेषता हैं। रचयिता ने इन पशु-पक्षियों के माध्यम से कथाशिल्प की रचना की है जिसकी समाप्ति किसी शिक्षापद बात से ही हुई है। पशुओं को नीति की बातें करते हुए दिखाया गया है। सभी कथाएँ एक-दूसरे से जुड़ी हुई प्रतीत होती हैं। .

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विक्रमादित्य

विक्रमादित्य उज्जैन के अनुश्रुत राजा थे, जो अपने ज्ञान, वीरता और उदारशीलता के लिए प्रसिद्ध थे। "विक्रमादित्य" की उपाधि भारतीय इतिहास में बाद के कई अन्य राजाओं ने प्राप्त की थी, जिनमें गुप्त सम्राट चन्द्रगुप्त द्वितीय और सम्राट हेमचन्द्र विक्रमादित्य (जो हेमु के नाम से प्रसिद्ध थे) उल्लेखनीय हैं। राजा विक्रमादित्य नाम, 'विक्रम' और 'आदित्य' के समास से बना है जिसका अर्थ 'पराक्रम का सूर्य' या 'सूर्य के समान पराक्रमी' है।उन्हें विक्रम या विक्रमार्क (विक्रम + अर्क) भी कहा जाता है (संस्कृत में अर्क का अर्थ सूर्य है)। हिन्दू शिशुओं में 'विक्रम' नामकरण के बढ़ते प्रचलन का श्रेय आंशिक रूप से विक्रमादित्य की लोकप्रियता और उनके जीवन के बारे में लोकप्रिय लोक कथाओं की दो श्रृंखलाओं को दिया जा सकता है। .

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गुणाढ्य

गुणाढ्य पैशाची में बड्डकहा (संस्कृत: बृहत्कथा) नामक अनुपलब्ध आख्यायिका ग्रंथ के प्रणेता। क्षेमेंद्रकृत बृहत्कथामंजरी (११वीं शती) के अनुसार वे प्रतिष्ठान निवासी कीर्तिसेन के पुत्र थे। दक्षिणापथ में विद्यार्जन करके विख्यात पंडित हुए। प्रभावित होकर सातवाहनराज ने उन्हें अपना मंत्री बनाया। प्रवाद है कि महाराज संस्कृत व्याकरण के अच्छे ज्ञाता नहीं थे जिससे जलक्रीड़ा के समय वे विदुषी रानियों के मध्य उपहास के पात्र बने। दु:खी होकर उन्होंने अल्प काल में ही व्याकरण मे निष्णात्‌ होने के निमित्त गुणाढ्य पंडित को प्रेरित किया जिसे उन्होंने असंभव बताया। किंतु ‘कातत्र’ के रचयिता दूसरे सभापंडित शर्ववर्मा ने इसे छह मास में ही संभव बताया। गुणाढ्य ने इस चुनौती और प्रतिद्वंद्विता का उत्तर अपनी रोषयुक्त प्रतिज्ञा द्वारा किया। लेकिन शर्ववर्मा ने उसी अवधि में महाराज को व्याकरण का अच्छा ज्ञान करा ही दिया। फलत: प्रतिज्ञा के अनुसार गुणाढ्य को नगरवास छोड़ वनवास और संस्कृत, पाली तथा प्राकृत छोड़कर पैशाची का आश्रय लेना पड़ा। विद्वानों का एक वर्ग गुणाढ्य को कश्मीरी मानता है जिससे पैशाची से उनका संबंध स्वाभाविक हो जाता है। इसी भाषा में उन्होंने सात लाख की अपनी ‘बड्डकहा’ रची जो काणभूति के अनुसार चमड़े पर लिखी विद्याधरेंद्रो की कथा बताई जाती है। ग्रंथ को लेकर वे सातवाहन नरेश की सभा में पुन: गए जहाँ उन्हें वांछित सत्कार नहीं मिला। प्रतिक्रियास्वरूप, वन लौटकर वे उस कृति को पाठपूर्वक अग्नि में हवन करने लगे। कहा जाता है, माधुर्य के कारण पशु-पक्षी गण तक निराहार रह कथाश्रवण में लीन रहने लगें जिससे वे मांसरहित हो गए। इधर वनजीवों के मांसाभाव का कारण जानने के लिये सातवाहन द्वारा पूछताछ किए जाने पर लुब्धकों ने जो उत्तर दिया उसके अनुसार वे गुणाढ्य को मनाने अथवा ‘बड्डकहा’ को बचाने के उद्देश्य से वन की ओर गए। वहाँ वे अनुरोधपूर्वक ग्रंथ का केवल सप्तमांश जलने से बचाने में सफल हो सके जो क्षेमेंद्रकृत बृहत्कथा श्लोकसंग्रह (७५०० श्लोक) और सोमदेवकृत कथासरित्सागर (२४०० श्लोक) नामक संस्कृत रूपांतरों में उपलब्ध है। गुणाढ्य का समय विवादास्पद है। संस्कृत तथा अपभ्रंश ग्रंथों में जो उल्लेख प्राप्त होते हैं वे ७वीं शताब्दी से प्राचीन नहीं है। कीथ ने कंबोडिया से प्राप्त ८७५ ई. के एक अभिलेख के आधार पर उनके अस्तित्व की कल्पना ६०० ई. से पूर्व की है। प्रचलित प्रवादों में गुणाढ्य का संबंध सातवाहन से जोड़ा गया है। सातवाहननरेशों का समय २०० ई. पू.

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कथासरित्सागर

कथासरित्सागर, संस्कृत कथा साहित्य का शिरोमणि ग्रंथ है। इसकी रचना कश्मीर में पंडित सोमदेव (भट्ट) ने त्रिगर्त अथवा कुल्लू कांगड़ा के राजा की पुत्री, कश्मीर के राजा अनंत की रानी सूर्यमती के मनोविनोदार्थ 1063 ई और 1082 ई. के मध्य संस्कृत में की। सोमदेव रचित कथासरित्सागर गुणाढ्य की बृहत्कथा का सबसे बेहतर, बड़ा और सरस रूपांतरण है। वास्तविक अर्थों में इसे भारतीय कथा परंपरा का महाकोश और भारतीय कहानी एवं जातीय विरासत का सबसे अच्छा प्रतिनिधि माना जा सकता है। मिथक, इतिहास यथार्थ, फैंटेसी, सचाई, इन्द्रजाल आदि का अनूठा संगम इन कथाओं में है। ईसा लेकर मध्यकाल तक की भारतीय परंपराओं और सांस्कृतिक धाराओं के इस दस्तावेज में तांत्रिक अनुष्ठानों, प्राकेतर घटनाओं तथा गंधर्व, किन्नर, विद्याधर आदि दिव्य योनि के प्राणियों के बारे में ढेरों कथाएं हैं। साथ ही मनोविज्ञान सत्य, हमारी सामाजिक-आर्थिक स्थितियों तथा धार्मिक आस्थाओं की छवि और विक्रमादित्य, बैताल पचीसी, सिंहासन बत्तीसी, किस्सा तोता मैना आदि कई कथाचक्रों का समावेश भी इसमें हैं। कथासरित्सागर में 21,388 पद्म हैं और इसे 124 तरंगों में बाँटा गया है। इसका एक दूसरा संस्करण भी प्राप्त है जिसमें 18 लंबक हैं। लंबक का मूल संस्कृत रूप 'लंभक' था। विवाह द्वारा स्त्री की प्राप्ति "लंभ" कहलाती थी और उसी की कथा के लिए लंभक शब्द प्रयुक्त होता था। इसीलिए रत्नप्रभा लंबक, मदनमंचुका लंबक, सूर्यप्रभा लंबक आदि अलग-अलग कथाओं के आधार पर विभिन्न शीर्षक दिए गए होंगे। .

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यहां पुनर्निर्देश करता है:

बेताल पच्चीसी, बेताल पचीसी, बेतालपञ्चविंशतिका, वेतालपंचविंशति

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