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बीड़ी

सूची बीड़ी

बीड़ी का पैकेट, कुछ बीड़ियाँ बाहर भी देखाई दे रही हैं। बीड़ी भारतीय सिगरेट है। यह तेन्दु के पत्तों में तम्बाकू लपेटकर बनाई जाती है। 'बीड़ी' शब्द 'बीड़ा' से निकला है जो पान के पत्तों में सुपारी तथा कुछ अन्य मसाले डालकर बनती है। तेंदू के पत्ते के अन्दर तम्बाकू को भर कर धूम्रपान के लिये प्रयोग की जाने वाली वस्तु.

4 संबंधों: तम्बाकू, तेन्दु, पान, सिगरेट

तम्बाकू

तम्बाकू एक प्रकार के निकोटियाना प्रजाति के पेड़ के पत्तों को सुखा कर नशा करने की वस्तु बनाई जाती है। दरअसल तम्बाकू एक मीठा जहर है, एक धीमा जहर.

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तेन्दु

तेन्दु की छाल तेन्दु (वानस्पतिक नाम: Diospyros melanoxylon) एबिनासी (Ebenaceae) कुल का सपुष्पी पादप है। यह भारत और श्री लंका का देशज है। इसे मध्य प्रदेश में 'तेन्दु' तथा ओडिशा और झारखण्ड में 'केन्दु' कहते हैं। इसकी पत्तियाँ बीड़ी बनाने के काम आती हैं। इसकी छाल बहुत कठोर व सूखी होती है। इसे जलाने पर चिनगारी तथा आवाज निकलती हैं।.

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पान

पान भारत के इतिहास एवं परंपराओं से गहरे से जुड़ा है। इसका उद्भव स्थल मलाया द्वीप है। पान विभिन्न भारतीय भाषाओं में अलग-अलग नामों से जाना जाता है जैसे ताम्बूल (संस्कृत), पक्कू (तेलुगू), वेटिलाई (तमिल और मलयालम) और नागुरवेल (गुजराती) आदि। पान का प्रयोग हिन्दू संस्कार से जुड़ा है, जैसे नामकरण, यज्ञोपवीत आदि। वेदों में भी पान के सेवन की पवित्रता का वर्णन है। यह तांबूली या नागवल्ली नामक लता का पत्ता है। खैर, चूना, सुपारी के योग से इसका बीड़ा लगाया जाता है और मुख की सुंदरता, सुगंधि, शुद्धि, श्रृंगार आदि के लिये चबा चबाकर उसे खाया जाता है। इसके साथ विभिन्न प्रकार के सुगंधित, असुगंधित तमाखू, तरह तरह के पान के मसाले, लवंग, कपूर, सुगंधद्रव्य आदि का भी प्रयोग किया जाता है। मद्रास में बिना खैर का भी पान खाया जाता है। विभिन्न प्रदेशों में अपने अपने स्वाद के अनुसार इसके प्रयोग में तरह तरह के मसालों के साथ पान खाने का रिवाज है। जहाँ भोजन आदि के बाद, तथा उत्सवादि में पान बीड़ा लाभकर और शोभाकर होता है वहीं यह एक दुर्व्यसन भी हो जाता है। तम्बाकू के साथ अधिक पान खानेवाले लोग प्राय: इसके व्यसनी हो जाते हैं। अधिक पान खाने के कारण बहुतों के दाँत खराब हो जाते हैं- उनमें तरह तरह के रोग लग जाते हैं और मुँह से दुर्गंध आने लगती है। इस लता के पत्ते छोटे, बड़े अनेक आकार प्रकार के होते हैं। बीच में एक मोटी नस होती है और प्राय: इस पत्ते की आकृति मानव के हृदय (हार्ट) से मिलती जुलती होती है। भारत के विभिन्न भागों में होनेवाले पान के पत्तों की सैकड़ों किस्में हैं - कड़े, मुलायम, छोटे, बड़े, लचीले, रूखे आदि। उनके स्वाद में भी बड़ा अंतर होता है। कटु, कषाय, तिक्त और मधुर-पान के पत्ते प्राय: चार स्वाद के होते हैं। उनमें औषधीय गुण भी भिन्न भिन्न प्रकार के होते हैं। देश, गंध आदि के अनुसार पानों के भी गुणर्धममूलक सैकड़ों जातिनाम हैं जैसे- जगन्नाथी, बँगाली, साँची, मगही, सौंफिया, कपुरी (कपूरी) कशकाठी, महोबाई आदि। गर्म देशों में, नमीवाली भूमि में ज्यादातर इसकी उपज होती है। भारत, बर्मा, सिलोन आदि में पान की अघिक पैदायश होती है। इसकी खेती कि लिये बड़ा परिश्रम अपेक्षित है। एक ओर जितनी उष्णता आवश्यक है, दूसरी ओर उतना ही रस और नमी भी अपेक्षित है। देशभेद से इसकी लता की खेती और सुरक्षा में भेद होता है। पर सर्वत्र यह अत्यंत श्रमसाध्य है। इसकी खेती के स्थान को कहीं बरै, कहीं बरज, कहीं बरेजा और कहीं भीटा आदि भी कहते हैं। खेती आदि कतरनेवालों को बरे, बरज, बरई भी कहते हैं। सिंचाई, खाद, सेवा, उष्णता सौर छाया आदि के कारण इसमें बराबर सालभर तक देखभाल करते रहना पड़ता है और सालों बाद पत्तियाँ मिल पानी हैं और ये भी प्राय: दो तीन साल ही मिलती हैं। कहीं कहीं 7-8 साल तक भी प्राप्त होती हैं। कहीं तो इस लता को विभिन्न पेड़ों-मौलसिरी, जयंत आदि पर भी चढ़ाया जाता है। इसके भीटों और छाया में इतनी ठंढक रहती है कि वहाँ साँप, बिच्छू आदि भी आ जाते हैं। इन हरे पत्तों को सेवा द्वारा सफेद बनाया जाता है। तब इन्हें बहुधा पका या सफेद पान कहते हैं। बनारस में पान की सेवा बड़े श्रम से की जाती है। मगह के एक किस्म के पान को कई मास तक बड़े यत्न से सुरक्षित रखकर पकाते हैं जिसे "मगही पान" कहा जाता है और जो अत्यंत सुस्वादु एवं मूल्यवान् जाता है। समस्त भारत में (विशेषत: पश्चिमी भाग को छोड़कर) सर्वत्र पान खाने की प्रथा अत्यधिक है। मुगल काल से यह मुसलमानों में भी खूब प्रचलित है। संक्षेप में, लगे पान को भारत का एक सांस्कृतिक अंग कह सकते हैं। पान के पौधे वैज्ञानिक दृष्टि से पान एक महत्वपूर्ण वनस्पति है। पान दक्षिण भारत और उत्तर पूर्वी भारत में खुली जगह उगाया जाता है, क्योंकि पान के लिए अधिक नमी व कम धूप की आवश्यकता होती है। उत्तर और पूर्वी प्रांतों में पान विशेष प्रकार की संरक्षणशालाओं में उगाया जाता है। इन्हें भीट या बरोज कहते हैं। पान की विभिन्न किस्मों को वैज्ञानिक आधार पर पांच प्रमुख प्रजातियों बंगला, मगही, सांची, देशावरी, कपूरी और मीठी पत्ती के नाम से जाना जाता है। यह वर्गीकरण पत्तों की संरचना तथा रासायनिक गुणों के आधार पर किया गया है। रासायनिक गुणों में वाष्पशील तेल का मुख्य योगदान रहता है। ये सेहत के लिये भी लाभकारी है। खाना खाने के बाद पान का सेवन पाचन में सहायक होता है। पान की दुकान पर बिकते पान पान में वाष्पशील तेलों के अतिरिक्त अमीनो अम्ल, कार्बोहाइड्रेट और कुछ विटामिन प्रचुर मात्रा में होते हैं। पान के औषधीय गुणों का वर्णन चरक संहिता में भी किया गया है। ग्रामीण अंचलों में पान के पत्तों का प्रयोग लोग फोड़े-फुंसी उपचार में पुल्टिस के रूप में करते हैं। हितोपदेश के अनुसार पान के औषधीय गुण हैं बलगम हटाना, मुख शुद्धि, अपच, श्वांस संबंधी बीमारियों का निदान। पान की पत्तियों में विटामिन ए प्रचुर मात्रा में होता है। प्रात:काल नाश्ते के उपरांत काली मिर्च के साथ पान के सेवन से भूख ठीक से लगती है। ऐसा यूजीनॉल अवयव के कारण होता है। सोने से थोड़ा पहले पान को नमक और अजवायन के साथ मुंह में रखने से नींद अच्छी आती है। यही नहीं पान सूखी खांसी में भी लाभकारी होता है।। वेब दुनिया .

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सिगरेट

फिल्तरयुक्त सिगरेट सिगरेट बनाने की मशीन का विकास 1750 से 1800 ईस्वी के बीच हुआ। सिगरेट बनाने की पहली मशीन एक मिनट में लगभग 200 सिगरेट बनाती थी, जब कि आज की एक मशीन एक मिनट में 9000 सिगरेट बना देती है। कम उत्पादन लागत और सिगरेट के उपयोग के विज्ञापनों ने तंबाकू कंपनियों के लिए इस दौरान सिगरेट के बाज़ार और इसकी बिक्री को मजबूत किया। धूमपान से होने वाली बीमारियों को देखते हुए किसी भी तंबाकू कंपनी के खिलाफ पहला मुकद्दमा बीसवीं शताब्दी के उत्तरार्द्ध में दायर किया गया था। .

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