लोगो
यूनियनपीडिया
संचार
Google Play पर पाएं
नई! अपने एंड्रॉयड डिवाइस पर डाउनलोड यूनियनपीडिया!
डाउनलोड
ब्राउज़र की तुलना में तेजी से पहुँच!
 

शास्त्रीय संगीत

सूची शास्त्रीय संगीत

भारतीय शास्त्रीय संगीत या मार्ग, भारतीय संगीत का अभिन्न अंग है। शास्त्रीय संगीत को ही ‘क्लासिकल म्जूजिक’ भी कहते हैं। शास्त्रीय गायन ध्वनि-प्रधान होता है, शब्द-प्रधान नहीं। इसमें महत्व ध्वनि का होता है (उसके चढ़ाव-उतार का, शब्द और अर्थ का नहीं)। इसको जहाँ शास्त्रीय संगीत-ध्वनि विषयक साधना के अभ्यस्त कान ही समझ सकते हैं, अनभ्यस्त कान भी शब्दों का अर्थ जानने मात्र से देशी गानों या लोकगीत का सुख ले सकते हैं। इससे अनेक लोग स्वाभाविक ही ऊब भी जाते हैं पर इसके ऊबने का कारण उस संगीतज्ञ की कमजोरी नहीं, लोगों में जानकारी की कमी है। .

21 संबंधों: नाट्य शास्त्र, बागेश्री राग, भरत मुनि, भारतीय संगीत, यूरोपीय शास्त्रीय संगीत, राग बसंत, राग बहार, राग भूपाली, राग मुल्ताली, राग यमन, राग हिंडोल, राग हंसध्वनि, राग काफ़ी, सरोद, सामवेद संहिता, सितार, संगीतरत्नाकर, सूफ़ीवाद, हारमोनियम, हिन्दुस्तानी शास्त्रीय संगीत, कर्नाटक संगीत

नाट्य शास्त्र

250px नाटकों के संबंध में शास्त्रीय जानकारी को नाट्य शास्त्र कहते हैं। इस जानकारी का सबसे पुराना ग्रंथ भी नाट्यशास्त्र के नाम से जाना जाता है जिसके रचयिता भरत मुनि थे। भरत मुनि का काल ४०० ई के निकट माना जाता है। संगीत, नाटक और अभिनय के संपूर्ण ग्रंथ के रूप में भारतमुनि के नाट्य शास्त्र का आज भी बहुत सम्मान है। उनका मानना है कि नाट्य शास्त्र में केवल नाट्य रचना के नियमों का आकलन नहीं होता बल्कि अभिनेता रंगमंच और प्रेक्षक इन तीनों तत्वों की पूर्ति के साधनों का विवेचन होता है। 37 अध्यायों में भरतमुनि ने रंगमंच अभिनेता अभिनय नृत्यगीतवाद्य, दर्शक, दशरूपक और रस निष्पत्ति से संबंधित सभी तथ्यों का विवेचन किया है। भरत के नाट्य शास्त्र के अध्ययन से यह स्पष्ट हो जाता है कि नाटक की सफलता केवल लेखक की प्रतिभा पर आधारित नहीं होती बल्कि विभिन्न कलाओं और कलाकारों के सम्यक के सहयोग से ही होती है। .

नई!!: शास्त्रीय संगीत और नाट्य शास्त्र · और देखें »

बागेश्री राग

राग बागेश्री हिंदुस्तानी शास्त्रीय संगीत का एक राग है। यह राग काफी थाट से उत्पन्न हुआ है। गाने या बजाने का समय रात का तीसरा प्रहर माना जाता है। .

नई!!: शास्त्रीय संगीत और बागेश्री राग · और देखें »

भरत मुनि

भरत मुनि ने नाट्य शास्त्र लिखा। इनका समय विवादास्पद हैं। इन्हें 400 ई॰पू॰ 100 ई॰ सन् के बीच किसी समय का माना जाता है। भरत बड़े प्रतिभाशाली थे। इतना स्पष्ट है कि भरतमुनि रचित नाट्यशास्त्र से परिचय था। इनका 'नाट्यशास्त्र' भारतीय नाट्य और काव्यशास्त्र का आदिग्रन्थ है।इसमें सर्वप्रथम रस सिद्धांत की चर्चा तथा इसके प्रसिद्द सूत्र -'विभावानुभाव संचारीभाव संयोगद्रस निष्पति:" की स्थापना की गयी है| इसमें नाट्यशास्त्र, संगीत-शास्त्र, छंदशास्त्र, अलंकार, रस आदि सभी का सांगोपांग प्रतिपादन किया गया है। 'भारतीय नाट्यशास्त्र' अपने विषय का आधारभूत ग्रन्थ माना जाता है। कहा गया है कि भरतमुनि रचित प्रथम नाटक का अभिनय, जिसका कथानक 'देवासुर संग्राम' था, देवों की विजय के बाद इन्द्र की सभा में हुआ था। आचार्य भरत मुनि ने अपने नाट्यशास्त्र की उत्पत्ति ब्रह्मा से मानी है क्योकि शंकर ने ब्रह्मा को तथा ब्रह्मा ने अन्य ऋषियो को काव्य शास्त्र का उपदेश दिया। विद्वानों का मत है कि भरतमुनि रचित पूरा नाट्यशास्त्र अब उपलब्ध नहीं है। जिस रूप में वह उपलब्ध है, उसमें लोग काफ़ी क्षेपक बताते हैं श्रेणी:संस्कृत आचार्य.

नई!!: शास्त्रीय संगीत और भरत मुनि · और देखें »

भारतीय संगीत

हिन्दुस्तानी संगीत सभा का दुर्लभ चित्र संगीत का रसास्वादन करती हुए एक स्त्री (पंजाब १७५०) भारतीय संगीत प्राचीन काल से भारत मे सुना और विकसित होता संगीत है। इस संगीत का प्रारंभ वैदिक काल से भी पूर्व का है। इस संगीत का मूल स्रोत वेदों को माना जाता है। हिंदु परंपरा मे ऐसा मानना है कि ब्रह्मा ने नारद मुनि को संगीत वरदान में दिया था। पंडित शारंगदेव कृत "संगीत रत्नाकर" ग्रंथ मे भारतीय संगीत की परिभाषा "गीतम, वादयम् तथा नृत्यं त्रयम संगीतमुच्यते" कहा गया है। गायन, वाद्य वादन एवम् नृत्य; तीनों कलाओं का समावेश संगीत शब्द में माना गया है। तीनो स्वतंत्र कला होते हुए भी एक दूसरे की पूरक है। भारतीय संगीत की दो प्रकार प्रचलित है; प्रथम कर्नाटक संगीत, जो दक्षिण भारतीय राज्यों में प्रचलित है और हिन्दुस्तानी संगीत शेष भारत में लोकप्रिय है। भारतवर्ष की सारी सभ्यताओं में संगीत का बड़ा महत्व रहा है। धार्मिक एवं सामाजिक परंपराओं में संगीत का प्रचलन प्राचीन काल से रहा है। इस रूप में, संगीत भारतीय संस्कृति की आत्मा मानी जाती है। वैदिक काल में अध्यात्मिक संगीत को मार्गी तथा लोक संगीत को 'देशी' कहा जाता था। कालांतर में यही शास्त्रीय और लोक संगीत के रूप में दिखता है। वैदिक काल में सामवेद के मंत्रों का उच्चारण उस समय के वैदिक सप्तक या सामगान के अनुसार सातों स्वरों के प्रयोग के साथ किया जाता था। गुरू-शिष्य परंपरा के अनुसार, शिष्य को गुरू से वेदों का ज्ञान मौखिक ही प्राप्त होता था व उन में किसी प्रकार के परिवर्तन की संभावना से मनाही थी। इस तरह प्राचीन समय में वेदों व संगीत का कोई लिखित रूप न होने के कारण उनका मूल स्वरूप लुप्त होता गया। .

नई!!: शास्त्रीय संगीत और भारतीय संगीत · और देखें »

यूरोपीय शास्त्रीय संगीत

यूरोपीय शास्त्रीय संगीत या क्लासिकल म्युजिक मोटे तौर पर क्लासिकल युग (१७५- से १८२० तक) के यूरोपीय संगीत को कहते हैं। किन्तु वृहद अर्थ में छठी शताब्दी से वर्तमान काल तक के परम्परागत यूरोपीय संगीत का नाम 'क्लासिकल म्युजिक' है। .

नई!!: शास्त्रीय संगीत और यूरोपीय शास्त्रीय संगीत · और देखें »

राग बसंत

रागमाला के एक लघु चित्र में राग वसंतराग बसंत या राग वसंत शास्त्रीय संगीत की हिंदुस्तानी पद्धति का राग है। वसंत का अर्थ वसंत ऋतु से है, अतः इसे विशेष रूप से वसंत ऋतु में गाया बजाया जाता है। इसके आरोह में पाँच तथा अवरोह में सात स्वर होते हैं। अतः यह औडव-संपूर्ण जाति का राग है। वसंत ऋतु में गाया जाने के कारण इस राग में होलियाँ बहुत मिलती हैं। यह प्रसन्नता तथा उत्फुल्लता का राग है। ऐसा माना जाता है कि इसके गाने व सुनने से मन प्रसन्न हो जाता है। इसका गायन समय रात का अंतिम प्रहर है किंतु यह दिन या रात में किसी समय भी गाया बजाया जा सकता है। रागमाला में इसे राग हिंडोल का पुत्र माना गया है। यह पूर्वी थाट का राग है। शास्त्रों में इससे मिलते जुलते एक राग वसंत हिंडोल का उल्लेख भी मिलता है। यह एक अत्यंत प्राचीन राग है जिसका उल्लेख अनेक प्राचीन ग्रंथों में मिलता है। संक्षिप्त परिचय राग बसंत- "दो मध्यम कोमल ऋषभ चढ़त न पंचम कीन्ह। स-म वादी संवादी ते, यह बसंत कह दीन्ह॥ आरोह- सा ग, म॑ ध॒ रें॒ सां, नि सां। अवरोह- रें॒ नि ध॒ प, म॑ ग म॑ ऽ ग, म॑ ध॒ ग म॑ ग, रे॒ सा। पकड़- म॑ ध॒ रें॒ सां, नि ध॒ प, म॑ ग म॑ ऽ ग। वादी स्वरः सा संवादीः म थाट- पूर्वी (प्रचलित) इस राग के बारे में कुछ मतभेद भी हैं। पहले मतानुसार इस राग में केवल तीव्र मध्यम का प्रयोग होना चाहिये, मगर दूसरे मतानुसार दोनो म का प्रयोग होना चाहिये जो कि आज प्रचलन में है। विशेषता- उत्तरांग प्रधान राग होने की वजह से इसमें तार सप्तक का सा ख़ूब चमकता है। शुद्ध म का प्रयोग केवल आरोह में एक विशेष तरह से होता है- सा म, म ग, म॑ ध॒ सां। गायन समय- रात्रि का अंतिम प्रहर (मगर बसंत ऋतु में इसे हर समय गाया बजाया जा सकता है। इसे परज राग से बचाने के लिये आरोह में नि का लंघन करते हैं- सा ग म॑ ध॒ सां या सा ग म॑ ध॒ रें॒ सां विशेष स्वर संगतियाँ- १) प म॑ ग, म॑ ऽ ग २) म॑ ध॒ रें सां ३) सा म ऽ म ग, म॑ ध॒ रें॒ सां .

नई!!: शास्त्रीय संगीत और राग बसंत · और देखें »

राग बहार

राग बहार काफ़ी थाट से उत्पन्न षाड़व षाड़व जाति का राग है। अर्थात इसके आरोह तथा अवरोह से छे छे स्वरों का प्रयोग होता है। इसके गाने का समय रात्रि का दूसरा प्रहर है। गांधार और निषाद दोनो स्वर कोमल है लेकिन गायक अक्सर दोनों निषाद लेते हैं, शुद्ध निषाद का प्रयोग मध्य सप्तक में होता है और वह भी आरोह में। अन्य स्वर शुद्ध लगते हैं। कुछ गायक मध्यम के साथ विवादी के रूप में शुद्ध गंधार का भी थोड़ा सा प्रयोग करते हैं। लेकिन यह नियम नहीं, इसके अवरोह में कभी कभी ऋषभ और धैवत दोनो वर्जित करते हुए निधनिप ऐसा प्रयोग होता है पर यह आवश्यक नहीं। आरोह में गमपगमधनिसां इस प्रकार पंचम का वक्र प्रयोग भी होता है जिससे रागरंजकता बढ़ती है। इस राग का वादी स्वर षडज तथा संवादी स्वर मध्यम हैं। राग विस्तार मध्य व तार सप्तक में होने के कारण यह चंचल प्रकृति का राग माना जाता है। मपगम धनिसां इसकी मुख्य पकड़ है। यह राग बाकी अनेक रागों के साथ मिलाकर भी गाया जाता हैं। जिस राग के साथ उसे मिश्रित किया जाता है उसे उस राग के साथ संयुक्त नाम से जाना जाता है। उदाहरण के लिए बागेश्री राग में इसे मिश्र करने से बागेश्री-बहार, वसंत-बहार, भैरव-बहार इत्यादि। परंतु मिश्रण का एक नियम हे कि जिसमें बहार मिश्र किया जाय वह राग शुद्ध मध्यम या पंचम में होना चाहिए क्योंकि बहार का मिश्रण शुद्ध मध्यम से ही शुरू होता है। .

नई!!: शास्त्रीय संगीत और राग बहार · और देखें »

राग भूपाली

राग परिचय-- थाट- कल्याण वर्जित स्वर- म, नि जाति- औडव-औडव वादी- ग संवादी-ध गायन समय- रात्रि का प्रथम प्रहर इस राग का चलन मुख्यत: मन्द्र और मध्य सप्तक के प्रतह्म हिस्से में होती है (पूर्वांग प्रधान राग)। इस राग में ठुमरी नहीं गायी जाती मगर, बड़ा खयाल, छोटा खयाल, तराना आदि गाया जाता है। कर्नाटक संगीत में इसे मोहन राग कहते हैं। आरोह- सा, रे, ग, प, ध, सा। अवरोह- सां, ध, प, ग, रे, सा। पकड़- पडडग ध प ग, ग रे सा ध़, सा रे ग, प ग, ध प, ग रे सा Filmi songs on This Raga; Sehra; Pankh Hoti To Udd Aati Re, Love In Tokyo; Sayonara,Sayonara, Chori Chori; Rasik Blma, Ahh; Yeh Sham Ki Tanhaiyan, श्रेणी:राग.

नई!!: शास्त्रीय संगीत और राग भूपाली · और देखें »

राग मुल्ताली

* नीचे आप जहाँ भी ~ चिन्ह देखें, ये मीड़ दर्शाने के लिये है।.

नई!!: शास्त्रीय संगीत और राग मुल्ताली · और देखें »

राग यमन

राग बिलावल और यमन के सुरों की तुलना प्रथम पहर निशि गाइये ग नि को कर संवाद। जाति संपूर्ण तीवर मध्यम यमन आश्रय राग ॥ राग का परिचय - 1) इस राग को राग कल्याण के नाम से भी जाना जाता है। इस राग की उत्पत्ति कल्याण थाट से होती है अत: इसे आश्रय राग भी कहा जाता है (जब किसी राग की उत्पत्ति उसी नाम के थाट से हो)। मुगल शासन काल के दौरान, मुसलमानों ने इस राग को राग यमन अथवा राग इमन कहना शुरु किया। 2) इस राग की विशेषता है कि इसमें तीव्र मध्यम का प्रयोग किया जाता है। बाक़ी सभी स्वर शुद्ध लगते हैं। 3) इस राग को रात्रि के प्रथम प्रहर या संध्या समय गाया-बजाया जाता है। इसके आरोह और अवरोह में सभी स्वर प्रयुक्त होते हैं, अत: इसकी जाति हुई संपूर्ण-संपूर्ण (परिभाषा देखें)। 4) वादी स्वर है- ग संवादी - नि आरोह- ऩि रे ग, म॑ प, ध नि सां। अवरोह- सां नि ध प, म॑ ग रे सा। पकड़- ऩि रे ग रे, प रे, ऩि रे सा। विशेषतायें- १) यमन और कल्याण भले ही एक राग हों मगर यमन और कल्याण दोनों के नाम को मिला देने से एक और राग की उत्पत्ति होती है जिसे राग यमन-कल्याण कहते हैं जिसमें दोनों मध्यम का प्रयोग होता है। २) यमन को मंद्र सप्तक के नि से गाने-बजाने का चलन है। ऩि रे ग, म॑ ध नि सां ३) इस राग में ऩि रे और प रे का प्रयोग बार बार किया जाता है। ४) इस राग को गंभीर प्रकृति का राग माना गया है। ५) इस राग को तीनों सप्तकों में गाया-बजाया जाता है। कई राग सिर्फ़ मन्द्र, मध्य या तार सप्तक में ज़्यादा गाये बजाये जाते हैं, जैसे राग सोहनी तार सप्तक में ज़्यादा खुलता है। इस राग में कई मशहूर फ़िल्मी गाने भी गाये गये हैं।.

नई!!: शास्त्रीय संगीत और राग यमन · और देखें »

राग हिंडोल

राग हिंडोल 16वीं शती का एक लघुचित्रराग हिंडोल या राग हिंदोल का जन्म कल्याण थाट से माना गया है। इसमें मध्यम तीव्र तथा निषाद व गंधार कोमल लगते हैं। ऋषभ तथा पंचम वर्जित है। इसकी जाति ओड़व ओड़व है तथा वादी स्वर धैवत व संवादी स्वर गांधार है। गायन का समय प्रातःकाल है। शुद्ध निषाद, रिषभ और पंचम इस स्वर इसमें वर्ज्य हैं। तीव्र मध्यम वाला यह एक ही राग है जिसको प्रातःकाल गाया जाता है। अन्य सभी तीव्र मध्यम वाले रागों का गायन समय रात्रि में होता है। राग हिंदोल में निषाद को बहुत कम महत्व दिया गया है। इतना ही नहीं, आरोह में उसे वर्ज्य करके अवरोह में भी सां ध इन दो स्वरों के बीच में छुपाना पड़ता है क्यों कि म ध नि सा लेने से सोहनी और सां नि, ध म लेने से पूरिया राग की छाया इसमें आने लगती है। इसको सोहनी और पूरिया से बचाने के लिए मध सांध, धम गसा ध सां ऐसी पकड़ लेने से इसका स्वरूप स्पष्ट होता है। इस राग में जब सां ध ऐसे स्वर आते हैं तब सां से ध स्वर पर आते समय बीच के निषाद को धैवत में जोड़ दिया जाता है। राग चिकित्सा में इस राग को जोड़ों के दर्द के लिए लाभकारी माना गया है। .

नई!!: शास्त्रीय संगीत और राग हिंडोल · और देखें »

राग हंसध्वनि

राग हंसध्वनि कनार्टक पद्धति का राग है परन्तु आजकल इसका उत्तर भारत मे भी काफी प्रचार है। इसके थाट के विषय में दो मत हैं कुछ विद्वान इसे बिलावल थाट तो कुछ कल्याण थाट जन्य भी मानते हैं। इस राग में मध्यम तथा धैवत स्वर वर्जित हैं अत: इसकी जाति औडव-औडव मानी जाती है। सभी शुद्ध स्वरों के प्रयोग के साथ ही पंचम रिषभ,रिषभ निषाद एवम षडज पंचम की स्वर संगतियाँ बार बार प्रयुक्त होती हैं। इसके निकट के रागो में राग शंकरा का नाम लिया जाता है। गायन समय रात्रि का द्वितीय प्रहर है। .

नई!!: शास्त्रीय संगीत और राग हंसध्वनि · और देखें »

राग काफ़ी

राग काफ़ी हिंदुस्तानी शास्त्रीय संगीत का एक महत्वपूर्ण राग है। यह काफ़ी थाट का प्रमुख राग है। इस राग का लोक संगीत से घनिष्ठ संबंध है इस लिए अनेक लोकगीत जैसे होली, टप्पा दादरा कीर्तन और भजन इस राग में गाए जाते हैं। इस राग की जाति संपूर्ण संपूर्ण है तथा गांधार व निषाद कोमल हैं। पंचम वादी तथा षड़ज संवादी है। इसका गायन समय रात्रि का प्रथम प्रहर है। राग का प्रमुख रस शृंगार है। आरोहः सा, रे, ग॒, म, प, ध, नि॒ सां अवरोहः सां नि॒ ध प म ग॒ रे सा पकड़: रे प म प ग॒ रे, म म पऽ Filmi songs, Sabab; chandan ka palana resham ki dori, Aazaad; Ja ri Jari O kali Badariya,Ahh; Ajare Aba Mera Dil Pukara, Sahajahan(Saigal); Gum Diye Mustakil Kitna Nazuk Hai Dil, श्रेणी:राग.

नई!!: शास्त्रीय संगीत और राग काफ़ी · और देखें »

सरोद

thumb सरोद भारत के सबसे लोकप्रिय वाद्ययंत्र में से एक है जिसका प्रयोग शास्त्रीय संगीत से लेकर हर तरह के संगीत में किया जाता है। श्रेणी:वाद्य यंत्र श्रेणी:हिन्दुस्तानी शास्त्रीय संगीत श्रेणी:भारतीय वाद्य यंत्र.

नई!!: शास्त्रीय संगीत और सरोद · और देखें »

सामवेद संहिता

सामवेद भारत के प्राचीनतम ग्रंथ वेदों में से एक है, गीत-संगीत प्रधान है। प्राचीन आर्यों द्वारा साम-गान किया जाता था। सामवेद चारों वेदों में आकार की दृष्टि से सबसे छोटा है और इसके १८७५ मन्त्रों में से ६९ को छोड़ कर सभी ऋगवेद के हैं। केवल १७ मन्त्र अथर्ववेद और यजुर्वेद के पाये जाते हैं। फ़िर भी इसकी प्रतिष्ठा सर्वाधिक है, जिसका एक कारण गीता में कृष्ण द्वारा वेदानां सामवेदोऽस्मि कहना भी है। सामवेद यद्यपि छोटा है परन्तु एक तरह से यह सभी वेदों का सार रूप है और सभी वेदों के चुने हुए अंश इसमें शामिल किये गये है। सामवेद संहिता में जो १८७५ मन्त्र हैं, उनमें से १५०४ मन्त्र ऋग्वेद के ही हैं। सामवेद संहिता के दो भाग हैं, आर्चिक और गान। पुराणों में जो विवरण मिलता है उससे सामवेद की एक सहस्त्र शाखाओं के होने की जानकारी मिलती है। वर्तमान में प्रपंच ह्रदय, दिव्यावदान, चरणव्युह तथा जैमिनि गृहसूत्र को देखने पर १३ शाखाओं का पता चलता है। इन तेरह में से तीन आचार्यों की शाखाएँ मिलती हैं- (१) कौमुथीय, (२) राणायनीय और (३) जैमिनीय। .

नई!!: शास्त्रीय संगीत और सामवेद संहिता · और देखें »

सितार

सितार भारत के सबसे लोकप्रिय वाद्ययंत्रों में से एक है, जिसका प्रयोग शास्त्रीय संगीत से लेकर हर तरह के संगीत में किया जाता है। इसके इतिहास के बारे में अनेक मत हैं किंतु अपनी पुस्तक भारतीय संगीत वाद्य में प्रसिद्ध विचित्र वीणा वादक डॉ लालमणि मिश्र ने इसे प्राचीन त्रितंत्री वीणा का विकसित रूप सिद्ध किया। सितार पूर्ण भारतीय वाद्य है क्योंकि इसमें भारतीय वाद्योँ की तीनों विशेषताएं हैं। तंत्री या तारों के अलावा इसमें घुड़च, तरब के तार तथा सारिकाएँ होती हैं। कहा जाता है कि भारतीय तन्त्री वाद्यों का सर्वाधिक विकसित रूप है। आधुनिक काल में सितार के तीन घराने अथवा शैलियाँ इस के वैविध्य को प्रकाशित करते रहे हैं। बाबा अलाउद्दीन खाँ द्वारा दी गयी तन्त्रकारी शैली जिसे पण्डित रविशंकर निखिल बैनर्जी ने अपनाया दरअसल सेनी घराने की शैली का परिष्कार थी। अपने बाबा द्वारा स्थापित इमदादखानी शैली को मधुरता और कर्णप्रियता से पुष्ट किया उस्ताद विलायत खाँ ने। पूर्ण रूप से तन्त्री वाद्यों हेतु ही वादन शैली मिश्रबानी का निर्माण डॉ लालमणि मिश्र ने किया तथा सैंकडों रागों में हजारों बन्दिशों का निर्माण किया। ऐसी ३०० बन्दिशों का संग्रह वर्ष २००७ में प्रकाशित हुआ है। सितार से कुछ बड़ा वाद्य सुर-बहार आज भी प्रयोग में है किन्तु सितार से अधिक लोकप्रिय कोई भी वाद्य नहीं है। इसकी ध्वनि को अन्य स्वरूप के वाद्य में उतारने की कई कोशिशें की गई, किन्तु ढांचे में निहित तन्त्री खिंचाव एवं ध्वनि परिमार्जन के कारण ठीक वैसा ही माधुर्य प्राप्त नहीं किया जा सका। गिटार की वादन शैली से सितार समान स्वर उत्पन्न करने की सम्भावना रन्जन वीणा में कही जाती है किन्तु सितार जैसे प्रहार, अन्गुली से खींची मींड की व्यवस्था न हो पाने के कारण सितार जैसी ध्वनि नहीं उत्पन्न होती। मीराबाई कृष्ण भजन में सितार का प्रयोग करती थी। .

नई!!: शास्त्रीय संगीत और सितार · और देखें »

संगीतरत्नाकर

संगीतरत्नाकर (13 वीं सदी) शार्ंगदेव द्वारा रचित संगीतशास्त्रीय ग्रंथ है। यह भारत के सबसे महत्वपूर्ण संगीतशास्त्रीय ग्रंथों में से है जो हिन्दुस्तानी संगीत तथा कर्नाटक संगीत दोनो द्वारा समादृत है। इसे 'सप्ताध्यायी' भी कहते हैं क्योंकि इसमें सात अध्याय हैं। भरतमुनि के नाट्यशास्त्र के बाद संगीत रत्नाकर ऐतिहासिक दृष्टि से सबसे महत्वपूर्ण ग्रंथ माना जाता है। बारहवीं सदी के पूर्वार्द्ध में लिखे सात अध्यायों वाले इस ग्रंथ में संगीत व नृत्य का विस्तार से वर्णन है। शार्ंगदेव यादव राजा 'सिंहण' के राजदरबारी थे। सिंहण की राजधानी दौलताबाद के निकट देवगिरि थी। इस ग्रंथ के कई भाष्य हुए हैं जिनमें सिंहभूपाल (1330 ई) द्वारा रचित 'संगीतसुधाकर' तथा कल्लिनाथ (१४३० ई) द्वारा रचित 'कलानिधि' प्रमुख हैं। इस ग्रंथ के प्रथम छः अध्याय - स्वरगताध्याय, रागविवेकाध्याय, प्रकीर्णकाध्याय, प्रबन्धाध्याय, तालाध्याय तथा वाद्याध्याय संगीत और वाद्ययंत्रों के बारे में हैं। इसका अन्तिम (सातवाँ) अध्याय 'नर्तनाध्याय' है जो नृत्य के बारे में है। संगीत रत्नाकर में कई तालों का उल्लेख है। इस ग्रंथ से पता चलता है कि प्राचीन भारतीय पारंपरिक संगीत में अब बदलाव आने शुरू हो चुके थे व संगीत पहले से उदार होने लगा था। १०००वीं सदी के अंत तक, उस समय प्रचलित संगीत के स्वरूप को 'प्रबन्ध' कहा जाने लगा। प्रबंध दो प्रकार के हुआ करते थे - निबद्ध प्रबन्ध व अनिबद्ध प्रबन्ध। निबद्ध प्रबन्ध को ताल की परिधि में रहकर गाया जाता था जबकि अनिबद्ध प्रबन्ध बिना किसी ताल के बन्धन के, मुक्त रूप में गाया जाता था। प्रबन्ध का एक अच्छा उदाहरण है जयदेव रचित गीत गोविन्द। .

नई!!: शास्त्रीय संगीत और संगीतरत्नाकर · और देखें »

सूफ़ीवाद

सूफ़ीवाद या तसव्वुफ़ इस्लाम का एक रहस्यवादी पंथ है। इसके पंथियों को सूफ़ी(सूफ़ी संत) कहते हैं। इनका लक्ष्य आध्यात्मिक प्रगति एवं मानवता की सेवा रहा है। सूफ़ी राजाओं से दान-उपहार स्वीकार नहीं करते थे और सादा जीवन बिताना पसन्द करते थे। इनके कई तरीक़े या घराने हैं जिनमें सोहरावर्दी (सुहरवर्दी), नक्शवंदिया, कादिरी, चिष्तिया, कलंदरिया और शुस्तरिया के नाम प्रमुखता से लिया जाता है। माना जाता है कि सूफ़ीवाद ईराक़ के बसरा नगर में क़रीब एक हज़ार साल पहले जन्मा। राबिया, अल अदहम, मंसूर हल्लाज जैसे शख़्सियतों को इनका प्रणेता कहा जाता है - ये अपने समकालीनों के आदर्श थे लेकिन इनको अपने जीवनकाल में आम जनता की अवहेलना और तिरस्कार झेलनी पड़ी। सूफ़ियों को पहचान अल ग़ज़ाली के समय (सन् ११००) से ही मिली। बाद में अत्तार, रूमी और हाफ़िज़ जैसे कवि इस श्रेणी में गिने जाते हैं, इन सबों ने शायरी को तसव्वुफ़ का माध्यम बनाया। भारत में इसके पहुंचने की सही-सही समयावधि के बारे में आधिकारिक रूप से कुछ नहीं कहा जा सकता लेकिन बारहवीं-तेरहवीं शताब्दी में ख़्वाजा मोईनुद्दीन चिश्ती बाक़ायदा सूफ़ीवाद के प्रचार-प्रसार में जुट गए थे। .

नई!!: शास्त्रीय संगीत और सूफ़ीवाद · और देखें »

हारमोनियम

भारत-पाकिस्तान-अफ़्ग़ानिस्तान में लोकप्रीय हस्त-चालित शैली का एक हारमोनियम हारमोनियम (Harmonium) एक संगीत वाद्य यंत्र है जिसमें वायु प्रवाह किया जाता है और भिन्न चपटी स्वर पटलों को दबाने से अलग-अलग सुर की ध्वनियाँ निकलती हैं। इसमें हवा का बहाव पैरों, घुटनों या हाथों के ज़रिये किया जाता है, हालाँकि भारतीय उपमहाद्वीप में इस्तेमाल होने वाले हरमोनियमों में हाथों का प्रयोग ही ज़्यादा होता है। हारमोनियम का आविष्कार यूरोप में किया गया था और १९वीं सदी के बीच में इसे कुछ फ़्रांसिसी लोग भारत-पाकिस्तान क्षेत्र में लाए जहाँ यह सीखने की आसानी और भारतीय संगीत के लिए अनुकूल होने की वजह से जड़ पकड़ गया। हारमोनियम मुख्यतः तीन प्रकार के होते हैं। ये विभाजन संभवता उनके निर्माण स्थान अथवा निर्माण में पर्युक्त सामिग्री की गुणवत्ता के आधार पर होता है। इसके प्रकार है - १.ब्रिटिश २.जर्मन ३.खरज। अपने निर्माण की शैली या स्थान के अनुसार इनके स्वरों की मिठास में अंतर होता है जिसे योग्य संगीतज्ञ ही पहचान सकता है। हारमोनियम भारतीय शास्त्रीय संगीत का अभिन्न हिस्सा है। हारमोनियम को सरल शब्दों में "पेटी बाजा" भी कहा जाता है। .

नई!!: शास्त्रीय संगीत और हारमोनियम · और देखें »

हिन्दुस्तानी शास्त्रीय संगीत

हिन्दुस्तानी शास्त्रीय संगीत भारतीय शास्त्रीय संगीत के दो प्रमुख शैली में से एक है। दूसरी प्रमुख शैली है - कर्नाटक संगीत। यह एक परम्प्रिक उद्विकासी है जिसने 11वीं और 12वीं शताब्दी में मुस्लिम सभ्यता के प्रसार ने भारतीय संगीत की दिशा को नया आयाम दिया। यह दिशा प्रोफेसर ललित किशोर सिंह के अनुसार यूनानी पायथागॉरस के ग्राम व अरबी फ़ारसी ग्राम के अनुरूप आधुनिक बिलावल ठाठ की स्थापना मानी जा सकती है। इससे पूर्व काफी ठाठ शुद्ध मेल था। किंतु शुद्ध मेल के अतिरिक्त उत्तर भारतीय संगीत में अरबी-फ़ारसी अथवा अन्य विदेशी संगीत का कोई दूसरा प्रभाव नहीं पड़ा। "मध्यकालीन मुसलमान गायकों और नायकों ने भारतीय संस्कारों को बनाए रखा।" राजदरबार संगीत के प्रमुख संरक्षक बने और जहां अनेक शासकों ने प्राचीन भारतीय संगीत की समृद्ध परंपरा को प्रोत्साहन दिया वहीं अपनी आवश्यकता और रुचि के अनुसार उन्होंने इसमें अनेक परिवर्तन भी किए। हिंदुस्तानी संगीत केवल उत्तर भारत का ही नहीं। बांगलादेश और पाकिस्तान का भी शास्त्रीय संगीत है। .

नई!!: शास्त्रीय संगीत और हिन्दुस्तानी शास्त्रीय संगीत · और देखें »

कर्नाटक संगीत

300px कर्नाटक संगीत या संस्कृत में कर्णाटक संगीतं भारत के शास्त्रीय संगीत की दक्षिण भारतीय शैली का नाम है, जो उत्तरी भारत की शैली हिन्दुस्तानी संगीत से काफी अलग है। कर्नाटक संगीत ज्यादातर भक्ति संगीत के रूप में होता है और ज्यादातर रचनाएँ हिन्दू देवी देवताओं को संबोधित होता है। इसके अलावा कुछ हिस्सा प्रेम और अन्य सामाजिक मुद्दों को भी समर्पित होता है। जैसा कि आमतौर पर भारतीय संगीत मे होता है, कर्नाटक संगीत के भी दो मुख्य तत्व राग और ताल होता है। कर्नाटक शास्त्रीय शैली में रागों का गायन अधिक तेज और हिंदुस्तानी शैली की तुलना में कम समय का होता है। त्यागराज, मुथुस्वामी दीक्षितार और श्यामा शास्त्री को कर्नाटक संगीत शैली की 'त्रिमूर्ति' कहा जाता है, जबकि पुरंदर दास को अक्सर कर्नाटक शैली का पिता कहा जाता है। कर्नाटक शैली के विषयों में पूजा-अर्चना, मंदिरों का वर्णन, दार्शनिक चिंतन, नायक-नायिका वर्णन और देशभक्ति शामिल हैं। .

नई!!: शास्त्रीय संगीत और कर्नाटक संगीत · और देखें »

यहां पुनर्निर्देश करता है:

पाश्चात्य शास्त्रीय संगीत, भारतीय शास्त्रीय संगीत

निवर्तमानआने वाली
अरे! अब हम फेसबुक पर हैं! »