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परख

सूची परख

जैनेंद्र कुमार की सर्वप्रथम औपन्यासिक कृति 'परख' का प्रकाशन सन 1929 में हुआ। सत्यधन, कट्टो, बिहारी और गरिमा नामक पात्र-पात्रियों के चरित्र पर आधारित यह मनोवैज्ञानिक कथा अप्रत्यक्ष रूप से विधवा विवाह की समस्या से संबंध रखती है, जो भारतेंदुयुगीन औपन्यासिक प्रवृत्ति है। जैनेंद्र के आगामी उपन्यासों की अपेक्षा 'परख' में चरित्र-चित्रण अशक्त प्रतीत होता है। मुख्यतः इसी कारण से 'परख' को वह महत्व नहीं प्राप्त हो सका, जो जैनेंद्र के अन्य उपन्यासों विशेष रूप से 'सुनीता'(1935) तथा 'त्यागपत्र' (1937) के प्राप्त हुआ। इसका एक कारण इस उपन्यास की अविश्वसनीय कथा भी है। इसके प्रधान पात्र-पात्रियाँ अपना स्वतंत्र व्यक्तित्व रखते हुए भी अधिकांशतः नाटकीय व्यवहार करते हैं। आदर्शवादी कथा-तत्व यत्र-तत्र उभरे हुए हैं, जिनमें आत्मबलिदान की भावना को प्रमुखता मिली है। श्रेणी:जैनेंद्र कुमार श्रेणी:पुस्तक.

3 संबंधों: त्यागपत्र, सुनीता, जैनेन्द्र कुमार

त्यागपत्र

जैनेंद्र की तीसरी औपन्यासिक कृति 'त्यागपत्र' है। इसका प्रकाशन सन 1937 में हुआ। इसका अनुवाद अनेक प्रादेशिक तथा विदेशी भाषाओं में हो चुका है। हिंदी के भी सर्वश्रेष्ठ लघु उपन्यासों में मृणाल नामक भाग्यहीना युवती के जीवन पर आधारित यह मार्मिक कथा अत्यंत प्रभावशाली बन सकी है। उसका भतीजा प्रमोद उसकी पीड़ा को समझता है। वह अपने सर्वस्व की बाज़ी लगाकर भी अपनी बुआ के दुर्भाग्य पर विजय प्राप्त करना चाहता है, परंतु मृणाल सदैव ही उसकी कृपा को अस्वीकृत कर देती है। वह स्वयं कभी इसके लिए ज़ोर नहीं दे पाता, क्योंकि वह दुविधा में पड़ा रहता है। उसके ह्रदय के किसी कोने में दबी स्वार्थवृत्ति भी उसे पीछे खींचती है। जीवन भर वह अपने आपको मृणाल की ओर से भुलावे में रखने में सफल होता है, परंतु मृणाल की अंतिम अवस्था उसे आंदोलित कर देती हैं और वह अपने पद जजी से त्यागपत्र देकर प्रायश्चित्त करता है। मृणाल की सूक्ष्म चारित्रिक प्रतिक्रियाओं, विवश इच्छाओं, दमित स्वप्नों तथा नुरुद्वेग विकारों की यह मनोवैज्ञानिक कथा अत्यंत मार्मिक बन सकी है। प्रथम पुरुष के रूप में कहीं गई यह रचना पाठक के मनोभावनाओं और संवेदनाओं को आंदोलित करने में समर्थ है। आकर्षक और उपयुक्त शिल्प रूप में ढाली गई यह, कृति जैनेंद्र की रचनाओं में प्रमुख स्थान रखती है। .

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सुनीता

1935 में जैनेंद्र कुमार के दूसरे उपन्यास 'सुनीता' का प्रकाशन हुआ। आरंभ में इसका दो तिहाई अंश चित्रपट में प्रकाशित हुआ था। गुजराती की एक पत्रिका में यह धारावाहिक रूप से अनूदित भी हुआ। 'सुनीता' और जैनेंद्र की पूर्वप्रकाशित औपन्यासिक कृति 'परख' के कथानक में दृष्टिकोणगत बहुत कुछ समानता है। इस उपन्यास की कमियाँ भी स्पष्ट है। इसके पात्र-पात्रियों के व्यवहार और प्रतिक्रियाएँ निरुद्देश्य एवं अप्रत्याशित लगती हैं। अप्रत्याशित व्यवहार प्रदर्शन की भावना के कारण ही उपन्यास में क्षीण स्थल आए हैं। उपन्यासकार का पहेली बुझाने का आग्रह कृति में हलकापन ला देता है, परंतु कहीं-कहीं उपन्यास के चरित्र अपनी सीमाओं का अतिक्रमण करके अतिशय उच्चता का परिचय देते हैं। जैनेंद्र का अटपटी कथा शैली इस उपन्यास में सहजता, स्वाभाविकता से युक्त प्रतीत होती है। इस दृष्टि से 'सुनीता' को जैनेंद्र की सर्वश्रेष्ठ औपन्यासिक कृति कहा जा सकता है। उपन्यास के प्रभावशाली वातावरण और सप्राण चरित्रों के बीच पात्र चकित-सा रह जाता है। जैनेंद्र की सूक्ष्म मनोवैज्ञानिक दृष्टि और सशक्त वातावरण का चित्रण पाठक पर अमिट प्रभाव डालता है। 'सुनीता' के कथा-चक्र की सबसे भारी घटना निर्जन वन में अर्धरात्रि के समय उपन्यास की प्रधान पात्री सुनीता का हरि प्रसन्न के सामने निर्वसना हो जाना है। परंतु 'सुनीता' के चरित्रों की मानसिक अस्थिरता को देखते हुए इस घटना को बहुत अधिक महत्व नहीं देना चाहिए। इसके आधार पर जैनेंद्र पर नग्नवादिता के आरोप अनौचित्यपूर्ण हैं। श्रेणी:जैनेंद्र कुमार श्रेणी:पुस्तक.

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जैनेन्द्र कुमार

प्रेमचंदोत्तर उपन्यासकारों में जैनेंद्रकुमार (२ जनवरी, १९०५- २४ दिसंबर, १९८८) का विशिष्ट स्थान है। वह हिंदी उपन्यास के इतिहास में मनोविश्लेषणात्मक परंपरा के प्रवर्तक के रूप में मान्य हैं। जैनेंद्र अपने पात्रों की सामान्यगति में सूक्ष्म संकेतों की निहिति की खोज करके उन्हें बड़े कौशल से प्रस्तुत करते हैं। उनके पात्रों की चारित्रिक विशेषताएँ इसी कारण से संयुक्त होकर उभरती हैं। जैनेंद्र के उपन्यासों में घटनाओं की संघटनात्मकता पर बहुत कम बल दिया गया मिलता है। चरित्रों की प्रतिक्रियात्मक संभावनाओं के निर्देशक सूत्र ही मनोविज्ञान और दर्शन का आश्रय लेकर विकास को प्राप्त होते हैं। .

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