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नरोत्तमदास

सूची नरोत्तमदास

नरोत्तमदास हिन्दी के प्रमुख साहित्यकार थे। महाकवि नरोत्तमदास .

28 संबंधों: नरोत्तमदास, नागरीप्रचारिणी सभा, ब्रज, ब्रजभाषा, भक्त कवियों की सूची, भक्ति काल, राम कुमार वर्मा, रामचन्द्र शुक्ल, साहित्यकार, सुदामा, सुदामा चरित, सीतापुर जिला, हिन्दी, हिंदी साहित्य, हजारी प्रसाद द्विवेदी, जॉर्ज अब्राहम ग्रियर्सन, वाराणसी, कृष्ण, उत्तर प्रदेश, १४९३, १५४२, १५४५, १५५०, १५८२, १६०२, १६०५, १९६८, 1610

नरोत्तमदास

नरोत्तमदास हिन्दी के प्रमुख साहित्यकार थे। महाकवि नरोत्तमदास .

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नागरीप्रचारिणी सभा

नागरीप्रचारिणी सभा, हिंदी भाषा और साहित्य तथा देवनागरी लिपि की उन्नति तथा प्रचार और प्रसार करनेवाली भारत की अग्रणी संस्था है। भारतेन्दु युग के अनंतर हिंदी साहित्य की जो उल्लेखनीय प्रवृत्तियाँ रही हैं उन सबके नियमन, नियंत्रण और संचालन में इस सभा का महत्वपूर्ण योग रहा है। .

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ब्रज

शेठ लक्ष्मीचन्द मन्दिर का द्वार (१८६० के दशक का फोटो) वर्तमान समय में उत्तर प्रदेश के मथुरा नगर सहित वह भू-भाग, जो श्रीकृष्ण के जन्म और उनकी विविध लीलाओं से सम्बधित है, ब्रज कहलाता है। इस प्रकार ब्रज वर्तमान मथुरा मंडल और प्राचीन शूरसेन प्रदेश का अपर नाम और उसका एक छोटा रूप है। इसमें मथुरा, वृन्दावन, गोवर्धन, गोकुल, महाबन, वलदेव, नन्दगाँव, वरसाना, डीग और कामबन आदि भगवान श्रीकृष्ण के सभी लीला-स्थल सम्मिलित हैं। उक्त ब्रज की सीमा को चौरासी कोस माना गया है। सूरदास तथा अन्य व्रजभाषा के भक्त कवियों और वार्ताकारों ने भागवत पुराण के अनुकरण पर मथुरा के निकटवर्ती वन्य प्रदेश की गोप-बस्ती को ब्रज कहा है और उसे सर्वत्र 'मथुरा', 'मधुपुरी' या 'मधुवन' से पृथक वतलाया है। ब्रज क्षेत्र में आने वाले प्रमुख नगर ये हैं- मथुरा, जलेसर, भरतपुर, आगरा, हाथरस, धौलपुर, अलीगढ़, इटावा, मैनपुरी, एटा, कासगंज, और फिरोजाबाद। ब्रज शब्द संस्कृत धातु 'व्रज' से बना है, जिसका अर्थ गतिशीलता से है। जहां गाय चरती हैं और विचरण करती हैं वह स्थान भी ब्रज कहा गया है। अमरकोश के लेखक ने ब्रज के तीन अर्थ प्रस्तुत किये हैं- गोष्ठ (गायों का बाड़ा), मार्ग और वृंद (झुण्ड)। संस्कृत के व्रज शब्द से ही हिन्दी का ब्रज शब्द बना है। वैदिक संहिताओं तथा रामायण, महाभारत आदि संस्कृत के प्राचीन धर्मग्रंथों में ब्रज शब्द गोशाला, गो-स्थान, गोचर भूमि के अर्थों में भी प्रयुक्त हुआ है। ऋग्वेद में यह शब्द गोशाला अथवा गायों के खिरक के रूप में वर्णित है। यजुर्वेद में गायों के चरने के स्थान को ब्रज और गोशाला को गोष्ठ कहा गया है। शुक्लयजुर्वेद में सुन्दर सींगों वाली गायों के विचरण स्थान से ब्रज का संकेत मिलता है। अथर्ववेद में गोशलाओं से सम्बधित पूरा सूक्त ही प्रस्तुत है। हरिवंश तथा भागवतपुराणों में यह शब्द गोप बस्त के रूप में प्रयुक्त हुआ है। स्कंदपुराण में महर्षि शांण्डिल्य ने ब्रज शब्द का अर्थ व्थापित वतलाते हुए इसे व्यापक ब्रह्म का रूप कहा है। अतः यह शब्द ब्रज की आध्यात्मिकता से सम्बधित है। वेदों से लेकर पुराणों तक में ब्रज का सम्बध गायों से वर्णित किया गया है। चाहे वह गायों को बांधने का बाडा हो, चाहे गोशाला हो, चाहे गोचर भूमि हो और चाहे गोप-बस्ती हो। भागवतकार की दृष्टि में गोष्ठ, गोकुल और ब्रज समानार्थक हैं। भागवत के आधार पर सूरदास की रचनाओं में भी ब्रज इसी अर्थ में प्रयुक्त हुआ है। मथुरा और उसका निकटवर्ती भू-भाग प्राचीन काल से ही अपने सघन वनों, विस्तृत चारागाहों, गोष्ठों और सुन्दर गायों के लिये प्रसिद्ध रहा है। भगवान श्रीकृष्ण का जन्म यद्यपि मथुरा नगर में हुआ था, तथापि राजनैतिक कारणों से उन्हें जन्म लेते ही यमुना पार की गोप-वस्ती में भेज दिया गया था, उनकी वाल्यावस्था एक बड़े गोपालक के घर में गोप, गोपी और गो-वृंद के साथ बीती थी। उस काल में उनके पालक नंदादि गोप गण अपनी सुरक्षा और गोचर-भूमि की सुविधा के लिये अपने गोकुल के साथ मथुरा निकटवर्ती विस्तृत वन-खण्डों में घूमा करते थे। श्रीकृष्ण के कारण उन गोप-गोपियों, गायों और गोचर-भूमियों का महत्व बड़ गया था। पौराणिक काल से लेकर वैष्णव सम्प्रदायों के आविर्भाव काल तक जैसे-जैसे कृश्णोपासना का विस्तार होता गया, वैसे-वैसे श्रीकृष्ण के उक्त परिकरों तथा उनके लीला स्थलों के गौरव की भी वृद्धि होती गई। इस काल में यहां गो-पालन की प्रचुरता थी, जिसके कारण व्रजखण्डों की भी प्रचुरता हो गई थी। इसलिये श्री कृष्ण के जन्म स्थान मथुरा और उनकी लीलाओं से सम्वधित मथुरा के आस-पास का समस्त प्रदेश ही ब्रज अथवा ब्रजमण्डल कहा जाने लगा था। इस प्रकार ब्रज शब्द का काल-क्रमानुसार अर्थ विकास हुआ है। वेदों और रामायण-महाभारत के काल में जहाँ इसका प्रयोग 'गोष्ठ'-'गो-स्थान' जैसे लघु स्थल के लिये होता था। वहां पौराणिक काल में 'गोप-बस्ती' जैसे कुछ बड़े स्थान के लिये किया जाने लगा। उस समय तक यह शब्द प्रदेशवायी न होकर क्षेत्रवायी ही था। भागवत में 'ब्रज' क्षेत्रवायी अर्थ में ही प्रयुक्त हुआ है। वहां इसे एक छोटे ग्राम की संज्ञा दी गई है। उसमें 'पुर' से छोटा 'ग्राम' और उससे भी छोटी बस्ती को 'ब्रज' कहा गया है। १६वीं शताब्दी में 'ब्रज' प्रदेशवायी होकर 'ब्रजमंडल' हो गया और तव उसका आकार ८४ कोस का माना जाने लगा था। उस समय मथुरा नगर 'ब्रज' में सम्मिलित नहीं माना जाता था। सूरदास तथा अन्य ब्रज-भाषा कवियों ने 'ब्रज' और मथुरा का पृथक् रूप में ही कथन किया है, जैसे पहिले अंकित किया जा चुका है। कृष्ण उपासक सम्प्रदायों और ब्रजभाषा कवियों के कारण जब ब्रज संस्कृति और ब्रजभाषा का क्षेत्र विस्तृत हुआ तब ब्रज का आकार भी सुविस्तृत हो गया था। उस समय मथुरा नगर ही नहीं, बल्कि उससे दूर-दूर के भू-भाग, जो ब्रज संस्कृति और ब्रज-भाषा से प्रभावित थे, व्रज अन्तर्गत मान लिये गये थे। वर्तमान काल में मथुरा नगर सहित मथुरा जिले का अधिकांश भाग तथा राजस्थान के डीग और कामबन का कुछ भाग, जहाँ से ब्रजयात्रा गुजरती है, ब्रज कहा जाता है। ब्रज संस्कृति और ब्रज भाषा का क्षेत्र और भी विस्तृत है। उक्त समस्त भू-भाग रे प्राचीन नाम, मधुबन, शुरसेन, मधुरा, मधुपुरी, मथुरा और मथुरामंडल थे तथा आधुनिक नाम ब्रज या ब्रजमंडल हैं। यद्यपि इनके अर्थ-बोध और आकार-प्रकार में समय-समय पर अन्तर होता रहा है। इस भू-भाग की धार्मिक, राजनैतिक, ऐतिहासिक और संस्कृतिक परंपरा अत्यन्त गौरवपूर्ण रही है। .

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ब्रजभाषा

ब्रजभाषा मूलत: ब्रज क्षेत्र की बोली है। (श्रीमद्भागवत के रचनाकाल में "व्रज" शब्द क्षेत्रवाची हो गया था। विक्रम की 13वीं शताब्दी से लेकर 20वीं शताब्दी तक भारत के मध्य देश की साहित्यिक भाषा रहने के कारण ब्रज की इस जनपदीय बोली ने अपने उत्थान एवं विकास के साथ आदरार्थ "भाषा" नाम प्राप्त किया और "ब्रजबोली" नाम से नहीं, अपितु "ब्रजभाषा" नाम से विख्यात हुई। अपने विशुद्ध रूप में यह आज भी आगरा, हिण्डौन सिटी,धौलपुर, मथुरा, मैनपुरी, एटा और अलीगढ़ जिलों में बोली जाती है। इसे हम "केंद्रीय ब्रजभाषा" भी कह सकते हैं। ब्रजभाषा में ही प्रारम्भ में काव्य की रचना हुई। सभी भक्त कवियों ने अपनी रचनाएं इसी भाषा में लिखी हैं जिनमें प्रमुख हैं सूरदास, रहीम, रसखान, केशव, घनानंद, बिहारी, इत्यादि। फिल्मों के गीतों में भी ब्रजभाषा के शब्दों का प्रमुखता से प्रयोग किया जाता है। .

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भक्त कवियों की सूची

* आलवार सन्त.

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भक्ति काल

हिंदी साहित्य में भक्ति काल अपना एक अहम और महत्वपूर्ण स्थान रखता है। आदिकाल के बाद आये इस युग को पूर्व मध्यकाल भी कहा जाता है। जिसकी समयावधि 1375 ईo से 1700 ईo तक की मानी जाती है। यह हिंदी साहित्य का श्रेष्ठ युग है। जिसको जॉर्ज ग्रियर्सन ने स्वर्णकाल, श्यामसुन्दर दास ने स्वर्णयुग, आचार्य राम चंद्र शुक्ल ने भक्ति काल एवं हजारी प्रसाद द्विवेदी ने लोक जागरण कहा। सम्पूर्ण साहित्य के श्रेष्ठ कवि और उत्तम रचनाएं इसी युग में प्राप्त होती हैं। दक्षिण में आलवार बंधु नाम से कई प्रख्यात भक्त हुए हैं। इनमें से कई तथाकथित नीची जातियों के भी थे। वे बहुत पढे-लिखे नहीं थे, परंतु अनुभवी थे। आलवारों के पश्चात दक्षिण में आचार्यों की एक परंपरा चली जिसमें रामानुजाचार्य प्रमुख थे। रामानुजाचार्य की परंपरा में रामानंद हुए। उनका व्यक्तित्व असाधारण था। वे उस समय के सबसे बड़े आचार्य थे। उन्होंने भक्ति के क्षेत्र में ऊंच-नीच का भेद तोड़ दिया। सभी जातियों के अधिकारी व्यक्तियों को आपने शिष्य बनाया। उस समय का सूत्र हो गयाः महाप्रभु वल्लभाचार्य ने पुष्टि-मार्ग की स्थापना की और विष्णु के कृष्णावतार की उपासना करने का प्रचार किया। उनके द्वारा जिस लीला-गान का उपदेश हुआ उसने देशभर को प्रभावित किया। अष्टछाप के सुप्रसिध्द कवियों ने उनके उपदेशों को मधुर कविता में प्रतिबिंबित किया। इसके उपरांत माध्व तथा निंबार्क संप्रदायों का भी जन-समाज पर प्रभाव पड़ा है। साधना-क्षेत्र में दो अन्य संप्रदाय भी उस समय विद्यमान थे। नाथों के योग-मार्ग से प्रभावित संत संप्रदाय चला जिसमें प्रमुख व्यक्तित्व संत कबीरदास का है। मुसलमान कवियों का सूफीवाद हिंदुओं के विशिष्टाद्वैतवाद से बहुत भिन्न नहीं है। कुछ भावुक मुसलमान कवियों द्वारा सूफीवाद से रंगी हुई उत्तम रचनाएं लिखी गईं। संक्षेप में भक्ति-युग की चार प्रमुख काव्य-धाराएं मिलती हैं.

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राम कुमार वर्मा

डॉ राम कुमार वर्मा (15 सितंबर, 1905 - 1990) हिन्दी के सुप्रसिद्ध साहित्यकार, व्यंग्यकार और हास्य कवि के रूप में जाने जाते हैं। उन्हें हिन्दी एकांकी का जनक माना जाता है। उन्हें साहित्य एवं शिक्षा के क्षेत्र में सन १९६३ में पद्म भूषण से सम्मानित किया गया था। इनके काव्य में 'रहस्यवाद' और 'छायावाद' की झलक है। .

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रामचन्द्र शुक्ल

आचार्य रामचंद्र शुक्ल (४ अक्टूबर, १८८४- २ फरवरी, १९४१) हिन्दी आलोचक, निबन्धकार, साहित्येतिहासकार, कोशकार, अनुवादक, कथाकार और कवि थे। उनके द्वारा लिखी गई सर्वाधिक महत्वपूर्ण पुस्तक है हिन्दी साहित्य का इतिहास, जिसके द्वारा आज भी काल निर्धारण एवं पाठ्यक्रम निर्माण में सहायता ली जाती है। हिंदी में पाठ आधारित वैज्ञानिक आलोचना का सूत्रपात उन्हीं के द्वारा हुआ। हिन्दी निबन्ध के क्षेत्र में भी शुक्ल जी का महत्वपूर्ण योगदान है। भाव, मनोविकार संबंधित मनोविश्लेषणात्मक निबंध उनके प्रमुख हस्ताक्षर हैं। शुक्ल जी ने इतिहास लेखन में रचनाकार के जीवन और पाठ को समान महत्व दिया। उन्होंने प्रासंगिकता के दृष्टिकोण से साहित्यिक प्रत्ययों एवं रस आदि की पुनर्व्याख्या की। .

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साहित्यकार

साहित्य की रचना करने वालों को साहित्यकार कहते हैं। श्रेणी:साहित्य श्रेणी:व्यवसाय.

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सुदामा

श्री सुदामा जी भगवन श्री कृष्ण के परम मित्र तथा भक्त थे। वे समस्त वेद-पुराणों के ज्ञाता और विद्वान् ब्राह्मण थे। श्री कृष्ण से उनकी मित्रता ऋषि संदीपनी के गुरुकुल में हुई। सुदामा जी अपना जीवन यापन ब्राह्मण रीति के अनुसार भिक्षा मांग कर करते थे। वे एक निर्धन ब्राह्मण थे तथा भिक्षा के द्वारा कभी उनके परिवार (पत्नी तथा बच्चे) का पेट भरता तो कभी भूखे ही सोना पड़ता था। परन्तु फिर भी सुदामा इतने में ही संतुष्ट रहते और हरि भजन करते रहते | बाद में वे अपनी पत्नी के कहने पर सहायता के लिए द्वारिकाधीश श्री कृष्ण के पास गए। परन्तु संकोचवश उन्होंने अपने मुख से श्री कृष्ण से कुछ नहीं माँगा | परन्तु श्री कृष्ण तो अन्तर्यामी हैं, उन्होंने भी सुदामा को खली हाथ ही विदा कर दिया। जब सुदामा जी अपने नगर पहुंचे तो उन्होंने पाया की उनकी टूटी-फूटी झोपडी के स्थान पर सुन्दर महल बना हुआ है तथा उनकी पत्नी और बच्चे सुन्दर, सजे-धजे वस्त्रो में सुशोभित हो रहे हैं। इस प्रकार श्री कृष्ण ने सुदामा जी की निर्धनता का हरण किया। श्रेणी:कृष्ण ।श्री कृष्णाय गोविन्दाय नमो नम:।। सुदामा को गरीबी क्यों मिली?- अगर अध्यात्मिक दृष्टिकोण से देखा जाये तो सुदामा जी बहुत धनवान थे। जितना धन उनके पास था किसी के पास नही था। लेकिन अगर भौतिक दृष्टि से देखा जाये तो सुदामाजी बहुत निर्धन थे। आखिर क्यों ? एक ब्राह्मणी थी जो बहुत गरीब निर्धन थी। भिच्छा माँग कर जीवन यापन करती थी। एक समय ऐसा आया कि पाँच दिन तक उसे भिच्छा नही मिली वह प्रति दिन पानी पीकर भगवान का नाम लेकर सो जाती थी। छठवें दिन उसे भिच्छा में दो मुट्ठी चना मिले। कुटिया पे पहुँचते-पहुँचते रात हो गयी। ब्राह्मणी ने सोंचा अब ये चने रात मे नही खाऊँगी प्रात:काल वासुदेव को भोग लगाकर तब खाऊँगी। यह सोंचकर ब्राह्मणी चनों को कपडे में बाँधकर रख दिय। और वासुदेव का नाम जपते-जपते सो गयी। देखिये समय का खेल: कहते हैं – पुरुष बली नही होत है समय होत बलवान ब्राह्मणी के सोने के बाद कुछ चोर चोरी करने के लिए उसकी कुटिया मे आ गये। इधर उधर बहुत ढूँढा चोरों को वह चनों की बँधी पुटकी मिल गयी चोरों ने समझा इसमे सोने के सिक्के हैं इतने मे ब्राह्मणी जग गयी और शोर मचाने लगी। गाँव के सारे लोग चोरों को पकडने के लिए दौडे। चोर वह पुटकी लेकर भगे। पकडे जाने के डर से सारे चोर संदीपन मुनि के आश्रम में छिप गये। (संदीपन मुनि का आश्रम गाँव के निकट था जहाँ भगवान श्री कृष्ण और सुदामा शिक्षा ग्रहण कर रहे थे) गुरुमाता को लगा की कोई आश्रम के अन्दर आया है गुरुमाता देखने के लिए आगे बढीं चोर समझ गये कोई आ रहा है चोर डर गये और आश्रम से भगे ! भगते समय चोरों से वह पुटकी वहीं छूट गयी।और सारे चोर भग गये। इधर भूख से व्याकुल ब्राह्मणी ने जब जाना ! कि उसकी चने की पुटकी चोर उठा ले गये। तो ब्राह्मणी ने श्राप दे दिया की ” मुझ दीनहीन असह।य के जो भी चने खायेगा वह दरिद्र हो जायेगा ”। उधर प्रात:काल गुरु माता आश्रम मे झाडू लगाने लगी झाडू लगाते समय गुरु माता को वही चने की पुटकी मिली गुरु माता ने पुटकी खोल के देखी तो उसमे चने थे। सुदामा जी और कृष्ण भगवान जंगल से लकडी लाने जा रहे थे। (रोज की तरह) गुरु माता ने वह चने की पुटकी सुदामा जी को दे दी। और कहा बेटा ! जब वन मे भूख लगे तो दोनो लोग यह चने खा लेना। सुदामा जी जन्मजात ब्रह्मज्ञानी थे। ज्यों ही चने की पुटकी सुदामा जी ने हाथ मे लिया त्यों ही उन्हे सारा रहस्य मालुम हो गया। सुदामा जी ने सोंचा ! गुरु माता ने कहा है यह चने दोनो लोग बराबर बाँट के खाना। लेकिन ये चने अगर मैने त्रिभुवनपति श्री कृष्ण को खिला दिये तो सारी सृष्टि दरिद्र हो जायेगी। नही-नही मै ऐसा नही करुँगा मेरे जीवित रहते मेरे प्रभु दरिद्र हो जायें मै ऐसा कदापि नही करुँगा। मै ये चने स्वयं खा जाऊँगा लेकिन कृष्ण को नही खाने दूँगा। और सुदामा जी ने सारे चने खुद खा लिए। दरिद्रता का श्राप सुदामा जी ने स्वयं ले लिया। चने खाकर। लेकिन अपने मित्र श्री कृष्ण को एक भी दाना चना नही दिया। लेखक राजकुमार कोतमा इंदौर मध्यप्रदेश.

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सुदामा चरित

सुदामा चरित कवि नरोत्तमदास द्वारा अवधी भाषा में रचित काव्य-ग्रंथ है। इसकी रचना संवत १६०५ के लगभग मानी जाती है। इसमें एक निर्धन ब्राह्मण सुदामा की कथा है जो महान कृष्ण भक्त था, जो बालपन में कृष्ण का मित्र भी था। इस ब्राह्मण की कथा श्रीमद् भागवत महापुराण में भी लिखित है। महाकवि नरोत्तमदास दास श्री गनेस सुमिरन करूं, उपजै बुद्धि प्रकास। सो चरित्र बरनन करूं, जासों दारिद नास।। 1।। ज्‍यों गंगा जल पान तें, पावत पद निर्वान। त्‍यों सिन्‍धुर- मुख बात तें, मूढ़ होत बुधिवान।। 2।। कृस्‍न मित्र कै जन्‍म को, ताको बरनन कीन्‍ह। सुख सम्‍पति माया मिलै, सो उपदेस जु दीन्‍ह।।। 3।। बिप्र सुदामा बसत हैं, सदा आपने धाम। भिक्षा करि भोजन करैं, हिये जपैं हरि नाम।। 4।। ताकी धरनी पतिव्रता, गहे वेद की रीति। सुलज, सुसील, सुबुद्धि अति, पति सेवा में प्रीति।। 5।। कही सुदामा एक दिन, कृस्‍न हमारे मित्र। करत रहति उपदेस तिय, ऐसो परम विचित्र।। 6।। महाराज जिनके हितू, हैं हरि यदुकुल चन्‍द। ते दारिद सन्‍ताप ते, रहैं न क्‍यों निरद्वंद।। 7।। कह्यो सुदामा बाम सुनु, वृथा और सब भोग। सत्‍य भजन भगवान को, धर्म सहित जप-जोग।। 8।। लोचन-कमल दुखमोचन तिलक भाल, स्रवननि कुण्‍डल मुकुट धरे माथ हैं। ओढ़े पीत बसन गरे मैं बैजयन्‍ती माल; संख चक्र गदा और पद्म धरे हाथ हैं।। कहत नरोत्तम सन्‍दीपनि गुरू के पास, तुमही कहत हम पढ़े एक साथ हैं। द्वारिका के गए हरि दारिद हरैंगे पिय, द्वारिका के नाथ वे अनाथन के नाथ हैं।। 9।। सिच्‍छक हौं सिगरे जग को, तिय ! ताको कहा अब देति है सिच्‍छा। जे तप कै परलोक सुधारत, सम्‍पति की तिनके नहीं इच्‍छा।। मेरे हिये हरि के पद पंकज, बार हजार लै देखु परिच्‍छा। औरन को धन चाहिये बावरि, बांझन के धन केवल भिच्‍छा।। 10।। दानी बड़े तिहुँ लोकन में, जग जीवत नाम सदा जिनको लै। दीनन की सुधि लेत भली विधि, सिद्ध करौ पिय मेरो मतौ लै। दीनदयाल के द्वार न जात सो, और के द्वार पै दीन ह्वै बोलै। श्री जदुनाथ से जाके हितू सो, तिहुँपन क्‍यों कन माँगत डोलै।। 11।। क्षत्रिन के पन जुद्ध जुवा, सजि बाजि चढ़े गजराजन ही। बैस के बानिज और कृसी पन। सूद को सेवन साजन ही। विप्रन के पन है जु यही, सुख सम्‍पति को कुछ काज नहीं। कै पढ़ियो कै तपोधन है, कन माँगत बांभनै लाज नहीं।। 12।। कोदों सवां जुरतो भरि पेट, न चाहति हौं दधि-दूध मिठौती। सीत वितीत भयो सिसियातहि; हौं हठती पै तुम्‍हैं न पठौती। जौ जनती न हितू हरि सों, तुम्‍हें काहे को द्वारिका ठेलि पठौ‍ती। या घरतें न गयो कबहूँ, पिय ! टूटो तवा अरु फूटी कठौती।। 13।। छांड़ि सबै जक तोहि लगी बक, आठहु जाम यहै जिय ठानी। जातहिं दैहैं लदाय लढ़ाभरि, लैहों लदाय यहै जिय जानी। पैहौं कहाँ ते अटारी अटा, जिनके विधि दीन्‍ही है टूटी सी छानी। जो पै दरिद्र लिख्‍यो है लिलार, तो काहू पै मेटि न जात अजानी।। 14।। पूरन पैज करी प्रहलाद की, खम्‍भ सों बांध्‍यो पिता जिहि बेरे। द्रौपदी ध्‍यान धर्यो जबहीं तबहीं पट कोटि लगे चहुँ फेरे।। ग्राह ते छूटि गयन्‍द गयो पिय, याहि सो है निह्चय जिय मेरे। ऐसे दरिद्र हजार हरैं वे कृपानिधि लोचन-कोर के हेरे।। 15।। चक्‍कवै चौकि रहे चकि से, तहाँ भूले से भूप कितेक गिनाऊं। देव गन्‍धर्व औ किन्‍नर जच्‍छ से, सांझ लौं ठाढ़े रहैं जिहि ठांऊ।। ते दरबार बिलोक्‍यों नहीं अब, तोही कहा कहिके समझाऊं रोकिए लोकन के मुखिया, तहँ हौं दुखिया किमि पैरुन पाऊं।। 16।। भूल से भूप अनेक खरे रहौ, ठाढ़े रहौं तिमि चक्‍कवे भारी। देव गन्‍धर्व औ किन्‍नर जच्‍छ से, मेलो करैं तिनकौ अधिकारी।। अन्‍तरयामी ते आपुही जानिहैं मानौ यहै सिखि आजु हमारी। द्वारिकानाथ के द्वा गए, सब ते पहिले सुधि लैहैं तिहारी।। 17।। दीन दयाल को ऐसोई द्वार है, दीनन की सुधि लेत सदाई। द्रौपदी तैं गज तैं प्रह्लाद तैं, जानि परी ना बिलम्‍ब लगाई।। याही ते भावति मो मन दीनता- जौ निबहै निबहै जस आई। जौ ब्रजराज सौं प्रीति नहीं, केहि काज सुरेसहु की ठकुराई।। 18।। फाटे पट टूटी छानि खाय भीक मांगि मांगि, बिना यज्ञ विमुख रहत देव तित्रई। वे हैं दीनबन्‍धु दुखी देखि कै दयालु ह्रैहैं, दै हैं कछु जौ सौ हौं जानत अगन्‍तई।। द्वारिका लौं जात पिया! एतौ अरसात तुम, काहे कौ लजात भई कौनसी विचित्रई। जौ पै सब जन्‍म या दरिद्र ही सतायौ तोपै, कौन काज आई है कृपानिधि की मित्रई।। 19।। तैं तो कही नीकी सुनु बात हित ही की। यही रीति मित्रई की नित प्रीति सरसाइए। चित्त के मिलेते चित्त धाइए परसपर, मित्र के जौ जेइए तौ आपहू जेंवाइए।। वे हैं महाराज जोरि बैठत समाज भूप, तहाँ यहि रूप जाइ कहा सकुचाइए। दुख सुख के दिन तौ अब काटे ही बनैगे भूलि, बिपत परे पै द्वार मित्र के न जाइए।। 20।। विप्रन के भगत जगत के विदित बन्‍धु लेत सब ही की सुधि ऐसे महादानि हैं। पढ़े एक चटसार कही तुम कय बार, लोचन अपार वै तुम्‍हैं न पहिचानि हैं।। एक दीनबंधु, कृपासिंधु केरि गुरुबन्‍धु, तुम सम को दीन जाहि निजजिय जानिहैं। नाम लेत चौगुनी, गए ते द्वार सौगुनी सो, देखत सहस्रगुनी प्रीति प्रभु मानिहैं।। 21।। प्रीति में चूक नहीं उनके हरि, मो मिलि हैं उठि कण्‍ठ लगाय कै। द्वार गए कछु दै हैं पै दै हैं, वे द्वारिका द्वारिका जू हैं सब लायकै।। जै बिधि बीति गए पन दै, अब तो पहुँचो बिरधापन आय कै। जीवन शेष अहै दिन केतिक, होहुँ हरी सें कनावड़ो जाए कै।। 22।। हुजै कनावड़ो बार हजार लौं, जौ हितू दीन दयालु सों पाइए। तीनिहु लोक के ठाकुर जे, तिनके दरबार न जात लजाइए।। मेरी कही जिय मैं धरि कै पिए, भूलि न और प्रसंग चलाइए। और के द्वा सों काज कहा पिय, द्वारिका नाथ के द्वारे सिधाइए।। 23।। द्वारिका जाहु जू द्वारिका जाहु जू, आठहु जाम यहै झक तेरे। जौ न कहौ करिए तौ बड़ो दुख, जैये कहां अपनी गति हेरे।। द्वार खड़े प्रभु के छरिया तहं, भूपति जान न पावत नेरे। पांचु सुपारि तौ देखु बिचारि कै, भेंट को चारि न चांवर मेरे।। 24।। यहि सुनि कै तब ब्राह्मणी, गई परोसिन पास। पाव सेर चाउर लिए आई सहित हुलास।। 25।। सिद्धि करी गनपति सुमिरि, बांधि दुपटिया खूंट। मांगत खात चले तहां, मारग बाली-बूंट।। 26।। तीन दिवस चलि विप्र के, दूखि उठे जब पांय। एक ठौर सोए कहूँ, घास पयार बिछाय।। 27।। अन्‍तरजामी आपु हरि, जानि जगत की पीर। सोबत लै ठांढ़ो कियो, नदी गोमती तीर।। 28।। प्रात गोमती दरस तें, अति प्रसन्‍न भो चित्त। विप्र तहां असनान करि, कीन्‍हो नित्त निमित्त।। 29।। भाल तिलक घसि कै दियो, गही सुमिरिनी हाथ। देखि दिव्‍य द्रारावती, भयो अनाथ सनाथ।। 30।। दीठि चकाचौंधि गई देखत सुबर्नमई, एक ते आछे एक द्वारिका के भौन हैं। पूछे बिनु कोऊ कहूँ काहू सों बात करै, देवता से बैठे सब साधि साधि मौन हैं।। देखत सुदामा धाय पौरजन गहे पांय, कृपा करि कहो विप्र कहां कीन्‍हों गौन हैा धीरज अधीर के हरन पर पीर के, बताओ बलबीर के महल यहाँ कौन है।। 31।। दीन जानि काहू पुरुस, कर गहि लीन्‍हो आय। दीन द्वार ठाढ़ो कियो, दीन दयाल के जाय।। 32।। द्वारपाल द्विज जानि कै, कीन्‍ही दण्‍ड प्रनाम। विप्र कृपा करि भाषिए, सकुल आपनो नाम।। 33।। नाम सुदामा, कृस्‍न हम, पढ़े एकई साथ। कुल पांडे वृजराज सुनि, सकल जानि हैं गाथ।। 34।। द्वार पाल चलि तहं गयो, जहाँ कृस्‍न यदुराय। हाथ जोरि ठाढ़ो भयो, बोल्‍यो सीस नवाय।। 35।। सीस पगा न झँगा तन में, प्रभु ! जानै को आहि बसे केहि ग्रामा। धोती फटी-सी लटी-लुपटी अरु, पांय उपानह की नहिं साम।। द्वार खरो द्विज दुर्बल एक, रह्यो चकि सो बसुधा अभिरामा। पूछत दीन दयाल को धाम, बतावत अपनो नाम सुदामा।। 36।। बोल्‍यो द्वारपाल एक 'सुदामा नाम पांडे' सुनि, छांड़े काज ऐसे जी की गति जानै को? द्वारिका के नाथ हाथ जोरि धाय गहे पांय, भेटे भरि अंक लपटाय दुख साने को। नैन दोऊ जल भरि पूछत कुसल हरि, विप्र बोल्‍यो विपदा में मोहि पहिचानै को? जैसी तुम करी तैसी करी को दया के सिन्‍धु, ऐसी प्रीति दीनबन्‍धु ! दीनन सों मानै को?।। 37।। लोचन पूरि रहे जलसों, प्रभु दूरि ते देखत ही दुख भेट्यो। सोच भयो सुरनायक के, कलपद्रुम के हिय माझ खसेट्यो1।। कम्‍प कुबेर हिये सरस्‍यो, परसे पग जात सुमेरु समेट्यो। रंक ते राउ भयो तबहीं, जबहीं भरि अंक रमापति भेट्यो।। 38।। भेंटि भली विधि विप्र सों, कर गहि त्रिभुवनराय। अन्‍त:पुर को लै गए, जहाँ न दूजो जाय।। 39।। मनि मंडित चौकी कनक, ता ऊपर बैठाय। पानी धर्यो परात में पग धोवन को लाय।। 40।। राजरमनि सोरह सहस, सब सेवकन समीत2। आठों पटरानी भईं, चितै चकित यह प्रीति।। 41।। जिनके चरनन को सलिल, हरत जगत सन्‍ताप। पांय सुदामा विप्र के धोवत ते हरि आप।। 42।। ऐसे बेहाल बिवाइन सों, पग कंटक जाल लगे पुनि जोए। हाय महा दुख पायो सखा तुम, आए इतै न कितै दिन खोए।। देखी सुदामा की दीन दसा, करुना करि कै करुना-निधि रोए। पानी परात को हाथ छुयौ नहिं, नैनन के जल सों पग धोए।। 43।। धोय पाँय पट-पीत सों, पोंछत हैं जदुराय। सतभामा सों यों कही, करो रसोई जाय।। 44।। तन्‍दुल तिय दीने हते, आगे धरियों जाय। देखि राज सम्‍पत्ति विभव, दै नहिं सकत लजाय।। 45।। अन्‍तरजामी आपु हरि, जानि भगत की रीति। सुह्द सुदामा विप्र सों, प्रकट जनाई प्रीति।। 46।। कछु भाभी हमको दियो, सो तुम काहे न देत। चाँपि पोटरी काँख में, रहो कहो केहि हेत।। 47।। आगे चना गुरुमातु दए ते, लए तुम चाबि हमें नहिं दीने। स्‍याम कह्यो मुसुकाय सुदामा सों, चोरी की बानि में हौ जू प्रवीने।। पोटरी काँख में चाँपि रहे तुम, खोलत नाहिं सुधारस भीने। पाछिली बानि अजौं न तजी तुम, तैसई भाभी के तन्‍दुल कीने। 48।। खोलत सकुचत गाँठरी, चितवत हरि की ओर। जीरन पट फटि छुटि पख्‍यो, बिथरि गये तेहि ठौर।। 49।। एक मुठी हरि भरि लई, लीन्‍हीं मुख में डारि। चबत चबाउ करन लगे, चतुरानन त्रिपुरारि।। 50।। कांपि उठी कमला मन सोचत, मोसों कहा हरि को मन ओंको? ऋद्धि कँपी सब सिद्धि कँपी; नवनिद्धि कँपी बम्‍हना यह धौं को? सोच भयो सुरनायक के, जब दूसरी बार लियो भरि झोंको। मेरु डस्यो बकसे निज मेहिं, कुबेर चबावत चाउर चोंको।। 51।। हूल हियरा में सब कानन परी है टेर, भेंटत सुदामा स्‍याम चाबि न अघात ही। कहै नर उत्तम रिधि सिद्धिन में सोर भयो, ठाढ़ी थर हरै और सोचे कमला तहीं।। नाक लोग नाग लोक, ओक-ओ‍क थोक-थोक, ठाढ़े थरहरे मुख सूखे सब गात ही। हाल्‍यो पर्यो थोकन में, लालो पर्यो लोकन में चाल्‍यो पर्यो चक्रन में चाउर चबात ही।। 52।। भौन भरो पकवान मिठाइन, लोग कहैं निधि हैं सुखमा के। साँझ सबेरे पिता अभिलाखत, दाखन चाखत सिन्‍धु छमा के।। बाभन एक कोउ दुखिया सेर- पावक चाउर लायो समा के। प्रीति की रीति कहा कहिए, तेहि बैठि चबात है कन्‍त रमा के।। 53।। मुठी तीसरी भरत ही, रुकमिनि पकरि बांह। ऐसी तुम्‍हें कहा भई, सम्‍पति की अनचाह।। 54।। कही रुकमिनि कान में, यह धौं कौन मिलाप। करत सुदामा आपु सों, होत सुदामा आपु।। 55।। क्‍यों रस में विष बाम कियो, अब और न खान दियो एक फंका। विप्रहिं लोक तृतीयक देत, करी तुम क्‍यों अपने मन संका।। भामिनि मोहि जेंवाइ भली विधि, कौन रह्यौ जग में नर रंका। लोक कहै हरि मित्र दुखी, हमसों न सहृो यह जात कलंका।। 55अ।। भार्गव हू सब जीति धरा, दय विप्रन को अति ही सुख मानो। विप्रन काढ़ि दियो तुमको, निशि तादिन को बिसरो खिसियानो।। सिन्‍धु हटाय करो तुम ठौर, द्विजन्‍म सुभाव भली विधि जानो। सो तुम देत द्विजै सब लोक, कियौ तुमने अब कौन ठिकानो।। 55ब।। भामिनि देव द्विजै सब लोक, तजौं हट मोर यहै मन भाई। लोक चतुर्दस की सुख सम्‍पति, लागत विप्र बिना दुखदाई।। जाय रहौं उनके घर में, औ करौं द्विज दम्‍पति की सेवकाई तो मन माहि रुचै न रुचै, सो रुचै हम कौ वह ठौर सुहाई।। 55स।। भामिनि क्‍यों बिसरीं अबहीं, निज ब्‍याह समय द्विज की हितुआई। भूलि गईं द्विज की करनी, जेहि के कर सों पतिया पठवाई।। विप्र सहाय भयो तेहि औसर, को द्विज के समुहे सुखदाई। योग्‍य नहीं अर्द्धांगिनी है, तुमको द्विज हेतु इती निठुराई।। 55द।। यहि कौतुक के समय में कही सेवकनि आय। भई रसोई सिद्ध प्रभु, भोजन करिये आय।। 56।। विप्र सुदामहि न्ह्याय कर धोती पहिरि बनाय। सन्‍ध्‍या करि मध्‍यान्‍ह की, चौका बैठे जाय।। 57।। रूपे के रुचिर थार पायस सहित सिता, सोभा सब जीती जिन सरद के चन्‍द की। दूसरे परोसो भात सोंधो सुरभी को घृत, फूले फूले फुलका प्रफुल्‍ल दुति मन्‍द की।। पापर मुंगोरीं बरा व्‍यंजन अनेक भांति देवता विलोक रहे देवकी के नन्‍द की। या विधि सुदामा जु को आछे कै जेंवायें प्रभु, पाछै कै पछ्यावरि परोसी आनि कन्‍द की।। 58।। सात दिवस यहि विधि रहे, दिन दिन आदर भाव। चित्त चल्‍यो घर चलन को, ताकौ सुनहु हवाल।। 59।। दाहिने वेद पढ़ै चतुरानन, सामुहें ध्‍यान महेस धर्यो है।। बाँए दोउ कर जोरि सुसेवक, देवन साथ सुरेस खर्यो है।।। एतइ बीच अनेक लिए धन, पायन आय कुबेर पर्यो है। देखि विभौ अपनो सपनो, बापुरो वह बांभन चौंकि पर्यो है।। 60।। देनो हुतो सो दै चुके, विप्र न जानी गाथ। मन में गुनो गुपाल जू, कछु ना दीनो हाथ।। 61।। वह पुलकनि वह उठि मिलन, वह आदर की बात। यह पठवनि गोपाल की, कछू न जानी जात।। 62।। घर घर कर ओड़त फिरे, तनक दही के काज। कहा भयो जो अब भयो, हरि को राज-समाज।। 63।। हौं आवत नाहीं हुतौ, वाहि पठायो ठेलि। अब कहि हौं समुझाय कै, बहु धन धरौ सकेलि।। 64।। बालापन के मित्र हैं, कहा देउँ मैं साप। जैसो हरि हमको दियौ, तैसो पैइहैं आप।। 65।। नौ गुन धारी छगन सों, तिगुने मध्‍ये जाय। लायो चापल चौगुनी, आठों गुननि गंवाय।। 66।। और कहा कहिए जहाँ, कंचन ही के धाम। निपट कठिन हरि को हियो, मोको दियो न दाम।। 67।। बहु भंडार रतनन भरै, कौन करै अब रोष। लाग आपने भाग को, काको दीजै दोस।। 68।। इमि सोचत-सोचत झखत, आये निज पुर तीर। दीठि परी एक बार ही, हय गयन्‍द की भीर।। 69।। हरि दरसन से दूरि दुख, भयो गये निज देस। गौतम ऋषि को नाउँ लै, कीन्‍हो नगर प्रवेस।। 70।। वैसोइ राज समाज बनो गज, बाजि घने मन सम्‍भ्रम छायो। कैधौ पर्यो कहुँ मारग भूलि, कि फेरि कै मैं अब द्वारिका आयो।। भौन बिलोकिबे को मन लोचत, सोचत ही सब गांव मंझायो। पूछ़त पांड़े फिरे सब सों पर, झोपरी को कहुँ खोज न पायो।। 71।। देव नगर कै जच्‍छ पुर, हौं भटक्‍यो कित आय। नाम कहा यहि नगर को, सो न कहौ समुझाय।। सो न कहौ समुझाय नगर वासी तुम कैसे। पथिक जहाँ झंखाहिं तहाँ के लोग अनैसे।। लोग अनैसे नाहिं, लखौ द्विज देव नगर तैं कृपा करी हरि देव, दियौ है देव नगर कै।। 72।। सुन्‍दर महल मनि-मानिक जटिल अति, सुबरन सूरज-प्रकास मानो दै रह्यौ। देखत सुदामा जू को नगर के लोग धाये, भेंटें अकुलाय जोई सोई पग छूवै रह्यौ।। बांभनी के भूसन विविध विधि देखि कह्यौ जैहौं हौं निकासो सो तमासो जग ज्‍वै रह्यौ। ऐसी दसा फिरी जब द्वारिका दरस पायो, द्वारिका के सरिस सुदामापुर ह्वै रह्यौ।।। 73।। कनक दण्‍ड कर में लिए, द्वारपाल हैं द्वार। जाय दिखायो सबनि लै, या हैं महल तुम्‍हार।। 74।। कही सुदामा हँसत हौ, ह्वै करि परम प्रवीन। कुटि दिखावहु मोहिं वह, जहाँ बाँझनी दीन।। 75।। द्वारपाल सो तिन कही, क‍हि पठवहु यह गाथ। आये विप्र महाबली, देखहु होहु सनाथ।। 76।। सुनत चली आनन्‍द युत, सब सखियन लै संग। नूपुर किंकिनि दुन्‍दुभी, मनहु काम चतुरंग।। 77।। कही बाँभनी आय कै, यहै कन्‍त निज गेह। श्रीजदुपति तिहुँ लोक में, कीन्‍हो प्रकट सनेह।। 78।। हमै कन्‍त जनि तुम कहौ, बोलौ बचन सँभारि। इहैं कुटी मेरी हती, दीन बापुरी नारि।। 79।। मैं तो नारि तिहारि पै, सुधि सँभारिये कन्‍त। प्रभुता सुन्‍दरता सबै, दई रुक्मिनी कन्‍त।। 80।। टूटी सी मड़ैया मेरी परी हुती याही ठौर, तामे परी दुख काटे कहा हेम धाम री। जेवर जराऊ तुम साजे सब अंग अंग, सखी सोहैं संग वह छूछी हुती छामरी।। तुम तो पटम्‍बर सो ओढ़े हौ किनारीदार, सारी जरतारी वह ओढ़े कारी कामरी। मेरी पंडिताइनि तिहारे अनुहारि पतो मोक

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सीतापुर जिला

सीतापुर भारतीय राज्य उत्तर प्रदेश का एक जिला है। जिले का मुख्यालय सीतापुर है। यह जिला नैमिषारण्य तीर्थ के कारण प्रसिद्ध है। प्रारंभिक मुस्लिम काल के लक्षण केवल भग्न हिंदू मंदिरों और मूर्तियों के रूप में ही उपलब्ध हैं। इस युग के ऐतिहासिक प्रमाण शेरशाह द्वारा निर्मित कुओं और सड़कों के रूप में दिखाई देते हैं। उस युग की मुख्य घटनाओं में से एक तो खैराबाद के निकट हुमायूँ और शेरशाह के बीच और दूसरी श्रावस्ती नरेस सुहेलदेव राजभर और सैयद सालार के बीच बिसवाँ और तंबौर के युद्ध हैं।जिले के ब्लॉक गोंदलामऊ में चित्रांशों का प्राकृतिक छठा बिखेरता खूबसूरत व ऐतिहासिक गांव असुवामऊ है।इस धार्मिक गांव में शारदीय नवरात्रि के मौके पर सप्तमी की रात भद्रकाली की पूजा पूरी आस्था से मनाई जाती है। .

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हिन्दी

हिन्दी या भारतीय विश्व की एक प्रमुख भाषा है एवं भारत की राजभाषा है। केंद्रीय स्तर पर दूसरी आधिकारिक भाषा अंग्रेजी है। यह हिन्दुस्तानी भाषा की एक मानकीकृत रूप है जिसमें संस्कृत के तत्सम तथा तद्भव शब्द का प्रयोग अधिक हैं और अरबी-फ़ारसी शब्द कम हैं। हिन्दी संवैधानिक रूप से भारत की प्रथम राजभाषा और भारत की सबसे अधिक बोली और समझी जाने वाली भाषा है। हालांकि, हिन्दी भारत की राष्ट्रभाषा नहीं है क्योंकि भारत का संविधान में कोई भी भाषा को ऐसा दर्जा नहीं दिया गया था। चीनी के बाद यह विश्व में सबसे अधिक बोली जाने वाली भाषा भी है। विश्व आर्थिक मंच की गणना के अनुसार यह विश्व की दस शक्तिशाली भाषाओं में से एक है। हिन्दी और इसकी बोलियाँ सम्पूर्ण भारत के विविध राज्यों में बोली जाती हैं। भारत और अन्य देशों में भी लोग हिन्दी बोलते, पढ़ते और लिखते हैं। फ़िजी, मॉरिशस, गयाना, सूरीनाम की और नेपाल की जनता भी हिन्दी बोलती है।http://www.ethnologue.com/language/hin 2001 की भारतीय जनगणना में भारत में ४२ करोड़ २० लाख लोगों ने हिन्दी को अपनी मूल भाषा बताया। भारत के बाहर, हिन्दी बोलने वाले संयुक्त राज्य अमेरिका में 648,983; मॉरीशस में ६,८५,१७०; दक्षिण अफ्रीका में ८,९०,२९२; यमन में २,३२,७६०; युगांडा में १,४७,०००; सिंगापुर में ५,०००; नेपाल में ८ लाख; जर्मनी में ३०,००० हैं। न्यूजीलैंड में हिन्दी चौथी सर्वाधिक बोली जाने वाली भाषा है। इसके अलावा भारत, पाकिस्तान और अन्य देशों में १४ करोड़ १० लाख लोगों द्वारा बोली जाने वाली उर्दू, मौखिक रूप से हिन्दी के काफी सामान है। लोगों का एक विशाल बहुमत हिन्दी और उर्दू दोनों को ही समझता है। भारत में हिन्दी, विभिन्न भारतीय राज्यों की १४ आधिकारिक भाषाओं और क्षेत्र की बोलियों का उपयोग करने वाले लगभग १ अरब लोगों में से अधिकांश की दूसरी भाषा है। हिंदी हिंदी बेल्ट का लिंगुआ फ़्रैंका है, और कुछ हद तक पूरे भारत (आमतौर पर एक सरल या पिज्जाइज्ड किस्म जैसे बाजार हिंदुस्तान या हाफ्लोंग हिंदी में)। भाषा विकास क्षेत्र से जुड़े वैज्ञानिकों की भविष्यवाणी हिन्दी प्रेमियों के लिए बड़ी सन्तोषजनक है कि आने वाले समय में विश्वस्तर पर अन्तर्राष्ट्रीय महत्त्व की जो चन्द भाषाएँ होंगी उनमें हिन्दी भी प्रमुख होगी। 'देशी', 'भाखा' (भाषा), 'देशना वचन' (विद्यापति), 'हिन्दवी', 'दक्खिनी', 'रेखता', 'आर्यभाषा' (स्वामी दयानन्द सरस्वती), 'हिन्दुस्तानी', 'खड़ी बोली', 'भारती' आदि हिन्दी के अन्य नाम हैं जो विभिन्न ऐतिहासिक कालखण्डों में एवं विभिन्न सन्दर्भों में प्रयुक्त हुए हैं। .

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हिंदी साहित्य

चंद्रकांता का मुखपृष्ठ हिन्दी भारत और विश्व में सर्वाधिक बोली जाने वाली भाषाओं में से एक है। उसकी जड़ें प्राचीन भारत की संस्कृत भाषा में तलाशी जा सकती हैं। परंतु हिन्दी साहित्य की जड़ें मध्ययुगीन भारत की ब्रजभाषा, अवधी, मैथिली और मारवाड़ी जैसी भाषाओं के साहित्य में पाई जाती हैं। हिंदी में गद्य का विकास बहुत बाद में हुआ और इसने अपनी शुरुआत कविता के माध्यम से जो कि ज्यादातर लोकभाषा के साथ प्रयोग कर विकसित की गई।हिंदी का आरंभिक साहित्य अपभ्रंश में मिलता है। हिंदी में तीन प्रकार का साहित्य मिलता है। गद्य पद्य और चम्पू। हिंदी की पहली रचना कौन सी है इस विषय में विवाद है लेकिन ज़्यादातर साहित्यकार देवकीनन्दन खत्री द्वारा लिखे गये उपन्यास चंद्रकांता को हिन्दी की पहली प्रामाणिक गद्य रचना मानते हैं। .

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हजारी प्रसाद द्विवेदी

हजारी प्रसाद द्विवेदी (19 अगस्त 1907 - 19 मई 1979) हिन्दी के मौलिक निबन्धकार, उत्कृष्ट समालोचक एवं सांस्कृतिक विचारधारा के प्रमुख उपन्यासकार थे। .

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जॉर्ज अब्राहम ग्रियर्सन

जॉर्ज अब्राहम ग्रियर्सन (1851-1941) अंग्रेजों के जमाने में "इंडियन सिविल सर्विस" के कर्मचारी थे। भारतीय विद्याविशारदों में, विशेषत: भाषाविज्ञान के क्षेत्र में, उनका स्थान अमर है। सर जार्ज अब्राहम ग्रियर्सन "लिंग्विस्टिक सर्वे ऑव इंडिया" के प्रणेता के रूप में अमर हैं। ग्रियर्सन को भारतीय संस्कृति और यहाँ के निवासियों के प्रति अगाध प्रेम था। भारतीय भाषाविज्ञान के वे महान उन्नायक थे। नव्य भारतीय आर्यभाषाओं के अध्ययन की दृष्टि से उन्हें बीम्स, भांडारकर और हार्नली के समकक्ष रखा जा सकता है। एक सहृदय व्यक्ति के रूप में भी वे भारतवासियों की श्रद्धा के पात्र बने। .

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वाराणसी

वाराणसी (अंग्रेज़ी: Vārāṇasī) भारत के उत्तर प्रदेश राज्य का प्रसिद्ध नगर है। इसे 'बनारस' और 'काशी' भी कहते हैं। इसे हिन्दू धर्म में सर्वाधिक पवित्र नगरों में से एक माना जाता है और इसे अविमुक्त क्षेत्र कहा जाता है। इसके अलावा बौद्ध एवं जैन धर्म में भी इसे पवित्र माना जाता है। यह संसार के प्राचीनतम बसे शहरों में से एक और भारत का प्राचीनतम बसा शहर है। काशी नरेश (काशी के महाराजा) वाराणसी शहर के मुख्य सांस्कृतिक संरक्षक एवं सभी धार्मिक क्रिया-कलापों के अभिन्न अंग हैं। वाराणसी की संस्कृति का गंगा नदी एवं इसके धार्मिक महत्त्व से अटूट रिश्ता है। ये शहर सहस्रों वर्षों से भारत का, विशेषकर उत्तर भारत का सांस्कृतिक एवं धार्मिक केन्द्र रहा है। हिन्दुस्तानी शास्त्रीय संगीत का बनारस घराना वाराणसी में ही जन्मा एवं विकसित हुआ है। भारत के कई दार्शनिक, कवि, लेखक, संगीतज्ञ वाराणसी में रहे हैं, जिनमें कबीर, वल्लभाचार्य, रविदास, स्वामी रामानंद, त्रैलंग स्वामी, शिवानन्द गोस्वामी, मुंशी प्रेमचंद, जयशंकर प्रसाद, आचार्य रामचंद्र शुक्ल, पंडित रवि शंकर, गिरिजा देवी, पंडित हरि प्रसाद चौरसिया एवं उस्ताद बिस्मिल्लाह खां आदि कुछ हैं। गोस्वामी तुलसीदास ने हिन्दू धर्म का परम-पूज्य ग्रंथ रामचरितमानस यहीं लिखा था और गौतम बुद्ध ने अपना प्रथम प्रवचन यहीं निकट ही सारनाथ में दिया था। वाराणसी में चार बड़े विश्वविद्यालय स्थित हैं: बनारस हिन्दू विश्वविद्यालय, महात्मा गांधी काशी विद्यापीठ, सेंट्रल इंस्टीट्यूट ऑफ हाइयर टिबेटियन स्टडीज़ और संपूर्णानन्द संस्कृत विश्वविद्यालय। यहां के निवासी मुख्यतः काशिका भोजपुरी बोलते हैं, जो हिन्दी की ही एक बोली है। वाराणसी को प्रायः 'मंदिरों का शहर', 'भारत की धार्मिक राजधानी', 'भगवान शिव की नगरी', 'दीपों का शहर', 'ज्ञान नगरी' आदि विशेषणों से संबोधित किया जाता है। प्रसिद्ध अमरीकी लेखक मार्क ट्वेन लिखते हैं: "बनारस इतिहास से भी पुरातन है, परंपराओं से पुराना है, किंवदंतियों (लीजेन्ड्स) से भी प्राचीन है और जब इन सबको एकत्र कर दें, तो उस संग्रह से भी दोगुना प्राचीन है।" .

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कृष्ण

बाल कृष्ण का लड्डू गोपाल रूप, जिनकी घर घर में पूजा सदियों से की जाती रही है। कृष्ण भारत में अवतरित हुये भगवान विष्णु के ८वें अवतार और हिन्दू धर्म के ईश्वर हैं। कन्हैया, श्याम, केशव, द्वारकेश या द्वारकाधीश, वासुदेव आदि नामों से भी उनको जाना जाता हैं। कृष्ण निष्काम कर्मयोगी, एक आदर्श दार्शनिक, स्थितप्रज्ञ एवं दैवी संपदाओं से सुसज्ज महान पुरुष थे। उनका जन्म द्वापरयुग में हुआ था। उनको इस युग के सर्वश्रेष्ठ पुरुष युगपुरुष या युगावतार का स्थान दिया गया है। कृष्ण के समकालीन महर्षि वेदव्यास द्वारा रचित श्रीमद्भागवत और महाभारत में कृष्ण का चरित्र विस्तुत रूप से लिखा गया है। भगवद्गीता कृष्ण और अर्जुन का संवाद है जो ग्रंथ आज भी पूरे विश्व में लोकप्रिय है। इस कृति के लिए कृष्ण को जगतगुरु का सम्मान भी दिया जाता है। कृष्ण वसुदेव और देवकी की ८वीं संतान थे। मथुरा के कारावास में उनका जन्म हुआ था और गोकुल में उनका लालन पालन हुआ था। यशोदा और नन्द उनके पालक माता पिता थे। उनका बचपन गोकुल में व्यतित हुआ। बाल्य अवस्था में ही उन्होंने बड़े बड़े कार्य किये जो किसी सामान्य मनुष्य के लिए सम्भव नहीं थे। मथुरा में मामा कंस का वध किया। सौराष्ट्र में द्वारका नगरी की स्थापना की और वहाँ अपना राज्य बसाया। पांडवों की मदद की और विभिन्न आपत्तियों में उनकी रक्षा की। महाभारत के युद्ध में उन्होंने अर्जुन के सारथी की भूमिका निभाई और भगवद्गीता का ज्ञान दिया जो उनके जीवन की सर्वश्रेष्ठ रचना मानी जाती है। १२५ वर्षों के जीवनकाल के बाद उन्होंने अपनी लीला समाप्त की। उनकी मृत्यु के तुरंत बाद ही कलियुग का आरंभ माना जाता है। .

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उत्तर प्रदेश

आगरा और अवध संयुक्त प्रांत 1903 उत्तर प्रदेश सरकार का राजचिन्ह उत्तर प्रदेश भारत का सबसे बड़ा (जनसंख्या के आधार पर) राज्य है। लखनऊ प्रदेश की प्रशासनिक व विधायिक राजधानी है और इलाहाबाद न्यायिक राजधानी है। आगरा, अयोध्या, कानपुर, झाँसी, बरेली, मेरठ, वाराणसी, गोरखपुर, मथुरा, मुरादाबाद तथा आज़मगढ़ प्रदेश के अन्य महत्त्वपूर्ण शहर हैं। राज्य के उत्तर में उत्तराखण्ड तथा हिमाचल प्रदेश, पश्चिम में हरियाणा, दिल्ली तथा राजस्थान, दक्षिण में मध्य प्रदेश तथा छत्तीसगढ़ और पूर्व में बिहार तथा झारखंड राज्य स्थित हैं। इनके अतिरिक्त राज्य की की पूर्वोत्तर दिशा में नेपाल देश है। सन २००० में भारतीय संसद ने उत्तर प्रदेश के उत्तर पश्चिमी (मुख्यतः पहाड़ी) भाग से उत्तरांचल (वर्तमान में उत्तराखंड) राज्य का निर्माण किया। उत्तर प्रदेश का अधिकतर हिस्सा सघन आबादी वाले गंगा और यमुना। विश्व में केवल पाँच राष्ट्र चीन, स्वयं भारत, संयुक्त राज्य अमेरिका, इंडोनिशिया और ब्राज़ील की जनसंख्या उत्तर प्रदेश की जनसंख्या से अधिक है। उत्तर प्रदेश भारत के उत्तर में स्थित है। यह राज्य उत्तर में नेपाल व उत्तराखण्ड, दक्षिण में मध्य प्रदेश, पश्चिम में हरियाणा, दिल्ली, राजस्थान तथा पूर्व में बिहार तथा दक्षिण-पूर्व में झारखण्ड व छत्तीसगढ़ से घिरा हुआ है। उत्तर प्रदेश की राजधानी लखनऊ है। यह राज्य २,३८,५६६ वर्ग किलोमीटर के क्षेत्रफल में फैला हुआ है। यहाँ का मुख्य न्यायालय इलाहाबाद में है। कानपुर, झाँसी, बाँदा, हमीरपुर, चित्रकूट, जालौन, महोबा, ललितपुर, लखीमपुर खीरी, वाराणसी, इलाहाबाद, मेरठ, गोरखपुर, नोएडा, मथुरा, मुरादाबाद, गाजियाबाद, अलीगढ़, सुल्तानपुर, फैजाबाद, बरेली, आज़मगढ़, मुज़फ्फरनगर, सहारनपुर यहाँ के मुख्य शहर हैं। .

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१४९३

1493 ग्रेगोरी कैलंडर का एक साधारण वर्ष है। .

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१५४२

1542 ग्रेगोरी कैलंडर का एक साधारण वर्ष है। .

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१५४५

1545 ग्रेगोरी कैलंडर का एक साधारण वर्ष है। .

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१५५०

1550 ग्रेगोरी कैलंडर का एक साधारण वर्ष है। .

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१५८२

१५८२ १५८२.

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१६०२

1602 ग्रेगोरी कैलंडर का एक साधारण वर्ष है। .

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१६०५

1605 ग्रेगोरी कैलंडर का एक साधारण वर्ष है। .

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१९६८

1968 ग्रेगोरी कैलंडर का एक साधारण वर्ष है। .

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1610

1610 ग्रेगोरी कैलंडर का एक साधारण वर्ष है। .

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