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नक्षत्र

सूची नक्षत्र

आकाश में तारा-समूह को नक्षत्र कहते हैं। साधारणतः यह चन्द्रमा के पथ से जुड़े हैं, पर वास्तव में किसी भी तारा-समूह को नक्षत्र कहना उचित है। ऋग्वेद में एक स्थान पर सूर्य को भी नक्षत्र कहा गया है। अन्य नक्षत्रों में सप्तर्षि और अगस्त्य हैं। नक्षत्र सूची अथर्ववेद, तैत्तिरीय संहिता, शतपथ ब्राह्मण और लगध के वेदांग ज्योतिष में मिलती है। भागवत पुराण के अनुसार ये नक्षत्रों की अधिष्ठात्री देवियाँ प्रचेतापुत्र दक्ष की पुत्रियाँ तथा चन्द्रमा की पत्नियाँ हैं। .

50 संबंधों: चन्द्रमा, चित्रा, तारा, तारामंडल, तैत्तिरीय संहिता, धनिष्ठा, पुनर्वसु, पुष्य, पूर्णिमा, पूर्वाफाल्गुनी, पूर्वाभाद्रपद, पूर्वाषाढ़ा, बुध (बहुविकल्पी), बृहस्पति, भरणी, भागवत पुराण, मघा, मंगल, मृगशिरा, मूल, राहु, रवि, रेवती, रोहिणी नक्षत्र, लगध, शतपथ ब्राह्मण, शतभिषा, शनि, शुक्र, श्रवण नक्षत्र, सप्तर्षि, स्वाती, हस्त, ज्येष्ठा, विशाखा, आद्रा, आकाश, कृत्तिका, केतु, अथर्ववेद संहिता, अनुराधा नक्षत्र, अभिजित, अल्फ़ा ऐन्ड्रौमिडे तारा, अश्लेषा, अश्विनी, अगस्त्य, उत्तराफाल्गुनी, उत्तराभाद्रपद, उत्तराषाढा, ऋग्वेद

चन्द्रमा

कोई विवरण नहीं।

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चित्रा

* चित्रा नक्षत्र - एक नक्षत्र का नाम है।.

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तारा

तारे (Stars) स्वयंप्रकाशित (self-luminous) उष्ण गैस की द्रव्यमात्रा से भरपूर विशाल, खगोलीय पिंड हैं। इनका निजी गुरुत्वाकर्षण (gravitation) इनके द्रव्य को संघटित रखता है। मेघरहित आकाश में रात्रि के समय प्रकाश के बिंदुओं की तरह बिखरे हुए, टिमटिमाते प्रकाशवाले बहुत से तारे दिखलाई देते हैं। .

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तारामंडल

मृगशीर्ष या ओरायन (शिकारी तारामंडल) एक जाना-माना तारामंडल है - पीली धारी के अन्दर के क्षेत्र को ओरायन क्षेत्र बोलते हैं और उसके अंदर वाली हरी आकृति ओरायन की आकृति है खगोलशास्त्र में तारामंडल आकाश में दिखने वाले तारों के किसी समूह को कहते हैं। इतिहास में विभिन्न सभ्यताओं नें आकाश में तारों के बीच में कल्पित रेखाएँ खींचकर कुछ आकृतियाँ प्रतीत की हैं जिन्हें उन्होंने नाम दे दिए। मसलन प्राचीन भारत में एक मृगशीर्ष नाम का तारामंडल बताया गया है, जिसे यूनानी सभ्यता में ओरायन कहते हैं, जिसका अर्थ "शिकारी" है। प्राचीन भारत में तारामंडलों को नक्षत्र कहा जाता था। आधुनिक काल के खगोलशास्त्र में तारामंडल उन्ही तारों के समूहों को कहा जाता है जिन समूहों पर अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर अंतर्राष्ट्रीय खगोलीय संघ में सहमति हो। आधुनिक युग में किसी तारों के तारामंडल के इर्द-गिर्द के क्षेत्र को भी उसी तारामंडल का नाम दे दिया जाता है। इस प्रकार पूरे खगोलीय गोले को अलग-अलग तारामंडलों में विभाजित कर दिया गया है। अगर यह बताना हो कि कोई खगोलीय वस्तु रात्री में आकाश में कहाँ मिलेगी तो यह बताया जाता है कि वह किस तारामंडल में स्थित है।, Neil F. Comins, pp.

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तैत्तिरीय संहिता

तैत्तिरीय संहिता में ७ काण्ड, ४४ प्रपाठक, तथा ६३१ अनुवाक हैं जिसका वर्ण्यविषय यज्ञीय कर्मकाण्ड (पौरोडास, याजमान, वाजपेय, राजसूय इत्यादि नाना यागानुष्ठान) का विशद वर्णन है। वेदों के एकमात्र सर्वातिशायी भाष्यकार सायण तैत्तिरीय शाखा के ही अनुयायी थे और उन्होने सर्वप्रथम तैत्तिरीय संहिता पर ही अपना वैदुष्यपूर्ण भाष्य लिखा। .

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धनिष्ठा

धनिष्ठा धनिष्ठा नक्षत्र के अंतिम दो चरणों में जन्मा जातक गू, गे नाम से जाना जा सकता है। मंगल इस नक्षत्र का स्वामी है, वहीं राशि स्वामी शनि है। मंगल का नक्षत्र होने से ऐसे जातक ऊर्जावान, तेजस्वी, पराक्रमी, परिश्रम के द्वारा सफलता पाने वाला होता है। कुंम राशि में जन्मा होने से ऐसे जातक स्थिर स्वभाव के होते हैं। .

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पुनर्वसु

पुनर्वसु मात्रेयसंहिता के रचयिता एवं आयुर्वेदाचार्य थे। अत्रि ऋषि के पुत्र होने के कारण इन्हें पुनर्वसु आत्रेय कहा जाता है। अत्रि ऋषि स्वयं आयुर्वेदाचार्य थे। अश्वघोष के अनुसार, आयुर्वेद-चिकित्सातंत्र का जो भाग अत्रि ऋषि पूरा नहीं कर सके थे उसे इन्होंने पूर्ण किया था। चरकसंहिता के मूल ग्रंथ अग्निवेशतंत्र के रचयिता अग्निवेश के ये गुरु एवं भरद्वाज ऋषि के समकालीन थे। इन्होंने अपने पिता एवं भरद्वाज ऋषि से आयुर्वेद की शिक्षा प्राप्त की थी। इनके रहने का कोई स्थान निश्चित नहीं था। पर्यटन करते हुए ये आयुर्वेद का उपदेश देते थे। आत्रेय के नाम पर लगभग तीस आयुर्वेदीय योग उपलब्ध हैं। इनमें बलतैल एवं अमृताद्य तैल का निर्देश चरकसंहिता में प्राप्त है। .

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पुष्य

पुष्य एक नक्षत्र है। पुष्य नक्षत्र का स्वामी शनि ग्रह होता है। .

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पूर्णिमा

पूर्णिमा पंचांग के अनुसार मास की 15वीं और शुक्लपक्ष की अंतिम तिथि है जिस दिन चंद्रमा आकाश में पूरा होता है। इस दिन का भारतीय जनजीवन में अत्यधिक महत्व हैं। हर माह की पूर्णिमा को कोई न कोई पर्व अथवा व्रत अवश्य मनाया जाता हैं। .

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पूर्वाफाल्गुनी

पूर्वाफाल्गुनी पूर्वा फाल्गुनी नक्षत्र 11वाँ नक्षत्र है। यह सूर्य की सिंह की राशि में आता है। इसके चारों चरण सिंह में मो टी ट नाम अक्षर से चरणानुसार आते हैं। नक्षत्र स्वामी शुक से इसकी मित्रता नहीं है। सूर्य अग्नितत्व प्रधान है तो शुक्र कला, सौंदर्य, धन का कारक है। इस नक्षत्र की दशा चंद्र की स्थिति अनुसार होती है। यह सर्वाधिक दशा 20 वर्ष वाला नक्षत्र है। यह 13 अंश 20 कला से शुरू होकर 26 अंश 20 कला पर समाप्त होता है। सिंह राशि पर नक्षत्र स्वामी का होना उस जातक को सुंदर लावण्यमय बनाएगा। यदि ऐसा जातक कला के क्षेत्र में जाए तो सफलता अवश्य मिलती है। ऐसे जातक उत्तम कद, सम्मोहक, मधुर मुस्कान के धनी होते हैं। इनके जीवन पर सूर्य, शुक्र व जो भी लग्न में जन्मा हो व शुक्र जिस राशि पर हो उसके स्वामी का भी प्रभाव पड़ेगा। मेष, सूर्य लग्न हो व शुक्र सप्तम भाव में हो तो ऐसा जातक सुंदर आकर्षक चेहरे वाला, होठों व जाँघों पर तिल होगा। इस लग्न में शुक्र की स्थिति द्वितीय, द्वादश, दशम, एकादश, चतुर्थ भाव में ठीक रहेगी। शुक्र मंगल साथ हुआ तो ऐसा जातक कामुक प्रवृत्ति का हो सकता है। शुक्र राहु के साथ हो तो बिगड़े स्वभाव का व्यसनी, वृषभ लग्न हो तो शुक्र की स्थिति लग्न में, तृतीय भाव में दशम, नवम भाव में उत्तम फलदायी रहेगी। .

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पूर्वाभाद्रपद

पूर्वाभाद्रपद गुरु का नक्षत्र पूर्वा भाद्रपद का अंतिम चरण मीन राशि में आता है। इसे ही नाम से पहचाना जाता है। गुरु का नक्षत्र व गुरु की राशि मीन में होने से ऐसा जातक आकर्षक व्यक्तित्व का धनी, गुणवान, धर्म, कर्म को मानने वाला, ईमानदार, परोपकारी, न्यायप्रिय होता है। गुरु यदि अपनी राशि धनु या मीन में हो तो ऐसे जातक सदाचारी होते हैं। ऐसे जातकों को शिक्षण से संबंधित कार्यों में भी उत्तम सफलता मिलती है। गुरु यदि मेष लग्न में नवम भाव, लग्न या पंचम भाव या उच्च का होकर चतुर्थ भाव में स्थित हो तो ऐसे जातक माता, भूमि, भवन, संतान, विद्या भाग्य के क्षेत्र में उत्तम स्थिति पाते है। मीन राशि में हो तो जन्म स्थान से दूर भाग्योदय होता है। वृषभ लग्न में गुरु की स्थिति एकादश, तृतीय पंचम सप्तम में हो तो लाभ के मामलों में जातक ईमानदारी अधिक रखता है। पत्नी गुणी मिलती है। .

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पूर्वाषाढ़ा

पूर्वाषाढ़ा पूर्वाषाढ़ा नक्षत्र मंडल का 20वाँ नक्षत्र है। यह धनुराशि में आता है। इस नक्षत्र का स्वामी शुक है तो राशि स्वामी शुक्र। नक्षत्र स्वामी की सर्वाधिक दशा 20 वर्ष की होती है। इसके बाद सूर्य व चंद्र 16 वर्ष की दशा रहती है। इस नक्षत्र में जितना भी योग्य वर्ष होता है, वह लगभग बचपन से लेकर युवावस्था तक यही दशा चंद्र के अनुसार रहती है। इनके प्रारंभिक जीवनकाल में शुक्र, चंद्र, सूर्य का विशेष महत्व रहेगा। इसी दशा-अंतरदशा में पढ़ाई, विवाद, सर्विस आदि के योग बनेंगे। इनका जन्म लग्न में शुभ होकर बैठना अति उत्तम फलदायी रहेगा। शुक्र कला, धन, सौंदर्य प्रसाधन, ब्यूटीशियन, चिकित्सा, इंजीनियर, इलेक्ट्रॉनिक, कामवासना आदि का कारक है। वहीं राशि गुरु महत्वाकांक्षा, ईमानदारी, दया भाव, राजनीतिक, प्रशासनिक संगठन आदि का कारक है। शुक्र यदि स्वराशि या उच्च का हो तो ऐसे जातक सुंदर, कलाकार आदि होते हैं वहीं गुरु स्वराशि या उच्च का हो तो ये अपने कार्यक्षेत्र में प्रगति के साथ ईमानदार होते हैं। इनमें कला के साथ सद्गुण भी होते हैं। मेष लग्न हो व शुक्र नक्षत्र स्वामी सप्तम में हो तो ऐसे जातक की स्त्री या पति धनी होगा या धन की कभी कमी नहीं रहेगी। शुक्र इस लग्न में उच्च का हो तो बाहर से लाभ मिले, विदेश में रहकर धन पाए। द्वितीय भाव में स्वराशि वृषभ का हो तो ऐसे जातक को अपनी वाणी से धन मिले। स्वर उत्तम हो गायन के क्षेत्र में सफलता पाए। शुक्र चतुर्थ में दशम में भी शुभ फलदायी होगा। वृषभ लग्न में शुक्र लग्न, एकादश, दशम, नवम में शुभ फल देगा, वहीं राशि स्वामी गुरु, तृतीय, एकादश, चतुर्थ सप्तम में शुभफलदायी होगा। शुक्र चतुर्थ में हो तो दांपत्य सुख नहीं मिलता, लेकिन ऐसा जातक जनता के बीच प्रसिद्ध होता है। .

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बुध (बहुविकल्पी)

कोई विवरण नहीं।

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बृहस्पति

कोई विवरण नहीं।

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भरणी

यह एक नक्षत्र है। नक्षत्रों की कड़ी में भरणी को द्वितीय नक्षत्र माना जाता है। इस नक्षत्र का स्वामी शुक्र ग्रह होता है। जो व्यक्ति भरणी नक्षत्र में जन्म लेते हैं वे सुख सुविधाओं एवं ऐसो आराम चाहने वाले होते हैं। इनका जीवन भोग विलास एवं आनन्द में बीतता है। ये देखने में आकर्षक व सुन्दर होते हैं। इनका स्वभाव भी सुन्दर होता है जिससे ये सभी का मन मोह लेते हैं। इनके जीवन में प्रेम का स्थान सर्वोपरि होता है। इनके हृदय में प्रेम तरंगित होता रहता है ये विपरीत लिंग वाले व्यक्ति के प्रति आकर्षण एवं लगाव रखते हैं। भरनी नक्षत्र के जातक उर्जा से परिपूर्ण रहते हैं। ये कला के प्रति आकर्षित रहते हैं और संगीत, नृत्य, चित्रकला आदि में सक्रिय रूप से भाग लेते हैं। ये दृढ़ निश्चयी एवं साहसी होते हैं। इस नक्षत्र के जातक जो भी दिल में ठान लेते हैं उसे पूरा करके ही दम लेते हैं। आमतौर पर ये विवाद से दूर रहते हैं फिर अगर विवाद की स्थिति बन ही जाती है तो उसे प्रेम और शान्ति से सुलझाने का प्रयास करते हैं। अगर विरोधी या विपक्षी बातों से नहीं मानता है तो उसे अपनी चतुराई और बुद्धि से पराजित कर देते हैं। जो व्यक्ति भरणी नक्षत्र में जन्म लेते हैं वे विलासी होते हैं। अपनी विलासिता को पूरा करने के लिए ये सदैव प्रयासरत रहते हैं और नई नई वस्तुएं खरीदते हैं। ये साफ सफाई और स्वच्छता में विश्वास करते हैं। इनका हृदय कवि के समान होता है। ये किसी विषय में दिमाग से ज्यादा दिल से सोचते हैं। ये नैतिक मूल्यों का आदर करने वाले और सत्य का पालन करने वाले होते हैं। ये रूढ़िवादी नहीं होते हैं और न ही पुराने संस्कारों में बंधकर रहना पसंद करते हें। ये स्वतंत्र प्रकृति के एवं सुधारात्मक दृष्टिकोण रखने वाले होते हैं। इन्हें झूठा दिखावा व पाखंड पसंद नहीं होता। इनका व्यक्तित्व दोस्ताना होता है और मित्र के प्रति बहुत ही वफादार होते हैं। ये विषयों को तर्क के आधार पर तौलते हैं जिसके कारण ये एक अच्छे समालोचक होते हैं। इनकी पत्नी गुणवंती और देखने व व्यवहार मे सुन्दर होती हैं। इन्हें समाज में मान सम्मान और प्रतिष्ठा मिलती है। .

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भागवत पुराण

सन १५०० में लिखित एक भागवत पुराण मे यशोदा कृष्ण को स्नान कराते हुए भागवत पुराण (Bhaagwat Puraana) हिन्दुओं के अट्ठारह पुराणों में से एक है। इसे श्रीमद्भागवतम् (Shrimadbhaagwatam) या केवल भागवतम् (Bhaagwatam) भी कहते हैं। इसका मुख्य वर्ण्य विषय भक्ति योग है, जिसमें कृष्ण को सभी देवों का देव या स्वयं भगवान के रूप में चित्रित किया गया है। इसके अतिरिक्त इस पुराण में रस भाव की भक्ति का निरुपण भी किया गया है। परंपरागत तौर पर इस पुराण का रचयिता वेद व्यास को माना जाता है। श्रीमद्भागवत भारतीय वाङ्मय का मुकुटमणि है। भगवान शुकदेव द्वारा महाराज परीक्षित को सुनाया गया भक्तिमार्ग तो मानो सोपान ही है। इसके प्रत्येक श्लोक में श्रीकृष्ण-प्रेम की सुगन्धि है। इसमें साधन-ज्ञान, सिद्धज्ञान, साधन-भक्ति, सिद्धा-भक्ति, मर्यादा-मार्ग, अनुग्रह-मार्ग, द्वैत, अद्वैत समन्वय के साथ प्रेरणादायी विविध उपाख्यानों का अद्भुत संग्रह है। .

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मघा

मघा मघा नक्षत्र सूर्य की सिंह राशि में आता है। नक्षत्र स्वामी केतु है, इसकी महादशा 7 वर्ष की होती है। केतु को राहु का धड़ माना गया है, जबकि वैज्ञानिक दृष्टि से देखा जाए तो केतु पृथ्वी का दक्षिण छोर है। केतु प्रधान होने से ऐसे जातक जिद्दी स्वभाव के होते हैं। इनसे आदेशात्मक दृष्टि से कार्य नहीं निकाला जा सकता है। इन्हें प्रेम से कहा जाए तो ये हर कार्य कर सकते हैं। इस नक्षत्र में जन्मे जातकों पर सूर्य व केतु के साथ-साथ लग्नानुसार प्रभाव होता है। मेष लग्न हो तो रा‍शि पंचम भाव में होगी। राशि स्वामी सूर्य होगा। सूर्य के साथ केतु की युति यदि पंचम भाव में हो तो ऐसे जातक विद्या में तेज होते हैं। इनकी संतान जिद्दी स्वभाव की व ऑपरेशन से भी हो सकती है। ये जुबान के पक्के होते हैं। यदि सूर्य लग्न में हो व केतु भी लग्न में हो तो उत्तम सफलता पाते हैं। प्रशासक राज्यमंत्री भी बन जाते हैं। लेकिन दांपत्य सुख में कहीं ना कहीं बाधा रहती है। वृषभ लग्न में सूर्य की राशि सिंह चतुर्थ भाव में होने से यदि नक्षत्र स्वामी भी चतुर्थ में हुआ तो जनता के बीच प्रसिद्ध होते हैं, मकान भूमि, भवन, माता का सुख उत्तम मिलता है। स्थानीय राजनीति में अधिक सफल होते हैं। .

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मंगल

यदि आपका मतलब कुछ और था तो यहां जाएं -मंगल (बहुविकल्पी) मंगल का अर्थ होता है शुभ, पावन, कुशल इत्यादि। .

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मृगशिरा

मृगशीर्ष मृगशिरा या मृगशीर्ष एक नक्षत्र है। वैदिक ज्योतिष में मूल रूप से 27 नक्षत्रों का जिक्र किया गया है। नक्षत्रों के गणना क्रम में मृगशिरा नक्षत्र का स्थान पांचवां है। इस नक्षत्र पर मंगल का प्रभाव रहता है क्योंकि इस नक्षत्र का स्वामी मंगल होता है। .

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मूल

मूल के कई अर्थ हो सकते हैं-.

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राहु

राहु (16px) हिन्दू ज्योतिष के अनुसार असुर स्वरभानु का कटा हुआ सिर है, जो ग्रहण के समय सूर्य और चंद्रमा का ग्रहण करता है। इसे कलात्मक रूप में बिना धड़ वाले सर्प के रूप में दिखाया जाता है, जो रथ पर आरूढ़ है और रथ आठ श्याम वर्णी घोड़ों द्वारा खींचा जा रहा है। वैदिक ज्योतिष के अनुसार राहु को नवग्रह में एक स्थान दिया गया है। दिन में राहुकाल नामक मुहूर्त (२४ मिनट) की अवधि होती है जो अशुभ मानी जाती है। समुद्र मंथन के समय स्वरभानु नामक एक असुर ने धोखे से दिव्य अमृत की कुछ बूंदें पी ली थीं। सूर्य और चंद्र ने उसे पहचान लिया और मोहिनी अवतार में भगवान विष्णु को बता दिया। इससे पहले कि अमृत उसके गले से नीचे उतरता, विष्णु जी ने उसका गला सुदर्शन चक्र से काट कर अलग कर दिया। परंतु तब तक उसका सिर अमर हो चुका था। यही सिर राहु और धड़ केतु ग्रह बना और सूर्य- चंद्रमा से इसी कारण द्वेष रखता है। इसी द्वेष के चलते वह सूर्य और चंद्र को ग्रहण करने का प्रयास करता है। ग्रहण करने के पश्चात सूर्य राहु से और चंद्र केतु से,उसके कटे गले से निकल आते हैं और मुक्त हो जाते हैं। .

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रवि

रवि का अर्थ है सूरज। .

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रेवती

कोई विवरण नहीं।

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रोहिणी नक्षत्र

रोहिणी नक्षत्र रोहिणी नक्षत्र को वृष राशि का मस्तक कहा गया है। इस नक्षत्र में तारों की संख्या पाँच है। भूसे वाली गाड़ी जैसी आकृति का यह नक्षत्र फरवरी के मध्य भाग में मध्याकाश में पश्चिम दिशा की तरफ रात को 6 से 9 बजे के बीच दिखाई देता है। यह कृत्तिका नक्षत्र के पूर्व में दक्षिण भाग में दिखता है। नक्षत्रों के क्रम में चौथे स्थान पर आने वाला नक्षत्र वृष राशि के 10 डिग्री-0'-1 से 23 डिग्री-20'-0 के बीच है। किसी भी वर्ष की 26 मई से 8 जून तक के 14 दिनों में इस नक्षत्र से सूर्य गुजरता है। इस प्रकार रोहिणी के प्रत्येक चरण में सूर्य लगभग साढ़े तीन दिन रहता है। इस नक्षत्र का स्वामी शुक्र है। योग- सौभाग्य, जाति- स्त्री, स्वभाव से शुभ, वर्ण- शूद्र है और उसका विंशोतरी दशा स्वामी ग्रह चंद्र है। रोहिणी नक्षत्र किसी भी स्थान के मध्यवर्ती प्रदेश को संकेत करता है। इस कारण किसी भी स्थल के मध्य भाग के प्रदेश में बनने वाली घटनाओं या कारणों के लिए रोहिणी में होने वाले ग्रहाचार को देखा जाना चाहिए। पुराण कथा के अनुसार रोहिणी चंद्र की सत्ताईस पत्नियों में सबसे सुंदर, तेजस्वी, सुंदर वस्त्र धारण करने वाली है। ज्यों-ज्यों चंद्र रोहिणी के पास जाता है, त्यों-त्यों उसका रूप अधिक खिल उठता है। चंद्र के साथ एकाकार होकर छुप भी जाती है। रोहिणी के देवता ब्रह्माजी हैं। रोहिणी जातक सुंदर, शुभ्र, पति प्रेम, संपादन करने वाले, तेजस्वी, संवेदनशील, संवेदनाओं से जीते जा सकने वाले, सम्मोहक तथा सदा ही प्रगतिशील होते हैं। मुँह, जीभ, तलवा, गर्दन और गर्दन की हड्डी और उसमें आने वाले अवयव इसके क्षेत्र हैं। इस नक्षत्र के जातक पतले, स्वार्थी, झूठे, सामाजिक, मित्राचार वाले, दृढ़ मनोबल वाले, बुद्धिशाली, पद-प्रतिष्ठा वाले, रसवृत्ति वाले, सुखी, संगीत कला इत्यादि ललित कलाओं में रस रखने वाले, देव-देवियों में आराध्य वाले मिलते हैं। जातक मानसिक रूप से स्वस्थ होते हैं। एजेंट्स, जज, फैंसी आइटमों के व्यापारी, जमीन, खेती, राजकीय प्रवृत्तियों द्वारा, साहित्य आदि से धन-वैभव और सत्ता प्राप्त करते हैं। जिस स्त्री का जन्म रोहिणी नक्षत्र में हुआ हो वह स्त्री सुंदर, सावधान, पवित्र, पति की आज्ञाकारिणी, माता-पिता की भक्त और सेवाभावी पुत्र-पुत्रियों से युक्त, ऐश्वर्यवान होती है। रोहिणी शुभ ग्रहों से युक्त या संबंधित होने के कारण नक्षत्र सूचित अंग, उपांग तथा मुँह, गले, जीभ, गर्दन, गर्दन के मणके के रोगों का प्रभाव होता है। रोहिणी की पहचान उसकी विशाल आँखें हैं। (.

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लगध

लगध ऋषि वैदिक ज्योतिषशास्त्र की पुस्तक वेदांग ज्योतिष के प्रणेता है। इनका काल १३५० ई पू माना जाता है। इस ग्रन्थ का उपयोग करके वैदिक यज्ञों के अनुष्ठान का समय निश्चित किया जाता था। इसे भारत में गणितीय खगोलशास्त्र पर आद्य कार्य माना जाता है। लगध ऋषि का एक प्रमुख नवोन्मेष तिथि (महीने का १/३०) का एक मानक समय मात्रक के रूप में का प्रयोग है। .

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शतपथ ब्राह्मण

शतपथ ब्राह्मण शुक्ल यजुर्वेद का ब्राह्मणग्रन्थ है। ब्राह्मण ग्रन्थों में इसे सर्वाधिक प्रमाणिक माना जाता है। .

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शतभिषा

शतभिषा शतभिषा, नक्षत्रों में 24वाँ नक्षत्र है। इस नक्षत्र का स्वामी राहु है, इसकी दशा में 18 वर्ष है व कुंभ राशि के अंतर्गत आता है। जहाँ नक्षत्र स्वामी राहु है वहीं राशि स्वामी शनि है। राहु का प्रभाव लगभग शनि वृत ही पड़ता है। कुछ ज्योतिषियों ने इसकी दृष्टि मानी है, लेकिन जब आकाश मंडल में इसका अस्तित्व ही नहीं है तो दृष्टि कैसी? यदि राहु मेष लग्न में उच्च का हो तो इसके परिणाम भी शुभ मिलते हैं। मेष का राहु हो तो ऐसे जातक प्रबल रूप से शत्रुहंता होता है। गुप्त विद्या में सफलता मिलती है। संतान के मामलों में बाधा भी आती है। राहु मेष लग्न में षष्ठभाव में हो तो शत्रुहंता होगा। वृषभ लग्न में राहु हो तो ऐसे जातक पर स्त्री गामी भी होते हैं। द्वितीय भाव में होता वाणी में चतुरता होती है। सिंह, कन्या, मकर, कुंभ में हो तो उत्तम परिणाम देता है। अष्टम में हो तो गुप्त विद्या का जानकार बना देता है। वही ऐसे जातक भी सेक्सी होते हैं। यदि शनि का उच्च का स्वराशि का या मित्र राशि का हो तो ऐसे जातक निश्चित अपनी विद्या के बल पर उच्च सफलता पाते हैं। मिथुन लग्न में नक्षत्र स्वामी राहु लग्न में ऐसे हो तो राजनीति में उत्तम सफलता पाते हैं। वकालत में भी सफल होते हैं। चतुर्थ भाव में हो तो स्थानीय राजनीति में उत्तम सफलता मिलती है। तृतीय भाव में हो तो शत्रुहंता होगा। शनि की स्थिति में शनि में लग्न, चतुर्थ, नवम, पंचम में हो तो उत्तम सफलता पाने वाला होगा। कर्क लग्न में नक्षत्र स्वामी दशम में हो तो ऐसे राजनीतिक गु्रु विद्या में सफल होते हैं। राहु की स्थिति तृतीय, एकादश, सप्तम में ठीक रहेगी। राशि स्वामी भी यदि मित्र स्वराशि का हो तो परिणाम भी शुभ मिलेंगे। सिंह लग्न में राहु लग्न में हो तो चतुर्थ एकादश में हो तो दशम, द्वितीय, षष्ठ में शुभ रहेगा। कन्या लग्न में राहु दशम भाव में सफल राजनीतिज्ञ बना देता है। लग्न, पंचम, नवम में भी शुभ फल देगा। स्वामी शनि पंचम, नवम, एकादश, दशम लग्न में होतो उत्तम रहेगा। शनि चतुर्थ, पंचम, नवम में शुभ रहेगा। वृश्चिक लग्न में राहु दशम, एकादश, चतुर्थ, तृतीय भाव में शुभफलदायी रहेगा। वहीं शनि की स्थिति सप्तम, एकादश, तृतीय भाव में नवम में हो तो ठीक रहेगा वहीं शनि दशम में सप्तम, द्वितीय, तृतीय, एकादश में शुभफलदायी रहेगा। मकर लग्न में राहु षष्ठ, पंचम, लग्न, नवम में शनि दशम लग्न नवम षष्ठ में शुभफलदायी रहेगा। कुंभ लग्न में राहु चतुर्थ, पंचम, लग्न, नवम, षष्ठ में शुभफलदायी रहेगा। कुंभ लग्न में राहु चतुर्थ, पंचम, सप्तम में शुभफलदायी रहेगा। शनि लग्न, चतुर्थ, पंचम, नवम में ठीक फल देगा। .

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शनि

कोई विवरण नहीं।

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शुक्र

शुक्र (Venus), सूर्य से दूसरा ग्रह है और प्रत्येक 224.7 पृथ्वी दिनों मे सूर्य परिक्रमा करता है। ग्रह का नामकरण प्रेम और सौंदर्य की रोमन देवी पर हुआ है। चंद्रमा के बाद यह रात्रि आकाश में सबसे चमकीली प्राकृतिक वस्तु है। इसका आभासी परिमाण -4.6 के स्तर तक पहुँच जाता है और यह छाया डालने के लिए पर्याप्त उज्जवलता है। चूँकि शुक्र एक अवर ग्रह है इसलिए पृथ्वी से देखने पर यह कभी सूर्य से दूर नज़र नहीं आता है: इसका प्रसरकोण 47.8 डिग्री के अधिकतम तक पहुँचता है। शुक्र सूर्योदय से पहले या सूर्यास्त के बाद केवल थोड़ी देर के लए ही अपनी अधिकतम चमक पर पहुँचता है। यहीं कारण है जिसके लिए यह प्राचीन संस्कृतियों के द्वारा सुबह का तारा या शाम का तारा के रूप में संदर्भित किया गया है। शुक्र एक स्थलीय ग्रह के रूप में वर्गीकृत है और समान आकार, गुरुत्वाकर्षण और संरचना के कारण कभी कभी उसे पृथ्वी का "बहन ग्रह" कहा गया है। शुक्र आकार और दूरी दोनों मे पृथ्वी के निकटतम है। हालांकि अन्य मामलों में यह पृथ्वी से एकदम अलग नज़र आता है। शुक्र सल्फ्यूरिक एसिड युक्त अत्यधिक परावर्तक बादलों की एक अपारदर्शी परत से ढँका हुआ है। जिसने इसकी सतह को दृश्य प्रकाश में अंतरिक्ष से निहारने से बचा रखा है। इसका वायुमंडल चार स्थलीय ग्रहों मे सघनतम है और अधिकाँशतः कार्बन डाईऑक्साइड से बना है। ग्रह की सतह पर वायुमंडलीय दबाव पृथ्वी की तुलना मे 92 गुना है। 735° K (462°C,863°F) के औसत सतही तापमान के साथ शुक्र सौर मंडल मे अब तक का सबसे तप्त ग्रह है। कार्बन को चट्टानों और सतही भूआकृतियों में वापस जकड़ने के लिए यहाँ कोई कार्बन चक्र मौजूद नही है और ना ही ज़ीवद्रव्य को इसमे अवशोषित करने के लिए कोई कार्बनिक जीवन यहाँ नज़र आता है। शुक्र पर अतीत में महासागर हो सकते हैलेकिन अनवरत ग्रीनहाउस प्रभाव के कारण बढ़ते तापमान के साथ वह वाष्पीकृत होते गये होंगे |B.M. Jakosky, "Atmospheres of the Terrestrial Planets", in Beatty, Petersen and Chaikin (eds), The New Solar System, 4th edition 1999, Sky Publishing Company (Boston) and Cambridge University Press (Cambridge), pp.

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श्रवण नक्षत्र

यह एक नक्षत्र है .

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सप्तर्षि

सप्तर्षि (सप्त + ऋषि) सात ऋषियों को कहते हैं जिनका उल्लेख वेद एवं अन्य हिन्दू ग्रन्थों में अनेकों बार हुआ है। .

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स्वाती

स्वाती स्वाति नक्षत्र आकाश मंडल में 15वाँ नक्षत्र होकर इसका स्वामी राहु यानि अधंकार है। कहावत भी है कि जब स्वाति नक्षत्र में ओस की बूँद सीप पर गिरती है तो मोती बनता है। दरअसल मोती नहीं बनता बल्कि ऐसा जातक मोती के समान चमकता है। राहु कोई ग्रह नहीं है न ही इसका आकाश में स्थान है। यह पृथ्वी का उत्तरी ध्रुव है। स्वाति नक्षत्र की राशियाँ उत्तरी ध्रुव पर पड़ने के कारण है। ऐसे जातक परिश्रमी होते हैं। ये स्वप्रयत्नों में अपनी नीव रखते हैं और सफलता पाते हैं। यह तुला राशि में आता है। रू रे रो रा नाम से इसकी पहचान होती है। इस नक्षत्र स्वामी की दशा 18 वर्ष की चंद्र के अंशों के अनुसार होती है। .

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हस्त

कोई विवरण नहीं।

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ज्येष्ठा

ज्येष्ठा ज्येष्ठा नक्षत्र गंड मूल नक्षत्र कहलाता है। यह वृश्चिक राशि में नो या यी यु के नाम से जाना जाता है। राशि स्वामी मंगल व नक्षत्र स्वामी बुध का ऐसे जातकों पर असर देखने को मिलता है। वृश्चिक राशि में जन्मा जातक तुनक मिजाजी, स्फूर्तिवान, स्पष्ट वक्ता व कुछ कटु बोलने वाला होता है। नक्षत्र स्वामी बुध के कारण ऐसे जातक प्रत्येक बात को काफी सोच-विचार कर बोलने वाले व भाषा में संतुलित होते हैं। इनकी वाणी में चतुराई देखने को मिलती है। ये हर बात में अपना स्वार्थ अवश्य देखते हैं यदि इन्हें जरा सा भी फायदा दिखाई देता है तो उसका काम करने का तत्पर रहते हैं। मंगल वैसे भी ऊर्जा व साहस के साथ महत्वाकांक्षा का कारक है। वहीं बुध वाणिक ग्रह है। इस नक्षत्र में जन्मे जातक को बचपन से ही बुध की महादशा चंद्र के आशानुसार 17 वर्ष या कम भी हो सकती है। इसके बाद केतु 7 वर्ष व सर्वाधिक 20 वर्ष की शुक्र की महादशा लगती है। अतः इस नक्षत्र में जन्मे जातकों के लिए केतु व शुक्र का शुभ होना इनके जीवन को उन्नतशील बनाएगा। वहीं विद्या नौकरी व व्यापार में इन्ही दशाओं में ग्रह स्थितिनुसार फल पाता है। .

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विशाखा

विशाखा विशाखा नक्षत्र का अंतिम चरण मंगल की वृश्चिक राशि में आता है। इसे तो नाम अक्षर से पहचाना जाता है। जहाँ नक्षत्र स्वामी गुरु है तो राशि स्वामी मंगल गुरु मंगल का युतियाँ दृष्टि संबंध उस जातक के लिए उत्तम फलदायी होती हैं। ऐसे जातक उच्च पदों पर पहुँचने वाले धर्म-कर्म का मानने वाले महत्वाकांक्षी, गुणी, न्यायप्रिय लेकिन कट्टर भी होते हैं। गुरु ज्ञान पृथक्करण की क्षमता, प्रशासनिक क्षमता न्यायप्रियता प्रदान करेगा, वही मंगल साहस देगा। .

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आद्रा

आद्रा आकाशमंडल में आर्द्रा नक्षत्र छटा है। यह राहू का नक्षत्र है व मिथुन राशि में आता है। आर्द्रा नक्षत्र का स्वामी राहू है व इसकी दशा 18 वर्ष की होती हैं, लेकिन मिथनु राशि पर 5 माह 12 दिन से 18 वर्ष तक चंद्र की स्थितिनुसार दशा जन्म के समय भोगना पड़ती है। इसके बाद ही ज्ञान के कारक गुरु की दशा लगती है, जो पूरे 16 वर्ष भोगना पड़ती है। किसी भी जातक का जन्म जिस नक्षत्र में होता है। उस नक्षत्र के स्वामी का प्रभाव उसके जीवन पर अवश्य देखा जाता है। आर्द्रा नक्षत्र व मिथुन राशि पर जन्में जातक को राहू व बुध का जीवन भर प्रभाव रहेगा। वहीं गुरु का भी महत्व उसके जीवन में देखने को मिलेगा। इस नक्षत्र में जन्में जातक चंचल स्वभाव के हँसमुख, अभिमानी, दुःख पाने वाले, बुरे विचारों वाले व्यसनी भी होते हैं। राहू की स्थितिनुसार फल भी मिलता है। मेष लग्न हो राहू लग्न में आर्द्रा नक्षत्र का हो तो ऐसा जातक राजनीति में पराक्रमी, चतुर चालक अपने विरोधियों को परास्त करने वाला, शत्रुहंता होता है। ऐसा जातक अत्यन्त कामुक होता है। वृषभ तथा मिथुन का राहू इस लग्न में वाणी से चतुर बनाएगा, शत्रुहंता भी होगा। .

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आकाश

ऊँचाई से वायुयान द्वारा आकाश का दृष्य किसी भी खगोलीय पिण्ड (जैसे धरती) के वाह्य अन्तरिक्ष का वह भाग जो उस पिण्ड के सतह से दिखाई देता है, वही आकाश (sky) है। अनेक कारणों से इसे परिभाषित करना कठिन है। दिन के प्रकाश में पृथ्वी का आकाश गहरे-नीले रंग के सतह जैसा प्रतीत होता है जो हवा के कणों द्वारा प्रकाश के प्रकीर्णन के परिणामस्वरूप घटित होता है। जबकि रात्रि में हमे धरती का आकाश तारों से भरा हुआ काले रंग का सतह जैसा जान पड़ता है। .

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कृत्तिका

कृत्तिका वा कयबचिया एक नक्षत्र है। इसका लैटिन/अंग्रेजी में नाम Pleiades है। पृथ्वी से देखने पर पास-पास दिखने वाले कई तारों का इस समूह को भारतीय खगोलशास्त्र और हिन्दू धर्म में सप्त ऋषि की पत्नियां भी कहा गया है। कृत्तिका एक तारापुंज है जो आकाश में वृष राशि के समीप दिखाई पड़ता है। कोरी आँख से प्रथम दृष्टि डालने पर इस पुंज के तारे अस्पष्ट और एक दूसरे से मिले हुए तथा किचपिच दिखाई पड़ते हैं जिसके कारण बोलचाल की भाषा में इसे किचपिचिया कहते हैं। ध्यान से देखने पर इसमें छह तारे पृथक पृथक दिखाई पड़ते हैं। दूरदर्शक से देखने पर इसमें सैकड़ों तारे दिखाई देते हैं, जिनके बीच में नीहारिका (Nebula) की हलकी धुंध भी दिखाई पड़ती है। इस तारापुंज में ३०० से ५०० तक तारे होंगे जो ५० प्रकाशवर्ष के गोले में बिखरे हुए हैं। केंद्र में तारों का घनत्व अधिक है। चमकीले तारे भी केंद्र के ही पास हैं। कृत्तिका तारापुंज पृथ्वी से लगभग ५०० प्रकाशवर्ष दूर है। .

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केतु

केतु (16px) भारतीय ज्योतिष में उतरती लूनर नोड को दिया गया नाम है। केतु एक रूप में स्वरभानु नामक असुर के सिर का धड़ है। यह सिर समुद्र मन्थन के समय मोहिनी अवतार रूपी भगवान विष्णु ने काट दिया था। यह एक छाया ग्रह है। धर्म डेस्क- दैनिक भास्कर। उज्जैन। ०६ जून २०१२। अभिगमन तिथि: ०४ अक्टूबर २०१२ माना जाता है कि इसका मानव जीवन एवं पूरी सृष्टि पर अत्यधिक प्रभाव रहता है। कुछ मनुष्यों के लिये ये ग्रह ख्याति पाने का अत्यंत सहायक रहता है। केतु को प्रायः सिर पर कोई रत्न या तारा लिये हुए दिखाया जाता है, जिससे रहस्यमयी प्रकाश निकल रहा होता है। .

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अथर्ववेद संहिता

अथर्ववेद संहिता हिन्दू धर्म के पवित्रतम और सर्वोच्च धर्मग्रन्थ वेदों में से चौथे वेद अथर्ववेद की संहिता अर्थात मन्त्र भाग है। इसमें देवताओं की स्तुति के साथ जादू, चमत्कार, चिकित्सा, विज्ञान और दर्शन के भी मन्त्र हैं। अथर्ववेद संहिता के बारे में कहा गया है कि जिस राजा के रज्य में अथर्ववेद जानने वाला विद्वान् शान्तिस्थापन के कर्म में निरत रहता है, वह राष्ट्र उपद्रवरहित होकर निरन्तर उन्नति करता जाता हैः अथर्ववेद के रचियता श्री ऋषि अथर्व हैं और उनके इस वेद को प्रमाणिकता स्वंम महादेव शिव की है, ऋषि अथर्व पिछले जन्म मैं एक असुर हरिन्य थे और उन्होंने प्रलय काल मैं जब ब्रह्मा निद्रा मैं थे तो उनके मुख से वेद निकल रहे थे तो असुर हरिन्य ने ब्रम्ह लोक जाकर वेदपान कर लिया था, यह देखकर देवताओं ने हरिन्य की हत्या करने की सोची| हरिन्य ने डरकर भगवान् महादेव की शरण ली, भगवन महादेव ने उसे अगले अगले जन्म मैं ऋषि अथर्व बनकर एक नए वेद लिखने का वरदान दिया था इसी कारण अथर्ववेद के रचियता श्री ऋषि अथर्व हुए| .

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अनुराधा नक्षत्र

अनुराधा भारतीय ज्योतिर्विदों ने कुल २७ नक्षत्र माने हैं, जिनमें अनुराधा सत्रहवाँ है। इसकी गिनती ज्योतिष देवगण तथा मध्य नाड़ीवर्ग में की जाती है जिसपर विवाह स्थिर करने मे गणक विशेष ध्यान देते हैं। अनुराधा नक्षत्र मे जन्म का पाणिनि ने अष्टाध्यायी में उल्लेख किया है। अनुराधा नक्षत्र का स्वामी शनि है, जो राशि स्वामी मंगल का शत्रु है। यह ना, नी, नू, ने के नाम से जाना जाता है। इस शनि के नक्षत्र में जन्मा जातक उग्र स्वभाव का तुनक मिजाज वाला, स्पष्टवक्ता होता है। ये जीवन में कई उतार-चढ़ाव का सामना करके आगे बढ़ते है। इन्हें स्थायित्व बड़ी मुश्किल से मिलता है। जन्मपत्रिका में यदि नक्षत्र स्वामी शनि की स्थिति ठीक रही तो ये अपने प्रयत्नों उत्तम लाभ पाने वाले होते हैं। राशि स्वामी मंगल उच्च या स्वराशि का हो वही नक्षत्र स्वामी स्वराशि या उच्च या मित्र राशि का हो व मंगल से दृष्टि संबंध न हो तो ऐसे जातक अपनी योग्यता के बल पर उन्नति कर लेते हैं। .

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अभिजित

अभिजित भारतीय ज्योतिष में वर्णित एक नक्षत्र है। वर्तमान खगोलशास्त्र में वेगा नामक तारे को अभिजित की संज्ञा दी जाती है। तैत्तिरीय संहिता और अथर्ववेद में २८ नक्षत्रों का ज़िक्र है जिनमें अभिजित भी एक है। भचक्र में इसे सबसे अधोवर्ती नक्षत्र माना गया है।२७ नक्षत्रों के वर्गीकरण में इसे उत्तराषाढ़ और श्रवण नक्षत्रों के बीच प्रक्षेपित किया जाता है। मुहूर्त के रूप में इसे दोपहर बारह बजे, दो घडी के लिए प्रतिदिन, माना जाता है। श्री राम का जन्म इसी मुहूर्त में हुआ माना जाता है। .

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अल्फ़ा ऐन्ड्रौमिडे तारा

अल्फ़ा ऐन्ड्रौमिडे देवयानी तारामंडल में अल्फ़ा ऐन्ड्रौमिडे का स्थान अल्फ़ा ऐन्ड्रौमिडे, जिसका बायर नाम भी यही (α Andromedae या α And) है, देवयानी तारामंडल का सब से रोशन तारा है और पृथ्वी से दिखने वाले तारों में से ५४वाँ सब से रोशन तारा है। यह हमसे ९७ प्रकाश-वर्ष की दूरी पर स्थित है और पृथ्वी से इसका औसत सापेक्ष कांतिमान (यानि चमक का मैग्निट्यूड) २.०६ है। पृथ्वी से एक दिखने वाला यह तारा वास्तव में एक द्वितारा है जिसके दो तारे एक-दूसरे से बहुत कम दूरी पर एक-दूसरे की परिक्रमा कर रहे हैं। इनमें से ज़्यादा रोशन तारे के वातावरण विचित्र है: उसमें बहुत अधिक मात्रा में पारा और मैंगनीज़ पाए गए हैं और वह सब से रोशन ज्ञात पारा-मैंगनीज़ तारा है।See §4 for component parameters and Table 3, §5 for elemental abundances in .

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अश्लेषा

अश्लेषा आश्लेषा नक्षत्र में जन्मा जातक प्रत्येक कार्य में सफल होता है। आश्लेषा नक्षत्र नौवाँ नक्षत्र है। यह कर्क राशि के अंतर्गत आता है। इसके चरणानुसार नाम डी डू डे डो है। इस नक्षत्र का स्वामी बुध है। इन नक्षत्र में जन्म लेने वालों को बुध व चंद्र का प्रभाव पड़ता है। बुध ज्ञान का कारक है। यह वणिक ग्रह भी माना गया है। सूर्य के नजदीक होने से इसे प्रातः देखा जा सकता है। यह सूर्य के एक घर आगे या एक घर पीछे रहता है व सूर्य के साथ होता है। इसकी महादशा 17 वर्ष चलती है। बुध का रंग हरित होने से इसका रत्न पन्ना है। बुध प्रधान जातक सफल व्यापारी, अधिवक्ता, भाषण कला में निपुण होते हैं। ऐसे जातक बोलने में चतुर, चालाक, काम निकालने में माहिर होते है। बुध प्रधान जातक स्वार्थी किस्म के भी हो सकते हैं। यह नपुंसक ग्रह होने से दूसरे ग्रहों के साथ हो तो उत्तम फलदायक होते है। सिंह राशि पर स्वतंत्र होकर केंद्र में हो तो भी शुभ फलदायक होते है। बुध जिस राशि में होगा उसका भी प्रभाव जातक के जीवन पर पड़ेगा। .

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अश्विनी

नक्षत्रों में सबसे पहला नक्षत्र (जिसमें तीन तारे होते हैं) एक अप्सरा जो बाद में अश्विनी कुमारों की माता मानी जोने लगी सूर्य पत्नी जो कि घोड़ी के रूप में छिपी हुई थी। सूर्य की पत्नी अश्विनी के यमराज पुत्र। जीवन को व्यवस्थित करने के लिए यदि हम अंतरिक्ष का सहारा लेते हैं, ग्रह-नक्षत्रों पर आश्रित होतें हैं तो इसी परा ज्ञान को ज्योतिष विद्या कहते हैं। मानव शरीर दस अवस्थाओं में विभक्त है भ्रूण शिशु किशोर तरूण गृहस्थ प्रवासी भृतक प्रौढ जरठ एवं मुमूर्षु। इन विभिन्न अवस्थाओं से होता हुआ यही शरीर पूर्णता को प्राप्त होता है। जन्मकाल में ग्रह-गोचर जिस स्थिति में होते हैं वैसा ही फल हमें सारे जीवन भोगना पड़ता है। नवग्रह- सूर्य चन्द्र मंगल बुध बृहस्पति शुक्र शनि राहु केतु हमारे नियामक है इन्हें मार्ग निर्धारक, प्रेरक, नियोजक, द्रष्टा, विधाता, स्वामी इत्यादि शब्दों में पिरोया जा सकता है। ये ग्रह बारह राशियों में विचरण करते रहते हैं मेष वृष मिथुन कर्क सिंह कन्या तुला वृश्चिक धनु मकर कुम्भ और मीन में तब इनके अपने पृथक् पृथक्, स्वभाव एवं प्रभाव के वशीभूत होकर ग्रह अलग-अलग फल देते हैं। .

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अगस्त्य

अगस्त्य (तमिल:அகத்தியர், अगतियार) एक वैदिक ॠषि थे। ये वशिष्ठ मुनि के बड़े भाई थे। इनका जन्म श्रावण शुक्ल पंचमी (तदनुसार ३००० ई.पू.) को काशी में हुआ था। वर्तमान में वह स्थान अगस्त्यकुंड के नाम से प्रसिद्ध है। इनकी पत्नी लोपामुद्रा विदर्भ देश की राजकुमारी थी। इन्हें सप्तर्षियों में से एक माना जाता है। देवताओं के अनुरोध पर इन्होंने काशी छोड़कर दक्षिण की यात्रा की और बाद में वहीं बस गये थे। वैज्ञानिक ऋषियों के क्रम में महर्षि अगस्त्य भी एक वैदिक ऋषि थे। निश्चित ही आधुनिक युग में बिजली का आविष्कार माइकल फैराडे ने किया था। बल्ब के अविष्कारक थॉमस एडिसन अपनी एक किताब में लिखते हैं कि एक रात मैं संस्कृत का एक वाक्य पढ़ते-पढ़ते सो गया। उस रात मुझे स्वप्न में संस्कृत के उस वचन का अर्थ और रहस्य समझ में आया जिससे मुझे बल्ब बनाने में मदद मिली। महर्षि अगस्त्य राजा दशरथ के राजगुरु थे। इनकी गणना सप्तर्षियों में की जाती है। महर्षि अगस्त्य को मं‍त्रदृष्टा ऋषि कहा जाता है, क्योंकि उन्होंने अपने तपस्या काल में उन मंत्रों की शक्ति को देखा था। ऋग्वेद के अनेक मंत्र इनके द्वारा दृष्ट हैं। महर्षि अगस्त्य ने ही ऋग्वेद के प्रथम मंडल के 165 सूक्त से 191 तक के सूक्तों को बताया था। साथ ही इनके पुत्र दृढ़च्युत तथा दृढ़च्युत के पुत्र इध्मवाह भी नवम मंडल के 25वें तथा 26वें सूक्त के द्रष्टा ऋषि हैं। महर्षि अगस्त्य को पुलस्त्य ऋषि का पुत्र माना जाता है। उनके भाई का नाम विश्रवा था जो रावण के पिता थे। पुलस्त्य ऋषि ब्रह्मा के पुत्र थे। महर्षि अगस्त्य ने विदर्भ-नरेश की पुत्री लोपामुद्रा से विवाह किया, जो विद्वान और वेदज्ञ थीं। दक्षिण भारत में इसे मलयध्वज नाम के पांड्य राजा की पुत्री बताया जाता है। वहां इसका नाम कृष्णेक्षणा है। इनका इध्मवाहन नाम का पुत्र था। अगस्त्य के बारे में कहा जाता है कि एक बार इन्होंने अपनी मंत्र शक्ति से समुद्र का समूचा जल पी लिया था, विंध्याचल पर्वत को झुका दिया था और मणिमती नगरी के इल्वल तथा वातापी नामक दुष्ट दैत्यों की शक्ति को नष्ट कर दिया था। अगस्त्य ऋषि के काल में राजा श्रुतर्वा, बृहदस्थ और त्रसदस्यु थे। इन्होंने अगस्त्य के साथ मिलकर दैत्यराज इल्वल को झुकाकर उससे अपने राज्य के लिए धन-संपत्ति मांग ली थी। 'सत्रे ह जाताविषिता नमोभि: कुंभे रेत: सिषिचतु: समानम्। ततो ह मान उदियाय मध्यात् ततो ज्ञातमृषिमाहुर्वसिष्ठम्॥ इस ऋचा के भाष्य में आचार्य सायण ने लिखा है- 'ततो वासतीवरात् कुंभात् मध्यात् अगस्त्यो शमीप्रमाण उदियाप प्रादुर्बभूव। तत एव कुंभाद्वसिष्ठमप्यृषिं जातमाहु:॥ दक्षिण भारत में अगस्त्य तमिल भाषा के आद्य वैय्याकरण हैं। यह कवि शूद्र जाति में उत्पन्न हुए थे इसलिए यह 'शूद्र वैयाकरण' के नाम से प्रसिद्ध हैं। यह ऋषि अगस्त्य के ही अवतार माने जाते हैं। ग्रंथकार के नाम परुनका यह व्याकरण 'अगस्त्य व्याकरण' के नाम से प्रख्यात है। तमिल विद्वानों का कहना है कि यह ग्रंथ पाणिनि की अष्टाध्यायी के समान ही मान्य, प्राचीन तथा स्वतंत्र कृति है जिससे ग्रंथकार की शास्त्रीय विद्वता का पूर्ण परिचय उपलब्ध होता है। भारतीय संस्कृति के प्रचार-प्रसार में उनके विशिष्ट योगदान के लिए जावा, सुमात्रा आदि में इनकी पूजा की जाती है। महर्षि अगस्त्य वेदों में वर्णित मंत्र-द्रष्टा मुनि हैं। इन्होंने आवश्यकता पड़ने पर कभी ऋषियों को उदरस्थ कर लिया था तो कभी समुद्र भी पी गये थे। इन मूर्तियों में से बायीं वाली अगस्त्य ऋषि की है। ये इंडोनेशिया में प्रंबनम संग्रहालय, जावा में रखी हैं और ९वीं शताब्दी की हैं। .

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उत्तराफाल्गुनी

उत्तराफाल्गुनी उत्तरा फाल्गुनी नक्षत्र बारहवाँ हैं वहीं इस नक्षत्र का स्वामी सूर्य है। इसका प्रथम चरण सिंह राशि में आता है। अतः इस राशि वालों के सूर्य का दोहरा लाभ मिल जाता है। यह नाम से प्रथम चरण वाला उत्तरा फाल्गुनी नक्षत्र है। सूर्य प्रधान जातक अत्यंत तेजस्वी स्वभाव वाले महत्वाकांक्षी जन-जन में प्रिय होते हैं। सूर्य प्रधान नक्षत्र सिंह राशि होने पर इनके जीवन पर सूर्य का प्रभाव अधिक होता है। ऐसे जातक यदि माणिक पहनें तो अपने जीवन में अधिक सफल होंगे। वहीं प्रातः सूर्य दर्शन कर सूर्य को अर्घ्य देना भी इनके लिए लाभकारी होगा। सूर्य यदि जन्म पत्रिका में उच्च का होकर लग्न चतुर्थ पंचम नवम दशम एकादश भाव में हो तो उस भाव के प्रभाव को अधिक बढ़ा देगा। लग्न में होने से ऐसा जातक प्रभावशाली तेजस्वी स्वभाव का राजनेता या उच्च प्रशासनिक क्षमता वाला, उद्योगपति भी हो सकता है। ऐसे जातक विद्वान होते हैं। संतान इनकी उत्तम गुणी होती है। लेकिन इनका दांपत्य जीवन कुछ ठीक नहीं रहता, ऐसे जातकों को माणिक नहीं पहनना चाहिए क्योंकि सूर्य बलवान होने पर और अधिक दांपत्य जीवन को बिगाड़ेगा। यदि ऐसे जातक का विवाह तुला राशि या तुला लग्न वाली लड़की से हो जाए तो अति उत्तम रहेगा। .

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उत्तराभाद्रपद

उत्तराभाद्रपद उत्तरा भाद्रपद आकाश मंडल में 26वाँ नक्षत्र है। यह मीन राशि के अंतर्गत आता है। इसे दू, थ, झ नाम से जाना जाता है। उत्तरा भाद्रपद नक्षत्र का स्वामी शनि है। वहीं राशि स्वामी गुरु है। शनि गुरु में शत्रुता है। कहीं इनका तालमेल व पंचधामेत्री चक्र में जिस जातक की कुंडली में मित्र का सम हो तो इसके शुभ परिणाम भी देखने को मिलते हैं। इस नक्षत्र में जन्म लेने वाला जातक सोच-विचार कर बोलने वाले, सुखी संतान, धर्म-कर्म में आस्थावान, उत्तम वक्ता, उदार हृदय के सम्माननीय भी होते हैं। शनि आध्यात्मवादी है तो गुरु का ज्ञान का कारक है। गुरु शनि का मेल धनु या मीन राशि में हो तो इसके शुभ परिणाम मिलेंगे। धनु में गुरु शनि की युति आध्यात्मवादी लेकिन परिश्रमी भी बनाएगी। मीन में गुरु शनि के चंद्र होने से ऐसा जातक परम आध्यात्मवादी परोपकारी, ज्ञानवान, स्वप्रयत्नों से सफलता पाने वाला उपदेशक भी हो सकता है। .

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उत्तराषाढा

उत्तराषाढा उत्तराषाढ़ा नक्षत्र का स्वामी सूर्य है। इसका प्रथम चरण भूनाम से धनुराशि में आता है। राशि स्वामी गुरु है तो नक्षत्र स्वामी सूर्य है। सूर्य की दशा में सबसे कम 6 वर्ष की होती है। जो लगभग जन्म से 6 वर्ष के अंदर बीत जाती है। इसके बाद चंद्रमा की 10 वर्ष मंगल की 7 वर्ष कुल मिलाकर 17 वर्ष यही समय होता है। जब बच्चा पढ़ाई में संलग्न रहता है यहीं से उसके भविष्य का निर्माण होता है। अतः सूर्य के साथ मंगल का जन्म पत्रिका में शुभ होकर बैठना ही उस बालक का भविष्य निर्धारण करने में सहायक होगा। सूर्य अत्यंत तेजस्वी ग्रह होकर आत्मा का कारक है। अग्नि तत्व व राशि भी अग्नि तत्व होने से इसका प्रभाव जातक पर ग्रह स्थितिनुसार अधिक पड़ता है। सूर्य यदि गुरु के साथ हो तो उच्च प्रशासनिक सेवाओं में सफलता मिलती है। ऐसे जातकों में कुशल नेतृत्वक्षमता होती है। ये राजनीति, जज, आईएएस ऑफिसर, सीए आदि क्षेत्र में अधिक सफल होते हैं। मंगल के साथ हो तो पुलिस राजनीति, संगठन, उद्योग आदि में सफलता पाते हैं। बुध के साथ हो तो लेखक, वणिक, उत्तम वक्ता, वकील, प्रकाशक आदि क्षेत्र में सफल होते हैं। सूर्य शुक्र के साथ हो तो सुंदर व कामुक भी होते हैं। अन्य ग्रह जैसे राहु, शनि के साथ शुभफल नहीं मिलता। सूर्य जहाँ शुभ हो वहीं गुरु का भी शुभ होना आवश्यक है। मंगल यदि उत्तम स्थिति में हो तो ऐसा जातक अपना भविष्य उत्तम ही बनाएगा। .

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ऋग्वेद

ऋग्वेद सनातन धर्म का सबसे आरंभिक स्रोत है। इसमें १०२८ सूक्त हैं, जिनमें देवताओं की स्तुति की गयी है इसमें देवताओं का यज्ञ में आह्वान करने के लिये मन्त्र हैं, यही सर्वप्रथम वेद है। ऋग्वेद को इतिहासकार हिन्द-यूरोपीय भाषा-परिवार की अभी तक उपलब्ध पहली रचनाऔं में एक मानते हैं। यह संसार के उन सर्वप्रथम ग्रन्थों में से एक है जिसकी किसी रूप में मान्यता आज तक समाज में बनी हुई है। यह एक प्रमुख हिन्दू धर्म ग्रंथ है। ऋक् संहिता में १० मंडल, बालखिल्य सहित १०२८ सूक्त हैं। वेद मंत्रों के समूह को सूक्त कहा जाता है, जिसमें एकदैवत्व तथा एकार्थ का ही प्रतिपादन रहता है। ऋग्वेद में ही मृत्युनिवारक त्र्यम्बक-मंत्र या मृत्युंजय मन्त्र (७/५९/१२) वर्णित है, ऋग्विधान के अनुसार इस मंत्र के जप के साथ विधिवत व्रत तथा हवन करने से दीर्घ आयु प्राप्त होती है तथा मृत्यु दूर हो कर सब प्रकार का सुख प्राप्त होता है। विश्व-विख्यात गायत्री मन्त्र (ऋ० ३/६२/१०) भी इसी में वर्णित है। ऋग्वेद में अनेक प्रकार के लोकोपयोगी-सूक्त, तत्त्वज्ञान-सूक्त, संस्कार-सुक्त उदाहरणतः रोग निवारक-सूक्त (ऋ०१०/१३७/१-७), श्री सूक्त या लक्ष्मी सूक्त (ऋग्वेद के परिशिष्ट सूक्त के खिलसूक्त में), तत्त्वज्ञान के नासदीय-सूक्त (ऋ० १०/१२९/१-७) तथा हिरण्यगर्भ सूक्त (ऋ०१०/१२१/१-१०) और विवाह आदि के सूक्त (ऋ० १०/८५/१-४७) वर्णित हैं, जिनमें ज्ञान विज्ञान का चरमोत्कर्ष दिखलाई देता है। ऋग्वेद के विषय में कुछ प्रमुख बातें निम्नलिखित है-.

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