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द्रव्य

सूची द्रव्य

द्रव्य से आशय निम्नलिखित से हो सकता है.

10 संबंधों: दर्शनशास्त्र, द्रव्य (जैन दर्शन), धन, पदार्थ, पदार्थ (भारतीय दर्शन), बारूथ स्पिनोज़ा, रासायनिक तत्व, ईश्वर, वैशेषिक दर्शन, कणाद

दर्शनशास्त्र

दर्शनशास्त्र वह ज्ञान है जो परम् सत्य और प्रकृति के सिद्धांतों और उनके कारणों की विवेचना करता है। दर्शन यथार्थ की परख के लिये एक दृष्टिकोण है। दार्शनिक चिन्तन मूलतः जीवन की अर्थवत्ता की खोज का पर्याय है। वस्तुतः दर्शनशास्त्र स्वत्व, अर्थात प्रकृति तथा समाज और मानव चिंतन तथा संज्ञान की प्रक्रिया के सामान्य नियमों का विज्ञान है। दर्शनशास्त्र सामाजिक चेतना के रूपों में से एक है। दर्शन उस विद्या का नाम है जो सत्य एवं ज्ञान की खोज करता है। व्यापक अर्थ में दर्शन, तर्कपूर्ण, विधिपूर्वक एवं क्रमबद्ध विचार की कला है। इसका जन्म अनुभव एवं परिस्थिति के अनुसार होता है। यही कारण है कि संसार के भिन्न-भिन्न व्यक्तियों ने समय-समय पर अपने-अपने अनुभवों एवं परिस्थितियों के अनुसार भिन्न-भिन्न प्रकार के जीवन-दर्शन को अपनाया। भारतीय दर्शन का इतिहास अत्यन्त पुराना है किन्तु फिलॉसफ़ी (Philosophy) के अर्थों में दर्शनशास्त्र पद का प्रयोग सर्वप्रथम पाइथागोरस ने किया था। विशिष्ट अनुशासन और विज्ञान के रूप में दर्शन को प्लेटो ने विकसित किया था। उसकी उत्पत्ति दास-स्वामी समाज में एक ऐसे विज्ञान के रूप में हुई जिसने वस्तुगत जगत तथा स्वयं अपने विषय में मनुष्य के ज्ञान के सकल योग को ऐक्यबद्ध किया था। यह मानव इतिहास के आरंभिक सोपानों में ज्ञान के विकास के निम्न स्तर के कारण सर्वथा स्वाभाविक था। सामाजिक उत्पादन के विकास और वैज्ञानिक ज्ञान के संचय की प्रक्रिया में भिन्न भिन्न विज्ञान दर्शनशास्त्र से पृथक होते गये और दर्शनशास्त्र एक स्वतंत्र विज्ञान के रूप में विकसित होने लगा। जगत के विषय में सामान्य दृष्टिकोण का विस्तार करने तथा सामान्य आधारों व नियमों का करने, यथार्थ के विषय में चिंतन की तर्कबुद्धिपरक, तर्क तथा संज्ञान के सिद्धांत विकसित करने की आवश्यकता से दर्शनशास्त्र का एक विशिष्ट अनुशासन के रूप में जन्म हुआ। पृथक विज्ञान के रूप में दर्शन का आधारभूत प्रश्न स्वत्व के साथ चिंतन के, भूतद्रव्य के साथ चेतना के संबंध की समस्या है। .

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द्रव्य (जैन दर्शन)

छः शाश्वत द्रव्य द्रव्य शब्द का प्रयोग जैन दर्शन में द्रव्य (substance) के लिए किया जाता है। जैन दर्शन के अनुसार तीन लोक में कोई भी कार्य निम्नलिखित छः द्रव्य के बिना नहीं हो सकता। अर्थात यह लोक मूल भूत इन छः द्रव्यों से बना हैं:-Grimes, John (1996).

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धन

धन कोई भी वस्तु या सत्यापन का रिकॉर्ड है जिसे सामान्यतः माल और सेवाओं के भुगतान के रूप में स्वीकार किया जाता है। साथ ही उससे किसी विशेष देश या सामाजिक-आर्थिक संदर्भ में ऋण का पुनर्भुगतान किया जा सकता है। धन का मुख्य कार्य है: विनिमय माध्यम, लेखा इकाई और मूल्य का संचय। इन कार्यों को पूरा करने वाली किसी भी वस्तु या प्रमाणित रिकॉर्ड को धन के रूप में माना जा सकता है। लगभग सभी समकालीन मुद्रा प्रणालियां अधिदिष्‍ट मुद्रा पर आधारित हैं। श्रेणी:मौद्रिक अर्थशास्त्र श्रेणी:आर्थिक मानवशास्त्र श्रेणी:धन.

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पदार्थ

रसायन विज्ञान और भौतिक विज्ञान में पदार्थ (matter) उसे कहते हैं जो स्थान घेरता है व जिसमे द्रव्यमान (mass) होता है। पदार्थ और ऊर्जा दो अलग-अलग वस्तुएं हैं। विज्ञान के आरम्भिक विकास के दिनों में ऐसा माना जाता था कि पदार्थ न तो उत्पन्न किया जा सकता है, न नष्ट ही किया जा सकता है, अर्थात् पदार्थ अविनाशी है। इसे पदार्थ की अविनाशिता का नियम कहा जाता था। किन्तु अब यह स्थापित हो गया है कि पदार्थ और ऊर्जा का परस्पर परिवर्तन सम्भव है। यह परिवर्तन आइन्स्टीन के प्रसिद्ध समीकरण E.

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पदार्थ (भारतीय दर्शन)

मनुष्य सर्वदा से ही विभिन्न प्रकार की प्राकृतिक वस्तुओं द्वारा चारों तरफ से घिरा हुआ है। सृष्टि के आविर्भाव से ही वह स्वयं की अन्त:प्रेरणा से परिवर्तनों का अध्ययन करता रहा है- परिवर्तन जो गुण व्यवहार की रीति इत्यादि में आये हैं- जो प्राकृतिक विज्ञान के विकास का कारक बना। सम्भवत: इसी अन्त: प्रेरणा के कारण महर्षि कणाद ने 'वैशेषिक दर्शन' का आविर्भाव किया। महर्षि कणाद ने भौतिक राशियों (अमूर्त) को द्रव्य, गुण, कर्म, सामान्य, विशेष और समवाय के रूप में नामांकित किया है। यहाँ 'द्रव्य' के अन्तर्गत ठोस (पृथ्वी), द्रव (अप्), ऊर्जा (तेजस्), गैस (वायु), प्लाज्मा (आकाश), समय (काल) एवं मुख्यतया सदिश लम्बाई के सन्दर्भ में दिक्, 'आत्मा' और 'मन' सम्मिलित हैं। प्रकृत प्रसंग में वैशेषिक दर्शन का अधिकारपूर्वक कथन है कि उपर्युक्त द्रव्यों में प्रथम चार सृष्टि के प्रत्यक्ष कारक हैं, और आकाश, दिक् और काल, सनातन और सर्वव्याप्त हैं। वैशेषिक दर्शन 'आत्मा' और 'मन' को क्रमश: इन्द्रिय ज्ञान और अनुभव का कारक मानता है, अर्थात् 'आत्मा' प्रेक्षक है और 'मन' अनुभव प्राप्त करने का उसका उपकरण। इस हेतु पदार्थमय संसार की भौतिक राशियों की सीमा से बहिष्कृत रहने पर भी, वैशेषिक दर्शन द्वारा 'आत्मा' और 'मन' को भौतिक राशियों में सम्मिलित करना न्याय संगत प्रतीत होता है, क्योंकि ये तत्व प्रेक्षण और अनुभव के लिये नितान्त आवश्यक हैं। तथापि आधुनिक भौतिकी के अनुसार 'आत्मा' और 'मन' के व्यतिरिक्त, प्रस्तुत प्रबन्ध में 'पृथ्वी' से 'दिक्' पर्यन्त वैशेषिकों के प्रथम सात द्रव्यों की विवेचना करते हुए भौतिकी में उल्लिखित उनके प्रतिरूपों के साथ तुलनात्मक अघ्ययन किया जायेगा। .

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बारूथ स्पिनोज़ा

बारूथ डी स्पिनोज़ा (Baruch De Spinoza) (२४ नवम्बर १६३२ - २१ फ़रवरी १६७७) यहूदी मूल के डच दार्शनिक थे। उनका परिवर्तित नाम 'बेनेडिक्ट डी स्पिनोजा' (Benedict de Spinoza) था। उन्होने उल्लेखनीय वैज्ञानिक अभिक्षमता (aptitude) का परिचय दिया किन्तु उनके कार्यों का महत्व उनके मृत्यु के उपरान्त ही सम्झा जा सका। .

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रासायनिक तत्व

रासायनिक तत्वों की आवर्त सारणी रासायनिक तत्व (या केवल तत्व) ऐसे उन शुद्ध पदार्थों को कहते हैं जो केवल एक ही तरह के परमाणुओं से बने होते हैं। या जो ऐसे परमाणुओं से बने होते हैं जिनके नाभिक में समान संख्या में प्रोटॉन होते हैं। सभी रासायनिक पदार्थ तत्वों से ही मिलकर बने होते हैं। हाइड्रोजन, नाइट्रोजन, आक्सीजन, तथा सिलिकॉन आदि कुछ तत्व हैं। सन २००७ तक कुल ११७ तत्व खोजे या पाये जा चुके हैं जिसमें से ९४ तत्व धरती पर प्राकृतिक रूप से विद्यमान हैं। कृत्रिम नाभिकीय अभिक्रियाओं के परिणामस्वरूप उच्च परमाणु क्रमांक वाले तत्व समय-समय पर खोजे जाते रहे हैं। .

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ईश्वर

यह लेख पारलौकिक शक्ति ईश्वर के विषय में है। ईश्वर फ़िल्म के लिए ईश्वर (1989 फ़िल्म) देखें। यह लेख देवताओं के बारे में नहीं है। ---- परमेश्वर वह सर्वोच्च परालौकिक शक्ति है जिसे इस संसार का स्रष्टा और शासक माना जाता है। हिन्दी में परमेश्वर को भगवान, परमात्मा या परमेश्वर भी कहते हैं। अधिकतर धर्मों में परमेश्वर की परिकल्पना ब्रह्माण्ड की संरचना से जुडी हुई है। संस्कृत की ईश् धातु का अर्थ है- नियंत्रित करना और इस पर वरच् प्रत्यय लगाकर यह शब्द बना है। इस प्रकार मूल रूप में यह शब्द नियंता के रूप में प्रयुक्त हुआ है। इसी धातु से समानार्थी शब्द ईश व ईशिता बने हैं। .

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वैशेषिक दर्शन

वैशेषिक हिन्दुओं के षडदर्शनों में से एक दर्शन है। इसके मूल प्रवर्तक ऋषि कणाद हैं (ईसा पूर्व दूसरी शताब्दी)। यह दर्शन न्याय दर्शन से बहुत साम्य रखता है किन्तु वास्तव में यह एक स्वतंत्र भौतिक विज्ञानवादी दर्शन है। इस प्रकार के आत्मदर्शन के विचारों का सबसे पहले महर्षि कणाद ने सूत्र रूप में लिखा। कणाद एक ऋषि थे। ये "उच्छवृत्ति" थे और धान्य के कणों का संग्रह कर उसी को खाकर तपस्या करते थे। इसी लिए इन्हें "कणाद" या "कणभुक्" कहते थे। किसी का कहना है कि कण अर्थात् परमाणु तत्व का सूक्ष्म विचार इन्होंने किया है, इसलिए इन्हें "कणाद" कहते हैं। किसी का मत है कि दिन भर ये समाधि में रहते थे और रात्रि को कणों का संग्रह करते थे। यह वृत्ति "उल्लू" पक्षी की है। किस का कहना है कि इनकी तपस्या से प्रसन्न होकर ईश्वर ने उलूक पक्षी के रूप में इन्हें शास्त्र का उपदेश दिया। इन्हीं कारणों से यह दर्शन "औलूक्य", "काणाद", "वैशेषिक" या "पाशुपत" दर्शन के नामों से प्रसिद्ध है। पठन-पाठन में विशेष प्रचलित न होने के कारण वैशेषिक सूत्रों में अनेक पाठभेद हैं तथा 'त्रुटियाँ' भी पर्याप्त हैं। मीमांसासूत्रों की तरह इसके कुछ सूत्रों में पुनरुक्तियाँ हैं - जैसे "सामान्यविशेषाभावेच" (4 बार) "सामान्यतोदृष्टाच्चा विशेष:" (2 बार), "तत्त्वं भावेन" (4 बार), "द्रव्यत्वनित्यत्वे वायुना व्यख्याते" (3 बार), "संदिग्धस्तूपचार:" (2 बार)। .

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कणाद

आधुनिक दौर में अणु विज्ञानी जॉन डाल्टन के भी हजारों साल पहले महर्षि कणाद ने यह रहस्य उजागर किया कि द्रव्य के परमाणु होते हैं। उनके अनासक्त जीवन के बारे में यह रोचक मान्यता भी है कि किसी काम से बाहर जाते तो घर लौटते वक्त रास्तों में पड़ी चीजों या अन्न के कणों को बटोरकर अपना जीवनयापन करते थे। इसीलिए उनका नाम कणाद भी प्रसिद्ध हुआ। .

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