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तत्त्वमीमांसा

सूची तत्त्वमीमांसा

तत्त्वमीमांसा (Metaphysics), दर्शन की वह शाखा है जो किसी ज्ञान की शाखा के वास्तविकता (reality) का अध्ययन करती है। परम्परागत रूप से इसकी दो शाखाएँ हैं - ब्रह्माण्ड विद्या (Cosmology) तथा सत्तामीमांसा या आन्टोलॉजी (ontology)। तत्वमीमांसा में प्रमुख प्रश्न ये हैं-.

9 संबंधों: दर्शनशास्त्र, निर्जरा, मूल्यमीमांसा, मोक्ष (जैन धर्म), सत्तामीमांसा, संवर, जीव, कर्म बन्ध, अजीव

दर्शनशास्त्र

दर्शनशास्त्र वह ज्ञान है जो परम् सत्य और प्रकृति के सिद्धांतों और उनके कारणों की विवेचना करता है। दर्शन यथार्थ की परख के लिये एक दृष्टिकोण है। दार्शनिक चिन्तन मूलतः जीवन की अर्थवत्ता की खोज का पर्याय है। वस्तुतः दर्शनशास्त्र स्वत्व, अर्थात प्रकृति तथा समाज और मानव चिंतन तथा संज्ञान की प्रक्रिया के सामान्य नियमों का विज्ञान है। दर्शनशास्त्र सामाजिक चेतना के रूपों में से एक है। दर्शन उस विद्या का नाम है जो सत्य एवं ज्ञान की खोज करता है। व्यापक अर्थ में दर्शन, तर्कपूर्ण, विधिपूर्वक एवं क्रमबद्ध विचार की कला है। इसका जन्म अनुभव एवं परिस्थिति के अनुसार होता है। यही कारण है कि संसार के भिन्न-भिन्न व्यक्तियों ने समय-समय पर अपने-अपने अनुभवों एवं परिस्थितियों के अनुसार भिन्न-भिन्न प्रकार के जीवन-दर्शन को अपनाया। भारतीय दर्शन का इतिहास अत्यन्त पुराना है किन्तु फिलॉसफ़ी (Philosophy) के अर्थों में दर्शनशास्त्र पद का प्रयोग सर्वप्रथम पाइथागोरस ने किया था। विशिष्ट अनुशासन और विज्ञान के रूप में दर्शन को प्लेटो ने विकसित किया था। उसकी उत्पत्ति दास-स्वामी समाज में एक ऐसे विज्ञान के रूप में हुई जिसने वस्तुगत जगत तथा स्वयं अपने विषय में मनुष्य के ज्ञान के सकल योग को ऐक्यबद्ध किया था। यह मानव इतिहास के आरंभिक सोपानों में ज्ञान के विकास के निम्न स्तर के कारण सर्वथा स्वाभाविक था। सामाजिक उत्पादन के विकास और वैज्ञानिक ज्ञान के संचय की प्रक्रिया में भिन्न भिन्न विज्ञान दर्शनशास्त्र से पृथक होते गये और दर्शनशास्त्र एक स्वतंत्र विज्ञान के रूप में विकसित होने लगा। जगत के विषय में सामान्य दृष्टिकोण का विस्तार करने तथा सामान्य आधारों व नियमों का करने, यथार्थ के विषय में चिंतन की तर्कबुद्धिपरक, तर्क तथा संज्ञान के सिद्धांत विकसित करने की आवश्यकता से दर्शनशास्त्र का एक विशिष्ट अनुशासन के रूप में जन्म हुआ। पृथक विज्ञान के रूप में दर्शन का आधारभूत प्रश्न स्वत्व के साथ चिंतन के, भूतद्रव्य के साथ चेतना के संबंध की समस्या है। .

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निर्जरा

निर्जरा जैन दर्शन के अनुसार एक तत्त्व हैं। इसका अर्थ होता है आत्मा के साथ जुड़े कर्मों का शय करना। यह जन्म मरण के चक्र से मुक्त होने के लिए आवश्यक हैं। आचार्य उमास्वामी द्वारा विरचित जैन ग्रन्थ तत्त्वार्थ सूत्र का ९ अध्याय इस विषय पर हैं। निर्जरा संवर के पश्चात् होती हैं। जैन ग्रन्थ द्रव्यसंग्रह के अनुसार कर्म आत्मा को धूमिल करते देते हैं, निर्जरा से आत्मा फिर निर्मलता को प्राप्त होती हैं।Nemichandra, p. 94 .

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मूल्यमीमांसा

मूल्यमीमांसा (Axiology) दर्शन की एक शाखा है। मूल्यमीमांसा अंग्रेजी शब्द "एग्जियोलॉजी" का हिंदी रूपांतर है। "एग्जियोलॉजी" शब्द "एक्सियस" शब्द यूनानी शब्द "एक्सियस" और "लागस" का अर्थ मूल्य या कीमत है तथा "लागस" का अर्थ तर्क, सिद्धांत या मीमांसा है। अत: "एग्जियोलॉजी" या मूल्यमोमांसा का तात्पर्य उस विज्ञान से है। जिसके अंतर्गत मूल्य स्वरूप, प्रकार और उसकी तात्विक सत्ता का अध्ययन या विवेचन किया जाता है। किसी वस्तु के दो पक्ष हो सकते है-तथ्य और उसका मूल्य। तथ्य पर विचार करना उस वस्तु का वर्णन कहलाएगा और उसके मूल्य का निरूपण उसका गुणादषारण। मूल्य विषयक निर्णय वस्तु की किसी आदर्श से तुलना करके किसी व्यक्ति द्वारा उपस्थित किया जाता है। हमारे सभी अनुभवों में मूल्यों मापदंड ही होते हैं। सौंदर्यशास्त्र में सुंदर-असुंदर का मूल्यांकन, संगीत, साहित्य और कला में माधुर्य और सरसता का मूल्यांकन और धर्म में मूल्यों के संरक्षण का प्रयत्न तो सभी को स्वीकृत है किंतु साथ ही यह भी ध्यान देने की बात है कि आचारशास्त्र, समाजशास्त्र, अर्थशास्त्र, राजनीति, विज्ञान आदि में भी मूल्यों की समस्याओं पर ही विचार किया जाता है। मूल्यमीमांसा के अंतर्गत इन सभी शास्त्रों और विज्ञानों के मूल्यों का अलग विवेचन नहीं किया जाता वरन् इन सर्वव्यापी मूल्यों के स्वरूप और प्रकृति पर विचार किया जाता है। इस प्रकार आधुनिक युग में मूल्यमीमांसा दर्शन की एक शाखा बनकर द्रुत गति से पल्लवित हो रही है। मूल्य का तात्पर्य किसी मूल्य का भाव हो सकता है या उसका अभाव हो सकता है। इसके अतिरिक्त भाव या अभाव न होकर कोई मूल्य तटस्थ भी हो सकता है। "मूल्य" शब्द का प्रयोग इनमें से किसी भी स्थिति के लिये हो सकता है। इसलिये मूल्यमीमांसा को मूल्य का विज्ञान कहना अधिक युक्तिसंगत नहीं हे। फिर भी सामान्य रूप से कहा जा सकता है कि जिस प्रकार आचार शास्त्र का विवेचन सही और गलत पर केंद्रित रहता है वैसे ही मूल्यमीमांसा का विवेचन प्राय: अच्छे और बुरे से संबंधित होता है। पश्चिमी दर्शन में प्लेटो के प्रत्यय सिद्धांत के साथ मूल्यमीमांसा का उदय हुआ और अरस्तू के आचारशास्त्र, राजनीति और तत्वविज्ञान में उसका विकास हुआ। स्टोइक और एपीक्यूरियन लोगों ने जीवन के उच्चादर्श खोजे। ईसाई दार्शनिकों ने अरस्तू के उच्चतम मूल्य का ईश्वर से तादात्म्य दिखाने का प्रयत्न किया। आधुनिक दार्शनिकों ने स्वतंत्र रूप से विभिन्न मूल्यों का स्वरूप निर्धारण किया। कांट ने सौंदर्य और धर्म विषयक मूल्यों की सबसे प्रथम गहन विवेचना की। हीगेल के अध्यात्मवाद में आचार, कला और धर्म सर्वोपरि मान्य ठहराए गए। इन्हीं के समन्वय से निरपेक्ष प्रत्यय की उद्भावना होती है। 19वीं शताब्दी के विकासवादी सिद्धांत, समाजशास्त्र, मनोविज्ञान और अर्थशास्त्र के अंतर्गत मूल्यों की व्यावहारिक विवेचना की जाने लगी। उसके तात्विक स्वरूप के निरूपण और एकत्व की ओर उतना ध्यान नहीं दिया गया। नीत्शे ने इस अभाव की पूर्ति का प्रयत्न किया। ब्रेंटानों प्रेम को ही एकमात्र मूल्य मानता था। डब्ल्यू0 एम0 अरबन ने 20वीं शताब्दी में सबसे पहले मूल्यमीमांसा पर एक व्यवस्थित ग्रंथ (वेलूएशन, 1909) लिखा। समकालीन प्रमुख रचनाएँ, बी0 बोसांके की "दि प्रिंसिपल ऑव इंडीविजुएलटी ऐंड वेल्यू" (1912); डब्ल्यू0 आर0 सरले की "मारल वेल्यूज" (1918) और "दि आइडिया ऑव गॉड" (1921), एस0 एलेक्जेंडर की "स्पेस, टाइम एण्ड डाइटी"(1920), एन0 ह्वाइटमैन की "एथिके" (1926), आर0 वी0 पेरी की "जनरल थ्योरी ऑव वेल्यू" (1926) और जे0 लेयर्ड की "दि आइडिया ऑफ वेल्यू" आदि पुस्तकें है। मूल्यमीमांसा के अंतर्गत मुख्यत: मूल्य का स्वरूप, मूल्य के प्रकार, मूल्य का भाव सिद्धांत और मूल्य के तात्विक संस्तरण का अध्ययन किया जाता है। दार्शनिकों ने मूल्य के स्वरूप की अवधारणा विभिन्न प्रकार से की है। स्पिनोजा आदि ने उसी को मूल्य माना है जिससे किसी इच्छा की तृप्ति होती है। एपीक्यूरस, बेंथम, मीनांग आदि सुखवादी दर्शनिक सुख को ही मूल्य मानते हैं। मूल्य का स्वरूप पैरी की दृष्टि में अभिरूचि, मार्टीन्यू के विचार से वरीयता (प्रिफेरेंस), स्टाइक, कांट और रायस के लिये शुद्ध तर्कसंगत इच्छा, टी0 एच0 ग्रीन के लिये व्यक्तित्व के एकत्व का सामान्य अनुभव है; नीत्शे और अन्य उत्क्रांतिवादी उसी अनुभव को मूल्य मानते हैं जो जीवन के विकास में किसी प्रकार सहायक हो। कुछ दार्शनिक जैसे स्पिनोजा, लोट्ज या डीवी आदि फलवादी मूल्य को व्यक्तिगत मानते हैं। उसकी स्वतंत्र सत्ता नहीं है। वह तो व्यक्ति की रूचि, अरूचि और उसकी मानसिक स्थिति तथा आवश्यकताओं पर निर्भर करता है। इसके विपरीत लेयर्ड, मूर आदि मनीषी मूल्य को रूप, रस, गंध की भँाति विषयगत मानते हैं। एलेक्जेंडर की स्थिति इन दोनों मतों के मध्य में हे। व्यक्ति, जो मूल्य का अनुभव करता है और वस्तु जिसके मूल्य का अनुभव किया जाता है, दोनों के संबंध में ही मूल्य का अस्तित्व है। व्यक्ति और वस्तु के संबंध से पृथक् अथवा स्वतंत्र रीति से दो में से किसी एक में मूल्य की उपलब्धि नहीं हो सकती। ए0 जी0 आयर को तार्किक भाववादी दृष्टिकोण है, इसलिये वे मूल्य को अर्थहीन कहते हैं। मूल्य विभिन्न प्रकार के होते हैं। उनका कई प्रकार से विभाजन किया जा सकता है। प्राय: दार्शनिक अंतर्वर्ती और बहिर्वर्ती मूल्यों का भेद करते है। अंतर्वर्ती मूल्य का स्वतंत्र रूप से अपने लिये ही मूल्य होता है। इन मूल्यों को पाने का प्रयत्न इसलिये नहीं किया जाता कि उनके द्वारा किसी दूसरे उद्देश्य की पूर्ति हो सकती है। वस्तुत: इन मूल्यों को पा लेना ही अंतिम लक्ष्य होता है। बाह्यमूल्य अंतर्वर्ती मूल्यों की प्राप्ति के लिये एक साधन या यंत्र मात्र होते हैं। एक ओर ऐसे वेदांती हैं जिनका विश्वास है कि निर्गुण बाह्यरूप में अंतर्वर्ती मूल्य की ही अंतिम सत्ता है, उसके अतिरिक्त सभी बहिर्वर्ती मूल्य हैं जो भ्रांति मात्र है। दूसरी ओर ऐसे फलवादी हैं जो यंत्रवादी सिद्धांत (इंस्टØ मेंटलिज्म) का समर्थन करते हैं और अंतर्वर्ती मूल्यों का खंडन करते हैं। द्वैतवादी मूल्यमीमांसक अंतर्वर्ती और बहिर्वर्ती दोनों प्रकार के मूल्यों का अस्तित्व मानते हैं। एक शाश्वत होते है और दूसरे नश्वर अधिकांश दार्शनिक इसी सिद्धांत को थोड़े बहुत हेर फेर से स्वीकार करते हैं। कुछ अंतर्वर्ती मूल्यों को प्रधानता देते है और बहिर्वर्ती मूल्यों को उनके अधीनस्थ मानते हैं। कुछ लोग बहिर्वर्ती मूल्यों को प्रधानता देते हैं और अंतर्वर्ती मूल्यों को बहिर्वर्ती मूल्यों की उत्पत्ति या परिणाम मानते हैं। कुछ दार्शनिक (बाहम) ऐसे भी हैं जो सभी वस्तुओं में दोनों प्रकार के मूल्य अपरिहार्य रूप से मानते हैं। वे यह नहीं अस्वीकार करते कि कहीं एक की प्रधानता होती है तो कहीं दूसरे की। किंतु ऐसी कोई वस्तु नहीं है जिसमें शुद्ध अंतर्वर्ती या बिल्कुल बहिर्वर्ती मूल्य ही हों। सामान्य रूप से शुभ, सत्य, शिव, सुंदर और पवित्र ही अंतर्वर्ती मूल्य माने जाते हैं। कुछ लोग इनके साथ दैहिक कल्याण, संबंध, कार्य और क्रीड़ा को भी अंतर्वर्ती मूल्य मान लेते हैं। मांटेग के विचार से सत्य को सही रूप में मूल्य नहीं माना जा सकता, क्योंकि कुछ सत्य मूल्यहीन होता है और कुछ तटस्थ अर्थात् उसमें मूल्य होने न होने का प्रश्न ही नहीं होता। धार्मिक मूल्यों के संबंध में भी दार्शनिकों में मतभेद है। कुछ लोग उसे एक विशिष्ट प्रकार का मूल्य मानते हैं और कुछ लोग अन्य मूल्यों के प्रति एक विशिष्ट प्रकार के दृष्टिकोण को ही धार्मिक मूल्य समझते हैं। मूल्य का माप सिद्धांत मनोवैज्ञानिक हो सकता है और तार्किक भी। सुखवादी दार्शनिक मूल्य की माप सुखानुभूति से करते हैं। एरेस्टीपस व्यक्ति के सुख और बेंथम समाज के सुख का मूल्य को मापदंड मानते हैं। बेंथम ने ऐसे सुखगणक की खोज की थी जिसमें सुख की गहनता, स्थायित्व, निश्चितता, निकटत्व, उपयोगिता, पवित्रता व्यापकत्व आदि के अंक निर्धारित कर सुख को मापा जा सकता है। यह मूल्य के मापन का मनोवैज्ञानिक प्रयास है। मारटेन्यू और ब्रेंटानों अंतदृष्टि से मूल्य की माप संभव समझते हैं। कुछ अध्यात्मवादियों ने वस्तुगत आदर्श निश्चित कर रखे हैं और उन्हीं से तुलना करके मूल्यों का मापन करते हैं। कुछ दार्शनिक समष्टि और सामंजस्य में ही मूल्य का गुणावधारण उचित बतलाते हैं। प्रकृतिवादी दार्शनिक जैविक विकास और वातावरण से समंजन को मूल्य की माप मानते हें। जिस वस्तु, क्रिया या परिस्थिति में जीव का विकास अधिक द्रुत गति से होता है उसका अधिक मूल्य है इसके विपरीत जिनसे जीवन में बाधा उपस्थित होती है, उनको मूल्य नहीं दिया जाता। मूल्य का तात्विक संस्तरण निर्धारित करते समय चरमतत्व से उसका संबंध निश्चित किया जाता है। यदि मूल तत्व सत् है तो मूल्य का उससे क्या संबंध है? इस संबंध में मुख्यत: तीन सिद्धांत हैं---व्यक्तिवादी, तार्किक वस्तुवादी और तात्विक वस्तुवादी। व्यक्तिवादी मूल्य को मानवी अनुभव से संबद्ध और आश्रित मानते हैं। मूल्य व्यक्ति के मन की ही उत्पत्ति है। वस्तु से उसका संबंध नहीं है। व्यक्ति अपनी परितृप्ति के अनुसार वस्तु में मूल्य का आरोपण करता है। ""प्रियो-प्रिय उपेक्ष्यश्चेत्याकारा मणिग्रास्य:, सृष्टा जीवैरीशसृष्टं रूपं साधारणां मिषु"" (पंचदशी,4122) प्रिय, अप्रिय और उपेक्षा करने योग्य मणि के तीन आकार जीवरचित हैं तथा उसका साधारण मणिरूप ईश्वर निर्मित है। प्रिय, अप्रिय और उपेक्षा भाव व्यक्ति व्यक्ति में भिन्न होने के कारण निश्चय ही व्यक्ति के मन की रचनाएँ हैं। सुखवादी, भाववादी और प्रकृतिवादी भी इसी से मिलते-जुलते मतों का समर्थन करते हें। वस्तुवादी इस सिद्धांत का खंडन करते हैं। वे मूल्य को मानसिक रचना मात्र नहीं मानते हैं। मूल्य का वस्तु में स्वतंत्र अस्तित्व है। व्यक्ति उस मूल्य को पहिचाने न पहिचाने, फिर भी वह अपना अस्तित्व सुरक्षित रखता है। सभी वस्तुवादियों का एक मत नहीं हैं। कुछ वस्तुवादी मूल्य का तार्किक विश्लेषण करते हैं और तार्किक वस्तुवादी कहलाते हैं। कुछ वस्तुवादी तात्विक दृष्टि से मूल्य का निर्धारण करते हैं। वे तात्विक वस्तुवादी (मेटाफिजीकल आब्जेक्टिविस्ट) कहे जा सकते हैं। तार्किक वस्तुवादी मूल्य को मानस रचना न मानने के कारण उसे एक सार या द्रव्य मानते हैं। वह वस्तु में रहते हुए भी कोई ऐसी स्वतंत्र सत्ता नहीं रखता जो वस्तु या सत् पर कोई प्रभाव डाल सके या परिवर्तन कर सके। यहाँ सत् और मूल्य में स्पष्ट भेद रखा जाता है। तात्विक वास्तुवादी मूल्य की तात्विक यथार्थता स्वीकार करते हें और उस सत् का ही एक अंग मानते हैं। श्रेणी:दर्शन की शाखाएँ.

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मोक्ष (जैन धर्म)

सिद्धशिला जहाँ सिद्ध (जिन्होंने मोक्ष प्राप्त कर लिया है) विराजते है का एक चित्र जैन धर्म में मोक्ष का अर्थ है पुद्ग़ल कर्मों से मुक्ति। जैन दर्शन के अनुसार मोक्ष प्राप्त करने के बाद जीव (आत्मा) जन्म मरण के चक्र से निकल जाता है और लोक के अग्रभाग सिद्धशिला में विराजमान हो जाती है। सभी कर्मों का नाश करने के बाद मोक्ष की प्राप्ति होती हैं। मोक्ष के उपरांत आत्मा अपने शुद्ध स्वरूप (अनन्त ज्ञान, अनन्त दर्शन, अनन्त सुख, और अनन्त शक्ति) में आ जाती है। ऐसी आत्मा को सिद्ध कहते है। मोक्ष प्राप्ति हर जीव के लिए उच्चतम लक्ष्य माना गया  है। सम्यक् दर्शन, सम्यक् ज्ञान, सम्यक् चरित्र से इसे प्राप्त किया जा सकता है। जैन धर्म को मोक्षमार्ग भी कहा जाता है। .

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सत्तामीमांसा

सत्‍तामीमांसा या वस्तुमीमांसा (ontology) अस्तित्व या वास्तविकता का दार्शनिक अध्ययन है। परम्परागत रूप से यह तत्वमीमांसा नामक दर्शन की शाखा का भाग है। श्रेणी:दर्शन *.

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संवर

संवर जैन दर्शन के अनुसार एक तत्त्व हैं। इसका अर्थ होता है कर्मों के आस्रव को रोकना। जैन सिद्धांत सात तत्त्वों पर आधारित हैं। इनमें से चार तत्त्व- आस्रव, बन्ध, संवर, निर्जरा कर्म सिद्धांत के स्तम्भ हैं। .

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जीव

कवक जीव (Organism) शब्द जीवविज्ञान में सभी जीवन-सन्निहित प्राणियों के लिए प्रयुक्त होता है, जैसे: कशेरुकी जन्तु, कीट, पादप अथवा जीवाणु। एक जीव में एक या एक से अधिक कोशिकाएँ होते हैं। जिनमें एक कोशिका पाया जाता है उसे एक कोशिकीय जीव है; एक से अधिक कोशिका होने पर उस जीव को बहुकोशिकीय जीव कहा जाता है। मनुष्य का शरीर विशेष ऊतकों और अंगों में बांटा होता है, जिसमें कोशिकाओं के कई अरबों की रचना में बहुकोशिकीय जीव होते हैं। .

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कर्म बन्ध

कर्म-बन्ध  का अर्थ है आत्मा के साथ कर्म पुद्गल का जुड़ना। कर्म बन्ध कर्मों के आस्रव के बाद होता हैं। यह जैन दर्शन के अनुसार सात तत्त्वों में से एक हैं। .

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अजीव

अजीव शब्द का अर्थ होता हैं जिसमें जान न हो। कुर्सी मेज, पन्ना आदि अजीव वस्तु के उदहारण हैं। जैन दर्शन के अनुसार यह सात तत्त्वों में से एक तत्त्व हैं। .

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यहां पुनर्निर्देश करता है:

Metaphysics, तत्त्वज्ञान, तत्वमीमांसा, तत्वमीमांसिक

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