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जनसंख्या आनुवांशिकी

सूची जनसंख्या आनुवांशिकी

चार मुख्य विकासमूलक प्रक्रियाओं: प्राकृतिक चयन, आनुवांशिक झुकाव, उत्परिवर्तन और जीन-प्रवाह के प्रभाव में युग्म-विकल्पी आवृत्ति वितरण और परिवर्तन का अध्ययन जनसंख्या आनुवांशिकी कहलाता है। इसमें जनसंख्या उप-विभाजन तथा जनसंख्या संरचना के कारकों पर भी ध्यान दिया जाता है। यह अनुकूलन और प्रजातिकरण (speciation) जैसी अवधारणाओं की व्याख्या करने का भी प्रयास करती है। जनसंख्या आनुवांशिकी आधुनिक विकासमूलक संश्लेषण के उदभव का एक आवश्यक घटक थी। इसके प्रमुख संस्थापक सीवॉल राइट (Sewall Wright), जे.

25 संबंधों: चयापचय, चार्ल्स डार्विन, चीन की विशाल दीवार, डार्विनवाद, डीऑक्सीराइबो न्यूक्लिक अम्ल, निषेचन, पशुप्रजनन, प्रतिरक्षा प्रणाली, रूस, सुकेन्द्रिक, सूत्रकणिका, जनन, जनसंख्या, जैवसांख्यिकी, जीन, जीव विज्ञान, जीवन, जीवाणु, घोड़ा, विषाणु, आनुवंशिकी, क्रम-विकास, अनुवांशिकता, अनुकूलन, उत्परिवर्तन

चयापचय

कोएन्ज़ाइम एडीनोसाइन ट्रायफ़ोस्फेट का संरचना, उर्जा मेटाबॉलिज़्म में एक केंद्र मध्यवर्ती चयापचय (metabolism) जीवों में जीवनयापन के लिये होने वाली रसायनिक प्रतिक्रियाओं को कहते हैं। ये प्रक्रियाएं जीवों को बढ़ने और प्रजनन करने, अपनी रचना को बनाए रखने और उनके पर्यावरण के प्रति सजग रहने में मदद करती हैं। साधारणतः चयापचय को दो प्रकारों में बांटा गया है। अपचय कार्बनिक पदार्थों का विघटन करता है, उदा.

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चार्ल्स डार्विन

चार्ल्स डार्विन चार्ल्स डार्विन (१२ फरवरी, १८०९ – १९ अप्रैल १८८२) ने क्रमविकास (evolution) के सिद्धान्त का प्रतिपादन किया। उनका शोध आंशिक रूप से १८३१ से १८३६ में एचएमएस बीगल पर उनकी समुद्र यात्रा के संग्रहों पर आधारित था। इनमें से कई संग्रह इस संग्रहालय में अभी भी उपस्थित हैं। डार्विन महान वैज्ञानिक थे - आज जो हम सजीव चीजें देखते हैं, उनकी उत्पत्ति तथा विविधता को समझने के लिए उनका विकास का सिद्धान्त सर्वश्रेष्ठ माध्यम बन चुका है। संचार डार्विन के शोध का केन्द्र-बिन्दु था। उनकी सर्वाधिक प्रसिद्ध पुस्तक जीवजाति का उद्भव (Origin of Species (हिंदी में - 'ऑरिजिन ऑफ स्पीसीज़')) प्रजातियों की उत्पत्ति सामान्य पाठकों पर केंद्रित थी। डार्विन चाहते थे कि उनका सिद्धान्त यथासम्भव व्यापक रूप से प्रसारित हो। डार्विन के विकास के सिद्धान्त से हमें यह समझने में मदद मिलती है कि किस प्रकार विभिन्न प्रजातियां एक दूसरे के साथ जुङी हुई हैं। उदाहरणतः वैज्ञानिक यह समझने का प्रयास कर रहे हैं कि रूस की बैकाल झील में प्रजातियों की विविधता कैसे विकसित हुई। .

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चीन की विशाल दीवार

चीन की विशाल दीवार मिट्टी और पत्थर से बनी एक किलेनुमा दीवार है जिसे चीन के विभिन्न शासको के द्वारा उत्तरी हमलावरों से रक्षा के लिए पाँचवीं शताब्दी ईसा पूर्व से लेकर सोलहवी शताब्दी तक बनवाया गया। इसकी विशालता का अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है की इस मानव निर्मित ढांचे को अन्तरिक्ष से भी देखा जा सकता है। यह दीवार ६,४०० किलोमीटर (१०,००० ली, चीनी लंबाई मापन इकाई) के क्षेत्र में फैली है। इसका विस्तार पूर्व में शानहाइगुआन से पश्चिम में लोप नुर तक है और कुल लंबाई लगभग ६७०० कि॰मी॰ (४१६० मील) है। हालांकि पुरातत्व सर्वेक्षण विभाग के हाल के सर्वेक्षण के अनुसार समग्र महान दीवार, अपनी सभी शाखाओं सहित तक फैली है। अपने उत्कर्ष पर मिंग वंश की सुरक्षा हेतु दस लाख से अधिक लोग नियुक्त थे। यह अनुमानित है, कि इस महान दीवार निर्माण परियोजना में लगभग २० से ३० लाख लोगों ने अपना जीवन लगा दिया था।डैमियन ज़िमर्मैन,, ICE केस स्टडीज़, दिसंबर, १९९७ चीन में राज्य की रक्षा करने के लिए दीवार बनाने की शुरुआत हुई आठवीं शताब्दी ईसापूर्व में जिस समय कुई (अंग्रेजी:Qi), यान (अंग्रेजी:Yan) और जाहो (अंग्रेजी:Zhao) राज्यों ने तीर एवं तलवारों के आक्रमण से बचने के लिए मिटटी और कंकड़ को सांचे में दबा कर बनाई गयी ईटों से दीवार का निर्माण किया। ईसा से २२१ वर्ष पूर्व चीन किन (अंग्रेजी:Qin) साम्राज्य के अनतर्गत आ गया। इस साम्राज्य ने सभी छोटे राज्यों को एक करके एक अखंड चीन की रचना की। किन साम्राज्य से शासको ने पूर्व में बनायी हुई विभिन्न दीवारों को एक कर दिया जो की चीन की उत्तरी सीमा बनी। पांचवीं शताब्दी से बहुत बाद तक ढेरों दीवारें बनीं, जिन्हें मिलाकर चीन की दीवार कहा गया। प्रसिद्धतम दीवारों में से एक २२०-२०६ ई.पू.

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डार्विनवाद

'''चार्ल्स डार्विन''' जैव-उद्विकास (organic-evolution) एवं प्राकृतिक चयन (natuaral selection) से सम्बन्धित चार्ल्स डार्विन के विचारों को डार्विनवाद कहते हैं। .

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डीऑक्सीराइबो न्यूक्लिक अम्ल

डीएनए के घुमावदार सीढ़ीनुमा संरचना के एक भाग की त्रिविम (3-D) रूप डी एन ए जीवित कोशिकाओं के गुणसूत्रों में पाए जाने वाले तंतुनुमा अणु को डी-ऑक्सीराइबोन्यूक्लिक अम्ल या डी एन ए कहते हैं। इसमें अनुवांशिक कूट निबद्ध रहता है। डी एन ए अणु की संरचना घुमावदार सीढ़ी की तरह होती है। डीएनए की एक अणु चार अलग-अलग रास वस्तुओं से बना है जिन्हें न्यूक्लियोटाइड कहते है। हर न्यूक्लियोटाइड एक नाइट्रोजन युक्त वस्तु है। इन चार न्यूक्लियोटाइडोन को एडेनिन, ग्वानिन, थाइमिन और साइटोसिन कहा जाता है। इन न्यूक्लियोटाइडोन से युक्त डिऑक्सीराइबोस नाम का एक शक्कर भी पाया जाता है। इन न्यूक्लियोटाइडोन को एक फॉस्फेट की अणु जोड़ती है। न्यूक्लियोटाइडोन के सम्बन्ध के अनुसार एक कोशिका के लिए अवश्य प्रोटीनों की निर्माण होता है। अतः डी इन ए हर एक जीवित कोशिका के लिए अनिवार्य है। डीएनए आमतौर पर क्रोमोसोम के रूप में होता है। एक कोशिका में गुणसूत्रों के सेट अपने जीनोम का निर्माण करता है; मानव जीनोम 46 गुणसूत्रों की व्यवस्था में डीएनए के लगभग 3 अरब आधार जोड़े है। जीन में आनुवंशिक जानकारी के प्रसारण की पूरक आधार बाँधना के माध्यम से हासिल की है। उदाहरण के लिए, एक कोशिका एक जीन में जानकारी का उपयोग करता है जब प्रतिलेखन में, डीएनए अनुक्रम डीएनए और सही आरएनए न्यूक्लियोटाइडों के बीच आकर्षण के माध्यम से एक पूरक शाही सेना अनुक्रम में नकल है। आमतौर पर, यह आरएनए की नकल तो शाही सेना न्यूक्लियोटाइडों के बीच एक ही बातचीत पर निर्भर करता है जो अनुवाद नामक प्रक्रिया में एक मिलान प्रोटीन अनुक्रम बनाने के लिए प्रयोग किया जाता है। वैकल्पिक भानुमति में एक कोशिका बस एक प्रक्रिया बुलाया डीएनए प्रतिकृति में अपने आनुवंशिक जानकारी कॉपी कर सकते हैं। डी एन ए की रूपचित्र की खोज अंग्रेजी वैज्ञानिक जेम्स वॉटसन और के द्वारा सन १९५३ में किया गया था। इस खोज के लिए उन्हें सन १९६२ में नोबेल पुरस्कार सम्मानित किया गया। .

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निषेचन

एक शुक्राणु कोशिका, अण्डाणु को निशेचित कर रही है। जन्तुओं के मादा के अंडाणु और नर के शुक्राणु मिलकर एकाकार हो जाते हैं और नये 'जीव' का सृजन करते हैं; इसे या निषेचन (Fertilisation) कहते हैं। .

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पशुप्रजनन

पशुप्रजनन (Animal breeding) के व्यापक अर्थ के अंतर्गत पशुओं के उत्पादन, उनके पालनपोषण तथा देखभाल संबंधी सभी प्रकार के कार्य आते हैं, किंतु सीमित अर्थ में इस शब्द का प्रयोग प्राय: पशुओं की आनुवंशिकता (heredity) में ऐसे सुधार करने से है जिससे मनुष्य की आवश्यकता तथा इच्छानुकूल उन्नत प्रकार के पशु उपलब्ध हो सकें। .

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प्रतिरक्षा प्रणाली

A scanning electron microscope image of a single neutrophil (yellow), engulfing anthrax bacteria (orange). प्रतिरक्षा प्रणाली (Immune system) किसी जीव के भीतर होने वाली उन जैविक प्रक्रियाओं का एक संग्रह है, जो रोगजनकों और अर्बुद कोशिकाओं को पहले पहचान और फिर मार कर उस जीव की रोगों से रक्षा करती है। यह विषाणुओं से लेकर परजीवी कृमियों जैसे विभिन्न प्रकार के एजेंट की पहचान करने मे सक्षम होती है, साथ ही यह इन एजेंटों को जीव की स्वस्थ कोशिकाओं और ऊतकों से अलग पहचान सकती है, ताकि यह उन के विरुद्ध प्रतिक्रिया ना करे और पूरी प्रणाली सुचारु रूप से कार्य करे।। हिन्दुस्तान लाइव। २४ नवम्बर २००९ रोगजनकों की पहचान करना एक जटिल कार्य है क्योंकि रोगजनकों का रूपांतर बहुत तेजी से होता है और यह स्वयं का अनुकूलन इस प्रकार करते हैं कि प्रतिरक्षा प्रणाली से बचकर सफलतापूर्वक अपने पोषक को संक्रमित कर सकें। शरीर की प्रतिरक्षा-प्रणाली में खराबी आने से रोग में प्रवेश कर जाते हैं। प्रतिरक्षा-प्रणाली में खराबी को इम्यूनोडेफिशिएंसी कहते हैं। इम्यूनोडेफिशिएंसी या तो किसी आनुवांशिक रोग के कारण हो सकता है, या फिर कुछ खास दवाओं या संक्रमण के कारण भी संभव है। इसी का एक उदाहरण है एक्वायर्ड इम्यूनो डेफिशिएंसी सिंड्रोम (एड्स) जो एचआईवी वायरस के कारण फैलता है। ठीक इसके विपरीत स्वप्रतिरक्षित रोग (ऑटोइम्यून डिजीज) एक उत्तेजित ऑटो इम्यून सिस्टम के कारण होते हैं जो साधारण ऊतकों पर बाहरी जीव होने का संदेह कर उन पर आक्रमण करता है। प्रतिरक्षा प्रणाली के अध्ययन को प्रतिरक्षा विज्ञान (इम्म्यूनोलॉजी) का नाम दिया गया है। इसके अध्ययन में प्रतिरक्षा प्रणाली संबंधी सभी बड़े-छोटे कारणों की जांच की जाती है। इसमें प्रणाली पर आधारित स्वास्थ्य के लाभदायक और हानिकारक कारणों का ज्ञान किया जाता है। प्रतिरक्षा प्रणाली के क्षेत्र में खोज और शोध निरंतर जारी हैं एवं इससे संबंधित ज्ञान में निरंतर बढोत्तरी होती जा रही है। यह प्रणाली लगभग सभी उन्नत जीवों जैसे हरेक पौधे और जानवरों में मिलती मिलती है। प्रतिरक्षा प्रणाली के कई प्रतिरोधक (बैरियर) जीवों को बीमारियों से बचाते हैं, इनमें यांत्रिक, रसायन और जैव प्रतिरोधक होते हैं। .

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रूस

रूस (रूसी: Росси́йская Федера́ция / रोस्सिज्स्काया फ़ेदेरात्सिया, Росси́я / रोस्सिया) पूर्वी यूरोप और उत्तर एशिया में स्थित एक विशाल आकार वाला देश। कुल १,७०,७५,४०० किमी२ के साथ यह विश्व का सब्से बड़ा देश है। आकार की दृष्टि से यह भारत से पाँच गुणा से भी अधिक है। इतना विशाल देश होने के बाद भी रूस की जनसंख्या विश्व में सातवें स्थान पर है जिसके कारण रूस का जनसंख्या घनत्व विश्व में सब्से कम में से है। रूस की अधिकान्श जनसंख्या इसके यूरोपीय भाग में बसी हुई है। इसकी राजधानी मॉस्को है। रूस की मुख्य और राजभाषा रूसी है। रूस के साथ जिन देशों की सीमाएँ मिलती हैं उनके नाम हैं - (वामावर्त) - नार्वे, फ़िनलैण्ड, एस्टोनिया, लातविया, लिथुआनिया, पोलैण्ड, बेलारूस, यूक्रेन, जॉर्जिया, अज़रबैजान, कजाकिस्तान, चीन, मंगोलिया और उत्तर कोरिया। रूसी साम्राज्य के दिनों से रूस ने विश्व में अपना स्थान एक प्रमुख शक्ति के रूप में किया था। प्रथम विश्वयुद्ध के बाद सोवियत संघ विश्व का सबसे बड़ा साम्यवादी देश बना। यहाँ के लेखकों ने साम्यवादी विचारधारा को विश्व भर में फैलाया। द्वितीय विश्वयुद्ध के बाद सोवियत संघ एक प्रमुख सामरिक और राजनीतिक शक्ति बनकर उभरा। संयुक्त राज्य अमेरिका के साथ इसकी वर्षों तक प्रतिस्पर्धा चली जिसमें सामरिक, आर्थिक, राजनैतिक और तकनीकी क्षेत्रों में एक दूसरे से आगे निकलने की होड़ थी। १९८० के दशक से यह आर्थिक रूप से क्षीण होता चला गया और १९९१ में इसका विघटन हो गया जिसके फलस्वरूप रूस, सोवियत संघ का सबसे बड़ा राज्य बना। वर्तमान में रूस अपने सोवियत संघ काल के महाशक्ति पद को पुनः प्राप्त करने का प्रयास कर रहा है। यद्यपि रूस अभी भी एक प्रमुख देश है लेकिन यह सोवियत काल के पद से भी बहुत दूर है। .

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सुकेन्द्रिक

कुछ युकेरियोटी जीव सुकेंद्रिक या युकेरियोट (eukaryote) एक जीव को कहा जाता है जिसकी कोशिकाओं (सेल) में झिल्लियों में बंद असरल ढाँचे हों। सुकेंद्रिक और अकेंद्रिक (प्रोकेरियोट) कोशिकाओं में सबसे बड़ा अंतर यह होता है कि सुकेंद्रिक कोशिकाओं में एक झिल्ली से घिरा हुआ केन्द्रक (न्यूक्लियस) होता है जिसके अन्दर आनुवंशिक (जेनेटिक) सामान होता है। जीवविज्ञान में सुकेंद्रिक कोशिकाओं वाले जीवों के टैक्सोन को 'सुकेंद्रिक' या 'युकेरियोटी' (eukaryota) कहते हैं।, Mary K. Campbell, Shawn O. Farrell, pp.

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सूत्रकणिका

ई.आर (9) '''माइटोकांड्रिया''' (10) रसधानी (11) कोशिका द्रव (12) लाइसोसोम (13) तारककाय आक्सी श्वसन का क्रिया स्थल, माइटोकान्ड्रिया जीवाणु एवं नील हरित शैवाल को छोड़कर शेष सभी सजीव पादप एवं जंतु कोशिकाओं के कोशिकाद्रव्य में अनियमित रूप से बिखरे हुए द्वीप-एकक पर्दायुक्त कोशिकांगों (organelle) को सूत्रकणिका या माइटोकॉण्ड्रिया (Mitochondria) कहते हैं। कोशिका के अंदर सूक्ष्मदर्शी की सहायता से देखने में ये गोल, लम्बे या अण्डाकार दिखते हैं।। हिन्दुस्तान लाइव।२४अक्तूबर,२००९ माइटोकॉण्ड्रिया सभी प्राणियों में और उनकी हर प्रकार की कोशिकाओं में पाई जाती हैं। माइटोकाण्ड्रिआन या सूत्रकणिका कोशिका के कोशिकाद्रव्य में उपस्थित दोहरी झिल्ली से घिरा रहता है। माइटोकाण्ड्रिया के भीतर आनुवांशिक पदार्थ के रूप में डीएनए होता है जो वैज्ञानिकों के लिए आश्चर्य एवं खोज़ का विषय हैं। माइटोकाण्ड्रिया में उपस्थित डीएनए की रचना एवं आकार जीवाणुओं के डीएनए के समान है। इससे अनुमान लगाया जाता है कि लाखों वर्ष पहले शायद कोई जीवाणु मानव की किसी कोशिका में प्रवेश कर गया होगा एवं कालांतर में उसने कोशिका को ही स्थायी निवास बना लिया। माइटोकाण्ड्रिया के डीएनए एवं कोशिकाओं के केन्द्रक में विद्यमान डीएनए में ३५-३८ जीन एक समान हैं। अपने डीएनए की वज़ह से माइकोण्ड्रिया कोशिका के भीतर आवश्यकता पड़ने पर अपनी संख्या स्वयं बढ़ा सकते हैं। संतानो की कोशिकाओं में पाया जाने वाला माइटोकांड्रिया उन्हें उनकी माता से प्राप्त होता है। निषेचित अंडों के माइटोकाण्ड्रिया में पाया जाने वाले डीएनए में शुक्राणुओं की भूमिका नहीं होती। है।। चाणक्य।३१ अगस्त, २००९। भगवती लाल माली श्वसन की क्रिया प्रत्येक जीवित कोशिका के कोशिका द्रव्य (साइटोप्लाज्म) एवं माइटोकाण्ड्रिया में सम्पन्न होती है। श्वसन सम्बन्धित प्रारम्भिक क्रियाएँ साइटोप्लाज्म में होती है तथा शेष क्रियाएँ माइटोकाण्ड्रियाओं में होती हैं। चूँकि क्रिया के अंतिम चरण में ही अधिकांश ऊर्जा उत्पन्न होती हैं। इसलिए माइटोकाण्ड्रिया को कोशिका का श्वसनांग या 'शक्ति गृह' (पावर हाउस) कहा जाता है। जीव विज्ञान की प्रशाखा कोशिका विज्ञान या कोशिका जैविकी (साइटोलॉजी) इस विषय में विस्तार से वर्णन उपलब्ध कराती है। अमेरिका के शिकागो विश्वविद्यालय के डॉ॰ सिविया यच.

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जनन

जनन (Reproduction) द्वारा कोई जीव (वनस्पति या प्राणी) अपने ही सदृश किसी दूसरे जीव को जन्म देकर अपनी जाति की वृद्धि करता है। जन्म देने की इस क्रिया को जनन कहते हैं। जनन जीवितों की विशेषता है। जीव की उत्पत्ति किसी पूर्ववर्ती जीवित जीव से ही होती है। निर्जीव पिंड से सजीव की उत्पत्ति नहीं देखी गई है। संभवत: विषाणु (Virus) इसके अपवाद हों (देखें, स्वयंजनन, Abiogenesis)। जनन के दो उद्देश्य होते हैं एक व्यक्तिविशेष का संरक्षण और दूसरा जाति की शृंखला बनाए रखना। दोनों का आधार पोषण है। पोषण से ही संरक्षण, वृद्धि और जनन होते हैं। जीवधारियों के अंतअंतहेलनस्पति और प्राणी दोनों आते हैं। दोनों में ही जैविक घटनाएँ घटित होती है। दोनों की जननविधियों में समानता है, पर सूक्ष्म विस्तार में अंतर अवश्य है। अत: उनका विचार अलग अलग किया जा रहा है। .

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जनसंख्या

1994 में विश्व की जनसंख्या का वितरण. विश्व की कुल जनसँख्या में एक अरब लोगों के जुड़ने में लगने वाला समय. (जिसमें भविष्य की गणना भी शामिल है) वैकल्पिक चार्ट भी देखें. जीव विज्ञान में, विशेष प्रजाति के अंत: जीव प्रजनन के संग्रह को जनसंख्या कहते हैं; समाजशास्त्र में इसे मनुष्यों का संग्रह कहते हैं। जनसँख्या के अन्दर आने वाला प्रत्येक व्यक्ति कुछ पहलू एक दुसरे से बांटते हैं जो कि सांख्यिकीय रूप से अलग हो सकता है, लेकिन अगर आमतौर पर देखें तो ये अंतर इतने अस्पष्ट होते हैं कि इनके आधार पर कोई निर्धारण नहीं किया जा सकता.

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जैवसांख्यिकी

जीवसांख्यिकी (Biometry) जीवसांख्यिकी का शाब्दिक अर्थ होता है जीवधारियों से संबंधित संख्या का विज्ञान। यह जीव विज्ञान की एक शाखा है। गणित और आँकड़े की विधि के प्रयोग द्वारा जीवित वस्तुओं के जैव गुणों का वर्णन और वर्गीकरण जीवसांख्यिकी कहलाता है। इसका संबंध विशेषत: आँकड़े (Statistics) की विधि से जैव पदार्थों में विभिन्नता, उनकी आबादी संबंधी समस्याएँ और उनमें किस आवृत्ति (frequency) से घटनाएँ घटित होती हैं, इत्यादि के विश्लेषण से हैं। जीवसांख्यिकी का क्षेत्र सीमित और केवल जैव वस्तुओं से संबंधित है। सांख्यिकीविद् प्रथम बड़े पैमाने पर प्रेक्षण करते हैं। वे इन प्रेक्षणों को क्रमबद्ध करके इनका सारांश निकालने की चेष्टा करते हैं। इस सारांश के आधार पर प्रेक्षित जाति (species) के जीव का एक ऐसा साधारण और व्यापक वर्णन करते हैं जो उस पूरे जीवसमूह पर लागू हो। चूँकि जैव आँकड़े बहुत ही परिवर्ती होते हैं, अतएव इस विभिन्नता से उत्पन्न कठिनाइयों को सुलझाने और ठीक ठीक तर्क स्थापित करने के हेतु ही मुख्यत: जीवसांख्यिकी विधि का विकास हुआ है। .

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जीन

गुणसूत्रों पर स्थित डी.एन.ए. (D.N.A.) की बनी वो अति सूक्ष्म रचनाएं जो अनुवांशिक लक्षणों का धारण एवं उनका एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी में स्थानान्तरण करती हैं, जीन (gene) वंशाणु या पित्रैक कहलाती हैं। जीन, डी एन ए के न्यूक्लियोटाइडओं का ऐसा अनुक्रम है, जिसमें सन्निहित कूटबद्ध सूचनाओं से अंततः प्रोटीन के संश्लेषण का कार्य संपन्न होता है। यह अनुवांशिकता के बुनियादी और कार्यक्षम घटक होते हैं। यह यूनानी भाषा के शब्द जीनस से बना है। जीन आनुवांशिकता की मूलभूत शारीरिक इकाई है। यानि इसी में हमारी आनुवांशिक विशेषताओं की जानकारी होती है जैसे हमारे बालों का रंग कैसा होगा, आंखों का रंग क्या होगा या हमें कौन सी बीमारियां हो सकती हैं। और यह जानकारी, कोशिकाओं के केन्द्र में मौजूद जिस तत्व में रहती है उसे डी एन ए कहते हैं। जब किसी जीन के डीएनए में कोई स्थाई परिवर्तन होता है तो उसे म्यूटेशन याउत्परिवर्तन कहा जाता है। यह कोशिकाओं के विभाजन के समय किसी दोष के कारण पैदा हो सकता है या फिर पराबैंगनी विकिरण की वजह से या रासायनिक तत्व या वायरस से भी हो सकता है। .

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जीव विज्ञान

जीवविज्ञान भांति-भांति के जीवों का अध्ययन करता है। जीवविज्ञान प्राकृतिक विज्ञान की तीन विशाल शाखाओं में से एक है। यह विज्ञान जीव, जीवन और जीवन के प्रक्रियाओं के अध्ययन से सम्बन्धित है। इस विज्ञान में हम जीवों की संरचना, कार्यों, विकास, उद्भव, पहचान, वितरण एवं उनके वर्गीकरण के बारे में पढ़ते हैं। आधुनिक जीव विज्ञान एक बहुत विस्तृत विज्ञान है, जिसकी कई शाखाएँ हैं। 'बायलोजी' (जीवविज्ञान) शब्द का प्रयोग सबसे पहले लैमार्क और ट्रविरेनस नाम के वैज्ञानिको ने १८०२ ई० में किया। जिन वस्तुओं की उत्पत्ति किसी विशेष अकृत्रिम जातीय प्रक्रिया के फलस्वरूप होती है, जीव कहलाती हैं। इनका एक परिमित जीवनचक्र होता है। हम सभी जीव हैं। जीवों में कुछ मौलिक प्रक्रियाऐं होती हैं.

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जीवन

हमारे जन्म से मृत्यु के बीच की अवधि ही जीवन कहलाती है। लेकिन हमारा जन्म क्या हमारी इच्छा से होता है? नहीं, यह तो मात्र नर और मादा के संभोग का परिणाम होता है जो प्रकृति के नियम के अंतर्गत है। इसके अतिरिक्त जीवन का मुख्य अंग एक चेतन तत्त्व है जो जीवन की सभी क्रियाओं का साक्षी होता है। .

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जीवाणु

जीवाणु जीवाणु एक एककोशिकीय जीव है। इसका आकार कुछ मिलिमीटर तक ही होता है। इनकी आकृति गोल या मुक्त-चक्राकार से लेकर छड़, आदि आकार की हो सकती है। ये अकेन्द्रिक, कोशिका भित्तियुक्त, एककोशकीय सरल जीव हैं जो प्रायः सर्वत्र पाये जाते हैं। ये पृथ्वी पर मिट्टी में, अम्लीय गर्म जल-धाराओं में, नाभिकीय पदार्थों में, जल में, भू-पपड़ी में, यहां तक की कार्बनिक पदार्थों में तथा पौधौं एवं जन्तुओं के शरीर के भीतर भी पाये जाते हैं। साधारणतः एक ग्राम मिट्टी में ४ करोड़ जीवाणु कोष तथा १ मिलीलीटर जल में १० लाख जीवाणु पाए जाते हैं। संपूर्ण पृथ्वी पर अनुमानतः लगभग ५X१०३० जीवाणु पाए जाते हैं। जो संसार के बायोमास का एक बहुत बड़ा भाग है। ये कई तत्वों के चक्र में बहुत महत्वपूर्ण भूमिका अदा करते हैं, जैसे कि वायुमंडलीय नाइट्रोजन के स्थरीकरण में। हलाकि बहुत सारे वंश के जीवाणुओं का श्रेणी विभाजन भी नहीं हुआ है तथापि लगभग आधी प्रजातियों को किसी न किसी प्रयोगशाला में उगाया जा चुका है। जीवाणुओं का अध्ययन बैक्टिरियोलोजी के अन्तर्गत किया जाता है जो कि सूक्ष्म जैविकी की ही एक शाखा है। मानव शरीर में जितनी भी मानव कोशिकाएं है, उसकी लगभग १० गुणा संख्या तो जीवाणु कोष की ही है। इनमें से अधिकांश जीवाणु त्वचा तथा अहार-नाल में पाए जाते हैं। हानिकारक जीवाणु इम्यून तंत्र के रक्षक प्रभाव के कारण शरीर को नुकसान नहीं पहुंचा पाते। कुछ जीवाणु लाभदायक भी होते हैं। अनेक प्रकार के परजीवी जीवाणु कई रोग उत्पन्न करते हैं, जैसे - हैजा, मियादी बुखार, निमोनिया, तपेदिक या क्षयरोग, प्लेग इत्यादि.

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घोड़ा

घोड़ा, घोड़ी और उसका बच्चा घोड़े भी खेल में इस्तेमाल किया जाता है। घोड़ा या अश्व (Equus ferus caballus; ऐक़्वस फ़ेरस कैबेलस) ऐक़्वस फ़ेरस (Equus ferus) की दो अविलुप्त उपप्रजातियों में से एक हैं। वह एक विषम-उंगली खुरदार स्तनधारी हैं, जो अश्ववंश (ऐक़्वडी) कुल से ताल्लुक रखता हैं। घोड़े का पिछले ४५ से ५५ मिलियन वर्षों में एक छोटे बहु-उंगली जीव, ऐओहिप्पस (Eohippus) से आज के विशाल, एकल-उंगली जानवर में क्रम-विकास हुआ हैं। मनुष्यों ने ४००० ईसा पूर्व के आसपास घोड़ों को पालतू बनाना शुरू कर दिया, और उनका पालतूकरण ३००० ईसा पूर्व से व्यापक रूप से फैला हुआ माना जाता हैं। कैबेलस (caballus) उपप्रजाति में घोड़े पालतू बनाएँ जाते हैं, यद्यपि कुछ पालतू आबादियाँ वन में रहती हैं निरंकुश घोड़ो के रूप में। ये निरंकुश आबादियाँ असली जंगली घोड़े नहीं हैं, क्योंकि यह शब्द उन घोड़ो को वर्णित करने के लिए प्रयुक्त होता हैं जो कभी पालतू बनाएँ ही नहीं गएँ हो, जैसे कि विलुप्तप्राय शेवालस्की का घोड़ा, जो एक अलग उपप्रजाति हैं और बचा हुआ केवल एकमात्र असली जंगली घोड़ा हैं। वह मनुष्य से जुड़ा हुआ संसार का सबसे प्राचीन पालतू स्तनपोषी प्राणी है, जिसने अज्ञात काल से मनुष्य की किसी ने किसी रूप में सेवा की है। घोड़ा ईक्यूडी (Equidae) कुटुंब का सदस्य है। इस कुटुंब में घोड़े के अतिरिक्त वर्तमान युग का गधा, जेबरा, भोट-खर, टट्टू, घोड़-खर एवं खच्चर भी है। आदिनूतन युग (Eosin period) के ईयोहिप्पस (Eohippus) नामक घोड़े के प्रथम पूर्वज से लेकर आज तक के सारे पूर्वज और सदस्य इसी कुटुंब में सम्मिलित हैं। इसका वैज्ञानिक नाम ईक्वस (Equus) लैटिन से लिया गया है, जिसका अर्थ घोड़ा है, परंतु इस कुटुंब के दूसरे सदस्य ईक्वस जाति की ही दूसरों छ: उपजातियों में विभाजित है। अत: केवल ईक्वस शब्द से घोड़े को अभिहित करना उचित नहीं है। आज के घोड़े का सही नाम ईक्वस कैबेलस (Equus caballus) है। इसके पालतू और जंगली संबंधी इसी नाम से जाने जातें है। जंगली संबंधियों से भी यौन संबंध स्थापति करने पर बाँझ संतान नहीं उत्पन्न होती। कहा जाता है, आज के युग के सारे जंगली घोड़े उन्ही पालतू घोड़ो के पूर्वज हैं जो अपने सभ्य जीवन के बाद जंगल को चले गए और आज जंगली माने जाते है। यद्यपि कुछ लोग मध्य एशिया के पश्चिमी मंगोलिया और पूर्वी तुर्किस्तान में मिलनेवाले ईक्वस प्रज़्वेलस्की (Equus przwalski) नामक घोड़े को वास्तविक जंगली घोड़ा मानते है, तथापि वस्तुत: यह इसी पालतू घोड़े के पूर्वजो में से है। दक्षिण अफ्रिका के जंगलों में आज भी घोड़े बृहत झुंडो में पाए जाते है। एक झुंड में एक नर ओर कई मादाएँ रहती है। सबसे अधिक 1000 तक घोड़े एक साथ जंगल में पाए गए है। परंतु ये सब घोड़े ईक्वस कैबेलस के ही जंगली पूर्वज है और एक घोड़े को नेता मानकर उसकी आज्ञा में अपना सामाजिक जीवन व्यतीत करतेे है। एक गुट के घोड़े दूसरे गुट के जीवन और शांति को भंग नहीं करते है। संकटकाल में नर चारों तरफ से मादाओ को घेर खड़े हो जाते है और आक्रमणकारी का सामना करते हैं। एशिया में काफी संख्या में इनके ठिगने कद के जंगली संबंधी 50 से लेकर कई सौ तक के झुंडों में मिलते है। मनुष्य अपनी आवश्यकता के अनुसार उन्हे पालतू बनाता रहता है। .

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विषाणु

विषाणु अकोशिकीय अतिसूक्ष्म जीव हैं जो केवल जीवित कोशिका में ही वंश वृद्धि कर सकते हैं। ये नाभिकीय अम्ल और प्रोटीन से मिलकर गठित होते हैं, शरीर के बाहर तो ये मृत-समान होते हैं परंतु शरीर के अंदर जीवित हो जाते हैं। इन्हे क्रिस्टल के रूप में इकट्ठा किया जा सकता है। एक विषाणु बिना किसी सजीव माध्यम के पुनरुत्पादन नहीं कर सकता है। यह सैकड़ों वर्षों तक सुशुप्तावस्था में रह सकता है और जब भी एक जीवित मध्यम या धारक के संपर्क में आता है उस जीव की कोशिका को भेद कर आच्छादित कर देता है और जीव बीमार हो जाता है। एक बार जब विषाणु जीवित कोशिका में प्रवेश कर जाता है, वह कोशिका के मूल आरएनए एवं डीएनए की जेनेटिक संरचना को अपनी जेनेटिक सूचना से बदल देता है और संक्रमित कोशिका अपने जैसे संक्रमित कोशिकाओं का पुनरुत्पादन शुरू कर देती है। विषाणु का अंग्रेजी शब्द वाइरस का शाब्दिक अर्थ विष होता है। सर्वप्रथम सन १७९६ में डाक्टर एडवर्ड जेनर ने पता लगाया कि चेचक, विषाणु के कारण होता है। उन्होंने चेचक के टीके का आविष्कार भी किया। इसके बाद सन १८८६ में एडोल्फ मेयर ने बताया कि तम्बाकू में मोजेक रोग एक विशेष प्रकार के वाइरस के द्वारा होता है। रूसी वनस्पति शास्त्री इवानोवस्की ने भी १८९२ में तम्बाकू में होने वाले मोजेक रोग का अध्ययन करते समय विषाणु के अस्तित्व का पता लगाया। बेजेर्निक और बोर ने भी तम्बाकू के पत्ते पर इसका प्रभाव देखा और उसका नाम टोबेको मोजेक रखा। मोजेक शब्द रखने का कारण इनका मोजेक के समान तम्बाकू के पत्ते पर चिन्ह पाया जाना था। इस चिन्ह को देखकर इस विशेष विषाणु का नाम उन्होंने टोबेको मोजेक वाइरस रखा। विषाणु लाभप्रद एवं हानिकारक दोनों प्रकार के होते हैं। जीवाणुभोजी विषाणु एक लाभप्रद विषाणु है, यह हैजा, पेचिश, टायफायड आदि रोग उत्पन्न करने वाले जीवाणुओं को नष्ट कर मानव की रोगों से रक्षा करता है। कुछ विषाणु पौधे या जन्तुओं में रोग उत्पन्न करते हैं एवं हानिप्रद होते हैं। एचआईवी, इन्फ्लूएन्जा वाइरस, पोलियो वाइरस रोग उत्पन्न करने वाले प्रमुख विषाणु हैं। सम्पर्क द्वारा, वायु द्वारा, भोजन एवं जल द्वारा तथा कीटों द्वारा विषाणुओं का संचरण होता है परन्तु विशिष्ट प्रकार के विषाणु विशिष्ट विधियों द्वारा संचरण करते हैं। .

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आनुवंशिकी

पैतृक गुणसूत्रों के पुनर्संयोजन के फलस्वरूप एक ही पीढी की संतानें भी भिन्न हो सकती हैं। आनुवंशिकी (जेनेटिक्स) जीव विज्ञान की वह शाखा है जिसके अंतर्गत आनुवंशिकता (हेरेडिटी) तथा जीवों की विभिन्नताओं (वैरिएशन) का अध्ययन किया जाता है। आनुवंशिकता के अध्ययन में ग्रेगर जॉन मेंडेल की मूलभूत उपलब्धियों को आजकल आनुवंशिकी के अंतर्गत समाहित कर लिया गया है। प्रत्येक सजीव प्राणी का निर्माण मूल रूप से कोशिकाओं द्वारा ही हुआ होता है। इन कोशिकाओं में कुछ गुणसूत्र (क्रोमोसोम) पाए जाते हैं। इनकी संख्या प्रत्येक जाति (स्पीशीज) में निश्चित होती है। इन गुणसूत्रों के अंदर माला की मोतियों की भाँति कुछ डी एन ए की रासायनिक इकाइयाँ पाई जाती हैं जिन्हें जीन कहते हैं। ये जीन गुणसूत्र के लक्षणों अथवा गुणों के प्रकट होने, कार्य करने और अर्जित करने के लिए जिम्मेवार होते हैं। इस विज्ञान का मूल उद्देश्य आनुवंशिकता के ढंगों (पैटर्न) का अध्ययन करना है अर्थात्‌ संतति अपने जनकों से किस प्रकार मिलती जुलती अथवा भिन्न होती है। .

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क्रम-विकास

आनुवांशिकता का आधार डीएनए, जिसमें परिवर्तन होने पर नई जातियाँ उत्पन्न होती हैं। क्रम-विकास या इवोलुशन (English: Evolution) जैविक आबादी के आनुवंशिक लक्षणों के पीढ़ी दर पीढ़ी परिवर्तन को कहते हैं। क्रम-विकास की प्रक्रियायों के फलस्वरूप जैविक संगठन के हर स्तर (जाति, सजीव या कोशिका) पर विविधता बढ़ती है। पृथ्वी के सभी जीवों का एक साझा पूर्वज है, जो ३.५–३.८ अरब वर्ष पूर्व रहता था। इसे अंतिम सार्वजानिक पूर्वज कहते हैं। जीवन के क्रम-विकासिक इतिहास में बार-बार नयी जातियों का बनना (प्रजातिकरण), जातियों के अंतर्गत परिवर्तन (अनागेनेसिस), और जातियों का विलुप्त होना (विलुप्ति) साझे रूपात्मक और जैव रासायनिक लक्षणों (जिसमें डीएनए भी शामिल है) से साबित होता है। जिन जातियों का हाल ही में कोई साझा पूर्वज था, उन जातियों में ये साझे लक्षण ज्यादा समान हैं। मौजूदा जातियों और जीवाश्मों के इन लक्षणों के बीच क्रम-विकासिक रिश्ते (वर्गानुवंशिकी) देख कर हम जीवन का वंश वृक्ष बना सकते हैं। सबसे पुराने बने जीवाश्म जैविक प्रक्रियाओं से बने ग्रेफाइट के हैं, उसके बाद बने जीवाश्म सूक्ष्मजीवी चटाई के हैं, जबकि बहुकोशिकीय जीवों के जीवाश्म बहुत ताजा हैं। इस से हमें पता चलता है कि जीवन सरल से जटिल की तरफ विकसित हुआ है। आज की जैव विविधता को प्रजातिकरण और विलुप्ति, दोनों द्वारा आकार दिया गया है। पृथ्वी पर रही ९९ प्रतिशत से अधिक जातियाँ विलुप्त हो चुकी हैं। पृथ्वी पर जातियों की संख्या १ से १.४ करोड़ अनुमानित है। इन में से १२ लाख प्रलेखित हैं। १९ वीं सदी के मध्य में चार्ल्स डार्विन ने प्राकृतिक वरण द्वारा क्रम-विकास का वैज्ञानिक सिद्धांत दिया। उन्होंने इसे अपनी किताब जीवजाति का उद्भव (१८५९) में प्रकाशित किया। प्राकृतिक चयन द्वारा क्रम-विकास की प्रक्रिया को निम्नलिखित अवलोकनों से साबित किया जा सकता है: १) जितनी संतानें संभवतः जीवित रह सकती हैं, उस से अधिक पैदा होती हैं, २) आबादी में रूपात्मक, शारीरिक और व्यवहारिक लक्षणों में विविधता होती है, ३) अलग-अलग लक्षण उत्तर-जीवन और प्रजनन की अलग-अलग संभावना प्रदान करते हैं, और ४) लक्षण एक पीढ़ी से अगली पीढ़ी को दिए जाते हैं। इस प्रकार, पीढ़ी दर पीढ़ी आबादी उन शख़्सों की संतानों द्वारा प्रतिस्थापित हो जाती है जो उस बाईओफीसिकल परिवेश (जिसमें प्राकृतिक चयन हुआ था) के बेहतर अनुकूलित हों। प्राकृतिक वरण की प्रक्रिया इस आभासी उद्देश्यपूर्णता से उन लक्षणों को बनती और बरकरार रखती है जो अपनी कार्यात्मक भूमिका के अनुकूल हों। अनुकूलन का प्राकृतिक वरण ही एक ज्ञात कारण है, लेकिन क्रम-विकास के और भी ज्ञात कारण हैं। माइक्रो-क्रम-विकास के अन्य गैर-अनुकूली कारण उत्परिवर्तन और जैनेटिक ड्रिफ्ट हैं। .

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अनुवांशिकता

माता-पिता एवं अन्य पूर्वजों के गुण (traits) का सन्तानों में अवतरित होना अनुवांशिकता (Heredity) कहलाती है। जीवविज्ञान में अनुवांशिकता का अध्ययन जेनेटिक्स के अन्तर्गत किया जाता है।या संतति मैं पैतृक लक्षणों के संचरण को आनुवांशिकता कहते हैं .

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अनुकूलन

अनुकूलन किसी विशेष वातावरण में सुगमता पूर्वक जीवन व्यतीत करने एवं वंशवृद्धि के लिए जीवों के शरीर में रचनात्मक एवं क्रियात्मक स्थायी परिवर्तन उत्पन्न होने की प्रक्रिया है। यह शरीर का अंग या स्थिति नहीं बल्कि एक प्रक्रिया है अनुकूलन द्वारा होने वाले स्थायी बदलावों को इस प्रक्रिया से भिन्न स्पष्ट करने के लिए उन्हें अनुकूलन जन्य लक्षण कहा जा सकता है। .

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उत्परिवर्तन

जीन डी एन ए के न्यूक्लियोटाइडओं का ऐसा अनुक्रम है, जिसमें सन्निहित कूटबद्ध सूचनाओं से अंततः प्रोटीन के संश्लेषण का कार्य संपन्न होता है। यह अनुवांशिकता के बुनियादी और कार्यक्षम घटक होते हैं। यह यूनानी भाषा के शब्द जीनस से बना है। क्रोमोसोम पर स्थित डी.एन.ए. (D.N.A.) की बनी अति सूक्ष्म रचनाएं जो अनुवांशिक लक्षणें का धारण एंव एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी में स्थानान्तरण करती हैं, उन्हें जीन (gene) कहते हैं। जीन आनुवांशिकता की मूलभूत शारीरिक इकाई है। यानि इसी में हमारी आनुवांशिक विशेषताओं की जानकारी होती है जैसे हमारे बालों का रंग कैसा होगा, आंखों का रंग क्या होगा या हमें कौन सी बीमारियां हो सकती हैं। और यह जानकारी, कोशिकाओं के केन्द्र में मौजूद जिस तत्व में रहती है उसे डीऐनए कहते हैं। जब किसी जीन के डीऐनए में कोई स्थाई परिवर्तन होता है तो उसे उत्परिवर्तन (म्यूटेशन) कहा जाता है। यह कोशिकाओं के विभाजन के समय किसी दोष के कारण पैदा हो सकता है या फिर पराबैंगनी विकिरण की वजह से या रासायनिक तत्व या वायरस से भी हो सकता है। प्रकृति के परिवर्तन में आण्विक डीएनए म्यूटेशन हो सकता है या नहीं कर सकते मापने में परिवर्तन के परिणामस्वरूप एक जावक जीव की उपस्थिति या कार्य है। .

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