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घराना-संगीत

सूची घराना-संगीत

घराना, भारतीय शास्त्रीय संगीत अथवा नृत्य की वह परंपरा है जो एक ही श्रेणी की कला को कुछ विशेषताओं के कारण दो या अनेक उप श्रेणियों में बाँटती है। घराना (परिवार), हिंदुस्तानी शास्त्रीय संगीत की विशिष्ट शैली है, क्योंकि हिंदुस्तानी संगीत बहुत विशाल भौगोलिक क्षेत्र में विस्तृत है, कालांतर में इसमें अनेक भाषाई तथा शैलीगत बदलाव आए हैं। इसके अलावा शास्त्रीय संगीत की गुरु-शिष्य परंपरा में प्रत्येक गुरु वा उस्ताद अपने हाव-भाव अपने शिष्यों की जमात को देता जाता है। घराना किसी क्षेत्र विशेष का प्रतीक होने के अलावा, व्यक्तिगत आदतों की पहचान बन गया है, यह परंपरा ज़्यादातर संगीत शिक्षा के पारंपरिक तरीके तथा संचार सुविधाओं के अभाव के कारण फली-फूली, क्योंकि इन परिस्थितियों में शिष्यों की पहुँच संगीत की अन्य शैलियों तक बन नहीं पाती थी। .

10 संबंधों: दिल्ली घराना, नृत्य, बनारस घराना, भिंडी बाज़ार घराना, शास्त्रीय संगीत, जयपुर-अतरौली घराना, घराना, ग्वालियर घराना, आगरा घराना, किराना घराना

दिल्ली घराना

तानरस खाँ इस घराने के प्रवर्तक माने जाते हैं। तानरस खाँ की तान बहुत मशहूर थी। इन्होंने तानों का बहुत अभ्यास किया था। इनके पुत्र उमराव खाँ हुए जिन्होंने घराने को आगे चलाया। उमराव खाँ के बाद दिल्ली घराना अधिक उन्नति नहीं कर सका और अब तो यह घराना लगभग समाप्त सा ही हो गया है। .

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नृत्य

भारतीय नृत्यनृत्य भी मानवीय अभिव्यक्तियों का एक रसमय प्रदर्शन है। यह एक सार्वभौम कला है, जिसका जन्म मानव जीवन के साथ हुआ है। बालक जन्म लेते ही रोकर अपने हाथ पैर मार कर अपनी भावाभिव्यक्ति करता है कि वह भूखा है- इन्हीं आंगिक -क्रियाओं से नृत्य की उत्पत्ति हुई है। यह कला देवी-देवताओं- दैत्य दानवों- मनुष्यों एवं पशु-पक्षियों को अति प्रिय है। भारतीय पुराणों में यह दुष्ट नाशक एवं ईश्वर प्राप्ति का साधन मानी गई है। अमृत मंथन के पश्चात जब दुष्ट राक्षसों को अमरत्व प्राप्त होने का संकट उत्पन्न हुआ तब भगवान विष्णु ने मोहिनी का रूप धारण कर अपने लास्य नृत्य के द्वारा ही तीनों लोकों को राक्षसों से मुक्ति दिलाई थी। इसी प्रकार भगवान शंकर ने जब कुटिल बुद्धि दैत्य भस्मासुर की तपस्या से प्रसन्न होकर उसे वरदान दिया कि वह जिसके ऊपर हाथ रखेगा वह भस्म हो जाए- तब उस दुष्ट राक्षस ने स्वयं भगवान को ही भस्म करने के लिये कटिबद्ध हो उनका पीछा किया- एक बार फिर तीनों लोक संकट में पड़ गये थे तब फिर भगवान विष्णु ने मोहिनी का रूप धारण कर अपने मोहक सौंदर्यपूर्ण नृत्य से उसे अपनी ओर आकृष्ट कर उसका वध किया। भारतीय संस्कृति एवं धर्म की आरंभ से ही मुख्यत- नृत्यकला से जुड़े रहे हैं। देवेन्द्र इन्द्र का अच्छा नर्तक होना- तथा स्वर्ग में अप्सराओं के अनवरत नृत्य की धारणा से हम भारतीयों के प्राचीन काल से नृत्य से जुड़ाव की ओर ही संकेत करता है। विश्वामित्र-मेनका का भी उदाहरण ऐसा ही है। स्पष्ट ही है कि हम आरंभ से ही नृत्यकला को धर्म से जोड़ते आए हैं। पत्थर के समान कठोर व दृढ़ प्रतिज्ञ मानव हृदय को भी मोम सदृश पिघलाने की शक्ति इस कला में है। यही इसका मनोवैज्ञानिक पक्ष है। जिसके कारण यह मनोरंजक तो है ही- धर्म- अर्थ- काम- मोक्ष का साधन भी है। स्व परमानंद प्राप्ति का साधन भी है। अगर ऐसा नहीं होता तो यह कला-धारा पुराणों- श्रुतियों से होती हुई आज तक अपने शास्त्रीय स्वरूप में धरोहर के रूप में हम तक प्रवाहित न होती। इस कला को हिन्दु देवी-देवताओं का प्रिय माना गया है। भगवान शंकर तो नटराज कहलाए- उनका पंचकृत्य से संबंधित नृत्य सृष्टि की उत्पत्ति- स्थिति एवं संहार का प्रतीक भी है। भगवान विष्णु के अवतारों में सर्वश्रेष्ठ एवं परिपूर्ण कृष्ण नृत्यावतार ही हैं। इसी कारण वे 'नटवर' कृष्ण कहलाये। भारतीय संस्कृति एवं धर्म के इतिहास में कई ऐसे प्रमाण मिलते हैं कि जिससे सफल कलाओं में नृत्यकला की श्रेष्ठता सर्वमान्य प्रतीत होती है। .

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बनारस घराना

शाहिद परवेज़ खान बनारस घराने के तबले के जादूगर पंडित समता प्रसाद के संग एक संगीत सभा में। बनारस घराना भारतीय तबला वादन के छः प्रसिद्ध घरानों में से एक है। ये घराना २०० वर्षों से कुछ पहले ख्यातिप्राप्त पंडित राम सहाय (१७८०-१८२६) के प्रयासों से विकसित हुआ था। पंडित राम सहाय ने अपने पिता के संग पांच वर्ष की आयु से ही तबला वादन आरंभ किया था। ९ वर्ष की आयु में ये लखनऊ आ गये एवं लखनऊ घराने के मोधु खान के शिष्य बन गये। जब राम सहाय मात्र १७ वर्ष के ही थे, तब लखनऊ के नये नवाब ने मोधु खान से पूछा कि क्या राम सहाय उनके लिये एक प्रदर्शन कर सकते हैं? कहते हैं, कि राम सहाय ने ७ रातों तक लगातार तबला-वादन किया जिसकी प्रशंसा पूरे समाज ने की एवं उन पर भेटों की बरसात हो गयी। अपनी इस प्रतिभा प्रदर्शन के बाद राम सहाय बनारस वापस आ गये। शाहिद परवेज़ खां, बनारस घराने के अन्य बड़े महारथी पंडित किशन महाराज के साथ एक सभा में। कुछ समय उपरांत राम सहाय ने पारंपरिक तबला वादन में कुछ बदलाव की आवश्यकता महसूस की। अगले छः माह तक ये एकांतवासी हो गये और इस एकांतवास का परिणाम सामने आया, जिसे आज बनारस-बाज कहते हैं। ये बनारस घराने की विशिष्ट तबला वादन शैली है। इस नयी वादन शैली के पीछे प्रमुख उद्देश्य था कि ये एकल वादन के लिये भी उपयुक्त थी और किसी अन्य संगीत वाद्य या नृत्य के लिये संगत भी दे सकती थी। इसमें तबले को नाज़ुक भी वादन कर सकते हैं, जैसा कि खयाल के लिये चाहिये होता है और पखावज की तरह ध्रुपद या कथक नृत्य शैली की संगत के लिये द्रुत गति से भी बजाया जा सकता है। राम सहाय ने तबला वादन में अंगुली की थाप का नया तरीका खोजा, जो विशेषकर ना की ताल के लिये महत्त्वपूर्ण था। इसमें अंगुली को मोड़कर दाहिने में अधिकतम अनुनाद कंपन उत्पन्न कर सकते हैं। इन्होंने तत्कालीन संयोजन प्रारूपों जैसे जैसे गट, टुकड़ा, परान, आदि से भी विभिन्न संयोजन किये, जिनमें उठान, बनारसी ठेका और फ़र्द प्रमुख हैं। आज बनारसी तबला घराना अपने शक्तिशाली रूप के लिये प्रसिद्ध है, हालांकि बनारस घराने के वादक हल्के और कोमल स्वरों के वादन में भी सक्षम हैं। घराने को पूर्वी बाज मे वर्गीकृत किया गया है, जिसमें लखनऊ, फर्रुखाबाद और बनारस घराने आते हैं। बनारस शैली तबले के अधिक अनुनादिक थापों का प्रयोग करती है, जैसे कि ना और धिन। बनारस वादक अधिमान्य रूप से पूरे हाथ से थई-थई थाप देते हैं, बजाय एक अंगुली से देने के; जैसे कि दिल्ली शैली में देते हैं। वैसे बनारस बाज शैली में दोनों ही थाप एकीकृत की गई हैं। बनारस घराने के तबला वादक तबला वादन की सभी शैलियों में, जैसे एकल, संगत, गायन एवं नृत्य संगत आदि में पारंगत होते हैं। बनारस घराने में एकल वादन बहुत इकसित हुआ है और कई वादक जैसे पंडित शारदा सहाय, पंडित किशन महाराज और पंडित समता प्रसाद, एकल तबला वादन में महारत और प्रसिद्धि प्राप्त हैं। घराने के नये युग के तबला वादकों में पं॰ कुमार बोस, पं.समर साहा, पं.बालकृष्ण अईयर, पं.शशांक बख्शी, संदीप दास, पार्थसारथी मुखर्जी, सुखविंदर सिंह नामधारी, विनीत व्यास और कई अन्य हैं। बनारसी बाज में २० विभिन्न संयोजन शैलियों और अनेक प्रकार के मिश्रण प्रयुक्त होते हैं। .

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भिंडी बाज़ार घराना

भिंडी बाज़ार घराना हिंदुस्तानी शास्त्रीय संगीत के प्रसिद्ध घरानों में से एक है। इस घराने की सबसे बड़ी विशेषता इनकी खयाल गायकी है, जो मुक्त कंठ एवं आवाज़ की प्रस्तुति है। आवाज़ का उपयोग कर, सांस नियंत्रण और लंबे मार्ग की एक सांस में गायन पर ज़ोर दिया जाता है। .

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शास्त्रीय संगीत

भारतीय शास्त्रीय संगीत या मार्ग, भारतीय संगीत का अभिन्न अंग है। शास्त्रीय संगीत को ही ‘क्लासिकल म्जूजिक’ भी कहते हैं। शास्त्रीय गायन ध्वनि-प्रधान होता है, शब्द-प्रधान नहीं। इसमें महत्व ध्वनि का होता है (उसके चढ़ाव-उतार का, शब्द और अर्थ का नहीं)। इसको जहाँ शास्त्रीय संगीत-ध्वनि विषयक साधना के अभ्यस्त कान ही समझ सकते हैं, अनभ्यस्त कान भी शब्दों का अर्थ जानने मात्र से देशी गानों या लोकगीत का सुख ले सकते हैं। इससे अनेक लोग स्वाभाविक ही ऊब भी जाते हैं पर इसके ऊबने का कारण उस संगीतज्ञ की कमजोरी नहीं, लोगों में जानकारी की कमी है। .

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जयपुर-अतरौली घराना

अलीगढ़ के निकट स्थित अतरौली नामक गांव में काली खां तथा चांद खां नामक भाइयों द्वारा स्थापित यह घराना धुपद गायकी के लिए प्रसिद्ध है।इस घराने के संगीत कारों में छज्जू खां,हुसैन खां,खैराती खां आदी हैं।.

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घराना

कोई विवरण नहीं।

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ग्वालियर घराना

हस्सू, हद्दू खाँ के दादा नत्थन पीरबख्श को इस घराने का जन्मदाता कहा जाता है। दिल्लीके राजा ने इनको अपने पास बुला लिया था। इनके दो पुत्र थे--ः?कादिर बख्श"' और ः?पीर बख्श"' इनमें कादिर बख्श को ग्वालियर के महाराज दौलत राव जी ने अपने राज्य में नौकर रख लिया था। कादिर बख्श के तीन पुत्र थे जिनके नाम इस प्रकार हैं--हद्दू खाँ, हस्सू खाँ और नत्थू खाँ। ये तीनों भाई मशहूर ख्याल गाने वाले और ग्वालियर राज्य के दरबारी उस्ताद थे। इसी परम्परा के शिष्य बालकृष्ण बुआ इचलकरजीकर थे। इनके शिष्य पं॰ विष्णु दिगम्बर पलुस्कर थे। पलुस्कर जी के प्रसिद्ध शिष्य ओंकारनाथ ठाकुर, विनायक राव पटवर्धन, नारायण राव व्यास तथा वी.ऐ. क्शालकर हुए जिन्होंने भारतीय शास्त्रीय संगीत का खूब प्रचार किया। नत्थू खाँ ग्वालियर महाराज जियाजी राव शिंदे के गुरु थे। इनके दत्तक पुत्र निसार हुसेन खाँ थे। इन्होंने नत्थू खाँ से ही शिक्षा प्राप्त की थी। नत्थू खाँ के बाद ग्वालियर महाराज ने ः?निसार हुसेन"' को अपने दरबार में रखा। इनकी शिष्य-परम्परा इस प्रकार है--शंकर राव पंडित, भाऊ राव जोशी, राम कृष्ण बझे इत्यादि। शंकर राव पंडित के पुत्र कृष्ण राव शंकर पंडित तथा शिष्य राजा भैया पूंछवाले, रामपुर के प्रसिद्ध मुस्ताक हुसेन भी इसी घरानेके गायक थे। ग्वालियर घराने की शैली की .

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आगरा घराना

आगरा घराने के जन्मदाता तानसेन के दामाद हाजी सुजान साहब थे। आगरा घराने में जिन्होंने पूरे देश में ख्याति प्राप्त की उनका नाम था उस्ताद फैयाज खाँ। इनकी आवाज़ बड़ी दमदार थी और महफिल में अपना अनोखा रंग जमा देते थे। .

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किराना घराना

किराना घराना भारतीय शास्त्रीय संगीत और गायन की हिंदुस्तानी ख़याल गायकी की परंपरा को वहन करने वाले हिंदुस्तानी घरानों में से एक है। किराना घराने का नामकरण उत्तर प्रदेश के मुज़फ्फरनगर जिले के एक तहसील कस्बा कैराना (जो की अब जिला शामली में हैं)से हुआ माना जाता है। यह उस्ताद अब्दुल करीम खाँ (१८७२-१९३७) का जन्मस्थान भी है, जो बीसवीं सदी में किराना शैली के सर्वाधिक महत्वपूर्ण भारतीय संगीतज्ञ थे। इन्हें किराना घराने का वास्तविक संस्थापक माना जाता है। उस्ताद करीम खाँ कर्णाटक संगीत शैली में भी पारंगत थे। इनका मैसूर दरबार से गहरा संबंध था। .

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