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खारवेल

सूची खारवेल

खारवेल (193 ईसापूर्व) कलिंग (वर्तमान ओडिशा) में राज करने वाले महामेघवाहन वंश का तृतीय एवं सबसे महान तथा प्रख्यात सम्राट था। खारवेल के बारे में सबसे महत्वपूर्ण जानकारी हाथीगुम्फा में चट्टान पर खुदी हुई सत्रह पंक्तियों वाला प्रसिद्ध शिलालेख है। हाथीगुम्फा, भुवनेश्वर के निकट उदयगिरि पहाड़ियों में है। इस शिलालेख के अनुसार यह जैन धर्म का अनुयायी था। उसने पंडितों की एक विराट् सभा का भी आयोजन किया था, ऐसा उक्त प्रशस्ति से प्रकट होता है। इसके समय के संबंध में मतभेद है। उसकी प्रशस्ति शिलालेख में जो संकेत उपलब्ध हैं उनके आधार पर कुछ विद्वान् उसका समय ईसा पूर्व दूसरी शती में मानते हैं और कुछ उसे ईसा पूर्व की प्रथम शती में रखते हैं। किंतु खारवेल को ईसा पूर्व पहली शताब्दी के उत्तरार्ध में रखनेवाले विद्वानों की संख्या बढ़ रहीं है। .

21 संबंधों: दुर्ग, नृत्य, बुन्देलखण्ड, भुवनेश्वर, मथुरा, महामेघवाहन वंश, मगध महाजनपद, मौर्य राजवंश, राजसूय, सम्राट्, संगीत, सेनापति, हाथीगुम्फा शिलालेख, जैन धर्म, विदर्भ, खण्डगिरि, ओडिशा, कलिंग, कृष्णा, अभिलेख, उदयगिरि

दुर्ग

दुर्ग छत्तीसगढ़ प्रान्त के 27 जिलो मे तीसरा सबसे बड़ा जिला है। दुर्ग जिले के मुख्य शहर भिलाई और दुर्ग को सम्मिलित रूप से टि्वन सिटी कहा जाता है। भिलाई में लौह इस्पात संयंत्र की स्थापना के साथ ही दुर्ग का महत्व काफी बढ़ गया। शिवनाथ नदी के पूर्वी तट पर स्थित दुर्ग शहर के बीचोबीच से राष्ट्रीय राजमार्ग ६ (कोलकाता-मुंबई) गुजरती है। टि्वनसिटी के तौर पर दुर्ग-भिलाई शैक्षणिक और खेल केंद्र के रूप में न केवल प्रदेश में बल्कि देश में अपना स्थान रखता है। श्रेणी:छत्तीसगढ़ के नगर.

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नृत्य

भारतीय नृत्यनृत्य भी मानवीय अभिव्यक्तियों का एक रसमय प्रदर्शन है। यह एक सार्वभौम कला है, जिसका जन्म मानव जीवन के साथ हुआ है। बालक जन्म लेते ही रोकर अपने हाथ पैर मार कर अपनी भावाभिव्यक्ति करता है कि वह भूखा है- इन्हीं आंगिक -क्रियाओं से नृत्य की उत्पत्ति हुई है। यह कला देवी-देवताओं- दैत्य दानवों- मनुष्यों एवं पशु-पक्षियों को अति प्रिय है। भारतीय पुराणों में यह दुष्ट नाशक एवं ईश्वर प्राप्ति का साधन मानी गई है। अमृत मंथन के पश्चात जब दुष्ट राक्षसों को अमरत्व प्राप्त होने का संकट उत्पन्न हुआ तब भगवान विष्णु ने मोहिनी का रूप धारण कर अपने लास्य नृत्य के द्वारा ही तीनों लोकों को राक्षसों से मुक्ति दिलाई थी। इसी प्रकार भगवान शंकर ने जब कुटिल बुद्धि दैत्य भस्मासुर की तपस्या से प्रसन्न होकर उसे वरदान दिया कि वह जिसके ऊपर हाथ रखेगा वह भस्म हो जाए- तब उस दुष्ट राक्षस ने स्वयं भगवान को ही भस्म करने के लिये कटिबद्ध हो उनका पीछा किया- एक बार फिर तीनों लोक संकट में पड़ गये थे तब फिर भगवान विष्णु ने मोहिनी का रूप धारण कर अपने मोहक सौंदर्यपूर्ण नृत्य से उसे अपनी ओर आकृष्ट कर उसका वध किया। भारतीय संस्कृति एवं धर्म की आरंभ से ही मुख्यत- नृत्यकला से जुड़े रहे हैं। देवेन्द्र इन्द्र का अच्छा नर्तक होना- तथा स्वर्ग में अप्सराओं के अनवरत नृत्य की धारणा से हम भारतीयों के प्राचीन काल से नृत्य से जुड़ाव की ओर ही संकेत करता है। विश्वामित्र-मेनका का भी उदाहरण ऐसा ही है। स्पष्ट ही है कि हम आरंभ से ही नृत्यकला को धर्म से जोड़ते आए हैं। पत्थर के समान कठोर व दृढ़ प्रतिज्ञ मानव हृदय को भी मोम सदृश पिघलाने की शक्ति इस कला में है। यही इसका मनोवैज्ञानिक पक्ष है। जिसके कारण यह मनोरंजक तो है ही- धर्म- अर्थ- काम- मोक्ष का साधन भी है। स्व परमानंद प्राप्ति का साधन भी है। अगर ऐसा नहीं होता तो यह कला-धारा पुराणों- श्रुतियों से होती हुई आज तक अपने शास्त्रीय स्वरूप में धरोहर के रूप में हम तक प्रवाहित न होती। इस कला को हिन्दु देवी-देवताओं का प्रिय माना गया है। भगवान शंकर तो नटराज कहलाए- उनका पंचकृत्य से संबंधित नृत्य सृष्टि की उत्पत्ति- स्थिति एवं संहार का प्रतीक भी है। भगवान विष्णु के अवतारों में सर्वश्रेष्ठ एवं परिपूर्ण कृष्ण नृत्यावतार ही हैं। इसी कारण वे 'नटवर' कृष्ण कहलाये। भारतीय संस्कृति एवं धर्म के इतिहास में कई ऐसे प्रमाण मिलते हैं कि जिससे सफल कलाओं में नृत्यकला की श्रेष्ठता सर्वमान्य प्रतीत होती है। .

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बुन्देलखण्ड

बुन्देलखण्ड मध्य भारत का एक प्राचीन क्षेत्र है।इसका प्राचीन नाम जेजाकभुक्ति है.

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भुवनेश्वर

भुवनेश्वर (भुबनेस्वर भी) ओडिशा की राजधानी है। यंहा के निकट कोणार्क में विश्व प्रसिद्ध सूर्य मंदिर स्थित है। भुवनेश्‍वर भारत के पूर्व में स्थित ओडिशा राज्‍य की राजधानी है। यह बहुत ही खूबसूरत और हरा-भरा प्रदेश है। यहां की प्राकृतिक सुंदरता देखते ही बनती है। यह जगह इतिहास में भी अपना महत्‍वपूर्ण स्‍थान रखता है। तीसरी शताब्‍दी ईसा पूर्व में यहीं प्रसिद्ध कलिंग युद्ध हुआ था। इसी युद्ध के परिणामस्‍वरुप अशोक एक लड़ाकू योद्धा से प्रसिद्ध बौद्ध अनुयायी के रूप में परिणत हो गया था। भुवनेश्‍वर को पूर्व का काशी भी कहा जाता है। लेकिन बहुत कम लोगों को पता है कि यह एक प्रसिद्ध बौद्ध स्‍थल भी रहा है। प्राचीन काल में 1000 वर्षों तक बौद्ध धर्म यहां फलता-फूलता रहा है। बौद्ध धर्म की तरह जैनों के लिए भी यह जगह काफी महत्‍वपूर्ण है। प्रथम शताब्‍दी में यहां चेदी वंश का एक प्रसिद्ध जैन राजा खारवेल' हुए थे। इसी तरह सातवीं शताब्‍दी में यहां प्रसिद्ध हिंदू मंदिरों का निर्माण हुआ था। इस प्रकार भुवनेश्‍वर वर्तमान में एक बहुसांस्‍कृतिक शहर है। ओडिशा की इस वर्तमान राजधानी का निमार्ण इंजीनियरों और वास्‍तुविदों ने उपयोगितावादी सिद्धांत के आधार पर किया है। इस कारण नया भुवनेश्‍वर प्राचीन भुवनेश्‍वर के समान बहुत सुंदर तथा भव्‍य नहीं है। यहां आश्‍चर्यजनक मंदिरों तथा गुफाओं के अलावा कोई अन्‍य सांस्‍कृतिक स्‍थान देखने योग्‍य नहीं है। .

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मथुरा

मथुरा उत्तरप्रदेश प्रान्त का एक जिला है। मथुरा एक ऐतिहासिक एवं धार्मिक पर्यटन स्थल के रूप में प्रसिद्ध है। लंबे समय से मथुरा प्राचीन भारतीय संस्कृति एवं सभ्यता का केंद्र रहा है। भारतीय धर्म,दर्शन कला एवं साहित्य के निर्माण तथा विकास में मथुरा का महत्त्वपूर्ण योगदान सदा से रहा है। आज भी महाकवि सूरदास, संगीत के आचार्य स्वामी हरिदास, स्वामी दयानंद के गुरु स्वामी विरजानंद, कवि रसखान आदि महान आत्माओं से इस नगरी का नाम जुड़ा हुआ है। मथुरा को श्रीकृष्ण जन्म भूमि के नाम से भी जाना जाता है। .

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महामेघवाहन वंश

भुवनेश्वर के समीप उदयगिरि पहाड़ी पर हाथीगुंफा के अभिलेख से कलिंग में एक चेति (चेदि) राजवंश का इतिहास ज्ञात होता है। यह वंश अपने को प्राचीन चेदि नरेश वसु की संतति (वसु-उपरिचर) कहता है। कलिंग में इस वंश की स्थापना संभवत: महामेघवाहन ने की थी जिसके नाम पर इस वंश के नरेश महामेघवाहन भी कहलाते थे। खारवेल, जिसके समय में हाथीगुंफा का अभिलेख उत्कीर्ण हुआ इस वंश की तीसरी पीढ़ी में था। महामेघवाहन और खारवेल के बीच का इतिहास अज्ञात है। महाराज वक्रदेव, जिसके समय में उदयगिरि पहाड़ी की मंचपुरी गुफा का निचला भाग बना, इस राजवंश की संभवत: दूसरी पीढ़ी में था और खारवेल का पिता था। .

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मगध महाजनपद

मगध प्राचीन भारत के 16 महाजनपदों में से एक था। आधुनिक पटना तथा गया ज़िला इसमें शामिल थे। इसकी राजधानी गिरिव्रज (वर्तमान राजगीर) थी। भगवान बुद्ध के पूर्व बृहद्रथ तथा जरासंध यहाँ के प्रतिष्ठित राजा थे। अभी इस नाम से बिहार में एक प्रंमडल है - मगध प्रमंडल। (२) सुमसुमार पर्वत के भाग, (३) केसपुत्र के कालाम, (४) रामग्राम के कोलिय, (५) कुशीमारा के मल्ल, (६) पावा के मल्ल, (७) पिप्पलिवन के मौर्य, (८) आयकल्प के बुलि, (९) वैशाली के लिच्छवि, (१०) मिथिला के विदेह। -- .

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मौर्य राजवंश

मौर्य राजवंश (३२२-१८५ ईसापूर्व) प्राचीन भारत का एक शक्तिशाली एवं महान राजवंश था। इसने १३७ वर्ष भारत में राज्य किया। इसकी स्थापना का श्रेय चन्द्रगुप्त मौर्य और उसके मन्त्री कौटिल्य को दिया जाता है, जिन्होंने नन्द वंश के सम्राट घनानन्द को पराजित किया। मौर्य साम्राज्य के विस्तार एवं उसे शक्तिशाली बनाने का श्रेय सम्राट अशोक को जाता है। यह साम्राज्य पूर्व में मगध राज्य में गंगा नदी के मैदानों (आज का बिहार एवं बंगाल) से शुरु हुआ। इसकी राजधानी पाटलिपुत्र (आज के पटना शहर के पास) थी। चन्द्रगुप्त मौर्य ने ३२२ ईसा पूर्व में इस साम्राज्य की स्थापना की और तेजी से पश्चिम की तरफ़ अपना साम्राज्य का विकास किया। उसने कई छोटे छोटे क्षेत्रीय राज्यों के आपसी मतभेदों का फायदा उठाया जो सिकन्दर के आक्रमण के बाद पैदा हो गये थे। ३१६ ईसा पूर्व तक मौर्य वंश ने पूरे उत्तरी पश्चिमी भारत पर अधिकार कर लिया था। चक्रवर्ती सम्राट अशोक के राज्य में मौर्य वंश का बेहद विस्तार हुआ। सम्राट अशोक के कारण ही मौर्य साम्राज्य सबसे महान एवं शक्तिशाली बनकर विश्वभर में प्रसिद्ध हुआ। .

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राजसूय

राजसूय वैदिक काल का विख्यात यज्ञ है। इसे कोई भी राजा चक्रवती सम्राट बनने के लिए किया करते थे। यह एक वैदिक यज्ञ है जिसका वर्णन यजुर्वेद में मिलता है। इस यज्ञ की विधी यह है की जिस किसी भी राजा को चक्रचती सम्राट बनना होता था वह राजसूय यज्ञ संपन्न कराकर एक अश्व (घोड़ा) छोड़ दिया करता था। वह घोड़ा अलग-अलग राज्यों और प्रदेशों में फिरता रहता था। उस अश्व के पीछे-पीछे गुप्त रूप से राजसूय यज्ञ कराने वाले राजा के कुछ सैनिक भी हुआ करते थे। जब वह अश्व किसी राज्य से होकर जाता और उस राज्य का राजा उस अश्व को पकड़ लेता था तो उसे उस अश्व के राजा से युद्ध करना होता था और अपनी वीरता प्रदर्शित करनी होती थी और यदि कोई राजा उस अश्व को नहीं पकड़ता था तो इसका अर्थ यह था की वह राजा उस राजसूय अश्व के राजा को नमन करता है और उस राज्य के राजा की छत्रछाया में रहना स्वीकार करता है। रामायण काल में श्रीराम और महाभारत काल में महाराज युधिष्ठिर द्वारा यह यज्ञ किया गया था। .

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सम्राट्

सम्राट् (या, सम्राज्) प्राचीन भारतीय राजाओं का एक पद था। स्त्री के लिए संगत पद सम्राज्ञी था। यह शब्द विभिन्न वैदिक देवताओं के विशेषण के रूप में भी प्रयुक्त हुआ है। .

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संगीत

नेपाल की नुक्कड़ संगीत-मण्डली द्वारा पारम्परिक संगीत सुव्यवस्थित ध्वनि, जो रस की सृष्टि करे, संगीत कहलाती है। गायन, वादन व नृत्य ये तीनों ही संगीत हैं। संगीत नाम इन तीनों के एक साथ व्यवहार से पड़ा है। गाना, बजाना और नाचना प्रायः इतने पुराने है जितना पुराना आदमी है। बजाने और बाजे की कला आदमी ने कुछ बाद में खोजी-सीखी हो, पर गाने और नाचने का आरंभ तो न केवल हज़ारों बल्कि लाखों वर्ष पहले उसने कर लिया होगा, इसमें संदेह नहीं। गान मानव के लिए प्राय: उतना ही स्वाभाविक है जितना भाषण। कब से मनुष्य ने गाना प्रारंभ किया, यह बतलाना उतना ही कठिन है जितना कि कब से उसने बोलना प्रारंभ किया। परंतु बहुत काल बीत जाने के बाद उसके गान ने व्यवस्थित रूप धारण किया। जब स्वर और लय व्यवस्थित रूप धारण करते हैं तब एक कला का प्रादुर्भाव होता है और इस कला को संगीत, म्यूजिक या मौसीकी कहते हैं। .

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सेनापति

कोई विवरण नहीं।

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हाथीगुम्फा शिलालेख

हाथीगुफा हाथीगुफा में खाववेल का शिलालेख मौर्य वंश की शक्ति के शिथिल होने पर जब मगध साम्राज्य के अनेक सुदूरवर्ती प्रदेश मौर्य सम्राटों की अधीनता से मुक्त होने लगे, तो कलिंग भी स्वतंत्र हो गया। उड़ीसा के भुवनेश्वर नामक स्थान से तीन मील दूर उदयगिरि नाम की पहाड़ी है, जिसकी एक गुफ़ा में एक शिलालेख उपलब्ध हुआ है, जो 'हाथीगुम्फा शिलालेख' के नाम से प्रसिद्ध है। इसे कलिंगराज खारवेल ने उत्कीर्ण कराया था। यह लेख प्राकृत भाषा में है और प्राचीन भारतीय इतिहास के लिए इसका बहुत अधिक महत्त्व है। इसके अनुसार कलिंग के स्वतंत्र राज्य के राजा प्राचीन 'ऐल वंश' के चेति या चेदि क्षत्रिय थे। चेदि वंश में 'महामेधवाहन' नाम का प्रतापी राजा हुआ, जिसने मौर्यों की निर्बलता से लाभ उठाकर कलिंग में अपना स्वतंत्र शासन स्थापित किया। महामेधवाहन की तीसरी पीढ़ी में खारवेल हुआ, जिसका वृत्तान्त हाथीगुम्फा शिलालेख में विशद के रूप से उल्लिखित है। खारवेल जैन धर्म का अनुयायी था और सम्भवतः उसके समय में कलिंग की बहुसंख्यक जनता भी वर्धमान महावीर के धर्म को अपना चुकी थी। हाथीगुम्फा के शिलालेख (प्रशस्ति) के अनुसार खारवेल के जीवन के पहले पन्द्रह वर्ष विद्या के अध्ययन में व्यतीत हुए। इस काल में उसने धर्म, अर्थ, शासन, मुद्रापद्धति, क़ानून, शस्त्रसंचालन आदि की शिक्षा प्राप्त की। पन्द्रह साल की आयु में वह युवराज के पद पर नियुक्त हुआ और नौ वर्ष तक इस पद पर रहने के उपरान्त चौबीस वर्ष की आयु में वह कलिंग के राजसिंहासन पर आरूढ़ हुआ। राजा बनने पर उसने 'कलिंगाधिपति' और 'कलिंग चक्रवर्ती' की उपाधियाँ धारण कीं। राज्याभिषेक के दूसरे वर्ष उसने पश्चिम की ओर आक्रमण किया और राजा सातकर्णि की उपेक्षा कर कंहवेना (कृष्णा नदी) के तट पर स्थित मूसिक नगर को उसने त्रस्त किया। सातकर्णि सातवाहन राजा था और आंध्र प्रदेश में उसका स्वतंत्र राज्य विद्यमान था। मौर्यों की अधीनता से मुक्त होकर जो प्रदेश स्वतंत्र हो गए थे, आंध्र भी उनमें से एक था। अपने शासनकाल के चौथे वर्ष में खारवेल ने एक बार फिर पश्चिम की ओर आक्रमण किया और भोजकों तथा रठिकों (राष्ट्रिकों) को अपने अधीन किया। भोजकों की स्थिति बरार के क्षेत्र में थी और रठिकों की पूर्वी ख़ानदेश व अहमदनगर में। रठिक-भोजक सम्भवतः ऐसे क्षत्रिय कुल थे, प्राचीन अन्धक-वृष्णियों के समान जिनके अपने गणराज्य थे। ये गणराज्य सम्भवतः सातवाहनों की अधीनता स्वीकृत करते थे। .

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जैन धर्म

जैन ध्वज जैन धर्म भारत के सबसे प्राचीन धर्मों में से एक है। 'जैन धर्म' का अर्थ है - 'जिन द्वारा प्रवर्तित धर्म'। जो 'जिन' के अनुयायी हों उन्हें 'जैन' कहते हैं। 'जिन' शब्द बना है 'जि' धातु से। 'जि' माने - जीतना। 'जिन' माने जीतने वाला। जिन्होंने अपने मन को जीत लिया, अपनी वाणी को जीत लिया और अपनी काया को जीत लिया और विशिष्ट ज्ञान को पाकर सर्वज्ञ या पूर्णज्ञान प्राप्त किया उन आप्त पुरुष को जिनेश्वर या 'जिन' कहा जाता है'। जैन धर्म अर्थात 'जिन' भगवान्‌ का धर्म। अहिंसा जैन धर्म का मूल सिद्धान्त है। जैन दर्शन में सृष्टिकर्ता कण कण स्वतंत्र है इस सॄष्टि का या किसी जीव का कोई कर्ता धर्ता नही है।सभी जीव अपने अपने कर्मों का फल भोगते है।जैन धर्म के ईश्वर कर्ता नही भोगता नही वो तो जो है सो है।जैन धर्म मे ईश्वरसृष्टिकर्ता इश्वर को स्थान नहीं दिया गया है। जैन ग्रंथों के अनुसार इस काल के प्रथम तीर्थंकर ऋषभदेव आदिनाथ द्वारा जैन धर्म का प्रादुर्भाव हुआ था। जैन धर्म की अत्यंत प्राचीनता करने वाले अनेक उल्लेख अ-जैन साहित्य और विशेषकर वैदिक साहित्य में प्रचुर मात्रा में हैं। .

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विदर्भ

विदर्भ महाराष्ट्र प्रांत का एक उपक्षेत्र है। इस उपक्षेत्र में कुल 11 जिले है। महाराष्ट्र में कोयला खदान और मूल्यवान मँगणिज कि खदाने विदर्भ में हि बहुतायत में पाये जाते हैं। कोयला खदानो कि वजह से हि विदर्भ में चंद्रपूर,कोराडी, खापरखेडा, मौदा और तिरोडा में औष्णिक विद्युत निर्माण संयंत्र पाये जाते हैं जिससे संपुर्ण महाराष्ट्र विद्युत आपूर्ती में लाभान्वित होता है। इसके अलावा महाराष्ट्र कि ज्यादातर वनसंपदा विदर्भ क्षेत्र में हि मौजूद है। इसके व्यतिरिक्त चावल उत्पादन में तुमसर मंडी विदर्भ में हि है जो महाराष्ट्र में सबसे बड़ी कृषी उत्पाद कि मंडी का सम्मान पाती है। प्रसिद्ध बासमती चावल का उत्पादन भी इसी क्षेत्र में होता है। विदर्भ के हि चंद्रपूर जिले में महाराष्ट्र के कुल सिमेंट कारखानो में सर्वाधिक कारखाने अकेले चंद्रपूर जिले में है। विदर्भ में मराठी और हिन्दी बोली जाती हैं। श्रेणी:महाराष्ट्र का भूगोल.

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खण्डगिरि

खंडगिरि का गुफा मठ उड़ीसा में भुवनेश्वर से सात मील दूर पश्चिमोत्तर में उदयगिरि के निकट की पहाड़ी खण्डगिरि कहलाती है। खण्डगिरि का शिखर 123 फुट उँचा है, जो आस-पास की पहाड़ियों में सबसे ऊँचा है। कलिंग नरेश खारवेल का प्रसिद्ध हाथी गुम्फा अभिलेख खण्डगिरि से कुछ ही दूरी पर है। खण्डगिरि की गुफाएँ जैन सम्प्रदाय से सम्बन्धित हैं। ये गुफाएँ लगभग प्रथम शताब्दी ईसा पूर्व में निर्मित की गई मालूम पड़ती हैं। खण्डगिरि और इससे संबद्ध उदयगिरि में उत्खनित जैन लयण (गुफाएँ) हैं। खंडगिरि स्थित लयणों की संख्या १९ है। इसी प्रकार उदयगिरि में ४४ और नीलगिरि में ३ गुफाएँ हैं। ये सभी ईसापूर्व दूसरी-पहली शती की अनुमान की जाती है। उनके अनेक भागों में मूर्तियों का उच्चित्रण हुआ है। इन गुफाओं में सबसे प्रख्यात हाथी गुंफा है जिसके ऊपर महामेघवाहन खारवेल की प्रशस्ति अंकित है जो ऐतिहासिक दृष्टि से बड़े महत्व का है।; खण्डगिरि की गुफाएँ.

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ओडिशा

ओड़िशा, (ओड़िआ: ଓଡ଼ିଶା) जिसे पहले उड़ीसा के नाम से जाना जाता था, भारत के पूर्वी तट पर स्थित एक राज्य है। ओड़िशा उत्तर में झारखंड, उत्तर पूर्व में पश्चिम बंगाल दक्षिण में आंध्र प्रदेश और पश्चिम में छत्तीसगढ से घिरा है तथा पूर्व में बंगाल की खाड़ी है। यह उसी प्राचीन राष्ट्र कलिंग का आधुनिक नाम है जिसपर 261 ईसा पूर्व में मौर्य सम्राट अशोक ने आक्रमण किया था और युद्ध में हुये भयानक रक्तपात से व्यथित हो अंतत: बौद्ध धर्म अंगीकार किया था। आधुनिक ओड़िशा राज्य की स्थापना 1 अप्रैल 1936 को कटक के कनिका पैलेस में भारत के एक राज्य के रूप में हुई थी और इस नये राज्य के अधिकांश नागरिक ओड़िआ भाषी थे। राज्य में 1 अप्रैल को उत्कल दिवस (ओड़िशा दिवस) के रूप में मनाया जाता है। क्षेत्रफल के अनुसार ओड़िशा भारत का नौवां और जनसंख्या के हिसाब से ग्यारहवां सबसे बड़ा राज्य है। ओड़िआ भाषा राज्य की अधिकारिक और सबसे अधिक बोली जाने वाली भाषा है। भाषाई सर्वेक्षण के अनुसार ओड़िशा की 93.33% जनसंख्या ओड़िआ भाषी है। पाराद्वीप को छोड़कर राज्य की अपेक्षाकृत सपाट तटरेखा (लगभग 480 किमी लंबी) के कारण अच्छे बंदरगाहों का अभाव है। संकीर्ण और अपेक्षाकृत समतल तटीय पट्टी जिसमें महानदी का डेल्टा क्षेत्र शामिल है, राज्य की अधिकांश जनसंख्या का घर है। भौगोलिक लिहाज से इसके उत्तर में छोटानागपुर का पठार है जो अपेक्षाकृत कम उपजाऊ है लेकिन दक्षिण में महानदी, ब्राह्मणी, सालंदी और बैतरणी नदियों का उपजाऊ मैदान है। यह पूरा क्षेत्र मुख्य रूप से चावल उत्पादक क्षेत्र है। राज्य के आंतरिक भाग और कम आबादी वाले पहाड़ी क्षेत्र हैं। 1672 मीटर ऊँचा देवमाली, राज्य का सबसे ऊँचा स्थान है। ओड़िशा में तीव्र चक्रवात आते रहते हैं और सबसे तीव्र चक्रवात उष्णकटिबंधीय चक्रवात 05बी, 1 अक्टूबर 1999 को आया था, जिसके कारण जानमाल का गंभीर नुकसान हुआ और लगभग 10000 लोग मृत्यु का शिकार बन गये। ओड़िशा के संबलपुर के पास स्थित हीराकुंड बांध विश्व का सबसे लंबा मिट्टी का बांध है। ओड़िशा में कई लोकप्रिय पर्यटक स्थल स्थित हैं जिनमें, पुरी, कोणार्क और भुवनेश्वर सबसे प्रमुख हैं और जिन्हें पूर्वी भारत का सुनहरा त्रिकोण पुकारा जाता है। पुरी के जगन्नाथ मंदिर जिसकी रथयात्रा विश्व प्रसिद्ध है और कोणार्क के सूर्य मंदिर को देखने प्रतिवर्ष लाखों पर्यटक आते हैं। ब्रह्मपुर के पास जौगदा में स्थित अशोक का प्रसिद्ध शिलालेख और कटक का बारबाटी किला भारत के पुरातात्विक इतिहास में महत्वपूर्ण हैं। .

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कलिंग

कलिंग का प्रभाव क्षेत्र कलिंग भारत का एक राज्य था। यह वर्तमान ओडिशा राज्य का भाग था। यह एक शक्तिशाली साम्राज्य रहा है। श्रेणी:दक्षिण भारत श्रेणी:भारत का इतिहास.

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कृष्णा

कोई विवरण नहीं।

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अभिलेख

कंधार स्थित सम्राट अशोक के द्वारा उत्कीर्ण एक पाषाण अभिलेख अभिलेख पत्थर अथवा धातु जैसी अपेक्षाकृत कठोर सतहों पर उत्कीर्ण किये गये पाठन सामाग्री को कहते है। प्राचीन काल से इसका उपयोग हो रहा है। शासको के द्वारा अपने आदेशो को इस तरह उत्कीर्ण करवाते थे, ताकि लोग उन्हे देख सके एवं पढ़ सके और पालन कर सके। आधुनिक युग मे भी इसका उपयोग हो रहा है। .

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उदयगिरि

उदयगिरि विदिशा से वैसनगर होते हुए पहुँचा जा सकता है। नदी से यह गिरि लगभग १ मील की दूरी पर है। पहाड़ी के पूरब की तरफ पत्थरों को काटकर गुफाएँ बनाई गई हैं। इन गुफाओं में प्रस्तर- मूर्तियों के प्रमाण मिलते हैं, जो भारतीय मूर्तिकला के इतिहास में मील का पत्थर माना जाता है। उत्खनन से प्राप्त ध्वंसावशेष अपनी अलग कहानी कहते हैं। उदयगिरि को पहले नीचैगिरि के नाम से जाना जाता था। कालिदास ने भी इसे इसी नाम से संबोधित किया है। १० वीं शताब्दी में जब विदिशा धार के परमारों के हाथ में आ गया, तो राजा भोज के पौत्र उदयादित्य ने अपने नाम से इस स्थान का नाम उदयगिरि रख दिया। .

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