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केंचुआ खाद

सूची केंचुआ खाद

केंचुआ खाद ('रोटरी स्क्रीन विधि' से निर्मित) केंचुआ खाद या वर्मीकम्पोस्ट (Vermicompost) पोषण पदार्थों से भरपूर एक उत्तम जैव उर्वरक है। यह केंचुआ आदि कीड़ों के द्वारा वनस्पतियों एवं भोजन के कचरे आदि को विघटित करके बनाई जाती है। वर्मी कम्पोस्ट में बदबू नहीं होती है और मक्खी एवं मच्छर नहीं बढ़ते है तथा वातावरण प्रदूषित नहीं होता है। तापमान नियंत्रित रहने से जीवाणु क्रियाशील तथा सक्रिय रहते हैं। वर्मी कम्पोस्ट डेढ़ से दो माह के अंदर तैयार हो जाता है। इसमें 2.5 से 3% नाइट्रोजन, 1.5 से 2% सल्फर तथा 1.5 से 2% पोटाश पाया जाता है। केंचुआ खाद की विशेषताएँ: इस खाद में बदबू नहीं होती है, तथा मक्खी, मच्छर भी नहीं बढ़ते है जिससे वातावरण स्वस्थ रहता है। इससे सूक्ष्म पोषित तत्वों के साथ-साथ नाइट्रोजन 2 से 3 प्रतिशत, फास्फोरस 1 से 2 प्रतिशत, पोटाश 1 से 2 प्रतिशत मिलता है।.

9 संबंधों: नाइट्रोजन, पोटैशियम, फास्फोरस, सूक्ष्मजीव, जैव उर्वरक, जैविक खेती, वर्मी वाश, कैल्सियम, केंचुआ

नाइट्रोजन

नाइट्रोजन (Nitrogen), भूयाति या नत्रजन एक रासायनिक तत्व है जिसका प्रतीक N है। इसका परमाणु क्रमांक 7 है। सामान्य ताप और दाब पर यह गैस है तथा पृथ्वी के वायुमण्डल का लगभग 78% नाइट्रोजन ही है। यह सर्वाधिक मात्रा में तत्व के रूप में उपलब्ब्ध पदार्थ भी है। यह एक रंगहीन, गंधहीन, स्वादहीन और प्रायः अक्रिय गैस है। इसकी खोज 1772 में स्कॉटलैण्ड के वैज्ञनिक डेनियल रदरफोर्ड ने की थी। आवर्त सारणी के १५ वें समूह का प्रथम तत्व है। नाइट्रोजन का रसायन अत्यंत मनोरंजक विषय है, क्योंकि समस्त जैव पदार्थों में इस तत्व का आवश्यक स्थान है। इसके दो स्थायी समस्थानिक, द्रव्यमान संख्या 14, 15 ज्ञात हैं तथा तीन अस्थायी समस्थानिक (द्रव्यमान संख्या 13, 16, 17) भी बनाए गए हैं। नाइट्रोजन तत्व की पहचान सर्वप्रथम 1772 ई. में रदरफोर्ड और शेले ने स्वतंत्र रूप से की। शेले ने उसी वर्ष यह स्थापित किया कि वायु में मुख्यत: दो गैसें उपस्थित हैं, जिसमें एक सक्रिय तथा दूसरी निष्क्रिय है। तभी प्रसिद्ध फ्रांसीसी वैज्ञानिक लाव्वाज़्ये ने नाइट्रोजन गैस को ऑक्सीजन (सक्रिय अंश) से अलग कर इसका नाम 'ऐजोट' रखा। 1790 में शाप्टाल (Chaptal) ने इसे नाइट्रोजन नाम दिया। .

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पोटैशियम

पोटैशियम पोटैशियम (Potassium) एक रासायनिक तत्व है। इसका प्रतीक 'K' है। यह आर्वत सारणी के प्रथम मुख्य समूह का तत्व है। इसके दो स्थिर समस्थानिक (द्रव्यमान संख्या ३९ और ४१) ज्ञात हैं। एक अस्थिर समस्थानिक (द्रव्यमान संख्या ४०) प्रकृति में न्यून मात्रा में पाया जाता है। इनके अतिरिक्त तीन अन्य समस्थानिक (द्रव्यमान संख्या ३८, ४२ और ४३) कृत्रिम रूप से निर्मित हुए हैं। .

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फास्फोरस

‎भास्वर (फ़ॉस्फ़ोरस) एक रासायनिक तत्व है जिसका संकेत या P है तथा परमाणु संख्या 15। यह शब्द ग्रीक (यूनानी) भाषा के फॉस (प्रकाश) तथा फोरस (धारक) से मिलकर बना है जिसका शाब्दिक अर्थ हुआ प्रकाश का धारक। ये फॉस्फेट चट्टानों में पाया जाता है। इसकी संयोजकता 1, 3 और 5 होती है। तत्वों की आवर्त सारणी में ये भूयाति के समूह में आता है। ‎फ़ॉस्फ़ोरस एक अभिक्रियाशील तत्व है इसकारण ये मुक्त अवस्था में नहीं पाया जाता है। कुछ खनिजों में धातुओं के फॉस्फेट मिलते हैं। पशुओं की हड्डियों में 56% कैल्शियम फॉस्फेट पाया जाता है। जन्तुओं तथा पौधों के लिए यह एक अनिवार्य तत्व है। इसका अस्तित्व कई जैव अवयवों में मिलता है। .

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सूक्ष्मजीव

जीवाणुओं का एक झुंड वे जीव जिन्हें मनुष्य नंगी आंखों से नही देख सकता तथा जिन्हें देखने के लिए सूक्ष्मदर्शी यंत्र की आवश्यकता पड़ता है, उन्हें सूक्ष्मजीव (माइक्रोऑर्गैनिज्म) कहते हैं। सूक्ष्मजैविकी (microbiology) में सूक्ष्मजीवों का अध्ययन किया जाता है। सूक्ष्मजीवों का संसार अत्यन्त विविधता से बह्रा हुआ है। सूक्ष्मजीवों के अन्तर्गत सभी जीवाणु (बैक्टीरिया) और आर्किया तथा लगभग सभी प्रोटोजोआ के अलावा कुछ कवक (फंगी), शैवाल (एल्गी), और चक्रधर (रॉटिफर) आदि जीव आते हैं। बहुत से अन्य जीवों तथा पादपों के शिशु भी सूक्ष्मजीव ही होते हैं। कुछ सूक्ष्मजीवविज्ञानी विषाणुओं को भी सूक्ष्मजीव के अन्दर रखते हैं किन्तु अन्य लोग इन्हें 'निर्जीव' मानते हैं। सूक्ष्मजीव सर्वव्यापी होते हैं। यह मृदा, जल, वायु, हमारे शरीर के अंदर तथा अन्य प्रकार के प्राणियों तथा पादपों में पाए जाते हैं। जहाँ किसी प्रकार जीवन संभव नहीं है जैसे गीज़र के भीतर गहराई तक, (तापीय चिमनी) जहाँ ताप 100 डिग्री सेल्सियस तक बढ़ा हुआ रहता है, मृदा में गहराई तक, बर्फ की पर्तों के कई मीटर नीचे तथा उच्च अम्लीय पर्यावरण जैसे स्थानों पर भी पाए जाते हैं। जीवाणु तथा अधिकांश कवकों के समान सूक्ष्मजीवियों को पोषक मीडिया (माध्यमों) पर उगाया जा सकता है, ताकि वृद्धि कर यह कालोनी का रूप ले लें और इन्हें नग्न नेत्रों से देखा जा सके। ऐसे संवर्धनजन सूक्ष्मजीवियों पर अध्ययन के दौरान काफी लाभदायक होते हैं। .

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जैव उर्वरक

घरेलू कम्पोस्ट जैव उर्वरक (Organic fertilizers) उन उर्वरकों को कहते हैं जो जन्तुओं या वनस्पतियों से प्राप्त होते हैं। जैसे खाद, कम्पोस्ट, आदि .

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जैविक खेती

आलू की जैविक खेती जैविक खेती (Organic farming) कृषि की वह विधि है जो संश्लेषित उर्वरकों एवं संश्लेषित कीटनाशकों के अप्रयोग या न्यूनतम प्रयोग पर आधारित है तथा जो भूमि की उर्वरा शक्ति को बनाए रखने के लिये फसल चक्र, हरी खाद, कम्पोस्ट आदि का प्रयोग करती है। सन् १९९० के बाद से विश्व में जैविक उत्पादों का बाजार काफ़ी बढ़ा है। .

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वर्मी वाश

वर्मीवाश (Vermiwash) एक तरल जैविक खाद है जो ताजा वर्मीकम्पोस्ट व केंचुए के शरीर को धोकर तैयार किय जाता है। वर्मीवाश के उपयोग से न केवल उत्तम गुणवत्ता युक्त उपज प्राप्त कर सकते हैं बल्कि इसे प्राकृतिक जैव कीटनाशक के रूप में भी प्रयोग किया जा सकता है। वर्मीवाश में घुलनशील नाइट्रोजन, फास्फोरस और पोटाश मुख्य पोषक तत्व होते हैं। इसके अलावा इसमें हार्मोन, अमीनो एसिड, विटामिन, एंजाइम, और कई उपयोगी सूक्ष्म जीव भी पाये जाते हैं। इसके प्रयोग से पच्चीस प्रतिशत तक उत्पादन बढ़ जाता है। .

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कैल्सियम

कैल्सियम (Calcium) एक रासायनिक तत्व है। यह आवर्तसारणी के द्वितीय मुख्य समूह का धातु तत्व है। यह क्षारीय मृदा धातु है और शुद्ध अवस्था में यह अनुपलब्ध है। किन्तु इसके अनेक यौगिक प्रचुर मात्रा में भूमि में मिलते है। भूमि में उपस्थित तत्वों में मात्रा के अनुसार इसका पाँचवाँ स्थान है। यह जीवित प्राणियों के लिए अत्यावश्यक होता है। भोजन में इसकी समुचित मात्र होनी चाहिए। खाने योग्य कैल्शियम दूध सहित कई खाद्य पदार्थो में मिलती है। खान-पान के साथ-साथ कैल्शियम के कई औद्योगिक इस्तेमाल भी हैं जहां इसका शुद्ध रूप और इसके कई यौगिकों का इस्तेमाल किया जाता है। आवर्त सारणी में कैल्शियम का अणु क्रमांक 20 है और इसे अंग्रेजी शब्दों ‘Ca’ से इंगित किया गया है। 1808 में सर हम्फ्री डैवी ने इसे खोजा था। उन्होंने इसे कैल्सियम क्लोराइड से अलग किया था। चूना पत्थर, कैल्सियम का महत्वपूर्ण खनिज स्रोत है। पौधों में भी कैल्शियम पाया जाता है। अपने शुद्ध रूप में कैल्शियम चमकीले रंग का होता है। यह अपने अन्य साथी तत्वों के बजाय कम क्रियाशील होता है। जलाने पर इसमें से पीला और लाल धुआं उठता है। इसे आज भी कैल्शियम क्लोराइड से उसी प्रक्रिया से अलग किया जाता है जो सर हम्फ्री डैवी ने 1808 में इस्तेमाल की थी। कैल्शियम से जुड़े ही एक अन्य यौगिक, कैल्सियम कार्बोनेट को कंक्रीट, सीमेंट, चूना इत्यादि बनाने के लिए इस्तेमाल किया जाता है। अन्य कैल्शियम कंपाउंड अयस्कों, कीटनाशक, दुर्गन्धहर, खाद, कपड़ा उत्पादन, कॉस्मेटिक्स, लाइटिंग इत्यादि में इस्तेमाल किया जाता है। जीवित प्राणियों में कैल्शियम हड्डियों, दांतों और शरीर के अन्य हिस्सों में पाया जाता है। यह रक्त में भी होता है और शरीर की अंदरूनी देखभाल में इसकी विशेष भूमिका होती है। कैल्सियम अत्यंत सक्रिय तत्व है। इस कारण इसको शुद्ध अवस्था में प्राप्त करना कठिन कार्य है। आजकल कैल्सियम क्लोराइड तथा फ्लोरस्पार के मिश्रण को ग्रेफाइट मूषा में रखकर विद्युतविच्छेदन द्वारा इस तत्व को तैयार करते हैं। शुद्ध अवस्था में यह सफेद चमकदार रहता है। परन्तु सक्रिय होने के कारण वायु के आक्सीजन एवं नाइट्रोजन से अभिक्रिया करता है। इसके क्रिस्टल फलक केंद्रित घनाकार रूप में होते हैं। यह आघातवर्ध्य तथा तन्य तत्व है। इसके कुछ गुणधर्म निम्नांकित हैं- साधारण ताप पर यह वायु के ऑक्सीजन और नाइट्रोजन से धीरे धीरे अभिक्रिया करता है, परंतु उच्च ताप पर तीव्र अभिक्रिया द्वारा चमक के साथ जलता है और कैलसियम आक्साइड (CaO) बनाता है। जल के साथ अभिक्रिया कर यह हाइड्रोजन उन्मुक्त करता है और लगभग समस्त अधातुओं के साथ अभिक्रिरिया कर यौगिक बनाता है। इसके रासायनिक गुण अन्य क्षारीय मृदा तत्वों (स्ट्रांशियम, बेरियम तथा रेडियम) की भाँति है। यह अभिक्रिया द्वारा द्विसंयोजकीय यौगिक बनाता है। ऑक्सीजन के साथ संयुक्त होने पर कैलसियम ऑक्साइड का निर्माण होता है, जिसे कली चूना और बिना बुझा चूना (quiklime) भी कहते हैं। पानी में घुलने पर कैल्सियम हाइड्रॉक्साइड या शमित चूना या बुझा चूना (slaked lime) बनता है। यह क्षारीय पदार्थ है जिसका उपयोग गृह निर्माण कार्य में पुरतान काल से होता आया है। चूने में बालू, जल आदि मिलाने पर प्लास्टर बनता है, जो सूखने पर कठोर हो जाता है और धीरे-धीरे वायुमण्डल के कार्बन डाइऑक्साइड से अभिक्रिया कर कैलसियम कार्बोनेट में परिणत हो जाता है। कैलसियम अनेक तत्वों (जैसे हाइड्रोजन, फ्लोरीन, क्लोरीन, ब्रोमीन आयोडीन, नाइट्रोजन सल्फर आदि) के साथ अभिक्रिया कर यौगिक बनता है। कैलसियम क्लोराइड, हाइड्रोक्साइड, तथा हाइपोक्लोराइड का एक मिश्रण और ब्लिचिंग पाउडर कहलाता है जो वस्त्रों आदि के विरंजन में उपयोगी है। कैलसियम कार्बोनेट तथा बाइकार्बोनेट भी उपयोगी है। अपाचयक तत्व होने के कारण कैलसियम अन्य धातुओं के निर्माण में काम आता है। कुछ धातुओं में कैलसियम मिश्रित करने पर उपयोगी मिश्र धातुएँ बनती हैं। कैलसियम के यौगिक के अनेक उपयोग हैं। कुछ यौगिक (नाइट्रेट, फॉसफेट आदि) उर्वरक के रूप में उपयोग में आते है। कैलसियम कार्बाइड का उपयोग नाइट्रोजन स्थिरीकरण उद्योग में होता है और इसके द्वारा एसिटिलीन गैस बनाई जाती है। कैलसियम सल्फेट द्वारा प्लास्टर ऑफ पेरिस बनाया जाता है। इसके अतिरक्ति कुछ यौगिक चिकित्सा, पोर्स्लोिन उद्योग, काच उद्योग, चर्म उद्योग तथा लेप आदि के निर्माण में उपयोगी है। भारत के प्राचीन निवासी कैलसियम के यौगिक तत्वों से परिचित थे। उनमें चूना (कैलसियम आक्साइड) मुख्य है। मोहनजोदड़ो और हड़प्पा के भग्नावशेषों से ज्ञात होता है तत्कालीन निवासी चूने का उपयोग अनेक कार्यों में करते थे। चूने के साथ कतिपय अन्य पदार्थों के मिश्रण से 'वज्रलेप' तैयार करने का प्राचीन साहित्य में प्राप्त होता है। चरक ने ऐसे क्षारों का वर्णन किया है जिनको विभिन्न समाक्षारों पर चूने की अभिक्रिया द्वारा बनाया जाता था। कुछ समय पूर्व उत्तर प्रदेश के बस्ती जिले में कोपिया नामक एक स्थान से काँच बनाने के एक प्राचीन कारखाने के अवशेष प्राप्त हुए हैं। उसका काल लगभग पाँचवी शती ईसवी पूर्व अनुमान किया जाता है। वहाँ से मिली काँच की वस्तुओं की परीक्षा से ज्ञात हुआ है कि उस काल के काँच बनाने में चूने का उपयोग होता था। .

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केंचुआ

केंचुआ यह एक कृमि है जो लंबा, वर्तुलाकार, ताम्रवर्ण का होता है और बरसात के दिनों में गीली मिट्टी पर रेंगता नजर आता है। केंचुआ ऐनेलिडा (Annelida) संघ (Phylum) का सदस्य है। ऐनेलिडा विखंड (Metameric) खंडयुक्त द्विपार्श्व सममितिवाले (bilatrally symmetrical) प्राणी हैं। इनके शरीर के खंडों पर आदर्शभूत रूप से काईटिन (Chitin) के बने छोटे-छोटे सुई जैसे अंग होते है। इन्हें सीटा (Seta) कहते हैं। सीटा चमड़े के अंदर थैलियों में पाए जाते हैं और ये ही थैलियाँ सीटा का निर्माण भी करती हैं। ऐनेलिडा संघ में खंडयुक्त कीड़े आते हैं। इनका शरीर लंबा होता है और कई खंडों में बँटा रहता है। ऊ पर से देखने पर उथले खात (Furrows) इन खंडों को एक दूसरे से अलग करते हैं और अंदर इन्हीं खातों के नीचे मांसपेशीयुक्त पर्दे होते हैं, जिनको पट या भिक्तिका कह सकते हैं। पट शरीर के अंदर की जगह को खंडों में बाँटते हैं (चित्र 1 क)। प्रत्येक आदर्शभूत खंड में बाहर उपांग का एक जोड़ा होता है और अंदर एक जोड़ी तंत्रिकागुच्छिका (nerve ganglion) एक जोड़ी उत्सर्जन अंग (नेफ्रिडिया Nephridia), एक जोड़ा जननपिंड (गॉनैड्स Gonads), तथा रक्तनलिकाओं की जोड़ी और पांचनांग एवं मांसपेशियाँ होती हैं। केंचुए के शरीर में लगभग 100 से 120 तक खंड होते हैं। इसके शरीर के बाहरी खंडीकरण के अनुरूप भीतरी खंडीकरण भी होता है। इसके आगे के सिरे में कुछ ऐसे खंड मिलते हैं जो बाहरी रेखाओं द्वारा दो या तीन भागों में बँटे रहते हैं। इस प्रकार एक खंड दो या तीन उपखंडों में बँट जाता है। खंडों को उपखंडों में बाँटनेवाली रेखाएँ केवल बाहर ही पाई जाती हैं। भीतर के खंड उपखंडों में विभाजित नहीं होते। केंचुए का मुख शरीर के पहले खंड में पाया जाता है। यह देखने में अर्धचन्द्राकार होता है। इसके सामने एक मांसल प्रवर्ध लटकता रहता है, जिसको प्रोस्टोमियम (Prostomium) कहते हैं। पहला खंड, जिसमें मुख घिरा रहता है परितुंड (पेरिस्टोमियम Peristomium) कहलाता है। शरीर के अंतिम खंड में मलद्वार या गुदा होती है। इसलिये इसका गुदाखंड कहते हैं। वयस्क केंचुए में 14वें 15वें और 16वें खंड एक दूसरे से मिल जाते हैं और एक मोटी पट्टी बनाते हैं, जिसको क्लाइटेलम (Clitellum) कहते हैं। इसकी दीवार में ग्रंथियाँ भी होती हैं, जो विशेष प्रकार के रस पैदा कर सकती हैं। इनसे पैदा हुए रस अंडों की रक्षा के लिये कोकून बनाते हैं। पाँचवे और छठे, छठे और सातवें, सातवें और आठवें और नवें के बीचवाली अंतखंडीय खातों में अगल-बगल छोटे छोटे छेद होते हैं, जिनको शुक्रधानी रध्रं (Spermathecal pores) कहते हैं। इनमें लैंगिक संपर्क के समय शुक्र दूसरे केंचुए से आकर एकत्रित हो जाता है। 14वें खंड के बीच में एक छोटा मादा जनन-छिद्र होता है और 18वें खंड के अगल बगल नर-जनन-----छिद्रों का एक जोड़ा होता है। क. केंचुए का बाह्य तथा अंतर्खंडीकरण; ख. आगे के तीन खंड बढ़ाकर दिखाए गए हैं। मुखाग्र (प्रोस्टोमियम), पहले खंड में प्रो॰ स्पष्ट है; ग. नर जननांग (क्लाइटेलम) वाले खंड बढ़ाकर दिखाए गए हैं घ. केंचुए के शरीर के खंड; ड़ सीटा; च. शरीर के अगले भाग का पार्श्वीय चित्र, जिसमें शुक्रधानी रध्रं दिखलाया गया है। रेखा में ही, उनके आगे और पीछे उभरे हुए, पापिला (Papillae) होते हैं। इनको जनन पापिला कहते हैं। जनन पापिला की उपस्थिति एवं बनावट भिन्न भिन्न जाति के कें चुओं में भिन्न होती है। पहले 12 खंडों को छोड़कर सब खंडों के बीचवाली अंतर्खंडीय रेखाओं के बीच में छोटे छोटे छिद्र होते हैं। चूँकि ये पृष्ठीय पक्ष में होते हैं, इसलिये इन्हें पृष्ठीय छिद्र कहते हैं। ये छिद्र शरीर की गुहा को बाहर से संबंधित करते हैं। पहला पृष्ठछिद्र 12वें और 13वें खंड के बीच की खात में पाया जाता है। अंतिम खात को छोड़कर बाकी सबमें एक एक छेद होता है। पहले दो खंडों को छोड़कर बाकी शरीर की दीवार पर अनेक अनियमित रूप से बिखरे छिद्र होते हैं। ये उत्सर्जन अंग के बाहरी छिद्र हैं। इनको नफ्ऱेीडियोपोर्स (Nephridio-pores) कहते हैं। केंचुए का लगभग तीन चौथाई भाग शरीर की दीवार के अंदर गड़ा होता है और थोड़ा सा ही भाग बाहर निकला रहता है। ये पहले और अंतिम खंडों को छोड़कर सब खंडों के बीच में पाए जाते हैं। प्राय: ये खंडों के बीच में उभरी हुई स्पष्ट रेखा सी बना लेते हैं। (चित्र 1 घ तथा च)। एक खंड में लगभग 200 सीटा होते हैं। इनको यदि निकाल कर देखा जाय तो इनका रंग हल्का पीला होगा। यदि सीटा के ऊपर और नीचे के सिरों को खींच दिया जाए, जैसा चित्र में दिखाया गया है, तो आकार में सीटा अंग्रेजी अक्षर S से मिलता है। प्रत्येक सीटा एक थैले में स्थित रहता है। वह थैला बाहरी दीवार के धँस जाने से बनता है और यही थैला सीटा का निर्माण करता है। सीटा अपनी लंबाई के लगभग बीच में कुछ फूल जाता है। इन गाँठों को नोड्यूल (Nodules) नाम दिया जाता है। सीटा विशेषकर केंचुए को चलने में सहायता करते हैं। जैसा पहले बता चुके हैं, इन खंडों के अनुरूप पट या भित्तियाँ होती हैं, जो शरीर की गुहा को खंडों में बाँटती हैं। केंचुआ के पाचनांग लंबी, पतली दीवारवाली नली के रूप में होते हैं, जो मुख से गुदा तक फैली रहती हैं, केंचुए का केंद्रीय तंत्र स्पष्ट होता है और इसकी मुख्य तंत्रिका आँतों के नीचे शरीर के प्रतिपृष्ठ भाग से होती हुई जाती है। प्रत्येक खंड में तंत्रिका फूलकर गुच्छिका बनाती हैं। इससे अनेक तंत्रिकाएँ निकलकर शरीर के विभिन्न अंगों में जाती हैं। केंचुए का एक छोटा सा मस्तिष्क भी होता है। इसका आकार साधारण होता है और यह आँतों के अगले भाग में स्थित रहता है। इसके अलावा शरीर में कई समांतर रक्तनलिकाएँ होती हैं। इनमें रक्त का संचार करने के लिये चार बड़ी बड़ी स्पंदनशील नलिकाएँ रहती हैं। ये सिकुड़ती और फैलती रहती हैं। इससे रक्त का संचार होता रहता है। जहाँ तक प्रजनन अंगों का संबंध है, एक ही केंचुए में दोनों लिंगों के अंग पाए जाते हैं इसीलिये इन्हें द्विलिंगीय (hermaphrodite) कहते हैं। किंतु उनमें स्वसंसेचन संभव नहीं हैं; परसंसेचन ही होता है। दो केंचुए एक दूसरे से संपर्क में आते हैं और संसेचन करते हैं। केंचुए पृथ्वी के अंदर लगभग 1 या 1 फुट की गहराई तक रहते हैं। यह अधिकतर पृथ्वी पर पाई जानेवाली सड़ी पत्ती बीज, छोटे कीड़ों के डिंभ (लार्वे), अंडे इत्यादि खाते हैं। ये सब पदार्थ मिट्टी में मिले रहते हैं। इन्हें ग्रहण करने के लिये केंचुए को पूरी मिट्टी निगल जानी पड़ती है। ये पृथ्वी के भीतर बिल बनाकर रहने वाले जंतु हैं। इनके बिल कभी कभी छह या सात फुट की गहराई तक चले जाते हैं। वर्षा ऋ तु में, जब बिल पानी से भर जाते हैं, केंचुए बाहर निकल आते हैं। इनका बिल बनाने का तरीका रोचक है। ये किसी स्थान में मिट्टी खाना प्रारंम्भ करते हैं और सिर को अंदर घुसेड़ते हुए मिट्टी खाते जाते हैं। मिट्टी के अंदर जो पोषक वस्तुएँ होती हैं उन्हें इनकी आँतें ग्रहण कर लेती हैं। शेष मिट्टी मलद्वारा से बाहर निकलती जाती हैं। केंचुए के मल, जो अधिकतर मिट्टी का बना होता है, मोटी सेंवई की आकृति का होता है। इसको वर्म कास्टिंग (worm casting) कहते हैं। प्राय: बरसात के पश्चात पेड़ों के नीचे, चरागाहों और खेतों में, वर्म कास्टिंग के ढेर अधिक संख्या में दिखाई पड़ते हैं। केंचुए रात में कार्य करनवाले प्राणी है। भोजन और प्रजनन के लिये वे रात में ही बाहर निकलते हैं; दिन में छिपे रहते हैं। साधारणत: शरीर को बिल के बाहर निकालने के पश्चात ये अपना पिछला हिस्सा बिल के अंदर ही रखते हैं, जिसमें तनिक भी संकट आने पर यह तुरंत बिल के अंदर घुस जाएँ। फेरिटाइमा (Pheretima) जाति के केंचुए पृथ्वी के बाहर बहुत कम निकलते हैं। इनकी सारी क्रियाएँ पृथ्वी के अंदर ही होती है। केंचुए मछलियों का प्रिय भोजन है। मछली पकड़नेवाले काँटे में केंचुए को लगा देते हैं, जिसको खाने के कारण वे काँटे में फँस जाती हैं। केंचुए की कुछ जातियाँ प्रकाश देनेवाली होती हैं। इनके चमड़े की बाहरी झिल्ली प्रकाश को दिन में ग्रहण कर लेती है और रात्रि में चमकती रहती है। भारत में कई जातियों के केंचुए पाए जाते हैं। इनमें से केवल दो ऐसे हैं जो आसानी से प्राप्त होते हैं। एक है फेरिटाइमा और दूसरा है यूटाइफियस। फेरिटाइमा पॉसथ्यूमा (Pheretima Posthuma) सारे भारतवर्ष में मिलता है। उपर्युक्त केंचुए का वर्णन इसी का है। फेरिटाइमा और यूटाइफियस केवल शरीररचना में ही भिन्न नहीं होते, वरन्‌ इनकी वर्म कास्टिंग भी भिन्न प्रकार की होती है। फेरिटाइमा की वर्म कास्टिंग मिट्टी की पृथक्‌ गोलियों के छोटे ढेर जैसी होती है और यूटाइफियस की कास्टिंग मिट्टी की उठी हुई रेखाओं के समान होती है। केंचुए किसानों के सच्चे मित्र और सहायक हैं। इनका मिट्टी खाने का ढंग लाभदायक है। ये पृथ्वी को एक प्रकार से जोतकर किसानों के लिये उपजाऊ बनाते हैं। वर्म कास्टिंग की ऊपरी मिट्टी सूख जाती है, फिर बारीक होकर पृथ्वी की सतह पर फैल जाती है। इस तरह जहाँ केंचुए रहते हैं वहाँ की मिट्टी पोली हो जाती है, जिससे पानी और हवा पृथ्वी की भीतर सुगमता से प्रवेश कर सकती है। इस प्रकार केंचुए हल के समान कार्य करते हैं। डारविन ने बताया है कि एक एकड़ में 10,000 से ऊपर केंचुए रहते हैं। ये केंचुए एक वर्ष में 14 से 18 टन, या 400 से 500 मन मिट्टी पृथ्वी के नीचे से लाकर सतह पर एकत्रित कर देते हैं। इससे पृथ्वी की सतह 1/5 इंच ऊंची हो जाती है। यह मिट्टी केंचुओं के पाचन अंग से होकर आती है, इसलिये इसमें नाइट्रोजनयुक्त पदार्थ भी मिल जाते हैं और यह खाद का कार्य करती हैं। इस प्रकार वे मनुष्य के लिये पृथ्वी को उपजाऊ बनाते रहते हैं। यदि इनको पूर्ण रूप से पृथ्वी से हटा दिया जाए तो हमारे लिये समस्या उत्पन्न हो जायगी। (सत्यनारायण प्रसाद.).

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यहां पुनर्निर्देश करता है:

वर्मी कम्पोस्ट, वर्मीकम्पोस्ट

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