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कलवार

सूची कलवार

उत्तर-पश्चिमी भारत (18 9 6) के जनजातियों और जातियों में विलियम क्रूक बताते हैं कि कलवार बियांया (व्यापारी) या वैसी वर्ग से संबंधित अन्य समान जातियां हैं, जो व्यापारियों और व्यापारियों के तीसरे सबसे ऊंचे वर्ग हिंदू समाज के परंपरागत चार गुना विभाजन इसके अलावा, बनीया और कलावार के बीच एक मामूली भौतिक समानता का पता लगाया जा सकता है। तथ्य यह है कि कलवार में से कुछ जैन धर्म के अनुयायी हैं - एक धर्म है, जो मुख्यतः बानिया का पालन करता है, इस सिद्धांत को जोड़ता है। कलार समुदाय को विभिन्न नामों के तहत पूरे भारत में वितरित किया जाता है: उत्तर प्रदेश में कलार / जायसवाल, बिहार में कलौवार और उड़ीसा और महाराष्ट्र में जैन काल या ददसेना। भाषाई तीन उप विभाजन, अर्थात्, तेलगु, मराठी और हिंदी महाराष्ट्र में पाए जाते हैं। छत्तीसगढ़ी कलावार या कालार, सेहोर और कालल नामक कलावार पारंपरिक रूप से शराब के व्यापारियों और शराब के व्यापारी हैं। वे उत्तर प्रदेश, बिहार और पश्चिम बंगाल, साथ ही साथ मध्य प्रदेश के सभी राज्यों में फैले हुए हैं। एम.के.गंधी ने कलार समुदाय से अपने पारंपरिक व्यवसाय को छोड़ने का अनुरोध किया। अधिकांश कलर्स ने अपनी याचिका का पालन किया और शराब व्यापार छोड़ दिया। यद्यपि इस समुदाय को उनके पैतृक व्यवसाय के लिए जाना जाता है, लेकिन उनके पास गैर-पीने वालों की प्रतिष्ठा है समुदाय का नाम संस्कृत शब्द कल्यापाला से लिया गया है, जिसका मतलब है शराब के डिस्टिलर; प्राचीन काल से जब तक ब्रिटिश काल तक कलावार मुख्य रूप से छोटे पॉट-स्टिल में किण्वित शराब बनाने में लगे थे। सर डेनज़ेल इबेट्सन ने उन्हें "एंटरप्राइज़, ऊर्जा और आचरण के लिए कुख्यात" के रूप में वर्णित किया। ब्रिटिश शासन के दौरान विशिष्ट सर्कल या क्षेत्रों में निर्माण और बेचने का अधिकार सालाना जिला मुख्यालयों में नीलामी और कलवार ने इकट्ठा किया था। यह यहां था कि उनकी दृढ़ता के उदाहरणों को अक्सर देखा जा सकता है; एक कलावार शराब बनानेवाला एक लाइसेंस को मुनाफे से अधिक तक बोली लगाएगा, जिसे वह इसके बारे में महसूस करने की उम्मीद कर सकता है, बल्कि वह खुद को वहीं से वंचित रखने की अनुमति देता है जो वह बनाए रखने की इच्छा रखता था। कलाल अर्थात्‌ शराब बनाने एवं बेचनेवाले। इनको कल्यपाल और कलवार भी कहा जाता है। इस प्रकार का व्यापार करनेवालों की प्राचीन काल में कोई विशेष जाति नहीं थी। वह समाज कर्मसिद्धांत पर आधारित था। किंतु कालांतर में जन्मना सिद्धांत के जोर पकड़ने के कारण एवं श्रमणों का भी भारतीय समाज पर प्रभाव होने के कारण क्रमश इनका भी एक वर्ग बना । परिणामस्वरूप इस बिरादरी के कई विचारकों ने इससे त्राण पाने के हेतु प्रयास किया। क्षत्रिय होना सम्मानित समझा जाता था। फलत: कलवारों के इतिहास की खोज की जाने लगी और बिरादरी सभा उसके 'हैहय क्षत्रिय' होने के निष्कर्ष पर पहुँची। अत: उस सभा ने कलालों को क्षत्रिय घोषित किया। कलालों को प्राचीन काल में 'शौंडिक' कहते थे। शैंडिक शुंडिक से बना है। शुंडिक मद्य चुआने के शुंडाकृतिक भबके को कहते हैं और भबके (घड़े) से मद्य चुआनवाले व्यक्ति को शौंडिक। शौंडिक के रूप में इनका उल्लेख रामायण, महाभारत, स्मृतियों, धर्मशास्त्रों और पुराणों आदि में हुआ है। 'शूँडी', कलालों की एक उपजाति का नाम भी है। पाणिनि ने शौंडिक नामक आय का उल्लेख किया है। मद्य विभाग से प्राप्त आय का यह नाम था। कौटिलीय अर्थशास्त्र में उल्लेख है कि इस प्रकार का व्यापार करनेवाले व्यक्तियों को लाइसेंस दिया जाता था और उनसे दैवसिकमत्ययम्‌ (लाइसेंस फ़ीस) लिया जाता था। मोनियर विलियम्स ने अपनी 'ए संस्कृत-इंग्लिश डिक्शनरी' में शौंडिकों को संकर वर्ण कहा है। उन्होंने लिखा है कुछ लोगों के मतानुसार वे कैवर्त पिता और गांधिक माता की संतान थे; दूसरों के अनुसार वे निष्ठय पिता और शुद्रा माँ की संतान थे। मनुस्मृति उनका उल्लेख जातियों (संकर) में करती है, किंतु महामहोपाध्याय डॉ॰ गंगानाथ झा ने मनुस्मृति पर टिप्पणी लिखते हुए शौंडिकों को 'द्विज' कहा है। व्यावसायिक लाभ के लिए अनेक जाति के लोगों ने इस पेशे को स्वीकार किया होगा, क्योंकि कलालों में चालीस उपजातियाँ हैं; संभवत: इन्हीं-किन्हीं कारणों से पुरानी परिभाषा में इसको संकर कहा गया। सत्य क्या है, यह तो कहा नहीं जा सकता क्योंकि यह तो एक व्यवसाय का जिसकों लाभ की दृष्टि से संपूर्ण देश में किया जाता था। किंतु डॉ॰ मोनियर विलियम्स का यह कहना कि वे निष्ठय पिता और शूद्रा माँ की संतान थे, ठीक नहीं लगता। वैश्य भी 'द्विज' कहे गए हैं। पर, चूँकि वे शराब बनाने और बेचने का व्यवसाय करते थे, कालांतर में, श्रेमणविचारधारा से अनुप्राणित होने के कारण समाज की दृष्टि में वे हेय और अस्पृश्य समझे जाने लगे। शिक्षा दीक्षा से उनका संबंध टूट चला था। परिणामस्वरूप आज भी, कई राज्यों में उनको 'पिछड़े वर्ग' में गिना जाता है। .

4 संबंधों: मनुस्मृति, मोनियर विलियम्स, खत्री, गंगानाथ झा

मनुस्मृति

मनुस्मृति हिन्दू धर्म का एक प्राचीन धर्मशास्त्र (स्मृति) है। इसे मानव-धर्म-शास्त्र, मनुसंहिता आदि नामों से भी जाना जाता है। यह उपदेश के रूप में है जो मनु द्वारा ऋषियों को दिया गया। इसके बाद के धर्मग्रन्थकारों ने मनुस्मृति को एक सन्दर्भ के रूप में स्वीकारते हुए इसका अनुसरण किया है। धर्मशास्त्रीय ग्रंथकारों के अतिरिक्त शंकराचार्य, शबरस्वामी जैसे दार्शनिक भी प्रमाणरूपेण इस ग्रंथ को उद्धृत करते हैं। परंपरानुसार यह स्मृति स्वायंभुव मनु द्वारा रचित है, वैवस्वत मनु या प्राचनेस मनु द्वारा नहीं। मनुस्मृति से यह भी पता चलता है कि स्वायंभुव मनु के मूलशास्त्र का आश्रय कर भृगु ने उस स्मृति का उपवृहण किया था, जो प्रचलित मनुस्मृति के नाम से प्रसिद्ध है। इस 'भार्गवीया मनुस्मृति' की तरह 'नारदीया मनुस्मृति' भी प्रचलित है। मनुस्मृति वह धर्मशास्त्र है जिसकी मान्यता जगविख्यात है। न केवल भारत में अपितु विदेश में भी इसके प्रमाणों के आधार पर निर्णय होते रहे हैं और आज भी होते हैं। अतः धर्मशास्त्र के रूप में मनुस्मृति को विश्व की अमूल्य निधि माना जाता है। भारत में वेदों के उपरान्त सर्वाधिक मान्यता और प्रचलन ‘मनुस्मृति’ का ही है। इसमें चारों वर्णों, चारों आश्रमों, सोलह संस्कारों तथा सृष्टि उत्पत्ति के अतिरिक्त राज्य की व्यवस्था, राजा के कर्तव्य, भांति-भांति के विवादों, सेना का प्रबन्ध आदि उन सभी विषयों पर परामर्श दिया गया है जो कि मानव मात्र के जीवन में घटित होने सम्भव है। यह सब धर्म-व्यवस्था वेद पर आधारित है। मनु महाराज के जीवन और उनके रचनाकाल के विषय में इतिहास-पुराण स्पष्ट नहीं हैं। तथापि सभी एक स्वर से स्वीकार करते हैं कि मनु आदिपुरुष थे और उनका यह शास्त्र आदिःशास्त्र है। मनुस्मृति में चार वर्णों का व्याख्यान मिलता है वहीं पर शूद्रों को अति नीच का दर्जा दिया गया और शूद्रों का जीवन नर्क से भी बदतर कर दिया गया मनुस्मृति के आधार पर ही शूद्रों को तरह तरह की यातनाएं मनुवादियों द्वारा दी जाने लगी जो कि इसकी थोड़ी सी झलक फिल्म तीसरी आजादी में भी दिखाई गई है आगे चलकर बाबासाहेब आंबेडकर ने सर्वजन हिताय संविधान का निर्माण किया और मनु स्मृति में आग लगा दी गई जो कि समाज के लिए कल्याणकारी साबित हुई और छुआछूत ऊंच-नीच का आडंबर समाप्त हो गया। .

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मोनियर विलियम्स

300px मोनियर विलियम्स (१८१९-१८९९) ऑक्सफोर्ड विश्वविद्यालय में बोडन-चेयर के प्रोफेसर, संस्कृत व्याकरण, संस्कृत-अंग्रेजी कोश, अंग्रेजी-संस्कृत कोश आदि विश्वविख्यात रचनाओं के प्रणेता थे। उन्होने हिन्दी व्याकरण पर भी कार्य किया है। (क) रुडीमेन्ट्स ऑफ हिन्दुस्तानी ग्रामर (1858) (ख) हिन्दुस्तानी: प्राइमर एण्ड ग्रामर (1860) (ग) प्रैक्टिकल हिन्दुस्तानी ग्रामर (1862) मोनियर विलियम्स ने संस्कृत के शब्दभण्डार की बहुविषयक समृद्धि को लक्ष्य करके लिखा है कि संस्कृत का कोश बनाने वाले को लगभग सर्वज्ञ होना चाहिए। उनके कथनानुसार इंग्लैण्ड में यूनिवर्सिटी शिक्षा प्राप्त तरुण संस्कृत की वैज्ञानिक शब्दावली की सही-सही व्याख्या नहीं कर सकते। .

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खत्री

खत्री (Khatri) भारतीय उपमहाद्वीप के पश्चिमोत्तरी भाग में बसने वाली एक जाति है। मूल रूप से खत्री पंजाब (विशेषकर वो हिस्सा जो अब पाकिस्तानी पंजाब है) से हुआ करते थे लेकिन वह अब राजस्थान, जम्मू व कश्मीर, उत्तराखंड, उत्तर प्रदेश, हिमाचल प्रदेश, हरयाणा, बलोचिस्तान, सिंध और ख़ैबर-पख़्तूनख़्वा के इलाक़ों में भी पाए जाते हैं। दिल्ली के पंजाबी लोगों में इनकी आबादी पर्याप्त हैं। इनका मुख्य पेशा व्यापार है और ऐतिहासिक तौर पर अफगानिस्तान और मध्य एशिया के रास्ते भारतीय उपमहाद्वीप पर होने वाला व्यापार इनके हाथ था। कई खत्री क्षत्रिय होने का दावा करते हैं। खत्री अन्य जाति अरोड़ा के साथ पंजाब की दो मुख्य जाति है जो हिन्दू हैं। कई ने सिख और इस्लाम को अपना लिया है। मुसलमान हो गए खत्री खोजा नाम से प्रसिद्ध है। ऐतिहासिक रूप से सभी सिख धर्म के गुरु खत्री थे।, Robert Vane Russell, Forgotten Books, ISBN 978-1-4400-4893-7,...

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गंगानाथ झा

गंगानाथ झा (१५ सितंबर १८७२ - १९४१) संस्कृत, हिन्दी, मैथिली एवं अंग्रेजी के विद्वान एवं शिक्षाशास्त्री थे। वे हिंदी साहित्य सम्मेलन के सभापति भी हुए। उनके अनेक स्मारकों में इलाहाबाद विश्वविद्यालय का 'गंगानाथ झा रिसर्च इंस्टीट्यूट' (स्थापित 17 नवम्बर 1943) प्रमुख है। .

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