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उदयनाचार्य

सूची उदयनाचार्य

उदयनाचार्य प्रसिद्ध नैयायिक। उन्होने नास्तिकता के विरोध में ईश्वरसिद्धि के लिए आज से हजारों वर्ष पूर्व न्यायकुसुमांजलि नामक एक अत्यन्त पाण्डित्यपूर्ण ग्रन्थ लिखा। .

11 संबंधों: नास्तिकता, न्यायसूत्र, न्यायकुसुमाञ्जलि, पदार्थधर्मसंग्रह, शून्यता, समुच्चय सिद्धान्त, जगन्नाथ मन्दिर, पुरी, वाचस्पति मिश्र, वैशेषिक दर्शन, अक्षपाद गौतम, उदयन (राजा)

नास्तिकता

नास्तिकता अथवा नास्तिकवाद या अनीश्वरवाद (English: Atheism), वह सिद्धांत है जो जगत् की सृष्टि करने वाले, इसका संचालन और नियंत्रण करनेवाले किसी भी ईश्वर के अस्तित्व को सर्वमान्य प्रमाण के न होने के आधार पर स्वीकार नहीं करता। (नास्ति .

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न्यायसूत्र

चार प्रमाण - '''१-प्रत्यक्ष, २-उपमान, ३-अनुमान, ४-शब्द''' न्यायसूत्र, भारतीय दर्शन का प्राचीन ग्रन्थ है। इसके रचयिता अक्षपाद गौतम हैं। यह न्यायदर्शन का सबसे प्राचीन रचना है। इसकी रचना का समय दूसरी शताब्दी ईसापूर्व है। इसका प्रथम सूत्र है - (प्रमाण, प्रमेय, संशय, प्रयोजन, दृष्टान्त, सिद्धान्त, अयवय, तर्क, निर्णय, वाद, जल्प, वितण्डा, हेत्वाभास, छल, जाति और निग्रहस्थान के तत्वज्ञान से मुक्ति प्राप्त होती है।) .

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न्यायकुसुमाञ्जलि

न्यायकुसुमांजलि, भारतीय न्यायदर्शन का प्रसिद्ध ग्रन्थ है जिसके रचयिता उदयनाचार्य हैं। इसमें आस्तिकता के पक्ष में बहुत सबल तर्क दिये गये हैं। .

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पदार्थधर्मसंग्रह

पदार्थधर्मसंग्रह, प्रशस्तपाद द्वारा रचित वैशेषिक का प्रसिद्ध ग्रन्थ है। इसे 'प्रशस्तपादभाष्य' भी कहते हैं। यद्यपि इसे वैशेषिकसूत्र का भाष्य कहा जाता है किन्तु यह एक स्वतंत्र ग्रन्थ है। वस्तुतः यह भौतिकी का विशद ग्रन्थ है जिसमें सामान्य भौतिकी से लेकर क्वाण्टम भौतिकी तक समाहित है। .

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शून्यता

शून्यवाद या शून्यता बौद्धों की महायान शाखा माध्यमिक नामक विभाग का मत या सिद्धान्त है जिसमें संसार को शून्य और उसके सब पदार्थों को सत्ताहीन माना जाता है (विज्ञानवाद से भिन्न)। "माध्यमिक न्याय" ने "शून्यवाद" को दार्शनिक सिद्धांत के रूप में अंगीकृत किया है। इसके अनुसार ज्ञेय और ज्ञान दोनों ही कल्पित हैं। पारमार्थिक तत्व एकमात्र "शून्य" ही है। "शून्य" सार, असत्, सदसत् और सदसद्विलक्षण, इन चार कोटियों से अलग है। जगत् इस "शून्य" का ही विवर्त है। विवर्त का मूल है संवृति, जो अविद्या और वासना के नाम से भी अभिहित होती है। इस मत के अनुसार कर्मक्लेशों की निवृत्ति होने पर मनुष्य निर्वाण प्राप्त कर उसी प्रकार शांत हो जाता है जैसे तेल और बत्ती समाप्त होने पर प्रदीप। .

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समुच्चय सिद्धान्त

वेन-आरेख द्वारा दो समुच्चयों के सर्वनिष्‍ठ का सरल प्रदर्शन समुच्चय सिद्धान्त (set theory), गणित की एक शाखा है जो समुच्चयों का अध्ययन करती है। वस्तुओं के संग्रह (collection) को समुच्चय कहते हैं। यद्यपि समुच्चय के अन्तर्गत किसी भी प्रकार की वस्तुओं का संग्रह सम्भव है, किन्तु समुच्चय सिद्धान्त मुख्यतः गणित से सम्बन्धित समुच्चयों का ही अध्ययन करता है। स्थूल रूप से अंग्रेजी समुच्चय के पर्याय 'सेट' (set), ऐग्रिगेट (aggregate), क्लास (class), डोमेन (domain) तथा टोटैलिटी (totality) हैं। समुच्चय में अवयवों का विभिन्न होना आवश्यक है। प्रथम श्रेणी के तर्क (first-order logic) से सुव्यवस्थित (formalized) किया हुआ समुच्चय सिद्धान्त आज गणित का सर्वाधिक प्रयुक्त आधारभूत तन्त्र है। समुच्चय सिद्धान्त की भाषा गणित के लगभग सभी वस्तुओं (यथा- फलन) को परिभाषित करने के काम आती है। समुच्चय सिद्धान्त के आरम्भिक कांसेप्ट इतने सरल हैं कि इन्हें प्राथमिक विद्यालयों के पाठ्यक्रम में भी पढाया जा सकता है। .

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जगन्नाथ मन्दिर, पुरी

पुरी का श्री जगन्नाथ मंदिर एक हिन्दू मंदिर है, जो भगवान जगन्नाथ (श्रीकृष्ण) को समर्पित है। यह भारत के ओडिशा राज्य के तटवर्ती शहर पुरी में स्थित है। जगन्नाथ शब्द का अर्थ जगत के स्वामी होता है। इनकी नगरी ही जगन्नाथपुरी या पुरी कहलाती है। इस मंदिर को हिन्दुओं के चार धाम में से एक गिना जाता है। यह वैष्णव सम्प्रदाय का मंदिर है, जो भगवान विष्णु के अवतार श्री कृष्ण को समर्पित है। इस मंदिर का वार्षिक रथ यात्रा उत्सव प्रसिद्ध है। इसमें मंदिर के तीनों मुख्य देवता, भगवान जगन्नाथ, उनके बड़े भ्राता बलभद्र और भगिनी सुभद्रा तीनों, तीन अलग-अलग भव्य और सुसज्जित रथों में विराजमान होकर नगर की यात्रा को निकलते हैं। मध्य-काल से ही यह उत्सव अतीव हर्षोल्लास के साथ मनाया जाता है। इसके साथ ही यह उत्सव भारत के ढेरों वैष्णव कृष्ण मंदिरों में मनाया जाता है, एवं यात्रा निकाली जाती है। यह मंदिर वैष्णव परंपराओं और संत रामानंद से जुड़ा हुआ है। यह गौड़ीय वैष्णव संप्रदाय के लिये खास महत्व रखता है। इस पंथ के संस्थापक श्री चैतन्य महाप्रभु भगवान की ओर आकर्षित हुए थे और कई वर्षों तक पुरी में रहे भी थे। .

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वाचस्पति मिश्र

वाचस्पति मिश्र (९०० - ९८० ई) भारत के दार्शनिक थे जिन्होने अद्वैत वेदान्त का भामती नामक सम्प्रदाय स्थापित किया। वाचस्पति मिश्र ने नव्य-न्याय दर्शन पर आरम्भिक कार्य भी किया जिसे मिथिला के १३वी शती के गंगेश उपाध्याय ने आगे बढ़ाया। .

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वैशेषिक दर्शन

वैशेषिक हिन्दुओं के षडदर्शनों में से एक दर्शन है। इसके मूल प्रवर्तक ऋषि कणाद हैं (ईसा पूर्व दूसरी शताब्दी)। यह दर्शन न्याय दर्शन से बहुत साम्य रखता है किन्तु वास्तव में यह एक स्वतंत्र भौतिक विज्ञानवादी दर्शन है। इस प्रकार के आत्मदर्शन के विचारों का सबसे पहले महर्षि कणाद ने सूत्र रूप में लिखा। कणाद एक ऋषि थे। ये "उच्छवृत्ति" थे और धान्य के कणों का संग्रह कर उसी को खाकर तपस्या करते थे। इसी लिए इन्हें "कणाद" या "कणभुक्" कहते थे। किसी का कहना है कि कण अर्थात् परमाणु तत्व का सूक्ष्म विचार इन्होंने किया है, इसलिए इन्हें "कणाद" कहते हैं। किसी का मत है कि दिन भर ये समाधि में रहते थे और रात्रि को कणों का संग्रह करते थे। यह वृत्ति "उल्लू" पक्षी की है। किस का कहना है कि इनकी तपस्या से प्रसन्न होकर ईश्वर ने उलूक पक्षी के रूप में इन्हें शास्त्र का उपदेश दिया। इन्हीं कारणों से यह दर्शन "औलूक्य", "काणाद", "वैशेषिक" या "पाशुपत" दर्शन के नामों से प्रसिद्ध है। पठन-पाठन में विशेष प्रचलित न होने के कारण वैशेषिक सूत्रों में अनेक पाठभेद हैं तथा 'त्रुटियाँ' भी पर्याप्त हैं। मीमांसासूत्रों की तरह इसके कुछ सूत्रों में पुनरुक्तियाँ हैं - जैसे "सामान्यविशेषाभावेच" (4 बार) "सामान्यतोदृष्टाच्चा विशेष:" (2 बार), "तत्त्वं भावेन" (4 बार), "द्रव्यत्वनित्यत्वे वायुना व्यख्याते" (3 बार), "संदिग्धस्तूपचार:" (2 बार)। .

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अक्षपाद गौतम

Ancient Nyayasutras first ten sutras in Sanskrit.jpg अक्षपाद, न्यायसूत्र के रचयिता आचार्य अक्षपाद, न्यायसूत्र के रचयिता आचार्य। प्रख्यात न्यायसूत्रों के निर्माता का नाम पद्मपुराण (उत्तर खंड, अध्याय 263), स्कंदपुराण (कालिका खंड, अ. 170, गांधर्व तंत्र, नैषधचरित (सर्ग 17) तथा विश्वनाथ की न्यायवृत्ति में महर्षि गोतम या (गौतम) ठहराया गया है। इसके विपरीत न्यायभाष्य, न्यायवार्तिक, तात्पर्यटीका तथा न्यायमंजरी आदि विख्यात न्यायशास्त्रीय ग्रंथों में अक्षपाद इन सूत्रों के लेखक माने गए हैं। महाकवि भास के अनुसार न्यायशास्त्र के रचयिता का नाम मेधातिथि है (प्रतिमा नाटक, पंचम अंक)। इन विभिन्न मतों की एक वाक्यता सिद्ध की जा सकती है। महाभारत (शांति पर्व, अ. 265) के अनुसार गौतम मेधातिथि दो विभिन्न व्यक्ति न होकर एक ही व्यक्ति हैं (मेधातिथिर्महाप्राज्ञो गौतमस्तपसि स्थितः)। गौतम (या गोतम) स्पष्टतः वंशबोधक आख्या है तथा मेधातिथि व्यक्तिबोधक संज्ञा है। अक्षपाद का शब्दार्थ है - 'पैरों में आँखवाला'। फलतः इस नाम को सार्थकता सिद्ध करने के लिए अनेक कहानियाँ गढ़ ली गई हैं जो सर्वथा कल्पित, निराधार और प्रमाण शून्य हैं। नैयायिक गौतम के बारे में अनेक विद्वानों ने लिखा है। महामहोपाध्याय पं. हरप्रसाद शास्त्री का कहना है कि चीनी भाषा में निबद्ध प्राचीन भारतीय ग्रंथों के अनुवाद के आधार पर गौतम, बुद्ध के पहले हो गए थे परंतु उनके नाम पर प्रचलित न्यायसूत्र ईसा की दूसरी शताब्दी की रचना है। सतीशचंद्र विद्याभूषण का मत है कि गौतमीय धर्मसूत्र तथा न्यायसूत्र का कर्ता एक ही गौतमनामधारी व्यक्ति रहा होगा। ये बुद्ध के समकालीन रहे होंगे तथा इनका समय ६ठी शताब्दी ईसा पूर्व हो सकता है। परंतु विद्याभूषण यह भी मानते हैं कि इस गौतम ने न्यायसूत्र के केवल पहले अध्याय की रचना की होगी। बाद के चार अध्याय किसी और ने बहुत बाद में लिखे होंगे। प्रो. याकोबी के अनुसार न्यायसूत्र शून्यवाद के नागार्जुन (२०० ई.) द्वारा प्रतिष्ठापित हो जाने के बाद और विज्ञानवाद (५०० ई.) के विकास के पहले लिखा गया होगा क्योंकि इसमें शून्यवाद का तो खंडन है पर विज्ञानवाद का खंडन नहीं मिलता। परंतु प्रो. शेरवात्स्की के अनुसार न्यायसूत्र में विज्ञानवाद की ओर भी संकेत किया गया है। अत: यह ५०० ई. के बाद की रचना होगी। परंतु शेरवात्स्की का यह मत न्यायसूत्र को न समझने के कारण भ्रममूलक है। तर्कसंग्रह के संपादक आठले तथा बोडस के अनुसार गौतम के न्यायसूत्र कणाद से पहले के हैं। शबरस्वामी ने (मीमांसासूत्र भाष्य में) उपवर्ष से उद्धरण दिया है जिससे लगता है कि उपवर्ष न्याय से परिचित थे। यदि यह उपवर्ष महापद्म नंद के मंत्री ही हैं तो गौतम को ४०० ई.पू. का मानना ही पड़ेगा। प्रो. सुआली के अनुसार ये सूत्र ३००-३५० ई. के काल के हैं। रिचार्ड गार्वे के अनुसार आस्तिक दर्शनों में न्याय सबसे बाद का है क्योंकि ईस्वी सन् के आरंभ के पहले इसका कहीं कोई उल्लेख नहीं मिलता। अत: ये सूत्र १००-३०० ई. के बीच लिखे गए होंगे। इन मतों में कौन सा सही है यह कहना वर्तमान स्थिति में नितांत असंभव है। न्यायसूत्रों की रचना तथा गौतम का काल इन दो प्रश्नों पर अलग अलग विचार होना चाहिए। जहाँ तक न्यायसूत्रों का प्रश्न है, निश्चय ही ये सूत्र बौद्धदर्शन का विकास हो जाने पर लिखे गए हैं। इतना और भी कहा जा सकता है कि इस न्यायसूत्र में समय-समय पर संशोधन तथा परिवर्धन होते रहे हैं। परतु गौतम का नाम इन सूत्रों से इसलिये संबंधित नहीं है कि ये सारे सूत्र अपने वर्तमान रूप में गौतम द्वारा ही विरचित हैं। गौतम को हम सिर्फ न्यायशास्त्र का प्रवर्तक कह सकते हैं, सूत्रों का रचयिता नहीं। हो सकता है, गौतम ने कुछ सूत्र लिखे हों, पर वे सूत्र अन्य सूत्रों में इतने घुलमिल गए हैं कि उनको अलग निकालना हमारे लिये असंभव है। इन दृष्टियों से हमें विद्याभूषण का मत अधिक मान्य लगता है। गौतम को अक्षपाद भी कहते हैं। विद्याभूषण गौतम को अक्षपाद से पृथक् मानते हैं। न्यायसूत्र के भाष्यकार तथा अन्य व्याख्याताओं ने अक्षपाद और गौतम को एक माना है। 'अक्षपाद' शब्द का अर्थ होता है 'जिसके पैर में आँखें हों'। व्याकरण महाभाष्य (१४० ई.पू.) गौतम के सिद्धांतों से परिचित है। न्यायसूत्रों में पाँच अध्याय हैं और ये ही न्याय दर्शन (या आन्वीक्षिकी) के मूल आधार ग्रंथ है। इनकी समीक्षा से पता चलता है कि न्यायदर्शन आरंभ में अध्यात्म प्रधान था अर्थात् आत्मा के स्वरूप का यथार्थ निर्णय करना ही इसका उद्देश्य था। तर्क तथा युक्ति का यह सहारा अवश्य लेता था, परंतु आत्मा के स्वरूप का परिचय इन साधनों के द्वारा कराना ही इसका मुख्य तात्पर्य था। उस युग का सिद्धांत था कि जो प्रक्रिया आत्मतत्व का ज्ञान प्राप्त करा सकती है वही ठीक तथा मान्य है। उससे वितरीप मान्य नहीं होती: परंतु आगे चलकर न्याय दर्शन में उस तर्क प्रणाली की विशेषतः उद्भावना की गई जिसके द्वारा अनात्मा से आत्मा का पृथक् रूप भली-भाँति समझा जा सकता है और जिसमें वाद, जल्प, वितंडा, छल, जाति आदि साधनों का प्रयोग होता है। इन तर्कप्रधान न्यायसूत्रों के रचयिता अक्षपाद प्रतीत होते हैं। वर्तमान न्यायसूत्रों में दोनों युगों के चिंतनों की उपलब्धि का स्पष्ट निर्देश है। न्यायदर्शन के मूल रचयिता गौतम मेधातिथि हैं और उसके प्रति संस्कृत-नवीन विषयों का समावेश कर मूल ग्रंथ के संशोधक-अक्षपाद हैं। आयुर्वेद का प्रख्यात ग्रंथ चरकसंहिता भी इसी संस्कार पद्धति का परिणत आदर्श है। मूल ग्रंथ के प्रणेता महर्षि अग्निवेश हैं, परंतु इसके प्रतिसंस्कर्ता चरक माने जाते हैं। न्यायसूत्र भी इसी प्रकार अक्षपाद द्वारा प्रतिसंस्कृत ग्रंथ है। .

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उदयन (राजा)

उदयन का खंडहर उदयन चंद्रवंश के राजा और सहस्रानीक के पुत्र थे। वत्स का नृपति, जिनकी राजधानी कौशांबी थी। कौशांबी इलाहाबाद जिले में नगर से प्राय: ५० किमी पश्चिम मे बसी थी, जहाँ आज भी यमुना के तीर कोसम गाँव में उनके खंडहर हैं। उदयन संस्कृत साहित्य की परंपरा में महान प्रणयी हो गयेे है और उनकी उस साहित्य में स्पेनी साहित्य के प्रिय नायक दोन जुआन से भी अधिक प्रसिद्धि है। बार-बार संस्कृत के कवियों, नाट्यकारो और कथाकारों ने उन्हे अपनी रचनाओं का नायक बनाया है और उनकी लोकप्रियता के परिणामस्वरूप गाँवों में लोग निंरतर उनकी कथा प्राचीन काल में कहते रहे हैं। महाकवि भास ने अपने दो दो नाटकों-स्वप्नवासवदत्ता और प्रतिज्ञायौगंधरायण-में उन्हें अपनी कथा का नायक बनाया है। वत्सराज की कथा बृहत्कथा और सोमदेव के कथासरित्सागर में भी वर्णित है। इन कृतियों से प्रकट है कि उदयन वीणावादन में अत्यंत कुशल थे और अपने उसी व्यसन के कारण उन्हें उज्जयिनी में अवंतिराज चंडप्रद्योत महासेन का कारागार भी भोगना पड़ा। भास के नाटक के अनुसार वीणा बजाकर हाथी पकड़ते समय छदमगज द्वारा अवंतिराज ने उन्हें पकड़ लिया था। बाद में उदयन प्रद्योत की कन्या वासवदत्ता के साथ हथिनी पर चढ़कर वत्स भाग गयेे। उस पलायन का दृश्य द्वितीय शती ईसवी पूर्व के शुंगकालीन मिट्टी के ठीकरों पर खुदा हुआ मिला है। एस ऐसा ठीकरा काशी हिन्दू विश्वविद्यालय के भारत-कला-भवन में भी सुरक्षित है। कला और साहित्य के इस परस्परावलंबन से राजा की ऐतिहासिकता पुष्ट होती है। वत्सराज उदयन नि:संदेह ऐतिहासिक व्यक्ति थे और उनका उल्लेख साहित्य और कला के अतिरिक्त पुराणों और बौद्ध ग्रंथों में भी हुआ है। उदयन बुद्ध के समकालीन थे और उनके तथा उनके पुत्र बोधी, दोनों ने तथागत के उपदेश सुने थे। बौद्ध ग्रंथों में वर्णित कौशांबी के बुद्ध के आवास पुनीत घोषिताराम से कौशांबों की खुदाई में उस स्थान की नामांकित पट्टिका अभी मिली है। उदयन ने मगध के राजा दर्शक की भगिनी पद्मावती और अंग के राजा दृढ़वर्मा की कन्या को भी, वासवदत्ता के अतिरिक्त, संभवत: ब्याहा था। बुद्धकालीन जिन चार राजवंशों-मगध, कोशल, वत्स, अवंति-में परस्पर दीर्घकालीन संघर्ष चला था उन्हीं में उदयन का वत्स भी था, जो कालांतर में अवंति की बढ़ती हुई सीमाओं में समा गया। इधर हाल में जो प्राचीन के प्रति भारत का पुनर्जागरण हुआ है उसके परिणामस्वरूप उदयन को नायक बनाकर की प्राय: सभी भाषाओं में नाटक और कहानियाँ लिखी गई हैं। इससे प्रकट है कि वत्सराज की साहित्यिक महिमा घटी नहीं और वह नित्यप्रति साहित्यकारों में आज भी लोकप्रिय हो रहें है। .

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