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इंद्रप्रस्थ भारती

सूची इंद्रप्रस्थ भारती

विलुप्त होती बंजारा लोक-संस्कृति लोक संस्कृति को लोग साधारणतया ‘ग्रामीण संस्कृति’ का पर्याय मान लेते हैं, जबकि यह उन सभी लोगों की संस्कृति है जो किसी समुदाय का हिस्सा है, जिनकी कुछ परंपराएँ तथा मान्यताएँ हैं। लोक संस्कृति में बराबर समय के साथ बदलाव आते है। जिस तरह लोकगीतों में कभी ठहराव नहीं आता, वह जिसके कंठ से फूटते है उसी के हो जाते है, ठीक उसी तरह लोक संस्कृति में बराबर कुछ-न-कुछ जुड़ता और घटता रहता है। पर इस सारे जोड़ घटाव के बाद भी उसकी मूल सुगंधि ज्यों कि ज्यों बनी रहती है। डॉ.हजारी प्रसाद द्विवेदी के अनुसार “लोक शब्द का अर्थ जनपद या ग्राम्य नहीं है, बल्कि नगरों और गाँवों में फैली हुई वह समूची जनता है, जिसके व्यावहारिक ज्ञान का आधार पोथियाँ नहीं है।”1 विद्यानिवास मिश्र लोक को इस अर्थ में (अशिक्षित, अर्ध शिक्षित के अर्थ में) लेने का विरोध करते है ‘लोक’ का व्युत्पत्तिपरक अर्थ है “जो कुछ दिखता है, इन्द्रिय गोचर है, प्रत्यक्ष है, सामने है, इसी से उसमें एक तरह की समकालीनता और प्रत्यक्ष विषयता का बोध होता है। फोक की अवधारण जैसे पश्चिम में बन गई है। वह बहुत कुछ इस प्रकार की है कि जो पीछे छूट गया है, जो गवारु है, जो अनपढ़ लोगों की वाचिक परंपरा के रूप में स्वीकृत है, वह फोक है, लेकिन लोक मनुष्य समुदाय तक सीमित नहीं करता है, वह बहुत व्यापक है। समस्त जीवन जो सामने फैला हुआ है,या संचरणशीलया सथावर है वह सब लोक है।”2 बंजारा समाज का मूल लगभग सभी इतिहासकारों ने राजस्थान को ही माना है। बंजारा समाज यह भारत के प्रत्येक प्रांत में अनेक नामों से जाना जाता है। जैसे महाराष्ट्र में बंजारा, कर्नाटक में लमाणी, आंध्र में लंबाडा, पंजाब में बाजीगर, उत्तर प्रदेश में नायक समाज और बाहरी दुनिया में राणी नाम से जाने जाते है। बंजारा शब्द की व्युत्पत्ति के संबंध में विद्वानों के अनेक विचार है। भारत की सबसे सभ्य और प्राचीन संस्कृति सिंधु संस्कृति को माना जाता है। इसी संस्कृति से जुड़ी हुई गोर-बंजारा संस्कृति है। इस समाज का अलग-अलग भागों में विभिन्न नामों से जाना जाता है। किंतु बंजारा समाज के मनुष्य को हर प्रांत में ‘गोर’ तथा ‘गोरमाटी’ नाम से जाना जाता है। बंजारा वह व्यक्ति है, जो बैलों पर अनाज लादकर बेचने के लिए एक स्थान से दूसरे स्थान को जाता है। उसी व्यक्ति को ‘बंजारा’ कहा जाता है। अनादि काल से यह समाज व्यापार करता था। तब से इस जाति को ‘वाणिज्यकार’ के नाम से संबोधित किया जाता है। ‘वाणिज्य’ यह शब्द संस्कृत का है। वाणिज्य शब्द को ही हिंदी में ‘बणज’ कहा जाता है तथा ‘बनज’ से ही बनजारा शब्द की व्युत्पत्ति हुई है। ‘बणजारा’ को ‘गोर’ भी कहा जाता है। ‘बणजारा’ शब्द मुक्त जीवन जीने के प्रतीक रूप में प्रयुक्त किया जाता है।– बंजारा शब्द की व्युत्पत्ति के संदर्भ में डॉ.ग्रियर्सन ने- संस्कृत के वाणिज्य के साथ बनजारा शब्द का संबंध स्थापित किया जाता है- “वाणिज्य-वाणिज्यकार-वाणिज्जारों-बनजारा इस तरह कहा जाता है कि बनजारा शब्द सूचक नहीं, व्यवसाय सूचक है।”4 बंजारा शब्द के संदर्भ में समाजशास्त्री रसेल तथा हीरालाल का मत है कि-“राजस्थान के मूल निवासी ‘गोर’ या चारण लोग मध्यकालीन भारत में बंजारा नाम से प्रख्यात हुए।”5 उपरोक्त लोकगीत मे ‘नगरी’ यह शब्द महत्वपूर्ण है। ‘नगरी’ का अर्थ है- ‘हडप्पा नगर’। बंजारा समाज कोई भी शुभ कार्य करने से पहले भगवान से प्रार्थना की जाती है- उपर्युक्त प्रार्थना के अनुसार बंजारा समाज का रचना काल गंगा सरस्वती के पहाड़ी प्रदेश में विकसित रहने वाली हडप्पा संस्कृति के कालखंडों में रहकर सरस्वती का परिसर ही बंजारा संस्कृति का मूल बस्ती स्थान है। बंजारा समाज में नारियों को भी ‘हरपळी’ कहा जाता है। ‘हरपळी’ का बंजारा बोली में अर्थ- हडप्पा की रहनेवाली। इस संदर्भ में यह गीत दिखाई देता है।– बंजारा संस्कृति में ज्यादातर लोग गाय-बैलों का ही व्यापार करते थे। जिस कारण बंजारा समाज को ‘गोर समाज’ भी कहा जाता है। हडप्पा संस्कृति के लोग भी खेती, व्यापार करते थे। इससे स्पष्ट होता है कि, बंजारा जाति यह सिंधु संस्कृति तथा हडप्पा संस्कृति के काल की रही है। सिंधु संस्कृति की बहुत सारी मान्यताएँ बंजारा संस्कृति में दिखाई देती हैं। सिंधु संस्कृति में पृथ्वी, शिंग,वृषभ, पशु पालन, लिंगपूजा को महत्व दिया जाता था। उसी प्रकार से बंजारा संस्कृति में ‘सूरज’ और ‘अग्नि’ की पूजा करते है। इस से स्पष्ट होता है, कि बंजारा शब्द घुमंतू जाति के संदर्भ में प्रयुक्त हुआ है और इस जाति की अवधारणा के लिए उस जाति के वर्गों के द्वारा किये जाने वाले कर्म, व्यापार और अन्य समाजोपयोगी कर्मों से घुमंतू जाति होने के कारण इसमें भाषा और संस्कृति में एक सामाजिकता को समाई है। यह भी इस जाति के संदर्भ में सर्व स्वीकार यह है, कि इसकी व्याप्ति सर्व देशीय है। इतिहास से ज्ञात होता है कि बंजारा लोग पहले से ही व्यापारी वृत्ति के थे तथा राजस्थान के व्यापारी समुदाय से मिले हुए थे। राजस्थान, मालवा, गुजरात आदि प्रदेश राजपूत राजवंशों के ही थे। इन प्रदेशों में व्यापार बड़े पैमाने पर चलता था। इस प्रदेश के व्यापारी लोग देस-विदेश में माल लेकर व्यापार किया करते थे। राजस्थान के व्यापारी लोगों में गुज्जर, मारवाडी और बंजारा लोग अधिक प्रसिद्धि पा चुके थे। जीवन-यापन का एकमात्र साधन व्यापार होने के कारण इनकी आर्थिक स्थिति अच्छी रही। लेकिन अकबर और राणा प्रताप के युद्ध से इनकी आर्थिक स्थिति पर विपरीत परिणाम पड़ा। यह राणा प्रताप के अनुयायी थे। राणा प्रताप के साथ बंजारों को अनेक विपत्तियों का सामना करना पड़ा। मुगलों के आकांड-तांडव से ऊबकर तथा जीवन-यापन करने के लिए यह लोग मुगल फौजों को रसद तथा युद्ध सामग्री पहुंचाने का काम करने लगे। शाहजहाँ के नेतृत्व में दक्षिण में बिजापुर के आदिलशाह पर आक्रमण करने के लिए मुगल फौजों के साथ 1630 ई. के लगभग यह बंजारे दक्षिण की ओर पहुंच गए और कालांतर में यह वही बस गए। व्यापार “बंजारों के व्यवसाय अलग-अलग है। प्राचीन काल में बंजारे वाणिज्यकार या व्यापारी के रूप में खाद्य-पदार्थ और अन्य सामाग्रियों को एक स्थान से दूसरे स्थान तक पहुंचाने का कार्य सामूहिक रूप से किया करते थे। बंजारों को देश के चारों दिशाओं में दूर-दूर तक यात्रा करने के बाद अपने मूल स्थान पर लौटना संभव नहीं था। उनकेलिए शीत और ग्रीष्म दोनों ऋतुएं कष्टकारक होती हैं। बंजारा स्त्री-पुरुष अपने व्यापार के लिए बैल, बैलगाडी, ऊंट और घोड़े का प्रयोग करते थे बंजारे किसी भी काम के लिए सामूहिक रूप से जाते थे।”9 बंजारा समुदाय हमेशा उत्पीड़न का शिकार होता रहा है चाहे सामंतशाही व्यवस्था से या अंग्रेजों ये या फिर आजादी के बाद सरकारी नीति से। पहले बंजारा समाज का मुख्य व्यवसाय नमक का था। आजादी की लड़ाई में बंजारों के योगदान को हमेशा ही कमतर आंका गया है। घुमंतू होने की वजह से यह सूचनाओं के आदान-प्रदान का बेहद विश्वसनीय जरिया थे। बाद में अंग्रेजों ने बंजारा सनुदाय को आर्थिक रूप से कमजोर करने के लिए 31 दिसंबर 1859 को ‘नमक कर विधेयक’ थोप दिया। बंजारा समुदाय ने इसका विरोध प्रदर्शन किया। गांधी जी के साथ 1930 में उन्होंने विरोधस्वरूप दांडी मार्च भी किया। अंग्रेजों के इस फैसले से नमक के व्यापारी बंजारों की कमर टूट गई। आखिरकार उन्हें अपना पैतृक नमक का व्यवसाय बदलना पड़ा। उसके बाद से बंजारा समाज आज तक छोटे-मोटे काम कर जीवन-यापन करते हैं। बंजारा समाज की महिला-पुरुष गोंद, सींधा नमक, मिट्टी मुल्तानी, मेहंदी,लोहे से बने औजार जैसे सामान बेचने को मजबूर हुए। कई को शहरों का रुख करना पड़ा। वेशभूषा एवं आभूषण प्रत्येक जाति की अपनी सांस्कृतिक व्यवस्था होती है उस सांस्कृतिक व्यवस्था के पीछे उस जाति का प्राचीन इतिहास छिपा होता है। इसलिए जाति को अन्य से पृथक पहचाना जा सकता है। बंजारा जाति की सांस्कृतिक व्यवस्था अतिप्राचीन तथा परंपरागत है। इनमें इनकी वेशभूषा पद्धति, आहार पद्धति तथा हस्तकलाओं का समावेश होता है। बंजारा समाज अपनी वेषभूषा के कारण पूरे भारत में एक अलग पहचान रखता है। बंजारा जाति की वेशभूषा राजस्थान की वेशभूषा के बहुत नजदीक पाई जाती है। आम तौर पर बंजारा पुरुष सिर पर पगड़ी बांधते हैं। कमीज या झब्बा पहनते हैं। धोती बांधते हैं। हाथ में नारमुखी कड़ा, कानों में मुरकिया व झेले पहनते हैं। अधिकतर यह हाथों में लाठी लिए रहते हैं। बंजारा समाज की महिलाएं बालों की फलियां गुंथ कर उन्हें धागों में पिरोकर चोटी से बांध देती हैं। महिलाएं गले में सुहाग का प्रतीक दोहड़ा पहनती हैं। हाथों में चूड़ा, नाक में नथ, कान में चांदी के ओगन्या, गले में खंगाला, पैरों में कड़िया, नेबरियां, लगंड, उंगुलियों में बिछिया, अंगूठे में गुछला, कमर पर करधनी या कंदौरा, हाथों में बाजूबंद, ड़ोड़िया, हाथ-पान व अंगूठियाँ पहनती हैं। कुछ महिलाएं घाघरा और लहंगा भी पहनती हैं। लुगड़ी ओढ़नी ओढ़ती हैं। बूढ़ी महिलाएं कांचली पहनती हैं। बंजारा स्त्रियों के आभूषण के संबंध में डॉ.

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