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आदि बद्री (उत्तराखंड)

सूची आदि बद्री (उत्तराखंड)

आदि बद्री रानीखेत मार्ग पर कर्णप्रयाग से 17 किलोमीटर दूर तथा चांदपुर गढ़ी से 3 किलोमीटर दूर है। इसका निकटवर्ती तीर्थ है कर्णप्रयाग। चांदपुर गढ़ी से 3 किलोमीटर आगे जाने पर आपके सम्मुख अचानक प्राचीन मंदिर का एक समूह आता है जो सड़क की दांयी ओर स्थित है। किंबदंती है कि इन मंदिरों का निर्माण स्वर्गारोहिणी पथ पर उत्तराखंड आये पांडवों द्वारा किया गया। यह भी कहा जाता है कि इसका निर्माण 8वीं सदी में शंकराचार्य द्वारा हुआ। भारतीय पुरातात्विक सर्वेक्षणानुसार के अनुसार इनका निर्माण 8वीं से 11वीं सदी के बीच कत्यूरी राजाओं द्वारा किया गया। कुछ वर्षों से इन मंदिरों की देखभाल भारतीय पुरातात्विक के सर्वेक्षणाधीन है। मूलरूप से इस समूह में 16 मंदिर थे, जिनमें 14 अभी बचे हैं। प्रमुख मंदिर भगवान विष्णु का है जिसकी पहचान इसका बड़ा आकार तथा एक ऊंचे मंच पर निर्मित होना है। एक सुंदर एक मीटर ऊंचे काली शालीग्राम की प्रतिमा भगवान की है जो अपने चतुर्भुज रूप में खड़े हैं तथा गर्भगृह के अंदर स्थित हैं। इसके सम्मुख एक छोटा मंदिर भगवान विष्णु की सवारी गरूड़ को समर्पित है। समूह के अन्य मंदिर अन्य देवी-देवताओं यथा सत्यनारयण, लक्ष्मी, अन्नपूर्णा, चकभान, कुबेर (मूर्ति विहीन), राम-लक्ष्मण-सीता, काली, भगवान शिव, गौरी, शंकर एवं हनुमान को समर्पित हैं। इन प्रस्तर मंदिरों पर गहन एवं विस्तृत नक्काशी है तथा प्रत्येक मंदिर पर नक्काशी का भाव उस मंदिर के लिये विशिष्ट तथा अन्य से अलग भी है। यहां अब भी पूजा होती है तथा विष्णु मंदिर की देखभाल चक्रदत्त थपलियाल करते हैं जो पास ही थापली गांव के रहने वाले हैं तथा पांच-छ: पीढ़ियों से इस मंदिर के पुजारी रहे हैं। श्रेणी:कर्णप्रयाग.

2 संबंधों: चांदपुर गढ़ी, कर्णप्रयाग

चांदपुर गढ़ी

यह कर्णप्रयाग का निकटवर्ती आकर्षण है। यह उत्तराखंड राज्य में पड़ता है। गढ़वाल का प्रारंभिक इतिहास कत्यूरी राजाओं का है, जिन्होंने जोशीमठ से शासन किया और वहां से 11वीं सदी में अल्मोड़ा चले गये। गढ़वाल से उनके हटने से कई छोटे गढ़पतियों का उदय हुआ, जिनमें पंवार वंश सबसे अधिक शक्तिशाली था जिसने चांदपुर गढ़ी (किला) से शासन किया। कनक पाल को इस वंश का संस्थापक माना जाता है। उसने चांदपुर भानु प्रताप की पुत्री से विवाह किया और स्वयं यहां का गढ़पती बन गया। इस विषय पर इतिहासकारों के बीच विवाद है कि वह कब और कहां से गढ़वाल आया। कुछ लोगों के अनुसार वह वर्ष 688 में मालवा के धारा नगरी से यहां आया। कुछ अन्य मतानुसार वह गुज्जर देश से वर्ष 888 में आया जबकि कुछ अन्य बताते है कि उसने वर्ष 1159 में चांदपुर गढ़ी की स्थापना की। उनके एवं 37वें वंशज अजय पाल के शासन के बीच के समय का कोई अधिकृत रिकार्ड नहीं है। अजय पाल ने चांदपुर गढ़ी से राजधानी हटाकर 14वीं सदी में देवलगढ़ वर्ष 1506 से पहले ले गया और फिर श्रीनगर (वर्ष 1506 से 1519)। यह एक तथ्य है कि पहाड़ी के ऊपर, किले के अवशेष गांव से एक किलोमीटर खड़ी चढ़ाई पर हैं जो गढ़वाल में सबसे पुराने हैं तथा देखने योग्य भी हैं। अवशेष के आगे एक विष्णु मंदिर है, जहां से कुछ वर्ष पहले मूर्ति चुरा ली गयी। दीवारें मोटे पत्थरों से बनी है तथा कई में आलाएं या काटकर दिया रखने की जगह बनी है। फर्श पर कुछ चक्राकार छिद्र हैं जो संभवत: ओखलियों के अवशेष हो सकते हैं। एटकिंसन के अनुसार किले का क्षेत्र 1.5 एकड़ में है। वह यह भी बताता है कि किले से 500 फीट नीचे झरने पर उतरने के लिये जमीन के नीचे एक रास्ता है। इसी रास्ते से दैनिक उपयोग के लिये पानी लाया जाता होगा। एटकिंसन बताता है कि पत्थरों से कटे विशाल टुकड़ों का इस्तेमाल किले की दीवारों के निर्माण में हुआ जिसे कुछ दूर दूध-की-टोली की खुले खानों से निकाला गया होगा। कहा जाता है कि इन पत्थरों को पहाड़ी पर ले जाने के लिये दो विशाल बकरों का इस्तेमाल किया गया जो शिखर पर पहुंचकर मर गये। यह स्मारक अभी भारतीय पुरातात्विक सर्वेक्षण की देख-रेख में है। .

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कर्णप्रयाग

कर्णप्रयाग उत्तराखण्ड राज्य के अन्तर्गत गढ़वाल मण्डल के चमोली जिले का एक कस्बा है।यह अलकनंदा तथा पिण्डर नदियों के संगम पर स्थित है। पिण्डर का एक नाम कर्ण गंगा भी है, जिसके कारण ही इस तीर्थ संगम का नाम कर्ण प्रयाग पडा। यहां पर उमा मंदिर और कर्ण मंदिर दर्शनीय है। .

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