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अविद्या

सूची अविद्या

अविद्या, विद्या का विलोम शब्द है। भारतीय धर्मों में 'अविद्या' का अर्थ है- अज्ञान, गलत धारणा। हिन्दू ग्रन्थों (जैसे उपनिषदों) में 'अविद्या' का बार-बार प्रयोग हुआ है। ब्रह्म ज्ञान से इतर ज्ञान को भी अविद्या कहा गया है। आजकल जिसे विज्ञान कहा जाता है, उसे भी अविद्या कहा गया है। ऐसा नहीं है कि भारतीय दर्शन में सर्वत्र अविद्या को हीन ही बताया गया हओ। कहीं-कहीं उसे विद्या का पूरक भी माना गया है। उदाहरण के लिए, ईशोपनिषद् में उपलब्ध एक मंत्र का अंतिम वाक्यांश निम्नलिखित है: इसका शाब्दिक अर्थ यह है- जो विद्या और अविद्या-इन दोनों को ही एक साथ जानता है, वह अविद्या से मृत्यु को पार करके विद्या से अमृतत्त्व (देवतात्मभाव .

7 संबंधों: माया, ईशावास्य उपनिषद्, विद्या, विद्या और अविद्या, आन्वीक्षिकी, अनभिज्ञता, उपनिषद्

माया

माया शब्द का प्रयोग एक से अधिक अर्थों में होता है। ऐसा प्रतीत होता है कि विचार में परिवर्तन के साथ शब्द का अर्थ बदलता गया। जब हम किसी चकित कर देनेवाली घटना को देखते हैं, तो उसे ईश्वर की माया कह देते हैं। यहाँ माया का अर्थ शक्ति है। जादूगर अपनी चतुराई से पदार्थों को विपरीत रूप में दिखाता है, पदार्थों के अभाव में भी उन्हें दिखा देता है। यह उसकी माया है। यहाँ का अर्थ मिथ्या ज्ञान या ऐसे ज्ञान का विषय है। मिथ्या ज्ञान दो प्रकार का है -- भ्रम और मतिभ्रम। भ्रम में ज्ञान का विषय विद्यमान है परंतु वास्तविक रूप में दिखाता नहीं, मतिभ्रम में बाहर कुछ होता ही नही, हम कल्पना को प्रत्यक्ष ज्ञान समझ लेते हैं। हम में से हर एक कभी न कभी भ्रम या मतिभ्रम का शिकार होता है, कभी द्रष्टा और दृष्ट के दरमियान परदा पड़ जाता है। कभी वातावरण मिथ्या ज्ञान का कारण हो जाता है व्यक्ति की हालत में इसे अविद्या कहते है। माया व्यापक अविद्या है जिसमें सभी मनुष्य फँसे हैं। कुछ विचारक इसे भ्रम के रूप में देखते हैं, कुछ मतिभ्रम के रूप में। पश्चिमी दर्शन में कांट और बर्कले इस भेद को व्यक्त करते हैं। ज्ञानलाभ के अनुसार आरंभ में हमारा मन कोरी पटिया के समान होता है जिसपर बाहर से निरंतर प्रभाव पड़ते रहते हैं। कांट ने कहा कि ज्ञान की प्राप्ति में मन क्रियाहीन नहीं होता, क्रियाशील होता है। सभी घटनाएँ देश और काल में घटती प्रतीत होती है, परंतु देश और काल कोई बाहरी पदार्थ नहीं, ये मन की गुणग्राही शक्ति की आकृतियाँ हैं। प्रत्येक उपलब्ध को इन दोनों साँचों में से गुजरना पड़ता है। इस क्रम में उनका रंग रूप बदल जाता है। इसका परिणाम यह है कि हम किसी पदार्थ को उसके वास्तविक रूप में नहीं देख सकते, चश्में में से देखते हैं, जिसे हम आरंभ से पहने हैं और जिसे उतार नहीं सकते। लॉक ने बाह्म पदार्थों के गुणों में प्रधान और अप्रधान का भेद देखा। प्रधान गुण प्राकृतिक पदार्थों में विद्यमान है, परंतु अप्रधान गुण वह प्रभाव है जो बाह्म पदार्थ हमारे मन पर डालते हैं। बर्कले ने कहा कि जो कुछ अप्रधान गुणों के मानवी होने के पक्ष में कहा जाता है, वही प्रधान गुणों के मानवी होने के पक्ष में कहा जा सकता है। पदार्थ गुणसमूह ही है और सभी गुण मानवी हैं, समस्त सत्ता चेतनों और विचारों से बनी है। हमारे उपलब्ध (Sense Experience) हम पर थोपे या आरोपित किए जाते हैं, परंतु ये प्रकृति के आघात के परिणाम नहीं, ईश्वर की क्रिया के फल हैं। भारत में मायावाद का प्रसिद्ध विवरण है-- "ब्रह्म सत्यम, जगत्‌ मिथ्या"। इस व्यवस्था में जीवात्मा का स्थान कहाँ है? यह भी जगत्‌ का अंश है, ज्ञाता नहीं, आप आभास है। ब्रह्म माया से आप्त होता है और अपने शुद्ध स्वरूप को छोड़कर ईश्वर बन जाता है। ईश्वर, जीव और बाह्म पदार्थ, प्राप्त ब्रह्म के ही तीन प्रकाशन हैं। ब्रह्म के अतिरिक्त तो कुछ ही नहीं, यह सारा खेल होता क्यों है? एक विचार के अनुसार मायावी अपनी दिल्लगी के लिये खेल खेलता है, दूसरे विचार के अनुसार माया एक परदा है जो शुद्ध ब्रह्म को ढक देती है। पहले विचार के अनुसार माया ब्रह्म की शक्ति है, दूसरे के अनुसार उसकी अशक्ति की प्रतीक है। सामान्य विचार के अनुसार मायावाद का सिद्धांत उपनिषदों, ब्रह्मसूत्रों और भगवद गीता में प्रतिपादित है। इसका प्रसार प्रमुख रूप से शंकराचार्य ने किया। उपनिषदों में मायावाद का स्पष्ट वर्णन नहीं, माया शब्द भी एक दो बार ही प्रयुक्त हुआ है। ब्रह्मसूत्रों में शंकर ने अद्वैत को देखा, रामानुज ने इसे नहीं देखा और बहुतेरे विचारकों के लिये रामानुज की व्याख्या अधिक विश्वास करने के योग्य है। भगवद्गीता दार्शनिक कविता है, दर्शन नहीं। शंकर की स्थिति प्राय: भाष्यकार की है। मायावाद के समर्थन में गौड़पाद की कारिकाओं का स्थान विशेष महत्व का है, इसपर कुछ विचार करें। गौड़पाद कारिकाओं के आरंभ में ही कहता है। स्वप्न में जो कुछ दिखाई देता है, वह शरीर के अंदर ही स्थित होता है, वहाँ उसके लिये पर्याप्त स्थान नहीं। स्वप्न देखनेवाला स्वप्न में दूर के स्थानों में जाकर दृश्य देखता है, परंतु जो काल इसमें लगता है वह उन स्थानों में पहुँचने के लिये पर्याप्त नहीं और जागने पर वह वहाँ विद्यमान नहीं होता। देश के संकोच के कारण हमें मानना पड़ता है कि स्वप्न में देखे हुए पदार्थ वस्तुगत अस्तित्व नहीं रखते, काल का संकोच भी बताता है कि स्वप्न के दृश्य वास्तविक नहीं। इसके बाद गौडपाद कहता है कि स्वप्न और जागृत अवस्थाओं में कोई भेद नहीं, दानों एक समान अस्थिर हैं। वर्तमान प्रतीति से पूर्व का अभाव स्वीकृत है, इसके पीछेश् आने वाले अनुभव का भाव अभी हुआ नहीं; जो आदि और अंत में नहीं है, वह वर्तमान में भी वैसा ही है "जिस प्रकार स्वप्न और माया देखे जाते हैं, जैसे गंधर्वनगर दिखता है, उसी तरह पंडितों ने वेदांत में इस जगत्‌ को देखा है।' गौड़पाद के तर्क में दो भाग हैं--.

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ईशावास्य उपनिषद्

ईशोपनिषद् शुक्ल यजुर्वेदीय शाखा के अन्तर्गत एक उपनिषद है। यह उपनिषद् अपने नन्हें कलेवर के कारण अन्य उपनिषदों के बीच बेहद महत्त्वपूर्ण स्थान रखता है। इसमें कोई कथा-कहानी नहीं है केवल आत्म वर्णन है। इस उपनिषद् के पहले श्लोक ‘‘ईशावास्यमिदंसर्वंयत्किंच जगत्यां-जगत…’’ से लेकर अठारहवें श्लोक ‘‘अग्ने नय सुपथा राये अस्मान् विध्वानि देव वयुनानि विद्वान्…’’ तक शब्द-शब्द में मानों ब्रह्म-वर्णन, उपासना, प्रार्थना आदि झंकृत है। एक ही स्वर है — ब्रह्म का, ज्ञान का, आत्म-ज्ञान का। .

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विद्या

विद्या है वो जानकारी और गुण, जो हम दिखाने, सुनाने, या पढ़ाने (शिक्षा) के माध्यम से प्राप्त करते है। हमारे जीवन के शुरुआत में हम सब जीना सीखते है। शिक्षा लोगों को ज्ञान और विद्या दान करने को कहते हैं अथवा व्यवहार में सकारात्मक एंव विकासोन्मुख परिवर्तन को शिक्षा माना जाता है। .

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विद्या और अविद्या

अविद्या शब्द का प्रयोग माया के अर्थ में होता है। भ्रम एवं अज्ञान भी इसके पर्याय है। यह चेतनता की स्थिति तो हो सकती है, लेकिन इसमें जिस वस्तु का ज्ञान होता है, वह मिथ्या होती है। सांसारिक जीव अहंकार अविद्याग्रस्त होने के कारण जगत् को सत्य मान लेता है और अपने वास्तविक रूप, ब्रह्म या आत्मा का अनुभव नहीं कर पाता। एक सत्य को अनेक रूपों में देखना एवं मैं, तू, तेरा, मेरा, यह, वह, इत्यादि का भ्रम उसे अविद्या के कारण होता है। आचार्य शंकर के अनुसार प्रथम देखी हुई वस्तु की स्मृतिछाया को दूसरी वस्तु पर आरोपित करना भ्रम या अध्यास है। रस्सी में साँप का भ्रम इसी अविद्या के कारण होता है। इसी प्रकार माया या अविद्या आत्मा में अनात्म वस्तु का आरोप करती है। आचार्य शंकर के अनुसार इस तरह के अध्यास को अविद्या कहते हैं। संसार के सारा आचार व्यवहार एवं संबंध अविद्याग्रस्त संसार में ही संभव है। अत: संसार व्यवहार रूप से ही सत्य है, परमार्थत: वह मिथ्या है, माया है। माया की कल्पना ऋग्वेद में मिलती है। यह इंद्र की शक्ति मानी गई है, जिससे वह विभिन्न रूपों में प्रकट होती है। उपनिषदों में इन्हें ब्रह्म की शक्ति के रूप में चित्रित किया गया है। किंतु इसे ईश्वर की शक्ति के रूप में अद्वैत वेदांत में भी स्वीकार किया गया है। माया अचितद्य तत्व है, इसलिए ब्रह्म से उसका संबंध नहीं हो सकता। अविद्या भी माया की समानधर्मिणी है। यदि माया सर्वदेशीय भ्रम का कारण है तो अविद्या व्यक्तिगत भ्रम का करण है। दूसरे शब्दों में समष्टि रूप में अविद्या माया है और माय व्यष्टि रूप में अविद्या है। शुक्ति में रजत का आभास या रस्सी में साँप का भ्रम उत्पन्न होने पर हम अधिष्ठान के मूल रूप का नहीं देख पाते। अविद्या दो प्रकार से अधिष्ठान का "आवरण" करती है। इसका अर्थ यह हुआ कि वह अधिष्ठान के वास्तविक रूप को ढँक देती है। द्वितीय, विक्षेप कर देती है, अर्थात् उसपर दूसरी वस्तु का आरोप कर देती है। अविद्या के कारण ही हम एक अद्वैत ब्रह्म के स्थान पर नामरूप से परिपूर्ण जगत् का दर्शन करते हैं। इसीलिए अविद्या को "भावरूप" कहा गया है, क्योंकि वह अपनी विक्षेप शक्ति के कारण ब्रह्म के स्थान पर नानात्य को आभासित करती है। अनिर्वचनीय ख्याति के अनुसार अविद्या न तो सत् है और न असत्। वह सद्सद्विलक्षण है। अविद्या को अनादि तत्व माना गा है। अविद्या ही बंधन का कारण है, क्योंकि इसी के प्रभाव से अहंकार की उत्पत्ति होती है। वास्तविकता एवं भ्रम को ठीक ठीक जानना, वेदान्त में ज्ञान कहा गया है। फलत: ब्रह्म और अविद्या का ज्ञान ही विद्या कहा जाता है। अद्वैत वेदान्त में ज्ञान ही मोक्ष का साधन माना गया है, अतएव विद्या इस साधन का एक अनिवार्य अंग है। विद्या का मूल अर्थ है, सत्य का ज्ञान, परमार्थ तत्व का ज्ञान या आत्मज्ञान। अद्वैत वेदांत में परमार्थ तत्व या सत्य मात्र ब्रह्म को स्वीकार किया गया है। ब्रह्म एव आत्मा में कोई अंतर नहीं है। यह आत्मा ही ब्रह्म है। अस्तु, विद्या को विशिष्ट रूप से आत्मविद्या या ब्रह्मविद्या भी कह सकते हैं। विद्या के दो रूप कहे गए हैं - अपरा विद्या, जो निम्न केटि की विद्या मानी गई है, सगुण ज्ञान से संबंध रखती है। इससे मोक्ष नहीं प्राप्त किया जा सकता। मोक्ष प्राप्त करने का एकमात्र साधन पराविद्या है। इसी को आत्मविद्या या ब्रह्मविद्या भी कहते हैं। अविद्याग्रसत जीवन से मुक्ति पाने के लिए एवं अपने रूप का साक्षात्कार करने के लिए परा विद्या के अंग हैं। यदि अपना विद्या प्रथम सोपान है, तो परा विद्या द्वितीय सोपान है। साधन चतुष्टय से प्रारंभ करके, मुमुक्षु श्रवण, मनन एवं निधिध्यासन, इन त्रिविध मानसिक क्रियाओं का क्रमिक नियमन करता है। वह "तत्वमसि" वाक्य का श्रवण करने के बाद, मनन की प्रक्रिया से गुजरते हुए, ध्यान या समाधि अवस्था में प्रवेश कर जाता है, जहाँ उसे "मैं ही ब्रह्म हूँ" का बोध हो उठता है। यही ज्ञान परा विद्या कहलाता है। भौतिक जगत के जिस ज्ञान को आजकल विज्ञान कहते हैं उसी को उपनिषद में अपराविद्या के नाम से कहा गया है। अभ्युदय और भौतिकता, अविद्या के पर्याय हैं। इसी प्रकार निःश्रेयस और आध्यात्मिकता विद्या के पर्याय हैं। ईशोपनिषद् में उपलब्ध एक मंत्र का अंतिम वाक्यांश निम्नलिखित है: इसका शाब्दिक अर्थ यह है- जो विद्या और अविद्या-इन दोनों को ही एक साथ जानता है, वह अविद्या से मृत्यु को पार करके विद्या से अमृतत्त्व (देवतात्मभाव .

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आन्वीक्षिकी

आन्वीक्षिकी, न्यायशास्त्र का प्राचीन अभिधान। प्राचीन काल में आन्वीक्षिकी, विचारशास्त्र या दर्शन की सामान्य संज्ञा थी और यह त्रयी (वेदत्रयी), वार्ता (अर्थशास्त्र), दंडनीति (राजनीति) के साथ चतुर्थ विद्या के रूप में प्रतिष्ठित थी (आन्वीक्षिकी त्रयी वार्ता दंडनीतिश्च शाश्वती। विद्या ह्येताश्चतस्रस्तु लोकसंसृतिहेतवः) जिसका उपयोग लोक के व्यवहार निर्वाह के लिए आवश्यक माना जाता था। कालांतर में इस शब्द का प्रयोग केवल न्यायशास्त्र के लिए संकुचित कर दिया गया। वात्स्यायन के न्यायभाष्य के अनुसार अन्वीक्षा द्वारा प्रवृत्त होने के कारण ही इस विद्या की संज्ञा "आन्वीक्षिकी" पड़ गई। आन्वीक्षिकी के सर्वाधिक महत्व को सर्वप्रथम चाणक्य ने प्रतिपादित किया है। उनका कहना है- 'अन्वीक्षा' के दो अर्थ हैं.

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अनभिज्ञता

किसी विषय के बारे में जानकारी न होना अनभिज्ञता (Ignorance) कहलाती है। जो किसी विषय के बारे में न जानता हो उसके लिये 'अनभिज्ञ' विशेषण प्रयुक्त होता है। यह शब्द एक 'अपशब्द' की तरह भी प्रयोग किया जाता है और जो लोग जानबूझकर या अनजाने किसी विषय से परिचित न होने वालों के लिये प्रयुक्त होता है। .

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उपनिषद्

उपनिषद् हिन्दू धर्म के महत्त्वपूर्ण श्रुति धर्मग्रन्थ हैं। ये वैदिक वाङ्मय के अभिन्न भाग हैं। इनमें परमेश्वर, परमात्मा-ब्रह्म और आत्मा के स्वभाव और सम्बन्ध का बहुत ही दार्शनिक और ज्ञानपूर्वक वर्णन दिया गया है। उपनिषदों में कर्मकांड को 'अवर' कहकर ज्ञान को इसलिए महत्व दिया गया कि ज्ञान स्थूल से सूक्ष्म की ओर ले जाता है। ब्रह्म, जीव और जगत्‌ का ज्ञान पाना उपनिषदों की मूल शिक्षा है। भगवद्गीता तथा ब्रह्मसूत्र उपनिषदों के साथ मिलकर वेदान्त की 'प्रस्थानत्रयी' कहलाते हैं। उपनिषद ही समस्त भारतीय दर्शनों के मूल स्रोत हैं, चाहे वो वेदान्त हो या सांख्य या जैन धर्म या बौद्ध धर्म। उपनिषदों को स्वयं भी वेदान्त कहा गया है। दुनिया के कई दार्शनिक उपनिषदों को सबसे बेहतरीन ज्ञानकोश मानते हैं। उपनिषद् भारतीय सभ्यता की विश्व को अमूल्य धरोहर है। मुख्य उपनिषद 12 या 13 हैं। हरेक किसी न किसी वेद से जुड़ा हुआ है। ये संस्कृत में लिखे गये हैं। १७वी सदी में दारा शिकोह ने अनेक उपनिषदों का फारसी में अनुवाद कराया। १९वीं सदी में जर्मन तत्त्ववेता शोपेनहावर और मैक्समूलर ने इन ग्रन्थों में जो रुचि दिखलाकर इनके अनुवाद किए वह सर्वविदित हैं और माननीय हैं। .

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निवर्तमानआने वाली
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