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अभिधम्म साहित्य

सूची अभिधम्म साहित्य

बुद्ध के निर्वाण के बाद उनके शिष्यों ने उनके उपदिष्ट 'धर्म' और 'विनय' का संग्रह कर लिया। अट्टकथा की एक परंपरा से पता चलता है कि 'धर्म' से दीघनिकाय आदि चार निकायग्रंथ समझे जाते थे; और धम्मपद सुत्तनिपात आदि छोटे-छोटे ग्रंथों का एक अलग संग्रह बना दिया गया, जिसे 'अभिधर्म' (अतिरिक्त धर्म) कहते थे। जब धम्मसंगणि आदि जैसे विशिष्ट ग्रंथों का भी समावेश इसी संग्रह में हुआ (जो अतिरिक्त छोटे ग्रंथों से अत्यंत भिन्न प्रकार के थे), तब उनका अपना एक स्वतंत्र पिटक- 'अभिधर्मपिटक' बना दिया गया और उन अतिरिक्त छोटे ग्रंथों के संग्रह का 'खुद्दक निकाय' के नाम से पाँचवाँ निकाय बना। 'अभिधम्मपिटक' में सात ग्रंथ हैं- विद्वानों में इनकी रचना के काल के विषय में मतभेद है। प्रारंभिक समय में स्वयं भिक्षुसंघ में इसपर विवाद चलता था कि क्या अभिधम्मपिटक बुद्धवचन है। पाँचवें ग्रंथ कथावत्थु की रचना अशोक के गुरु मोग्गलिपुत्त तिस्स ने की, जिसमें उन्होंने संघ के अंतर्गत उत्पन्न हो गई मिथ्या धारणाओं का निराकण किया। बाद के आचार्यों ने इसे 'अभिधम्मपिटक' में संगृहीत कर इसे बुद्धवचन का गौरव प्रदान किया। शेष छह ग्रंथों में प्रतिपादन विषय समान हैं। पहले ग्रंथ धम्मसंगणि में अभिधर्म के सारे मूलभूत सिद्धांतों का संकलन कर दिया गया है। अन्य ग्रंथों में विभिन्न शैलियों से उन्हीं का स्पष्टीकरण किया गया है। .

7 संबंधों: दीघनिकाय, निर्वाण, खुद्दकनिकाय, गौतम बुद्ध, अट्टकथा, अभिधम्मपिटक, अशोक

दीघनिकाय

दीघनिकाय (संस्कृत:दीर्घनिकाय) बौद्ध ग्रंथ त्रिपिटक के सुत्तपिटक का प्रथम निकाय है। दीघनिकाय में कुल ३४ सुत्त सूत्र है। यह लम्बे सूत्रों का संकलन है। इन सुत्रों के आकार दीर्घ (लम्बा) हैं इसी लिए इस निकाय को दीघनिकाय (पालि दीघ.

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निर्वाण

निर्वाण का शाब्दिक अर्थ है - 'बुझा हुआ' (दीपक अग्नि, आदि)। किन्तु बौद्ध, जैन धर्म और वैदिक धर्म में इसके विशेष अर्थ हैं। श्रमण विचारधारा में (निर्वाण;निब्बान) पीड़ा या दु:ख से मुक्ति पाने की स्थिति है। पाली में "निब्बाण" का अर्थ है "मुक्ति पाना"- यानी, लालच, घृणा और भ्रम की अग्नि से मुक्ति। यह बौद्ध धर्म का परम सत्य है और जैन धर्म का मुख्य सिद्धांत। यद्यपि 'मुक्ति' के अर्थ में निर्वाण शब्द का प्रयोग गीता, भागवत, रघुवंश, शारीरक भाष्य इत्यादि नए-पुराने ग्रंथों में मिलता है, तथापि यह शब्द बौद्धों का पारिभाषिक है। सांख्य, न्याय, वैशेषिक, योग, मीमांसा (पूर्व) और वेदांत में क्रमशः मोक्ष, अपवर्ग, निःश्रेयस, मुक्ति या स्वर्गप्राप्ति तथा कैवल्य शब्दों का व्यवहार हुआ है पर बौद्ध दर्शन में बराबर निर्वाण शब्द ही आया है और उसकी विशेष रूप से व्याख्या की गई है। बौद्ध धर्म की दो प्रधान शाखाएँ हैं—हीनयान (या उत्त- रीय) और महायान (या दक्षिणी)। इनमें से हीनयान शाखा के सब ग्रंथ पाली भाषा में हैं और बौद्ध धर्म के मूल रूप का प्रतिपादन करते हैं। महायान शाखा कुछ पीछे की है और उसके सब ग्रंथ सस्कृत में लिखे गए हैं। महायान शाखा में ही अनेक आचार्यों द्वारा बौद्ध सिद्धांतों का निरूपण गूढ़ तर्कप्रणाली द्वारा दार्शनिक दृष्टि से हुआ है। प्राचीन काल में वैदिक आचार्यों का जिन बौद्ध आचार्यों से शास्त्रार्थ होता था वे प्रायः महायान शाखा के थे। अतः निर्वाण शब्द से क्या अभिप्राय है इसका निर्णय उन्हीं के वचनों द्वारा हो सकता है। बोधिसत्व नागार्जुन ने माध्यमिक सूत्र में लिखा है कि 'भवसंतति का उच्छेद ही निर्वाण है', अर्थात् अपने संस्कारों द्वारा हम बार बार जन्म के बंधन में पड़ते हैं इससे उनके उच्छेद द्वारा भवबंधन का नाश हो सकता है। रत्नकूटसूत्र में बुद्ध का यह वचन हैः राग, द्वेष और मोह के क्षय से निर्वाण होता है। बज्रच्छेदिका में बुद्ध ने कहा है कि निर्वाण अनुपधि है, उसमें कोई संस्कार नहीं रह जाता। माध्यमिक सूत्रकार चंद्रकीर्ति ने निर्वाण के संबंध में कहा है कि सर्वप्रपंचनिवर्तक शून्यता को ही निर्वाण कहते हैं। यह शून्यता या निर्वाण क्या है ! न इसे भाव कह सकते हैं, न अभाव। क्योंकि भाव और अभाव दोनों के ज्ञान के क्षप का ही नाम तो निर्वाण है, जो अस्ति और नास्ति दोनों भावों के परे और अनिर्वचनीय है। माधवाचार्य ने भी अपने सर्वदर्शनसंग्रह में शून्यता का यही अभिप्राय बतलाया है—'अस्ति, नास्ति, उभय और अनुभय इस चतुष्कोटि से विनिमुँक्ति ही शून्यत्व है'। माध्यमिक सूत्र में नागार्जुन ने कहा है कि अस्तित्व (है) और नास्तित्व (नहिं है) का अनुभव अल्पबुद्धि ही करते हैं। बुद्धिमान लोग इन दोनों का अपशमरूप कल्याण प्राप्त करते हैं। उपयुक्त वाक्यों से स्पष्ट है कि निर्वाण शब्द जिस शून्यता का बोधक है उससे चित्त का ग्राह्यग्राहकसंबंध ही नहीं है। मै भी मिथ्या, संसार भी मिथ्या। एक बात ध्यान देने की है कि बौद्ध दार्शनिक जीव या आत्मा की भी प्रकृत सत्ता नहीं मानते। वे एक महाशून्य के अतिरिक्त और कुछ नहीं मानते। .

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खुद्दकनिकाय

खुद्दकनिकाय (पालि भाषा:खुद्दक.

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गौतम बुद्ध

गौतम बुद्ध (जन्म 563 ईसा पूर्व – निर्वाण 483 ईसा पूर्व) एक श्रमण थे जिनकी शिक्षाओं पर बौद्ध धर्म का प्रचलन हुआ। उनका जन्म लुंबिनी में 563 ईसा पूर्व इक्ष्वाकु वंशीय क्षत्रिय शाक्य कुल के राजा शुद्धोधन के घर में हुआ था। उनकी माँ का नाम महामाया था जो कोलीय वंश से थी जिनका इनके जन्म के सात दिन बाद निधन हुआ, उनका पालन महारानी की छोटी सगी बहन महाप्रजापती गौतमी ने किया। सिद्धार्थ विवाहोपरांत एक मात्र प्रथम नवजात शिशु राहुल और पत्नी यशोधरा को त्यागकर संसार को जरा, मरण, दुखों से मुक्ति दिलाने के मार्ग की तलाश एवं सत्य दिव्य ज्ञान खोज में रात में राजपाठ छोड़कर जंगल चले गए। वर्षों की कठोर साधना के पश्चात बोध गया (बिहार) में बोधि वृक्ष के नीचे उन्हें ज्ञान की प्राप्ति हुई और वे सिद्धार्थ गौतम से बुद्ध बन गए। .

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अट्टकथा

अट्ठकथा (अर्थकथा) पालि ग्रंथों पर लिखे गए भाष्य हैं। मूल पाठ की व्याख्या स्पष्ट करने के लिए पहले उससे संबद्ध कथा का उल्लेख कर दिया जाता है, फिर उसके शब्दों के अर्थ बताए जाते हैं। त्रिपिटक के प्रत्येक ग्रंथ पर ऐसी अट्ठकथा प्राप्त होती है। अट्ठकथा की परंपरा मूलतः कदाचित् लंका में सिंहल भाषा में प्रचलित हुई थी। आगे चलकर जब भारतवर्ष में बौद्ध धर्म का ह्रास होने लगा तब लंका से अट्ठकथा लाने की आवश्यकता हुई। इसके लिए चौथी शताब्दी में आचार्य रेवत ने अपने प्रतिभाशाली शिष्य बुद्धघोष को लंका भेजा। बुद्धघोष ने विसुद्धिमग्ग जैसा प्रौढ़ ग्रंथ लिखकर लंका के स्थविरों को संतुष्ट किया और सिंहली ग्रंथों के पालि अनुवाद करने में उनका सहयोग प्राप्त किया। आचार्य बुद्धदत्त और धम्मपाल ने भी इसी परंपरा में कतिपय ग्रंथों पर अट्ठकथाएँ लिखीं। .

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अभिधम्मपिटक

अभिधम्मपिटक एक बौद्ध ग्रंथ है। यह उन तीन ग्रंथौं में से एक है जो त्रिपिटक बनाते है। इस ग्रंथ में विश्लेषणयुक्त देशना और धार्मिक व्याख्या संग्रहित है। परंपरा में कहा गया है कि बुद्ध ने अपने ज्ञान के तुरंत बाद अभिमम्मा को सोचा था, फिर कुछ साल बाद देवताओं को सिखाया। बाद में बुद्ध ने इसे सारिपुट्टा को दोहराया, जिसने इसे अपने शिष्यों को सौंप दिया। यह परंपरा पारिवार में भी स्पष्ट है, विनय पिटाका के बहुत देर से, जो बुद्ध की प्रशंसा की एक अंतिम कविता में उल्लेख करती है कि इस सबसे अच्छे जीव, शेर ने तीन पिटाकों को सिखाया। हालांकि, विद्वान आमतौर पर बुद्ध की मृत्यु के बाद 100 से 200 साल बाद तीसरी शताब्दी ईसा पूर्व के आसपास कुछ समय पैदा करने के लिए अभिमम्मा कार्य करते हैं। इसलिए, सात अभिमम्मा कार्यों का आमतौर पर विद्वानों द्वारा दावा किया जाता है कि बुद्ध के शब्दों का प्रतिनिधित्व न करें, बल्कि शिष्यों और विद्वानों के उन लोगों का प्रतिनिधित्व न करें। रूपर्ट गेथिन ने हालांकि कहा कि अभिम्मा पद्धति के महत्वपूर्ण तत्व शायद बुद्ध के जीवनकाल में वापस आ जाएंगे। ए के वार्डर और पीटर हार्वे दोनों ने मटका के लिए शुरुआती तिथियों का सुझाव दिया जिस पर अबिबिम्मा किताबें आधारित हैं। अभिदम ने सुट्टा, के विस्तार के रूप में शुरुआत की लेकिन बाद में स्वतंत्र सिद्धांत विकसित किए। कैनन के आखिरी बड़े विभाजन के रूप में, अभिमम्मा पितक के पास एक चैकर्ड इतिहास था। इसे महासंघिका स्कूल और कई अन्य स्कूलों द्वारा कैननिकल के रूप में स्वीकार नहीं किया गया था। अभ्यम्मा पितक के भीतर एक अन्य स्कूल में खुदाका निकया का अधिकांश हिस्सा शामिल था। इसके अलावा, अभिम्मा का पाली संस्करण सख्ती से थेरावाड़ा संग्रह है, और अन्य बौद्ध विद्यालयों द्वारा मान्यता प्राप्त अभिमम्मा कार्यों के साथ बहुत कम है। विभिन्न प्रारंभिक विद्यालयों के विभिन्न अभिम्मा दर्शनों पर सिद्धांत पर कोई समझौता नहीं है और 'विभाजित बौद्ध धर्म' (अविभाजित बौद्ध धर्म के विपरीत) की अवधि से संबंधित है। पाली कैनन के शुरुआती ग्रंथों में अभिमम्मा पितक के ग्रंथों (ग्रंथों) का कोई उल्लेख नहीं है। पहली बौद्ध परिषद की कुछ रिपोर्टों में अभिम्मा का भी उल्लेख नहीं किया गया है, जो विनय के ग्रंथों और पांच निकैस या चार आगामा के अस्तित्व का उल्लेख करते हैं, हालांकि यह ध्यान दिया जा सकता है कि आदरणीय पहली परिषद में होने से पहले अभ्यम्मा में सबसे पहले बुद्ध के पास पारित किया गया था । अन्य खातों में अभिमम्मा शामिल है। सरवास्तिव विद्यालय के अभ्यर्थ पित्त के विपरीत थेरावाद्दी अभिमम्मा पितक में, औपचारिक सिद्धांतांकन अनुपस्थित है, और धर्मों की औपचारिक स्थिति का सवाल एक महत्वपूर्ण मुद्दा बना हुआ है। सभाव की धारणा (संस्कृत: svabhava) का उपयोग केवल थ्रावाडिन ग्रंथों में किया जाता है। क्षणिकता का सिद्धांत भी थेरावादा विचारों के लिए एक देर से जोड़ा गया है। यह केवल बौद्धघासा के समय प्रकट होता है .

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अशोक

चक्रवर्ती सम्राट अशोक (ईसा पूर्व ३०४ से ईसा पूर्व २३२) विश्वप्रसिद्ध एवं शक्तिशाली भारतीय मौर्य राजवंश के महान सम्राट थे। सम्राट अशोक का पूरा नाम देवानांप्रिय अशोक मौर्य (राजा प्रियदर्शी देवताओं का प्रिय) था। उनका राजकाल ईसा पूर्व २६९ से २३२ प्राचीन भारत में था। मौर्य राजवंश के चक्रवर्ती सम्राट अशोक ने अखंड भारत पर राज्य किया है तथा उनका मौर्य साम्राज्य उत्तर में हिन्दुकुश की श्रेणियों से लेकर दक्षिण में गोदावरी नदी के दक्षिण तथा मैसूर तक तथा पूर्व में बांग्लादेश से पश्चिम में अफ़ग़ानिस्तान, ईरान तक पहुँच गया था। सम्राट अशोक का साम्राज्य आज का संपूर्ण भारत, पाकिस्तान, अफ़ग़ानिस्तान, नेपाल, बांग्लादेश, भूटान, म्यान्मार के अधिकांश भूभाग पर था, यह विशाल साम्राज्य उस समय तक से आज तक का सबसे बड़ा भारतीय साम्राज्य रहा है। चक्रवर्ती सम्राट अशोक विश्व के सभी महान एवं शक्तिशाली सम्राटों एवं राजाओं की पंक्तियों में हमेशा शिर्ष स्थान पर ही रहे हैं। सम्राट अशोक ही भारत के सबसे शक्तिशाली एवं महान सम्राट है। सम्राट अशोक को ‘चक्रवर्ती सम्राट अशोक’ कहाँ जाता है, जिसका अर्थ है - ‘सम्राटों का सम्राट’, और यह स्थान भारत में केवल सम्राट अशोक को मिला है। सम्राट अशोक को अपने विस्तृत साम्राज्य से बेहतर कुशल प्रशासन तथा बौद्ध धर्म के प्रचार के लिए भी जाना जाता है। सम्राट अशोक ने संपूर्ण एशिया में तथा अन्य आज के सभी महाद्विपों में भी बौद्ध धर्म धर्म का प्रचार किया। सम्राट अशोक के संदर्भ के स्तंभ एवं शिलालेख आज भी भारत के कई स्थानों पर दिखाई देते है। इसलिए सम्राट अशोक की ऐतिहासिक जानकारी एन्य किसी भी सम्राट या राजा से बहूत व्यापक रूप में मिल जाती है। सम्राट अशोक प्रेम, सहिष्णूता, सत्य, अहिंसा एवं शाकाहारी जीवनप्रणाली के सच्चे समर्थक थे, इसलिए उनका नाम इतिहास में महान परोपकारी सम्राट के रूप में ही दर्ज हो चुका है। जीवन के उत्तरार्ध में सम्राट अशोक भगवान बुद्ध की मानवतावादी शिक्षाओं से प्रभावित होकर बौद्ध हो गये और उन्ही की स्मृति में उन्होने कई स्तम्भ खड़े कर दिये जो आज भी नेपाल में उनके जन्मस्थल - लुम्बिनी - में मायादेवी मन्दिर के पास, सारनाथ, बोधगया, कुशीनगर एवं आदी श्रीलंका, थाईलैंड, चीन इन देशों में आज भी अशोक स्तम्भ के रूप में देखे जा सकते है। सम्राट अशोक ने बौद्ध धर्म का प्रचार भारत के अलावा श्रीलंका, अफ़ग़ानिस्तान, पश्चिम एशिया, मिस्र तथा यूनान में भी करवाया। सम्राट अशोक अपने पूरे जीवन में एक भी युद्ध नहीं हारे। सम्राट अशोक के ही समय में २३ विश्वविद्यालयों की स्थापना की गई जिसमें तक्षशिला, नालंदा, विक्रमशिला, कंधार आदि विश्वविद्यालय प्रमुख थे। इन्हीं विश्वविद्यालयों में विदेश से कई छात्र शिक्षा पाने भारत आया करते थे। ये विश्वविद्यालय उस समय के उत्कृट विश्वविद्यालय थे। शिलालेख सुरु करने वाला पहला शासक अशोक ही था, .

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