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अनेकान्तिक हेतु

सूची अनेकान्तिक हेतु

अनेकांतिक हेतु, हेत्वाभास का एक भेद है जिसे सव्यभिचार भी कहते हैं। अनुमान में हेतु को साध्य की अपेक्षा कम स्थानों पर किंतु साध्य के साथ रहना चाहिए। यदि हेतु ऐसा नहीं है तो वह अनेकांतिक है। इस अवस्था में हेतु या तो साध्य से अलग रहता है, या केवल उस स्थान पर रहता है जहाँ साध्य की सिद्धि करनी है या उस हेतु का कोई दृष्टांत नहीं होता। इसलिए इसके तीन भेद होते है.

2 संबंधों: हेत्वाभास, अनुमान

हेत्वाभास

भारतीय न्यायदर्शन (तर्कशास्त्र) में हेत्वाभास उस अवस्था को कहते हैं जिसमें वास्तविक हेतु का अभाव होने पर या किसी अवास्तविक असद् हेतु के वर्तमान रहने पर भी वास्तविक हेतु का आभास मिलता या अस्तित्व दिखाई देता है और उसके फल-स्वरूप भ्रम होता या हो सकता हो। 'हेत्वाभास' दो शब्दों 'हेतु' और 'आभास' की सन्धि से बना है। 'आभास' का मतलब है 'जो नहीं है वह दीखना' या 'जो नहीं है वैसा दीखना'। हेतु का आभास तब होता है जब हेतु के पाँचों लक्षणों (पक्षसत्व, सपक्षसत्व, विपक्षासत्व, अवाधितत्व और असत् प्रतिपक्षतव) का अभाव हो। भारतीय नैयायिकों ने इसके पाँच प्रकारों की चर्चा की है। गौतम ने हेत्वाभास के निम्नलिखित पाँच भेद बताए हैं-.

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अनुमान

अनुमान, दर्शन और तर्कशास्त्र का पारिभाषिक शब्द है। भारतीय दर्शन में ज्ञानप्राप्ति के साधनों का नाम प्रमाण हैं। अनुमान भी एक प्रमाण हैं। चार्वाक दर्शन को छोड़कर प्राय: सभी दर्शन अनुमान को ज्ञानप्राप्ति का एक साधन मानते हैं। अनुमान के द्वारा जो ज्ञान प्राप्त होता हैं उसका नाम अनुमिति हैं। प्रत्यक्ष (इंद्रिय सन्निकर्ष) द्वारा जिस वस्तु के अस्तित्व का ज्ञान नहीं हो रहा हैं उसका ज्ञान किसी ऐसी वस्तु के प्रत्यक्ष ज्ञान के आधार पर, जो उस अप्रत्यक्ष वस्तु के अस्तित्व का संकेत इस ज्ञान पर पहुँचने की प्रक्रिया का नाम अनुमान है। इस प्रक्रिया का सरलतम उदाहरण इस प्रकार है-किसी पर्वत के उस पार धुआँ उठता हुआ देखकर वहाँ पर आग के अस्तित्व का ज्ञान अनुमिति है और यह ज्ञान जिस प्रक्रिया से उत्पन्न होता है उसका नाम अनुमान है। यहाँ प्रत्यक्ष का विषय नहीं है, केवल धुएँ का प्रत्यक्ष ज्ञान होता है। पर पूर्वकाल में अनेक बार कई स्थानों पर आग और धुएँ के साथ-साथ प्रत्यक्ष ज्ञान होने से मन में यह धारणा बन गई है कि जहाँ-जहाँ धुआँ होता है वहीं-वहीं आग भी होती है। अब जब हम केवल धुएँ का प्रत्यक्ष अनुभव करते हैं और हमको यह स्मरण होता है कि जहाँ-जहाँ धुआँ है वहाँ-वहाँ आग होती है, तो हम सोचते हैं कि अब हमको जहाँ धुआँ दिखाई दे रहा हैं वहाँ आग अवश्य होगी: अतएव पर्वत के उस पार जहाँ हमें इस समय धुएँ का प्रत्यक्ष ज्ञान हो रहा है अवश्य ही आग वर्तमान होगी। इस प्रकार की प्रक्रिया के मुख्य अंगों के पारिभाषिक शब्द ये हैं.

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