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अनेकांतवाद

सूची अनेकांतवाद

अनेकान्तवाद जैन धर्म के सबसे महत्वपूर्ण और मूलभूत सिद्धान्तों में से एक है। मौटे तौर पर यह विचारों की बहुलता का सिद्धान्त है। अनेकावान्त की मान्यता है कि भिन्न-भिन्न कोणों से देखने पर सत्य और वास्तविकता भी अलग-अलग समझ आती है। अतः एक ही दृष्टिकोण से देखने पर पूर्ण सत्य नहीं जाना जा सकता। .

6 संबंधों: सिद्धसेन, स्यादवाद, जैन धर्म, व्याख्याप्रज्ञप्ति, आगम (जैन), अनेकान्तिक हेतु

सिद्धसेन

सिद्धसेन दिवाकर पाँचवी शताब्दी के प्रसिद्ध जैन आचार्य थे। वे दिवाकर (सूर्य) की भांति जैन धर्म को प्रकाशित करने वाले थे, इसलिये उन्हें 'दिवाकर' कहा गया। कहा जाता है कि उन्होने अनेक ग्रन्थों की रचना की किन्तु वर्तमान समय में उनमें से अधिकांश उपलब्ध नहीं हैं। 'सन्मतितर्क' उनकी तर्कशास्त्र की सर्वश्रेष्ठ रचना है और वर्तमान समय में भी बहुत पढ़ी जाती है। उन्होने 'कल्याणमन्दिरस्तोत्रम' नामक ग्रन्थ की भी रचना की। .

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स्यादवाद

स्यादवाद जैन दर्शन के अंतर्गत किसी वस्तु के गुण को समझने, समझाने और अभिव्यक्त करने का सापेक्षिक सिद्धांत है। .

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जैन धर्म

जैन ध्वज जैन धर्म भारत के सबसे प्राचीन धर्मों में से एक है। 'जैन धर्म' का अर्थ है - 'जिन द्वारा प्रवर्तित धर्म'। जो 'जिन' के अनुयायी हों उन्हें 'जैन' कहते हैं। 'जिन' शब्द बना है 'जि' धातु से। 'जि' माने - जीतना। 'जिन' माने जीतने वाला। जिन्होंने अपने मन को जीत लिया, अपनी वाणी को जीत लिया और अपनी काया को जीत लिया और विशिष्ट ज्ञान को पाकर सर्वज्ञ या पूर्णज्ञान प्राप्त किया उन आप्त पुरुष को जिनेश्वर या 'जिन' कहा जाता है'। जैन धर्म अर्थात 'जिन' भगवान्‌ का धर्म। अहिंसा जैन धर्म का मूल सिद्धान्त है। जैन दर्शन में सृष्टिकर्ता कण कण स्वतंत्र है इस सॄष्टि का या किसी जीव का कोई कर्ता धर्ता नही है।सभी जीव अपने अपने कर्मों का फल भोगते है।जैन धर्म के ईश्वर कर्ता नही भोगता नही वो तो जो है सो है।जैन धर्म मे ईश्वरसृष्टिकर्ता इश्वर को स्थान नहीं दिया गया है। जैन ग्रंथों के अनुसार इस काल के प्रथम तीर्थंकर ऋषभदेव आदिनाथ द्वारा जैन धर्म का प्रादुर्भाव हुआ था। जैन धर्म की अत्यंत प्राचीनता करने वाले अनेक उल्लेख अ-जैन साहित्य और विशेषकर वैदिक साहित्य में प्रचुर मात्रा में हैं। .

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व्याख्याप्रज्ञप्ति

व्याख्याप्रज्ञप्ति (प्राकृत में: 'विहायापण्णति' या 'विवाहापण्णति'; "Exposition of Explanations") पाँचवाँ जैन आगम है जिसे भगवतीसूत्र भी कहते हैं। कुल १२ जैन आगम हैं जो महावीर स्वामी द्वारा प्रख्यापित माने जाते हैं। व्याख्याप्रज्ञप्ति की रचना सुधर्मस्वामी द्वारा प्राकृत में की गयी है। यह सभी आगमों में बससे बड़ा ग्रन्थ है। कहते हैं कि इसमें ६० हजार प्रश्नों का संग्रह था जिनका उत्तर महावीर स्वामी ने दिया था। .

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आगम (जैन)

आगम शब्द का प्रयोग जैन धर्म के मूल ग्रंथों के लिए किया जाता है। केवल ज्ञान, मनपर्यव ज्ञानी, अवधि ज्ञानी, चतुर्दशपूर्व के धारक तथा दशपूर्व के धारक मुनियों को आगम कहा जाता है। कहीं कहीं नवपूर्व के धारक को भी आगम माना गया है। उपचार से इनके वचनों को भी आगम कहा गया है। जब तक आगम बिहारी मुनि विद्यमान थे, तब तक इनका इतना महत्व नहीं था, क्योंकि तब तक मुनियों के आचार व्यवहार का निर्देशन आगम मुनियों द्वारा मिलता था। जब आगम मुनि नहीं रहे, तब उनके द्वारा रचित आगम ही साधना के आधार माने गए और उनमें निर्दिष्ट निर्देशन के अनुसार ही जैन मुनि अपनी साधना करते हैं। आगम शब्द का उपयोग जैन दर्शन में साहित्य के लिए किया जाता है। श्रुत, सूत्र, सुतं, ग्रन्थ, सिद्धांत, देशना, प्रज्ञापना, उपदेश, आप्त वचन, जिन वचन, ऐतिह्य, आम्नाय आदि सभी आगम के पर्यायवाची शब्द है। आगम शब्द "आ" उपसर्ग और गम धातु से निष्पन्न हुआ है। 'आ' उपसर्ग का अर्थ समन्तात अर्थात पूर्ण और गम धातु का अर्थ गति प्राप्त है अर्थात जिससे वस्तु तत्त्व (पदार्थ के रहस्य) का पूर्ण ज्ञान हो वह आगम है अथवा ये भी कहा जा सकता है कि आप्त पुरुष (अरिहंत, तीर्थंकर या केवली) जिनेश्वर रूप में जो ज्ञान का उपदेश देते है उन शब्दों को गणधर (उनके प्रमुख शिष्य) जिनकी लिपि बद्ध रूप में रचना करते है उन सूत्रों को आगम कहते है। .

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अनेकान्तिक हेतु

अनेकांतिक हेतु, हेत्वाभास का एक भेद है जिसे सव्यभिचार भी कहते हैं। अनुमान में हेतु को साध्य की अपेक्षा कम स्थानों पर किंतु साध्य के साथ रहना चाहिए। यदि हेतु ऐसा नहीं है तो वह अनेकांतिक है। इस अवस्था में हेतु या तो साध्य से अलग रहता है, या केवल उस स्थान पर रहता है जहाँ साध्य की सिद्धि करनी है या उस हेतु का कोई दृष्टांत नहीं होता। इसलिए इसके तीन भेद होते है.

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