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अनुपलब्धि

सूची अनुपलब्धि

भारतीय दर्शन के सन्दर्भ में, अनुपलब्धि या अभावप्रमाण एक प्रमाण है। इसे पूर्वमीमांसा में कुमारिल भट्ट सम्प्र्दाय ने एक प्रमाण माना है। पूर्वमीमांसा ने इसके अतिरिक्त पाँच अन्य प्रमाण माने हैं, जो ये हैं- प्रत्यक्ष, अनुमान, शब्द, उपमान, ('comparison' या analogy) तथा अर्थापत्ति ('presumption') श्रेणी:भारतीय दर्शन.

9 संबंधों: प्रत्यक्ष, प्रमाण (भारतीय दर्शन), भारतीय दर्शन, मीमांसा दर्शन, शब्द, कुमारिल भट्ट, अनुमान, अर्थापत्ति, उपमान

प्रत्यक्ष

भारतीय दर्शन के सन्दर्भ में, प्रत्यक्ष, तीन प्रमुख प्रमाणों में से एक है। यह प्रमाण सबसे श्रेष्ठ माना जाता है। 'प्रत्यक्ष' का शाब्दिक अर्थ है- वह वस्तु जो आँखों के सामने हो। यहाँ 'आँख' से तात्पर्य सभी इंद्रियों से है। प्रत्यक्ष का अर्थ प्रति+अक्ष होता है। प्रति का अर्थ 'सामने' और अक्ष का अर्थ 'आँख', यानी प्रत्यक्ष का अर्थ 'आँख के सामने' होता है। यहा अक्ष का अर्थ संकुचित न लेते हुए व्यापक अर्थ पाँच इंद्रिय (आँख, कान, नाक, जिह्वा, त्वचा) के सामने अर्थात् पाच इंद्रियों के समक्ष होने वाले ज्ञान को प्रत्यक्ष ज्ञान कहते हैं। यह ज्ञान प्राप्ति का साधन है। न्याय दर्शन के अनुसार प्रत्यक्ष का अर्थ इंद्रियार्थसंन्निकर्षजन्य ज्ञानम् प्रत्यक्षम् यह है। प्रत्यक्ष ज्ञान की उत्पत्ति कुछ इस प्रकार होती है। इनमें से आत्मा, मन और इंद्रिय का संयोग रूप जो ज्ञान का करण या प्रमाण है वही प्रत्यक्ष है। वस्तु के साथ इंद्रिय-संयोग होने से जो उसका ज्ञान होता है उसी को 'प्रत्यक्ष' कहते हैं। गौतम ने न्यायसूत्र में कहा है कि इंद्रिय के द्वारा किसी पदार्थ का जो ज्ञान होता है, वही प्रत्यक्ष है। जैसे, यदि हमें सामने आगे जलती हुई दिखाई दे अथवा हम उसके ताप का अनुभव करें तो यह इस बात का प्रत्यक्ष प्रमाण है कि 'आग जल रही है'। इस ज्ञान में पदार्थ और इंद्रिय का प्रत्यक्ष संबंध होना चाहिए। यदि कोई यह कहे कि 'वह किताब पुरानी है' तो यह प्रत्यक्ष प्रमाण नहीं है; क्योंकि इसमें जो ज्ञान होता है, वह केवल शब्दों के द्वारा होता है, पदार्थ के द्वारा नहीं, इसिलिये यह शब्दप्रमाण के अंतर्गत चला जायगा। पर यदि वही किताब हमारे सामने आ जाय और मैली कुचैली या फटी हुई दिखाई दे तो हमें इस बात का अवश्य प्रत्यक्ष ज्ञान हो जायगा कि 'यह किताब पुरानी है'। प्रत्यक्ष ज्ञान किसी के कहे हुए शब्दों द्वारा नहीं होता, इसी से उसे 'अव्यपदेश्य' कहते हैं। प्रत्यक्ष को अव्यभिचारी इसलिये कहते हैं कि उसके द्वारा जो वस्तु जैसी होती है उसका वैसा ही ज्ञान होता है। कुछ नैयायिक इस ज्ञान के करण को ही प्रमाण मानते हैं। उनके मत से 'प्रत्यक्ष प्रमाण' इंद्रिय है, इंद्रिय से उत्पन्न ज्ञान 'प्रत्यक्ष ज्ञान' है। पर अव्यपदेश्य पद से सूत्रकार का अभिप्राय स्पष्ट है कि वस्तु का जो निर्विकल्पक ज्ञान है वही प्रत्यक्ष प्रमाण है। नवीन ग्रंथकार दोनों मतों को मिलाकर कहते हैं कि प्रत्यक्ष ज्ञान के करण (अर्थात प्रत्यक्ष प्रमाण) तीन हैं-.

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प्रमाण (भारतीय दर्शन)

भारतीय दर्शन में प्रमाण उसे कहते हैं जो सत्य ज्ञान करने में सहायता करे। अर्थात् वह बात जिससे किसी दूसरी बात का यथार्थ ज्ञान हो। प्रमाण न्याय का मुख्य विषय है। 'प्रमा' नाम है यथार्थ ज्ञान का। यथार्थ ज्ञान का जो करण हो अर्थात् जिसके द्वारा यथार्थ ज्ञान हो उसे प्रमाण कहते हैं। गौतम ने चार प्रमाण माने हैं- प्रत्यक्ष, अनुमान, उपमान और शब्द। .

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भारतीय दर्शन

भारत में 'दर्शन' उस विद्या को कहा जाता है जिसके द्वारा तत्व का साक्षात्कार हो सके। 'तत्व दर्शन' या 'दर्शन' का अर्थ है तत्व का साक्षात्कार। मानव के दुखों की निवृति के लिए और/या तत्व साक्षात्कार कराने के लिए ही भारत में दर्शन का जन्म हुआ है। हृदय की गाँठ तभी खुलती है और शोक तथा संशय तभी दूर होते हैं जब एक सत्य का दर्शन होता है। मनु का कथन है कि सम्यक दर्शन प्राप्त होने पर कर्म मनुष्य को बंधन में नहीं डाल सकता तथा जिनको सम्यक दृष्टि नहीं है वे ही संसार के महामोह और जाल में फंस जाते हैं। भारतीय ऋषिओं ने जगत के रहस्य को अनेक कोणों से समझने की कोशिश की है। भारतीय दार्शनिकों के बारे में टी एस एलियट ने कहा था- भारतीय दर्शन किस प्रकार और किन परिस्थितियों में अस्तित्व में आया, कुछ भी प्रामाणिक रूप से नहीं कहा जा सकता। किन्तु इतना स्पष्ट है कि उपनिषद काल में दर्शन एक पृथक शास्त्र के रूप में विकसित होने लगा था। तत्त्वों के अन्वेषण की प्रवृत्ति भारतवर्ष में उस सुदूर काल से है, जिसे हम 'वैदिक युग' के नाम से पुकारते हैं। ऋग्वेद के अत्यन्त प्राचीन युग से ही भारतीय विचारों में द्विविध प्रवृत्ति और द्विविध लक्ष्य के दर्शन हमें होते हैं। प्रथम प्रवृत्ति प्रतिभा या प्रज्ञामूलक है तथा द्वितीय प्रवृत्ति तर्कमूलक है। प्रज्ञा के बल से ही पहली प्रवृत्ति तत्त्वों के विवेचन में कृतकार्य होती है और दूसरी प्रवृत्ति तर्क के सहारे तत्त्वों के समीक्षण में समर्थ होती है। अंग्रेजी शब्दों में पहली की हम ‘इन्ट्यूशनिस्टिक’ कह सकते हैं और दूसरी को रैशनलिस्टिक। लक्ष्य भी आरम्भ से ही दो प्रकार के थे-धन का उपार्जन तथा ब्रह्म का साक्षात्कार। प्रज्ञामूलक और तर्क-मूलक प्रवृत्तियों के परस्पर सम्मिलन से आत्मा के औपनिषदिष्ठ तत्त्वज्ञान का स्फुट आविर्भाव हुआ। उपनिषदों के ज्ञान का पर्यवसान आत्मा और परमात्मा के एकीकरण को सिद्ध करने वाले प्रतिभामूलक वेदान्त में हुआ। भारतीय मनीषियों के उर्वर मस्तिष्क से जिस कर्म, ज्ञान और भक्तिमय त्रिपथगा का प्रवाह उद्भूत हुआ, उसने दूर-दूर के मानवों के आध्यात्मिक कल्मष को धोकर उन्हेंने पवित्र, नित्य-शुद्ध-बुद्ध और सदा स्वच्छ बनाकर मानवता के विकास में योगदान दिया है। इसी पतितपावनी धारा को लोग दर्शन के नाम से पुकारते हैं। अन्वेषकों का विचार है कि इस शब्द का वर्तमान अर्थ में सबसे पहला प्रयोग वैशेषिक दर्शन में हुआ। .

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मीमांसा दर्शन

मीमांसा दर्शन हिन्दुओं के छः दर्शनों में से एक है। पक्ष-प्रतिपक्ष को लेकर वेदवाक्यों के निर्णीत अर्थ के विचार का नाम मीमांसा है। उक्त विचार पूर्व आर्य परंपरा से चला आया है। किंतु आज से प्राय: सवा पाँच हजार वर्ष पूर्व सामवेद के आचार्य कृष्ण द्वैपायन के शिष्य ने उसे सूत्रबद्ध किया। सूत्रों में पूर् पक्ष और सिद्धान्त के रूप में बादरायण, बादरि, आत्रेय, आश्मरथ्य, आलेखन, एेतिशायन, कामुकायन, कार्ष्णाजिनि अाैर लाबुकायन महर्षियों का उल्लेख मिलता है, जिसका विस्तृत विवेचन सूत्रों के भाष्य अाैर वार्तिक में किया गया है, जिनसे सहस्राधिकरण हो गए हैं। इस शास्त्र काे पूर्वमीमांसा अाैर वेदान्त काे उत्तरमीमांसा भी कहा जाता है। पूर्ममीमांसा में धर्म का विचार है अाैर उत्तरमीमांसा में ब्रह्म का। अतः पूर्वमीमांसा काे धर्ममीमांसा अाैर उत्तर मीमांसा काे ब्रह्ममीमांसा भी कहा जाता है। जैमिनि मुनि द्वारा रचित सूत्र हाेने से मीमांसा काे जैमिनीय धर्ममीमांसा कहा जाता है। जर्मन विद्वान मैक्समूलर का कहना है कि - "यह दर्शन शास्त्र कोटि में नहीं आ सकता, क्योंकि इसमें धर्मानुष्ठान का ही विवेचन किया गया है। इसमें जीव, ईश्वर, बंध, मोक्ष और उनके साधनों का कहीं भी विवेचन नहीं है।" मैक्समूलर मत के पक्षपाती कुछ भारतीय विद्वान् भी इसे दर्शन कहने में संकोच करते हैं, क्योंकि न्याय, वैशेषिक, सांख्य, योग और वेदांत में जिस प्रकार तत् तत् प्रकरणों में प्रमाण और प्रमेयों के द्वारा आत्मा-अनात्मा, बंध-मोक्ष आदि का मुख्य रूप से विवेचन मिलता है, वैसा मीमांसा दर्शन के सूत्र, भाष्य और वार्तिक आदि में दृष्टिगोचर नहीं होता। उपर्युक्त विचारकों ने स्थूल बुद्धि से ग्रंथ का अध्ययन कर अपने विचार व्यक्त किए हैं। फिर भी स्पष्ट है कि मीमांसा दर्शन ही सभी दर्शनों का सहयोगी कारण है। जैमिनि ने इन विषयों का बीज रूप से अपने सूत्रों में उपन्यास किया है "सत्संप्रयोगे पुरुषस्येंद्रियणां बुद्धि जन्म तत् प्रत्यक्षम्" (जै.ध.मी.सू. १।१।४) चतुर्थ सूत्र में दो शब्द आए हैं - पुरुष और बुद्धि। पुरुष शब्द से "आत्मा" ही विवक्षित है। यह अर्थ कुमारिल भट्ट ने "भाट्टदीपिका" में लिखा है। बुद्धि शब्द से ज्ञान, (प्रमिति) प्रमाता, प्रमेय और प्रमाण अर्थ को व्यक्त किया गया है। वृत्तिकार ने "तस्य निमित्त परीष्टि:" पर्यत तीन सूत्रों में प्रत्यक्ष, अनुमान शब्द, अर्थापति और अनुपलब्धि प्रमाणों का सपरिकर विशद विवेचन तथा औत्पत्तिक सूत्र में आत्मवाद का विशेष विवेचन अपने व्याख्यान में किया है। इसी का विश्लेषण शाबर भाष्य, श्लोक वार्तिक, शास्त्रदीपिका, भाट्ट चिंतामणि आदि ग्रंथों में किया गया है जिसमें प्रमाण और प्रमेयों का भेद, बंध, मोक्ष और उनके साधनों का भी विवेचन है। मीमांसा दर्शन में भारतवर्ष के मुख्य प्राणधन धर्म का वर्णाश्रम व्यवस्था, आधानादि, अश्वमेधांत आदि विचारों का विवेचन किया गया है। प्राय: विश्व में ज्ञानी और विरक्त पुरुष सर्वत्र होते आए हैं, किंतु धर्माचरण के साक्षात् फलवेत्ता और कर्मकांड के प्रकांड विद्वान् भारतवर्ष में ही हुए हैं। इनमें कात्यायन, आश्वलायन, आपस्तंब, बोधायन, गौतम आदि महर्षियों के ग्रंथ आज भी उपलब्ध हैं। (कर्मकांड के विद्वानों के लिए उपनिषदों में महाशाला; श्रोत्रिया:, यह विशेषण प्राप्त होता है)। भारतीय कर्मकांड सिद्धांत का प्रतिदान और समर्थन इसी दर्शन में प्राप्त होता है। डॉ॰ कुंनन् राजा ने "बृहती" के द्वितीय संस्करण की भूमिका में इसका समुचित रूप से निरूपण किया है। यद्यपि कणाद मुनि कृत वैशेषिक दर्शन में धर्म का नामतः उल्लेख प्राप्त होता है - (1. 1, 11. 1. 2, 1.1. 3) तथापि उसके विषय में आगे विचार नहीं किया गया है। किसी विद्वान् का कहना है - अर्थात् जैसे कोई मनुष्य समुद्र पर्यन्त जाने की इच्छा रखते हुए हिमालय में चला जाता है, उसी प्रकार धर्म के व्याख्यान के इच्छुक कणाद मुनि षट् पदार्थों का विवेचन करते रह गए। उत्तर मीमांसा (वेदान्त) के सिद्धांत के अनुसार कर्मत्याग के पश्चात् ही आत्मज्ञान प्राप्ति का अधिकार है, किंतु पूर्व मीमांसा दर्शन के अनुसार - इस वेदमंत्र के अनुसार मुमुक्षु जनों को भी कर्म करना चाहिए। वेदविहित कर्म करने से कर्मबंधन स्वत: समाप्त हो जाता है - ("कर्मणा त्यज्यते ह्यसौ।) तस्मान्मुमुक्षुभिः कार्य नित्यं नैमित्तिकं तथा" आदि वचनों के अनुसार भारतीय आस्तिक दर्शनों का मुख्य प्राण मीमांसा दर्शन है। .

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शब्द

एक या एक से अधिक वर्णों से बनी हुई स्वतंत्र सार्थक ध्वनि शब्द है। जैसे- एक वर्ण से निर्मित शब्द- न (नहीं) व (और) अनेक वर्णों से निर्मित शब्द-कुत्ता, शेर, कमल, नयन, प्रासाद, सर्वव्यापी, परमात्मा आदि भारतीय संस्कृति में शब्द को ब्रह्म कहा गया है। एक से ज़्यादा शब्द मिलकर एक पूरा वाक्य बनाते है। .

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कुमारिल भट्ट

कुमारिल भट्ट (लगभग ६५० ई) मीमांसा दर्शन के दो प्रधान संप्रदायों में से एक भटसंप्रदाय के संस्थापक थे। उन्होने बौद्ध धर्म को भारत से समूल उखाड़ने के लिए बौद्धिक दिग्विजय का दिव्य अभियान चलाया। कुमारिल भट ने जो आधार तैयार किया उसी पर आदि शंकराचार्य विशाल भवन उठाया। .

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अनुमान

अनुमान, दर्शन और तर्कशास्त्र का पारिभाषिक शब्द है। भारतीय दर्शन में ज्ञानप्राप्ति के साधनों का नाम प्रमाण हैं। अनुमान भी एक प्रमाण हैं। चार्वाक दर्शन को छोड़कर प्राय: सभी दर्शन अनुमान को ज्ञानप्राप्ति का एक साधन मानते हैं। अनुमान के द्वारा जो ज्ञान प्राप्त होता हैं उसका नाम अनुमिति हैं। प्रत्यक्ष (इंद्रिय सन्निकर्ष) द्वारा जिस वस्तु के अस्तित्व का ज्ञान नहीं हो रहा हैं उसका ज्ञान किसी ऐसी वस्तु के प्रत्यक्ष ज्ञान के आधार पर, जो उस अप्रत्यक्ष वस्तु के अस्तित्व का संकेत इस ज्ञान पर पहुँचने की प्रक्रिया का नाम अनुमान है। इस प्रक्रिया का सरलतम उदाहरण इस प्रकार है-किसी पर्वत के उस पार धुआँ उठता हुआ देखकर वहाँ पर आग के अस्तित्व का ज्ञान अनुमिति है और यह ज्ञान जिस प्रक्रिया से उत्पन्न होता है उसका नाम अनुमान है। यहाँ प्रत्यक्ष का विषय नहीं है, केवल धुएँ का प्रत्यक्ष ज्ञान होता है। पर पूर्वकाल में अनेक बार कई स्थानों पर आग और धुएँ के साथ-साथ प्रत्यक्ष ज्ञान होने से मन में यह धारणा बन गई है कि जहाँ-जहाँ धुआँ होता है वहीं-वहीं आग भी होती है। अब जब हम केवल धुएँ का प्रत्यक्ष अनुभव करते हैं और हमको यह स्मरण होता है कि जहाँ-जहाँ धुआँ है वहाँ-वहाँ आग होती है, तो हम सोचते हैं कि अब हमको जहाँ धुआँ दिखाई दे रहा हैं वहाँ आग अवश्य होगी: अतएव पर्वत के उस पार जहाँ हमें इस समय धुएँ का प्रत्यक्ष ज्ञान हो रहा है अवश्य ही आग वर्तमान होगी। इस प्रकार की प्रक्रिया के मुख्य अंगों के पारिभाषिक शब्द ये हैं.

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अर्थापत्ति

मीमांसा दर्शन में अर्थापत्ति एक प्रमाण माना गया है। यदि कोई व्यक्ति जीवित है किंतु घर में नहीं है तो अर्थापत्ति के द्वारा ही यह ज्ञात होता है कि वह बाहर है। प्रभाकर के अनुसार अर्थापत्ति से तभी ज्ञान संभव है जब घर में अनुपस्थित व्यक्ति के संबंध में संदेह हो। कुमारिल के मत में उस व्यक्ति के जीवन के बारे में निश्चय तथा घर में अनुपस्थिति दोनों का मिलाकर ही उस व्यक्ति के बाहर होने का ज्ञान होता है। न्यायशास्त्र के अनुसार अर्थापत्ति अनुमान के अंतर्गत है। .

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उपमान

दर्शन में किसी अज्ञात वस्तु को किसी ज्ञात वस्तु की समानता के आधार पर किसी नाम से जानना उपमान कहलाता है। जैसे किसी को मालूम है कि नीलगाय, गाय जैसी होती है; कभी उसने जंगल में गाय जैसा पशु देखा और समझ गया कि यही नीलगाय है। यह ज्ञान गाय के ज्ञान से हुआ है। किंतु शब्दज्ञान से इसमें भेद है। शब्दज्ञान से शब्द सुनकर बोध होता है, उपमान में समानता से बोध होता है। न्यायशास्त्र में इसे अलग प्रमाण माना गया है किंतु बौद्ध, वैशेषिक आदि दर्शन इसे अनुमान के अंतर्गत मानते हैं। .

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