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अतिताप

सूची अतिताप

अतिताप, तापमान नियंत्रण की विफलता के कारण शरीर का बढ़ा हुआ तापमान होता है। अतिताप तब होता है जब शरीर ताप को अपव्यय करने की अपनी क्षमता से अधिक ताप का उत्पादन करता है या अवशोषित करता है। जब शरीर की गर्मी काफी अधिक हो जाती है, तब आपातकालीन चिकित्सा की स्थिति हो जाती है और विकलांगता या मृत्यु से बचने के लिए तत्काल उपचार की आवश्यकता होती है। इसका सबसे सामान्य कारण ऊष्माघात और दवाओं की प्रतिकूल प्रतिक्रिया होती है। ऊष्माघात की तीव्र स्थिति अतिताप है जो अत्यधिक गर्मी या गर्मी और आर्द्रता में लम्बे समय तक रहने से होता है। शरीर का ताप-विनियमन तंत्र अंततः अभिभूत बन जाता है और ताप के साथ प्रभावी रूप से निपटने में असमर्थ हो जाता है जिसके कारण शरीर का तापमान अनियंत्रित स्थिति में पहुंच जाता है। अतिताप, कई दवाओं का एक अपेक्षाकृत दुर्लभ पक्ष प्रभाव है, विशेष रूप से वे दवाएं जो केंद्रीय तंत्रिका प्रणाली को प्रभावित करती हैं। घातक अतिताप, सामान्य संज्ञाहरण के कुछ प्रकार की दुर्लभ जटिलता है। अतिताप को ड्रग्स या चिकित्सा उपकरणों के द्वारा कृत्रिम रूप से बनाया जा सकता है। अतिताप चिकित्सा का इस्तेमाल कैंसर के कुछ प्रकार के इलाज के लिए किया जा सकता है और अन्य स्थितियों में रेडियोथेरेपी के साथ आमतौर पर संयोजन में होता है।, अमेरिका का राष्ट्रीय कैंसर संस्थान से.

16 संबंधों: ऊष्मा, एस्पिरिन, निश्चेतनता, पसीना, पेरासिटामोल, रक्त वाहिका, हाईपोथर्मिया, ज्वर, ज्वरहारी, जीवाणु, विषाणु, ऑक्सीजन, कर्कट रोग, केन्द्रीय तंत्रिका तंत्र, कोकेन, अधिवृक्क ग्रंथि

ऊष्मा

इस उपशाखा में ऊष्मा ताप और उनके प्रभाव का वर्णन किया जाता है। प्राय: सभी द्रव्यों का आयतन तापवृद्धि से बढ़ जाता है। इसी गुण का उपयोग करते हुए तापमापी बनाए जाते हैं। ऊष्मा या ऊष्मीय ऊर्जा ऊर्जा का एक रूप है जो ताप के कारण होता है। ऊर्जा के अन्य रूपों की तरह ऊष्मा का भी प्रवाह होता है। किसी पदार्थ के गर्म या ठंढे होने के कारण उसमें जो ऊर्जा होती है उसे उसकी ऊष्मीय ऊर्जा कहते हैं। अन्य ऊर्जा की तरह इसका मात्रक भी जूल (Joule) होता है पर इसे कैलोरी (Calorie) में भी व्यक्त करते हैं। .

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एस्पिरिन

एस्पिरिन (यूएसएएन)(USAN), जिसे एसिटाइलसैलिसाइलिक एसिड (संक्षिप्त में एएसए), भी कहते हैं, एक सैलिसिलेट औषधि है, जो अकसर हल्के दर्दों से छुटकारा पाने के लिये दर्दनिवारक के रूप में, ज्वर कम करने के लिये ज्वरशामक के रूप में और शोथ-निरोधी दवा के रूप में प्रयोग में लाई जाती है। एस्पिरिन का एक प्लेटलेट-विरोधी प्रभाव भी होता है, जो थ्राम्बाक्सेन उत्पादन के अवरोध से उत्पन्न होता है, जो सामान्य परिस्थितियों में प्लेटलेटों के अणुओं को आपस में बांधकर रक्त नलिकाओं के भीतर की भित्तियों पर हुई चोट पर एक चकत्ते का निर्माण करता है। चूंकि प्लेटलेटों का चकत्ता काफी बड़ा होकर रक्त-प्रवाह में उस स्थान पर या आगे कहीं भी रूकावट पैदा कर सकता है, इसलिये रक्त के थक्कों के विकास के अधिक जोखम वाले लोगों में एस्पिरिन का प्रयोग लंबे समय के लिये कम मात्रा में हृदयाघात, मस्तिष्क-आघात और रक्त के थक्कों की रोकथाम के लिये भी किया जाता है। यह भी पाया गया है कि हृदयाघात के तुरंत बाद थोड़ी मात्रा में एस्पिरिन देकर एक और हृदयाघात या हृदय के ऊतक की मृत्यु का जोखम कम किया जा सकता है। एस्पिरिन के, विशेषकर अधिक मात्रा में लेने पर, मुख्य अवांछित दुष्प्रभावों में आमाशय व आंतों में छाले, आमाशय में रक्तस्राव और कानों में आवाज आना शामिल हैं। बच्चों और किशोरों में रेइज़ सिंड्रोम के जोखम के कारण, फ्लू जैसे लक्षणों या छोटी चेचक (चिकनपॉक्स) या अन्य वाइरस रोगों के लक्षणों के नियंत्रण के लिये अब एस्पिरिन का इस्तेमाल नहीं किया जाता.

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निश्चेतनता

चिकित्सा के क्षेत्र में निश्चेतनता (Coma .

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पसीना

चेहरे पर पसीना पसीना या स्वेद (perspiration) स्तनधारियों की त्वचा में स्थित ग्रंथियों से निकलने वाला एक तरल पदार्थ है, जिसमें पानी मुख्य रूप से शामिल हैं और साथ ही विभिन्न क्लोराइड 2-मेथिलफिनोल (ओ-cresol), 4 मेथिलफिनोल (पी cresol), तथा यूरिया की थोडी सी मात्रा होती है। मनुष्यों में, मुख्य रूप से पसीना तापमान नियंत्रक का कार्य करता है। अत्यंत गर्मी में त्वचा की सतह से पसीने के वाष्पीकरण के कारण ठंडा प्रभाव पड़ता है; इसलिए, गर्म मौसम में, या व्यक्ति की मांसपेशियों को मेहनत के काम करने के कारण, शरीर द्वारा और अधिक पसीने का उत्पादन किया जाता है। पसीना hypothalamus के preoptic और anterior क्षेत्रों के एक केंद्र से नियंत्रित होता है, जहां तापमान संवेदी न्यूरॉन्स स्थित हैं। Hypothalamus की गर्मी विनियामक क्रिया त्वचा में तापमान रिसेप्टर्स से प्राप्त सूचनाओं से भी प्रभावित होती है। .

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पेरासिटामोल

पेरासिटामोल (INN)() या एसिटामिनोफेन (USAN) व्यापक रूप से प्रयुक्त की जाने वाली काउंटर पर उपलब्ध एनाल्जेसिक (दर्द निवारक) और एंटीपायरेटिक (बुखार कम करने वाली) दवा है। इसका प्रयोग आम तौर पर बुखार, सर दर्द और अन्य छोटे मोटे दर्द से राहत पाने के लिए किया जाता है और यह असंख्य सर्दी और फ्लू के उपचार में काम में ली जाने वाली दवाओं का प्रमुख अवयव है। स्टेरोयड रहित प्रति-शोथ दवाओं (NSAIDs) और ओपिओइड एनाल्जेसिक के साथ संयोजन में, पेरासिटामोल का प्रयोग अधिक गंभीर दर्द के इलाज में भी किया जाता है। (जैसे सर्जरी के बाद में होने वाले दर्द में)ओपिओइड एनाल्जेसिक हालांकि इसे आम तौर पर निर्धारित मात्रा में मानव उपयोग के लिए सुरक्षित माना जाता है, लेकिन पेरासिटामोल की निर्धारित मात्रा से अधिक खुराक (वयस्कों में प्रति खुराक 1000 mg से ज्यादा और प्रति दिन 4000 mg से ज्यादा और प्रति दिन 2000 mg से ज्यादा यदि एल्कोहल का सेवन किया जा रहा है) लीवर की घातक क्षति का कारण बन सकती है, किसी किसी व्यक्ति में सामान्य खुराक भी इसी प्रकार से हानिकारक हो सकती है; यह जोखिम एल्कोहल के उपभोग के साथ बढ़ जाता है। पश्चिमी दुनिया में पेरासिटामोल की विषालुता लीवर की घातक विफलता का सबसे प्रमुख कारण है और संयुक्त राज्य अमेरिका, संयुक्त राष्ट्र, ऑस्ट्रेलिया और न्यूजीलेंड में सबसे ज्यादा ओवरडोज़ इसी दवा की ली जाती है। पेरासिटामोल की व्युत्पत्ति कोलतार से हुई है और यह "एनिलिन एनाल्जेसिक" नामक दवाओं के वर्ग का एक भाग है। यह फेनासेटिन का सक्रिय मेटाबॉलिज़मक है, जो कभी खुद एक एनाल्जेसिक और एंटीपायरेटिक के रूप में लोकप्रिय था, लेकिन फेनासेटिन और इसके संयोजन के विपरीत, पेरासिटामोल को चिकित्सकीय खुराक में कार्सिनोजनिक नहीं माना जाता है। दोनों शब्द एसिटामिनोफेन और पेरासिटामोल एक ही यौगिक के रासायनिक नाम से आये हैं, यह यौगिक है: पेरा -एसिटा इलएमिनोफिनो ल और पेरा -एसिटा इलएमि नोफिनोल कुछ सन्दर्भों में, इसे संक्षिप्त रूप में केवल APAP कहा जाता है, यह संक्षिप्त रूप N-एसिटाइल -पेरा-एमिनोफिनोल के लिए है। .

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रक्त वाहिका

रक्त वाहिकाएं शरीर में रक्त के परिसंचरण तंत्र का प्रमुख भाग होती हैं। इनके द्वारा शरीर में रक्त का परिवहन होता है। तीन मुख्य प्रका की रक्त वाहिकाएं होती हैं: धमनियां, जो हृदय से रक्त को शरीर में ले जाती हैं; वे रक्त वाःइकाएं, जिनके द्वारा कोशिकाओं एवं रक्त के बीच, जल एवं रसायनों का आदान-प्रदान होता है; व शिराएं, जो रक्त को वापस एकत्रित कर हृदय तक ले आती हैं। .

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हाईपोथर्मिया

अल्पताप (हाइपोथर्मिया) शरीर की वह स्थिति होती है जिसमें तापमान, सामान्य से कम हो जाता है। इसमें शरीर का तापमान ३५° सेल्सियस (९५ डिग्री फैरेनहाइट) से कम हो जाता है।। हिन्दुस्तान लाइव। दैनिक महामेधा। २८ दिसम्बर २००९ शरीर के सुचारू रूप से चलने हेतु कई रासायनिक क्रियाओं की आवश्यकता होती है। आवश्यक तापमान बनाए रखने के लिए मानव मस्तिष्क कई तरीके से कार्य करता है। जब ये कार्यशैली बिगड़ जाती है तब ऊष्मा के उत्पादन के स्थान पर ऊष्मा का ह्रास तेजी से होने लगता है। कई बार रोग के कारण शरीर का तापमान प्रभावित होता है। ऐसे में शरीर का कोर तापमान किसी भी वातावरण में बिगड़ सकता है। इसे सेंकेडरी हाइपोथर्मिया कहा जाता है। इसके प्रमुख कारणों में ठंड लगना है।। रांची एक्स्प्रेस पहली स्थिति में शरीर का तापमान सामान्य तापमान से १-२° कम हो जाता है। इस स्थिति में रोगी के हाथ सही तरीके से काम नहीं करते। सबसे ज्यादा समस्या रोगी के पेट में होती है और वह थकान महसूस करता है। शरीर का तापमान, सामान्य से २-४° कम हो जाता है। इस स्थिति में कंपकंपाहट तेज हो जाती है। रक्त वाहिकाएं सिकुड़ जाती हैं। रोगी पीला पड़ जाता है और उंगलियां, होंठ और कान नीले पड़ जाते हैं। जब शरीर का तापमान ३२° सेल्सियस से भी कम हो जाता है तो कंपकपाहट खत्म हो जाती है। इस दौरान बोलने में परेशानी, सोचने में परेशानी और एमनीशिया की स्थिति होती है। साथ ही कोशिकीय उपापचय दर कम हो जाता है। ३०° से कम तापमान होने पर त्वचा नीली पड़ जाती है। इसके साथ ही चलना असंभव हो जाता है। शरीर के कई अंग अकार्यशील हो जाते हैं। मानव इतिहास में कई युद्धों की सफलता और विफलता के पीछे हाइपोथर्मिया रहा है। दोनों ही विश्व युद्धों में हाइपोथर्मिया के कारण कई लोगों की जानें गईं। २१८ ई.पू.

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ज्वर

जब शरीर का ताप सामान्य से अधिक हो जाये तो उस दशा को ज्वर या बुख़ार (फीवर) कहते है। यह रोग नहीं बल्कि एक लक्षण (सिम्टम्) है जो बताता है कि शरीर का ताप नियंत्रित करने वाली प्रणाली ने शरीर का वांछित ताप (सेट-प्वाइंट) १-२ डिग्री सल्सियस बढा दिया है। मनुष्य के शरीर का सामान्‍य तापमान ३७°सेल्सियस या ९८.६° फैरेनहाइट होता है। जब शरीर का तापमान इस सामान्‍य स्‍तर से ऊपर हो जाता है तो यह स्थिति ज्‍वर या बुखार कहलाती है। ज्‍वर कोई रोग नहीं है। यह केवल रोग का एक लक्षण है। किसी भी प्रकार के संक्रमण की यह शरीर द्वारा दी गई प्रतिक्रिया है। बढ़ता हुआ ज्‍वर रोग की गंभीरता के स्‍तर की ओर संकेत करता है। .

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ज्वरहारी

ज्वरहारी या संतापहर (antipyretics) औषधियाँ ज्वरावस्था में प्रयुक्त करने पर शरीर के ताप को कम करके उसे पुन: साधारण अवस्था में ले आती हैं। शरीर की उष्मा के संतुलन का नियंत्रण मस्तिष्कगत "ताप नियंत्रक केंद्र" द्वारा होता है, जो अधश्चेतक (hypothalamus) में स्थित है। ये औषधियां मुख्यत: इस केंद्र को प्रभावित करती हैं। इनका प्रभाव ज्वरावस्था में ही परिलक्षित होता है। स्वस्थावस्था में इनके प्रयोग से शरीर के तापमान पर कोई विशेष प्रभाव नहीं पड़ता। इनमें से अधिकांश औषधियाँ वेदनाहर (analgesic) तथा कुछ आमवात नाशक (antirheumatic) भी होती हैं। ऐस्पिरिन, फेनेसिटिन, ऐटिपाइरिन या ऐनैल्जेसिन, ऐमिनोपाइरिन या पिरोमिडोन उल्लेखनीय ज्वरहारी ओषधियाँ हैं। श्रेणी:ज्वरहारी औषधियाँ.

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जीवाणु

जीवाणु जीवाणु एक एककोशिकीय जीव है। इसका आकार कुछ मिलिमीटर तक ही होता है। इनकी आकृति गोल या मुक्त-चक्राकार से लेकर छड़, आदि आकार की हो सकती है। ये अकेन्द्रिक, कोशिका भित्तियुक्त, एककोशकीय सरल जीव हैं जो प्रायः सर्वत्र पाये जाते हैं। ये पृथ्वी पर मिट्टी में, अम्लीय गर्म जल-धाराओं में, नाभिकीय पदार्थों में, जल में, भू-पपड़ी में, यहां तक की कार्बनिक पदार्थों में तथा पौधौं एवं जन्तुओं के शरीर के भीतर भी पाये जाते हैं। साधारणतः एक ग्राम मिट्टी में ४ करोड़ जीवाणु कोष तथा १ मिलीलीटर जल में १० लाख जीवाणु पाए जाते हैं। संपूर्ण पृथ्वी पर अनुमानतः लगभग ५X१०३० जीवाणु पाए जाते हैं। जो संसार के बायोमास का एक बहुत बड़ा भाग है। ये कई तत्वों के चक्र में बहुत महत्वपूर्ण भूमिका अदा करते हैं, जैसे कि वायुमंडलीय नाइट्रोजन के स्थरीकरण में। हलाकि बहुत सारे वंश के जीवाणुओं का श्रेणी विभाजन भी नहीं हुआ है तथापि लगभग आधी प्रजातियों को किसी न किसी प्रयोगशाला में उगाया जा चुका है। जीवाणुओं का अध्ययन बैक्टिरियोलोजी के अन्तर्गत किया जाता है जो कि सूक्ष्म जैविकी की ही एक शाखा है। मानव शरीर में जितनी भी मानव कोशिकाएं है, उसकी लगभग १० गुणा संख्या तो जीवाणु कोष की ही है। इनमें से अधिकांश जीवाणु त्वचा तथा अहार-नाल में पाए जाते हैं। हानिकारक जीवाणु इम्यून तंत्र के रक्षक प्रभाव के कारण शरीर को नुकसान नहीं पहुंचा पाते। कुछ जीवाणु लाभदायक भी होते हैं। अनेक प्रकार के परजीवी जीवाणु कई रोग उत्पन्न करते हैं, जैसे - हैजा, मियादी बुखार, निमोनिया, तपेदिक या क्षयरोग, प्लेग इत्यादि.

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विषाणु

विषाणु अकोशिकीय अतिसूक्ष्म जीव हैं जो केवल जीवित कोशिका में ही वंश वृद्धि कर सकते हैं। ये नाभिकीय अम्ल और प्रोटीन से मिलकर गठित होते हैं, शरीर के बाहर तो ये मृत-समान होते हैं परंतु शरीर के अंदर जीवित हो जाते हैं। इन्हे क्रिस्टल के रूप में इकट्ठा किया जा सकता है। एक विषाणु बिना किसी सजीव माध्यम के पुनरुत्पादन नहीं कर सकता है। यह सैकड़ों वर्षों तक सुशुप्तावस्था में रह सकता है और जब भी एक जीवित मध्यम या धारक के संपर्क में आता है उस जीव की कोशिका को भेद कर आच्छादित कर देता है और जीव बीमार हो जाता है। एक बार जब विषाणु जीवित कोशिका में प्रवेश कर जाता है, वह कोशिका के मूल आरएनए एवं डीएनए की जेनेटिक संरचना को अपनी जेनेटिक सूचना से बदल देता है और संक्रमित कोशिका अपने जैसे संक्रमित कोशिकाओं का पुनरुत्पादन शुरू कर देती है। विषाणु का अंग्रेजी शब्द वाइरस का शाब्दिक अर्थ विष होता है। सर्वप्रथम सन १७९६ में डाक्टर एडवर्ड जेनर ने पता लगाया कि चेचक, विषाणु के कारण होता है। उन्होंने चेचक के टीके का आविष्कार भी किया। इसके बाद सन १८८६ में एडोल्फ मेयर ने बताया कि तम्बाकू में मोजेक रोग एक विशेष प्रकार के वाइरस के द्वारा होता है। रूसी वनस्पति शास्त्री इवानोवस्की ने भी १८९२ में तम्बाकू में होने वाले मोजेक रोग का अध्ययन करते समय विषाणु के अस्तित्व का पता लगाया। बेजेर्निक और बोर ने भी तम्बाकू के पत्ते पर इसका प्रभाव देखा और उसका नाम टोबेको मोजेक रखा। मोजेक शब्द रखने का कारण इनका मोजेक के समान तम्बाकू के पत्ते पर चिन्ह पाया जाना था। इस चिन्ह को देखकर इस विशेष विषाणु का नाम उन्होंने टोबेको मोजेक वाइरस रखा। विषाणु लाभप्रद एवं हानिकारक दोनों प्रकार के होते हैं। जीवाणुभोजी विषाणु एक लाभप्रद विषाणु है, यह हैजा, पेचिश, टायफायड आदि रोग उत्पन्न करने वाले जीवाणुओं को नष्ट कर मानव की रोगों से रक्षा करता है। कुछ विषाणु पौधे या जन्तुओं में रोग उत्पन्न करते हैं एवं हानिप्रद होते हैं। एचआईवी, इन्फ्लूएन्जा वाइरस, पोलियो वाइरस रोग उत्पन्न करने वाले प्रमुख विषाणु हैं। सम्पर्क द्वारा, वायु द्वारा, भोजन एवं जल द्वारा तथा कीटों द्वारा विषाणुओं का संचरण होता है परन्तु विशिष्ट प्रकार के विषाणु विशिष्ट विधियों द्वारा संचरण करते हैं। .

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ऑक्सीजन

ऑक्सीजन या प्राणवायु या जारक (Oxygen) रंगहीन, स्वादहीन तथा गंधरहित गैस है। इसकी खोज, प्राप्ति अथवा प्रारंभिक अध्ययन में जे.

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कर्कट रोग

कर्कट (चिकित्सकीय पद: दुर्दम नववृद्धि) रोगों का एक वर्ग है जिसमें कोशिकाओं का एक समूह अनियंत्रित वृद्धि (सामान्य सीमा से अधिक विभाजन), रोग आक्रमण (आस-पास के उतकों का विनाश और उन पर आक्रमण) और कभी कभी अपररूपांतरण अथवा मेटास्टैसिस (लसिका या रक्त के माध्यम से शरीर के अन्य भागों में फ़ैल जाता है) प्रदर्शित करता है। कर्कट के ये तीन दुर्दम लक्षण इसे सौम्य गाँठ (ट्यूमर या अबुर्द) से विभेदित करते हैं, जो स्वयं सीमित हैं, आक्रामक नहीं हैं या अपररूपांतरण प्रर्दशित नहीं करते हैं। अधिकांश कर्कट एक गाँठ या अबुर्द (ट्यूमर) बनाते हैं, लेकिन कुछ, जैसे रक्त कर्कट (श्वेतरक्तता) गाँठ नहीं बनाता है। चिकित्सा की वह शाखा जो कर्कट के अध्ययन, निदान, उपचार और रोकथाम से सम्बंधित है, ऑन्कोलॉजी या अर्बुदविज्ञान कहलाती है। कर्कट सभी उम्र के लोगों को, यहाँ तक कि भ्रूण को भी प्रभावित कर सकता है, लेकिन अधिकांश किस्मों का जोखिम उम्र के साथ बढ़ता है। कर्कट में से १३% का कारण है। अमेरिकन कैंसर सोसायटी के अनुसार, २००७ के दौरान पूरे विश्व में ७६ लाख लोगों की मृत्यु कर्कट के कारण हुई। कर्कट सभी जानवरों को प्रभावित कर सकता है। लगभग सभी कर्कट रूपांतरित कोशिकाओं के आनुवंशिक पदार्थ में असामान्यताओं के कारण होते हैं। ये असामान्यताएं कार्सिनोजन या का कर्कटजन (कर्कट पैदा करने वाले कारक) के कारण हो सकती हैं जैसे तम्बाकू धूम्रपान, विकिरण, रसायन, या संक्रामक कारक.

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केन्द्रीय तंत्रिका तंत्र

केन्द्रीय तंत्रिका तंत्र, तंत्रिका तंत्र का भाग है, जो बहुकोशिकीय जन्तुओं की सभी क्रियायों पर नियंत्रण और नियमन करता है। हड्डीवाले जीवों में तंत्रिका तंत्र मिनिन्जीज़ में संलग्न होता है। इसमें तंत्रिका तंत्र का अधिकांश भाग और मस्तिष्क और सुषुम्ना या मेरूरज्जु आते हैं। तंत्रिका तंत्र पृष्ठीय गुहा में स्थित होता है, जिसमे मस्तिष्क कपालीय गुहा में और मेरुरज्जु, मेरुरज्जु गुहा में होता है। मस्तिष्क खोपड़ी द्वारा सुरक्षित रहता है और मेरुरज्जु हड्डियों द्वारा। .

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कोकेन

कोकेन (Benzoylmethylecgonine) एक क्रिस्टलीय ट्रोपेन उपक्षार है, जो कोका पौधे की पत्तियों से प्राप्त होता है।अग्रवाल, अनिल.

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अधिवृक्क ग्रंथि

अधिवृक्क ग्रन्थि (अंग्रेज़ी: adrenal gland या Suprarenal gland) कशेरुकी जीवों में पायी जाने वाली एक अंतःस्रावी ग्रन्थि है। यह वृक्क (गुर्दे) के ऊपर स्थित होती है। इनका मुख्य कार्य तनाव की स्थिति में हार्मोन निकालना है। मनुष्यों की दाहिनी अधिवृक्क ग्रंथि का आकार त्रिकोणाकार होता है जबकि दायीं अधिवृक्क ग्रन्थि अर्धचन्द्राकार होती है। अधिवृक्क ग्रन्थियाँ शरीर में सोडियम के नियंत्रण के लिए एल्डोस्टीरॉन नाम की हार्मोन उत्पन्न करती है और एपिनेफ्राइन नाम का हार्मोन उत्पन्न करती है जो हृदय पर अपना प्रभाव छोड़ती है। जब शरीर में ये हार्मोन कम उत्पन्न होता है तो पाचन क्रिया मन्द पड़ जाती है। मनुष्य को भूख नहीं लगती है, रक्तचाप गिर जाता है। इस प्रकार से उत्पन्न रोग को एडीसन रोग कहते है। लेकिन जब शरीर में ये ग्रन्थियाँ शरीर में अधिक हार्मोन उत्पन्न करते है तो स्त्रियों में दाढ़ी मूछें आदि नरों के लक्षण उभरने लगते हैं तथा बच्चों में आसाधारण गति के कारण जननांगों का विकास होने लगता हैं। .

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