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आँगनवाडी

सूची आँगनवाडी

आंगनवाडी भारत में ग्रामीण माँ और बच्चों के देखा भाल केंद्र है। बच्चों के भूख और कुपोषण से निपटने के लिए एकीकृत बाल विकास सेवा कार्यक्रम के भाग के रूप में, 1985 में उन्हें भारत सरकार द्वारा शुरू किया गया था। आंगनवाड़ी का अर्थ है "आंगन आश्रय"। इस प्रकार का आंगनवाड़ी केंद्र भारतीय गांवों में बुनियादी स्वास्थ्य देखभाल प्रदान करता है। यह भारतीय सार्वजनिक स्वास्थ्य देखभाल प्रणाली का एक हिस्सा है। मूल स्वास्थ्य देखभाल गतिविधियों में गर्भनिरोधक परामर्श और आपूर्ति, पोषण शिक्षा और अनुपूरक, साथ ही पूर्व-विद्यालय की गतिविधियों शामिल हैं। केंद्रों को मौखिक रीहाइड्रेशन नमक, बुनियादी दवाओं और गर्भ निरोधकों के लिए डिपो के रूप में इस्तेमाल किया जा सकता है। 31 जनवरी 2013 तक 13.3 लाख (एक लाख 100,000) आंगनवाड़ी और मिनी आंगनवाडी केंद्र (एडब्ल्यूसी / मिनी-एडब्ल्यूसी) 13.7 लाख स्वीकृत एडब्ल्यूसी / मिनी-एडब्ल्यूसी से परिचालित हैं। ये केंद्र पूरक पोषण प्रदान करते हैं, गैर - पूर्व-प्राथमिक शिक्षा, पोषण और स्वास्थ्य शिक्षा, प्रतिरक्षण, स्वास्थ्य जांच और रेफरल सेवाओं की बाद में तीन सेवाएं सार्वजनिक स्वास्थ्य प्रणालियों के साथ मिलकर प्रदान की जाती हैं। .

4 संबंधों: प्राचीन भारतीय शिक्षा, भाटुन्द, भारत, भारतीय शिक्षा का इतिहास

प्राचीन भारतीय शिक्षा

भारत की प्राचीन शिक्षा पद्धति में हमें अनौपचारिक तथा औपचारिक दोनों प्रकार के शैक्षणिक केन्द्रों का उल्लेख प्राप्त होता है। औपचारिक शिक्षा मन्दिर, आश्रमों और गुरुकुलों के माध्यम से दी जाती थी। ये ही उच्च शिक्षा के केन्द्र भी थे। जबकि परिवार, पुरोहित, पण्डित, सन्यासी और त्यौहार प्रसंग आदि के माध्यम से अनौपचारिक शिक्षा प्राप्त होती थी। विभिन्न धर्मसूत्रों में इस बात का उल्लेख है कि माता ही बच्चे की श्रेष्ठ गुरु है। कुछ विद्वानों ने पिता को बच्चे के शिक्षक के रुप में स्वीकार किया है। जैसे-जैसे सामाजिक विकास हुआ वैसे-वैसे शैक्षणिक संस्थाएं स्थापित होने लगी। वैदिक काल में परिषद, शाखा और चरण जैसे संघों का स्थापन हो गया था, लेकिन व्यवस्थित शिक्षण संस्थाएं सार्वजनिक स्तर पर बौद्धों द्वारा प्रारम्भ की गई थी। गुरुकुलों की स्थापना प्रायः वनों, उपवनों तथा ग्रामों या नगरों में की जाती थी। वनों में गुरुकुल बहुत कम होते थे। अधिकतर दार्शनिक आचार्य निर्जन वनों में निवास, अध्ययन तथा चिन्तन पसन्द करते थे। वाल्मीकि, सन्दीपनि, कण्व आदि ऋषियों के आश्रम वनों में ही स्थित थे और इनके यहाँ दर्शन शास्त्रों के साथ-साथ व्याकरण, ज्योतिष तथा नागरिक शास्त्र भी पढ़ाये जाते थे। अधिकांश गुरुकुल गांवों या नगरों के समीप किसी वाग अथवा वाटिला में बनाये जाते थे। जिससे उन्हें एकान्त एवं पवित्र वातावरण प्राप्त हो सके। इससे दो लाभ थे; एक तो गृहस्थ आचार्यों को सामग्री एकत्रित करने में सुविधा थी, दूसरे ब्रह्मचारियों को भिक्षाटन में अधिक भटकना नहीं पड़ता था। मनु के अनुसार `ब्रह्मचारों को गुरु के कुल में, अपनी जाति वालों में तथा कुल बान्धवों के यहां से भिक्षा याचना नहीं करनी चाहिए, यदि भिक्षा योग्य दूसरा घर नहीं मिले, तो पूर्व-पूर्व गृहों का त्याग करके भिक्षा याचना करनी चाहिये। इससे स्पष्ट होता है कि गुरुकुल गांवों के सन्निकट ही होते थे। स्वजातियों से भिक्षा याचना करने में उनके पक्षपात तथा ब्रह्मचारी के गृह की ओर आकर्षण का भय भी रहता था अतएव स्वजातियों से भिक्षा-याचना का पूर्ण निषेध कर दिया गया था। बहुधा राजा तथा सामन्तों का प्रोत्साहन पाकर विद्वान् पण्डित उनकी सभाओं की ओर आकर्षित होते थे और अधिकतर उनकी राजधानी में ही बस जाते थे, जिससे वे नगर शिक्षा के केन्द्र बन जाते थे। इनमें तक्षशिला, पाटलिपुत्र, कान्यकुब्ज, मिथिला, धारा, तंजोर आदि प्रसिद्ध हैं। इसी प्रकार तीर्थ स्थानों की ओर भी विद्वान् आकृष्ट होते थे। फलत: काशी, कर्नाटक, नासिक आदि शिक्षा के प्रसिद्ध केन्द्र बन गये। कभी-कभी राजा भी अनेक विद्वानों को आमंत्रित करके दान में भूमि आदि देकर तथा जीविका निश्चित करके उन्हें बसा लेते थे। उनके बसने से वहां एक नया गांव बन जाता था। इन गांवों को `अग्रहार' कहते थे। इसके अतिरिक्त विभिन्न हिन्दू सम्प्रदायों एवं मठों के आचार्यों के प्रभाव से ईसा की दूसरी शताब्दी के लगभग मठ शिक्षा के महत्त्वपूर्ण केन्द्र बन गये। इनमें शंकराचार्य, रामानुजाचार्य, मध्वाचार्य आदि के मठ प्रसिद्ध हैं। सार्वजनिक शिक्षण संस्थाएँ सर्वप्रथम बौद्ध विहारों में स्थापित हुई थीं। भगवान बुद्ध ने उपासकों की शिक्षा-दीक्षा पर अत्यधिक बल दिया। इस संस्थाओं में धार्मिक ग्रन्थों का अध्यापन एवं आध्यात्मिक अभ्यास कराया जाता था। अशोक (३०० ई. पू.) ने बौद्ध विहारों की विशेष उन्नति करायी। कुछ समय पश्चात् ये विद्या के महान केन्द्र बन गये। ये वस्तुत: गुरुकुलों के ही समान थे। किन्तु इनमें गुरु किसी एक कुल का प्रतिनिधि न होकर सारे विहार का ही प्रधान होता था। ये धर्म प्रचार की दृष्टि से जनसाधारण के लिए भी सुलभ थे। इनमें नालन्दा विश्वविद्यालय (४५० ई.), वल्लभी (७०० ई.), विक्रमशिला (८०० ई.) प्रमुख शिक्षण संस्थाएँ थीं। इन संस्थाओं का अनुसरण करके हिन्दुओं ने भी मन्दिरों में विद्यालय खोले जो आगे चल कर मठों के रूप में परिवर्तित हो गये। .

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भाटुन्द

भाटुन्द, राजस्थान के पाली जिले में स्थित एक गाँव है। यह गाँव पाली जिले के बाली तहसील से 21 किमी दूर है। गाँव की जनसंख्या लगभग 6 - 7 हजार है। यह गाँव पहले सिरोही रियासत में आता था। देश आजाद होने के बाद अब पाली ज़िले में चला गया है। गाँव से 3 किमी दूर चेतन बालाजी का भव्य तीर्थ स्थल है। गाँव में एक ऐतिहासिक सूर्य मन्दिर है। यह मन्दिर लगभग 10 वी व 11 वी शताब्दी के बीच श्री महाराजा भोज ने बनाया था। ईस गाँव में लगभग 13 वी शताब्दी में 18 परिवारों सहित श्री आदोरजी महाराज (आदरशी महाराज) ने लाखाजौहर किया था। यह जौहर अलाउद्दीन खिलजी, चित्तौड़गढ़ फतह करने के बाद जालौर रियासत पर आक्रमण करने के लिए ईसी गाँव से गुजर रहे थे। रास्ता ऊस समय इस गाँव से निकलता था, यहाँ पर आदोरजी महाराज के परिवार की मुगली सेना से लडाई हो गई। ईसके कारण मुगली साम्राज्य की सेना के हाथो न मरने के कारण लाखाजौहर में 18 परिवारों सहित समर्पित हो गए थे। यह घटना चित्तौड़गढ़ कि रानी पद्मिनी के जौहर के ठीक 6 माह बाद की है। यह गाँव सिरोही दरबार द्वारा 3600 बीघा जमीन दान के रूप में श्री आदोरजी महाराज (आदरशी महाराज) को भेंट में यह गाँव दिय़ा हुआ था। ईस गाँव का नामकरन भी उन्होंने ही करवाया था। जो गाँव का नाम दरबार में खताता था। ऊसे दरबार में खत श्री की उपमा से नवाजा जाता था। आज भी आदोरजी महाराज के परिवार को खत् नाम से भी संबोधित किया जाता है। पुरा परिवार लाखा जौहर में समर्पित होने के बाद, ईनकी एक बहु मुहर्रते गई हुई थी। जिसके लडके का वंशज आज विद्यमान हैं। ईस गाँव के नामकरण के लिए श्री आदोरजी महाराज ने भाट (राव) को बुलवाया गया। भाट ने ब्राहमणो के मुँह से बार बार अपनी जाति का नाम लेने के प्रयोजन से उन्होंने भाटुन नाम सुझाया गया, ईस गाँव का नाम श्री आदोरजी महाराज ने भाटून रखा। बाद में यह भाटुन्द पडा। यहाँ पर काफी देवताओं के बड़े भव्य मंदिर हैं। कहाँ जाता है कि यह गाँव भुकंम्भ के कारण दो से तीन बार उजड़ा (डटन) भी है। यह सदियों पुरानी ब्राहमणो की नगरी है। ब्राहमणो के आव्हान पर माँ शीतला माता साक्षात दर्शन देकर यहाँ विराजमान हुईं है। साल में दो बार माँ शीतला माताज़ी का विशाल मेला लगता है। सदियों पुरानी एतिहासिक कहानी इस प्रकार है कि यहाँ पहाड़ी जंगलों में ऐक राक्षस रहता था। यह राक्षस किसी की शादी नहीं होने देता था, जब किसी की शादी होती, फैरे लेने के समय आ जाता था और वर (दुल्ला)को खा जाता था। इस कारण यहाँ कि लड़कियों से कोई शादी नहीं करता था। लड़कियों का ऐसा हाल देखकर ब्राहमणों ने शीतला माता की घोर तपस्या की, जब माँ ने प्रसन्न होकर दर्शन दिए और ब्राहमणो ने अपनी तकलीफ का वर्णन किया, माँ बोली अब आप लोग धूमधाम से शादी करो मैं आप लोगों की रक्षा करूँगी। इस प्रकार माँ का वचन सुनकर ब्राहमण लोग बहुत खुश हो गए। ब्राहमणो ने अपनी बच्चियों के विवाह की तैयारियां चालु की। फैरो के समय राक्षस आ गया, माँ शीतला ने अपने त्रिशूल से राक्षस का वध किया था। वध करते समय राक्षस ने माँ शीतला माता से पानी पीने व खाने की इच्छा प्रकट की, माँ ने राक्षस को वरदान दिया कि साल में दो बार तुझको पानी व खाने केलिए दिया जाएगा। जो हर साल चैत्र शुक्ल ७ को, वह ज्येष्ठ शुक्ल १५ को दिया जाता है। माँ शीतला माता के सामने ऐक शीतला माता कुण्ड (ऊखली) है जो ऐक फिट गहरी है। पुरा गांव ईस ऊखली में घड़ो से पानी डालता है, लेकिन पानी किधर जाता है, ईसका आज तक किसको मालुम नहीं है। पुरा पानी राक्षस पिता है। ऐसा गाँव वालो का मानना है। ऐक बार सिरोही दरबार ने भी ईस ऐक फुट गहरी ऊखली को दो कुआं का पानी लाकर भरने की निष्फल कोशिश की थी। माँ के प्रकोप का सामना करना पड़ा था। पूरे शरीर पर कोड निकल गये थे। माँ की आराधना करने से ही कोड समाप्त हुए थे। .

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भारत

भारत (आधिकारिक नाम: भारत गणराज्य, Republic of India) दक्षिण एशिया में स्थित भारतीय उपमहाद्वीप का सबसे बड़ा देश है। पूर्ण रूप से उत्तरी गोलार्ध में स्थित भारत, भौगोलिक दृष्टि से विश्व में सातवाँ सबसे बड़ा और जनसंख्या के दृष्टिकोण से दूसरा सबसे बड़ा देश है। भारत के पश्चिम में पाकिस्तान, उत्तर-पूर्व में चीन, नेपाल और भूटान, पूर्व में बांग्लादेश और म्यान्मार स्थित हैं। हिन्द महासागर में इसके दक्षिण पश्चिम में मालदीव, दक्षिण में श्रीलंका और दक्षिण-पूर्व में इंडोनेशिया से भारत की सामुद्रिक सीमा लगती है। इसके उत्तर की भौतिक सीमा हिमालय पर्वत से और दक्षिण में हिन्द महासागर से लगी हुई है। पूर्व में बंगाल की खाड़ी है तथा पश्चिम में अरब सागर हैं। प्राचीन सिन्धु घाटी सभ्यता, व्यापार मार्गों और बड़े-बड़े साम्राज्यों का विकास-स्थान रहे भारतीय उपमहाद्वीप को इसके सांस्कृतिक और आर्थिक सफलता के लंबे इतिहास के लिये जाना जाता रहा है। चार प्रमुख संप्रदायों: हिंदू, बौद्ध, जैन और सिख धर्मों का यहां उदय हुआ, पारसी, यहूदी, ईसाई, और मुस्लिम धर्म प्रथम सहस्राब्दी में यहां पहुचे और यहां की विविध संस्कृति को नया रूप दिया। क्रमिक विजयों के परिणामस्वरूप ब्रिटिश ईस्ट इण्डिया कंपनी ने १८वीं और १९वीं सदी में भारत के ज़्यादतर हिस्सों को अपने राज्य में मिला लिया। १८५७ के विफल विद्रोह के बाद भारत के प्रशासन का भार ब्रिटिश सरकार ने अपने ऊपर ले लिया। ब्रिटिश भारत के रूप में ब्रिटिश साम्राज्य के प्रमुख अंग भारत ने महात्मा गांधी के नेतृत्व में एक लम्बे और मुख्य रूप से अहिंसक स्वतन्त्रता संग्राम के बाद १५ अगस्त १९४७ को आज़ादी पाई। १९५० में लागू हुए नये संविधान में इसे सार्वजनिक वयस्क मताधिकार के आधार पर स्थापित संवैधानिक लोकतांत्रिक गणराज्य घोषित कर दिया गया और युनाईटेड किंगडम की तर्ज़ पर वेस्टमिंस्टर शैली की संसदीय सरकार स्थापित की गयी। एक संघीय राष्ट्र, भारत को २९ राज्यों और ७ संघ शासित प्रदेशों में गठित किया गया है। लम्बे समय तक समाजवादी आर्थिक नीतियों का पालन करने के बाद 1991 के पश्चात् भारत ने उदारीकरण और वैश्वीकरण की नयी नीतियों के आधार पर सार्थक आर्थिक और सामाजिक प्रगति की है। ३३ लाख वर्ग किलोमीटर क्षेत्रफल के साथ भारत भौगोलिक क्षेत्रफल के आधार पर विश्व का सातवाँ सबसे बड़ा राष्ट्र है। वर्तमान में भारतीय अर्थव्यवस्था क्रय शक्ति समता के आधार पर विश्व की तीसरी और मानक मूल्यों के आधार पर विश्व की दसवीं सबसे बडी अर्थव्यवस्था है। १९९१ के बाज़ार-आधारित सुधारों के बाद भारत विश्व की सबसे तेज़ विकसित होती बड़ी अर्थ-व्यवस्थाओं में से एक हो गया है और इसे एक नव-औद्योगिकृत राष्ट्र माना जाता है। परंतु भारत के सामने अभी भी गरीबी, भ्रष्टाचार, कुपोषण, अपर्याप्त सार्वजनिक स्वास्थ्य-सेवा और आतंकवाद की चुनौतियां हैं। आज भारत एक विविध, बहुभाषी, और बहु-जातीय समाज है और भारतीय सेना एक क्षेत्रीय शक्ति है। .

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भारतीय शिक्षा का इतिहास

शिक्षा का केन्द्र: तक्षशिला का बौद्ध मठ भारतीय शिक्षा का इतिहास भारतीय सभ्यता का भी इतिहास है। भारतीय समाज के विकास और उसमें होने वाले परिवर्तनों की रूपरेखा में शिक्षा की जगह और उसकी भूमिका को भी निरंतर विकासशील पाते हैं। सूत्रकाल तथा लोकायत के बीच शिक्षा की सार्वजनिक प्रणाली के पश्चात हम बौद्धकालीन शिक्षा को निरंतर भौतिक तथा सामाजिक प्रतिबद्धता से परिपूर्ण होते देखते हैं। बौद्धकाल में स्त्रियों और शूद्रों को भी शिक्षा की मुख्य धारा में सम्मिलित किया गया। प्राचीन भारत में जिस शिक्षा व्यवस्था का निर्माण किया गया था वह समकालीन विश्व की शिक्षा व्यवस्था से समुन्नत व उत्कृष्ट थी लेकिन कालान्तर में भारतीय शिक्षा का व्यवस्था ह्रास हुआ। विदेशियों ने यहाँ की शिक्षा व्यवस्था को उस अनुपात में विकसित नहीं किया, जिस अनुपात में होना चाहिये था। अपने संक्रमण काल में भारतीय शिक्षा को कई चुनौतियों व समस्याओं का सामना करना पड़ा। आज भी ये चुनौतियाँ व समस्याएँ हमारे सामने हैं जिनसे दो-दो हाथ करना है। १८५० तक भारत में गुरुकुल की प्रथा चलती आ रही थी परन्तु मकोले द्वारा अंग्रेजी शिक्षा के संक्रमण के कारण भारत की प्राचीन शिक्षा व्यवस्था का अंत हुआ और भारत में कई गुरुकुल तोड़े गए और उनके स्थान पर कान्वेंट और पब्लिक स्कूल खोले गए। .

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