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१५६४

सूची १५६४

१५६४ ग्रेगोरी कैलंडर का एक अधिवर्ष है। .

8 संबंधों: चैतन्य महाप्रभु, राजस्थान की समय रेखा, रूप गोस्वामी, षण्गोस्वामी, गैलीलियो गैलिली, अकबर, २४ जून, २६ जून

चैतन्य महाप्रभु

चैतन्य महाप्रभु (१८ फरवरी, १४८६-१५३४) वैष्णव धर्म के भक्ति योग के परम प्रचारक एवं भक्तिकाल के प्रमुख कवियों में से एक हैं। इन्होंने वैष्णवों के गौड़ीय संप्रदाय की आधारशिला रखी, भजन गायकी की एक नयी शैली को जन्म दिया तथा राजनैतिक अस्थिरता के दिनों में हिंदू-मुस्लिम एकता की सद्भावना को बल दिया, जाति-पांत, ऊंच-नीच की भावना को दूर करने की शिक्षा दी तथा विलुप्त वृंदावन को फिर से बसाया और अपने जीवन का अंतिम भाग वहीं व्यतीत किया। उनके द्वारा प्रारंभ किए गए महामंत्र नाम संकीर्तन का अत्यंत व्यापक व सकारात्मक प्रभाव आज पश्चिमी जगत तक में है। यह भी कहा जाता है, कि यदि गौरांग ना होते तो वृंदावन आज तक एक मिथक ही होता। वैष्णव लोग तो इन्हें श्रीकृष्ण का राधा रानी के संयोग का अवतार मानते हैं। गौरांग के ऊपर बहुत से ग्रंथ लिखे गए हैं, जिनमें से प्रमुख है श्री कृष्णदास कविराज गोस्वामी विरचित चैतन्य चरितामृत। इसके अलावा श्री वृंदावन दास ठाकुर रचित चैतन्य भागवत तथा लोचनदास ठाकुर का चैतन्य मंगल भी हैं। .

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राजस्थान की समय रेखा

यह राजस्थान के इतिहास की समय रेखा है।.

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रूप गोस्वामी

श्री रूप गोस्वामी (१४९३ – १५६४), वृंदावन में चैतन्य महाप्रभु द्वारा भेजे गए छः षण्गोस्वामी में से एक थे। वे कवि, गुरु और दार्शनिक थे। वे सनातन गोस्वामी के भाई थे। इनका जन्म १४९३ ई (तदनुसार १४१५ शक.सं.) को हुआ था। इन्होंने २२ वर्ष की आयु में गृहस्थाश्रम त्याग कर दिया था। बाद के ५१ वर्ष ये ब्रज में ही रहे। इन्होंने श्री सनातन गोस्वामी से दीक्षा ली थी। इन्हें शुद्ध भक्ति सेवा में महारत प्राप्त थी, अतएव इन्हें भक्ति-रसाचार्य कहा जाता है। ये गौरांग के अति प्रेमी थे। ये अपने अग्रज श्री सनातन गोस्वामी सहित नवाब हुसैन शाह के दरबार के उच्च पदों का त्याग कर गौरांग के भक्ति संकीर्तन में हो लिए थे। इन्हीं के द्वारा चैतन्य ने अपनी भक्ति-शिक्षा तथा सभी ग्रन्थों के आवश्यक सार का प्रचार-प्रसार किया। महाप्रभु के भक्तों में से इन दोनों भाइयों को उनके प्रधान कहा जाता था। सन १५६४ ई (तदा० १४८६ शक. की शुक्ल द्वादशी) को ७३ वर्ष की आयु में इन्होंने परम धाम को प्रस्थान किया। श्री रूप गोस्वामी समस्त गोस्वामियों के नायक थे। उन्होंने भक्तिकार्यकलापों का निर्देश करने के लिए हमे उपदेशामृत प्रदान किया जिससे भक्तगण उसका पाल कर सकें। जिस प्रकार श्रीचैतन्य महाप्रभु अपने पीछे शिक्षाष्टक नामक आठ श्लोक छोड़ गये थे उसी प्रकार श्री रूप गोस्वामी भी श्रीउपदेशामृत प्रदान किया जिससे हम शुद्ध भक्त बन सकें समस्त आध्यात्मिक कार्यों में मनुष्य का पहला कर्तव्य अपने मन तथा इंद्रियों को वश में करना है। मन तथा इन्द्रियों को वश में किये बिना कोई भी व्यक्ति आध्यात्मिक जीवन में प्रगति नहीं कर सकता। प्रत्येक व्यक्ति इस भौतिक जगत में रजो तथा तमो गुणों में निमग्न है। उसे श्री रूपगोस्वामी के उपदेशों पर चलते हुए अपने आपको शुद्ध सत्व गुण के पद तक उठना चाहिये। तभी आगे की उन्नति सम्बधि प्रत्येक आध्यात्मिक रहस्य प्रकट हो जायेगा .

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षण्गोस्वामी

वृंदावन में चैतन्य महाप्रभु द्वारा भेजे गए छः शिष्य थे। इन्हें ही षण्गोस्वामी कहा गया। ये इस प्रकार हैं। .

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गैलीलियो गैलिली

गैलीलियो गैलिली (१५ फरवरी, १५६५ - ८ जनवरी, १६४२) इटली के वैज्ञानिक थे। वे एक महान आविष्कारक थे तथा दूरदर्शी के विकास में उनका अतुलनीय सहयोग था। .

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अकबर

जलाल उद्दीन मोहम्मद अकबर (१५ अक्तूबर, १५४२-२७ अक्तूबर, १६०५) तैमूरी वंशावली के मुगल वंश का तीसरा शासक था। अकबर को अकबर-ऐ-आज़म (अर्थात अकबर महान), शहंशाह अकबर, महाबली शहंशाह के नाम से भी जाना जाता है। अंतरण करने वाले के अनुसार बादशाह अकबर की जन्म तिथि हुमायुंनामा के अनुसार, रज्जब के चौथे दिन, ९४९ हिज़री, तदनुसार १४ अक्टूबर १५४२ को थी। सम्राट अकबर मुगल साम्राज्य के संस्थापक जहीरुद्दीन मुहम्मद बाबर का पौत्र और नासिरुद्दीन हुमायूं एवं हमीदा बानो का पुत्र था। बाबर का वंश तैमूर और मंगोल नेता चंगेज खां से संबंधित था अर्थात उसके वंशज तैमूर लंग के खानदान से थे और मातृपक्ष का संबंध चंगेज खां से था। अकबर के शासन के अंत तक १६०५ में मुगल साम्राज्य में उत्तरी और मध्य भारत के अधिकाश भाग सम्मिलित थे और उस समय के सर्वाधिक शक्तिशाली साम्राज्यों में से एक था। बादशाहों में अकबर ही एक ऐसा बादशाह था, जिसे हिन्दू मुस्लिम दोनों वर्गों का बराबर प्यार और सम्मान मिला। उसने हिन्दू-मुस्लिम संप्रदायों के बीच की दूरियां कम करने के लिए दीन-ए-इलाही नामक धर्म की स्थापना की। उसका दरबार सबके लिए हर समय खुला रहता था। उसके दरबार में मुस्लिम सरदारों की अपेक्षा हिन्दू सरदार अधिक थे। अकबर ने हिन्दुओं पर लगने वाला जज़िया ही नहीं समाप्त किया, बल्कि ऐसे अनेक कार्य किए जिनके कारण हिन्दू और मुस्लिम दोनों उसके प्रशंसक बने। अकबर मात्र तेरह वर्ष की आयु में अपने पिता नसीरुद्दीन मुहम्मद हुमायुं की मृत्यु उपरांत दिल्ली की राजगद्दी पर बैठा था। अपने शासन काल में उसने शक्तिशाली पश्तून वंशज शेरशाह सूरी के आक्रमण बिल्कुल बंद करवा दिये थे, साथ ही पानीपत के द्वितीय युद्ध में नवघोषित हिन्दू राजा हेमू को पराजित किया था। अपने साम्राज्य के गठन करने और उत्तरी और मध्य भारत के सभी क्षेत्रों को एकछत्र अधिकार में लाने में अकबर को दो दशक लग गये थे। उसका प्रभाव लगभग पूरे भारतीय उपमहाद्वीप पर था और इस क्षेत्र के एक बड़े भूभाग पर सम्राट के रूप में उसने शासन किया। सम्राट के रूप में अकबर ने शक्तिशाली और बहुल हिन्दू राजपूत राजाओं से राजनयिक संबंध बनाये और उनके यहाँ विवाह भी किये। अकबर के शासन का प्रभाव देश की कला एवं संस्कृति पर भी पड़ा। उसने चित्रकारी आदि ललित कलाओं में काफ़ी रुचि दिखाई और उसके प्रासाद की भित्तियाँ सुंदर चित्रों व नमूनों से भरी पड़ी थीं। मुगल चित्रकारी का विकास करने के साथ साथ ही उसने यूरोपीय शैली का भी स्वागत किया। उसे साहित्य में भी रुचि थी और उसने अनेक संस्कृत पाण्डुलिपियों व ग्रन्थों का फारसी में तथा फारसी ग्रन्थों का संस्कृत व हिन्दी में अनुवाद भी करवाया था। अनेक फारसी संस्कृति से जुड़े चित्रों को अपने दरबार की दीवारों पर भी बनवाया। अपने आरंभिक शासन काल में अकबर की हिन्दुओं के प्रति सहिष्णुता नहीं थी, किन्तु समय के साथ-साथ उसने अपने आप को बदला और हिन्दुओं सहित अन्य धर्मों में बहुत रुचि दिखायी। उसने हिन्दू राजपूत राजकुमारियों से वैवाहिक संबंध भी बनाये। अकबर के दरबार में अनेक हिन्दू दरबारी, सैन्य अधिकारी व सामंत थे। उसने धार्मिक चर्चाओं व वाद-विवाद कार्यक्रमों की अनोखी शृंखला आरंभ की थी, जिसमें मुस्लिम आलिम लोगों की जैन, सिख, हिन्दु, चार्वाक, नास्तिक, यहूदी, पुर्तगाली एवं कैथोलिक ईसाई धर्मशस्त्रियों से चर्चाएं हुआ करती थीं। उसके मन में इन धार्मिक नेताओं के प्रति आदर भाव था, जिसपर उसकी निजि धार्मिक भावनाओं का किंचित भी प्रभाव नहीं पड़ता था। उसने आगे चलकर एक नये धर्म दीन-ए-इलाही की भी स्थापना की, जिसमें विश्व के सभी प्रधान धर्मों की नीतियों व शिक्षाओं का समावेश था। दुर्भाग्यवश ये धर्म अकबर की मृत्यु के साथ ही समाप्त होता चला गया। इतने बड़े सम्राट की मृत्यु होने पर उसकी अंत्येष्टि बिना किसी संस्कार के जल्दी ही कर दी गयी। परम्परानुसार दुर्ग में दीवार तोड़कर एक मार्ग बनवाया गया तथा उसका शव चुपचाप सिकंदरा के मकबरे में दफना दिया गया। .

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२४ जून

२४ जून ग्रेगोरी कैलंडर के अनुसार वर्ष का १७५ वाँ (लीप वर्ष में १७६ वाँ) दिन है। साल में अभी और १९० दिन बाकी हैं। .

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२६ जून

26 जून ग्रेगोरी कैलंडर के अनुसार वर्ष का 177वाँ (लीप वर्ष में 178 वाँ) दिन है। साल में अभी और 188 दिन बाकी हैं। .

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