लोगो
यूनियनपीडिया
संचार
Google Play पर पाएं
नई! अपने एंड्रॉयड डिवाइस पर डाउनलोड यूनियनपीडिया!
डाउनलोड
ब्राउज़र की तुलना में तेजी से पहुँच!
 

हितोपदेश

सूची हितोपदेश

हितोपदेश भारतीय जन-मानस तथा परिवेश से प्रभावित उपदेशात्मक कथाएँ हैं। हितोपदेश की कथाएँ अत्यन्त सरल व सुग्राह्य हैं। विभिन्न पशु-पक्षियों पर आधारित कहानियाँ इसकी खास विशेषता हैं। रचयिता ने इन पशु-पक्षियों के माध्यम से कथाशिल्प की रचना की है जिसकी समाप्ति किसी शिक्षापद बात से ही हुई है। पशुओं को नीति की बातें करते हुए दिखाया गया है। सभी कथाएँ एक-दूसरे से जुड़ी हुई प्रतीत होती हैं। .

17 संबंधों: नारायण पण्डित, नीतिकथा, पञ्चतन्त्र, पान, बृहत्कथा, बैताल पचीसी, भरटक द्वात्रिंशिका, भारतीय राजनय का इतिहास, भारतीय साहित्य, मंत्री, लोककथा, सिंहासन बत्तीसी, संस्कृत ग्रन्थों की सूची, सूरज का सातवाँ घोड़ा, हिन्दी पुस्तकों की सूची/श, कथासरित्सागर, कहानी

नारायण पण्डित

नारायण पण्डित प्रसिद्ध संस्कृत नीतिपुस्तक हितोपदेश के रचयिता थे। पुस्तक के अंतिम पद्यों के आधार पर इसके रचयिता का नाम नारायण ज्ञात होता है। नारायणेन प्रचरतु रचितः संग्रहोsयं कथानाम् पण्डित नारायण ने पंचतन्त्र तथा अन्य नीति के ग्रंथों की सहायता से हितोपदेश नामक इस ग्रंथ का सृजन किया। स्वयं पं॰ नारायण जी ने स्वीकार किया है-- पंचतन्त्रान्तथाडन्यस्माद् ग्रंथादाकृष्य लिख्यते। इसके आश्रयदाता का नाम धवलचंद्रजी है। धवलचंद्रजी बंगाल के माण्डलिक राजा थे तथा नारायण पण्डित राजा धवलचंद्रजी के राजकवि थे। मंगलाचरण तथा समाप्ति श्लोक से नारायण की शिव में विशेष आस्था प्रकट होती है। उनके समय के बारे में ठीक से ज्ञात नहीं है। कथाओं से प्राप्त साक्ष्यों के विश्लेषण के आधार पर डॉ॰ फ्लीट कर मानना है कि इसकी रचना काल ११ वीं शताब्दी के आस- पास होना चाहिये। हितोपदेश का नेपाली हस्तलेख १३७३ ई. का प्राप्त है। वाचस्पति गैरोलाजी ने इसका रचनाकाल १४ वीं शती के आसपास माना है। इन तथ्यों से नारायण पण्डित का काल ११वीं से १४वीं शताब्दी के आसपास का मालूम होता है। .

नई!!: हितोपदेश और नारायण पण्डित · और देखें »

नीतिकथा

thumb नीतिकथा (Fable) एक साहित्यिक विधा है जिसमें पशु-पक्षियों, पेड़-पौधों एवं अन्य निर्जीव वस्तुओं को मानव जैसे गुणों वाला दिखाकर उपदेशात्मक कथा कही जाती है। नीतिकथा, पद्य या गद्य में हो सकती है। पंचतन्त्र, हितोपदेश आदि प्रसिद्ध नीतिकथाएँ हैं। .

नई!!: हितोपदेश और नीतिकथा · और देखें »

पञ्चतन्त्र

'''पंचतन्त्र''' का विश्व में प्रसार संस्कृत नीतिकथाओं में पंचतंत्र का पहला स्थान माना जाता है। यद्यपि यह पुस्तक अपने मूल रूप में नहीं रह गयी है, फिर भी उपलब्ध अनुवादों के आधार पर इसकी रचना तीसरी शताब्दी ईसा पूर्व के आस- पास निर्धारित की गई है। इस ग्रंथ के रचयिता पं॰ विष्णु शर्मा है। उपलब्ध प्रमाणों के आधार पर कहा जा सकता है कि जब इस ग्रंथ की रचना पूरी हुई, तब उनकी उम्र लगभग ८० वर्ष थी। पंचतंत्र को पाँच तंत्रों (भागों) में बाँटा गया है.

नई!!: हितोपदेश और पञ्चतन्त्र · और देखें »

पान

पान भारत के इतिहास एवं परंपराओं से गहरे से जुड़ा है। इसका उद्भव स्थल मलाया द्वीप है। पान विभिन्न भारतीय भाषाओं में अलग-अलग नामों से जाना जाता है जैसे ताम्बूल (संस्कृत), पक्कू (तेलुगू), वेटिलाई (तमिल और मलयालम) और नागुरवेल (गुजराती) आदि। पान का प्रयोग हिन्दू संस्कार से जुड़ा है, जैसे नामकरण, यज्ञोपवीत आदि। वेदों में भी पान के सेवन की पवित्रता का वर्णन है। यह तांबूली या नागवल्ली नामक लता का पत्ता है। खैर, चूना, सुपारी के योग से इसका बीड़ा लगाया जाता है और मुख की सुंदरता, सुगंधि, शुद्धि, श्रृंगार आदि के लिये चबा चबाकर उसे खाया जाता है। इसके साथ विभिन्न प्रकार के सुगंधित, असुगंधित तमाखू, तरह तरह के पान के मसाले, लवंग, कपूर, सुगंधद्रव्य आदि का भी प्रयोग किया जाता है। मद्रास में बिना खैर का भी पान खाया जाता है। विभिन्न प्रदेशों में अपने अपने स्वाद के अनुसार इसके प्रयोग में तरह तरह के मसालों के साथ पान खाने का रिवाज है। जहाँ भोजन आदि के बाद, तथा उत्सवादि में पान बीड़ा लाभकर और शोभाकर होता है वहीं यह एक दुर्व्यसन भी हो जाता है। तम्बाकू के साथ अधिक पान खानेवाले लोग प्राय: इसके व्यसनी हो जाते हैं। अधिक पान खाने के कारण बहुतों के दाँत खराब हो जाते हैं- उनमें तरह तरह के रोग लग जाते हैं और मुँह से दुर्गंध आने लगती है। इस लता के पत्ते छोटे, बड़े अनेक आकार प्रकार के होते हैं। बीच में एक मोटी नस होती है और प्राय: इस पत्ते की आकृति मानव के हृदय (हार्ट) से मिलती जुलती होती है। भारत के विभिन्न भागों में होनेवाले पान के पत्तों की सैकड़ों किस्में हैं - कड़े, मुलायम, छोटे, बड़े, लचीले, रूखे आदि। उनके स्वाद में भी बड़ा अंतर होता है। कटु, कषाय, तिक्त और मधुर-पान के पत्ते प्राय: चार स्वाद के होते हैं। उनमें औषधीय गुण भी भिन्न भिन्न प्रकार के होते हैं। देश, गंध आदि के अनुसार पानों के भी गुणर्धममूलक सैकड़ों जातिनाम हैं जैसे- जगन्नाथी, बँगाली, साँची, मगही, सौंफिया, कपुरी (कपूरी) कशकाठी, महोबाई आदि। गर्म देशों में, नमीवाली भूमि में ज्यादातर इसकी उपज होती है। भारत, बर्मा, सिलोन आदि में पान की अघिक पैदायश होती है। इसकी खेती कि लिये बड़ा परिश्रम अपेक्षित है। एक ओर जितनी उष्णता आवश्यक है, दूसरी ओर उतना ही रस और नमी भी अपेक्षित है। देशभेद से इसकी लता की खेती और सुरक्षा में भेद होता है। पर सर्वत्र यह अत्यंत श्रमसाध्य है। इसकी खेती के स्थान को कहीं बरै, कहीं बरज, कहीं बरेजा और कहीं भीटा आदि भी कहते हैं। खेती आदि कतरनेवालों को बरे, बरज, बरई भी कहते हैं। सिंचाई, खाद, सेवा, उष्णता सौर छाया आदि के कारण इसमें बराबर सालभर तक देखभाल करते रहना पड़ता है और सालों बाद पत्तियाँ मिल पानी हैं और ये भी प्राय: दो तीन साल ही मिलती हैं। कहीं कहीं 7-8 साल तक भी प्राप्त होती हैं। कहीं तो इस लता को विभिन्न पेड़ों-मौलसिरी, जयंत आदि पर भी चढ़ाया जाता है। इसके भीटों और छाया में इतनी ठंढक रहती है कि वहाँ साँप, बिच्छू आदि भी आ जाते हैं। इन हरे पत्तों को सेवा द्वारा सफेद बनाया जाता है। तब इन्हें बहुधा पका या सफेद पान कहते हैं। बनारस में पान की सेवा बड़े श्रम से की जाती है। मगह के एक किस्म के पान को कई मास तक बड़े यत्न से सुरक्षित रखकर पकाते हैं जिसे "मगही पान" कहा जाता है और जो अत्यंत सुस्वादु एवं मूल्यवान् जाता है। समस्त भारत में (विशेषत: पश्चिमी भाग को छोड़कर) सर्वत्र पान खाने की प्रथा अत्यधिक है। मुगल काल से यह मुसलमानों में भी खूब प्रचलित है। संक्षेप में, लगे पान को भारत का एक सांस्कृतिक अंग कह सकते हैं। पान के पौधे वैज्ञानिक दृष्टि से पान एक महत्वपूर्ण वनस्पति है। पान दक्षिण भारत और उत्तर पूर्वी भारत में खुली जगह उगाया जाता है, क्योंकि पान के लिए अधिक नमी व कम धूप की आवश्यकता होती है। उत्तर और पूर्वी प्रांतों में पान विशेष प्रकार की संरक्षणशालाओं में उगाया जाता है। इन्हें भीट या बरोज कहते हैं। पान की विभिन्न किस्मों को वैज्ञानिक आधार पर पांच प्रमुख प्रजातियों बंगला, मगही, सांची, देशावरी, कपूरी और मीठी पत्ती के नाम से जाना जाता है। यह वर्गीकरण पत्तों की संरचना तथा रासायनिक गुणों के आधार पर किया गया है। रासायनिक गुणों में वाष्पशील तेल का मुख्य योगदान रहता है। ये सेहत के लिये भी लाभकारी है। खाना खाने के बाद पान का सेवन पाचन में सहायक होता है। पान की दुकान पर बिकते पान पान में वाष्पशील तेलों के अतिरिक्त अमीनो अम्ल, कार्बोहाइड्रेट और कुछ विटामिन प्रचुर मात्रा में होते हैं। पान के औषधीय गुणों का वर्णन चरक संहिता में भी किया गया है। ग्रामीण अंचलों में पान के पत्तों का प्रयोग लोग फोड़े-फुंसी उपचार में पुल्टिस के रूप में करते हैं। हितोपदेश के अनुसार पान के औषधीय गुण हैं बलगम हटाना, मुख शुद्धि, अपच, श्वांस संबंधी बीमारियों का निदान। पान की पत्तियों में विटामिन ए प्रचुर मात्रा में होता है। प्रात:काल नाश्ते के उपरांत काली मिर्च के साथ पान के सेवन से भूख ठीक से लगती है। ऐसा यूजीनॉल अवयव के कारण होता है। सोने से थोड़ा पहले पान को नमक और अजवायन के साथ मुंह में रखने से नींद अच्छी आती है। यही नहीं पान सूखी खांसी में भी लाभकारी होता है।। वेब दुनिया .

नई!!: हितोपदेश और पान · और देखें »

बृहत्कथा

बृहत्कथा गुणाढ्य द्वारा पैशाची भाषा में रचित काव्य है। 'वृहत्कथा' का शाब्दिक अर्थ है - 'लम्बी कथा'। इसमें एक लाख श्लोक हैं। इसमें पाण्डववंश के वत्सराज के पुत्र नरवाहनदत्त का चरित (कथा) वर्णित है। इसका मूल रूप प्राप्त नहीं होता किन्तु यह कथासरित्सागर, बृहत्कथामंजरी तथा बृहत्कथाश्लोकसंग्रहः आदि संस्कृत ग्रंथों में रूपान्तरित रूप में विद्यमान है। पंचतंत्र, हितोपदेश, वेतालपंचविंशति आदि कथाएँ सम्भवतः इसी से ली गयी हैं। .

नई!!: हितोपदेश और बृहत्कथा · और देखें »

बैताल पचीसी

विक्रम और बेताल बैताल पचीसी (वेताल पचीसी या बेताल पच्चीसी; संस्कृत: बेतालपंचविंशतिका) पच्चीस कथाओं से युक्त एक कथा ग्रन्थ है। इसके रचयिता बेतालभट्ट बताये जाते हैं जो न्याय के लिये प्रसिद्ध राजा विक्रम के नौ रत्नों में से एक थे। ये कथायें राजा विक्रम की न्याय-शक्ति का बोध कराती हैं। बेताल प्रतिदिन एक कहानी सुनाता है और अन्त में राजा से ऐसा प्रश्न कर देता है कि राजा को उसका उत्तर देना ही पड़ता है। उसने शर्त लगा रखी है कि अगर राजा बोलेगा तो वह उससे रूठकर फिर से पेड़ पर जा लटकेगा। लेकिन यह जानते हुए भी सवाल सामने आने पर राजा से चुप नहीं रहा जाता। .

नई!!: हितोपदेश और बैताल पचीसी · और देखें »

भरटक द्वात्रिंशिका

भरटकद्वात्रिंशिका भारतीय संस्कृत कथा परम्परा का एक हास्यपरक रोचक कथा-संग्रह है। माना जाता है कि भरटकद्वात्रिंशिका की कथाओं को श्री सोमसुन्दर के शिष्य श्री साधुराज से सुनकर उन्हीं के किसी शिष्य ने लिखा। कुछ के अनुसार इसके लेखक जैन मुनि आनन्दरत्नगणि हैं। जोहान्स हर्तेल (13 March 1872 – 27 October 1955) नामक जर्मन विद्वान ने, जिन्होंने इस पुस्तक का पहला संस्करण 1922 ई. में जर्मनी से छपवाया था। जोहान्स हर्तेल पंचतंत्र व हितोपदेश के वैज्ञानिक अध्ययन व व्यवस्थित प्रस्तुतीकरण के लिए विशेष प्रसिद्ध रहे हैं। भरटकद्वात्रिंशिका में शैव साधुओं के एक भरटक नामक संप्रदाय की प्रवृत्तियों पर प्रहार करती की 32 लघु हास्य व्यंग्य परक कहानियाँ हैं,  जिन्हें "मुग्ध कथा" की श्रेणी में रखा जा सकता है। अधिकांश उनकी मूढता या जडप्रवृत्ति को इंगित करती हैं, तो कहीं उनके कपट को भी.

नई!!: हितोपदेश और भरटक द्वात्रिंशिका · और देखें »

भारतीय राजनय का इतिहास

यद्यपि भारत का यह दुर्भाग्य रहा है कि वह एक छत्र शासक के अन्तर्गत न रहकर विभिन्न छोटे-छोटे राज्यों में विभाजित रहा था तथापि राजनय के उद्भव और विकास की दृष्टि से यह स्थिति अपना विशिष्ट मूल्य रखती है। यह दुर्भाग्य उस समय और भी बढ़ा जब इन राज्यों में मित्रता और एकता न रहकर आपसी कलह और मतभेद बढ़ते रहे। बाद में कुछ बड़े साम्राज्य भी अस्तित्व में आये। इनके बीच पारस्परिक सम्बन्ध थे। एक-दूसरे के साथ शांति, व्यापार, सम्मेलन और सूचना लाने ले जाने आदि कार्यों की पूर्ति के लिये राजा दूतों का उपयोग करते थे। साम, दान, भेद और दण्ड की नीति, षाडगुण्य नीति और मण्डल सिद्धान्त आदि इस बात के प्रमाण हैं कि इस समय तक राज्यों के बाह्य सम्बन्ध विकसित हो चुके थे। दूत इस समय राजा को युद्ध और संधियों की सहायता से अपने प्रभाव की वृद्धि करने में सहायता देते थे। भारत में राजनय का प्रयोग अति प्राचीन काल से चलता चला आ रहा है। वैदिक काल के राज्यों के पारस्परिक सम्बन्धों के बारे में हमारा ज्ञान सीमित है। महाकाव्य तथा पौराणिक गाथाओं में राजनयिक गतिविधियों के अनेकों उदाहरण मिलते हैं। प्राचीन भारतीय राजनयिक विचार का केन्द्र बिन्दु राजा होता था, अतः प्रायः सभी राजनीतिक विचारकों- कौटिल्य, मनु, अश्वघोष, बृहस्पति, भीष्म, विशाखदत्त आदि ने राजाओं के कर्तव्यों का वर्णन किया है। स्मृति में तो राजा के जीवन तथा उसका दिनचर्या के नियमों तक का भी वर्णन मिलता है। राजशास्त्र, नृपशास्त्र, राजविद्या, क्षत्रिय विद्या, दंड नीति, नीति शास्त्र तथा राजधर्म आदि शास्त्र, राज्य तथा राजा के सम्बन्ध में बोध कराते हैं। वेद, पुराण, रामायण, महाभारत, कामन्दक नीति शास्त्र, शुक्रनीति, आदि में राजनय से सम्बन्धित उपलब्ध विशेष विवरण आज के राजनीतिक सन्दर्भ में भी उपयोगी हैं। ऋग्वेद तथा अथर्ववेद राजा को अपने लक्ष्य की प्राप्ति के लिये जासूसी, चालाकी, छल-कपट और धोखा आदि के प्रयोग का परामर्श देते हैं। ऋग्वेद में सरमा, इन्द्र की दूती बनकर, पाणियों के पास जाती है। पौराणिक गाथाओं में नारद का दूत के रूप में कार्य करने का वर्णन है। यूनानी पृथ्वी के देवता 'हर्मेस' की भांति नारद वाक चाटुकारिता व चातुर्य के लिये प्रसिद्ध थे। वे स्वर्ग और पृथ्वी के मध्य एक-दूसरे राजाओं को सूचना लेने व देने का कार्य करते थे। वे एक चतुर राजदूत थे। इस प्रकार पुरातन काल से ही भारतीय राजनय का विशिष्ट स्थान रहा है। .

नई!!: हितोपदेश और भारतीय राजनय का इतिहास · और देखें »

भारतीय साहित्य

भारतीय साहित्य से तात्पर्य सन् १९४७ के पहले तक भारतीय उपमहाद्वीप एवं तत्पश्चात् भारत गणराज्य में निर्मित वाचिक और लिखित साहित्य से होता है। दुनिया में सबसे पुराना वाचिक साहित्य हमें आदिवासी भाषाओं में मिलता है। इस दृष्टि से सभी साहित्य का मूल स्रोत है। भारतीय गणराज्य में 22 आधिकारिक मान्यता प्राप्त भाषाएँ है। जिनमें मात्र 2 आदिवासी भाषाओं - संथाली और बोड़ो - को ही शामिल किया गया है। .

नई!!: हितोपदेश और भारतीय साहित्य · और देखें »

मंत्री

मंत्री आधुनिक राष्ट्रीय या क्षेत्रीय सरकारों का प्रमुख पद है। भारत में प्राचीनकाल में राजा को विविध विषयों पर सलाह देने के लिये नियुक्त व्यक्ति को मंत्री या सचिव कहा जाता था। .

नई!!: हितोपदेश और मंत्री · और देखें »

लोककथा

लोककथाएँ वे कहानियाँ हैं जो मनुष्य की कथा प्रवृत्ति के साथ चलकर विभिन्न परिवर्तनों एवं परिवर्धनों के साथ वर्तमान रूप में प्राप्त होती हैं। सबसे महत्वपूर्ण बात यह है कि कुछ निश्चित कथानक रूढ़ियों और शैलियों में ढली लोककथाओं के अनेक संस्करण, उसके नित्य नई प्रवृत्तियों और चरितों से युक्त होकर विकसित होने के प्रमाण है। एक ही कथा विभिन्न संदर्भों और अंचलों में बदलकर अनेक रूप ग्रहण करती हैं। लोकगीतों की भाँति लोककथाएँ भी हमें मानव की परंपरागत वसीयत के रूप में प्राप्त हैं। दादी अथवा नानी के पास बैठकर बचपन में जो कहानियाँ सुनी जाती है, चौपालों में इनका निर्माण कब, कहाँ कैसे और किसके द्वारा हुआ, यह बताना असंभव है। "यद्यपि दादी नानी से ज्यादा कहानियाँ दादा नाना सुनाते हैं लेकिन फिर भी दादी-नानी को ही ज्यादा महता देना भी विरासत में चली आ रही परिपाटी का ही परिणाम है!"-डॉ.रवींद्र भारतीय .

नई!!: हितोपदेश और लोककथा · और देखें »

सिंहासन बत्तीसी

सिंहासन बत्तीसी (संस्कृत:सिंहासन द्वात्रिंशिका, विक्रमचरित) एक लोककथा संग्रह है। प्रजावत्सल, जननायक, प्रयोगवादी एवं दूरदर्शी महाराजा विक्रमादित्य भारतीय लोककथाओं के एक बहुत ही चर्चित पात्र रहे हैं। प्राचीनकाल से ही उनके गुणों पर प्रकाश डालने वाली कथाओं की बहुत ही समृद्ध परम्परा रही है। सिंहासन बत्तीसी भी ३२ कथाओं का संग्रह है जिसमें ३२ पुतलियाँ विक्रमादित्य के विभिन्न गुणों का कथा के रूप में वर्णन करती हैं। .

नई!!: हितोपदेश और सिंहासन बत्तीसी · और देखें »

संस्कृत ग्रन्थों की सूची

निम्नलिखित सूची अंग्रेजी (रोमन) से मशीनी लिप्यन्तरण द्वारा तैयार की गयी है। इसमें बहुत सी त्रुटियाँ हैं। विद्वान कृपया इन्हें ठीक करने का कष्ट करे। .

नई!!: हितोपदेश और संस्कृत ग्रन्थों की सूची · और देखें »

सूरज का सातवाँ घोड़ा

श्रेणी:हिन्दी उपन्यास श्रेणी:धर्मवीर भारती सूरज का सातवाँ घोड़ा धर्मवीर भारती का प्रसिद्ध उपन्यास है। धर्मवीर भारती की इस लघु औपन्यासिक रचना में हितोपदेश और पंचतंत्रवाली शैली में ७ दोपहरी में कही गई कहानियों के रूप में एक उपन्यास निर्मित किया गया है। यह पुस्तक के रूप में भारतीय ज्ञानपीठ से इसे लघु उपन्यास की संज्ञा दी गयी है। कथानक की बुनावट उपन्यास की विषय–वस्तु को नए आयाम प्रदान करती है। ‘सूरज का सातवॉं घोड़ा’ भी भारत-ईरान की प्राचीन  शैलियों से प्रभावित माना जाता है। लेकिन, पुरानी किस्सागोई का यह तरीका –अलिफलैला, पंचतंत्र, दशकुमारचरित अथवा कथासरित्सागर – ‘सूरज का सातवाँ घोड़ा’ की ऊपरी त्वचा मात्र है, इसे कथानक का बुनियादी ढाँचा नहीं माना जा सकता। एक दूसरी शैली भी इसमें परिलक्षित की जा सकती है- वह है, वीरगाथाओं या अन्य महाकाव्यों जैसी शैली, जिसमें रचनाकार अपनी रचनाओं का रचयिता ही नहीं वरन् घटनाओं के बीच स्वयं भी उपस्थित है। वह भोक्ता और रचयिता दोनों है। इस प्रकार रचना तटस्थ होने, निजी अनुभूति को सार्वजनिक अनुभव में तब्दील करने का दायित्व बन जाती है। ‘पृथ्वीराज रासो’ के रचयिता चंदवरदायी इसके महत्त्वपूर्ण्  चरित्र भी हैं, ठीक उसी तरह जैसे वाल्मीकि और तुलसी खुद को अपनी रचनाओं में उपस्थित कर देते हैं या कि संजय महाभारत के घटनाचक्र में मौजूद है।        ‘सूरज का सातवाँ घोडा’ के किस्से माणिक मुल्ला सुनाते हैं, लेकिन वे इन कहानियों के वक्ता मात्र ही नहीं – वे इनके बीच बड़ी शिद्दत से मौजूद हैं। वे इन कहानियों के भोक्ता भी हैं, ठीक वाल्मीकि, संजय और चंद की तरह। कहा जाता है कि ‘रासो’ को चंदवरदायी ने पूरा न कर यह काम अपने बेटे जल्हण को सौंप दिया था। ‘रासो’ के अंतिम अंश उसी के द्वारा लिखे गए, ठीक इसी प्रकार ‘सूरज का सातवाँ घोड़ा’ की कहानियाँ हैं तो सुनाई हुई माणिक मुल्ला की, परंतु उन्हें प्रस्तुत करता है उनका एक श्रोता ’मैं’। ‘मैं’ ही इसका मूल लेखक है लेकिन वह रामचरित मानस के तुलसी की तरह, जो रामकथा के शिव-पार्वती संवाद के प्रस्तोता मात्र बन जाते हैं- हमारे सामने आता है। वह माणिक द्वारा सुनाई कहानियों (जो अपनी श्रृंखलाबद्धता के चलते एक लघु उपन्यास का रुप धारण कर लेती हैं) के बारे में कहता है कि “अंत में मैं यह भी स्पष्ट कर देना चाहता हूँ कि इस लघु उपन्यास की विषय-वस्तु में जो कुछ भलाई-बुराई हो उसका जिम्मा मुझ पर नहीं माणिक मुल्ला पर ही है। मैंने सिर्फ अपने ढंग से वह कथा आपके सामने रख दी है’’। यह लेखक–प्रस्तोता भी कथा में भले ही एक मामूली हैसियत से-एक श्रोता के रूप में- मौजूद है। रचना और रचनाकार भारतीय परंपरा में सहज आवाजाही करते रहे हैं। यह उपन्यास भी अपने कथानक की बुनावट में कथा और कथाकार की तद्रूपता को संभव होने देता है। यथार्थ और कल्पना एक दूसरे के पूरक होने लगते हैं। यदि कहा जाय कि मध्यवर्ग आधा यथार्थ और आधा स्वप्न में जीने वाला वर्ग है तो गलत न होगा। सृजन के लिए भी कल्पना और हकीकत का संयोग एक अनिवार्य स्थिति है। इसलिए मध्यवर्ग सर्वाधिक सृजनशील, स्वप्नजीवी और बदलावमूलक होता है । ‘सूरज का सातवाँ घोड़ा’ इसी मध्यवर्ग की दास्तान – उसकी अंतर्विरोधी स्थितियों के साथ – हमारे सामने प्रस्तुत करता है। इस रचना के कथानक को नए कलेवर में बुना गया है। शुरूआत उपोद्घात से हुई है। उपोद्घात यानी प्रस्तावना, भूमिका। मुख्य कथा-अध्यायों के बीच में चार अनध्याय भी जोड़े गए हैं। इनके अतिरिक्त पूरी कथा सात दोपहरों में विभक्त है। सात दोपहर की कथा माणिक मुल्ला की है और उपोद्घात समेत चार अनध्याय उनके श्रोता ‘मैं’ की टिप्पणियाँ हैं। कुल मिलाकर बारह भागों में विभाजित यह कथा माणिक मुल्ला के जीवन समेत उनके संपर्क में आए प्रमुख चरित्रों- जमुना, लिली और सत्ती की जिंदगी पर प्रकाश डालती है। साथ ही, यह भी पता चलता है कि इन पात्रों से जुड़े संदर्भों पर माणिक मुल्ला के श्रोताओं की प्रतिक्रिया कैसी थी। अपनी इन्हीं मिली-जुली घटनाओं को लेकर यह उपन्यास आकार ग्रहण करता है।उपोद्घात में हमें माणिक मुल्ला के व्यक्तित्व, उनकी अभिरुचियों, किस्से गढ़ने की उनकी क्षमता और उनको सुनाने के अंदाज के बारे में जानकारी मिलती है। यहीं हमें यह भी पता चलता है कि, ‘’अगर काफी फुरसत हो, पूरा घर अधिकार में हो, चार मित्र बैठे हों, तो निश्चित है कि घूम-फिरकर वार्ता राजनीति पर आ टिकेगी और जब राजनीति में दिलचस्पी खत्म होने लगेगी तो गोष्ठी की वार्ता ‘प्रेम’ पर आ टिकेगी।लेकिन जहाँ तक साहित्यिक वार्ता का प्रश्न था, वे (माणिक मुल्ला) प्रेम को तरजीह दिया करते थे। इन कथनों से पता चलता है कि उपन्यास लेखन के लिए जरूरी उपकरण कौन से हैं। वे हैं- फुरसत का समय, ऐसे लोग जो स्वयं फुरसत में हों और इसे काटने के लिए किस्सों का सहारा चाह रहे हों, ऐसी जगह जहाँ बाहरी व्यवधान न हो। राजनीति, प्रेम और साहित्य उपन्यास के सहज-स्वाभाविक विषय हो सकते हैं। ‘सूरज का सातवाँ घोड़ा’ की रचना इन्हीं उपकरणों के सहारे होती है। इसलिये यह कृति विराट सामाजिक प्रश्नों को नज़रअंदाज कर वैयक्तिक संदर्भों से रची जाती है। इसे महाकाव्यात्मक उपन्यास की श्रेणी में न रखकर लघु उपन्यास की श्रेणी में रखा गया है। आदर्श की स्थापना के बजाय यथार्थ का उदघाटन ही इसके केन्द्र में है। यह यथार्थ भी अपनी संवेदना और भावभूमि में लघुता को ही, रोजमर्रा की आम घटनाओं को ही अधिक उभारता है। माणिक मुल्ला समेत सभी चरित्र एक औसत चरित्र हैं,  वे अपनी दैनिक घटनाओं से ही इतने अभिभूत हैं कि देश-दुनिया और समाज  को अपनी निजी निगाहों से जाँचने-परखने का काम करते है। इसीलिए बड़े सामाजिक दर्शन की एक रिड्यूस्ड समझ उनकी बनती है। गिरिजा कुमार माथुर ने ‘सूरज का सातवाँ घोड़ा’ के रचना-विधान को तीन कथा-वृत्तों में विभाजित किया है। ‘प्रथम कथावृत्त का केंद्र माणिक मुल्ला है। जमुना, लिली और तन्ना केंद्र के उपग्रह। दूसरे कथा-वृत्त का केंद्र भी माणिक मुल्ला है, सती, महेसर और चमन सिंह केंद्र के उपग्रह। तीसरा कथा-वृत्त ‘मैं’ का है, जिसके एक ओर मार्क्सवादी सिद्धांतों का व्यंग्यपूर्ण चित्रण है और दूसरी ओर व्यक्तिवादी कला-पक्ष। यह वृत्त गौण है। गिरिजा कुमार माथुर ने आगे इसकी शिल्पगत विशेषताओं का उल्लेख करते हुए टिप्पणी की है कि, “अनध्याय में ‘मैं’ ने सबके चरित्र का विश्लेषण किसी न किसी रूप में किया है, किंतु माणिक मुल्ला से उसका इतना मोह है कि कहीं भी उनका संतुलित विश्लेषण उसने नहीं होने दिया है।अर्थात कहानी रचने वाला ‘मैं’ नामक जो श्रोता है, वह उपन्यास के भीतर दावा तो यह करता है कि मैं माणिक कथा को ज्यों-का-त्यों प्रस्तुत कर रहा हूँ और टेकनीक समेत बाकी सभी वस्तुओं के लिए उसने माणिक मुल्ला को ही जिम्मेदार ठहराया है, लेकिन वह तटस्थ नहीं रह सका। इस उपन्यास की संरचना में जैसे माणिक के बारे में प्रकाश का मत था कि, “हो न हो माणिक मुल्ला में भी हिंदी के अन्य कहानीकारों की तरह नारी के प्रति कुछ ऑब्सेशन है।” कुछ ऐसा ही ऑब्सेशन ‘मैं’ का माणिक के प्रति है। वह माणिक के विशिष्ट व्यक्तिव से अभिभूत है और संकल्पबद्ध होकर उनकी कहानियों को बचाने का उद्यम करता है । इस अनन्य श्रोता ‘मैं’ ने निश्चित ही इन कहानियों को महत्वपूर्ण माना है, इसीलिए माणिक मुल्ला के लापता होने पर उन्हें बचाने की दिशा में कलमबद्ध किया है। इसलिये ‘मैं’ को माणिक मुल्ला की कहानियों का तटस्थ प्रस्तोता नहीं माना जा सकता, वरन् ‘मैं’ और माणिक एक नहीं तो अधिकांशत: एक जैसे व्यक्ति हैं। इसीलिए माथुर तीसरे वृत्त को गौण मानते हैं। खैर, इस उपन्यास के मुख्य सरोकार माणिक की कहानियों के इर्द-गिर्द  ही विकसित होते हैं। वे देखने में सीमित लग सकते हैं लेकिन इससे कौन इंकार करेगा कि हमारी जिंदगी की अधिकतर ऊर्जा इन्हीं छोटी-मोटी समस्याओं को सुलझाने में निकल जाती है और मध्यवर्गी जनसमूह इन्हीं उपलब्धियों के द्वारा स्वयं को सार्थक महसूस कर पाता है। इसलिए ‘सूरज का सातवॉं घोड़ा’ लघुता में महत् के तलाश की उल्लेखनीय कृति बन जाती है, और मध्यवर्ग की अदम्य आकांक्षा को प्रतिबिंबित करती है।उपन्यास में लैाकिक मूल्यों की सक्रियता होती है। यथार्थवादी नजरिए के बिना उपन्यास की रचना संभव नहीं। उपन्यास को हम जीवन का कलात्मक विकल्प मान सकते हैं। एक उपन्यासकार घटनाओं, चरित्रों, परिस्थितियों, संवाद आदि के माध्यम से एक दुनिया अपने उपन्यास में बसाता है। ये चरित्र वास्तविक न होते हुए भी वास्तविकता का एहसास रचते हैं तथा ‘जीवन और समाज की जटिलताओं से जूझने का प्रमाण’ उपस्थित करते हैं। उपन्यासकार जिन विभिन्न तत्वों से अपनी औपन्यासिक दुनिया बनाता है, उनमें कथानक, कथोपकथन, देशकाल, शैली, और उद्देश्य महत्वपूर्ण होते हैं। नित्यानंद तिवारी का मानना है कि, “हर उपन्यासकार अपनी दृष्टि से जीवन की समस्याओं को चीरकर उनके भीतर से इन तत्वों का संगठन करता है। ये तत्व यांत्रिक फार्मूले नहीं । इनकी भूमिका नियामक नहीं, निर्देशक है। ‘सूरज का सातवाँ घोड़ा’ में इन तत्वों की उपस्थिति एक संतुलित अनुपात में आती है, लेकिन निजता पूरे कथा-विन्यास में अधिक सक्रिय रहती है।‘.

नई!!: हितोपदेश और सूरज का सातवाँ घोड़ा · और देखें »

हिन्दी पुस्तकों की सूची/श

संवाद शीर्षक से कविता संग्रह-ईश्वर दयाल गोस्वाामी.

नई!!: हितोपदेश और हिन्दी पुस्तकों की सूची/श · और देखें »

कथासरित्सागर

कथासरित्सागर, संस्कृत कथा साहित्य का शिरोमणि ग्रंथ है। इसकी रचना कश्मीर में पंडित सोमदेव (भट्ट) ने त्रिगर्त अथवा कुल्लू कांगड़ा के राजा की पुत्री, कश्मीर के राजा अनंत की रानी सूर्यमती के मनोविनोदार्थ 1063 ई और 1082 ई. के मध्य संस्कृत में की। सोमदेव रचित कथासरित्सागर गुणाढ्य की बृहत्कथा का सबसे बेहतर, बड़ा और सरस रूपांतरण है। वास्तविक अर्थों में इसे भारतीय कथा परंपरा का महाकोश और भारतीय कहानी एवं जातीय विरासत का सबसे अच्छा प्रतिनिधि माना जा सकता है। मिथक, इतिहास यथार्थ, फैंटेसी, सचाई, इन्द्रजाल आदि का अनूठा संगम इन कथाओं में है। ईसा लेकर मध्यकाल तक की भारतीय परंपराओं और सांस्कृतिक धाराओं के इस दस्तावेज में तांत्रिक अनुष्ठानों, प्राकेतर घटनाओं तथा गंधर्व, किन्नर, विद्याधर आदि दिव्य योनि के प्राणियों के बारे में ढेरों कथाएं हैं। साथ ही मनोविज्ञान सत्य, हमारी सामाजिक-आर्थिक स्थितियों तथा धार्मिक आस्थाओं की छवि और विक्रमादित्य, बैताल पचीसी, सिंहासन बत्तीसी, किस्सा तोता मैना आदि कई कथाचक्रों का समावेश भी इसमें हैं। कथासरित्सागर में 21,388 पद्म हैं और इसे 124 तरंगों में बाँटा गया है। इसका एक दूसरा संस्करण भी प्राप्त है जिसमें 18 लंबक हैं। लंबक का मूल संस्कृत रूप 'लंभक' था। विवाह द्वारा स्त्री की प्राप्ति "लंभ" कहलाती थी और उसी की कथा के लिए लंभक शब्द प्रयुक्त होता था। इसीलिए रत्नप्रभा लंबक, मदनमंचुका लंबक, सूर्यप्रभा लंबक आदि अलग-अलग कथाओं के आधार पर विभिन्न शीर्षक दिए गए होंगे। .

नई!!: हितोपदेश और कथासरित्सागर · और देखें »

कहानी

कथाकार (एक प्राचीन कलाकृति)कहानी हिन्दी में गद्य लेखन की एक विधा है। उन्नीसवीं सदी में गद्य में एक नई विधा का विकास हुआ जिसे कहानी के नाम से जाना गया। बंगला में इसे गल्प कहा जाता है। कहानी ने अंग्रेजी से हिंदी तक की यात्रा बंगला के माध्यम से की। कहानी गद्य कथा साहित्य का एक अन्यतम भेद तथा उपन्यास से भी अधिक लोकप्रिय साहित्य का रूप है। मनुष्य के जन्म के साथ ही साथ कहानी का भी जन्म हुआ और कहानी कहना तथा सुनना मानव का आदिम स्वभाव बन गया। इसी कारण से प्रत्येक सभ्य तथा असभ्य समाज में कहानियाँ पाई जाती हैं। हमारे देश में कहानियों की बड़ी लंबी और सम्पन्न परंपरा रही है। वेदों, उपनिषदों तथा ब्राह्मणों में वर्णित 'यम-यमी', 'पुरुरवा-उर्वशी', 'सौपणीं-काद्रव', 'सनत्कुमार- नारद', 'गंगावतरण', 'श्रृंग', 'नहुष', 'ययाति', 'शकुन्तला', 'नल-दमयन्ती' जैसे आख्यान कहानी के ही प्राचीन रूप हैं। प्राचीनकाल में सदियों तक प्रचलित वीरों तथा राजाओं के शौर्य, प्रेम, न्याय, ज्ञान, वैराग्य, साहस, समुद्री यात्रा, अगम्य पर्वतीय प्रदेशों में प्राणियों का अस्तित्व आदि की कथाएँ, जिनकी कथानक घटना प्रधान हुआ करती थीं, भी कहानी के ही रूप हैं। 'गुणढ्य' की "वृहत्कथा" को, जिसमें 'उदयन', 'वासवदत्ता', समुद्री व्यापारियों, राजकुमार तथा राजकुमारियों के पराक्रम की घटना प्रधान कथाओं का बाहुल्य है, प्राचीनतम रचना कहा जा सकता है। वृहत्कथा का प्रभाव 'दण्डी' के "दशकुमार चरित", 'बाणभट्ट' की "कादम्बरी", 'सुबन्धु' की "वासवदत्ता", 'धनपाल' की "तिलकमंजरी", 'सोमदेव' के "यशस्तिलक" तथा "मालतीमाधव", "अभिज्ञान शाकुन्तलम्", "मालविकाग्निमित्र", "विक्रमोर्वशीय", "रत्नावली", "मृच्छकटिकम्" जैसे अन्य काव्यग्रंथों पर साफ-साफ परिलक्षित होता है। इसके पश्‍चात् छोटे आकार वाली "पंचतंत्र", "हितोपदेश", "बेताल पच्चीसी", "सिंहासन बत्तीसी", "शुक सप्तति", "कथा सरित्सागर", "भोजप्रबन्ध" जैसी साहित्यिक एवं कलात्मक कहानियों का युग आया। इन कहानियों से श्रोताओं को मनोरंजन के साथ ही साथ नीति का उपदेश भी प्राप्त होता है। प्रायः कहानियों में असत्य पर सत्य की, अन्याय पर न्याय की और अधर्म पर धर्म की विजय दिखाई गई हैं। .

नई!!: हितोपदेश और कहानी · और देखें »

निवर्तमानआने वाली
अरे! अब हम फेसबुक पर हैं! »