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सूक्ष्मदर्शी

सूची सूक्ष्मदर्शी

सूक्ष्मदर्शी या सूक्ष्मबीन (माइक्रोस्कोप) वह यंत्र है जिसकी सहायता से आँख से न दिखने योग्य सूक्ष्म वस्तुओं को भी देखा जा सकता है। सूक्ष्मदर्शी की सहायता से चीजों का अवलोकन व जांच किया जाता है वह सूक्ष्मदर्शन कहलाता है। सूक्ष्मदर्शी का इतिहास लगभग ४०० वर्ष पुराना है। सबसे पहले नीदरलैण्ड में सन १६०० के आस-पास किसी काम के योग्य सूक्ष्मदर्शी का विकास हुआ। .

70 संबंधों: ऊतक विकृतिविज्ञान, ऊन, एर्न्स्ट ऐबि, तुलना माइक्रोस्कोप, धातुरचना विज्ञान, परमाण्विक बल सूक्ष्मदर्शी यंत्र, पालि (शरीर), प्रतिजैविक, प्रजीवगण, प्रकाशिक यंत्र, प्रकाशिकी, प्रकाशीय सूक्ष्मदर्शी, प्रकाशीय अवयवों का निर्माण एवं परीक्षण, प्लवक, फोल्डस्कोप, बहुकोशिकीय जीव, भौतिकी की शब्दावली, मणिपुर, मानचित्र, मिश्रातु, मृदा, मूँगा (जीव), रक्त समूह, रक्त के प्रकार, रोजर बेकन, लिंग, लेंस, शवपरीक्षा, सहचिकित्सा, सामान्य आपेक्षिकता, सिस्टोस्कॉपी, संक्रमण, सकल निरीक्षण, सकल विकृतिविज्ञान, स्टीरियो सूक्ष्मदर्शी, स्कैनिंग इलेक्ट्रॉन सूक्ष्मदर्शी, सौर सेल, सूत्रकणिका, सूक्ष्मचित्र, सूक्ष्मदर्शन, सूक्ष्मदर्शी स्लाइड, सूक्ष्मप्राणी, सूक्ष्मजैविकी, सूक्ष्मजीव, हाइड्रा, हाइपरप्लासिया, ज्वालाकाच, जीनोम परियोजना, जीवाणु, जीवविज्ञान का इतिहास, ..., घर्षण, विद्युतदर्शी, विकृतिविज्ञान, वैज्ञानिक उपकरण, खनिज विज्ञान, ख़ुर्द और कलाँ, गुरुत्वाकर्षक लेंस, आवर्धन, आवर्धक लेन्स, इलेक्ट्रॉन सूक्ष्मदर्शी, कण, कर्कट रोग, कलिल, क्रिस्टलकी, कैल्साइट, कोणीय विभेदन, कोशिका विज्ञान, अवलोकन टनलिंग सूक्ष्मदर्शी यंत्र, अग्न्याशय, अंतःस्राविकी सूचकांक विस्तार (20 अधिक) »

ऊतक विकृतिविज्ञान

ऊतक विकृतिविज्ञान (Histopathology) शरीर के किसी भाग में स्थित या वहाँ से लिए गए ऊतक (टिशू) का सूक्ष्मदर्शी द्वारा किया गया निरीक्षण है, जिसमें रोग के प्रभावों को ढूंढने या समझने की चेष्टा की जाती है। अक्सर इसमें करी जा रही ऊतक परीक्षा के लिए ऊतक के नमूनों को शल्यचिकित्सा (सर्जरी) या सुई द्वारा शरीर से निकाला जाता है और उसे महीनता से काटकर सूक्ष्मदर्शी के नीचे उसकी जाँच की जाती है। .

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ऊन

ऊन के लम्बे एवं छोटे रेशे ऊन मूलतः रेशेदार (तंतुमय) प्रोटीन है जो विशेष प्रकार की त्वचा की कोशिकाओं से निकलता है। ऊन पालतू भेड़ों से प्राप्त किया जाता है, किन्तु बकरी, याक आदि अन्य जन्तुओं के बालों से भी ऊन बनाया जा सकता है। कपास के बाद ऊन का सर्वाधिक महत्व है। इसके रेशे उष्मा के कुचालक होते हैं। सूक्ष्मदर्शी से देखने पर इन रेशों की सतह असमान, एक दूसरे पर चढ़ी हुई कोशिकाओं से निर्मित दिखाई देती है। विभिन्न नस्ल की भेड़ों में इन कोशिकाओं का आकार और स्वरूप भिन्न-भिन्न होता है। महीन ऊन में कोशिकाओं के किनारे, मोटे ऊन के रेशों की अपेक्षा, अधिक निकट होते हैं। गर्मी और नमी के प्रभाव से ये रेशे आपस में गुँथ जाते हैं। इनकी चमक कोशिकायुक्त स्केलों के आकार और स्वरूप पर निर्भर रहती है। मोटे रेशे में चमक अधिक होती है। रेशें की भीतरी परत (मेडुल्ला) को महीन किस्मों में तो नहीं, किंतु मोटी किस्मों में देखा जा सकता है। मेडुल्ला में ही ऊन का रंगवाला अंश (पिगमेंट) होता है। मेडुल्ला की अधिक मोटाई रेशे की संकुचन शक्ति को कम करती है। कपास के रेशे से इसकी यह शक्ति एक चौथाई अधिक है। .

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एर्न्स्ट ऐबि

एर्न्स्ट ऐबि (Ernst Abbe; १८३५ - १९०५) जर्मन भौतिकविद, प्रकाश वैज्ञानिक, उद्यमी, तथा समाज-सुधारक था। एर्न्स्ट ऐबि, ऑटो स्कॉट (Otto Schott) तथा कार्ल जीस (Carl Zeiss) सम्मिलित रूप से आधुनिक प्रकाशिकी के संस्थापक माने जाते हैं। ऐबि ने की प्रकाशीय उपकरणों का विकास किया। वह कार्ल जीस एजी (Carl Zeiss AG) नामक कम्पनी का सह-स्वामी बना जो अनुसंधान सूक्ष्मदर्शी, खगोलीय दूरदर्शी, प्लेनेटेरियम, तथा अन्य प्रकाशीय तन्त्र का निर्माता थी। एर्न्स्ट ऐबि का जन्म सन् १८३५ ई. में जर्मनी में हुआ। उसका बाल्यकाल बड़ा सुखद था। इससे उसकी शिक्षा दीक्षा भी निर्बाध तथा पूर्ण हुई। इसकी प्रसिद्धि विशेष रूप से सूक्ष्मदर्शक यंत्र के मंच के नीचे लगनेवाले संघनक (कंडेंसर) के कारण हुई जिसको आजकल 'ऐबीज़ सबस्टेज कंडेसर' कहा जाता है। इनकी अत्यधिक प्रसिद्धि का कारण इनका 'ज़ाइस आप्टिकल वर्क्स' नामक संस्था से निकटतम संबंध था। इस संस्था की प्रगति के ये ही मुख्य कारण थे। इस संस्था से संबद्ध रहकर इन्होंने अपने कारखाने में बने सूक्ष्मदर्शक यंत्रों में आश्चर्यजनक उन्नति की जिससे 'ज़ाइस ऑप्टिकल वर्क्स' का संसार में एक विशेष स्थान बन गया और आज उसके बने अणुदर्शक प्रथम श्रेणी के यंत्र माने जाते हैं। इनके तत्वावधान में तथा इनके द्वारा सूक्ष्मदर्शी यंत्रों में किए गए विकासों तथा सुधारों के फलस्वरूप आज के ऊतिकी (हिस्टॉलॉजी) तथा जीवाणुविज्ञान (बैक्टीरियालॉजी) के क्षेत्रों से संबंधित अनुसंधानों में अभूतपूर्व प्रगति हुई तथा इस प्रगति के साथ-साथ चिकित्सा विज्ञान की भी महत्वपूर्ण उन्नति संभव हुई। इस महान् वैज्ञानिक की मृत्यु जर्मनी में अपने निवासस्थान पर ७० वर्ष की आयु में सन् १९०५ ई. में हुई। श्रेणी:जर्मन वैज्ञानिक.

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तुलना माइक्रोस्कोप

तुलना माइक्रोस्कोप (Comparison microscope) एक सूक्ष्मदर्शी यंत्र है जिसका उपयोग अगल-बगल में रखे दो नमूनों का विश्लेषण करने के लिये किया जाता है। तुलना माइक्रोस्कोप, एक प्रकाशीय-सेतु (ऑप्टिकल ब्रिज) द्वारा जुड़े दो सूक्ष्मदर्शकों से मिलकर बनता है। इस तरह की व्यवस्था से एक ही खिड़की में, एक साथ, दो अलग-अलग वस्तुएँ देखी जा सकतीं है। इस कारण, यदि दो वस्तुओं की तुलना करनी हो तो यह सूक्षमदर्शी अधिक उपयुक्त है क्योंकि साधारण सूक्षमदर्शी से देखकर यदि तुलना करनी हो तो दो अलग-अलग वस्तुओं को दो बार देखना पड़ेगा और देखी हुई छबि को याद करते हुए तुलना करना पड़ेगा। यह प्रक्रिया अधिक समय लगाती है और प्रेक्षक की स्मृति पर भी निर्भर करती है। .

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धातुरचना विज्ञान

धातुओं के अनेकानेक गुण सूक्ष्मदर्शी की सहायता से ज्ञात किए जा सकते हैं। सूक्ष्मदर्शी द्वारा धातुपरीक्षण की इस विधि को धातु-रचना-विज्ञान (Metallography) कहते हैं। इसके द्वारा धातुओं अथवा मिश्र धातुओं की आंतरिक रचना, अथवा उनपर उष्मोपचार के प्रभाव का अध्ययन किया जाता है। इस कार्य के लिए जो सूक्ष्मदर्शी उपयोग में लाए जाते हैं उनका निर्माण जीवविज्ञान इत्यादि में प्रयुक्त होनेवाले सूक्ष्मदर्शियों से भिन्न होता है। धातुएँ परांध होती हैं। प्रकाश की किरणें उनमें से पार नहीं हो सकती। इसलिए यहाँ पर परावर्तन सिद्धांत का उपयोग किया जाता है, जिससे निदर्श (specimen) पर पड़नेवाली प्रकाश की किरणें परावर्तित होकर मनुष्य के नेत्र तक पहुँचती हैं। धातुओं के सूक्ष्मदर्शियों परीक्षण के लिए पहले उन्हें लगभग 1/2 इंच घनाकार टुकड़े के रूप में काट लेते हैं। इस टुकड़े को निदर्श कहते हैं। तत्पश्चात्‌ निदर्श एमरी रेगमाल (emery paper) से अच्छी तरह पालिश किया जाता है। इसके बाद पालिश चक्र पर इसे शीशे की तरह चमक दी जाती है। अब निदर्श सूक्ष्मदर्शी परीक्षण के लिए तैयार हो गया। इस रूप में इसे सूक्ष्मदर्शी द्वारा देखने से उसमें विद्यमान छिद्र, विजातीय पदार्थ अथवा धातुमल इत्यादि दिखलाई पड़ते हैं। फलक में पिटवां लोहे का एक सूक्ष्म आलेख (micrograph) दिखाया गया है। इसमें ग्रैफाइट के काले रेशे दिखाई दे रहे हैं। केवल पालिश की हुई सतह से धातु की आंतरिक संरचना नहीं दिखाई पड़ती, इसलिए इसे किसी रासायनिक विलयन से निक्षारित (etch) किया जाता है। निक्षारण के पश्चात्‌ धातु की आंतरिक संरचना दिखाई पड़ने लगती है। फलक में पिटवाँ लोहे का निक्षारित सूक्ष्म आलेख दिखलाया गया है। अन्य चित्रों में क्रमश: मृदु तथा कठोर इस्पात की सूक्ष्म संरचना (micro-structure) देखी जा सकती है। अब धातुरचना का क्षेत्र बहुत विस्तृत हो गया है और नए नए प्रकार के सूक्ष्मदर्शी उपयोग में लाए जाने लगे हैं। इलेक्ट्रॉन सूक्ष्मदर्शी द्वारा धातुओं की संरचना को एक लाख गुना आवर्धित किया जा सकता है। एक्सरे द्वारा भी धातुओं की आंतरिक संरचना के अध्ययन में बहुत सहायता मिली है। .

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परमाण्विक बल सूक्ष्मदर्शी यंत्र

स्थलाकृतिक प्रतिबिंब परमाण्विक बल सूक्ष्मदर्शी यंत्र (atomic force microscope, AFM), जिसे क्रमवीक्षण बल सूक्ष्मदर्शी यंत्र (scanning force microscope, SFM) भी कहा जाता है, एक अति-विभेदनशील यंत्र है, जो नैनोमीटर के अंशों से भी सूक्ष्म स्तर तक दिखा सकता है, जो कि प्रकाशिक सूक्ष्मदर्शीओं की तुलना में १००० गुना बेहतर हैं। प्रकाशिक सूक्ष्मदर्शी उनकी विवर्तन सीमा से सीमित हो जाते हैं। इन्हे अगुआ किया गर्ड बिन्निग और हैन्रिक रोह्रर के बनाये अवलोकन टनलिंग सूक्ष्मदर्शी यंत्र (STM) नें, जिसके लिये उन्हे १९८६ में नोबेल पुरस्कार से सम्मानित किया गया। बिन्निग, कैल्विन केट और क्रिस्टॉफ गर्बर नें १९८६ में पहले AFM का विकास किया। आज नैनो स्तर पर प्रतिबिंबन, मापन और दक्षप्रयोग में यह यंत्र महत्वपूर्ण भुमिका निभा रहा है। इस यंत्र को सूक्ष्मदर्शी कहना ठीक नहीं है, क्योंकि यह यंत्र एक यांत्रिक अन्वेषिका के प्रयोग से सतह को छूकर प्रतिबिंब बनाता है। पैजोविद्युत तत्वों के प्रयोग से बहुत ही सूक्ष्म स्तर पर नियंत्रण हो पाता है। .

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पालि (शरीर)

मानव गुर्दे की पालियाँ इस चित्र में लाल रंग में दर्शाई गई हैं और इनमें से एक '1' द्वारा नामांकित है पालि या लोब (lobe) शरीर में किसी नरम अंग (जैसे कि हृदय, गुर्दा, जिगर) के ऐसे अलग दिखने वाले छोटे भाग को कहते हैं जो उस अंग से जुड़ा हो लेकिन स्पष्ट रूप से एक अलग अस्तित्व रखता हो।, P. S. Rawat, pp.

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प्रतिजैविक

किरबी-ब्यूअर डिस्क प्रसार विधि द्वारा स्टेफिलोकुकस एयूरेस एंटीबायोटिक दवाओं की संवेदनशीलता का परीक्षण.एंटीबायोटिक एंटीबायोटिक से बाहर फैलाना-डिस्क युक्त और एस अवरोध के क्षेत्र में जिसके परिणामस्वरूप aureus का विकास बाधित किया जाता है। आम उपयोग में, प्रतिजैविक या एंटीबायोटिक एक पदार्थ या यौगिक है, जो जीवाणु को मार डालता है या उसके विकास को रोकता है। एंटीबायोटिक रोगाणुरोधी यौगिकों का व्यापक समूह होता है, जिसका उपयोग कवक और प्रोटोजोआ सहित सूक्ष्मदर्शी द्वारा देखे जाने वाले जीवाणुओं के कारण हुए संक्रमण के इलाज के लिए होता है। "एंटीबायोटिक" शब्द का प्रयोग 1942 में सेलमैन वाक्समैन द्वारा किसी एक सूक्ष्म जीव द्वारा उत्पन्न किये गये ठोस या तरल पदार्थ के लिए किया गया, जो उच्च तनुकरण में अन्य सूक्ष्मजीवों के विकास के विरोधी होते हैं। इस मूल परिभाषा में प्राकृतिक रूप से प्राप्त होने वाले ठोस या तरल पदार्थ नहीं हैं, जो जीवाणुओं को मारने में सक्षम होते हैं, पर सूक्ष्मजीवों (जैसे गैस्ट्रिक रसऔर हाइड्रोजन पैराक्साइड) द्वारा उत्पन्न नहीं किये जाते और इनमें सल्फोनामाइड जैसे सिंथेटिक जीवाणुरोधी यौगिक भी नहीं होते हैं। कई एंटीबायोटिक्स अपेक्षाकृत छोटे अणु होते हैं, जिनका भार 2000 Da से भी कम होता हैं। औषधीय रसायन विज्ञान की प्रगति के साथ-साथ अब अधिकतर एंटीबायोटिक्ससेमी सिंथेटिकही हैं, जिन्हें प्रकृति में पाये जाने वाले मूल यौगिकों से रासायनिक रूप से संशोधित किया जाता है, जैसा कि बीटालैक्टम (जिसमें पेनसिलियम, सीफालॉसपोरिन औरकारबॉपेनम्स के कवक द्वारा उत्पादितपेनसिलिंस भी शामिल हैं) के मामले में होता है। कुछ एंटीबायोटिक दवाओं का उत्पादन अभी भी अमीनोग्लाइकोसाइडजैसे जीवित जीवों के जरिये होता है और उन्हें अलग-थलग रख्ना जाता है और अन्य पूरी तरह कृत्रिम तरीकों- जैसे सल्फोनामाइड्स,क्वीनोलोंसऔरऑक्साजोलाइडिनोंससे बनाये जाते हैं। उत्पत्ति पर आधारित इस वर्गीकरण- प्राकृतिक, सेमीसिंथेटिक और सिंथेटिक के अतिरिक्त सूक्ष्मजीवों पर उनके प्रभाव के अनुसार एंटीबायोटिक्स को मोटे तौर पर दो समूहों में विभाजित किया जा सकता हैं: एक तो वे, जो जीवाणुओं को मारते हैं, उन्हें जीवाणुनाशक एजेंट कहा जाता है और जो बैक्टीरिया के विकास को दुर्बल करते हैं, उन्हें बैक्टीरियोस्टेटिक एजेंट कहा जाता है। .

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प्रजीवगण

प्रजीवगण (प्रोटोज़ोआ) एक एककोशिकीय जीव है। इनकी कोशिका प्रोकैरियोटिक प्रकार की होती है। ये साधारण सूक्ष्मदर्शी यंत्र से आसानी से देखे जा सकते हैं। कुछ प्रोटोज़ोआ जन्तुओं या मनुष्य में रोग उत्पन्न करते हैं, उन्हे रोगकारक प्रोटोज़ोआ कहते हैं। श्रेणी:प्रोटोज़ोआ श्रेणी:मलेरिया.

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प्रकाशिक यंत्र

सन् १८५८ में इंग्लैण्ड में उपलब्ध कुछ प्रकाशिक यन्त्र प्रकाशिक यंत्र (optical instrument) किसी प्रकाश तरंगों का प्रसंस्करण करते हैं ताकि किसी छवि की गुणवत्ता बढ़ायी जा सके या प्रकाश तरंगों (फोटॉन) का विश्लेषण करते हैं ताकि उस तरंग के बहुत से वैशिष्ट्यों में से किसी एक का मान निकाला जा सके। .

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प्रकाशिकी

दर्पणो से प्रकाश के परिवर्तन प्रकाशिकी का विषय है। प्रकाश का अध्ययन भी दो खंडों में किया जाता है। पहला खंड, ज्यामितीय प्रकाशिकी, प्रकाश किरण की संकल्पना पर आधृत है। दर्पणों से प्रकाश का परार्वतन और लेंसों तथा प्रिज्मों से प्रकाश का अपवर्तन, ज्यामितीय प्रकाशिकी के विषय है। सूक्ष्मदर्शी, दूरदर्शी, फोटोग्राफी कैमरा तथा अन्य उपयोगी प्रकाशिकी यंत्रों की क्रियाविधि ज्यामितीय प्रकाशिकी के नियमों पर ही आधृत है। प्रकाशिकी का दूसरा खंड भौतिक प्रकाशिकी है। इसमें प्रकाश की मूल प्रकृति तथा प्रकाश और द्रव्य की पारस्परिक क्रिया का अध्ययन किया जाता है। प्रकाश सूक्ष्म कणों का संचार है, ऐसा मानकर न्यूटन ने ज्यामितीय प्रकाशिकी के मुख्य परिणामों की व्याख्या की। पर 19वीं शताब्दी में प्रकाश के व्यतिकरण की घटनाओं का आविष्कार हुआ। इन क्रियाओं की व्याख्या कणिका सिद्धांत से संभव नहीं है, अत: बाध्य होकर यह मानना पड़ा कि प्रकाश तरंगसंचार ही है। ऊपर वर्णित मैक्सवेल के विद्युतचुंबकीय सिद्धांत ने प्रकाश के तरंग सिद्धांत को ठोस आधार दिया। भौतिक प्रकाशिकी का एक महत्वपूर्ण भाग * श्रेणी:प्राकृतिक दर्शन श्रेणी:विद्युतचुंबकीय विकिरण.

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प्रकाशीय सूक्ष्मदर्शी

प्रकाशीय सूक्ष्मदर्शी प्रकाशीय सूक्ष्मदर्शी (optical microscope) वे सूक्ष्मदर्शी हैं जो दृष्य प्रकाश तथा लेंसों का उपयोग करके छोटी वस्तुओं का की बड़ी छबि बनाते हैं। सबसे पहले ये ही सूक्ष्मदर्शी विकसित किए गये। वर्तमान समय में प्रयुक्त संयुक्त सूक्ष्मदर्शी (कम्पाउण्ड माइक्रोस्कोप) का आविष्कार १७वीं शताब्दी में हुआ था। मूलभूत प्रकाशीय सूक्ष्मदर्शी बहुत ही सरल युक्ति है किन्तु बहुत सी जटिल डिजाइनों वाले प्रकाश-सूक्ष्मदर्शी भी हैं जो रिजोल्युशन या कांट्रास्ट बढ़ाने के उद्देश्य से बनाये गये हैं। प्रकाशीय सूक्ष्मदर्शी द्वारा निर्मित छबि को प्रकाश-संवेदी कैमरों द्वारा जतन किया जा सकता है। प्रकाशीय सूक्ष्मदर्शी से भिन्न सूक्ष्मदर्शी भी हैं जो दृष्य प्रकाश नहीं प्रयोग करते, जैसे स्कैनिंग इलेक्ट्रान सूक्ष्मदर्शी, ट्रांसमिशन इलेक्ट्रान सूक्ष्मदर्शी आदि। .

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प्रकाशीय अवयवों का निर्माण एवं परीक्षण

प्रकाशीय अवयवों का निर्माण एवं परीक्षण का क्षेत्र बहुत विस्तृत है। इसमें निर्माण के बहुत सी प्रक्रियाएँ एवं प्रकाशीय परीक्षण आते हैं। .

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प्लवक

कुछ प्लवक वे सभी प्राणी या वनस्पति, जो जल में जलतरंगों या जलधारा द्वारा प्रवाहित होते रहते हैं, प्लवक (प्लवक .

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फोल्डस्कोप

फोल्डस्कोप एक प्रकाशीय सूक्ष्मदर्शी है जो सरल घटकों से बनाया जा सकता है। .

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बहुकोशिकीय जीव

सी एलेगेन्स नामक रेंगने वाला एक छोटा जीव जिसकी कोशिकाओं को रंगा गया है (हर लाल बिंदु एक कोशिका का केन्द्रक/न्यूक्लियस है) बहुकोशिकीय जीव (multicellular organism) वह जीव होते हैं जिनमें एक से अधिक कोशिकाएँ (सेल) हों। बहुकोशिकीय जीव बनाने के लिए इन कोशिकाओं को एक-दूसरे को पहचानकर जुड़ जाने की ज़रुरत होती है। बिना सूक्ष्मबीन (माइक्रोस्कोप) के दिख सकने वाले लगभग सभी जीव बहुकोशिकीय होते हैं और केवल लगभग एक दर्ज़न ही एककोशिकीय जीव हैं जो बिना सूक्ष्म्बीन के दिख सकें। ऐसे भी कुछ जीव हैं, जैसे कि डिक्टियोस्टीलियम (Dictyostelium) जो अलग-अलग परिस्थितियों में कभी एककोशिकीय और कभी बहुकोशिकीय होते हैं।, Carlos López-Larrea, pp.

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भौतिकी की शब्दावली

* ढाँचा (Framework).

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मणिपुर

मणिपुर भारत का एक राज्य है। इसकी राजधानी है इंफाल। मणिपुर के पड़ोसी राज्य हैं: उत्तर में नागालैंड और दक्षिण में मिज़ोरम, पश्चिम में असम; और पूर्व में इसकी सीमा म्यांमार से मिलती है। इसका क्षेत्रफल 22,347 वर्ग कि.मी (8,628 वर्ग मील) है। यहां के मूल निवासी मेइती जनजाति के लोग हैं, जो यहां के घाटी क्षेत्र में रहते हैं। इनकी भाषा मेइतिलोन है, जिसे मणिपुरी भाषा भी कहते हैं। यह भाषा १९९२ में भारत के संविधान की आठवीं अनुसूची में जोड़ी गई है और इस प्रकार इसे एक राष्ट्रीय भाषा का दर्जा प्राप्त हो गया है। यहां के पर्वतीय क्षेत्रों में नागा व कुकी जनजाति के लोग रहते हैं। मणिपुरी को एक संवेदनशील सीमावर्ती राज्य माना जाता है। .

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मानचित्र

विश्व का मानचित्र (२००४, सीआईए वर्ल्ड फैक्टबुक) पृथ्वी के सतह के किसी भाग के स्थानों, नगरों, देशों, पर्वत, नदी आदि की स्थिति को पैमाने की सहायता से कागज पर लघु रूप में बनाना मानचित्रण कहलाता हैं। मानचित्र दो शब्दों मान और चित्र से मिल कर बना है जिसका अर्थ किसी माप या मूल्य को चित्र द्वारा प्रदर्शित करना है। जिस प्रकार एक सूक्ष्मदर्शी किसी छोटी वस्तु को बड़ा करके दिखाता है, उसके विपरीत मानचित्र किसी बड़े भूभाग को छोटे रूप में प्रस्तुत करते हैं जिससे एक नजर में भौगोलिक जानकारी और उनके अन्तर्सम्बन्धों की जानकारी मिल सके। मानचित्र को नक्शा भी कहा जाता है। आजकल मानचित्र केवल धरती, या धरती की सतह, या किसी वास्तविक वस्तु तक ही सीमित नहीं हैं। उदाहरण के लिये चन्द्रमा या मंगल ग्रह की सतह का मानचित्र बनाया जा सकता है; किसी विचार या अवधारणा का मानचित्र बनाया जा सकता है; मस्तिष्क का मानचित्रण (जैसे एम आर आई की सहायता से) किया जा रहा है। .

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मिश्रातु

इस्पात एक मिश्रधातु है दो या अधिक धात्विक तत्वों के आंशिक या पूर्ण ठोस-विलयन को मिश्रातु या मिश्र धातु (Alloy) कहते हैं। इस्पात एक मिश्र धातु है। प्रायः मिश्र धातुओं के गुण उस मिश्रधातु को बनाने वाले संघटकों के गुणों से भिन्न होते हैं। इस्पात, लोहे की अपेक्षा अधिक मजबूत होता है। काँसा, पीतल, टाँका (सोल्डर) आदि मिश्रातु हैं। .

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मृदा

पृथ्वी ऊपरी सतह पर मोटे, मध्यम और बारीक कार्बनिक तथा अकार्बनिक मिश्रित कणों को मृदा (मिट्टी / soil) कहते हैं। ऊपरी सतह पर से मिट्टी हटाने पर प्राय: चट्टान (शैल) पाई जाती है। कभी कभी थोड़ी गहराई पर ही चट्टान मिल जाती है। 'मृदा विज्ञान' (Pedology) भौतिक भूगोल की एक प्रमुख शाखा है जिसमें मृदा के निर्माण, उसकी विशेषताओं एवं धरातल पर उसके वितरण का वैज्ञानिक अध्ययन किया जाता हैं। पृथऽवी की ऊपरी सतह के कणों को ही (छोटे या बडे) soil कहा जाता है .

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मूँगा (जीव)

मूँगा (कोरल) शब्द के कई अर्थ हैं - अन्य अर्थों के लिए मूँगा का लेख देखें मूँगे के शरीर के अन्दर का दृश्य मूँगा, जिसे कोरल और मिरजान भी कहते हैं, एक प्रकार का नन्हा समुद्री जीव है जो लाखों-करोड़ों की संख्या में एक समूह में रहते हैं। मूँगे की बहुत सी क़िस्मों में, यह जीव अपने इर्द-गिर्द एक बहुत ही सख़्त शंख बना लेते है, जिसके अन्दर वह रहता है। जब ऐसे हजारों-लाखों नन्हे और बेहद सख़्त शंख एक दुसरे से चिपक कर समूह में बनते हैं, तो उस समूह की सख़्ती और स्पर्श लगभग पत्थर जैसा होता है। समुद्र में कई स्थानों पर मूंगे की बड़े क्षेत्र पर फैली हुई शृंखलाएं बन जाती हैं, जिन्हें रीफ़ कहा जाता है। किसी भी मूंगे के समूह में हर एक मूंगे और उसके शंख को वैज्ञानिक भाषा में "पॉलिप" कहते हैं। मूँगा गरम समुद्रों में ही उगता है और अलग-अलग रंगों में मिलता है। लाल और गुलाबी रंगों के मूँगे के क़ीमती पत्थर को पत्थर की ही तरह तराश और चमका कर ज़ेवरों में इस्तेमाल किया जाता है। इनके सब से लोकप्रिय रंग को भी मूँगा (रंग) कहा जाता है। मूँगे समुद्रतल में रहने वाले एक प्रकार के कृमि हैं जो खोलड़ी की तरह का घर बनाकर एक दूसरे से लगे हुए जमते चले जाते हैं। ये कृमि अचर (न चलने वाले) जीवों में हैं। ज्यों ज्यों इनकी वंशवृद्धि होती जाती है, त्यों त्यों इनका समूहपिंड थूहर के पेड़ के आकार में बढ़ता चला जाता है। सुमात्रा और जावा के आसपास प्रशांत महासागर में समुद्र के तल में ऐसे समूहपिंड हजारों मील तक खड़े मिलते हैं। इनकी वृद्धि बहुत जल्दी जल्दी होती है। इनके समूह एक दूसरे के ऊपर पटते चले जाते हैं जिससे समुद्र की सतह पर एक खासा टापू निकल आता है। ऐसे टापू प्रशांत महासागर में बहुत से हैं जो 'प्रवालद्वीप' कहलाते हैं। मूँगे की केवल गुरिया ही नहीं बनती; छड़ी, कुरसी आदि चीजें भी बनती हैं। आभूषण के रूप में मूँगे का व्यवहार भी मोती के समान बहुत दिनों से है। मोती और मूँगे का नाम प्रायः साथ साथ लिया जाता है। रत्नपरीक्षा की पुस्तकों में मूँगे का भी वर्णन रहता है। साधारणतः मूँगे का दाना जितना ही बड़ा होता है, उतना अधिक उसका मूल्य भी होता है। कवि लोग बहुत पुराने समय से ओठों की उपमा मूँगे से देते आए हैं। .

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रक्त समूह

रक्त प्रकार (या रक्त समूह) भाग में, निर्धारित होता है, ABO रक्त समूह प्रतिजानो से जो लाल रक्त कोशिकाओं में मौजूद होता है। रक्त समूह या रक्त प्रकार, रक्त का एक वर्गीकरण है जो रक्त की लाल रक्त कोशिकाओं की सतह पर पर पाये जाने वाले पदार्थ मे वंशानुगत प्रतिजन की उपस्थिति या अनुपस्थिति पर आधारित होता है। रक्त प्रणाली के अनुसार यह प्रतिजन प्रोटीन, कार्बोहाइड्रेट, ग्लाइकोप्रोटीन, या ग्लाइकोलिपिड हो सकते हैं और इनमे से कुछ प्रतिजन अन्य प्रकारों जैसे कि ऊतकों और कोशिकाओं की सतह पर भी उपस्थित हो सकते हैं। अनेक लाल रक्त कोशिका सतह प्रतिजन, जो कि एक ही एलील या बहुत नजदीकी रूप से जुड़े जीन से उत्पन्न हुए हैं, सामूहिक रूप से रक्त समूह प्रणाली की रचना करते हैं। रक्त प्रकार वंशानुगत रूप से प्राप्त होते हैं और माता व पिता दोनों के योगदान का प्रतिनिधित्व करते हैं। अंतरराष्ट्रीय रक्ताधान संस्था(ISBT).

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रक्त के प्रकार

रक्त प्रकार (जो रक्त समूह भी कहलाता है), लाल रक्त कोशिकाओं (RBCs) की सतह पर उपस्थित आनुवंशिक प्रतिजनी पदार्थों की उपस्थिति या अनुपस्थिति पर आधारित रक्त का वर्गीकरण है। ये प्रतिजन रक्त समूह तंत्र के आधार पर प्रोटीन, कार्बोहाइड्रेट, ग्लाइकोप्रोटीन, या ग्लाइकोलिपिड होते हैं और कुछ प्रतिजन अन्य प्रकार के ऊतक की कोशिकाओं पर भी मौजूद हो सकते हैं इनमें से अनेक लाल रक्त कोशिकाओं की सतह के प्रतिजन, जो एक एलील (या बहुत नजदीकी से जुड़े हुआ जीन) से व्युत्पन्न होते हैं, सामूहिक रूप से एक रक्त समूह तंत्र बनाते हैं। रक्त के प्रकार वंशागत रूप से प्राप्त होते हैं और माता व पिता दोनों के योगदान का प्रतिनिधित्व करते हैं।अंतर्राष्ट्रीय रक्ताधन सोसाइटी (ISBT) के द्वारा अब कुल 30 मानव रक्त समूह तंत्रों की पहचान की जा चुकी है। बहुत गर्भवती महिलाओं में उपस्थित भ्रूण का रक्त समूह उनके अपने रक्त समूह से अलग होता है और मां भ्रूणीय लाल रक्त कोशिकाओं के विरुद्ध प्रतिरक्षियों का निर्माण कर सकती है। कभी कभी यह मातृ प्रतिरक्षी IgG होते हैं। यह एक छोटा इम्यूनोग्लोब्युलिन है, जो अपरा (प्लासेन्टा) को पार करके भ्रूण में चला जाता है और भ्रूणीय लाल रक्त कोशिकाओं के रक्त विघटन (हीमोलाइसिस) का कारण बन सकता है। जिसके कारण नवजात शिशु को रक्त अपघटन रोग हो जाता है, यहभ्रूणीय रक्ताल्पता की एक बीमारी है जो सौम्य से गंभीर हो सकती है। .

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रोजर बेकन

रोजर बेकन इंग्लैंड के प्रसिद्ध वैज्ञानिक और दार्शनिक थे। इन्होंने काँच की सहायता से सूक्ष्मदर्शी यंत्र बनाने की कोशिश की थी। इन्होंने तर्कवाद के आधार पर सत्य और धर्म की विवेचना करने पर जोर दिया। रॉजर बेकन के भूगोल, खगोल, गणित, विज्ञान आदि के क्षेत्र में यगदान को सराहनीय माना जाता है। .

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लिंग

व्याकरण से सम्बन्धित 'लिंग' के लिये लिंग (व्याकरण) देखें। ---- मानव पुरुष और स्त्री का वाह्य दृष्य जीवविज्ञान में लिंग (Sex, Gender) से तात्पर्य उन पहचानों या लक्षणों से जिनके द्वारा जीवजगत् में नर को मादा से पृथक् पहचाना जाता है। जंतुओं में असंख्य जंतु ऐसे होते हैं जिन्हें केवल बाह्य चिह्नों से ही नर, या मादा नहीं कहा जा सकता। नर तथा मादा का निर्णय दो प्रकार के चिह्नों, प्राथमिक (primary) और गौण (secondary) लैंगिक लक्षणों (sexual characters), द्वारा किया जाता है। वानस्पतिक जगत् में नर तथा मादा का भेद, विकसित प्राणियों की भाँति, पृथक्-पृथक् नहीं पाया जाता। जो की सत्य है। .

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लेंस

ताल का चित्र ताल का उपयोग प्रकाश को फोकस करने के लिये किया जा सकता है ताल (लेंस) एक प्रकाशीय युक्ति है जो प्रकाश के अपवर्तन के सिद्धान्त पर काम करता है। ताल गोलीय, बेलनाकार आदि जैसे नियमित, ज्यामिती रूप की दो सतहों से घिरा हुआ पारदर्शक माध्यम, जिससे अपवर्तन के पश्चात् किसी वस्तु का वास्तविक अथवा काल्पनिक प्रतिबिंब बनता है, ताल कहलाता है। उत्तल (convex) ताल मसूर की आकृति का होता है। ताल की सतह प्राय: गोलीय (spherical) होती है, परंतु आवश्यकतानुसार बेलनाकर, या अगोली ताल भी प्रयुक्त होते हैं। आँख के क्रिस्टलीय ताल ही एकमात्र प्राकृतिक ताल है। हजारों वर्ष पहले भी लोग ताल के विषय में जानते थे और माइसनर (Meissner) के अनुसार प्राचीन काल में भी चश्मे से लाभ उठाया जाता था। चश्में के अलावा प्रकाशविज्ञान में ताल का उपयोग दूरदर्शी, सूक्ष्मदर्शी, प्रकाशस्तंभ, द्विनेत्री (बाइनॉक्युलर) इत्यादि में होता है। .

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शवपरीक्षा

शवपरीक्षण के बाद लिया गया फोटो शवपरीक्षा (Autopsy या post-mortem examination) एक विशिष्ट प्रकार की शल्य प्रक्रिया है जिसमें शव की आद्योपान्त (thorough) परीक्षण किया जाता है ताकि पता चल सके कि मृत्यु किन कारणों से और किस तरीके से हुई है। शवपरीक्षा एक विशिष्ट चिकित्सक द्वारा की जाती है जिसे 'विकृतिविज्ञानी' (पैथोलोजिस्ट) कहते हैं। मृत्यु के पश्चात् आकस्मिक दुर्घटनाग्रस्त, अथवा रोगग्रस्त, मृतक के विषय में वैज्ञानिक अनुसंधान के हेतु शरीर की परीक्षा, अथवा शवपरीक्षा करना अतिआवश्यक है। रोग उपचारक शवपरीक्षा के द्वारा ही रोग की प्रकृति, विस्तार, विशालता एवं जटिलता के विषय में भली प्रकार तथ्य जान सकता है। शवपरीक्षा भली प्रकार करना उचित है एवं सहयोग के हेतु रोगग्रसित अंग अथवा ऊतक, की सूक्ष्मदर्शी द्वारा परीक्षा एवं कीटाणुशास्त्रीय परीक्षा अपेक्षित है। उस प्रत्येक मृतक की, जिसकी मृत्यु का कारण आकस्मिक दुर्घटना हो और उचित कारण अज्ञात हो, मृत्यु का कारण एवं उसकी प्रकृति ज्ञात करने के लिए शवपरीक्षा करना नितांत आवश्यक रूप से अपेक्षित है। शवपरीक्षा करने के पूर्व मृतक के निकट संबंधी से सहमति प्राप्त करना आवश्यक है और शवपरीक्षा मृत्यु के 6 से 10 घंटे के भीतर ही कर लेनी चाहिए, अन्यथा शव में मृत्युपरांत अवश्यंभावी प्राकृतिक परिवर्तन हो जाने की आशंका रहेगी, जैसे शव ऐंठन (rigor mortis), शवमलिनता (postmortem) एवं विघटन (decomposition)। यह परिवर्तन अधिकतर रोगावस्था के परिवर्तनों के समान ही होते हैं। .

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सहचिकित्सा

रोग के निदान और इलाज में अर्द्ध-चिकित्सा विज्ञान या सहचिकित्सा (Paramedicine) की महत्वपूर्ण भूमिका होती है। रोग निदान से संबंधित औजार जैसे कि सूक्ष्मदर्शी यंत्र, एक्स-रे, अल्ट्रासाउण्ड, इंडोस्कोप, सीटी स्कैन, एमआर, गामा कैमरा तथा अन्य इन्वेसिव या नॉन-इन्वेसिव पद्धतियाँ और तकनीकी प्रकार की थेरेपियां जैसे कि पिफजियोथेरेपी, रेडियोथेरेपी, श्वासक्रिया थेरेपी, स्पीच थेरेपी आदि अर्ध-चिकित्सा प्रणाली का हिस्सा हैं। आयुर्विज्ञान और संश्लिष्ट चिकित्सा उपकरणों के विकास के साथ-साथ प्रशिक्षित और सुयोग्य अर्ध-चिकित्सकीय मानवशक्ति की मांग भी बढ़ रही है। .

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सामान्य आपेक्षिकता

सामान्य आपेक्षिकता सिद्धांत या सामान्य सापेक्षता सिद्धांत, जिसे अंग्रेजी में "जॅनॅरल थिओरी ऑफ़ रॅलॅटिविटि" कहते हैं, एक वैज्ञानिक सिद्धांत है जो कहता है कि ब्रह्माण्ड में किसी भी वस्तु की तरफ़ जो गुरुत्वाकर्षण का खिंचाव देखा जाता है उसका असली कारण है कि हर वस्तु अपने मान और आकार के अनुसार अपने इर्द-गिर्द के दिक्-काल (स्पेस-टाइम) में मरोड़ पैदा कर देती है। बरसों के अध्ययन के बाद जब १९१६ में अल्बर्ट आइंस्टीन ने इस सिद्धांत की घोषणा की तो विज्ञान की दुनिया में तहलका मच गया और ढाई-सौ साल से क़ायम आइज़क न्यूटन द्वारा १६८७ में घोषित ब्रह्माण्ड का नज़रिया हमेशा के लिए उलट दिया गया। भौतिक शास्त्र पर इसका इतना गहरा प्रभाव पड़ा कि लोग आधुनिक भौतिकी (माडर्न फ़िज़िक्स) को शास्त्रीय भौतिकी (क्लासिकल फ़िज़िक्स) से अलग विषय बताने लगे और अल्बर्ट आइंस्टीन को आधुनिक भौतिकी का पिता माना जाने लगा। .

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सिस्टोस्कॉपी

शल्य चिकित्सा कक्ष में रोगाणुमुक्त किया हुआ फ्लेक्सिबल सिस्टोस्कोप सिस्टोस्कॉपी (Cystoscopy) (si-ˈstäs-kə-pē) मूत्रमार्ग (urethra) के माध्यम से की जाने वाली, मूत्राशय (urinary bladder) की एंडोस्कोपी है। यह सिस्टोस्कोप की सहायता से की जाती है। नैदानिक सिस्टोस्कॉपी स्थानीय एनेस्थेसिया (local anaesthesia) के साथ की जाती है। शल्य-क्रियात्मक सिस्टोस्कॉपी प्रक्रिया के लिए कभी-कभी व्यापक एनेस्थेसिया (general anaesthesia) भी दिया जाता है। मूत्रमार्ग वह नली है जो मूत्र को मूत्राशय से शरीर के बाहर ले जाती है। सिस्टोस्कोप में दूरदर्शी (telescope) अथवा सूक्ष्मदर्शी (microscope) की तरह ही लेंस लगे होते हैं। ये लेंस चिकित्सक को मूत्रमार्ग की आतंरिक सतहों पर फोकस (संकेंद्रित) करने की सुविधा प्रदान करते हैं। कुछ सिस्टोस्कोप ऑप्टिकल फ़ाइबर (कांच का लचीला तार) का प्रयोग करते हैं जो उपकरण के अग्रभाग से छवि को दूसरे सिरे पर लगे व्यूइंग पीस (अवलोकन पीस) पर प्रदर्शित करते हैं। सिस्टोस्कोप एक पेन्सिल की मोटाई से लेकर 9 मिली मीटर तक मोटे होते हैं तथा इनके अग्रभाग पर प्रकाश स्रोत होता है। कई सिस्टोस्कोप में कुछ अतिरिक्त नलियां भी लगी होती हैं जो मूत्र सम्बन्धी समस्याओं के उपचार हेतु शल्य-क्रियात्मक प्रक्रियाओं के लिए आवश्यक उपकरणों का मार्ग-प्रदर्शन करती हैं। सिस्टोस्कॉपी दो प्रकार की होती हैं - फ्लेक्सिबल तथा रिजिड - यह सिस्टोस्कोप के लचीलेपन के अंतर पर आधारित होती है। फ्लेक्सिबल सिस्टोस्कॉपी दोनों लिंगों में स्थानीय एनेस्थेसिया की सहायता से की जाती है। आमतौर पर, एनेस्थेटिक के रूप में ज़ाईलोकेन जेल (xylocaine gel) (उदाहरण के लिए ब्रांड नाम इन्सटिलाजेल) का प्रयोग किया जाता है, इसे मूत्रमार्ग में डाला जाता है। रिजिड सिस्टोस्कॉपी भी सामान परिस्थितियों में की जा सकती है, परन्तु सामान्य रूप से यह व्यापक एनेस्थेसिया देकर, विशेष रूप से पुरुष मरीजों में प्रोब से होने वाले कष्ट के कारण, की जाती है। एक डॉक्टर निम्नलिखित स्थितियों में सिस्टोस्कॉपी की सलाह दे सकता है.

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संक्रमण

रोगों में कुछ रोग तो ऐसे हैं जो पीड़ित व्यक्तियों के प्रत्यक्ष अथवा अप्रत्यक्ष संपर्क, या उनके रोगोत्पादक, विशिष्ट तत्वों से दूषित पदार्थों के सेवन एवं निकट संपर्क, से एक से दूसरे व्यक्तियों पर संक्रमित हो जाते हैं। इसी प्रक्रिया को संक्रमण (Infection) कहते हैं। सामान्य बोलचाल की भाषा में ऐसे रोगों को छुतहा रोग या छूआछूत के रोग कहते हैं। रोगग्रस्त या रोगवाहक पशु या मनुष्य संक्रमण के कारक होते हैं। संक्रामक रोग तथा इन रोग के संक्रमित होने की क्रिया समाज की दृष्टि से विशेष महत्व की है, क्योंकि विशिष्ट उपचार एवं अनागत बाधाप्रतिषेध की सुविधाओं के अभाव में इनसे महामारी (epidemic) फैल सकती है, जो कभी-कभी फैलकर सार्वदेशिक (pandemic) रूप भी धारण कर सकती है। .

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सकल निरीक्षण

चिकित्सा में सकल निरीक्षण (Gross examination) वह प्रक्रिया होती है जिसमें विकृतिवैज्ञानिक नमूनो की बिना सूक्ष्मदर्शी के प्रयोग के, केवल आँखों से देखकर रोगों के अनुमान के लिए जाँच की जाती है। उदाहरण के लिए शल्यचिकित्सा (सर्जरी) द्वारा शरीर से निकाले गए फुलाव (ट्यूमर) की जाँच से उसके कैंसर होने या न होने का अनुमान लगाया जा सकता है। अक्सर सकल निरीक्षण के उपरांत नमूनों को सूक्ष्मदर्शी द्वारा जाँचने के लिए उसकी ऊतक विकृतिवैज्ञानिक जाँच भी की जाती है। .

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सकल विकृतिविज्ञान

सकल विकृतिविज्ञान (Gross pathology) शरीर के अंगों, ऊतकों (टिशूओं) और शारीरिक विविरों में रोगों के स्थूलदर्शी (macroscopic, यानि बिना सूक्ष्मदर्शी के दिख सकने वाले) प्रभावों को कहते हैं। इन्हें सकल निरीक्षण में देखकर चिकित्सक रोगों के बारे में अनुमान लगा सकते हैं। उदाहरण के लिए किसी सिस्ट के आकार, रूप और रंग को देखकर चिकित्सक उसके किसी रोग विशेष से सम्बन्धित होने का अंदाज़ा लगा सकते हैं। .

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स्टीरियो सूक्ष्मदर्शी

स्टीरियो सूक्ष्मदर्शी एक प्रकार का सूक्ष्मदर्शी होता है। श्रेणी:सूक्ष्मदर्शन श्रेणी:सूक्ष्मजैविकी श्रेणी:भौतिकी.

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स्कैनिंग इलेक्ट्रॉन सूक्ष्मदर्शी

स्कैनिंग इलेक्ट्रॉन सूक्ष्मदर्शी एक प्रकार का सूक्ष्मदर्शी होता है। श्रेणी:सूक्ष्मदर्शन श्रेणी:सूक्ष्मजैविकी श्रेणी:भौतिकी.

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सौर सेल

मोनोक्रिस्टलाइन सिलिकॉन वैफ़र से बना सौर सेल सौर बैटरी या सौर सेल फोटोवोल्टाइक प्रभाव के द्वारा सूर्य या प्रकाश के किसी अन्य स्रोत से ऊर्जा प्राप्त करता है। अधिकांश उपकरणों के साथ सौर बैटरी इस तरह से जोड़ी जाती है कि वह उस उपकरण का हिस्सा ही बन जाती जाती है और उससे अलग नहीं की जा सकती। सूर्य की रोशनी से एक या दो घंटे में यह पूरी तरह चार्ज हो जाती है। सौर बैटरी में लगे सेल प्रकाश को समाहित कर अर्धचालकों के इलेक्ट्रॉन को उस धातु के साथ क्रिया करने को प्रेरित करता है।। हिन्दुस्तान लाइव। ३१ मार्च २०१० एक बार यह क्रिया होने के बाद इलेक्ट्रॉन में उपस्थित ऊर्जा या तो बैटरी में भंडार हो जाती है या फिर सीधे प्रयोग में आती है। ऊर्जा के भंडारण होने के बाद सौर बैटरी अपने निश्चित समय पर डिस्चार्ज होती है। ये उपकरण में लगे हुए स्वचालित तरीके से पुनः चालू होती है, या उसे कोई व्यक्ति ऑन करता है। सौर सेल का चिह्न एक परिकलक में लगे सौर सेल अधिकांशतः जस्ता-अम्लीय (लेड एसिड) और निकल कैडमियम सौर बैटरियां प्रयोग होती हैं। लेड एसिड बैटरियों की कुछ सीमाएं होती हैं, जैसे कि वह पूरी तरह चार्ज नहीं हो पातीं, जबकि इसके विपरीत निकल कैडिमयम बैटरियों में यह कमी नहीं होती, लेकिन ये अपेक्षाकृत भी होती हैं। सौर बैटरियों को वैकल्पिक ऊर्जा स्रोत के रूप में भी प्रयोग करने हेतु भी गौर किया जा रहा है। अभी तक, इन्हें केवल छोटे इलैक्ट्रॉनिक उपकरणों में प्रयोगनीय समझा जा रहा है। पूरे घर को सौर बैटरी से चलाना चाहे संभव हो, लेकिन इसके लिए कई सौर बैटरियों की आवश्यकता होगी। इसकी विधियां तो उपलब्ध हैं, लेकिन यह अधिकांश लोगों के लिए अत्यधिक महंगा पड़ेगा। बहुत से सौर सेलों को मिलाकर (आवश्यकतानुसार श्रेणीक्रम या समानान्तरक्रम में जोड़कर) सौर पैनल, सौर मॉड्यूल, एवं सौर अर्रे बनाये जाते हैं। सौर सेलों द्वारा जनित उर्जा, सौर उर्जा का एक उदाहरण है। .

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सूत्रकणिका

ई.आर (9) '''माइटोकांड्रिया''' (10) रसधानी (11) कोशिका द्रव (12) लाइसोसोम (13) तारककाय आक्सी श्वसन का क्रिया स्थल, माइटोकान्ड्रिया जीवाणु एवं नील हरित शैवाल को छोड़कर शेष सभी सजीव पादप एवं जंतु कोशिकाओं के कोशिकाद्रव्य में अनियमित रूप से बिखरे हुए द्वीप-एकक पर्दायुक्त कोशिकांगों (organelle) को सूत्रकणिका या माइटोकॉण्ड्रिया (Mitochondria) कहते हैं। कोशिका के अंदर सूक्ष्मदर्शी की सहायता से देखने में ये गोल, लम्बे या अण्डाकार दिखते हैं।। हिन्दुस्तान लाइव।२४अक्तूबर,२००९ माइटोकॉण्ड्रिया सभी प्राणियों में और उनकी हर प्रकार की कोशिकाओं में पाई जाती हैं। माइटोकाण्ड्रिआन या सूत्रकणिका कोशिका के कोशिकाद्रव्य में उपस्थित दोहरी झिल्ली से घिरा रहता है। माइटोकाण्ड्रिया के भीतर आनुवांशिक पदार्थ के रूप में डीएनए होता है जो वैज्ञानिकों के लिए आश्चर्य एवं खोज़ का विषय हैं। माइटोकाण्ड्रिया में उपस्थित डीएनए की रचना एवं आकार जीवाणुओं के डीएनए के समान है। इससे अनुमान लगाया जाता है कि लाखों वर्ष पहले शायद कोई जीवाणु मानव की किसी कोशिका में प्रवेश कर गया होगा एवं कालांतर में उसने कोशिका को ही स्थायी निवास बना लिया। माइटोकाण्ड्रिया के डीएनए एवं कोशिकाओं के केन्द्रक में विद्यमान डीएनए में ३५-३८ जीन एक समान हैं। अपने डीएनए की वज़ह से माइकोण्ड्रिया कोशिका के भीतर आवश्यकता पड़ने पर अपनी संख्या स्वयं बढ़ा सकते हैं। संतानो की कोशिकाओं में पाया जाने वाला माइटोकांड्रिया उन्हें उनकी माता से प्राप्त होता है। निषेचित अंडों के माइटोकाण्ड्रिया में पाया जाने वाले डीएनए में शुक्राणुओं की भूमिका नहीं होती। है।। चाणक्य।३१ अगस्त, २००९। भगवती लाल माली श्वसन की क्रिया प्रत्येक जीवित कोशिका के कोशिका द्रव्य (साइटोप्लाज्म) एवं माइटोकाण्ड्रिया में सम्पन्न होती है। श्वसन सम्बन्धित प्रारम्भिक क्रियाएँ साइटोप्लाज्म में होती है तथा शेष क्रियाएँ माइटोकाण्ड्रियाओं में होती हैं। चूँकि क्रिया के अंतिम चरण में ही अधिकांश ऊर्जा उत्पन्न होती हैं। इसलिए माइटोकाण्ड्रिया को कोशिका का श्वसनांग या 'शक्ति गृह' (पावर हाउस) कहा जाता है। जीव विज्ञान की प्रशाखा कोशिका विज्ञान या कोशिका जैविकी (साइटोलॉजी) इस विषय में विस्तार से वर्णन उपलब्ध कराती है। अमेरिका के शिकागो विश्वविद्यालय के डॉ॰ सिविया यच.

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सूक्ष्मचित्र

सूक्ष्मचित्र (micrograph) किसी वस्तु की सूक्ष्मदर्शी (माइक्रोस्कोप) द्वारा ली गई तस्वीर होती है जिसमें उस वस्तु की ऐसी बारीक चीज़ें दिखें जो केवल आँख से नहीं देखी जा सकती। सूक्ष्मदर्शी द्वारा चित्र खींचने की प्रक्रिया को सूक्ष्मचित्रण (micrography) कहते हैं। .

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सूक्ष्मदर्शन

परागकणों का स्कैनिंग इलेक्ट्रॉन सूक्ष्मदर्शी द्वारा प्राप्त चित्र सूक्ष्मदर्शिकी या सूक्ष्मदर्शन (अंग्रेज़ी:माइक्रोस्कोपी) विज्ञान की एक शाखा होती है, जिसमें सूक्ष्म व अतिसूक्ष्म जीवों को बड़ा कर देखने में सक्षम होते हैं, जिन्हें साधारण आंखों से देखना संभव नहीं होता है। इसका मुख्य उद्देश्य सूक्ष्मजीव संसार का अध्ययन करना होता है। इसमें प्रकाश के परावर्तन, अपवर्तन, विवर्तन और विद्युतचुम्बकीय विकिरण का प्रयोग होता है। विज्ञान की इस शाखा मुख्य प्रयोग जीव विज्ञान में किया जाता है। विश्व भर में रोगों के नियंत्रण और नई औषधियों की खोज के लिए माइक्रोस्कोपी का सहारा लिया जाता है।|हिन्दुस्तान लाइव। ९ जून २०१० सूक्ष्मदर्शन की तीन प्रचलित शाखाओं में ऑप्टिकल, इलेक्ट्रॉन एवं स्कैनिंग प्रोब सूक्ष्मदर्शन आते हैं। ---- एक स्टीरियो सूक्ष्मदर्शी माइक्रोस्कोपी विषय का आरंभ १७वीं शताब्दी के आरंभ में हुआ माना जाता है। इसी समय जब वैज्ञानिकों और अभियांत्रिकों ने भौतिकी में लेंस की खोज की थी। लेंस के आविष्कार के बाद वस्तुओं को उनके मूल आकार से बड़ा कर देखना संभव हो पाया। इससे पानी में पाए जाने वाले छोटे और अन्य अति सूक्ष्म जंतुओं की गतिविधियों के दर्शन सुलभ हुए और वैज्ञानिकों को उनके बारे में नये तथ्यों का ज्ञान हुआ। इसके बाद ही वैज्ञानिकों को यह भी ज्ञात हुआ कि प्राणी जगत के बारे में अपार संसार उनकी प्रतीक्षा में है व उनका ज्ञान अब तक कितना कम था। माइक्रोस्कोपी की शाखा के रूप में दृष्टि संबंधी सूक्ष्मदर्शन (ऑप्टिकल माइक्रोस्कोपी) का जन्म सबसे पहले माना जाता है। इसे प्रकाश सूक्ष्मदर्शन (लाइट माइक्रोस्कोपी) भी कहा जाता है। जीव-जंतुओं के अंगों को देखने के लिए इसका प्रयोग होता है। प्रकाश सूक्ष्मदर्शी (ऑप्टिकल माइक्रोस्कोप) अपेक्षाकृत महंगे किन्तु बेहतर उपकरण होते हैं। सूक्ष्मदर्शन के क्षेत्र में इलेक्ट्रॉन सूक्ष्मदर्शी की खोज अत्यंत महत्वपूर्ण मील का पत्थर माना जाता है क्योंकि इसकी खोज के बाद वस्तुओं को उनके वास्तविक आकार से कई हजार गुना बड़ा करके देखना संभव हुआ था। इसकी खोज बीसवीं शताब्दी में हुई थी। हालांकि इलेक्ट्रॉन माइक्रोस्कोप अन्य सूक्ष्मदर्शियों से महंगा होता है और प्रयोगशाला में इसका प्रयोग करना छात्रों के लिए संभव नहीं होता, लेकिन इसके परिणाम काफी बेहतर होते हैं। इससे प्राप्त चित्र एकदम स्पष्ट होते हैं। सूक्ष्मदर्शन में एक अन्य तकनीक का प्रयोग होता है, जो इलेक्ट्रॉन सूक्ष्मदर्शन से भी बेहतर मानी जाती है। इसमें हाथ और सलाई के प्रयोग से वस्तु का कई कोणों से परीक्षण होता है। ग्राहम स्टेन ने इसी प्रक्रिया में सबसे पहले जीवाणु को देखा था। .

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सूक्ष्मदर्शी स्लाइड

सूक्ष्मदर्शी स्लाइड (microscope slide) कांच का एक आयत (रेक्टैंगल) होता है जिसपर किसी नमूने (छोटी वस्तु या द्रव) को रखकर उसका सूक्ष्मदर्शी (माइक्रोस्कोप) के नीचे परीक्षण किया जाता है। इस से नमूने को स्थिरता से सूक्ष्मदर्शी के लेंस के ठीक नीचे टिकाने में आसानी होती है। इन स्लाइडों के कोनों पर जल्दी से चिप्पी लगाई जा सकती है जिसपर उस नमूने के बारे में जानकारी लिखी जा सकती है। आमतौर से नमूने के ऊपर "कवर स्लिप" (cover slip) कहलाने वाला प्लास्टिक या महीन कांच का एक छोटा-सा टुकड़ा भी लगा दिया जाता है जो नमूने को स्लाइड पर एक ही स्थान पर टिकाकर सुरक्षित भी रखता है। स्लाइड का आकार भी ऐसा होता है जिनको बड़ी मात्रा में डब्बों में साथ-साथ रखा जा सकता है। .

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सूक्ष्मप्राणी

सूक्ष्मप्राणी (Micro-animals) ऐसे प्राणी होते हैं जिन्हें केवल सूक्ष्मबीन (माइक्रोस्कोप) से देखा जा सके। उदाहरण के लिए किरीटी (रोटीफ़र) जल में रहने वाला एक सूक्ष्मप्राणी है। टार्डीग्रेड एक महत्वपूर्ण सूक्ष्मप्राणी है जिसकी शीत, गरम, विकिरण-ग्रस्त, शुष्क और अन्य चरम परिस्थितियों को सहने की शक्ति अन्य प्राणियों से बहुत अधिक पाई गई है। बहुत से ऐसे जीव मानव शरीर के भीतर और त्वचा पर अपना जीवनक्रम गुज़ारते हैं लेकिन अपने अत्यंत छोटे आकार के कारण मानवों को उनके अस्तितिव का बोध नहीं होता। .

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सूक्ष्मजैविकी

सूक्ष्मजीवों से स्ट्रीक्ड एक अगार प्लेट सूक्ष्मजैविकी उन सूक्ष्मजीवों का अध्ययन है, जो एककोशिकीय या सूक्ष्मदर्शीय कोशिका-समूह जंतु होते हैं। इनमें यूकैर्योट्स जैसे कवक एवं प्रोटिस्ट और प्रोकैर्योट्स, जैसे जीवाणु और आर्किया आते हैं। विषाणुओं को स्थायी तौर पर जीव या प्राणी नहीं कहा गया है, फिर भी इसी के अन्तर्गत इनका भी अध्ययन होता है। संक्षेप में सूक्ष्मजैविकी उन सजीवों का अध्ययन है, जो कि नग्न आँखों से दिखाई नहीं देते हैं। सूक्ष्मजैविकी अति विशाल शब्द है, जिसमें विषाणु विज्ञान, कवक विज्ञान, परजीवी विज्ञान, जीवाणु विज्ञान, व कई अन्य शाखाएँ आतीं हैं। सूक्ष्मजैविकी में तत्पर शोध होते रहते हैं एवं यह क्षेत्र अनवरत प्रगति पर अग्रसर है। अभी तक हमने शायद पूरी पृथ्वी के सूक्ष्मजीवों में से एक प्रतिशत का ही अध्ययन किया है। हाँलाँकि सूक्ष्मजीव लगभग तीन सौ वर्ष पूर्व देखे गये थे, किन्तु जीव विज्ञान की अन्य शाखाओं, जैसे जंतु विज्ञान या पादप विज्ञान की अपेक्षा सूक्ष्मजैविकी अपने अति प्रारम्भिक स्तर पर ही है। .

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सूक्ष्मजीव

जीवाणुओं का एक झुंड वे जीव जिन्हें मनुष्य नंगी आंखों से नही देख सकता तथा जिन्हें देखने के लिए सूक्ष्मदर्शी यंत्र की आवश्यकता पड़ता है, उन्हें सूक्ष्मजीव (माइक्रोऑर्गैनिज्म) कहते हैं। सूक्ष्मजैविकी (microbiology) में सूक्ष्मजीवों का अध्ययन किया जाता है। सूक्ष्मजीवों का संसार अत्यन्त विविधता से बह्रा हुआ है। सूक्ष्मजीवों के अन्तर्गत सभी जीवाणु (बैक्टीरिया) और आर्किया तथा लगभग सभी प्रोटोजोआ के अलावा कुछ कवक (फंगी), शैवाल (एल्गी), और चक्रधर (रॉटिफर) आदि जीव आते हैं। बहुत से अन्य जीवों तथा पादपों के शिशु भी सूक्ष्मजीव ही होते हैं। कुछ सूक्ष्मजीवविज्ञानी विषाणुओं को भी सूक्ष्मजीव के अन्दर रखते हैं किन्तु अन्य लोग इन्हें 'निर्जीव' मानते हैं। सूक्ष्मजीव सर्वव्यापी होते हैं। यह मृदा, जल, वायु, हमारे शरीर के अंदर तथा अन्य प्रकार के प्राणियों तथा पादपों में पाए जाते हैं। जहाँ किसी प्रकार जीवन संभव नहीं है जैसे गीज़र के भीतर गहराई तक, (तापीय चिमनी) जहाँ ताप 100 डिग्री सेल्सियस तक बढ़ा हुआ रहता है, मृदा में गहराई तक, बर्फ की पर्तों के कई मीटर नीचे तथा उच्च अम्लीय पर्यावरण जैसे स्थानों पर भी पाए जाते हैं। जीवाणु तथा अधिकांश कवकों के समान सूक्ष्मजीवियों को पोषक मीडिया (माध्यमों) पर उगाया जा सकता है, ताकि वृद्धि कर यह कालोनी का रूप ले लें और इन्हें नग्न नेत्रों से देखा जा सके। ऐसे संवर्धनजन सूक्ष्मजीवियों पर अध्ययन के दौरान काफी लाभदायक होते हैं। .

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हाइड्रा

जलव्याल जलव्याल (हाइड्रा) निडेरिया संघ का जन्तु है। इस जलीय जन्तु का आकार कुछ मिलीमीटर का होता है तथा इनके अध्ययन के लिए सूक्ष्मदर्शी यंत्र की आवश्यकता पड़ती है। इनमें प्रजनन की क्रिया अलैंगिक जनन से होती है। जलव्याल के शरीर में अलग से मलोत्सर्ग प्रणाली नहीं होता है। इसके शरीर में बनने वाला उत्सर्जी पदार्थ विसरण विधि द्वारा शरीर से बाहर निकाल दिया जाता है। श्रेणी:अकशेरुक श्रेणी:प्राणी विज्ञान.

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हाइपरप्लासिया

हाइपरप्लासिया या अतिवर्धन (या "अतिजननता") एक सामान्य शब्द है जो किसी अंग या ऊतक के भीतर कोशिकाओं की वृद्धि को संदर्भित करता है जिसके परे इसे सामान्य रूप से देखा जाता है। हाइपरप्लासिया (अतिविकसन) के परिणामस्वरूप किसी अंग की अति वृद्धि हो सकती है एवं इस शब्द को कभी-कभी सुसाध्य नीओप्लासिया/सुसाध्य ट्यूमर (अर्बुद) के साथ मिश्रित किया जाता है। हाइपरप्लासिया उद्दीपन के प्रति एक सामान्य पूर्व-नीओप्लास्टिक प्रतिक्रिया है। सूक्ष्मदर्शी रूप से कोशिकाएं सामान्य कोशिकाओं के समान होती हैं लेकिन वे संख्याओं में बढ़ी हुई होती हैं। कभी-कभी कोशिकाएं आकार में भी बढ़ी हुई (हाइपरट्रॉफिया-अतिवृद्धि) हो सकती हैं। हाइपरप्लासिया, अतिवृद्धि से इस अर्थ में भिन्न होती है कि अतिवृद्धि में अनुकूल कोशिका परिवर्तन के रूप में कोशिका के आकार में परिवर्तन होता है, जबकि हाइपरप्लासिया में कोशिकाओं की संख्या में वृद्धि होती है।हाइपरप्लासिया तथा हाइपरट्रॉफी के बीच अंतर को दिखाने के लिए एक सरल उदाहरण. .

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ज्वालाकाच

ज्वालाकाच या ऑब्सिडियन (Obsidian), एक प्राकृतिक रूप से पाया जाने वाला ज्वालामुखीय काच है। यह रायोलाइट (Rhyolite) नामक ज्वालामुखी-शिला का अत्यन्त काचीय रूप है। अत: रासायनिक एवं खनिज संरचना में ज्वालाकाच रायोलाइट अथवा ग्रेनाइट के समतुल्य है, परन्तु भौतिक सरंचना एवं बाह्य रूप में दोनों में पर्याप्त भिन्नता है। ज्वालाकाच वस्तुत: 'प्राकृतिक काच' का दूसरा नाम है। नवीन परिभाषा के अनुसार ज्वालाकाच उस स्थूल, अपेक्षाकृत सघन परंतु प्राय: झावाँ की भाँति दिखनेवाले, गहरे भूरे या काले, साँवले, पीले या चितकबरे काच को कहते हैं, जो तोड़ने पर सूक्ष्म शंखाभ विभंग (conchoidal fracture) प्रदर्शित करता है। इस शिला का यह विशेष गुण है। प्राचीन काल में ज्वालाकाच का प्रयोग होता था और वर्तमान समय में भी अपने भौतिक गुणों एवं रासायनिक संरचना के कारण इसका प्रयोग हो रहा है। अभी हाल तक अमरीका की रेडइंडियन जाति अपने बाणों और भालों की नोक इसी शिला के तेज टुकड़ों से बनाती थी। प्लिनी के अनुसार ऑब्सिडियनस नामक व्यक्ति ने ईथियोपिया देश मे सर्वप्रथम इस शिला की खोज की। अतएव इसका नाम ऑब्सिडियन पड़ा। जॉनहिल (१७४६ ईo) के अनुसार एंटियंट जाति इस शिला पर पालिश चढ़ाकर दर्पण के रूप में इसका उपयोग करती थी। इनकी भाषा में ऑब्सिडियन का जो नाम था वह कालांतर में लैटिन भाषा में क्रमश: ऑपसियनस, ऑपसिडियनस तथा ऑवसिडियनस (obsiodianus) लिखा जाने लगा। शब्द की व्युत्पत्ति प्राय: पूर्णतया विस्मृत हो चुकी है, एवं भ्रमवश यह मान लिया गया है कि ऑब्सिडियन नाम उसके आविष्कर्ता ऑब्सिडियनस के नाम पर पड़ा। साधारणतया रायोलाइट के काचीय रूप को ही ऑब्सिडियन कहते हैं, परंतु ट्रेकाइट (trachyte) अथवा डेसाइट नामक ज्वाला-मुखी अम्लशैल (volcanic acid-rocks) भी अत्यंत तीव्र गति से शीतल होकर प्राकृतिक काच को जन्म देते हैं। पर ऐसे शैलों को ट्रेफाइट या डेसाइट ऑब्सिडियन कहते हैं। सूक्ष्मदर्शक यंत्र से देखने पर ज्ञात होता है कि ऑब्सिडियन शैल का अधिकांश भाग काँच से निर्मित है। इसके अंतरावेश में अणुमणिभस्फट (microlite) देखे जा सकते हैं। इन मणिभों के विशेष विन्यास से स्पष्ट आभास मिलेगा कि कभी शैलमूल या मैग्मा (magma) में प्रवाहशीलता थी। शिला का गहरा रंग इन्हीं सूक्ष्म स्फटों के बाहुल्य का प्रतिफल है। कभी कभी ऑब्सिडियन धब्बेदार या धारीदार भी होता है। 'स्फेरूलाइट' तो इस शैल का सामान्य लक्षण है। ज्वालाकांच का आपेक्षिक घनत्व २.३० से २.५८ तक होता है। ऑब्सिडियन सदृश्य काचीय शिलाओं की उत्पत्ति ऐसे शैलमूलों के दृढ़ीभवन के फलस्वरूप होती है जिनकी संरचना स्फटिक (quartz) एवं क्षारीय फैलस्पार (alkali felspar) के 'यूटेकटिक मिश्रणों के निकट हो। ('यूटेकटिक मिश्रण' दो खनिजों के अविरल समानुपात की वह स्थिति है, जब ताप की एक निश्चित अवस्था में दोनों घटकों का एक साथ क्रिस्टल बनने लगे। यूटेकटिक बिन्दुओं के निकट इस प्रकार के शैलमूल पर्याप्त श्यान (viscous) हो उठते हैं। फलस्वरूप या तो मणिभीकरण पूर्णत: अवरुद्ध हो जाता है, या अतिशय बाधापूर्ण अवस्था में संपन्न होता है। तीव्रगति से शीतल होने के कारण ऐसे शैलों का उद्भव होता है जो प्राय: पूर्णत: काचीय होते हैं। ऑब्सिडियन क्लिफ, यलोस्टोन पार्क, संयुक्त राज्य अमरीका, में ७५ इंच से १०० इंच मोटे लावास्तरोें के रूप में ऑब्सिडियन मिलता है। भारत में गिरनार, एवं पावागढ़ के लावास्तरों से ऑब्सिडियन की प्राप्ति प्रचुर मात्रा में होती है। .

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जीनोम परियोजना

जीनोमिक्स का चित्रण जीनोम परियोजना वह वैज्ञानिक परियोजना है, जिसका लक्ष्य किसी प्राणी के संपूर्ण जीनोम अनुक्रम का पता करना है। जीन हमारे जीवन की कुंजी है। हम वैसे ही दिखते या करते हैं, जो काफी अंश तक हमारे देह में छिपे सूक्ष्म जीन तय करते हैं। यही नहीं, जीन मानव इतिहास और भविष्य की ओर भी संकेत करते हैं। जीन वैज्ञानिकों का मानना है, कि यदि एक बार मानव जाति के समस्त जीनों की संरचना का पता लग जये, तो मनुष्य की जीन-कुण्डली के आधार पर, उसके जीवन की समस्त जैविक घटनाओं और दैहिक लक्षणों की भविष्यवाणी करना संभव हो जायेगा। यद्यपि यह कोई आसान काम नहीं है, क्योंकि मानव शरीर में हजारों लाखों जीवित कोशिकएं होतीं हैं। जीनों के इस विशाल समूह को जीनोम कहते हैं। आज से लगभग 136 वर्ष पूर्व, बोहेमियन भिक्षुक ग्रेगर जॉन मेंडल ने मटर के दानों पर किये अपने प्रयोगों को प्रकाशित किया था, जिसमें अनुवांशिकी के अध्ययन का एक नया युग आरंभ हुआ था। इन्हीं लेखों से कालांतर में आनुवांशिकी के नियम बनाए गए। उन्होंने इसमें एक नयी अनुवांशिकीय इकाई का नाम जीन रखा, तथा इसके पृथक होने के नियमों का गठन किया। थॉमस हंट मॉर्गन ने १९१० में ड्रोसोफिला (फलमक्खी) के ऊपर शोधकार्य करते हुए, यह सिद्ध किया, कि जीन गुणसूत्र में, एक सीधी पंक्ति में सजे हुए रहते हैं, तथा कौन सा जीन गुणसूत्र में किस जगह पर है, इसका भी पता लगाया जा सकता है। हर्मन मुलर ने १९२६ में खोज की, कि ड्रोसोफिला के जीन में एक्सरे से अनुवांशिकीय परिवर्तन हो जाता है, जिसे उत्परिवर्तन भी कहते हैं। सन १९४४ में यह प्रमाणित हुआ कि प्रोटीन नहीं, वरन डी एन ए ही जीन होता है। सन १९५३ में वॉटसन और क्रिक ने डी एन ए की संरचना का पता लगाया और बतया, कि यह दो तंतुओं से बना हुआ घुमावदार सीढ़ीनुमा, या दोहरी कुंडलिनी के आकार का होता है। .

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जीवाणु

जीवाणु जीवाणु एक एककोशिकीय जीव है। इसका आकार कुछ मिलिमीटर तक ही होता है। इनकी आकृति गोल या मुक्त-चक्राकार से लेकर छड़, आदि आकार की हो सकती है। ये अकेन्द्रिक, कोशिका भित्तियुक्त, एककोशकीय सरल जीव हैं जो प्रायः सर्वत्र पाये जाते हैं। ये पृथ्वी पर मिट्टी में, अम्लीय गर्म जल-धाराओं में, नाभिकीय पदार्थों में, जल में, भू-पपड़ी में, यहां तक की कार्बनिक पदार्थों में तथा पौधौं एवं जन्तुओं के शरीर के भीतर भी पाये जाते हैं। साधारणतः एक ग्राम मिट्टी में ४ करोड़ जीवाणु कोष तथा १ मिलीलीटर जल में १० लाख जीवाणु पाए जाते हैं। संपूर्ण पृथ्वी पर अनुमानतः लगभग ५X१०३० जीवाणु पाए जाते हैं। जो संसार के बायोमास का एक बहुत बड़ा भाग है। ये कई तत्वों के चक्र में बहुत महत्वपूर्ण भूमिका अदा करते हैं, जैसे कि वायुमंडलीय नाइट्रोजन के स्थरीकरण में। हलाकि बहुत सारे वंश के जीवाणुओं का श्रेणी विभाजन भी नहीं हुआ है तथापि लगभग आधी प्रजातियों को किसी न किसी प्रयोगशाला में उगाया जा चुका है। जीवाणुओं का अध्ययन बैक्टिरियोलोजी के अन्तर्गत किया जाता है जो कि सूक्ष्म जैविकी की ही एक शाखा है। मानव शरीर में जितनी भी मानव कोशिकाएं है, उसकी लगभग १० गुणा संख्या तो जीवाणु कोष की ही है। इनमें से अधिकांश जीवाणु त्वचा तथा अहार-नाल में पाए जाते हैं। हानिकारक जीवाणु इम्यून तंत्र के रक्षक प्रभाव के कारण शरीर को नुकसान नहीं पहुंचा पाते। कुछ जीवाणु लाभदायक भी होते हैं। अनेक प्रकार के परजीवी जीवाणु कई रोग उत्पन्न करते हैं, जैसे - हैजा, मियादी बुखार, निमोनिया, तपेदिक या क्षयरोग, प्लेग इत्यादि.

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जीवविज्ञान का इतिहास

कोई विवरण नहीं।

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घर्षण

धरती पर रखे एक ब्लाक के लिये फ्री-बॉडी आरेख घर्षण (Friction) एक बल है जो दो तलों के बीच सापेक्षिक स्पर्शी गति का विरोध करता है। घर्षण बल का मान दोनों तलों के बीच अभिलंब बल पर निर्भर करता है। घर्षण के दो प्रकार हैं: स्थैतिक और गतिज। स्थैतिक घर्षण दो पिण्डों के संपर्क-पृष्ठ की समान्तर दिशा में लगता है, लेकिन गतिज घर्षण गति की दिशा पर निर्भर नही करता। .

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विद्युतदर्शी

विद्युत्दर्शी (Electroscopoe) का प्रयोग विद्युत आवेश के संसूचन और मापन में होता है। विद्युत्दर्शी सबसे प्राचीन विद्युत उपकरण है। सन् १७८७ के पहले कई प्रकार के विद्युत्दर्शी बने जो मुख्यत: आवेशित पिथ गुट का (सरकंडे के गूदे की गोली) के प्रतिकर्षण का उपयोग करते थे। .

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विकृतिविज्ञान

जिन कारणों से शरीर के विभिन्न अंगों की साम्यावस्था, या स्वास्थ्यावस्था, नष्ट होकर उनमें विकृतियाँ उत्पन्न होती हैं, उनको हेतुकीकारक (Etiological factors) और उनके शास्त्र को हेतुविज्ञान (Etiology) कहते हैं। ये कारण अनेक हैं। इन्हें निम्नलिखित भागों में विभक्त किया गया है.

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वैज्ञानिक उपकरण

वैज्ञानिक उपकरण से हमारे काम आसानी से हो जाते हैं। वैज्ञानिक उपकरण किसी विज्ञान के कार्य को करने में सुविधा या सरलता या आसानी प्रदान करते हैं। यह उन वैज्ञानिक कार्यों को भी सहज से कर सकते हैं जो उनके बिना सम्भव ही नहीं होता। .

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खनिज विज्ञान

खनिज विज्ञान (अंग्रेज़ी:मिनरलॉजी) भूविज्ञान की एक शाखा होती है। इसमें खनिजों के भौतिक और रासायनिक गुणों का अध्ययन किया जाता है। विज्ञान की इस शाखा के अंतर्गत खनिजों के निर्माण, बनावट, वर्गीकरण, उनके पाए जाने के भौगोलिक स्थानों और उनके गुणों को भी शामिल किया गया है। इसके माध्यम से ही खनिजों के प्रयोग और उपयोग का भी अध्ययन इसी में किया जाता है। विज्ञान की अन्य शाखाओं की भांति ही इसकी उत्पत्ति भी कई हजार वर्ष पूर्व हुई थी। वर्तमान खनिज विज्ञान का क्षेत्र, कई दूसरी शाखाओं जैसे, जीव विज्ञान और रासायनिकी तक विस्तृत हो गया है। यूनानी दार्शनिक सुकरात ने सबसे पहले खनिजों की उत्पत्ति और उनके गुणों को सिद्धांत रूप में प्रतुत किया था, हालांकि सुकरात और उनके समकालीन विचारक बाद में गलत सिद्ध हुए लेकिन उस समय के अनुसार उनके सिद्धांत नए और आधुनिक थे। किन्तु ये कहना भी अतिश्योक्ति न होगा कि उनकी अवधारणाओं के कारण ही खनिज विकास की जटिलताओं को सुलझाने में सहयोग मिला, जिस कारण आज उसके आधुनिक रूप से विज्ञान समृद्ध है। १६वीं शताब्दी के बाद जर्मन वैज्ञानिक जॉर्जियस एग्रिकोला के अथक प्रयासों के चलते खनिज विज्ञान ने आधुनिक रूप लेना शुरू किया। .

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ख़ुर्द और कलाँ

ख़ुर्द और कलाँ फ़ारसी भाषा के शब्द हैं जो हिन्दी में और भारतीय उपमहाद्वीप में कई सन्दर्भों में पाए जाते हैं, विशेषकर जगहों के नामों में। "ख़ुर्द" का मतलब "छोटा" होता है और "कलाँ" का मतलब बड़ा होता है। इन नामों को मुग़लिया ज़माने से प्रयोग किया जा रहा है। छोटी आबादी वाले गांवों-कस्बों के पीछे खुर्द शब्द लगाया गया। फ़ारसी के इस शब्द का अर्थ होता है छोटा। यह खुर्द संस्कृत के क्षुद्र से ही बना है जिसमें लघु, छोटा या सूक्ष्मता का भाव है। देश भर में खुर्द धारी गांवों की तादाद हजारों में है। इसी तरह कई गांवों के साथ कलां शब्द जुड़ा मिलता है जैसे कोसी कलां , बामनियां कलां । जिस तरह खुर्द शब्द छोटे या लघु का पर्याय बना उसी तरह कलां शब्द बड़े या विशाल का पर्याय बना। कलां का प्रयोग लगभग उसी अर्थ में होता था जैसे भारत के लिए प्राचीनकाल में बृहत्तर भारत शब्द का प्रयोग होता था जिसमें बर्मा से लेकर ईरान तक का समूचा भूक्षेत्र आता था।  हालांकि किसी यात्रावृत्त में हिन्दुस्तान कलां जैसा शब्द नहीं मिलता।  ग्रेटर ब्रिटेन की बात चलती थी तो उसके उपनिवेशों का संदर्भ निहित होता था। इसी तरह कलां शब्द की अर्थवत्ता भी ग्रामीण आबादियों के संदर्भ में महत्वपूर्ण है। कलां मूलतः फ़ारसी  का शब्द है जिसका मतलब होता है वरिष्ठ, बड़ा, दीर्घ या विशाल। वैसे इसकी व्युत्पत्ति अज्ञात है। कुछ संदर्भों में इसे सेमेटिक भाषा परिवार का बताया जाता है और इसे ईश्वर की महानता से जोड़ा जाता है। कलां की अर्थवत्ता के आधार पर यह ठीक है मगर इसकी पुष्टि किसी सेमेटिक धातु से नहीं होती। कलां शब्द का प्रयोग सिर्फ स्थानों का रुतबा बताने के लिए ही नहीं होता था बल्कि व्यक्तियों के नाम भी होते थे जैसे मिर्जा कलां या अमीर कलां अल बुखारी जिसका मतलब बुखारा का महान अमीर होता है। जाहिर है यहां कलां शब्द का अर्थ महान है।   मुस्लिम शासनकाल में बसाहटों के नामकरण की महिमा यहीं खत्म नहीं होती। कई गांवों के नामों के साथ बुजुर्ग शब्द लगा मिलता है जैसे सोनपिपरी बुजुर्ग । जाहिर है हमनाम गांव से फर्क करने के लिए एक बसाहट को वरिष्ठ मानते हुए उसके आगे बुजुर्ग लगा दिया गया और दूसरा हुआ सोनपिपरी खुर्द । ऐसी कई ग्रामीण बस्तियां हजारों की संख्या में हैं। इसी तरह किसी गांव के विशिष्ट दर्जे को देखते हुए उसके साथ जागीर शब्द लगा दिया जाता था। इसका अर्थ यह हुआ कि सालाना राजस्व वसूली से उस गांव का हिस्सा सरकारी ख़जाने में नहीं जाएगा अथवा उसे आंशिक छूट मिलेगी। मुग़लों के दौर में प्रभावी व्यक्तियों को अथवा पुरस्कार स्वरूप सामान्य वर्ग के लोगो को भी गांव जागीर में दिये जाते थे। मगर उसी नाम के अन्य गांवों से फ़र्क करने के लिए नए बने जागीरदार उसके आगे जागीर जोड़ देते थे जैसे हिनौतियाऔर हिनौतिया जागीर । .

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गुरुत्वाकर्षक लेंस

एक गैलेक्सी के आगे एक बड़ा ब्लैक होल (काला छिद्र) है - जैसे-जैसे गैलेक्सी उसके पीछे से निकलती है, उसका प्रकाश ब्लैक होल के गुरुत्वाकर्षक लेंस के प्रभाव से मुड़ता है गुरुत्वाकर्षक लेंस अंतरिक्ष में किसी बड़ी वस्तु के उस प्रभाव को कहते हैं जिसमें वह वस्तु अपने पास से गुज़रती हुई रोशनी की किरणों को मोड़कर एक लेंस जैसा काम करती है। भौतिकी (फिज़िक्स) के सामान्य सापेक्षता सिद्धांत की वजह से कोई भी वस्तु अपने इर्द-गिर्द के व्योम ("दिक्-काल" या स्पेस-टाइम) को मोड़ देती है और बड़ी वस्तुओं में यह मुड़ाव अधिक होता है। जिस तरह चश्मे, दूरबीन या सूक्ष्मबीन के मुड़े हुए शीशे से गुज़रता हुआ प्रकाश भी मुड़ जाता है, उसी तरह गुरुत्वाकर्षक लेंस से गुज़रता हुआ प्रकाश भी मुड़ जाता है। .

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आवर्धन

आवर्धक लेंस से देखने पर टिकट बड़ा दिखता है। किसी वस्तु के वास्तविक आकार को बदले बिना उसको अपने वास्तविक आकार से बड़ा दिखाना आवर्धन (Magnification) कहलाता है। वस्तु जितने गुना बड़ी दिखती है, उसे 'आवर्धन' कहते हैं। यदि आवर्धन १ से अधिक है तो इसका अर्थ है कि वस्तु अपने वास्तविक आकार से बड़ी दिक रही है। यदि आवर्धन का मान १ से कम हो तो इसका अर्थ है कि वस्तु अपने वास्तविक आकार से छोटी दिख रही है। .

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आवर्धक लेन्स

आवर्धक लेन्स और उससे बड़ा दिखता पेन आवर्धक लेन्स का सिद्धान्त: किसी उत्तल लेंस के सामने यदि वस्तु फोकस बिन्दु तथा लेंस के बीच में स्थित हो तो उसका प्रतिबिम्ब सीधा, '''बड़ा''' तथा आभासी बनता है। आवर्धक लेन्स (magnifying glass या hand lens) एक उत्तल लेंस होता है जिसका उपयोग पास की वस्तुओं का आवर्धित प्रतिबिम्ब प्राप्त करने के लिये किया जाता है। प्रायः आवर्धक लेंस को एक गोल फ्रेम में मढ़ा गया होता है जिसमें एक हत्था (हैंडिल) भी लगा होता है। (चित्र देखें)। .

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इलेक्ट्रॉन सूक्ष्मदर्शी

'''ट्रान्समिशन एलेक्ट्रान सूक्ष्मदर्शी''' का आरेख इलेक्ट्रान सूक्ष्मदर्शी एक विशेष प्रकार का सूक्ष्मदर्शी है जो नमूने (specimen) को देखने के लिये एलेक्ट्रॉन किरण पुंज का उपयोग करता है और उच्च प्रवर्धिक छबि प्राप्त कराता है। इसकी विभेदन क्षमता (resolving power) प्रकाशीय सूक्ष्मदर्शी से बहुत अच्छी होती है। .

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कण

भौतिकी में कण (particle) किसी पदार्थ के एक छोटे आकार के टुकड़े को कहते हैं। कणों का आकार ऐसा हो सकता है जो मानवों को दृष्टिगोचर हो (जैसे कि दैनिक जीवन में नमक या धूल के कण) अथवा इतना छोटा भी हो सकता है कि उसे देखने के लिए सूक्ष्मदर्शी की अवश्यकता हो। .

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कर्कट रोग

कर्कट (चिकित्सकीय पद: दुर्दम नववृद्धि) रोगों का एक वर्ग है जिसमें कोशिकाओं का एक समूह अनियंत्रित वृद्धि (सामान्य सीमा से अधिक विभाजन), रोग आक्रमण (आस-पास के उतकों का विनाश और उन पर आक्रमण) और कभी कभी अपररूपांतरण अथवा मेटास्टैसिस (लसिका या रक्त के माध्यम से शरीर के अन्य भागों में फ़ैल जाता है) प्रदर्शित करता है। कर्कट के ये तीन दुर्दम लक्षण इसे सौम्य गाँठ (ट्यूमर या अबुर्द) से विभेदित करते हैं, जो स्वयं सीमित हैं, आक्रामक नहीं हैं या अपररूपांतरण प्रर्दशित नहीं करते हैं। अधिकांश कर्कट एक गाँठ या अबुर्द (ट्यूमर) बनाते हैं, लेकिन कुछ, जैसे रक्त कर्कट (श्वेतरक्तता) गाँठ नहीं बनाता है। चिकित्सा की वह शाखा जो कर्कट के अध्ययन, निदान, उपचार और रोकथाम से सम्बंधित है, ऑन्कोलॉजी या अर्बुदविज्ञान कहलाती है। कर्कट सभी उम्र के लोगों को, यहाँ तक कि भ्रूण को भी प्रभावित कर सकता है, लेकिन अधिकांश किस्मों का जोखिम उम्र के साथ बढ़ता है। कर्कट में से १३% का कारण है। अमेरिकन कैंसर सोसायटी के अनुसार, २००७ के दौरान पूरे विश्व में ७६ लाख लोगों की मृत्यु कर्कट के कारण हुई। कर्कट सभी जानवरों को प्रभावित कर सकता है। लगभग सभी कर्कट रूपांतरित कोशिकाओं के आनुवंशिक पदार्थ में असामान्यताओं के कारण होते हैं। ये असामान्यताएं कार्सिनोजन या का कर्कटजन (कर्कट पैदा करने वाले कारक) के कारण हो सकती हैं जैसे तम्बाकू धूम्रपान, विकिरण, रसायन, या संक्रामक कारक.

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कलिल

पायसीकृत द्रव कलिल है जिसमे मक्खन की गोलिकायें एक जल-आधारित तरल मे परिक्षेपित रहती हैं। कलिल या कोलाइड एक रसायनिक मिश्रण होता है जिसमे एक वस्तु दूसरी वस्तु मे समान रूप से परिक्षेपित (dispersed) होती है। परिक्षेपित वस्तु के कण मिश्रण मे केवल निलम्बित रहते है ना कि एक विलयन की तरह (जिसमे यह पूरी तरह घुल जाते हैं)। ऐसा इसलिए होता है क्योंकि कलिल मे कणों का आकार विलयन मे उपस्थित कणों के आकार से बड़ा होता है - यह कण इतने छोटे होते हैं कि मिश्रण मे पूरी तरह परिक्षेपित हो कर एक समरूप मिश्रण तैयार करें, लेकिन इतने बडे़ भी नहीं होते हैं कि प्रकाश को प्रकीर्णित करें और ना घुलें। इस परिक्षेपण के चलते कुछ कलिल विलयन जैसे दिखते हैं। किसी कलिल प्रणाली की दो पृथक प्रावस्थायें होती हैं: पहली परिक्षेपण प्रावस्था (या आंतरिक प्रावस्था) और दूसरी सतत प्रावस्था (या परिक्षेपण माध्यम)। एक कलिल प्रणाली ठोस, द्रव या गैसीय हो सकती है। नीचे की तालिका मे एक समरूप और असमरूप मिश्रण मे कलिल के कणों का व्यास का तुलनात्मक विश्लेषण है।: इसलिए, कलिलीय निलम्बन, समरूप और असमरूप मिश्रणों के मध्यवर्ती होते हैं। .

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क्रिस्टलकी

क्रिस्टलकी (Crystallography) या मणिविज्ञान एक प्रायोगिक विज्ञान है जिसमें ठोसों में परमाणों के विन्यास (arrangement) का अध्ययन किया जाता है। पहले क्रिस्टलिकी से तात्पर्य उस विज्ञान से था जिसमें क्रिस्टलों का अध्ययन किया जाता है। एक्स-किरण के डिफ्रैक्सन द्वारा क्रिस्टलोंके अध्ययनके पहले क्रिस्टलोंका अध्ययन केवल उनकी ज्यामिति (आकार-प्रकार) देखकर की जाती थी। किन्तु आजकल विविध-प्रकार के किरण-पुंजों (एक्स-किरण, एलेक्ट्रान, न्यूट्रान, सिन्क्रोट्रान आदि) के डिफ्रैक्सन से किया जाता है। .

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कैल्साइट

कैल्साइट पृथ्वी पर सबसे अधिक परिमाण में पाया जाने वाला खनिज है। रासायनिक या जैव-रासायनिक कैल्सियम कार्बोनेट को कैल्साइट कहते हैं। इसका रासायनिक सूत्र CaCO3 है। कैलसाइट विभिन्न रंगों में पाया जाता है। यह खनिज अपने विदलन सतहों, काचोपम चमक, अल्प कठोरता (.

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कोणीय विभेदन

प्रतिविम्ब निर्माण करने वाली किसी युक्ति द्वारा किसी वस्तु की छोटी-छोटी संसरचनाओं को भी अलग-अलग कर पाने की क्षमता को कोणीय विभेदन (Angular resolution) या 'आकाशीय विभेदन' (स्पेशियल रिजोलूशन) कहते हैं। प्रकाशीय दूरदर्शी, रेडियो दूरदर्शी, सूक्ष्मदर्शी, कैमरा, आँख आदि के लिए यह महत्वपूर्ण है। वास्तव में कोणीय विभेदन से ही मुख्यतः निर्धारित होता है कि छबि-विभेदन कितना होगा। .

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कोशिका विज्ञान

घटक अणुओं के रूप में कोशिकाओं की समझ कोशिका की सामान्यीकृत संरचना तथा कोशिका के आणविक घटक कोशिका विज्ञान (Cytology) या कोशिका जैविकी (Cell biology) में कोशिकाओं के शरीरक्रियात्मक गुणों (physiological properties), संरचना, कोशिकांगों (organelles), वाह्य पर्यावरण के साथ क्रियाओं, जीवनचक्र, विभाजन तथा मृत्यु का वैज्ञानिक अध्यन किया जाता है। यह अध्ययन सूक्ष्म तथा आणविक स्तरों पर किया जाता है। कोशिकाओं के घटकों तथा उनके कार्य करने की विधि का ज्ञान सभी जैविक विज्ञानों के लिये मूलभूत तथा महत्व का विषय है। विशेषतः विभिन्न प्रकार की कोशिकाओं के बीच समानता और अन्तर की बारीक समझ कोशिकाविज्ञान, अणुजैविकी (molecular biology) तथा जैवचिकित्सीय क्षेत्रों के लिये महत्वपूर्ण है। .

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अवलोकन टनलिंग सूक्ष्मदर्शी यंत्र

(100) आणुविक स्तर पर सतहों को देखने के लिये अवलोकन टनलिंग सूक्ष्मदर्शी यंत्र (अंगरेजी में.

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अग्न्याशय

अग्न्याशय कशेरुकी जीवों की पाचन व अंतःस्रावी प्रणाली का एक ग्रंथि अंग है। ये इंसुलिन, ग्लुकागोन, व सोमाटोस्टाटिन जैसे कई ज़रूरी हार्मोन बनाने वाली अंतःस्रावी ग्रंथि है और साथ ही यह अग्न्याशयी रस निकालने वाली एक बहिःस्रावी ग्रंथि भी है, इस रस में पाचक किण्वक होते हैं जो लघ्वांत्र में जाते हैं। ये किण्वक अम्लान्न में कार्बोहाइड्रेट, प्रोटीन, व वसा का और भंजन करते हैं। .

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अंतःस्राविकी

अंत:स्राव विद्या (एंडोक्राइनॉलोजी) आयुर्विज्ञान की वह शाखा है जिसमें शरीर में अंतःस्राव या हारमोन उत्पन्न करने वाली ग्रंथियों का अध्ययन किया जाता है। उत्पन्न होने वाले हारमोन का अध्ययन भी इसी विद्या का एक अंश है। हारमोन विशिष्ट रासायनिक वस्तुएँ हैं जो शरीर की कई ग्रंथियों में उत्पन्न होती हैं। ये हारमोन अपनी ग्रंथियों से निकलकर रक्त में या अन्य शारीरिक द्रवों में, जैसे लसीका आदि में, मिल जाते हैं और अंगों में पहुँचकर उनसे विशिष्ट क्रियाएँ करवाते हैं। हारमोन शब्द ग्रीक भाषा से लिया गया है। सबसे पहले सन् 1902 में बेलिस और स्टार्लिंग ने इस शब्द का प्रयोग किया था। सभी अंतःस्रावी ग्रंथियाँ हारमोन उत्पन्न करती हैं। .

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यहां पुनर्निर्देश करता है:

सूक्ष्मदर्शी यंत्र, सूक्ष्मबीन, खुर्दबीन

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