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सुकरात

सूची सुकरात

सुकरात को सूफियों की भाँति मौलिक शिक्षा और आचार द्वारा उदाहरण देना ही पसंद था। वस्तुत: उसके समसामयिक भी उसे सूफी समझते थे। सूफियों की भाँति साधारण शिक्षा तथा मानव सदाचार पर वह जोर देता था और उन्हीं की तरह पुरानी रूढ़ियों पर प्रहार करता था। वह कहता था, ""सच्चा ज्ञान संभव है बशर्ते उसके लिए ठीक तौर पर प्रयत्न किया जाए; जो बातें हमारी समझ में आती हैं या हमारे सामने आई हैं, उन्हें तत्संबंधी घटनाओं पर हम परखें, इस तरह अनेक परखों के बाद हम एक सचाई पर पहुँच सकते हैं। ज्ञान के समान पवित्रतम कोई वस्तु नहीं हैं।' बुद्ध की भाँति सुकरात ने कोई ग्रंथ नहीं लिखा। बुद्ध के शिष्यों ने उनके जीवनकाल में ही उपदेशों को कंठस्थ करना शुरु किया था जिससे हम उनके उपदेशों को बहुत कुछ सीधे तौर पर जान सकते हैं; किंतु सुकरात के उपदेशों के बारे में यह भी सुविधा नहीं। सुकरात का क्या जीवनदर्शन था यह उसके आचरण से ही मालूम होता है, लेकिन उसकी व्याख्या भिन्न-भिन्न लेखक भिन्न-भिन्न ढंग से करते हैं। कुछ लेखक सुक्रात की प्रसन्नमुखता और मर्यादित जीवनयोपभोग को दिखलाकर कहते हैं कि वह भोगी था। दूसरे लेखक शारीरिक कष्टों की ओर से उसकी बेपर्वाही तथा आवश्यकता पड़ने पर जीवनसुख को भी छोड़ने के लिए तैयार रहने को दिखलाकर उसे सादा जीवन का पक्षपाती बतलाते हैं। सुकरात को हवाई बहस पसंद न थी। वह अथेन्स के बहुत ही गरीब घर में पैदा हुआ था। गंभीर विद्वान् और ख्यातिप्राप्त हो जाने पर भी उसने वैवाहिक जीवन की लालसा नहीं रखी। ज्ञान का संग्रह और प्रसार, ये ही उसके जीवन के मुख्य लक्ष्य थे। उसके अधूरे कार्य को उसके शिष्य अफलातून और अरस्तू ने पूरा किया। इसके दर्शन को दो भागों में बाँटा जा सकता है, पहला सुक्रात का गुरु-शिष्य-यथार्थवाद और दूसरा अरस्तू का प्रयोगवाद। तरुणों को बिगाड़ने, देवनिंदा और नास्तिक होने का झूठा दोष उसपर लगाया गया था और उसके लिए उसे जहर देकर मारने का दंड मिला था। सुकरात ने जहर का प्याला खुशी-खुशी पिया और जान दे दी। उसे कारागार से भाग जाने का आग्रह उसे शिष्यों तथा स्नेहियों ने किया किंतु उसने कहा- भाइयो, तुम्हारे इस प्रस्ताव का मैं आदर करता हूँ कि मैं यहाँ से भाग जाऊँ। प्रत्येक व्यक्ति को जीवन और प्राण के प्रति मोह होता है। भला प्राण देना कौन चाहता है? किंतु यह उन साधारण लोगों के लिए हैं जो लोग इस नश्वर शरीर को ही सब कुछ मानते हैं। आत्मा अमर है फिर इस शरीर से क्या डरना? हमारे शरीर में जो निवास करता है क्या उसका कोई कुछ बिगाड़ सकता है? आत्मा ऐसे शरीर को बार बार धारण करती है अत: इस क्षणिक शरीर की रक्षा के लिए भागना उचित नहीं है। क्या मैंने कोई अपराध किया है? जिन लोगों ने इसे अपराध बताया है उनकी बुद्धि पर अज्ञान का प्रकोप है। मैंने उस समय कहा था-विश्व कभी भी एक ही सिद्धांत की परिधि में नहीं बाँधा जा सकता। मानव मस्तिष्क की अपनी सीमाएँ हैं। विश्व को जानने और समझने के लिए अपने अंतस् के तम को हटा देना चाहिए। मनुष्य यह नश्वर कायामात्र नहीं, वह सजग और चेतन आत्मा में निवास करता है। इसलिए हमें आत्मानुसंधान की ओर ही मुख्य रूप से प्रवृत्त होना चाहिए। यह आवश्यक है कि हम अपने जीवन में सत्य, न्याय और ईमानदारी का अवलंबन करें। हमें यह बात मानकर ही आगे बढ़ना है कि शरीर नश्वर है। अच्छा है, नश्वर शरीर अपनी सीमा समाप्त कर चुका। टहलते-टहलते थक चुका हूँ। अब संसार रूपी रात्रि में लेटकर आराम कर रहा हूँ। सोने के बाद मेरे ऊपर चादर उड़ देना। .

31 संबंधों: तर्कशास्त्र, थीसियस का जहाज, दर्शनशास्त्र, द्वंद्वात्मक तर्कपद्धति, दैवज्ञ, नागरिक समाज, नव अफलातूनवाद, न्यायशास्त्र, नीतिशास्त्र का इतिहास, पारमेनीडेस, प्लेटो, फीदो, बेंजामिन फ्रैंकलिन, रिपब्लिक (प्लेटो), शाकाहार, सामाजिक संविदा, सिनिक सम्प्रदाय, सोफ़िस्त, ईसप, ईसप की दंतकथाएं, व्यावहारिकतावाद, व्यवहार प्रक्रिया, खनिज विज्ञान, गुफ़ा की कथा, आदर्शवाद, इमानुएल काण्ट, काण्टीयवाद, काव्यशास्त्र, अन्तिस्ठेनेस, अरस्तु, अरिस्तिप्पुस

तर्कशास्त्र

तर्कशास्त्र शब्द अंग्रेजी 'लॉजिक' का अनुवाद है। प्राचीन भारतीय दर्शन में इस प्रकार के नामवाला कोई शास्त्र प्रसिद्ध नहीं है। भारतीय दर्शन में तर्कशास्त्र का जन्म स्वतंत्र शास्त्र के रूप में नहीं हुआ। अक्षपाद! गौतम या गौतम (३०० ई०) का न्यायसूत्र पहला ग्रंथ है, जिसमें तथाकथित तर्कशास्त्र की समस्याओं पर व्यवस्थित ढंग से विचार किया गया है। उक्त सूत्रों का एक बड़ा भाग इन समस्याओं पर विचार करता है, फिर भी उक्त ग्रंथ में यह विषय दर्शनपद्धति के अंग के रूप में निरूपित हुआ है। न्यायदर्शन में सोलह परीक्षणीय पदार्थों का उल्लेख है। इनमें सर्वप्रथम प्रमाण नाम का विषय या पदार्थ है। वस्तुतः भारतीय दर्शन में आज के तर्कशास्त्र का स्थानापन्न 'प्रमाणशास्त्र' कहा जा सकता है। किंतु प्रमाणशास्त्र की विषयवस्तु तर्कशास्त्र की अपेक्षा अधिक विस्तृत है। .

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थीसियस का जहाज

थीसियस का जहाज जिसे थीसियस का विरोधाभास भी कहा जाता है, एक विरोधाभास है जो यह सवाल उठाता है कि क्या कोई वस्तु जिसके सभी घटकों को प्रतिस्थापित किया गया हो, मौलिक रूप से वही वस्तु रहती है? इस विरोधाभास को सबसे पहले पहली शताब्दी के उत्तरार्ध में प्लूटार्क द्वारा थीसियस का जीवन में दर्ज किया गया था। प्लूटार्क पूछता है कि यदि किसी जहाज के सभी लकड़ी के भागों को दूसरे लकड़ी के भागों से बदल दिया जाये तो क्या, तब भी यह जहाज वही पहले वाला जहाज बना रहेगा? प्लूटार्क के लेखन से पूर्व इस विरोधाभास की चर्चा प्राचीन दार्शनिकों जैसे कि हेराक्लीटस, सुकरात और प्लूटो ने और अभी हाल के दार्शनिक जैसे कि थॉमस होब्स और जॉन लोके ने अपने लेखों में की है। इस विरोधाभास के कई प्रकार हैं, विशेष रूप से "दादा की कुल्हाड़ी" और ब्रिटेन का "ट्रिगर की झाड़ू" हैं। यह विचार प्रयोग "दार्शनिकों के लिए एक मॉडल" है, कुछ कहते हैं, "यह वही बना रहेगा," तो कुछ मानते हैं कि, "यह वही नहीं बना रहेगा"। .

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दर्शनशास्त्र

दर्शनशास्त्र वह ज्ञान है जो परम् सत्य और प्रकृति के सिद्धांतों और उनके कारणों की विवेचना करता है। दर्शन यथार्थ की परख के लिये एक दृष्टिकोण है। दार्शनिक चिन्तन मूलतः जीवन की अर्थवत्ता की खोज का पर्याय है। वस्तुतः दर्शनशास्त्र स्वत्व, अर्थात प्रकृति तथा समाज और मानव चिंतन तथा संज्ञान की प्रक्रिया के सामान्य नियमों का विज्ञान है। दर्शनशास्त्र सामाजिक चेतना के रूपों में से एक है। दर्शन उस विद्या का नाम है जो सत्य एवं ज्ञान की खोज करता है। व्यापक अर्थ में दर्शन, तर्कपूर्ण, विधिपूर्वक एवं क्रमबद्ध विचार की कला है। इसका जन्म अनुभव एवं परिस्थिति के अनुसार होता है। यही कारण है कि संसार के भिन्न-भिन्न व्यक्तियों ने समय-समय पर अपने-अपने अनुभवों एवं परिस्थितियों के अनुसार भिन्न-भिन्न प्रकार के जीवन-दर्शन को अपनाया। भारतीय दर्शन का इतिहास अत्यन्त पुराना है किन्तु फिलॉसफ़ी (Philosophy) के अर्थों में दर्शनशास्त्र पद का प्रयोग सर्वप्रथम पाइथागोरस ने किया था। विशिष्ट अनुशासन और विज्ञान के रूप में दर्शन को प्लेटो ने विकसित किया था। उसकी उत्पत्ति दास-स्वामी समाज में एक ऐसे विज्ञान के रूप में हुई जिसने वस्तुगत जगत तथा स्वयं अपने विषय में मनुष्य के ज्ञान के सकल योग को ऐक्यबद्ध किया था। यह मानव इतिहास के आरंभिक सोपानों में ज्ञान के विकास के निम्न स्तर के कारण सर्वथा स्वाभाविक था। सामाजिक उत्पादन के विकास और वैज्ञानिक ज्ञान के संचय की प्रक्रिया में भिन्न भिन्न विज्ञान दर्शनशास्त्र से पृथक होते गये और दर्शनशास्त्र एक स्वतंत्र विज्ञान के रूप में विकसित होने लगा। जगत के विषय में सामान्य दृष्टिकोण का विस्तार करने तथा सामान्य आधारों व नियमों का करने, यथार्थ के विषय में चिंतन की तर्कबुद्धिपरक, तर्क तथा संज्ञान के सिद्धांत विकसित करने की आवश्यकता से दर्शनशास्त्र का एक विशिष्ट अनुशासन के रूप में जन्म हुआ। पृथक विज्ञान के रूप में दर्शन का आधारभूत प्रश्न स्वत्व के साथ चिंतन के, भूतद्रव्य के साथ चेतना के संबंध की समस्या है। .

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द्वंद्वात्मक तर्कपद्धति

द्वंद्वात्मक तर्कपद्धति (Dialectic या dialectics या dialectical method) असहमति को दूर करने के लिए प्रयुक्त तर्क करने की एक विधि है जो प्राचीनकाल से ही भारतीय और यूरोपीय दर्शन के केन्द्र में रही है। इसका विकास यूनान में हुआ तथा प्लेटो ने इसे प्रसिद्धि दिलायी। द्वन्दात्मक तर्कपद्धति दो या दो से अधिक लोगों के बीच चर्चा करने की विधि है जो किसी विषय पर अलग-अलग राय रखते हैं किन्तु तर्कपूर्ण चर्चा की सहायता से सत्य तक पहुँचने के इच्छुक हैं। .

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दैवज्ञ

जॉन विलियम वाटरहाउस द्वारा रचित "दैवज्ञ से परामर्श"; जिसमे आठ महिला पुरोहितों को भविष्यवाणी के एक मंदिर में दिखाया गया है प्राचीन पुरातनता में, दैवज्ञ एक व्यक्ति या एजेंसी को कहा जाता था जिसे ईश्वरप्रेरित बुद्धिमत्तापूर्ण सलाह या भविष्यसूचक (पूर्वकथित) विचार, भविष्यवाणियों या पूर्व ज्ञान का एक स्रोत माना जाता था। इस प्रकार यह भविष्यवाणी का एक रूप है। इस शब्द की उत्पत्ति लैटिन क्रिया ōrāre (अर्थात "बोलना") से हुई है एवं यह सही-सही भविष्यवाणी करने वाले पुजारी या पुजारिन को संदर्भित करता है। विस्तृत प्रयोग में, दैवज्ञ अपने स्थल, एवं यूनानी भाषा में khrēsmoi (χρησμοί) कहे जाने वाले दैवीय कथनों को भी संदर्भित कर सकता है। देवज्ञों को ऐसा प्रवेश-द्वार माना जाता था जिसके माध्यम से ईश्वर मनुष्य से सीधे बात करते थे। इस अर्थ में, वे भविष्यद्रष्टाओं (manteis, μάντεις) से भिन्न होते थे जो पक्षियों के चिह्नों, पशु की अंतरियों एवं अन्य विभिन्न विधियों के माध्यम से ईश्वर के द्वारा भेजे गए प्रतीकों की व्याख्या करते थे।फ्लॉवर, माइकल एत्यह.

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नागरिक समाज

नागरिक समाज, सरकार द्वारा समर्थित संरचनाओं (राज्य की राजनीतिक प्रणाली का लिहाज़ किए बिना) और बाज़ार के वाणिज्यिक संस्थानों से बिलकुल अलग, क्रियात्मक समाज के आधार को रूप देने वाले स्वैच्छिक नागरिक और सामाजिक संगठनों और संस्थाओं की समग्रता से बना है। क़ानूनी राज्य का सिद्धांत (Rechtsstaat, यानी क़ानून के नियमांतर्गत राज्य) राज्य और नागरिक समाज की समानता को अपनी सबसे महत्वपूर्ण विशेषता मानता है। उदाहरण के लिए, लिथुआनिया गणराज्य का संविधान लिथुआनियाई राष्ट्र को "क़ानून के शासन के तहत एक मुक्त, न्यायोचित और सामंजस्यपूर्ण नागरिक समाज और सरकार के लिए प्रयासरतस" के रूप में परिभाषित करता है। .

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नव अफलातूनवाद

नव अफलातूनवाद (Neoplatonism yaa Neo-Platonism) यूनानी दर्शन का अंतिम संप्रदाय, जिसने ईसा की तीसरी शताब्दी में विकसित होकर, पतनोन्मुख यूनानी दर्शन को, लगभग पौने तीन सौ वर्ष, अथवा 529 ई. में रोमन सम्राट् जस्टिन की आज्ञा से एथेंस की अकादमी के बंद किए जाने तक, जीवित रखा। संस्थापकों ने इस संप्रदाय का नाम अफलातून से जोड़कर, एक ओर तो सर्वश्रेष्ठ समझे जानेवाले यूनानी दार्शनिक के प्रति अपनी श्रद्धा प्रकट की; दूसरी ओर, विषम परिस्थितियों में अपने मत की प्रामाणिकता सिद्ध करने का इससे अच्छा कोई उपाय न था। इसके नाम से यह अनुमान करना कि यह अफलातून के मत का अनुवर्तन मात्र था, समीचीन नहीं। यूनानी दर्शन का प्रारंभ पाश्चात्य सभ्यता के शैशव काल में हुआ था। अफलातून तथा उसके शिष्य, अरस्तू, के दर्शन तक उक्त दर्शन अपने विकास की चरम सीमा पर पहुँच गया था। किंतु, विश्व तथा मानव की मौलिक समस्याओं का काई संतोषप्रद समाधान नहीं दिया जा सका था। अफलातून के दर्शन का सबसे महत्वपूर्ण पक्ष यही हैं कि उसमें उन सभी विचारसूत्रों को सहेजकर रखा गया है, जो प्रारंभ से लेकर अफलातून के समय तक के संपूर्ण सांस्कृतिक विकास का चित्र प्रस्तुत कर देते हैं। यह प्रवृत्ति प्लेटो के बाद के अन्य संप्रदायों में भी पाई जाती है। किंतु अंतिम संप्रदाय, नवअफलातूनवाद में, अफलातून के मौलिक विचरों से शिक्षा प्राप्त करने के साथ साथ, परवर्ती दर्शनसंप्रदायों के मतों से भी लाभ प्राप्त किया गया है। इस प्रकार, यह दर्शन यूनानी दर्शन के क्रमिक विकास का फल कहा जा सकता है। इसके संबंध में सबसे आवश्यक तथ्य यह है कि बदलती हुई परिस्थितियों में, इसने धर्मनिरपेक्ष यूनानी दर्शन को रोमन साम्राज्य के मनोनुकूल बनाने का प्रयत्न किया। इसकी गतिविधि समझने के लिए, अफलातून से लेकर ईसा की तीसरी शताब्दी तक बिखरे हुए विचारसूत्रों पर निगाह डालने की आवश्यकता है। यूनान के जीवन तथा दर्शन में क्रांति की लहर दौड़ाने का श्रेय सुकरात (469-399 ई.पू.) को प्राप्त है। उस संत ने आजीवन अपने समय के तथाकथित ज्ञान की आलोचना की और नैतिक चिंतन तथा धार्मिक अनुभव के अभाव पर खीझ प्रकट की। सुकरात से प्रभावित होकर, अफलातून (437-347 ई.पू.) ने पूर्ववर्ती विचारों को व्यवस्थित दर्शन का रूप देने का प्रयत्न किया। उसने पार्मेनाइडिज़ (540-470 ई.पू.) की प्रत्ययात्मक सत्ता को दृष्ट जगत्‌ का मूल कारण मानकर, सूक्ष्म तथा स्थूल, एक एवं अनेक का तथा हेराक्लाइटस (मृत्यु. 475 ई.पू.) के अनुसार चेतन एवं अचेतन का समन्वय करना चाहा था। किंतु, सूक्ष्म प्रत्यय एवं स्थूल वस्तु में यौक्तिक विरोध होने के कारण, उसे दोनों को संबद्ध करने के लिए किसी बीच की कड़ी की जरूरत थी। पूर्ववर्ती भौतिकवादियों के समने यह प्रश्न प्रस्तुत ही नहीं हुआ था, क्योंकि वे विश्व में किसी द्वैत की कल्पना ही नहीं करते थे। पार्मेनाइडिज़ तथा उसके अनुयायी, इलिया के दूसरे सत्तावादियों के सामने भी द्वैत का प्रश्न न था। वे सभी तो अद्वैतवादी थे। हेराक्लाइटस में द्वैत का प्रश्न न था। वे सभी तो अद्वैतवादी थे। हेराक्लाइटस में द्वैत की थोड़ी झलक थी, क्योंकि उसने एक और अनेक का प्रश्न उठाया था। पर, अपने रूपांतर के सिद्धांत से हल भी कर लिया था। यद्यपि रूपांतर के सिद्धांत से हल होता नहीं था, क्योंकि एक और अनेक का रूपांतर मान लेने पर गति, जिसे उसने विश्व का व्यापक नियम माना था, मात्र भ्रम ठहरती थी। अफलातून समन्वय कर रहा था। वह व्यवहार की सार्थकता की दृष्टि से इंद्रियसंवेद्य जगत्‌ को असत्‌ मानना नहीं चाहता था। प्रत्यय भी असत्‌ नहीं हो सकता था, क्योंकि यदि वह प्रत्यय को असत्‌ मान लेता तो सत्‌ की उत्पत्ति असत्‌ से माननी पड़ती। दोनों को कायम रखने के प्रयत्न में, उसने दो संसारों की, प्रत्यय जगत्‌ और वस्तु जगत्‌ की कल्पना की। किंतु दोनों में तारतम्य बनाए रखने के लिए प्रत्ययों को वस्तुओं का सार स्वीकार किया। अरस्तू ने अफलातून द्वारा स्थापित द्वैत को मिटाने का बहुत प्रयत्न किया। पर, वह भी आकार और पदार्थ के द्वैत की ही स्थापना कर सका। अफलातून को नैतिक समस्या सुलझाने में भी कोई बड़ी सफलता न मिल सकी, क्योंकि उसने उच्चतम प्रत्यय में, जिसे उसने संसार का मूल कारण माना था, सत्य, शुभ और सुंदर का समन्वय कर, अपने उत्तरदायित्व से मुक्ति ले ली। र्ध्म की समस्या भी वहीं रह गई थी, जहाँ उसे सुकरात और पाइथागोरस ने छोड़ दिया था। दोनों दार्शनिकों ने मानसिक तन्मयता में उच्चतम सत्य की अनुभूति के साक्ष्य प्रस्तुत किए थे, किंतु उस अनुभूति का कोई सैद्धांतिक विवेचन नहीं किया था। अरस्तू के जीवन (384-323 ई.पू.) के साथ ही साथ यूनानी राजसत्ता का लोप हो गया और एथेंस के दार्शनिकों को समीपवर्ती पूर्वी देशों में शरण लेनी पड़ी। वहाँ, खासकर, अलेक्ज़ेंड्रिया में वे नवोदित ईसाई धर्म के संपर्क में आए। तब उन्हें पता चला कि उस धर्म में भी, अफलातून के दर्शन की भाँति, द्वैत सत्ताओं की कल्पना विद्यमान थी। मध्यस्थ की कल्पना भी उसी प्रकार थी अंतर इतना ही था कि ईसाई धर्म के ईश्वर में व्यक्तित्व था। पर, यह तो काफ़ी जँचनेवाली बात थी। उचचतम प्रत्यय की अपेक्षा ईश्वर व्यक्ति से जगत्‌ के कारण, नियंता एवं पोषक बनने की आकांक्षा करना मानव बुद्धि के लिए अधिक रुचिकर था। अतएव अलेक्ज़ेंड्रिया के दार्शनिकों ने अफलातून की मौलिक सत्ता और ईसाई धर्म के ईश्वर की एकता का प्रतिपादन किया। फ़िलो (20/30 ई.पू.- 40 ई.) के दर्शन में यूनानी दर्शन ओर ईसाई धर्म के मिश्रण के पर्याप्त प्रमाण उपलब्ध हैं। कठिनाई यह थी कि ईसाई धर्म में मध्यस्थ की कल्पना समुचित न थी। इसके लिए स्टोइक दार्शनिकों का स्मरण किया गया। स्टोइक भौतिक अद्वैतवादी होने के नाते जगत्‌ तथा ईश्वर दोनों को परस्पर संबद्ध रखने के लिए उन्हें भी किसी मध्यस्थ की कल्पना करनी थी। हेराक्लाइटस ने अग्नि को प्रथम तत्व कहा था। स्टोइकों ने अग्नि तथा बुद्धि में कोई अंतर न पाया। अतएव उन्होंने यह मान लिया कि जैसे अग्नि भौतिक पदार्थ होते हुए भी चारों ओर अपना ताप वितरित करती है, उसी प्रकार ईश्वर बुद्धि का प्रसार करता है, जो संसार और मनुष्य दोनों में व्याप्त हो जाती है। इसी संकेत के आधार पर, फिलो ने 'लोगस' को ईश्वर और जगत्‌ के बीच की कड़ी मान लिया। किंतु फिलो का 'लागस' पदार्थ न था। वह ईश्वर की शक्ति है, विचार है, जो प्रति शरीर भिन्न होकर 'लोगाई' (बहुवचन) भी बन सकता है। पदार्थ को फिलो ने आत्मा का बंधन माना था। इसलिए उसे ईश्वर और लोगस से अलग रखा था। इसी फिलो की विचारधारा ने तीसरी शताब्दी तक नव अफलातूनवाद का रूप लिया। संस्थापक के स्थान पर अमोनियस सैक्कस का नाम लिया जाता है, किंतु वह हमारे लिए केवल एक नाम है। संभवत:, 242 ई. के आसपास उसकी मृत्यु हुई थी। उसके दर्शन का ज्ञान हमें उसके शिष्य, प्लाटिनस, के ग्रंथों से होता है। उसका जन्म मिस्र देश के लाइकोपोलिस नामक स्थान में, 204 ई. के आसपास अनुमित है। 245 ई. में वह रोम चला गया था। वहीं अपने दर्शन की शिक्षा देते हुए 270 ई. में उसकी मृत्यु हुई। अरस्तू के तर्कशास्त्र के व्याख्याकार पॉर्फिरी (232-304) ने प्लाटिनस के ग्रंथों का छह खंडों, में जिनमें से प्रत्येक में नौ ग्रंथ हैं, संपादन किया था, जो उपलब्ध हैं। इसलिए प्लाटिनस ही हमारे लिए नवअफलातूनवाद का संस्थापक है। प्लाटिनस ने अलेक्ज़ेंड्रिया के ईसाई दार्शनिकों के मत में एक बहुत बड़ा परिवर्तन किया था। वे ईश्वर को सर्वोपरि मानते थे, इतना दूर, इतना पृथक्‌ कि अंत में, उन्हें ईश्वर को अज्ञेय कहना पड़ता था। प्लाटिनस ने सुकरात और पाइथागोरस के तन्मयता के विचार से शिक्षा लेकर, तन्मयता की अवस्था में उसे आत्मा का प्राप्य बताया। इसी सिद्धांत के कारण नवअफलातूनवाद को पाश्चात्य दर्शन के रहस्यवाद का जन्मदाता समझा जाता है। इस प्रकार इस दर्शन में सैद्धांतिक एवं व्यवहारिक दोनों पक्ष सम्मिलित हैं। प्लाटिनस के दर्शन के सैद्धांतिक पक्ष में तीन मुख्य भाग माने जा सकते हैं - (1) प्राथमिक सत्ता, (2) विचारजगत्‌ एवं आत्मा तथा (3) भौतिक जगत्‌। प्लाटिनस की प्राथमिक सत्ता ईश्वर है। वह एक, असीम तथा अपरिमित है। वही सभी सीमित एवं परिमित वस्तुओं का स्रोत तथा उनकी कारणता है। वह शुभ है, क्योंकि सभी वस्तुओं के प्रयोजन उसी में है। पर ईश्वर पर नैतिक गुणों का आरोप नहीं किया जा सकता, क्योंकि गुण सीमा हैं। वह अगुण है। जीवन एवं विचार का आरोप भी संभव नहीं, क्योंकि वह तो सभी सत्ताओं से परे हैं। वह एक सक्रिय शक्ति है, जो बिना किसी गति के, बिना परिवर्तन एवं ह्रास के, निरंतर अपने से भिन्न सत्ताओं को उत्पन्न करता रहता है। उसका उत्पादनकार्य भौतिक नहीं बल्कि प्रसारण (एमिशन) है। प्राथमिक सत्ता, अथवा, प्रथम सत्‌ सबसे पहले 'नाउस' को प्रकट करता है। 'नाउस' सत्‌ का प्रतिरूप एवं सभी वस्तुओं का सार है। वह सत्ता और विचार दोनों है। सत्‌ का प्रतिरूप होने से वह उसी के स्वभाव का है। भिन्न भी है, क्योंकि सत्ता से उत्पन्न हुआ है। इसीलिए, वह ईश्वर और जगत्‌ के बीच मध्यस्थ है। आत्मा इसी 'नाउस' का प्रतिरूप है। अतएव, नाउस से आत्मा के वही संबंध है, जो नाउस के ईश्वर से। स्पष्टतया, आत्मा अपदार्थ है। वह नाउस और व्यवहारजगत्‌ के बीच कीं कड़ी है। किंतु एक अंतर भी है। नाउस अविभाज्य है; किंतु आत्मा विभाज्य है। तभी तो वह शारीर जगत्‌ से संबंध रख सकती है। एक रहते हुए जगत्‌ से संबद्ध होकर वह जगदात्मा बनती है; प्रति शरीर भिन्न होकर वही जीवात्मा बनती है। ये आत्माएँ नाउस के नियमों का पालन कर, पवित्र दैवी जीवन बिता सकती हैं। पर, ऐसा नहीं होता। स्वतंत्र होने की इच्छा से वे नाउस से विमुख होकर जगत्‌ के ऐंद्रिक सुखों में लिप्त हो जाती हैं। तभी बंधन में पड़ती हैं। पर आत्मा का यह बंधन इच्छाकृत होने से स्थायी नहीं है। संसार से विमुख होकर, आत्मा अपना मूल स्वभाव प्राप्त कर सकती है। यहीं प्लाटिनस को अपने दर्शन का व्यावहारिक पक्ष विकसित करने का अवसर मिल जाता है। वह बताता है कि संसार में भटकी हुई आत्मा को पहले अपने आपमें वापस आना पड़ता है। फिर, वह नाउस में स्थित होती है। तब वह ईश्वरमिलन की कामना कर सकती है। इस प्रक्रिया को पूरा करने का प्रयास तीन स्तरों में किया जा सकता है। ये स्तर नैतिक आचरण के अभ्यास के तीन स्तर हैं - नारिक, शोधक तथा दैवी आचरण। पहले, पारस्परिक प्रेम एवं सद्भावना का अभ्यास, फिर पवित्र जीवन और तब ईश्वरोन्मुख होना। इस प्रकार, आत्मा पहले अपने आपमें आती है, फिर नाउस में स्थित होती है और तब ईश्वर, प्रथम सत्‌ या अपने कारण से मिलने की इच्छा करती है। मिलन की कोई अवधि नहीं। सतत ईश्वरचिंतन और मिलने की कामना करते-करते, तन्मयता के वे क्षण कभी भी आ सकते हैं, जिनमें वह कारण में लीन हो जाएगी। प्लाटिनस के अनुसार, तन्मयता के क्षणों में अनिर्वचनीय आनंद प्राप्त होता है और आत्मा नित्य प्रकाश में स्नान करती है। पार्फिरी ने बताया है कि अपने छह वर्ष के अध्ययनकाल में, उसने अपने गुरु को चार बार उस अवस्था में पाया था, जिसका उन्होंने अपने ग्रंथों में उपदेश किया हो। यह कथन सत्य हो या न हो, पार्फिरी अपने गुरु की साधना से बहुत प्रभावित था और जीवन भर उसने उनकी शिक्षाओं का प्रचार किया। आयम्ब्लिकस ने प्लाटिनस के मत का सीरिया में प्रचार किया। आयम्ब्लिकस ने प्लाटिनस के मत का सीरिया में प्रचार किया। आयम्ब्लिकस ने प्लाटिनस के मत का सीरिया में प्रचार किया। छोटे प्लूटार्क (350-433) और प्रोक्लस (411-85) ने एथेंस की अकादमी में उन्हीं शिक्षाओं का उपदेश किया। प्रोक्लस के बाद तो अकादमी बंद ही हो गई। इस प्रकार, प्लाटिनस का नव अफलातूनवाद ही यूनानी दर्शन का अंतिम रूप था। किंतु जीवित संप्रदाय का रूप न रहने पर भी नवअफलातूनवाद पाश्चात्य दर्शन से लुप्त न हुआ। पाइथागोरस और सुकरात ने अपनी रहस्यवादी पद्धति की कोई व्याख्या नहीं की थी। यह पहला अवसर था, जब सत्य के साक्षात्कार की बात व्यवस्थित ढंग से कही गई थी। इसलिए, यह सोचने का पूरा मौका है कि बाद के दर्शन में जहाँ कहीं भी सत्य के साक्षात्कार की बात आती है, वह नव अफलातूनवाद का प्रभाव है। इस प्रकार मध्यकालीन ईसाई संतों में से अनेक को, जैसे टॉमस एक्वीनस, एरिजेना, ब्रूनो आदि को, उक्त मत से प्रभावित समझा जा सकता। यह प्रभाव आधुनिक काल में भी पाया जाता है। अंतर्दृष्टिवादी सभी रहस्यवादी थे। हेनरी बर्गसाँ की मृत्यु 1941 में हुई। उसने तो सभी वस्तुओं के सत्य ज्ञान के लिए बुद्धि को अपर्याप्त बताकर, अंतर्दृष्टि के द्वारा उनके अंतर में घुसकर देखने की सम्मति दी थी। अतएव, यह कहना अयुक्त न होगा कि पाश्चात्य देशों में अब तक प्लाटिनस की पद्धति में विश्वास करनेवाले मौजूद हैं। इतना व्यापक था यह संप्रदाय। .

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न्यायशास्त्र

लॉ के फिलोज़ोफर्स पूछते है "कानून क्या है?"और "यह क्या हो सकता है?" न्यायशास्त्र कानून (विधि) का सिद्धांत और दर्शन है। न्यायशास्त्र के विद्वान अथवा कानूनी दार्शनिक, विधि (कानून) की प्रवृति, कानूनी तर्क, कानूनी प्रणालियां एवं कानूनी संस्थानों का गहन ज्ञान पाने की उम्मीद रखते हैं। आधुनिक न्यायशास्त्र की शुरुआत 18वीं सदी में हुई और प्राकृतिक कानून, नागरिक कानून तथा राष्ट्रों के कानून के सिद्धांतों पर सर्वप्रथम अधिक ध्यान केन्द्रित किया गया। साधारण अथवा सामान्य न्यायशास्त्र को प्रश्नों के प्रकार के द्वारा उन वर्गों में विभक्त किया जा सकता है अथवा इन प्रश्नों के सर्वोत्तम उत्तर कैसे दिए जायं इस बारे में न्यायशास्त्र के सिद्धांतों अथवा विचारधाराओं के स्कूलों दोनों ही तरीकों से पता लगाकर जिनकी चर्चा विद्वान करना चाहते हैं। कानून का समकालीन दर्शन, जो सामान्य न्यायशास्त्र से संबंधित हैं, समस्याओं की चर्चा मोटे तौर पर दो वर्गों में करता है:शाइनर, "कानून के दार्शनिक", कैंब्रिज डिक्शनरी ऑफ़ फिलोज़ोफी.

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नीतिशास्त्र का इतिहास

यद्यपि आचारशास्त्र की परिभाषा तथा क्षेत्र प्रत्येक युग में मतभेद के विषय रहे हैं, फिर भी व्यापक रूप से यह कहा जा सकता है कि आचारशास्त्र में उन सामान्य सिद्धांतों का विवेचन होता है जिनके आधार पर मानवीय क्रियाओं और उद्देश्यों का मूल्याँकन संभव हो सके। अधिकतर लेखक और विचारक इस बात से भी सहमत हैं कि आचारशास्त्र का संबंध मुख्यत: मानंदडों और मूल्यों से है, न कि वस्तुस्थितियों के अध्ययन या खोज से और इन मानदंडों का प्रयोग न केवल व्यक्तिगत जीवन के विश्लेषण में किया जाना चाहिए वरन् सामाजिक जीवन के विश्लेषण में भी। नैतिक मतवादों का विकास दो विभिन्न दिशाओं में हुआ है। एक ओर तो आचारशात्रज्ञों ने "नैतिक निर्णय" का विश्लेषण करते हुए उचित-अनुचित संबंधी मानवीय विचारों के मूलभूत आधार का प्रश्न उठाया है। दूसरी ओर उन्होंने नैतिक आदर्शों तथा उन आदर्शों की सिद्धि के लिए अपनाए गए मार्गों का विवेचन किया है। आचारशास्त्र का पहला पक्ष चिंतनशील है, दूसरा निर्देशनशील। इन दोनों को हमें एक साथ देखना होगा, क्योंकि प्रत्यक्षरूप में दोनों संलग्न और अविभाज्य हैं। .

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पारमेनीडेस

पारमेनीडेस(515 ईसा पूर्व- 460 ईसा पूर्व) यूनानी दार्शनिक था। .

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प्लेटो

प्लेटो (४२८/४२७ ईसापूर्व - ३४८/३४७ ईसापूर्व), या अफ़्लातून, यूनान का प्रसिद्ध दार्शनिक था। वह सुकरात (Socrates) का शिष्य तथा अरस्तू (Aristotle) का गुरू था। इन तीन दार्शनिकों की त्रयी ने ही पश्चिमी संस्कृति की दार्शनिक आधार तैयार किया। यूरोप में ध्वनियों के वर्गीकरण का श्रेय प्लेटो को ही है। .

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फीदो

फीदो (ग्रीक: Φαίδων ὁ Ἠλεῖος, जीवनकाल- चौथी शताब्दी ईसापूर्व) यूनान का दार्शनिक तथा प्राचीन यूनानी दर्शन के इतिहास में सुकरातवादियों के 'ईलियायी संप्रदाय' का संस्थापक था। वह पाँचवीं शती ई.पू.

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बेंजामिन फ्रैंकलिन

बेंजामिन फ्रैंकलिन (17 अप्रैल 1790) संयुक्त राज्य अमेरिका के संस्थापक जनकों में से एक थे। एक प्रसिद्ध बहुश्रुत, फ्रैंकलिन एक प्रमुख लेखक और मुद्रक, व्यंग्यकार, राजनीतिक विचारक, राजनीतिज्ञ, वैज्ञानिक, आविष्कारक, नागरिक कार्यकर्ता, राजमर्मज्ञ, सैनिक, और राजनयिक थे। एक वैज्ञानिक के रूप में, बिजली के सम्बन्ध में अपनी खोजों और सिद्धांतों के लिए वे प्रबोधन और भौतिक विज्ञान के इतिहास में एक प्रमुख शख्सियत रहे। उन्होंने बिजली की छड़, बाईफोकल्स, फ्रैंकलिन स्टोव, एक गाड़ी के ओडोमीटर और ग्लास 'आर्मोनिका' का आविष्कार किया। उन्होंने अमेरिका में पहला सार्वजनिक ऋण पुस्तकालय और पेंसिल्वेनिया में पहले अग्नि विभाग की स्थापना की। वे औपनिवेशिक एकता के शीघ्र प्रस्तावक थे और एक लेखक और राजनीतिक कार्यकर्ता के रूप में, उन्होंने एक अमेरिकी राष्ट्र के विचार का समर्थन किया। अमेरिकी क्रांति के दौरान एक राजनयिक के रूप में, उन्होंने फ्रेंच गठबंधन हासिल किया, जिसने अमेरिका की स्वतंत्रता को संभव बनाने में मदद की। फ्रेंकलिन को अमेरिकी मूल्यों और चरित्र के आधार निर्माता के रूप में श्रेय दिया जाता है, जिसमें बचत के व्यावहारिक और लोकतांत्रिक अतिनैतिक मूल्यों, कठिन परिश्रम, शिक्षा, सामुदायिक भावना, स्व-शासित संस्थानों और राजनीतिक और धार्मिक स्वैच्छाचारिता के विरोध करने के संग, प्रबोधन के वैज्ञानिक और सहिष्णु मूल्यों का समागम था। हेनरी स्टील कोमगेर के शब्दों में, "फ्रैंकलिन में प्यूरिटनवाद के गुणों को बिना इसके दोषों के और इन्लाईटेनमेंट की प्रदीप्ति को बिना उसकी तपिश के समाहित किया जा सकता है।" वाल्टर आईज़ेकसन के अनुसार, यह बात फ्रेंकलिन को, "उस काल के सबसे निष्णात अमेरिकी और उस समाज की खोज करने वाले लोगों में सबसे प्रभावशाली बनाती है, जैसे समाज के रूप में बाद में अमेरिका विकसित हुआ।" फ्रेंकलिन, एक अखबार के संपादक, मुद्रक और फिलाडेल्फिया में व्यापारी बन गए, जहां पुअर रिचार्ड्स ऑल्मनैक और द पेन्सिलवेनिया गजेट के लेखन और प्रकाशन से वे बहुत अमीर हो गए। फ्रेंकलिन की विज्ञान और प्रौद्योगिकी के क्षेत्र में दिलचस्पी थी और अपने प्रसिद्ध प्रयोगों के लिए उन्होंने अंतर्राष्ट्रीय ख्याति प्राप्त की.

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रिपब्लिक (प्लेटो)

रिपब्लिक (मूल यूनानी नाम: Πολιτεία / पॉलीतिया) प्लेटो द्वारा ३८० ईसापूर्व के आसपास रचित ग्रन्थ है जिसमें सुकरात की वार्ताएँ वर्णित हैं। इन वार्ताओं में न्याय (δικαιοσύνη), नगर तथा न्यायप्रिय मानव की चर्चा है। यह प्लेटो की सर्वश्रेष्ठ रचना मानी जाती है। प्लेटो ने ‘रिपब्लिक’ में विभिन्न व्यक्तियों के मध्य हुए लम्बे संवादों के माध्यम से स्पष्ट किया है कि हमारा न्याय से सरोकार होना चाहिए। रिपब्लिक के केन्द्रीय प्रश्न तथा उपशीर्षक न्याय से ही सम्बन्धित हैं, जिनमें वह न्याय की स्थापना हेतु व्यक्तियों के कर्तव्य-पालन पर बल देते हैं। प्लेटो कहते हैं कि मनुष्य की आत्मा के तीन मुख्य तत्त्व हैं – तृष्णा या क्षुधा (Appetite), साहस (Spirit), बुद्धि या ज्ञान (Wisdom)। यदि किसी व्यक्ति की आत्मा में इन सभी तत्वों को समन्वित कर दिया जाए तो वह मनुष्य न्यायी बन जाएगा। ये तीनों गुण कुछेक मात्रा में सभी मनुष्यों में पाए जाते हैं लेकिन प्रत्येक मनुष्य में इन तीनों गुणों में से किसी एक गुण की प्रधानता रहती है। इसलिए राज्य में इन तीन गुणों के आधार पर तीन वर्ग मिलते हैं। पहला, उत्पादक वर्ग – आर्थिक कार्य (तृष्णा), दूसरा, सैनिक वर्ग – रक्षा कार्य (साहस), तीसरा, शासक वर्ग – दार्शनिक कार्य (ज्ञान/बुद्धि)। प्लेटो के अनुसार जब सभी वर्ग अपना कार्य करेंगे तथा दूसरे के कार्यों में हस्तक्षेप नहीं करेंगे और अपना कर्तव्य निभाएंगे तब समाज व राज्य में न्याय की स्थापना होगी। अर्थात् जब प्रत्येक व्यक्ति अपने कर्तव्य का निर्वाह करेगा, तब समाज में न्याय स्थापित होगा और बना रहेगा। .

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शाकाहार

दुग्ध उत्पाद, फल, सब्जी, अनाज, बादाम आदि बीज सहित वनस्पति-आधारित भोजन को शाकाहार (शाक + आहार) कहते हैं। शाकाहारी व्यक्ति मांस नहीं खाता है, इसमें रेड मीट अर्थात पशुओं के मांस, शिकार मांस, मुर्गे-मुर्गियां, मछली, क्रस्टेशिया या कठिनी अर्थात केंकड़ा-झींगा आदि और घोंघा आदि सीपदार प्राणी शामिल हैं; और शाकाहारी चीज़ (पाश्चात्य पनीर), पनीर और जिलेटिन में पाए जाने वाले प्राणी-व्युत्पन्न जामन जैसे मारे गये पशुओं के उपोत्पाद से बने खाद्य से भी दूर रह सकते हैं। हालाँकि, इन्हें या अन्य अपरिचित पशु सामग्रियों का उपभोग अनजाने में कर सकते हैं। शाकाहार की एक अत्यंत तार्किक परिभाषा ये है कि शाकाहार में वे सभी चीजें शामिल हैं जो वनस्पति आधारित हैं, पेड़ पौधों से मिलती हैं एवं पशुओं से मिलने वाली चीजें जिनमें कोई प्राणी जन्म नहीं ले सकता। इसके अतिरिक्त शाकाहार में और कोई चीज़ शामिल नहीं है। इस परिभाषा की मदद से शाकाहार का निर्धारण किया जा सकता है। उदाहरण के लिये दूध, शहद आदि से बच्चे नहीं होते जबकि अंडे जिसे कुछ तथाकथित बुद्धजीवी शाकाहारी कहते है, उनसे बच्चे जन्म लेते हैं। अतः अंडे मांसाहार है। प्याज़ और लहसुन शाकाहार हैं किन्तु ये बदबू करते हैं अतः इन्हें खुशी के अवसरों पर प्रयोग नहीं किया जाता। यदि कोई मनुष्य अनजाने में, भूलवश, गलती से या किसी के दबाव में आकर मांसाहार कर लेता है तो भी उसे शाकाहारी ही माना जाता है। पूरी दुनिया का सबसे पुराना धर्म सनातन धर्म भी शाकाहार पर आधारित है। इसके अतिरिक्त जैन धर्म भी शाकाहार का समर्थन करता है। सनातन धर्म के अनुयायी जिन्हें हिन्दू भी कहा जाता है वे शाकाहारी होते हैं। यदि कोई व्यक्ति खुद को हिन्दू बताता है किंतु मांसाहार करता है तो वह धार्मिक तथ्यों से हिन्दू नहीं रह जाता। अपना पेट भरने के लिए या महज़ जीभ के स्वाद के लिए किसी प्राणी की हत्या करना मनुष्यता कदापि नहीं हो सकती। इसके अतिरिक्त एक अवधारणा यदि भी है कि शाकाहारियों में मासूमियत और बीमारियों से लड़ने की क्षमता ज़्यादा होती है। नैतिक, स्वास्थ्य, पर्यावरण, धार्मिक, राजनीतिक, सांस्कृतिक, सौंदर्य, आर्थिक, या अन्य कारणों से शाकाहार को अपनाया जा सकता है; और अनेक शाकाहारी आहार हैं। एक लैक्टो-शाकाहारी आहार में दुग्ध उत्पाद शामिल हैं लेकिन अंडे नहीं, एक ओवो-शाकाहारी के आहार में अंडे शामिल होते हैं लेकिन गोशाला उत्पाद नहीं और एक ओवो-लैक्टो शाकाहारी के आहार में अंडे और दुग्ध उत्पाद दोनों शामिल हैं। एक वेगन अर्थात अतिशुद्ध शाकाहारी आहार में कोई भी प्राणी उत्पाद शामिल नहीं हैं, जैसे कि दुग्ध उत्पाद, अंडे और सामान्यतः शहद। अनेक वेगन प्राणी-व्युत्पन्न किसी अन्य उत्पादों से भी दूर रहने की चेष्टा करते हैं, जैसे कि कपड़े और सौंदर्य प्रसाधन। अर्द्ध-शाकाहारी भोजन में बड़े पैमाने पर शाकाहारी खाद्य पदार्थ हुआ करते हैं, लेकिन उनमें मछली या अंडे शामिल हो सकते हैं, या यदा-कदा कोई अन्य मांस भी हो सकता है। एक पेसेटेरियन आहार में मछली होती है, मगर मांस नहीं। जिनके भोजन में मछली और अंडे-मुर्गे होते हैं वे "मांस" को स्तनपायी के गोश्त के रूप में परिभाषित कर सकते हैं और खुद की पहचान शाकाहार के रूप में कर सकते हैं। हालाँकि, शाकाहारी सोसाइटी जैसे शाकाहारी समूह का कहना है कि जिस भोजन में मछली और पोल्ट्री उत्पाद शामिल हों, वो शाकाहारी नहीं है, क्योंकि मछली और पक्षी भी प्राणी हैं।शाकाहारी मछली नहीं खाते हैं, शाकाहारी सोसाइटी, 2 मई 2010 को पुनःप्राप्त.

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सामाजिक संविदा

सामाजिक संविदा (Social contract) कहने से प्राय: दो अर्थों का बोध होता है। प्रथमत: सामाजिक संविदा-विशेष, जिसके अनुसार प्राकृतिक अवस्था में रहने वाले कुछ व्यक्तियों ने संगठित समाज में प्रविष्ट होने के लिए आपस में संविदा या ठहराव किया, अत: यह राज्य की उत्पत्ति का सिद्धांत है। दूसररे को सरकारी-संविदा कह सकते हैं। इस संविदा या ठहराव का राज्य की उत्पत्ति से कोई संबंध नहीं वरन् राज्य के अस्तित्व की पूर्व कल्पना कर यह उन मान्यताओं का विवेचन करता है जिन पर उस राज्य का शासन प्रबंध चले। ऐतिहासिक विकास में संविदा के इन दोनों रूपों का तार्किक क्रम सामाजिक संविदा की चर्चा बाद में शुरू हुई। परंतु जब संविदा के आधार पर ही समस्त राजनीति शास्त्र का विवेचन प्रारंभ हुआ तब इन दोनों प्रकार की संविदाओं का प्रयोग किया जाने लगा - सामाजिक संविदा का राज्य की उत्पत्ति के लिए तथा सरकारी संविदा का उसकी सरकार को नियमित करने के लिए। .

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सिनिक सम्प्रदाय

एंतिस्थिनीज़ सिनिक (Cynicism) एक यूनानी दर्शन संप्रदाय, जो समाज के प्रति उपेक्षा तथा व्यक्तिगत जीवन के प्रति निषेधात्मक दृष्टि के लिए प्रसिद्ध है। इस संप्रदाय का संस्थापक एंतिस्थिनीज़ (४४५-३६५ ई. पू.) था। पहले वह सोफ़िस्त था। बाद में सुकरात के स्वतंत्र विचारों, परहितचिंतन तथा आत्मत्याग से प्रभावित होकर, वह उसे अपना गुरु मानने लगा। यूनान के जनतंत्र ने सुकरात को जब प्राण दंड (३९९ ई. पू.) दे दिया, तो एंतिस्थिनीज़ को व्यक्ति पर समाज की प्रभुता के औचित्य पर, फिर से विचार देने के लिए तैयार न था कि सुकरात के समान आत्मत्यागी व्यक्ति को प्राणदंड दे सके। अपने उद्देश्य की पूर्ति के लिए, उसने "प्रकृति की ओर चलो" का नारा लगाया। उस प्राकृतिक जीवन की ओर संकेत किया, जिसमें प्रत्येक मनुष्य अपने आप का स्वामी था। कोई किसी का दास न था। उस जीवन को अपनाने के लिए, धन-दौलत, सम्मान आदि से विरक्त होने की आवश्यकता थी। एंतिस्थिनीज़ ने इसे सहर्ष स्वीकार किया। किंतु, इस प्रकार के जीवन का समर्थन करने में वह शिक्षा, संस्कार, अभिवृद्धि आदि के अर्थों को लुप्त नहीं होने देना चाहता था। इसलिए, उससे मानवीय जीवन की अभिवृद्धि की नैतिक व्याख्या की। वह सुकरात से प्रभावित था। सुकरात ने ज्ञान और नैतिक आचरण में कारण-कार्य-संबंध स्थापित किया था। इस सुकरातीय आदर्शों को दुहराते हुए, एंतिस्थिनीज़ ने यह दिखाने का प्रयत्न किया कि शुभों के पुनर्मूल्यांगन में बुद्धि की अभिव्यक्ति होती है, आँख मूँदकर बँधी हुई लकीरों पर चलते रहने में नहीं। बुद्धिमान व्यक्ति समाज के अधिकांश व्यक्तियों द्वारा स्वीकृत अयुक्त मूल्यांकन को समय-समय पर ठीक करता रहता है। अपने विचारों के समर्थन के विभिन्न एंतिस्थिनीज़ ने सैद्धांतिक पीठिका भी तैयार की थी। अफलातून ने "सामान्य' की निरपेक्ष सत्ता का समर्थन किया था और व्यक्ति के सत्य को "सामान्य' का भाग बताया था। एंतिस्थिनीज़ ने अफलातून की इस तत्वविद्या का विरोध किया। उसने यह दिखाया कि "सामान्य' की कोई स्वतंत्र सत्ता नहीं। अनेक व्यक्तियों में व्याप्त होने से किसी तत्व को "सामान्य' माना जाता है। व्यक्तियों से पृथक्‌ उसका कोई अस्तित्व नहीं। इस प्रकार, अफलातून के सामान्यतावाद (यूनीवर्सलिज्म) के विरुद्ध एंतिस्थिनीज़ ने "नामवाद' (नामिनलिज्म) की स्थापना की। यहाँ तक उसने "गुणकथक पर निर्भर परिभाषा' का खंडन किया। वह प्राय: वस्तु को विशिष्ट वस्तु अथवा व्यक्ति मानता था। व्यक्ति निर्णय वाक्यों के उद्देश्य बनते हैं। परिभाषा भी एक प्रकार का निर्णय वाक्य है। किंतु, सामान्य गुण किसी विशिष्ट वस्तु का विघन नहीं हो सकता। इस सैद्धांतिक पीठिका पर, एंतिस्थिनीज़ ने व्यक्तिवादी दर्शन का प्रारंभ किया जिसके अनुसार बुद्धिमान (नैतिक) व्यक्ति समाज का सदस्य नहीं, आलोचक हो सकता है। एंतिस्थिनीज़ के विचारों को आगे बढ़ाने का श्रेय उसके शिरो दिओजिनिस को दिया जाता है। वह कहता था, "मैं समाज की कुरीतियों पर भौंकने वाला कुत्ता हूँ; मेरा काम प्रचलित मूल्यों में उचित मान निर्धारित करना है' इन्हीं दोनों के साथ सिनिक संप्रदाय का अंत नहीं हुआ। उनकी परंपरा यूनानी दर्शन के अंत तक चलती रही। सिनिक समाजविरोधी न थे। उनके विचार से समाज को उचित मार्ग पर चलाने के लिए कुछ सचेत तथा निष्पक्ष समीक्षकों की आवश्यकता थी, जो स्वीकृत मूल्यों में समय-समय पर संशोधन करते रहें। किंतु, ऐसे समीक्षकों के लिए, वे बौद्धिक विकास एवं नैतिक आचरण के साथ, निस्पृहता तथा समाज से अलगाव की आवश्यकता को समझते थे। अपना कार्य उचित रूप से कर सकने के लिए, सिनिक दार्शनिकों ने विशेष प्रकार का रहन-सहन अपनाया था। वे अच्छे घरों की, स्वादिष्ट भोजन और सुखद वस्त्रों की आवश्यकता नहीं समझते थे। कहा जाता है, दिओजिनिस ने किसी पुरानी नाँद में अपना जीवन व्यतीत किया। वही उसका घर था। सुकरात के लिए कहा जाता है कि उसने कभी जूते नहीं पहने; सर्दी, गर्मी के अनुसार अपने वस्त्रों में परिवर्तन नहीं किया। किंतु वह एथेंस नगर में घूम-घूमकर, गलत काम करने वालों की आलोचना किया करता था। इस काम में व्यस्त रहने से वह कभी अपने पैत्रिक व्यवसाय में रुचि न ले सका। सिनिकों ने सुकुरात के जीवन से शिक्षा प्राप्त की थी। वे समझते थे कि अपनी समस्याओं का निराकरण करके ही समाज की चौकसी की जा सकती है। सिनिकों का उद्देश्य समाज का हित करना था; किंतु, जिस रूप में वे अपना दृष्टिकोण व्यक्त करते थे, उससे वे घोर व्यक्तिवादी तथा समाज के निंदक प्रतीत होते थे। सिनिक आदर्शों का संप्रदाय के रूप में समुचित निर्वाह अधिक समय तक संभव न था। अंतिम सिनिक परिस्थितियों के अनुसार जीवनयापन में सिनिक आदर्शों की पूर्ति मानने लगे थे। उत्तराधिकारियों के लिए प्रारंभिक उपदेष्टाओं की भाँति विरक्त एवं आत्मत्यागी होना संभव न था। इसीलिए, कालांतर में सिनिक का सामान्य अर्थ समाज की उपेक्षा करने वाला व्यक्ति रह गया। किंतु मानवीय चिंतन से सिनिक तत्व का सर्वथा अभाव न हो सका। समय-समय पर, ऐसे समाज के हितचिंतक होते रहे हैं, जो समाज की भ्रांतियों से क्षुब्ध होकर, एक अलगाव का भाव व्यक्त करते रहे हैं और ऐसी टीका टिप्पणियाँ करते रहे हैं, जिनसे उचित मार्ग का संकेत प्राप्त हो। स्वर्गीय बर्नार्ड शा को बीसवीं सदी का बहुत बड़ा सिनिक कहा जा सकता है। उनके साहित्य में व्याप्त सामाजिक आलोचना, प्राय: उपेक्षा की सतह तक पहुँच जाती है किंतु, उस उपेक्षावृत्ति में अंतर्हित सामाजिक हित कामना बिना खोजे हुए हम "सिनिक' के अर्थ तक नहीं पहुँच सकते। .

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सोफ़िस्त

आधुनिक प्रचलन में, सोफ़िस्त वह व्यक्ति है, जो दूसरों को अपने मत में करने के लिए युक्तियों, एवं व्याख्याओं का आविष्कार कर सके। किंतु यह "सोफ़िस्त" का मूल अर्थ नहीं है। प्राचीन यूनानी दर्शनकाल में, ज्ञानाश्रयी दार्शनिक ही सोफ़िस्त थे। तब "फ़िलॉसफ़ॉस" का प्रचलन न था। ईसा पूर्व पाँचवीं तथा चौथी शताब्दियों में यूनान के कुछ सीमावर्ती दार्शनिकों ने सांस्कृतिक विचारों के विरुद्ध आंदोलन किया। एथेंस नगर प्राचीन यूनानी संस्कृति का केंद्र था। वहाँ इस आंदोलन की हँसी उड़ाई गई। अफलातून (प्लेटो) के कुछ संवादों के नाम सोफ़िस्त कहे जानेवाले दार्शनिकों के नामों पर हैं। उनमें सुकरात और प्रमुख सोफ़िस्तों के बीच विवाद प्रस्तुत करते हुए अंत में सोफ़िस्तों को निरुतर करा दिया गया है। सुकरात के आत्मत्याग से यूनान में उसका सम्मान इतना अधिक हो गया था कि सुकरात को सोफिस्त आंदोलन का विरोधी समझकर, परंपरा ने "सोफ़िस्त" शब्द अपमानसूचक मान लिया। .

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ईसप

ईसप (६२० ईसा पूर्व – ५६४ ईसा पूर्व) प्राचीन एथेंस के कहानीकार थे। ये कई कहनियों के रचनाकार माने जाते हैं। इन कहनियों को एसोप की कहनिया या अंग्रेजी में ईसप फब्लेस (Aesop's Fables) के नाम से जाना जाता हैं ईसप जनप्रिय नीतिकथाकार। इनकी कथाओं के पात्र मनुष्य की अपेक्षा पशु पक्षी अधिक हैं। इस प्रकार की कथाओं को "बीस्ट फ़ेबुल्स" कहा जाता है। परंतु ईसप नाम का कोई व्यक्ति कभी था, इस विषय में बहुत कुछ संदेह है। तथापि होरोदोतस एवं कतिपय अन्य लेखकों के साक्ष्य के अनुसार ईसप के जीवन की कथा इस प्रकार की थी: ई.पू.

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ईसप की दंतकथाएं

हार्टमन शेडेल द्वारा नूर्नबर्ग क्रॉनिकल में एसोप.यहां वह 15वीं सदी के जर्मन कपड़े पहने दिखाए जा रहे हैं ईसप की दंतकथाएं या ईसपिका दंतकथाओं का एक संग्रह है जिसका श्रेय 620 ईपू से 520 ईपू के बीच प्राचीन यूनान में रहने वाले एक गुलाम और कथक ईसप को जाता है। उसकी दंतकथाएं विश्व की कुछ सर्वाधिक प्रसिद्ध दंतकथाओं में से हैं। ये दंतकथाएं अजकल के बच्चों के लिए नैतिक शिक्षा का लोकप्रिय विकल्प बनी हुई हैं। ईसप की दंतकथाओं में शामिल कई कहनियां, जैसे लोमड़ी और अंगूर (जिससे “अंगूर खट्टे हैं” मुहावरा निकला).

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व्यावहारिकतावाद

प्रयोजनवाद या फलानुमेयप्रामाण्यवाद या व्यवहारवाद अंगरेजी के "प्रैगमैटिज़्म" (Pragmatism) का समानार्थवाची शब्द है और प्रैगमैटिज़्म शब्द यूनानी भाषा के 'Pragma' शब्द से बना है, जिसका अर्थ "क्रिया" या "कर्म" होता है। तदनुसार "फलानुमेयप्रामाण्यवाद" एक ऐसी विचारधारा है जो ज्ञान के सभी क्षेत्रों में उसके क्रियात्मक प्रभाव या फल को एक अत्यंत ही महत्वपूर्ण स्थान देती है। इसके अनुसार हमारी सभी वस्तुविषयक धारणाएँ उनके संभव व्यावहारिक परिणामों की ही धारणाएँ होती हैं। अत: किसी भी बात या विचार को सही सही समझने के लिए उसके व्यावहारिक परिणामों की परीक्षा करना आवश्यक है। प्रयोजनवाद एक नवीनतम् दार्शनिक विचारधारा है। वर्तमान युग में दर्शन एवं शिक्षा के विभिन्न विचारधाराओं में इस विचारधारा को सबसे अधिक मान्यता प्राप्त है। यथार्थवाद ही एक ऐसी विचारधारा है जिसका बीजारोपण मानव-मस्तिष्क में अति प्राचीन काल में ही हो गया था। यथार्थवाद किसी एक सुगठित दार्शनिक विचारधारा का नाम न होकर उन सभी विचारों का प्रतिनिधित्व करता है जो यह मानते हैं कि वस्तु का अस्तित्व स्वतंत्र रूप से है। आदर्शवादी यह मानता है कि ‘वस्तु’ का अस्तित्व हमारे ज्ञान पर निर्भर करता है। यदि यह विचार सही है तो वस्तु की कोई स्थिति नहीं है। इसके ठीक विपरीत यथार्थवादी मानते हैं कि वस्तु का स्वतंत्र अस्तित्व है चाहे वह हमारे विचारों में हो अथवा नहीं। वस्तु तथा उससे सम्बन्धित ज्ञान दोनों पृथक-पृथक सत्तायें है। संसार में अनेक ऐसी वस्तुयें हैं जिनके सम्बन्ध में हमें जानकारी नहीं है परन्तु इसका अर्थ यह नहीं है कि वे अस्तित्व में है ही नहीं। कहने का तात्पर्य यह है कि वस्तु की स्वतंत्र स्थिति है। हमारा ज्ञान हमको उसकी स्थिति से अवगत कराता है परन्तु उसके बारे में हमारा ज्ञान न होने से उसका अस्तित्व नष्ट नहीं हो जाता। वैसे ज्ञान प्राप्ति के साधन के विषय में यथार्थवादी, प्रयोजनवाद के समान वैज्ञानिक विधि को ही सर्वोत्तम विधि मानता है और निगमन विधि का आश्रय लेता है। .

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व्यवहार प्रक्रिया

सांसारिक उद्दीपनों की टक्कर खाकर सजीव प्राणी (Organisms) अपना अस्तित्व बनाए रखने के निमित्त कई प्रकार की प्रतिक्रियाएँ करता है। उसके व्यवहार को देखकर हम प्राय: अनुमान लगाते हैं कि वह किस उद्दीपक (स्टिमुलस) या परिस्थिति विशेष के लगाव से ऐसी प्रतिक्रिया करता है। जब एक चिड़िया पेड़ की शाखा या भूमि पर चोंच मारती है, तो हम झट समझ जाते हैं कि वह कोई अन्न या कीट आदि खा रही है। जब हम उसे चोंच में तिनका लेकर उड़ते देखते हैं, तो तुरंत अनुमान लगाते हैं कि वह नीड़ (घोंसला) बना रही है। इसी प्रकार मानवी शारीरिक व्यवहार से उसके मनोरथ तथा स्वभाव आदि का भी पता लगता है। .

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खनिज विज्ञान

खनिज विज्ञान (अंग्रेज़ी:मिनरलॉजी) भूविज्ञान की एक शाखा होती है। इसमें खनिजों के भौतिक और रासायनिक गुणों का अध्ययन किया जाता है। विज्ञान की इस शाखा के अंतर्गत खनिजों के निर्माण, बनावट, वर्गीकरण, उनके पाए जाने के भौगोलिक स्थानों और उनके गुणों को भी शामिल किया गया है। इसके माध्यम से ही खनिजों के प्रयोग और उपयोग का भी अध्ययन इसी में किया जाता है। विज्ञान की अन्य शाखाओं की भांति ही इसकी उत्पत्ति भी कई हजार वर्ष पूर्व हुई थी। वर्तमान खनिज विज्ञान का क्षेत्र, कई दूसरी शाखाओं जैसे, जीव विज्ञान और रासायनिकी तक विस्तृत हो गया है। यूनानी दार्शनिक सुकरात ने सबसे पहले खनिजों की उत्पत्ति और उनके गुणों को सिद्धांत रूप में प्रतुत किया था, हालांकि सुकरात और उनके समकालीन विचारक बाद में गलत सिद्ध हुए लेकिन उस समय के अनुसार उनके सिद्धांत नए और आधुनिक थे। किन्तु ये कहना भी अतिश्योक्ति न होगा कि उनकी अवधारणाओं के कारण ही खनिज विकास की जटिलताओं को सुलझाने में सहयोग मिला, जिस कारण आज उसके आधुनिक रूप से विज्ञान समृद्ध है। १६वीं शताब्दी के बाद जर्मन वैज्ञानिक जॉर्जियस एग्रिकोला के अथक प्रयासों के चलते खनिज विज्ञान ने आधुनिक रूप लेना शुरू किया। .

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गुफ़ा की कथा

प्लेटो के गुफ़ा कथा पर सन् १६०४ में बनी एक तस्वीर गुफ़ा कथा का एक और चित्रण गुफ़ा की सीख (अंग्रेज़ी: Allegory of the Cave), जिसे प्लेटो की गुफ़ा और गुफ़ा की रूपक कथा भी कहा जाता है, एक सिद्धांत दर्शाने वाली रूपक कथा है जिसे यूनानी दार्शनिक प्लेटो (अफ़लातून) ने अपने प्रसिद्ध रिपब्लिक नामक ग्रन्थ में 'हमारे प्राकृतिक ज्ञान और अज्ञान' पर प्रकाश डालने के लिए सम्मिलित किया था। यह कथा प्लेटो के मित्र सुकरात और प्लेटो को भाई ग्लाउकोन के बीच हुई बातचीत के रूप में लिखी गई है।, Benjamin Rand (editor), pp.

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आदर्शवाद

विचारवाद या आदर्शवाद या प्रत्ययवाद (Idealism; Ideal.

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इमानुएल काण्ट

इमानुएल कांट (1724-1804) जर्मन वैज्ञानिक, नीतिशास्त्री एवं दार्शनिक थे। उसका वैज्ञानिक मत "कांट-लाप्लास परिकल्पना" (हाइपॉथेसिस) के नाम से विख्यात है। उक्त परिकल्पना के अनुसार संतप्त वाष्पराशि नेबुला से सौरमंडल उत्पन्न हुआ। कांट का नैतिक मत "नैतिक शुद्धता" (मॉरल प्योरिज्म) का सिद्धांत, "कर्तव्य के लिए कर्तव्य" का सिद्धांत अथवा "कठोरतावाद" (रिगॉरिज्म) कहा जाता है। उसका दार्शनिक मत "आलोचनात्मक दर्शन" (क्रिटिकल फ़िलॉसफ़ी) के नाम से प्रसिद्ध है। इमानुएल कांट अपने इस प्रचार से प्रसिद्ध हुये कि मनुष्य को ऐसे कर्म और कथन करने चाहियें जो अगर सभी करें तो वे मनुष्यता के लिये अच्छे हों। .

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काण्टीयवाद

इमानुएल कांट (1724-1804) के दर्शन, को "आलोचनात्मक दर्शन" (क्रिटिसिज्म), "परतावाद" (ट्रैसेंडेंटलिज्म), अथवा "परतावादी प्रत्ययवाद" (ट्रैसेंडेंटल आइडियलिज्म) कहा जाता है। इस दर्शन में ज्ञानशक्तियों की समीक्षा प्रस्तुत की गई है। साथ ही, 17वीं और 18वीं शताब्दियों के इंद्रियवाद (सेंसेशनलिज्म) एवं बुद्धिवाद (इंटेलेक्चुअलिज्म) की समीक्षा है। विचारसामग्री के अर्जन में इद्रियों की माध्यमिकता की स्वीकृति में कांट इंद्रियवादियों से सहमत था; उक्त सामग्री को विचारों में परिणत करने में बुद्धि की अनिवार्यता का समर्थन करने में वह बुद्धिवादियों से सहमत था; किंतु वह एक का निराकरण कर दूसरे का समर्थन करने में किसी से सहमत न था। कांट के मत में बुद्धि और इंद्रियाँ ज्ञान संबंधी दो भिन्न संस्थान नहीं हैं, बल्कि एक ही सस्थांन के दो विभिन्न अवयव हैं। कांट के दर्शन को "परतावाद" कहने का आशय उसे इंद्रियवाद तथा बुद्धिवाद से "पर" तथा प्रत्येक दार्शनिक विवेचन के लिए आधारभूत मानना है। उसके दर्शन में बुद्धि द्वारा ज्ञेय विषयों का नहीं, स्वयं बुद्धि का परीक्षण किया गया है और बहुत ही विशद रूप में। यूरोपीय दर्शन के विस्तृत इतिहास में, प्रथम और अंतिम बार, कांट के माध्यम से, ज्ञानशक्तियों ने स्वयं की व्याख्या इतने विस्तार से प्रस्तुत की है। .

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काव्यशास्त्र

काव्यशास्त्र काव्य और साहित्य का दर्शन तथा विज्ञान है। यह काव्यकृतियों के विश्लेषण के आधार पर समय-समय पर उद्भावित सिद्धांतों की ज्ञानराशि है। युगानुरूप परिस्थितियों के अनुसार काव्य और साहित्य का कथ्य और शिल्प बदलता रहता है; फलत: काव्यशास्त्रीय सिद्धांतों में भी निरंतर परिवर्तन होता रहा है। भारत में भरत के सिद्धांतों से लेकर आज तक और पश्चिम में सुकरात और उसके शिष्य प्लेटो से लेकर अद्यतन "नवआलोचना' (नियो-क्रिटिसिज्म़) तक के सिद्धांतों के ऐतिहासिक अनुशीलन से यह बात साफ हो जाती है। भारत में काव्य नाटकादि कृतियों को 'लक्ष्य ग्रंथ' तथा सैद्धांतिक ग्रंथों को 'लक्षण ग्रंथ' कहा जाता है। ये लक्षण ग्रंथ सदा लक्ष्य ग्रंथ के पश्चाद्भावनी तथा अनुगामी है और महान्‌ कवि इनकी लीक को चुनौती देते देखे जाते हैं। काव्यशास्त्र के लिए पुराने नाम 'साहित्यशास्त्र' तथा 'अलंकारशास्त्र' हैं और साहित्य के व्यापक रचनात्मक वाङमय को समेटने पर इसे 'समीक्षाशास्त्र' भी कहा जाने लगा। मूलत: काव्यशास्त्रीय चिंतन शब्दकाव्य (महाकाव्य एवं मुक्तक) तथा दृश्यकाव्य (नाटक) के ही सम्बंध में सिद्धांत स्थिर करता देखा जाता है। अरस्तू के "पोयटिक्स" में कामेडी, ट्रैजेडी, तथा एपिक की समीक्षात्मक कसौटी का आकलन है और भरत का नाट्यशास्त्र केवल रूपक या दृश्यकाव्य की ही समीक्षा के सिद्धांत प्रस्तुत करता है। भारत और पश्चिम में यह चिंतन ई.पू.

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अन्तिस्ठेनेस

अन्तिस्ठेनेस युन्नानी दार्शनिक था। ये सुकरात के शिष्य थे। .

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अरस्तु

अरस्तु अरस्तु (384 ईपू – 322 ईपू) यूनानी दार्शनिक थे। वे प्लेटो के शिष्य व सिकंदर के गुरु थे। उनका जन्म स्टेगेरिया नामक नगर में हुआ था ।  अरस्तु ने भौतिकी, आध्यात्म, कविता, नाटक, संगीत, तर्कशास्त्र, राजनीति शास्त्र, नीतिशास्त्र, जीव विज्ञान सहित कई विषयों पर रचना की। अरस्तु ने अपने गुरु प्लेटो के कार्य को आगे बढ़ाया। प्लेटो, सुकरात और अरस्तु पश्चिमी दर्शनशास्त्र के सबसे महान दार्शनिकों में एक थे।  उन्होंने पश्चिमी दर्शनशास्त्र पर पहली व्यापक रचना की, जिसमें नीति, तर्क, विज्ञान, राजनीति और आध्यात्म का मेलजोल था।  भौतिक विज्ञान पर अरस्तु के विचार ने मध्ययुगीन शिक्षा पर व्यापक प्रभाव डाला और इसका प्रभाव पुनर्जागरण पर भी पड़ा।  अंतिम रूप से न्यूटन के भौतिकवाद ने इसकी जगह ले लिया। जीव विज्ञान उनके कुछ संकल्पनाओं की पुष्टि उन्नीसवीं सदी में हुई।  उनके तर्कशास्त्र आज भी प्रासांगिक हैं।  उनकी आध्यात्मिक रचनाओं ने मध्ययुग में इस्लामिक और यहूदी विचारधारा को प्रभावित किया और वे आज भी क्रिश्चियन, खासकर रोमन कैथोलिक चर्च को प्रभावित कर रही हैं।  उनके दर्शन आज भी उच्च कक्षाओं में पढ़ाये जाते हैं।  अरस्तु ने अनेक रचनाएं की थी, जिसमें कई नष्ट हो गई। अरस्तु का राजनीति पर प्रसिद्ध ग्रंथ पोलिटिक्स है। .

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अरिस्तिप्पुस

अरिस्तिप्पुस युन्नानी दार्शनिक था। ये सुकरात के शिष्य थे। .

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