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सप्तर्षि तारामंडल

सूची सप्तर्षि तारामंडल

सप्तर्षि मंडल अँधेरी रात में आकाश में सप्तर्षि तारामंडल के सात तारे धार्मिक ग्रंथों में पृथ्वी के ऊपर के सभी लोक सप्तर्षि तारामंडल पृथ्वी के उत्तरी गोलार्ध (हेमीस्फ़ेयर) के आकाश में रात्रि में दिखने वाला एक तारामंडल है। इसे फाल्गुन-चैत महीने से श्रावण-भाद्र महीने तक आकाश में सात तारों के समूह के रूप में देखा जा सकता है। इसमें चार तारे चौकोर तथा तीन तिरछी रेखा में रहते हैं। इन तारों को काल्पनिक रेखाओं से मिलाने पर एक प्रश्न चिन्ह का आकार प्रतीत होता है। इन तारों के नाम प्राचीन काल के सात ऋषियों के नाम पर रखे गए हैं। ये क्रमशः क्रतु, पुलह, पुलस्त्य, अत्रि, अंगिरस, वाशिष्ठ तथा मारीचि हैं। इसे एक पतंग का आकार भी माना जा सकता है जो कि आकाश में डोर के साथ उड़ रही हो। यदि आगे के दो तारों को जोड़ने वाली पंक्ति को सीधे उत्तर दिशा में बढ़ायें तो यह ध्रुव तारे पर पहुंचती है। दूसरी शताब्दी ईसवी में टॉलमी ने जिन 48 तारामंडलों की सूची बनाई थी यह तारामंडल उनमें भी शामिल था। .

22 संबंधों: निहारिका, नज़ीर अहमद देहलवी, नक्षत्र मंडल, परिध्रुवी तारा, पुलस्त्य, पुलस्त्य तारा, पुलह तारा, मारीचि तारा, मिरात-उल-उरूस, मैसियर 81, लालांड २११८५ तारा, सप्तर्षि, वशिष्ठ और अरुंधती तारे, विश्वकद्रु तारामंडल, खगोलशास्त्र से सम्बन्धित शब्दावली, कार्तिकेय, क्रतु तारा, कृत्तिका, अत्रि तारा, अरुंधती, अंगिरस तारा, उल्लू नीहारिका

निहारिका

चील नॅब्युला का वह भाग जिसे "सृजन के स्तम्भ" कहा जाता है क्योंकि यहाँ बहुत से तारे जन्म ले रहे हैं। त्रिकोणीय उत्सर्जन गैरेन नीहारिका (द ट्रेंगुलम एमीशन गैरन नॅब्युला) ''NGC 604'' नासा द्वारा जारी क्रैब नॅब्युला (कर्कट नीहारिका) वीडियो निहारिका या नॅब्युला अंतरतारकीय माध्यम (इन्टरस्टॅलर स्पेस) में स्थित ऐसे अंतरतारकीय बादल को कहते हैं जिसमें धूल, हाइड्रोजन गैस, हीलियम गैस और अन्य आयनीकृत (आयोनाइज़्ड) प्लाज़्मा गैसे उपस्थित हों। पुराने जमाने में "निहारिका" खगोल में दिखने वाली किसी भी विस्तृत वस्तु को कहते थे। आकाशगंगा (हमारी गैलेक्सी) से परे कि किसी भी गैलेक्सी को नीहारिका ही कहा जाता था। बाद में जब एडविन हबल के अनुसन्धान से यह ज्ञात हुआ कि यह गैलेक्सियाँ हैं, तो नाम बदल दिए गए। उदाहरण के लिए एंड्रोमेडा गैलेक्सी (देवयानी मन्दाकिनी) को पहले एण्ड्रोमेडा नॅब्युला के नाम से जाना जाता था। नीहारिकाओं में अक्सर तारे और ग्रहीय मण्डल जन्म लेते हैं, जैसे कि चील नीहारिका में देखा गया है। यह नीहारिका नासा द्वारा खींचे गए "पिलर्स ऑफ़ क्रियेशन" अर्थात् "सृष्टि के स्तम्भ" नामक अति-प्रसिद्ध चित्र में दर्शाई गई है। इन क्षेत्रों में गैस, धूल और अन्य सामग्री की संरचनाएं परस्पर "एक साथ जुड़कर" बड़े ढेरों की रचना करती हैं, जो अन्य पदार्थों को आकर्षित करता है एवं क्रमशः सितारों का गठन करने योग्य पर्याप्त बड़ा आकार ले लेता हैं। माना जाता है कि शेष सामग्री ग्रहों एवं ग्रह प्रणाली की अन्य वस्तुओं का गठन करती है। .

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नज़ीर अहमद देहलवी

नज़ीर अहमद देहलवी (१८३०-१९१२), जिन्हें औमतौर पर डिप्टी नज़ीर अहमद (उर्दू) बुलाया जाता था, १९वीं सदी के एक विख्यात भारतीय उर्दू-लेखक, विद्वान और सामाजिक व धार्मिक सुधारक थे। उनकी लिखी कुछ उपन्यास-शैली की किताबें, जैसे कि 'मिरात-उल-उरूस' और 'बिनात-उल-नाश' और बच्चों के लिए लिखी पुस्तकें, जैसे कि 'क़िस्से-कहानियाँ' और 'ज़ालिम भेड़िया', आज तक उत्तर भारत व पाकिस्तान में पढ़ी जाती हैं। .

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नक्षत्र मंडल

पृथ्वी के ऊपर के सभी लोक यह वर्णन हिन्दू धर्म के विष्णु पुराण के अनुसार वर्णित है।हिन्दू धर्म में विष्णु पुराण के अनुसार, कृतक त्रैलोक्य -- भूः, भुवः और स्वः – ये तीनों लोक मिलकर कृतक त्रैलोक्य कहलाते हैं। .

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परिध्रुवी तारा

पृथ्वी के उत्तरी भाग में नज़र आने वाले कुछ परिध्रुवी तारों का आकाश में मार्ग - ध्रुव तारा बीच में है और उसके मार्ग का चक्र बहुत ही छोटा है कैमरे के लेंस को पूरी रात खुला रख के लिया गया चित्र जिसमें बहुत से तारों के मार्ग साफ़ नज़र आ रहे हैं पृथ्वी पर किसी अक्षांश रेखा के लिए परिध्रुवी तारा ऐसे तारे को बोलते हैं जो उस रेखा पर स्थित देखने वाले के लिए कभी भी क्षितिज से नीचे अस्त न हो। यह केवल ऐसे तारों के साथ होता है को खगोलीय गोले के किसी ध्रुव के पास होते हैं। अगर किसी स्थान के लिए कोई तारा परिध्रुवी हो तो वह उस स्थान से हर रात को पूरे रात्रिकाल के लिए नज़र आता है। वास्तव में अगर किसी तरह सुबह के समय सूरज की रोशनी को रोका जा सके तो वह तारा सुबह भी नज़र आए (यानि चौबीसों घंटे दृष्टिगत हो)। .

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पुलस्त्य

पुलस्त्य या पुलस्ति (सिंहली: පුලස්ති/पुलस्ति, थाई: ท้าวจตุรพักตร์) हिन्दू पौराणिक कथाओं के एक पात्र हैं। ये कथाएँ इन्हें ब्रह्मा के दस मानस पुत्रों में से एक बताती हैं। ये इन्हें प्रथम मन्वन्तर के सात सप्तर्षियों में से एक भी बताती हैं। विष्णुपुराण के अनुसार ये ऋषि उन लोगों में से एक हैं जिनके माध्यम से कुछ पुराण आदि मानवजाति को प्राप्त हुए। इसके अनुसार इन्होंने ब्रह्मा से विष्णु पुराण सुना था और उसे पराशर ऋषि को सुनाया, और इस तरह ये पुराण मानव जाति को प्राप्त हुआ। ये आदिपुराण का मनुष्यों में प्रचार करने का श्रेय भी इन्हें देता है। हिन्दू धर्म ग्रंथ पुलस्त्य के वंश के बारे में ये कहते हैं (यह सारांश है): पुलस्त्य ऋषि के पुत्र हुए विश्रवा, कालान्तर में जिनके वंश में कुबेर एवं रावण आदि ने जन्म लिया तथा राक्षस जाति को आगे बढ़ाया। पुलस्त्य ऋषि का विवाह कर्दम ऋषि की नौ कन्याओं में से एक से हुआ जिनका नाम हविर्भू था। उनसे ऋषि के दो पुत्र उत्पन्न हुए -- महर्षि अगस्त्य एवं विश्रवा। विश्रवा की दो पत्नियाँ थीं - एक थी राक्षस सुमाली एवं राक्षसी ताड़का की पुत्री कैकसी, जिससे रावण, कुम्भकर्ण तथा विभीषण उत्पन्न हुए, तथा दूसरी थी इलाविडा- जिसके कुबेर उत्पन्न हुए। इलाविडा चक्रवर्ती सम्राट तृणबिन्दु की अलामबुशा नामक अपसरा से उत्पन्न पुत्री थी। ये वैवस्वत मनु श्राद्धदेव के वंशावली की कड़ी थे। इन्होंने अपने एक यज्ञ में केवल स्वर्ण पात्रों का ही उपयोग किया था एवं ब्रह्मा को इतना दान दिया कि वे उसे ले जा भी न पाये और काफ़ी कुछ वहीं छोड़ गये। उसी बचे हुए स्वर्ण से, जो कालान्तर में युधिष्ठिर को मिला, उन्होंने भी यज्ञ किया। तृणबिन्दु मारुत की वंशावली में आते थे। तुलसीदास ने रावण के संबंध में उल्लेख करते हुए लिखा है-: उत्तम कुल पुलस्त्य कर गाती। विश्रवा के दो पत्नियाँ थीं, बड़ी से कुबेर हुए और छोटी से रावण तथा उसके दो भाई। .

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पुलस्त्य तारा

सप्तर्षि तारामंडल में पुलस्त्य तारे (γ UMa) का स्थान पुलस्त्य, जिसका बायर नामांकन "गामा अर्से मॅजोरिस" (γ UMa या γ Ursae Majoris) है, सप्तर्षि तारामंडल का छठा सबसे रोशन तारा और पृथ्वी से दिखने वाले सभी तारों में से ८६वाँ सब से रोशन तारा है। यह हमसे क़रीब ८४ प्रकाश-वर्ष की दूरी पर स्थित है और पृथ्वी से इसका औसत सापेक्ष कांतिमान (यानि चमक का मैग्निट्यूड) +२.४१ है। इस तारे का नाम महर्षि पुलस्त्य पर रखा गया है। .

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पुलह तारा

सप्तर्षि तारामंडल में पुलह तारे (β UMa) का स्थान पुलह, जिसका बायर नामांकन "बेटा अर्से मॅजोरिस" (β UMa या β Ursae Majoris) है, सप्तर्षि तारामंडल का पाँचवा सबसे रोशन तारा और पृथ्वी से दिखने वाले सभी तारों में से ७८वाँ सब से रोशन तारा है। यह हमसे क़रीब ७९ प्रकाश-वर्ष की दूरी पर स्थित है और पृथ्वी से इसका औसत सापेक्ष कांतिमान (यानि चमक का मैग्निट्यूड) +२.३४ है। इस तारे का नाम महर्षि पुलह पर रखा गया है। .

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मारीचि तारा

सप्तर्षि तारामंडल में मारीचि तारे (η UMa) का स्थान मारीचि, जिसका बायर नामांकन "एटा अर्से मॅजोरिस" (η UMa या η Ursae Majoris) है, सप्तर्षि तारामंडल का दूसरा सबसे रोशन तारा और पृथ्वी से दिखने वाले सभी तारों में से ३८वाँ सब से रोशन तारा है। यह हमसे १०१ प्रकाश-वर्ष की दूरी पर स्थित है और पृथ्वी से इसका औसत सापेक्ष कांतिमान (यानि चमक का मैग्निट्यूड) १.८५ है। .

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मिरात-उल-उरूस

दुल्हन का आइना मिरात उल-उरूस (अर्थ: दुल्हन का आइना) नज़ीर अहमद देहलवी द्वारा लिखा गया और सन् १८६९ में प्रकाशित हुआ एक उर्दू उपन्यास है। यह उपन्यास भारतीय और मुस्लिम समाज में महिला शिक्षा को बढ़ावा देने वाले कुछ तत्वों के लिए प्रसिद्ध है और इससे प्रेरित होकर हिन्दी, पंजाबी, कश्मीरी और भारतीय उपमहाद्वीप की अन्य भाषाओं में भी इस विषय पर आधारित उपन्यास लिखे गए।, Meenakshi Mukherjee, Sahitya Akademi, 2002, ISBN 978-81-260-1342-5,...

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मैसियर 81

केन क्राफ़ॉर्ड द्वारा एम०81 मैसियर 81 (एन०जी०सी०3081 या बॉड की आकाशगंगा भी कहा जाता है) एक चक्रीय आकाशगंगा है जो कि सप्तर्षि तारामंडल से १,२ प्रकाश-साल से है। पृथ्वी के नज़दीक होने, इसके बड़े आकार और क्रियाशील आकाशीय नाभिक होने के कारण इसपर काफ़ी खोज की गई है। आकाशगंगा के बड़े आकार और चमकीले होने के कारण आकाश यात्रियाँ इसको देखने में काफ़ी रुचि होती है। .

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लालांड २११८५ तारा

लालांड २११८५ (Lalande 21185) सप्तर्षि तारामंडल में स्थित एक लाल बौना तारा है। यह हमसे ८.३१ प्रकाश वर्ष की दूरी पर है और पृथ्वी से इसका औसत सापेक्ष कांतिमान (यानि चमक का मैग्निट्यूड) ७.५२ है। इसके केवल दूरबीन से ही देखा जा सकता है। मित्र तारे के तीन तारों वाले मंडल, बारनर्ड के तारे और वुल्फ़ ३५९ तारे के बाद यह पृथ्वी का चौथा सबसे नज़दीकी पड़ोसी तारा है। खगोलशास्त्रीय अध्ययनों में इसे बीडी+३६ २१४७ (BD+36 2147), ग्लीज़ ४११ (Gliese 411) और एचडी ९५७३५ (HD 95735) के नामों से भी जाना जाता है। .

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सप्तर्षि

सप्तर्षि (सप्त + ऋषि) सात ऋषियों को कहते हैं जिनका उल्लेख वेद एवं अन्य हिन्दू ग्रन्थों में अनेकों बार हुआ है। .

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वशिष्ठ और अरुंधती तारे

वशिष्ठ और अरुंधती तारे सप्तर्षि तारामंडल में ध्यान से देखने पर वशिष्ठ के पास अरुंधती तारा धुंधला-सा नज़र आता है वशिष्ठ, जिसका बायर नामांकन "ज़ेटा अर्से मॅजोरिस" (ζ UMa या ζ Ursae Majoris) है, सप्तर्षि तारामंडल का चौथा सब से रोशन तारा है, जो पृथ्वी से दिखने वाले तारों में से ७०वाँ सब से रोशन तारा भी है। शक्तिशाली दूरबीन से देखने पर ज्ञात हुआ है कि यह वास्तव में ४ तारों का एक मंडल है। इसके बहुत पास इस से काफ़ी कम रोशनी वाला अरुंधती तारा (बायर नाम: ८० अर्से मॅजोरिस, 80 UMa) दिखता है जो स्वयं एक द्वितारा है। इन दोनों के मिलकर जो ६ तारे हैं वे एक दूसरे के गुरुत्वाकर्षण से बंधे हुए हैं और पृथ्वी से लगभग ८१ प्रकाश वर्ष की दूरी पर हैं। वशिष्ठ का चार-तारा मंडल और अरुंधती का द्वितारा एक दूसरे से अनुमानित १.१ प्रकाश वर्ष की दूरी रखते हैं। वशिष्ठ की पृथ्वी से देखा गया औसत सापेक्ष कांतिमान (यानि चमक का मैग्निट्यूड) +२.२३ है लेकिन इसके सबसे रोशन तारे की चमक +२.२७ मैग्निट्यूड है। ध्यान रहे कि मैग्निट्यूड एक उल्टा माप है और यह जितना अधिक हो तारा उतना ही कम रोशन लगता है। .

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विश्वकद्रु तारामंडल

विश्वकद्रु तारामंडल कोर करोली द्वितारा विश्वकद्रु या कैनीज़ विनैटिसाए (अंग्रेज़ी: Canes Venatici) खगोलीय गोले के उत्तरी भाग में स्थित एक छोटा-सा तारामंडल है। इसकी परिभाषा १७वी सदी में योहानॅस हॅवॅलियस (Johannes Hevelius) नामक जर्मन खगोलशास्त्री ने की थी। अंतर्राष्ट्रीय खगोलीय संघ द्वारा जारी की गई ८८ तारामंडलों की सूची में भी यह शामिल है। इस तारामंडल के तारे धुंधले होने से दूसरी शताब्दी ईसवी में टॉलमी ने अपनी ४८ तारामंडलों की सूची में इसे अलग स्थान देने के बजाए इसे आकाश में इसके पड़ोस में स्थित सप्तर्षि तारामंडल का ही भाग बना डाला था। .

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खगोलशास्त्र से सम्बन्धित शब्दावली

यह पृष्ठ खगोलशास्त्र की शब्दावली है। खगोलशास्त्र वह वैज्ञानिक अध्ययन है जिसका सबंध पृथ्वी के वातावरण के बाहर उत्पन्न होने वाले खगोलीय पिंडों और घटनाओं से होता है। .

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कार्तिकेय

कार्तिकेय या मुरुगन (तमिल: முருகன்), एक लोकप्रिय हिन्दु देव हैं और इनके अधिकतर भक्त तमिल हिन्दू हैं। इनकी पूजा मुख्यत: भारत के दक्षिणी राज्यों और विशेषकर तमिल नाडु में की जाती है इसके अतिरिक्त विश्व में जहाँ कहीं भी तमिल निवासी/प्रवासी रहते हैं जैसे कि श्रीलंका, मलेशिया, सिंगापुर आदि में भी यह पूजे जाते हैं। इनके छ: सबसे प्रसिद्ध मंदिर तमिल नाडु में स्थित हैं। तमिल इन्हें तमिल कडवुल यानि कि तमिलों के देवता कह कर संबोधित करते हैं। यह भारत के तमिल नाडु राज्य के रक्षक देव भी हैं। कार्तिकेय जी भगवान शिव और भगवती पार्वती के पुत्र हैं तथा सदैव बालक रूप ही रहते हैं। परंतु उनके इस बालक स्वरूप का भी एक रहस्य है। भगवान कार्तिकेय छ: बालकों के रूप में जन्मे थे तथा इनकी देखभाल कृतिका (सप्त ऋषि की पत्निया) ने की थी, इसीलिए उन्हें कार्तिकेय धातृ भी कहते हैं। .

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क्रतु तारा

सप्तर्षि तारामंडल में क्रतु तारे (α UMa) का स्थान क्रतु, जिसका बायर नामांकन "अल्फ़ा अर्से मॅजोरिस" (α UMa या α Ursae Majoris) है, सप्तर्षि तारामंडल का तीसरा सबसे रोशन तारा और पृथ्वी से दिखने वाले सभी तारों में से ४०वाँ सब से रोशन तारा है। यह हमसे १२४ प्रकाश-वर्ष की दूरी पर स्थित है और पृथ्वी से इसका औसत सापेक्ष कांतिमान (यानि चमक का मैग्निट्यूड) १.७९ है। यह वास्तव में एक बहु तारा मंडल है। .

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कृत्तिका

कृत्तिका वा कयबचिया एक नक्षत्र है। इसका लैटिन/अंग्रेजी में नाम Pleiades है। पृथ्वी से देखने पर पास-पास दिखने वाले कई तारों का इस समूह को भारतीय खगोलशास्त्र और हिन्दू धर्म में सप्त ऋषि की पत्नियां भी कहा गया है। कृत्तिका एक तारापुंज है जो आकाश में वृष राशि के समीप दिखाई पड़ता है। कोरी आँख से प्रथम दृष्टि डालने पर इस पुंज के तारे अस्पष्ट और एक दूसरे से मिले हुए तथा किचपिच दिखाई पड़ते हैं जिसके कारण बोलचाल की भाषा में इसे किचपिचिया कहते हैं। ध्यान से देखने पर इसमें छह तारे पृथक पृथक दिखाई पड़ते हैं। दूरदर्शक से देखने पर इसमें सैकड़ों तारे दिखाई देते हैं, जिनके बीच में नीहारिका (Nebula) की हलकी धुंध भी दिखाई पड़ती है। इस तारापुंज में ३०० से ५०० तक तारे होंगे जो ५० प्रकाशवर्ष के गोले में बिखरे हुए हैं। केंद्र में तारों का घनत्व अधिक है। चमकीले तारे भी केंद्र के ही पास हैं। कृत्तिका तारापुंज पृथ्वी से लगभग ५०० प्रकाशवर्ष दूर है। .

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अत्रि तारा

सप्तर्षि तारामंडल में अत्रि तारे (δ UMa) का स्थान अत्रि, जिसका बायर नामांकन "डॅल्टा अर्से मॅजोरिस" (δ UMa या δ Ursae Majoris) है, सप्तर्षि तारामंडल का सातवा सबसे रोशन तारा है। यह हमसे क़रीब ८१ प्रकाश-वर्ष की दूरी पर स्थित है और पृथ्वी से इसका औसत सापेक्ष कांतिमान (यानि चमक का मैग्निट्यूड) +३.३२ है। इस तारे का नाम महर्षि अत्रि पर रखा गया है। .

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अरुंधती

सन्ध्या ब्रह्मा की मानस पुत्री थी जो तपस्या के बल पर अगले जन्म में अरुन्धती के रूप में महर्षि वसिष्ठ की पत्‍‌नी बनी। वह तपस्या करने के लिये चन्द्रभाग पर्वत के बृहल्लोहित नामक सरोवर के पास सद्गुरु की खोज में घूम रही थी। सन्ध्या की जिज्ञासा देखकर महर्षि वसिष्ठ वहाँ प्रकट हुए और सन्ध्या से पूछा- कल्याणी! तुम इस घोर जंगल में कैसे विचर रही हो, तुम किसकी कन्या हो और क्या करना चाहती हो? सन्ध्या कहने लगी- भगवन्! मैं तपस्या करने के लिये इस सूने जंगल में आयी हूँ। अब तक मैं बहुत उद्विगन् हो रही थी कि कैसे तपस्या करूँ, मुझे तपस्या मार्ग मालूम नहीं है। परन्तु अब आपको देखकर मुझे बडी शान्ति मिली है। वसिष्ठ जी ने कहा- तुम एकमात्र परम ज्योतिस्वरूप, धर्म, अर्थ, काम एवं मोक्ष के दाता भगवान विष्णु की आराधना करके ही अपना अभीष्ट प्राप्त कर सकती हो। सूर्यमण्डल में शंख-चक्र-गदाधारी चतुर्भुज वनमाली भगवान विष्णु का ध्यान करके ॐ नमो वासुदेवाय ॐ इस मन्त्र का जप करो और मौन रहकर तपस्या करो। पहले छ: दिन तक कुछ भी भोजन मत करना, केवल तीसरे दिन रात्रि में एवं छठे दिन रात्रि में कुछ पत्ते खाकर जल पी लेना। उसके पश्चात् तीन दिन तक निर्जल उपवास करना और फिर रात्रि में भी पानी मत पीना। भगवान तुम पर प्रसन्न होंगे और शीघ्र ही तुम्हारी अभिलाषा पूर्ण करेंगे। इस प्रकार उपदेश करके महर्षि वसिष्ठ अन्तर्धान हो गये और वह भी तपस्या की पद्धति जानकर बडे आनन्द के साथ भगवान की पूजा करने लगी। इस प्रकार बराबर चार युग तक उसकी तपस्या चलती रही। भगवान् विष्णु उसकी भावना के अनुसार रूप धारण करके उसकी आँखों के सामने प्रकट हुए। गरुडपर सवार अपने प्रभु की मनोहर छवि देखकर वह सम्भ्रम के साथ उठ खडी हुई और क्या कहूँ? क्या करूँ? इस चिन्ता में पड गयी। उसकी स्तुति करने की इच्छा जानकर भगवान ने उसे दिव्य ज्ञान, दिव्य दृष्टि एवं दिव्य वाणी प्रदान की। अब वह भगवान की स्तुति करने लगी। स्तुति करते-करते वह भगवान के चरणों पर गिर पडी। भगवान को बडी दया आयी और उन्होंने अमृतवर्षिणी दृष्टि से उसे हृष्ट-पुष्ट कर दिया तथा वर माँगने को कहा। सन्ध्या ने कहा- भगवन्! यदि आप मुझ पर प्रसन्न हैं तो कृपा करके पहला वर तो यह दें कि संसार में पैदा होते ही किसी प्राणी के मन में काम के विकार का उदय न हो, दूसरा वर यह दीजिये कि मेरा पातिव्रत्य अखण्ड रहे और तीसरा यह कि मेरे भगवत्स्वरूप पति के अतिरिक्त और कहीं भी मेरी सकाम दृष्टि न हो। जो पुरुष मुझे सकाम दृष्टि से देखे वह पुरुषत्वहीन अर्थात नपुंसक हो जाये। भगवान ने कहा कि चार अवस्थाएँ होती हैं-बाल्य, कौमार्य, यौवन और बुढापा। इनमें तीसरी अवस्था अथवा दूसरी अवस्था के अन्त में लोगों में काम उत्पन्न होगा। तुम्हारी तपस्या के प्रभाव से आज मैंने यह मर्यादा बना दी कि पैदा होते ही कोई प्राणी कामयुक्त नहीं होगा। त्रिलोकी में तुम्हारे सतीत्व की ख्याति होगी अैार तुम्हारे पति के अतिरिक्त जो भी तुम्हें सकाम दृष्टि से देखेगा वह तुरन्त नपुंसक हो जायगा। तुम्हारे पति बडे भाग्यवान्, तपस्वी, सुन्दर और तुम्हारे साथ ही सात कल्पतक जीवित रहनेवाले होंगे। तुमने मुझसे जो वर माँगे थे वे दे दिये। अब जो तुम्हारे मन में बात है वह बताता हूँ। तुमने पहले आग में जलकर शरीर त्याग करने की प्रतिज्ञा की थी सो यहीं चन्द्रभागा नदी के किनारे महर्षि मेधातिथि बारह वर्ष का यज्ञ कर रहे हैं, उसी में जाकर शीघ्र ही अपनी प्रतिज्ञा पूरी करो, वहाँ ऐसे वेश से जाओ कि मुनिलोग तुम्हें देख न सकें। मेरी कृपा से तुम अगिन्देव की पुत्री हो जाओगी। जिसे तुम पति बनाना चाहती हो, मन से उसका चिन्तन करते-करते अपना शरीर त्याग करो। यह कहकर भगवान ने अपने करकमलों से सन्ध्या के शरीर का स्पर्श किया और तुरन्त ही उसका शरीर पुरोडाश (यज्ञ का हविष्य) बन गया। इसके बाद सन्ध्या अदृश्य होकर उस यज्ञमण्डप में गयी। भगवान की कृपा से उस समय उसने अपने मन में मूर्तिमान् ब्रह्मचर्य और तपश्चर्या के उपदेशक वसिष्ठ को पति के रूप में वरण किया और उन्हीं का चिन्तन करते-करते अपने पुरोडाशमय शरीर को अगिन्देव को समर्पित कर दिया। अगिन्देव ने भगवान की आज्ञा से उसके शरीर को जलाकर सूर्यमण्डल में प्रविष्ट कर दिया। सूर्य ने उसके शरीर के दो भाग करके अपने रथ पर देवता और पितरों की प्रसन्नता के लिये स्थापित कर लिया। उसके शरीर का ऊपरी भाग जो दिन का प्रारम्भ यानी प्रात:काल है, उसका नाम प्रात:सन्ध्या और शेषभाग दिन का अन्त सायं सन्ध्या हुआ और भगवान ने उसके प्राण को दिव्य शरीर और अन्त:करण को शरीरी बनाकर मेधातिथि के यज्ञीय अगिन् में स्थापित कर दिया। इसके पश्चात् मेधातिथि ने यज्ञ के अन्त में उस स्वर्ण के समान सुन्दरी सन्ध्या को पुत्री के रूप में प्राप्त किया। उस समय यज्ञीय अ‌र्घ्यजल में स्नान कराकर वात्सल्य स्नेह से परिपूर्ण और आनन्दित होकर उसे गोद में उठा लिया और उसका नाम अरुन्धती रखा। अरुन्धती चन्द्रभागा तट पर स्थित तापसारण्य नामक आश्रम में पलने लगी। पाँचवें वर्ष में पदार्पण करने पर ही उसके सद्गुणों से सम्पूर्ण तापसारण्य पवित्र हो गया। एक दिन अरुन्धती चन्द्रभागा के जल में स्नान करके अपने पिता मेधातिथि के पास ही खेल रही थी, स्वयं ब्रह्माजी पधारे और उसके पिता से कहा कि अब अरुन्धती को शिक्षा देने का समय आ गया है, इसलिये इसे अब सती साध्वी स्त्रियों के पास रखकर शिक्षा दिलवानी चाहिये; क्योंकि कन्या की शिक्षा पुरुषों द्वारा नहीं होनी चाहिये। स्त्री ही स्त्रियों को शिक्षा दे सकती है; किन्तु तुम्हारे पास तो कोई स्त्री नहीं है, अतएव तुम अपनी कन्या को बहुला और सावित्री के पास रख दो। तुम्हारी कन्या उनके पास रहकर शीघ्र ही महागुणवती हो जायगी। मेधातिथि ने उनकी आज्ञा शिरोधार्य की और उनके जाने पर अरुन्धती को लेकर सूर्यलोक में गये। वहाँ उन्होंने सूर्यमण्डल में स्थित पद्मासनासीन सावित्रीदेवी का दर्शन किया। उस समय बहुला मानस पर्वत पर जा रही थी, इसलिये सावित्रीदेवी भी सूर्यमण्डल से निकलकर वहीं के लिये चल पडी। बात यह थी कि प्रतिदिन वहाँ सावित्री, गायत्री, बहुला, सरस्वती एवं द्रुपदा एकत्रित होकर धर्मचर्चा करती थी और लोक-कल्याणकारी कामना किया करती थी। महर्षि मेधातिथि ने उन माताओं को पृथक्-पृथक् प्रणाम किया और सबको सम्बोधन करके कहा कि यह मेरी यशस्विनी कन्या है। यहीं इसके उपदेश का समय है। इसी से मैं इसे लेकर यहाँ आया हूँ। ब्रह्मा ने ऐसी ही आज्ञा की है। अब यह आपके पास ही रहेगी। माता सावित्री और बहुला आप दोनों इसे ऐसी शिक्षा दें कि यह सच्चरित्र हो। उन दोनों ने कहा- महर्षे! भगवान विष्णु की कृपा से तुम्हारी कन्या पहले से ही सच्चरित्र हो चुकी है; किन्तु ब्रह्मा की आज्ञा के कारण हम इसे अपने पास रख लेती हैं। यह पूर्वजन्म में ब्रह्मा की कन्या थी। तुम्हारे तपोबल से और भगवान की कृपा से यह तुम्हारी पुत्री हुई है। अरुन्धती कभी सावित्री के साथ सूर्य के घर जाती तो कभी बहुला के साथ इन्द्र के घर जाती। स्त्रीधर्म की शिक्षा प्राप्त करके वह अपनी शिक्षिका सावित्री और बहुला से भी श्रेष्ठ हो गयी। एक दिन मानस पर्वत पर विचरण करते-करते अरुन्धती मूर्तिमान् ब्रह्मचर्य महर्षि वसिष्ठ को देखा। उनके मुखमण्डल से प्रकाश की किरणें निकल रही थीं। अरुन्धती इस रूप पर मुग्ध हो गई। जगन्माता सावित्री को इस बात का पता लगा। इसके बाद मेधातिथि ने महर्षि वसिष्ठ से इस कन्या को पत्‍‌नी के रूप में स्वीकार करने का निवेदन किया। विवाह के अवसर पर ब्रह्मा, विष्णु आदि के द्वारा स्नान कराते समय जो जलधाराएँ गिरी थीं, वही गोमती, सरयू, सिप्रा, महानदी आदि सात नदियों के रूप में हो गयीं, जिनके दर्शन, स्पर्श, स्नान और पान से सारे संसार का कल्याण होता है। विवाह के पश्चात् वसिष्ठजी अपनी धर्मपत्‍‌नी के साथ विमान पर सवार होकर देवताओं के बतलाये हुए स्थान पर चले गये। वे जब जहाँ जिस रूप में रहकर तपस्या करते हुए संसार के कल्याण में संलगन् रहते हैं, तब तहाँ उन्हीं के अनुरूप वेश में रहकर अरुन्धती उनकी सेवा किया करती हैं। आज भी वह सप्तर्षि मंडल में स्थित वसिष्ठ के पास ही दीखती हैं। श्रेणी:हिन्दू ऋषि श्रेणी:सप्तर्षि श्रेणी:चित्र जोड़ें.

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अंगिरस तारा

सप्तर्षि तारामंडल में अंगिरस तारे (ε UMa) का स्थान अंगिरस, जिसका बायर नामांकन "ऍप्सिलन अर्से मॅजोरिस" (ε UMa या ε Ursae Majoris) है, सप्तर्षि तारामंडल का सबसे रोशन तारा और पृथ्वी से दिखने वाले सभी तारों में से ३३वाँ सब से रोशन तारा है। यह हमसे ८१ प्रकाश-वर्ष की दूरी पर स्थित है और पृथ्वी से इसका औसत सापेक्ष कांतिमान (यानि चमक का मैग्निट्यूड) १.७६ है। .

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उल्लू नीहारिका

उल्लू नीहारिका उल्लू नीहारिका (अंग्रेज़ी: Owl Nebula, आउल नॅब्युला), जिसे मॅसिये वस्तु ९७ और ऍन॰जी॰सी॰ ३५८७ भी कहा जाता है, एक ग्रहीय नीहारिका है जो दूरबीन से आकाश में सप्तर्षि तारामंडल के क्षेत्र में नज़र आती है। उल्लू नीहारिका के केंद्र में एक १६वें मैग्निट्यूड की चमक रखने वाला एक तारा है, जिसका द्रव्यमान (मास) लगभग सूरज के द्रव्यमान का ०.७ गुना है। इस तारे के इर्द-गिर्द का द्रव्यमान लगभग सौर द्रव्यमान का ०.१५ गुना है। वैज्ञानिकों का मानना है कि यह नीहारिका आज से क़रीब ६,००० साल पूर्व बनी थी। इसे अगर अँधेरी रात में दूरबीन से देखा जाए तो इसमें दो उल्लू जैसे "आँखें" सी नज़र आती हैं, जिस से इस नीहारिका का नाम पड़ा है। इस नीहारिका की खोज सबसे पहले सन् १७८१ में प्येर मेशैं (Pierre Méchain) नामक फ़्रांसिसी खगोलशास्त्री ने की थी। .

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