लोगो
यूनियनपीडिया
संचार
Google Play पर पाएं
नई! अपने एंड्रॉयड डिवाइस पर डाउनलोड यूनियनपीडिया!
डाउनलोड
ब्राउज़र की तुलना में तेजी से पहुँच!
 

सत्त्व

सूची सत्त्व

हिन्दू दर्शन में, सत्त्व (शाब्दिक अर्थ: "अस्तित्व, वास्तविकता"; विशेषण: सात्विक) सांख्य दर्शन में वर्णित तीन गुणों में से एक है। अन्य दो गुण हैं - रजस् और तमस्। सत्वगुण का अर्थ 'पवित्रता' है। .

8 संबंधों: बोधिसत्व, रजस्, श्रीमद्भगवद्गीता, सत्य, सात्विक आहार, सार, गुण (भारतीय संस्कृति), अंगज (अलंकार)

बोधिसत्व

बौद्ध धर्म में, बोधिसत्व (बोधिसत्त्व; बोधिसत्त) सत्त्व के लिए प्रबुद्ध (शिक्षा दिये हुये) को कहते हैं। पारम्परिक रूप से महान दया से प्रेरित, बोधिचित्त जनित, सभी संवेदनशील प्राणियों के लाभ के लिए सहज इच्छा से बुद्धत्व प्राप्त करने वाले को बोधिसत्व माना जाता है। तिब्बती बौद्ध धर्म के अनुसार, बोधिसत्व मानव द्वारा जीवन में प्राप्त करने योग्य चार उत्कृष्ठ अवस्थाओं में से एक है। बोधिसत्व शब्द का उपयोग समय के साथ विकसित हुआ। प्राचीन भारतीय बौद्ध धर्म के अनुसार, उदाहरण के लिए गौतम बुद्ध के पूर्व जीवन को विशिष्ट रूप से प्रदर्शित करने के लिए काम में लिया जाता था।http://www.britannica.com/EBchecked/topic/70982/bodhisattva दस पारमिताओं का पूर्ण पालन करने वाला बोधिसत्व कहलाता है। बोधिसत्व जब दस बलों या भूमियों (मुदिता, विमला, दीप्ति, अर्चिष्मती, सुदुर्जया, अभिमुखी, दूरंगमा, अचल, साधुमती, धम्म-मेघा) को प्राप्त कर लेते हैं तब " गौतम बुद्ध " कहलाते हैं, बुद्ध बनना ही बोधिसत्व के जीवन की पराकाष्ठा है। इस पहचान को बोधि (ज्ञान) नाम दिया गया है। कहा जाता है कि बुद्ध शाक्यमुनि केवल एक बुद्ध हैं - उनके पहले बहुत सारे थे और भविष्य में और होंगे। उनका कहना था कि कोई भी बुद्ध बन सकता है अगर वह दस पारमिताओं का पूर्ण पालन करते हुए बोधिसत्व प्राप्त करे और बोधिसत्व के बाद दस बलों या भूमियों को प्राप्त करे। बौद्ध धर्म का अन्तिम लक्ष्य है सम्पूर्ण मानव समाज से दुःख का अंत। "मैं केवल एक ही पदार्थ सिखाता हूँ - दुःख है, दुःख का कारण है, दुःख का निरोध है, और दुःख के निरोध का मार्ग है" (बुद्ध)। बौद्ध धर्म के अनुयायी अष्टांगिक मार्ग पर चलकर न के अनुसार जीकर अज्ञानता और दुःख से मुक्ति और निर्वाण पाने की कोशिश करते हैं। .

नई!!: सत्त्व और बोधिसत्व · और देखें »

रजस्

सांख्य दर्शन में सत्त्व, रजस् और तमस - ये तीन गुण बताये गये हैं। इनमें रजस् मध्यम स्वभाव है जिसके प्रधान होने पर व्यक्ति यथार्थ जानता तो है पर लौकिक सुखों की इच्छा के कारण उपयुक्त समय उपयुक्त कार्य नहीं कर पाता है। उदाहरणार्थ किसी व्यक्ति को पता हो कि उसके बॉस ने किसी के साथ अन्याय किया हो लेकिन अपनी पदोन्नति के लोभ में वो उसकी आलोचना या अपनी नाख़ुशी नहीं जताता है। इमके बारे में गीता सहित कई ग्रंथों में बताया गया है। .

नई!!: सत्त्व और रजस् · और देखें »

श्रीमद्भगवद्गीता

कुरु क्षेत्र की युद्धभूमि में श्रीकृष्ण ने अर्जुन को जो उपदेश दिया था वह श्रीमद्भगवदगीता के नाम से प्रसिद्ध है। यह महाभारत के भीष्मपर्व का अंग है। गीता में १८ अध्याय और ७०० श्लोक हैं। जैसा गीता के शंकर भाष्य में कहा है- तं धर्मं भगवता यथोपदिष्ट वेदव्यास: सर्वज्ञोभगवान् गीताख्यै: सप्तभि: श्लोकशतैरु पनिबंध। ज्ञात होता है कि लगभग ८वीं सदी के अंत में शंकराचार्य (७८८-८२०) के सामने गीता का वही पाठ था जो आज हमें उपलब्ध है। १०वीं सदी के लगभग भीष्मपर्व का जावा की भाषा में एक अनुवाद हुआ था। उसमें अनेक मूलश्लोक भी सुरक्षित हैं। श्रीपाद कृष्ण बेल्वेलकर के अनुसार जावा के इस प्राचीन संस्करण में गीता के केवल साढ़े इक्यासी श्लोक मूल संस्कृत के हैं। उनसे भी वर्तमान पाठ का समर्थन होता है। गीता की गणना प्रस्थानत्रयी में की जाती है, जिसमें उपनिषद् और ब्रह्मसूत्र भी संमिलित हैं। अतएव भारतीय परंपरा के अनुसार गीता का स्थान वही है जो उपनिषद् और ब्रह्मसूत्रों का है। गीता के माहात्म्य में उपनिषदों को गौ और गीता को उसका दुग्ध कहा गया है। इसका तात्पर्य यह है कि उपनिषदों की जो अध्यात्म विद्या थी, उसको गीता सर्वांश में स्वीकार करती है। उपनिषदों की अनेक विद्याएँ गीता में हैं। जैसे, संसार के स्वरूप के संबंध में अश्वत्थ विद्या, अनादि अजन्मा ब्रह्म के विषय में अव्ययपुरुष विद्या, परा प्रकृति या जीव के विषय में अक्षरपुरुष विद्या और अपरा प्रकृति या भौतिक जगत के विषय में क्षरपुरुष विद्या। इस प्रकार वेदों के ब्रह्मवाद और उपनिषदों के अध्यात्म, इन दोनों की विशिष्ट सामग्री गीता में संनिविष्ट है। उसे ही पुष्पिका के शब्दों में ब्रह्मविद्या कहा गया है। गीता में 'ब्रह्मविद्या' का आशय निवृत्तिपरक ज्ञानमार्ग से है। इसे सांख्यमत कहा जाता है जिसके साथ निवृत्तिमार्गी जीवनपद्धति जुड़ी हुई है। लेकिन गीता उपनिषदों के मोड़ से आगे बढ़कर उस युग की देन है, जब एक नया दर्शन जन्म ले रहा था जो गृहस्थों के प्रवृत्ति धर्म को निवृत्ति मार्ग के समकक्ष और उतना ही फलदायक मानता था। इसी का संकेत देनेवाला गीता की पुष्पिका में ‘योगशास्त्रे’ शब्द है। यहाँ ‘योगशास्त्रे’ का अभिप्राय नि:संदेह कर्मयोग से ही है। गीता में योग की दो परिभाषाएँ पाई जाती हैं। एक निवृत्ति मार्ग की दृष्टि से जिसमें ‘समत्वं योग उच्यते’ कहा गया है अर्थात् गुणों के वैषम्य में साम्यभाव रखना ही योग है। सांख्य की स्थिति यही है। योग की दूसरी परिभाषा है ‘योग: कर्मसु कौशलम’ अर्थात् कर्मों में लगे रहने पर भी ऐसे उपाय से कर्म करना कि वह बंधन का कारण न हो और कर्म करनेवाला उसी असंग या निर्लेप स्थिति में अपने को रख सके जो ज्ञानमार्गियों को मिलती है। इसी युक्ति का नाम बुद्धियोग है और यही गीता के योग का सार है। गीता के दूसरे अध्याय में जो ‘तस्य प्रज्ञाप्रतिष्ठिता’ की धुन पाई जाती है, उसका अभिप्राय निर्लेप कर्म की क्षमतावली बुद्धि से ही है। यह कर्म के संन्यास द्वारा वैराग्य प्राप्त करने की स्थिति न थी बल्कि कर्म करते हुए पदे पदे मन को वैराग्यवाली स्थिति में ढालने की युक्ति थी। यही गीता का कर्मयोग है। जैसे महाभारत के अनेक स्थलों में, वैसे ही गीता में भी सांख्य के निवृत्ति मार्ग और कर्म के प्रवृत्तिमार्ग की व्याख्या और प्रशंसा पाई जाती है। एक की निंदा और दूसरे की प्रशंसा गीता का अभिमत नहीं, दोनों मार्ग दो प्रकार की रु चि रखनेवाले मनुष्यों के लिए हितकर हो सकते हैं और हैं। संभवत: संसार का दूसरा कोई भी ग्रंथ कर्म के शास्त्र का प्रतिपादन इस सुंदरता, इस सूक्ष्मता और निष्पक्षता से नहीं करता। इस दृष्टि से गीता अद्भुत मानवीय शास्त्र है। इसकी दृष्टि एकांगी नहीं, सर्वांगपूर्ण है। गीता में दर्शन का प्रतिपादन करते हुए भी जो साहित्य का आनंद है वह इसकी अतिरिक्त विशेषता है। तत्वज्ञान का सुसंस्कृत काव्यशैली के द्वारा वर्णन गीता का निजी सौरभ है जो किसी भी सहृदय को मुग्ध किए बिना नहीं रहता। इसीलिए इसका नाम भगवद्गीता पड़ा, भगवान् का गाया हुआ ज्ञान। .

नई!!: सत्त्व और श्रीमद्भगवद्गीता · और देखें »

सत्य

सत्य (truth) के अलग-अलग सन्दर्भों में एवं अलग-अलग सिद्धान्तों में सर्वथा भिन्न-भिन्न अर्थ हैं। .

नई!!: सत्त्व और सत्य · और देखें »

सात्विक आहार

वह आहार जिसमें सत्व गुण की प्रधानता हो, सात्विक आहार कहलाता है। योग एवं आयुर्वेद कहा गया है कि सात्विक आहार के सेवन से मनुष्य का जीवन सात्विक बनता है। यौगिक और सात्विक आहार की श्रेणी में ऐसे भोजन को शामिल किया जाता है जो व्यक्ति के तन और मन को शुद्ध, शक्तिवर्द्धक, स्वस्थ और प्रसन्नता से भर देता है। दूसरे शब्दों में कहें तो सात्विक आहार व्यक्ति को संतुलित स्वस्थ शरीर, शांति, सामंजस्यपूर्ण तालमेल की कुशलता और बौद्धिक व्यक्तित्व प्रदान करता है। सात्विक आहार शांत व स्पष्ट मस्तिष्क का प्रतिनिधित्व करता है। जिस प्रकार एक सी प्रवृत्ति वाली वस्तुएं, परस्पर प्रतिबिंबित होती हैं, उसी प्रकार सात्विक व यौगिक आहार भी शांतिपूर्ण होती हैं, उसी प्रकार सात्विक व यौगिक आहार भी शांतिपूर्ण (उत्तेजना रहित) व स्वच्छ (अशुद्धियों से रहित) होता है। सात्विक भोजन आयुर्वेद के प्राचीन नियमों पर आधारित है, जो सामान्य व पारंपरिक विधियों से तैयार किया जाता है। योगशास्त्रों और साधना ग्रन्थों ने अन्तःकरण को पवित्र एवं परिष्कृत करने के लिए सात्विक आहार ही अपनाने को कहा है। गीता में कृष्ण ने सात्विक, राजसी और तामसी आहार की सुस्पष्ट व्याख्या की है तथा शरीर, मन और बुद्धि पर उसके पड़ने वाले प्रभावों का भी स्पष्ट विवेचना किया है। आत्मिक प्रगति के आकांक्षी और साधना मार्ग के पथिकों के लिए इस बात का निर्देश दिया गया है कि सात्विक आहार ही अपनाया जाये और उसकी सात्विकता को भी भावनाओं का सम्पुट देकर आत्मिक चेतना में अधिक सहायता दे सकने योग्य बनाया जाय। भगवान् का भोग प्रसाद, यज्ञाग्नि में पकाया गया चरुद्रव्य इसी प्रकार के पदार्थ हैं जिनकी स्थूल विशेषता न दिखाई देने पर भी उनकी सूक्ष्म सामर्थ्य बहुत अधिक होती है। .

नई!!: सत्त्व और सात्विक आहार · और देखें »

सार

दर्शन में, सार एक गुण या गुणों का समुच्चय होता हैं जो किसी सत्त्व या पदार्थ को मौलिकता देता हैं, और जो अनिवार्यता से उसके पास होता ही हैं, और जिसके अभाव में वह अपनी पहचान खो देता हैं। .

नई!!: सत्त्व और सार · और देखें »

गुण (भारतीय संस्कृति)

गुण शब्द का कई अर्थों में व्यवहार होता है। सामान्य बोलचाल की भाषा में वस्तु की उत्कर्षाधायक विशेषता को गुण कहते हैं। प्रधान के विपरीत अर्थ में ('गौण' के अर्थ में) भी गुण शब्द का प्रयोग होता है। रस्सी को भी गुण कहते हैं। .

नई!!: सत्त्व और गुण (भारतीय संस्कृति) · और देखें »

अंगज (अलंकार)

अंगज सात्विक अलंकारों का एक भेद है। भरत ने अपने नाट्यशास्त्र में सर्वप्रथम इसका उल्लेख किया है। अंगज अलंकारों में नायिकाओं के उन आंगिक विकारों या क्रियाव्यापारों को परिगणित किया जाता है जिनसे तारुण्य प्राप्त करने पर उनके मन में उद्भूत एवं विकसित काम भाव का पता चलता है। नाट्यशास्त्र (24.6) में भाव, हाव तथा हेला को एक-दूसरे से उद्भूत एवं सत्व के विभिन्न रूप कहा गया है और इसीलिए इन्हें शरीर से संबद्ध माना गया है। आगे इसकी व्याख्या करते हुए नाट्यशास्त्र (24.7) में भरत ने कहा है सत्व शरीर से संबद्ध है, भाव सत्व से उत्पन्न होता है, हाव की उत्पत्ति भाव से और हेला की हाव से है। .

नई!!: सत्त्व और अंगज (अलंकार) · और देखें »

यहां पुनर्निर्देश करता है:

सत्व गुण, सत्वगुण, सात्विक

निवर्तमानआने वाली
अरे! अब हम फेसबुक पर हैं! »