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संधि (व्याकरण)

सूची संधि (व्याकरण)

संधि (सम् + धि) शब्द का अर्थ है 'मेल'। दो निकटवर्ती वर्णों के परस्पर मेल से जो विकार (परिवर्तन) होता है वह संधि कहलाता है। जैसे - सम् + तोष .

43 संबंधों: टैंक, दुर्गादास राठौड, नयाचार, पंचशील, प्रतिशाख्य, प्रथम चीन-जापान युद्ध, प्रथम आंग्ल-सिख युद्ध, प्रभावक्षेत्र, फ्रांसीसी जर्मन युद्ध, बुसी, बुखारेस्ट की संधि, भारतीय राजनय का इतिहास, भारतीय संविधान का इतिहास, महाराजा रणजीत सिंह, मॉन्ट्रियल प्रोटोकॉल, यशवंतराव होलकर, यशोवर्मन (कन्नौज नरेश), रिचर्ड चैंसलर, समास, सारा पॉलिन, साइक्स-पिकाट समझौता, सिंहली भाषा, संधि (बहुविकल्पी), संधि-विच्छेद संग्रह, संस्कृत भाषा, संस्कृत व्याकरण, सुरूद-ए-मिल्ली, सैन्य नीति, जयपाल, जुस्तिनियन द्वितीय, विलियम टेंपिल, विल्सन के चौदह सिद्धान्त, वक्रोक्ति सिद्धान्त, व्यंजन संधि, वैज्ञानिक तथा तकनीकी शब्दावली आयोग, खुसरू प्रथम, गुड़ी पड़वा, कवाध द्वितीय, कॉनकॉर्ड, अफ्रीका का विभाजन, अर्थशास्त्र, अवग्रह, अंग तंत्र

टैंक

टी-९० भीष्म टैंक कवचयान या टैंक (Tank) एक प्रकार का कवचित, स्वचालित, अपना मार्ग आप बनाने तथा युद्ध में काम आनेवाला ऐसा वाहन है जिससे गोलाबारी भी की जा सकती है। युद्धक्षेत्र में शत्रु की गोलाबारी के बीच भी यह बिना रुकावट आगे बढ़ता हुआ किसी समय तथा स्थान पर शत्रु पर गोलाबारी कर सकता है। गतिशीतला एवं शत्रु को व्याकुल करने का सामर्थ्य है और जो कबचित होने के कारण स्वयं सुरक्षित है। .

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दुर्गादास राठौड

दुर्गादास राठौड़ (दुर्गा दास राठौड़) (13 अगस्त 1638 – 22 नवम्बर 1718) भारत के मारवाड़ क्षेत्र के राठौड़ राजवंश के एक मंत्री थे। वे महाराजा जसवंत सिंह के निधन के बाद कुँवर अजित सिंह के सरांक्षक बने। उन्होंने मुग़ल सम्राट औरंगज़ेब को भी चुनौती दी और कई बार ओरंग़ज़ब को युद्ध में पीछे हटने ओर संधि के लिए मजबूर किया और कई बार युद्ध में हराया। .

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नयाचार

अन्तरराष्ट्रीय राजनीति में, राज्य तथा राजनय के कार्यकलापों से सम्बन्धित शिष्टाचार (etiquette) को नयाचार (.

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पंचशील

मानव कल्याण तथा विश्वशांति के आदर्शों की स्थापना के लिए विभिन्न राजनीतिक, सामाजिक तथा आर्थिक व्यवस्था वाले देशों में पारस्परिक सहयोग के पाँच आधारभूत सिद्धांत, जिन्हें पंचसूत्र अथवा पंचशील कहते हैं। इसके अंतर्गत ये पाँच सिद्धांत निहित हैं- (1) सभी देशों द्वारा अन्य देशों की क्षेत्रीय अखंडता और प्रभुसत्ता का सम्मान करना (2)दूसरे देश के आन्तरिक मामलों में हस्तक्षेप न करना (3) दूसरे देश पर आक्रमण न करना। (4) परस्पर सहयोग एवं लाभ को बढावा देना। (5) शांतिपूर्ण सह अस्तित्व की नीति का पालन करना। .

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प्रतिशाख्य

प्रतिशाख्य शिक्षा के सबसे पुराने ग्रन्थ हैं जिनमें संस्कृत के उच्चारण, ध्वनि एवं संधि आदि विषयों पर विचार किया गया है। प्रातिशाख्य शब्द का अर्थ है: "प्रति अर्थात्‌ तत्तत्‌ शाखा से संबंध रखनेवाला शास्त्र अथवा अध्ययन"। यहाँ "शाखा" से अभिप्राय वेदों की शाखाओं से है। वैदिक शाखाओं से संबद्ध विषय अनेक हो सकते थे। उदाहरणार्थ, प्रत्येक वैदिक शाखा से संबद्ध कर्मकांड, आचार आदि की अपनी अपनी परंपरा थी। उन सब विषयों से प्रातिशाख्यों का संबंध न होकर केवल वैदिक मंत्रों के शुद्ध उच्चारण, वैदिक संहिताओं और उनके पदपाठों आदि के सधिप्रयुक्त वर्णपरिवर्तन अथवा स्वरपरिवर्तन के पारस्परिक संबंध और कभी कभी छंदोविचार जैसे विषयों से था। शिक्षा, व्याकरण (और छंद) के ऐतिहासिक विकास के अध्ययन की दृष्टि से और संबन्धित वैदिक संहिताओं के परंपराप्राप्त पाठ की सुरक्षा के लिए भी प्रातिशाख्यों का अत्यंत महत्व है। .

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प्रथम चीन-जापान युद्ध

चीन-जापान युद्ध 1894-95 के दौरान चीन और जापान के मध्य कोरिया पर प्रशासनिक तथा सैन्य नियंत्रण को लेकर लड़ा गया था। जापान की मेइजी सेना इसमें विजयी हुई थी और युद्ध के परिणाम स्वरूप कोरिया, मंचूरिया तथा ताईवान का नियंत्रण जापान के हाथ में चला गया। इस युद्ध में हारने के कारण चीन को जापान के आधुनिकीकरण का लाभ समझ में आया और बाद में चिंग राजवंश के खिलाफ़ 1911 मे क्रांति हुई। इसे प्रथम चीन-जापान युद्ध का नाम भी दिया जाता है। 1937-45 के मध्य लड़े गए युद्ध को द्वितीय चीन-जापान युद्ध कहा जाता है। .

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प्रथम आंग्ल-सिख युद्ध

प्रथम आंग्ल-सिख युद्ध पंजाब के सिख राज्य तथा अंग्रेजों के बीच 1845-46 के बीच लड़ा गया था। इसके परिणाम स्वरूप सिख राज्य का कुछ हिस्सा अंग्रेजी राज का हिस्सा बन गया।.

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प्रभावक्षेत्र

यह कार्टून 'मोनोरो डॉक्ट्रिन' के बाद लैटिन अमेरिका पर यूएएस के प्रभाव को रेखांकित कर रहा है। अन्तरराष्ट्रीय सम्बन्ध की दृष्टि से १९८० में प्रभाव क्षेत्र; '''लाल'''- सोवियत संघ; '''नीला'''- अमेरिका अंतर्देशीय व्यवहारनुकूल कुछ समय पूर्व प्रभावक्षेत्र (Sphere of Influence) प्रथा मान्य थी। औपनिवेशिक शक्तियाँ पारस्परिक सुविधा के हेतु, कुछ प्रदेशों को एक देशविशेष के उपनिवेशन के लिये भविष्य में सुरक्षित मान लेतीं अर्थात् ऐसे प्रदेशों में उस देश के अतिरिक्त किसी अन्य राज्यशक्ति को औपनिवेशिक शोषण या सत्ताप्रसार का अधिकार नहीं रहता। फलत: संबंधित पक्ष कालांतर में अंतर्देशीय कलह किए बिना अपनी राज्यसत्ता विस्तृत प्रदेशों में स्थापित करते। इस प्रकार का अधिकार प्रयोग 19वीं शताब्दी के अंतिम चरण में विशेषतया हुआ, जबकि दुर्बल एवं पिछड़े हुए देशों का शोषण इतिहास में सबसे प्रचंड और खुले हुए देशों का शोषण इतिहास में सबसे प्रचंड और खुले रूप से हो रहा था। "प्रभावक्षेत्र" प्रथा का आधुनिक अंतरराष्ट्रीय विधि में कोई स्थान या मान्यता नहीं है। संयुक्त राष्ट्रसंघ के अधिकारपत्र द्वारा संघ के सब सदस्यों को यह आदेश है कि वे अपने अंतर्देशीय व्यवहार में इस बात की अपेक्षा करें कि किसी देश की राजनीतिक स्वतंत्रता तथा प्रादेशिक सर्वसत्ता का हनन बलप्रयोग से या अन्य किसी प्रकार से न हो। संयुक्त राष्ट्रसंघ की न्यासत्व परिषद एक और उपाय है, जिसके अनुसार संसार के दुर्बल और पिछड़े हुए देशों की सुरक्षा और पर्यवेक्षण होता है किंतु यह उन्हीं देशों पर लागू है जिनको औपनिवेशिक स्वामियों ने स्वेच्छा से इस परिषद् के अधिकारक्षेत्र में रखा है। विश्व के जो अन्य देश स्वशासित नहीं हैं, उनकी सुरक्षा के लिये संघ के अधिकारपत्र का आदेश है कि इन प्रदेशों के औपनिवेशिक शासक वहाँ के निवासियों के हितार्थ अधिक से अधिक प्रयत्नशील और सक्रिय होने के लिये बाध्य हैं। यह सुरक्षा प्रणाली कहाँ तक सफल हुई है, यह कहना कठिन है। यदि प्रभावक्षेत्र प्रथा के अनुसार प्रमुख शक्तियाँ 19वीं शताब्दी में अपनी राज्य शक्ति का विस्तार करती थीं, तो आज इस प्रथा के न होते हुए भी शक्तिसंपन्न राज्य किसी न किसी प्रकार दुर्बल देशों पर अपना स्वामित्व स्थापित करते रहते हैं। अंतराष्ट्रीय संघ के सुरक्षा नियमों और बंधनों द्वारा बाध्य राज्य शक्तियाँ भी सत्ता विस्तार में सतत प्रयत्नशील एवं तत्पर रहती रही हैं और हैं। सत्ताविस्तार का रूप अवश्य बदल गया है। जिस प्रकार प्रभावक्षेत्र प्रथा के अनुसार ब्रिटेन ने इटली, जर्मनी तथा फ्रांस के क्रमश: 1890, 1891, 1886, 1890 तथा 1890 तथा 1896 ई. में संधि स्थापित कर भविष्य में अपने लिये प्रदेश सुरक्षित किए, वैसे शोषण संबंधी स्पष्ट समझौते आज असंभव हैं, किंतु अनेक चतुर राजनीतिक योजनाएँ हैं जिनके द्वारा अधिकारविस्तार होता है। कुछ संधियाँ नियोजित होती हैं, जिनसे आर्थिक और सैन्य संबंधी परिहार प्राप्त किए जाते हैं। उदाहरणार्थ, संयुक्त राज्य अमरीका ने 19वीं तथा इस शताब्दी के आरंभ में लैटिन अमरीकी देशों से संधियाँ कीं, जिनसे उनके प्राकृतिक संसाधनों का शोषण संभव हुआ। इनके साक्षी रूप हैं दक्षिणी पूर्वी एशियाई संधि संघ तथा वारसा की संधि। 1957 में इंग्लैंड तथा फ्रांस ने मिस्र के ऊपर अभ्याक्रमण किया तथा मिस्र एवं इजराइल के मध्य शांति और सुरक्षा स्थापित करना, इस आक्रमण का उद्देश्य बताया। किंतु इसके भीतर इंग्लैंड और फ्रांस का गूढ़ स्वार्थ निहित था, इस प्रकार वे दोनों स्वेज नहर के समीपवर्ती प्रदेश पर अपना अधिकार स्थापित करना चाहते थे। कभी कभी कोई देश एक पार्श्विक घोषणा करके भी प्रभुत्व अधिकार स्थापित करते है, भविष्य में किसी यूरोपीय शक्ति द्वारा उपनिवेश के विषय नहीं विचार किए जाएँगे।" इन बहु उपायों द्वारा परोक्ष और अपरोक्ष रूप से शक्तिशाली देश दुर्बल देशों का जो शोषण करते हैं उसमें एक प्रकार से "प्रभावक्षेत्र" प्रथा की अनुकूलता कही जा सकती है। वैसे यह सिद्धांत अक्षरश: जिस रूप में पहले प्रचलित और मान्य था वह मिट चुका है। आज कोई प्रदेश किसी देशविशेष की प्रभुता और शोषण के लिये सुरक्षित नहीं माना जाता। .

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फ्रांसीसी जर्मन युद्ध

फ्रांस और जर्मनी के बीच लगभग 13 महीने तक चलनेवाली लड़ाई (1870-1871) फ्रांसीसी जर्मन युद्ध कहलाती है जिसके परिणाम फ्रांस की पराजय, नेपोलियन राजवंश की सत्ता का अंत तथा तृतीय गणतंत्र की स्थापना और प्रशा के नेतृत्व में एकीकृत जर्मन राज्य के उदय के रूप में हुए। .

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बुसी

फ्रेंच सेनानायक '''बुसी''' बुसी (Charles Joseph Patissier, Marquis de Bussy-Castelnau; १७१८-१७८५ ई.) फ्रांस का यशस्वी सेनानायक तथा सफल कूटनीतिज्ञ था। प्रथम कर्नाटक युद्ध के समय वह लाबूर्दने के साथ पुद्दुचेरी पहुँचा। अंबर के युद्ध (१७४८) में वह डूप्ले का विश्वासपात्र बना। डूप्ले की साम्राज्य-निर्माण-योजना कार्यान्वित करने में बुसी ने विशेष कौशल दिखाया। इससे भारत में फ्रांसीसियों की प्रतिष्ठा बढ़ी। १७५० में जिंजी की विजय बुसी की पहली सफलता थी। १७५१ में पाँडिचेरी से औरंगाबाद तक उसका प्रयाण तथा मार्ग में मुजफ्फरजंग की मृत्यु के बाद सलाबतजंग को निज़ाम घोषित करके आन्तरिक तथा बाह्य शत्रुओं से उसे सुरक्षित बनाना उसकी बड़ी सफलता थी। इससे दक्षिण भारत में फ्रांसीसियों की धाक जम गई; सैनिक खर्च के लिए उन्हें उत्तरी सरकार के जिले मिले; डूप्ले को कृष्णा नदी के दक्षिण के प्रदेश की सूबेदारी मिली; तथा अंग्रेजों की सभी चालें विफल हुईं। तृतीय कर्नाटक युद्ध के समय बुसी को हैदराबाद से वापस बुलाया गया। फलत: फ्रांसीसी प्रभाव वहाँ से जाता रहा तथा उत्तरी सरकार प्रदेश उनसे छिन गया। मद्रास के घेरे तथा वांडीवाश के युद्ध में बुसी ने लैली को हार्दिक सहायता दी। सन् १७६० ई में अंग्रेजों ने उसे बंदी बना लिया और संधि हो जाने पर फ्रांस भेज दिया। सन् १७८३ ई. में वह पुन: भारत आया और कुदालोर में उसने अंग्रेजों से रक्षात्मक युद्ध किया। युद्ध समाप्त होने पर उसे भारत में फ्रांसीसियों का भविष्य निराशाजनक प्रतीत हुआ। १७८५ में उसका देहान्त हो गया। श्रेणी:सेनानायक.

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बुखारेस्ट की संधि

बुखारेस्ट की संधि (Treaty of Bucharest) १० अगस्त १९१३ को बुल्गारिया, रोमानिया, सर्बिया, मान्टिनिग्रो, और ग्रीस के प्रतिनिधियों के बीच हुई थी। यह संधि द्वितीय बाल्कन युद्ध के बाद हुई थी तथा इसके द्वारा प्रथम बाल्कन युद्ध के बाद हुई लन्दन की संधि को संशोधित किया गया। श्रेणी:सन्धियाँ.

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भारतीय राजनय का इतिहास

यद्यपि भारत का यह दुर्भाग्य रहा है कि वह एक छत्र शासक के अन्तर्गत न रहकर विभिन्न छोटे-छोटे राज्यों में विभाजित रहा था तथापि राजनय के उद्भव और विकास की दृष्टि से यह स्थिति अपना विशिष्ट मूल्य रखती है। यह दुर्भाग्य उस समय और भी बढ़ा जब इन राज्यों में मित्रता और एकता न रहकर आपसी कलह और मतभेद बढ़ते रहे। बाद में कुछ बड़े साम्राज्य भी अस्तित्व में आये। इनके बीच पारस्परिक सम्बन्ध थे। एक-दूसरे के साथ शांति, व्यापार, सम्मेलन और सूचना लाने ले जाने आदि कार्यों की पूर्ति के लिये राजा दूतों का उपयोग करते थे। साम, दान, भेद और दण्ड की नीति, षाडगुण्य नीति और मण्डल सिद्धान्त आदि इस बात के प्रमाण हैं कि इस समय तक राज्यों के बाह्य सम्बन्ध विकसित हो चुके थे। दूत इस समय राजा को युद्ध और संधियों की सहायता से अपने प्रभाव की वृद्धि करने में सहायता देते थे। भारत में राजनय का प्रयोग अति प्राचीन काल से चलता चला आ रहा है। वैदिक काल के राज्यों के पारस्परिक सम्बन्धों के बारे में हमारा ज्ञान सीमित है। महाकाव्य तथा पौराणिक गाथाओं में राजनयिक गतिविधियों के अनेकों उदाहरण मिलते हैं। प्राचीन भारतीय राजनयिक विचार का केन्द्र बिन्दु राजा होता था, अतः प्रायः सभी राजनीतिक विचारकों- कौटिल्य, मनु, अश्वघोष, बृहस्पति, भीष्म, विशाखदत्त आदि ने राजाओं के कर्तव्यों का वर्णन किया है। स्मृति में तो राजा के जीवन तथा उसका दिनचर्या के नियमों तक का भी वर्णन मिलता है। राजशास्त्र, नृपशास्त्र, राजविद्या, क्षत्रिय विद्या, दंड नीति, नीति शास्त्र तथा राजधर्म आदि शास्त्र, राज्य तथा राजा के सम्बन्ध में बोध कराते हैं। वेद, पुराण, रामायण, महाभारत, कामन्दक नीति शास्त्र, शुक्रनीति, आदि में राजनय से सम्बन्धित उपलब्ध विशेष विवरण आज के राजनीतिक सन्दर्भ में भी उपयोगी हैं। ऋग्वेद तथा अथर्ववेद राजा को अपने लक्ष्य की प्राप्ति के लिये जासूसी, चालाकी, छल-कपट और धोखा आदि के प्रयोग का परामर्श देते हैं। ऋग्वेद में सरमा, इन्द्र की दूती बनकर, पाणियों के पास जाती है। पौराणिक गाथाओं में नारद का दूत के रूप में कार्य करने का वर्णन है। यूनानी पृथ्वी के देवता 'हर्मेस' की भांति नारद वाक चाटुकारिता व चातुर्य के लिये प्रसिद्ध थे। वे स्वर्ग और पृथ्वी के मध्य एक-दूसरे राजाओं को सूचना लेने व देने का कार्य करते थे। वे एक चतुर राजदूत थे। इस प्रकार पुरातन काल से ही भारतीय राजनय का विशिष्ट स्थान रहा है। .

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भारतीय संविधान का इतिहास

किसी भी देश का संविधान उसकी राजनीतिक व्यवस्था का वह बुनियादी सांचा-ढांचा निर्धारित करता है, जिसके अंतर्गत उसकी जनता शासित होती है। यह राज्य की विधायिका, कार्यपालिका और न्यायपालिका जैसे प्रमुख अंगों की स्थापना करता है, उसकी शक्तियों की व्याख्या करता है, उनके दायित्यों का सीमांकन करता है और उनके पारस्परिक तथा जनता के साथ संबंधों का विनियमन करता है। इस प्रकार किसी देश के संविधान को उसकी ऐसी 'आधार' विधि (कानून) कहा जा सकता है, जो उसकी राज्यव्यवस्था के मूल सिद्धातों को निर्धारित करती है। वस्तुतः प्रत्येक संविधान उसके संस्थापकों एवं निर्माताओं के आदर्शों, सपनों तथा मूल्यों का दर्पण होता है। वह जनता की विशिष्ट सामाजिक, राजनीतिक और आर्थिक प्रकृति, आस्था एवं आकांक्षाओं पर आधारित होता है। भारत में नये गणराज्य के संविधान का शुभारंभ 26 जनवरी, 1950 को हुआ और भारत अपने लंबे इतिहास में प्रथम बार एक आधुनिक संस्थागत ढांचे के साथ पूर्ण संसदीय लोकतंत्र बना। 26 नवम्बर, 1949 को भारतीय संविधान सभा द्वारा निर्मित ‘भारत का संविधान’ के पूर्व ब्रिटिश संसद द्वारा कई ऐसे अधिनियम/चार्टर पारित किये गये थे, जिन्हें भारतीय संविधान का आधार कहा जा सकता है। .

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महाराजा रणजीत सिंह

महाराजा रणजीत सिंह (पंजाबी: ਮਹਾਰਾਜਾ ਰਣਜੀਤ ਸਿੰਘ) (१७८०-१८३९) सिख साम्राज्य के राजा थे। वे शेर-ए पंजाब के नाम से प्रसिद्ध हैं। जाट सिक्ख महाराजा रणजीत एक ऐसी व्यक्ति थे, जिन्होंने न केवल पंजाब को एक सशक्त सूबे के रूप में एकजुट रखा, बल्कि अपने जीते-जी अंग्रेजों को अपने साम्राज्य के पास भी नहीं भटकने दिया। रणजीत सिंह का जन्म सन 1780 में गुजरांवाला (अब पाकिस्तान) जाट सिक्ख महाराजा महां सिंह के घर हुआ था। उन दिनों पंजाब पर सिखों और अफगानों का राज चलता था जिन्होंने पूरे इलाके को कई मिसलों में बांट रखा था। रणजीत के पिता महा सिंह सुकरचकिया मिसल के कमांडर थे। पश्चिमी पंजाब में स्थित इस इलाके का मुख्यालय गुजरांवाला में था। छोटी सी उम्र में चेचक की वजह से महाराजा रणजीत सिंह की एक आंख की रोशनी जाती रही। महज 12 वर्ष के थे जब पिता चल बसे और राजपाट का सारा बोझ इन्हीं के कंधों पर आ गया। 12 अप्रैल 1801 को रणजीत ने महाराजा की उपाधि ग्रहण की। गुरु नानक के एक वंशज ने उनकी ताजपोशी संपन्न कराई। उन्होंने लाहौर को अपनी राजधानी बनाया और सन 1802 में अमृतसर की ओर रूख किया। महाराजा रणजीत ने अफगानों के खिलाफ कई लड़ाइयां लड़ीं और उन्हें पश्चिमी पंजाब की ओर खदेड़ दिया। अब पेशावर समेत पश्तून क्षेत्र पर उन्हीं का अधिकार हो गया। यह पहला मौका था जब पश्तूनों पर किसी गैर मुस्लिम ने राज किया। उसके बाद उन्होंने पेशावर, जम्मू कश्मीर और आनंदपुर पर भी अधिकार कर लिया। पहली आधुनिक भारतीय सेना - "सिख खालसा सेना" गठित करने का श्रेय भी उन्हीं को जाता है। उनकी सरपरस्ती में पंजाब अब बहुत शक्तिशाली सूबा था। इसी ताकतवर सेना ने लंबे अर्से तक ब्रिटेन को पंजाब हड़पने से रोके रखा। एक ऐसा मौका भी आया जब पंजाब ही एकमात्र ऐसा सूबा था, जिस पर अंग्रेजों का कब्जा नहीं था। ब्रिटिश इतिहासकार जे टी व्हीलर के मुताबिक, अगर वह एक पीढ़ी पुराने होते, तो पूरे हिंदूस्तान को ही फतह कर लेते। महाराजा रणजीत खुद अनपढ़ थे, लेकिन उन्होंने अपने राज्य में शिक्षा और कला को बहुत प्रोत्साहन दिया। उन्होंने पंजाब में कानून एवं व्यवस्था कायम की और कभी भी किसी को मृत्युदण्ड नहीं दी। उनका सूबा धर्मनिरपेक्ष था उन्होंने हिंदुओं और सिखों से वसूले जाने वाले जजिया पर भी रोक लगाई। कभी भी किसी को सिख धर्म अपनाने के लिए विवश नहीं किया। उन्होंने अमृतसर के हरिमन्दिर साहिब गुरूद्वारे में संगमरमर लगवाया और सोना मढ़वाया, तभी से उसे स्वर्ण मंदिर कहा जाने लगा। बेशकीमती हीरा कोहिनूर महाराजा रणजीत सिंह के खजाने की रौनक था। सन 1839 में महाराजा रणजीत का निधन हो गया। उनकी समाधि लाहौर में बनवाई गई, जो आज भी वहां कायम है। उनकी मौत के साथ ही अंग्रेजों का पंजाब पर शिकंजा कसना शुरू हो गया। अंग्रेज-सिख युद्ध के बाद 30 मार्च 1849 में पंजाब ब्रिटिश साम्राज्य का अंग बना लिया गया और कोहिनूर महारानी विक्टोरिया के हुजूर में पेश कर दिया गया। .

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मॉन्ट्रियल प्रोटोकॉल

सितम्बर 2006 के रूप में सबसे बड़ा अंटार्कटिक ओज़ोन होल दर्ज मॉन्ट्रियल प्रोटोकॉल, ओज़ोन परत को क्षीण करने वाले पदार्थों के बारे में (ओज़ोन परत के संरक्षण के लिए वियना सम्मलेन में पारित प्रोटोकॉल) अंतर्राष्ट्रीय संधि है जो ओज़ोन परत को संरक्षित करने के लिए, चरणबद्ध तरीके से उन पदार्थों का उत्सर्जन रोकने के लिए बनाई गई है, जिन्हें ओज़ोन परत को क्षीण करने के लिए उत्तरदायी माना जाता है। इस संधि को हस्ताक्षर के लिए 16 सितंबर 1987 को खोला गया था और यह 1 जनवरी 1989 में प्रभावी हुई, जिसके बाद इसकी पहली बैठक मई, 1989 में हेलसिंकी में हुई.

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यशवंतराव होलकर

यशवंतराव होलकर तुकोजी होलकर का पुत्र था। वह उद्दंड होते हुए भी बड़ा साहसी तथा दक्ष सेनानायक था। तुकोजजी की मृत्यु पर (1797) उत्तराधिकार के प्रश्न पर दौलतराव शिंदे के हस्तक्षेप तथा तज्जनित युद्ध में यशवंतराव के ज्येष्ठ भ्राता मल्हरराव के वध (1797) के कारण, प्रतिशोध की भावना से प्रेरित हो यशवंतराव ने शिंदे के राज्य में निरंतर लूट-मार आरंभ कर दी। अहिल्या बाई का संचित कोष हाथ आ जाने से (18000 ई) उसकी शक्ति और भी बढ़ गई। 1802 में उसने पेशवा तथा शिंदे को सम्मिलित सेना को पूर्णतया पराजित किया जिससे पेशवा ने बसई भागकर अंग्रेजों से संधि की (31 दिसम्बर 1802)। फलस्वरूप द्वितीय आंग्ल-मराठा युद्ध छिड़ गया। शिंदे से वैमनस्य के कारण मराठासंघ छोड़ने में यशवंतराव ने बड़ी गलती की क्योंकि भोंसले तथा शिंदे क पराजय के बाद, होलकर को अकेले अंग्रेजों से युद्ध करना पड़ा। पहले ता यशवंतराव ने मॉनसन पर विजय पाई (1804), किंतु, फर्रूखाबाद (नवम्बर 17) तथा डीग (दिसंबर 13) में उसकी पराजय हुई। फलस्वरूप उसे अंग्रेजों से संधि स्थापित करनी पड़ी (24 दिसबंर, 1805) अंत में, पूर्ण विक्षिप्तावस्था में, तीस वर्ष की आयु में उसकी मृत्यु हो गई (28 अक्टूबर 1811)। एक ऐसा भारतीय शासक जिसने अकेले दम पर अंग्रेजों को नाकों चने चबाने पर मजबूर कर दिया था। इकलौता ऐसा शासक, जिसका खौफ अंग्रेजों में साफ-साफ दिखता था। एकमात्र ऐसा शासक जिसके साथ अंग्रेज हर हाल में बिना शर्त समझौता करने को तैयार थे। एक ऐसा शासक, जिसे अपनों ने ही बार-बार धोखा दिया, फिर भी जंग के मैदान में कभी हिम्मत नहीं हारी। इतना महान था वो भारतीय शासक, फिर भी इतिहास के पन्नों में वो कहीं खोया हुआ है। उसके बारे में आज भी बहुत लोगों को जानकारी नहीं है। उसका नाम आज भी लोगों के लिए अनजान है। उस महान शासक का नाम है - यशवंतराव होलकर। यह उस महान वीरयोद्धा का नाम है, जिसकी तुलना विख्यात इतिहास शास्त्री एन एस इनामदार ने 'नेपोलियन' से की है। पश्चिम मध्यप्रदेश की मालवा रियासत के महाराज यशवंतराव होलकर का भारत की आजादी के लिए किया गया योगदान महाराणा प्रताप और झांसी की रानी लक्ष्मीबाई से कहीं कम नहीं है। यशवतंराव होलकर का जन्म 1776 ई. में हुआ। इनके पिता थे - तुकोजीराव होलकर। होलकर साम्राज्य के बढ़ते प्रभाव के कारण ग्वालियर के शासक दौलतराव सिंधिया ने यशवंतराव के बड़े भाई मल्हारराव को मौत की नींद सुला दिया। इस घटना ने यशवंतराव को पूरी तरह से तोड़ दिया था। उनका अपनों पर से विश्वास उठ गया। इसके बाद उन्होंने खुद को मजबूत करना शुरू कर दिया। ये अपने काम में काफी होशियार और बहादुर थे। इसका अंदाजा इसी से लगाया जा सकता है कि 1802 ई. में इन्होंने पुणे के पेशवा बाजीराव द्वितीय व सिंधिया की मिलीजुली सेना को मात दी और इंदौर वापस आ गए। इस दौरान अंग्रेज भारत में तेजी से अपने पांव पसार रहे थे। यशवंत राव के सामने एक नई चुनौती सामने आ चुकी थी। भारत को अंग्रेजों के चंगुल से आजाद कराना। इसके लिए उन्हें अन्य भारतीय शासकों की सहायता की जरूरत थी। वे अंग्रेजों के बढ़ते साम्राज्य को रोक देना चाहते थे। इसके लिए उन्होंने नागपुर के भोंसले और ग्वालियर के सिंधिया से एकबार फिर हाथ मिलाया और अंग्रेजों को खदेड़ने की ठानी। लेकिन पुरानी दुश्मनी के कारण भोंसले और सिंधिया ने उन्हें फिर धोखा दिया और यशवंतराव एक बार फिर अकेले पड़ गए। उन्होंने अन्य शासकों से एकबार फिर एकजुट होकर अंग्रेजों के खिलाफ लड़ने का आग्रह किया, लेकिन किसी ने उनकी बात नहीं मानी। इसके बाद उन्होंने अकेले दम पर अंग्रेजों को छठी का दूध याद दिलाने की ठानी। 8 जून 1804 ई. को उन्होंने अंग्रेजों की सेना को धूल चटाई। फिर 8 जुलाई 1804 ई. में कोटा से उन्होंने अंग्रेजों को खदेड़ दिया। 11 सितंबर 1804 ई. को अंग्रेज जनरल वेलेस्ले ने लॉर्ड ल्युक को लिखा कि यदि यशवंतराव पर जल्दी काबू नहीं पाया गया तो वे अन्य शासकों के साथ मिलकर अंग्रेजों को भारत से खदेड़ देंगे। इसी मद्देनजर नवंबर, 1804 ई. में अंग्रेजों ने दिग पर हमला कर दिया। इस युद्ध में भरतपुर के महाराज रंजित सिंह के साथ मिलकर उन्होंने अंग्रेजों को उनकी नानी याद दिलाई। यही नहीं इतिहास के मुताबिक उन्होंने 300 अंग्रेजों की नाक ही काट डाली थी। अचानक रंजित सिंह ने भी यशवंतराव का साथ छोड़ दिया और अंग्रजों से हाथ मिला लिया। इसके बाद सिंधिया ने यशवंतराव की बहादुरी देखते हुए उनसे हाथ मिलाया। अंग्रेजों की चिंता बढ़ गई। लॉर्ड ल्युक ने लिखा कि यशवंतराव की सेना अंग्रेजों को मारने में बहुत आनंद लेती है। इसके बाद अंग्रेजों ने यह फैसला किया कि यशवंतराव के साथ संधि से ही बात संभल सकती है। इसलिए उनके साथ बिना शर्त संधि की जाए। उन्हें जो चाहिए, दे दिया जाए। उनका जितना साम्राज्य है, सब लौटा दिया जाए। इसके बावजूद यशवंतराव ने संधि से इंकार कर दिया। वे सभी शासकों को एकजुट करने में जुटे हुए थे। अंत में जब उन्हें सफलता नहीं मिली तो उन्होंने दूसरी चाल से अंग्रेजों को मात देने की सोची। इस मद्देनजर उन्होंने 1805 ई. में अंग्रेजों के साथ संधि कर ली। अंग्रेजों ने उन्हें स्वतंत्र शासक माना और उनके सारे क्षेत्र लौटा दिए। इसके बाद उन्होंने सिंधिया के साथ मिलकर अंग्रेजों को खदेड़ने का एक और प्लान बनाया। उन्होंने सिंधिया को खत लिखा, लेकिन सिंधिया दगेबाज निकले और वह खत अंग्रेजों को दिखा दिया। इसके बाद पूरा मामला फिर से बिगड़ गया। यशवंतराव ने हल्ला बोल दिया और अंग्रेजों को अकेले दम पर मात देने की पूरी तैयारी में जुट गए। इसके लिए उन्होंने भानपुर में गोला बारूद का कारखाना खोला। इसबार उन्होंने अंग्रेजों को खदेड़ने की ठान ली थी। इसलिए दिन-रात मेहनत करने में जुट गए थे। लगातार मेहनत करने के कारण उनका स्वास्थ्य भी गिरने लगा। लेकिन उन्होंने इस ओर ध्यान नहीं दिया और 28 अक्टूबर 1811 ई. में सिर्फ 35 साल की उम्र में वे स्वर्ग सिधार गए। इस तरह से एक महान शासक का अंत हो गया। एक ऐसे शासक का जिसपर अंग्रेज कभी अधिकार नहीं जमा सके। एक ऐसे शासक का जिन्होंने अपनी छोटी उम्र को जंग के मैदान में झोंक दिया। यदि भारतीय शासकों ने उनका साथ दिया होता तो शायद तस्वीर कुछ और होती, लेकिन ऐसा नहीं हुआ और एक महान शासक यशवंतराव होलकर इतिहास के पन्नों में कहीं खो गया और खो गई उनकी बहादुरी, जो आज अनजान बनी हुई है। .

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यशोवर्मन (कन्नौज नरेश)

हिमालय.jpg himalaya यशोवर्मन का राज्यकाल ७०० से ७४० ई० के बीच में रखा जा सकता है। कन्नौज उसकी राजधानी थी। कान्यकुब्ज (कन्नौज) पर इसके पहले हर्ष का शासन था जो बिना उत्तराधिकारी छोड़े ही मर गये जिससे शक्ति का 'निर्वात' पैदा हुआ। यह भी संभ्भावना है कि उसे राज्याधिकार इससे पहले ही ६९० ई० के लगभग मिला हो। यशोवर्मन्‌ के वंश और उसके प्रारंभिक जीवन के विषय में कुछ निश्चयात्मक नहीं कहा जा सकता। केवल वर्मन्‌ नामांत के आधार पर उसे मौखरि वंश से संबंधित नहीं किया जा सकता। जैन ग्रंथ बप्प भट्ट, सूरिचरित और प्रभावक चरित में उसे चंद्रगुप्त मौर्य का वंशज कहा गया है किंतु यह संदिग्ध है। उसका नालंदा अभिलेख इस विषय पर मौन है। गउडवहो में उसे चंद्रवंशी क्षत्रिय कहा गया है। गउडवहो में यशोवर्मन्‌ की विजययात्रा का वर्णन है। सर्वप्रथम इसके बाद बंग के नरेश ने उसकी अधीनता स्वीकार की। दक्षिणी पठार के एक नरेश को अधीन बनाता हुआ, मलय पर्वत को पार कर वह समुद्रतट तक पहुँचा। उसने पारसीकों (पारसी) को पराजित किया और पश्चिमी घाट के दुर्गम प्रदेशों से भी कर वसूल किया। नर्मदा नदी पहुँचकर, समुद्रतट के समीप से वह मरू देश पहुँचा। तत्पश्चात्‌ श्रीकंठ (थानेश्वर) और कुरूक्षेत्र होते हुए वह अयोध्या गया। मंदर पर्वत पर रहनेवालों को अधीन बनाता हुआ वह हिमालय पहुँचा और अपनी राजधानी कन्नौज लौटा। इस विरण में परंपरागत दिग्विजय का अनुसरण दिखलाई पड़ता है। पराजित राजाओं का नाम न देने के कारण वर्णन संदिग्ध लगता है। यदि मगध के पराजित नरेश को ही गौड़ के नरेश स्वीकार कर लिया जाय तो भी इस मुख्य घटना को ग्रंथ में जो स्थान दिया गया है वह अत्यल्प है। किंतु उस युग की राजनीतिक परिस्थिति में ऐसी विजयों को असंभव कहकर नहीं छोड़ा जा सकता। अन्य प्रमाणों से विभिन्न दिशाओं में यशोवर्मन्‌ की कुछ विजयों का संकेत और समर्थन प्राप्त होता है। नालंदा के अभिलेख में भी उसकी प्रभुता का उल्लेख है। अभिलेख का प्राप्तिस्थान मगध पर उसके अधिकार का प्रमाण है। चालुक्य अभिलेखों में सकलोत्तरापथनाथ के रूप में संभवत: उसी का निर्देश है और उसी ने चालुक्य युवराज विजयादित्य को बंदी बनाया था। अरबों का कन्नौज पर आक्रमण सभवत: उसी के कारण विफल हुआ। कश्मीर के ललितादित्य से भी आरंभ में उसके संबंध मैत्रीपूर्ण थे और संभवत: दोनों ने अरब और तिब्बत के विरूद्ध चीन की सहायता चाही हो किंतु शीघ्र ही ललितादित्य और यशोवर्मन्‌ की महत्वाकांक्षाओं के फलस्वरूप दीर्घकालीन संघर्ष हुआ। संधि के प्रयत्न असफल हुए और यशोंवर्मन्‌ पराजित हुआ। संभवत: युद्ध में यशोवर्मन्‌ की मृत्यु नहीं हुई थी, फिर भी इतिहास के लिये उसका अस्तित्व समाप्त हो जाता है। यशेवर्मन्‌ ने भवभूति और वाक्पतिराज जैसे प्रसिद्ध कवियों को आश्रय दिया था। वह स्वयं कवि था। सुभाषित ग्रथों के कुछ पद्यों और रामाभ्युदय नाटक का रचयिता कहा जाता है। उसने मगध में अपने नाम से नगर बसाया था। उसका यश गउडवहो और राजतरंगिणी के अतिरिक्त जैन ग्रंथ प्रभावक चरित, प्रबंधकोष और बप्पभट्ट चरित एवं उसके नालंदा के अभिलेख में परिलक्षित होता है। कश्मीर से यशोवर्मा के नाम के सिक्के प्राप्त होते हैं। यशोवर्मा के संबंध में विद्वानों ने अटकलबाजियाँ लगाई थीं। कुछ ने उसे कन्नौज का यशोवर्मन्‌ ही माना है। किंतु अब इसमें संदेह नहीं रह गया है कि यशोवर्मा कश्मीर के उत्पलवंशीय नरेश शंकरवर्मन का ही दूसरा नाम था। .

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रिचर्ड चैंसलर

रिचर्ड चैंसलर (Richard Chancellor; जन्म ?- मृत्यु नवंबर १०, १५५६) महान अंग्रेज नाविक तथा अन्वेषक। इन्होने ही सबसे पहले श्वेत सागर को पार किया और रूस से सम्बन्ध स्थापित किये। .

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समास

समास का तात्पर्य है ‘संक्षिप्तीकरण’। दो या दो से अधिक शब्दों से मिलकर बने हुए एक नवीन एवं सार्थक शब्द को समास कहते हैं। जैसे - ‘रसोई के लिए घर’ इसे हम ‘रसोईघर’ भी कह सकते हैं। संस्कृत एवं अन्य भारतीय भाषाओं में समास का बहुतायत में प्रयोग होता है। जर्मन आदि भाषाओं में भी समास का बहुत अधिक प्रयोग होता है। .

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सारा पॉलिन

सारा लुईस पॉलिन (पूर्वकुलनाम - हीथ; जन्म - 11 फ़रवरी 1964) एक अमेरिकी राजनेत्री, लेखिका, वक्ता और राजनीतिक समाचारों की भाष्यकार हैं जो अलास्का की गवर्नर निर्वाचित होने वाली अब तक की सबसे युवा व्यक्ति और पहली महिला थी। उन्होंने 2006 से 2009 में इस्तीफ़ा देने तक गवर्नर के रूप में अपनी सेवा प्रदान की। अगस्त 2008 के राष्ट्रपति चुनाव में रिपब्लिकन पार्टी के राष्ट्रपति पद के प्रार्थी जॉन मैककेन द्वारा उसी वर्ष के राष्ट्रपति पद के चुनाव में उनके साथी उम्मीदवार के रूप में चुनी जाने वाली पॉलिन एक बहुमत पार्टी के राष्ट्रीय टिकट की पहली अलास्कन उमीदवार के साथ-साथ रिपब्लिकन पार्टी की तरफ से उप-राष्ट्रपति पद की पहली महिला उम्मीदवार थी। 3 जुलाई 2009 को पॉलिन ने घोषणा की कि वह गवर्नर के रूप में फिर से निर्वाचित होने की मांग नहीं करेगी और साथ में यह भी कहा कि अपने कार्यकाल के पूरे होने से अठारह महीने पहले 26 जुलाई 2009 को प्रभावी रूप से इस्तीफ़ा देने वाली है। उन्होंने नैतिकता की शिकायतों का उदाहरण प्रस्तुत किया जिसे जॉन मैककेन की साथी उम्मीदवार के रूप में उनके चुने जाने के बाद दायर किया गया था जो उनकी इस्तीफ़ा के कई कारणों में से एक कारण था, उन्होंने कहा कि राज्य का शासन-कार्य करने की उनकी क्षमता पर इस परिणामी जांच-पड़ताल का काफी असर पड़ा था। 2008 में मैककेन-पॉलिन टिकट की हार से पहले यह अटकलबाज़ी शुरू हो गई थी कि वह रिपब्लिकन पार्टी की तरफ से 2012 में राष्ट्रपति पद के नामांकन के लिए खड़ी होगी। फरवरी 2010 में उन्होंने अपने बयान में कहा कि वह इसकी सम्भावना का विकल्प खुला रखेंगी.

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साइक्स-पिकाट समझौता

साइक्स-पिकाट समझौता, जो आधिकारिक तौर पर एशिया माइनर समझौते के रूप में जाना जाता है। ब्रिटेन और फ्रांस की सरकारों के बीच एक गुप्त समझौता था, जिसे रूस की स्वीकृति भी थी। यह समझौता पश्चिमी एशिया में ट्रिपल अंतेंत के अपने प्रस्तावित नियंत्रण और प्रभाव क्षेत्रों को परिभाषित करने के लिए था, अगर प्रथम विश्व युद्घ में ट्रिपल अंतेंत तुर्क साम्राज्य को हराने में सफल होता है। संधि की बातचीत नवंबर 1915 और मार्च 1916 के बीच हुई। समझौता 16 मई 1916 को संपन्न हुआ था। समझौते में प्रभावी ढंग से अरब प्रायद्वीप के बाहर तुर्क साम्राज्य के अरब प्रांतों को भविष्य के ब्रिटिश और फ्रांसीसी नियंत्रण या प्रभाव के क्षेत्रों में विभाजित किया गया था। इस पर फ्रांसीसी राजनयिक फ्रंकोईस जॉरजिस पिकाट और ब्रिटिश सर मार्क साइक्स से बातचीत हुई। रूसी जारिस्ट सरकार साइक्स - पिकाट समझौता के लिए एक छोटी मध्यस्थ पार्टी थी। और जब अक्टूबर 1917 की रूसी क्रांति के बाद बोल्शेविकों ने इस समझौते को उजागरकर दिया तब ब्रिटिश शर्मिंदा, अरब निराश और तुर्क खुश थे। .

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सिंहली भाषा

सिंहली भाषा श्रीलंका में बोली जाने वाली सबसे बड़ी भाषा है। सिंहली के बाद श्रीलंका में सबसे ज्यादा बोली जानेवाली भाषा तमिल है। प्राय: ऐसा नहीं होता कि किसी देश का जो नाम हो, वही उस दश में बसने वाली जाति का भी हो और वही नाम उस जाति द्वारा व्यवहृत होने वाली भाषा का भी हो। सिंहल द्वीप की यह विशेषता है कि उसमें बसने वाली जाति भी "सिंहल" कहलाती चली आई है और उस जाति द्वारा व्यवहृत होने वाली भाषा भी "सिंहल"। .

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संधि (बहुविकल्पी)

संधि संस्कृत का एक शब्द है जिसका सामान्य अर्थ होता जोड़, जुड़ाव, योजन इत्यादि। संधि का आधुनिक हिन्दी में कई अन्य अर्थों में भी प्रयोग होता है जिसमें समझौता या सुलह करना मुख्य है।.

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संधि-विच्छेद संग्रह

दो वर्णों के मेल से होने वाले विकार को संधि कहते हैं। इस मिलावट को समझकर वर्णों को अलग करते हुए पदों को अलग-अलग कर देना संधि-विच्छेद है। हिंदी भाषा में संधि द्वारा संयुक्त शब्द लिखने का सामान्य चलन नहीं है। पर संस्कृत में इसके बिना काम नहीं चलता है। संस्कृत के तत्सम शब्द ग्रहण कर लेने के कारण संस्कृत व्याकरण के संधि के नियमों को हिंदी व्याकरण में भी ग्रहण कर लिया गया है। शब्द रचना में संधियाँ उसी प्रकार सहायक है जैसे उपसर्ग, प्रत्यय, समास आदि। यहाँ वर्णक्रम से संधि तथा उसके विच्छेद संग्रहित किए गए हैं। साथ ही संधि का प्रकार भी निर्देशित है। .

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संस्कृत भाषा

संस्कृत (संस्कृतम्) भारतीय उपमहाद्वीप की एक शास्त्रीय भाषा है। इसे देववाणी अथवा सुरभारती भी कहा जाता है। यह विश्व की सबसे प्राचीन भाषा है। संस्कृत एक हिंद-आर्य भाषा हैं जो हिंद-यूरोपीय भाषा परिवार का एक शाखा हैं। आधुनिक भारतीय भाषाएँ जैसे, हिंदी, मराठी, सिन्धी, पंजाबी, नेपाली, आदि इसी से उत्पन्न हुई हैं। इन सभी भाषाओं में यूरोपीय बंजारों की रोमानी भाषा भी शामिल है। संस्कृत में वैदिक धर्म से संबंधित लगभग सभी धर्मग्रंथ लिखे गये हैं। बौद्ध धर्म (विशेषकर महायान) तथा जैन मत के भी कई महत्त्वपूर्ण ग्रंथ संस्कृत में लिखे गये हैं। आज भी हिंदू धर्म के अधिकतर यज्ञ और पूजा संस्कृत में ही होती हैं। .

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संस्कृत व्याकरण

संस्कृत में व्याकरण की परम्परा बहुत प्राचीन है। संस्कृत भाषा को शुद्ध रूप में जानने के लिए व्याकरण शास्त्र किया जाता है। अपनी इस विशेषता के कारण ही यह वेद का सर्वप्रमुख अंग माना जाता है ('वेदांग' देखें)। व्याकरण के मूलतः पाँच प्रयोजन हैं - रक्षा, ऊह, आगम, लघु और असंदेह। व्याकरण के बारे में निम्नलिखित श्लोक बहुत प्रसिद्ध है।- - जिसके लिए "विहस्य" छठी विभक्ति का है और "विहाय" चौथी विभक्ति का है; "अहम् और कथम्"(शब्द) द्वितीया विभक्ति हो सकता है। मैं ऐसे व्यक्ति की पत्नी (द्वितीया) कैसे हो सकती हूँ ? .

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सुरूद-ए-मिल्ली

ताजिकिस्तान का झंडा ताजिकिस्तान का नक़्शा सुरूद-ए-मिल्ली (ताजिकी: Суруди миллӣ) ताजिकिस्तान का राष्ट्रगान है। इसके बोल गुलनज़र कॅल्दीऍव (Гулназар Келдиев) ने लिखे थे और इसका संगीत सुलेमान युदाकोव (Сулаймон Юдаков) ने बनाया था। ताजिकिस्तान कभी सोवियत संघ का हिस्सा हुआ करता था और जो उस समय ताजिकिस्तान का राष्ट्रगान था उसी का संगीत नए राष्ट्रगान में भी इस्तेमाल किया गया। .

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सैन्य नीति

अन्तरराष्ट्रीय सुरक्षा तथा सेना से सम्बन्धित सार्वजनिक नीति को सैन्य नीति (Military policy या defence policy) कहते हैं। सैन्य नीति यह सुनिश्चित करने के लिये बनायी जाती है कि शत्रुओं द्वारा पैदा की गयी कठिनाइयों को दूर करते हुए स्वतन्त्र बने रहें और विकास करते रहें। 'शत्रु' के अन्तर्गत राज्य, अर्ध-राज्य (quasi-state) समूह, गैर-राज्य समूह आदि सभी आते हैं। सैन्य नीति में शान्ति बनाये रखने से लेकर, विवादों के निपटान के लिये, संकट के परबन्धन, और शत्रुओं से युद्ध आदि से सम्बन्धित सभी नीतियों का समावेश होता है। सैन्य नीति के अन्तर्गत वे सभी उच्चस्तरीय विकल्प और सिद्धान्त आते हैं जो सरकारें अपनी रक्षा के लिये अपनातीं हैं-.

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जयपाल

जयपाल काबुल में जाट राजवंश का प्रसिद्ध शासक था जिसने 964 से 1001 ई तक शासन किया। उसका राज्य लघमान से कश्मीर तक और सरहिंद से मुल्तान तक विस्तृत था। पेशावर इसके राज्य का केन्द्र था। वह हतपाल का पुत्र तथा आनन्दपाल का पिता था। बारी कोट के शिलालेख के अनुसार उसकी पदवी "परम भट्टरक महाराजाधिराज श्री जयपालदेव" थी। मुसलमानों का भारत में प्रथम प्रवेश जयपाल के काल में हुआ। 977 ई. में गजनी के सुबुक्तगीन ने उस पर आक्रमण कर कुछ स्थानों पर अधिकार कर लिया। जयपाल ने प्रतिरोध किया, किंतु पराजित होकर उसे संधि करनी पड़ी। अब पेशावर तक मुसलमानों का राज्य हो गया। दूसरी बार सुबुक्तगीन के पुत्र महमूद गजनवी ने जयपाल को पराजित किया। लगातार पराजयों से क्षुब्ध होकर इसने अपने पुत्र अनंगपाल को अपना उत्तराधिकारी बनाया और आग में जलकर आत्महत्या कर ली। .

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जुस्तिनियन द्वितीय

जुस्तिनिअन द्वितीय (Justinian II; 669 – 11 दिसम्बर 711) बाइजेण्टाइन साम्राज्य (पूर्वी रोमन साम्राज्य) का अन्तिम शासक था जिसने 685 से 695 तथा पुनः 705 से 711 तक शासन किया। जुस्तिनियन द्वितीय अपने पिता, कांसटेनटाइन चतुर्थ की मृत्यु के बाद सन् ६८५ में वह सिंहासनारूढ़ हुआ। उसने अरबों पर सफलतापूर्वक आक्रमण किया किंतु बाद में उनसे संधि कर ली। अनेक कूर कृत्यों के कारण तथा खर्चीले शासन के लिये प्रजा से धन वसूल करने में सख्ती करने से विद्रोह की आग भड़क उठी, जिससे ६९५ में उसके सेनापति लियोनटिअस ने उसे गद्दी से उतार दिया। १५ हजार अश्वारोही सेना इकट्ठी कर सन् ७०४ में उसने कुस्तुनतुनियाँ पर हमला किया और पुन: सिंहासनारूढ़ हो गया। उसकी क्रूरताओं के कारण एक बार फिर जनता में तथा सामान्य वर्ग में असंतोष व्याप्त हो गया और फिलिपिकस बार्डेस द्वारा उसका वध कर दिया गया। श्रेणी:रोमन साम्राज्य का इतिहास.

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विलियम टेंपिल

विलियम टेम्पिल सर विलियम बार्ट टेंपिल, (Sir William Temple, 1st Baronet; १६२८ - १६९९) अंग्रेज राजनीतिज्ञ और निबन्धकार थे। .

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विल्सन के चौदह सिद्धान्त

प्रथम विश्वयुद्ध में जर्मनी परास्त हो चुका था और फ्रांस विजेताओं की कतार में खड़ा था। युद्ध की समाप्ति पर युद्धविराम की संधियों पर हस्ताक्षर करने हेतु फ्रांस की राजधानी पेरिस में एक शांति सम्मेलन आयोजन किया गया। इस शांति सम्मेलन में भाग लेने के लिए 32 राज्यों के प्रतिनिधियों को आमंत्रित किया गया। इस सम्मेलन में अमेरिका के राष्ट्रपति के अतिरिक्त 11 देशों के प्रधानमंत्री, 12 विदेश मंत्री एवं अन्य राज्यों के प्रसिद्ध राजनीतिज्ञ एकत्रित हुए थे। चूँकि रूस में साम्यवादी क्रांति आंरभ हो गई थी और पश्चिमी राष्ट्र साम्यवाद के विरोधी थे अतः सोवियत रूस को इस सम्मेलन में आमंत्रित नहीं किया गया। इस सम्मेलन में पराजित राष्ट्रों - जर्मनी, आस्ट्रिया, तुर्की और बल्गारिया को भी स्थान नहीं दिया गया था। इस प्रकार इस सम्मेलन में 32 राज्यों के 70 प्रतिनिधि एकत्रित हुए। इस सम्मेलन में 5 पराजित राष्ट्रों के साथ पृथक-पृथक संधि की गयी जिसमें वर्साय की संधि प्रमुख है। अमेरिका के राष्ट्रपति वुड्रो विल्सन ने अपने 14 सूत्रों में से एक सूत्र में कहा था कि 'छोटे बड़े सभी राष्ट्रों को समान रूप से राजनीतिक स्वतंत्रता तथा प्रादेशित अखण्डता का आश्वासन देने के लिये राष्ट्र संघ की स्थापना की जाये।' इस प्रकार विल्सन महोदय ने विश्व शांति की स्थापना के लिये एक अंतर्राष्ट्रीय संस्था की स्थापना पर बल दिया था। वस्तुतः विल्सन के 14 सूत्रों के आधार पर ही प्रथम विश्व युद्ध में जर्मनी ने आत्म समर्पण किया था। इसी आधार पर 10 जनवरी 1920 ई. को राष्ट्र संघ की विधिवत् स्थापना हुई। .

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वक्रोक्ति सिद्धान्त

वक्रोक्ति दो शब्दों 'वक्र' और 'उक्ति' की संधि से निर्मित शब्द है। इसका शाब्दिक अर्थ है- ऐसी उक्ति जो सामान्य से अलग हो। भामह ने वक्रोक्ति को एक अलंकार माना था। उनके परवर्ती कुंतक ने वक्रोक्ति को एक संपूर्ण सिद्धांत के रूप में विकसित कर काव्य के समस्त अंगों को इसमें समाविष्ट कर लिया। इसलिए कुंतक को वक्रोक्ति संप्रदाय का प्रवर्तक आचार्य माना जाता है। .

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व्यंजन संधि

यह संधि का एक रूप होता है। व्यंजन का व्यंजन से अथवा किसी स्वर से मेल होने पर जो परिवर्तन होता है उसे व्यंजन संधि कहते हैं। जैसे-शरत् + चंद्र .

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वैज्ञानिक तथा तकनीकी शब्दावली आयोग

वैज्ञानिक तथा तकनीकी शब्दावली आयोग (सीएसटीटी) हिन्दी और अन्य सभी भारतीय भाषाओं के वैज्ञानिक और तकनीकी शब्दों को परिभाषित एवं नए शब्दों का विकास करता है। भारत की स्वतंत्रता के बाद वैज्ञानिक-तकनीकी शब्दावली के लिए शिक्षा मंत्रालय ने सन् १९५० में बोर्ड की स्थापना की। सन् १९५२ में बोर्ड के तत्त्वावधान में शब्दावली निर्माण का कार्य प्रारंभ हुआ। अन्तत: १९६० में केन्द्रीय हिन्दी निदेशालय और 1961 ई. में वैज्ञानिक तथा तकनीकी शब्दावली आयोग की स्थापना हुई। इस प्रकार विभिन्न अवसरों पर तैयार शब्दावली को 'पारिभाषिक शब्द संग्रह' शीर्षक से प्रकाशित किया गया, जिसका उद्देश्य एक ओर वैज्ञानिक तथा तकनीकी शब्दावली आयोग के समन्वय कार्य के लिए आधार प्रदान करना था और दूसरी ओर अन्तरिम अवधि में लेखकों को नई संकल्पनाओं के लिए सर्वसम्मत पारिभाषिक शब्द प्रदान करना था। स्वतंत्रता के बाद भारत के संविधान के निर्माताओं का ध्यान देश की सभी प्रमुख भाषाओं के विकास की ओर गया। संविधान में हिंदी को संघ की राजभाषा के रूप में मान्यता दी गई और केंद्रीय सरकार को यह दायित्व सौंपा गया कि वह हिंदी का विकास-प्रसार करें एवं उसे समृद्ध करे। तदनुसार भारत सरकार के केंद्रीय शिक्षा मंत्रालय ने संविधान के अनुच्छेद 351 के अधीन हिंदी का विकास एवं समृद्धि की अनेक योजनाएँ आरंभ कीं। इन योजनाओं में हिंदी में तकनीकी शब्दावली के निर्माण का कार्यक्रम भी शामिल किया गया ताकी ज्ञान-विज्ञान की सभी शाखाओं में हिंदी के माध्यम से अध्ययन एवं अध्यापन हो सके। शब्दावली निर्माण कार्यक्रम को सही दिशा देने के लिए 1950 में शिक्षा सलाहकार की अध्यक्षता में वैज्ञानिक शब्दावली बोर्ड की स्थापना की गई। पहले यह कार्य शिक्षा मंत्रालय के अंतर्गत हिंदी एकक द्वारा किया जाता था किन्तु बाद में विभिनन विषयों की हिंदी शब्दावली का निर्माण करने के दौरान यह ज्ञात हुआ कि यह काम बहुत ही अधिक विशाल, गहन और बहुआयामी है। इसके पूरे होने में बहुत सकय लगेगा और इस कार्य के लिए सभी विषयों के विशेषज्ञों एवं भाषाविदों की आवश्यकता होगी। अतः भारत सरकार ने 1 अक्तूबर, 1961 को प्रख्यात वैज्ञानिक डॉ॰ डी.एस. कोठारी की अध्यक्षता में वैज्ञानिक तथा तकनीकी शब्दावली आयोग की स्थापना की ताकि शब्दावली निर्माण का कार्य सही एवं व्यापक परिप्रेक्ष्य में कार्यान्वित किया जा सके। .

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खुसरू प्रथम

खुसरू प्रथम एक न्यायप्रिय राजा था। (तेहरान राजदरबार में) खुसरू प्रथम कवाध या कोवाद प्रथम का प्रिय पुत्र और फारस के ससानीद वंश का सबसे गौरवशाली राजा था। इसे 'नौशेरवाँ आदिल', 'नौशेरवाँ' या 'अनुशेरवाँ' भी कहते हैं। पश्चिमी लेखकों ने इसे 'खोसरोज' अर्थात् खुसरू और अरबों ने 'किसरा' कहा है। .

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गुड़ी पड़वा

गुड़ी पड़वा (मराठी-पाडवा) के दिन हिन्दू नव संवत्सरारम्भ माना जाता है। चैत्र मास की शुक्ल प्रतिपदा को गुड़ी पड़वा या वर्ष प्रतिपदा या उगादि (युगादि) कहा जाता है। इस दिन हिन्दु नववर्ष का आरम्भ होता है। 'गुड़ी' का अर्थ 'विजय पताका' होता है। कहते हैं शालिवाहन नामक एक कुम्हार-पुत्र ने मिट्टी के सैनिकों की सेना से प्रभावी शत्रुओं का पराभव किया। इस विजय के प्रतीक रूप में शालिवाहन शक का प्रारंभ इसी दिन से होता है। ‘युग‘ और ‘आदि‘ शब्दों की संधि से बना है ‘युगादि‘। आंध्र प्रदेश और कर्नाटक में ‘उगादि‘ और महाराष्ट्र में यह पर्व 'ग़ुड़ी पड़वा' के रूप में मनाया जाता है।इसी दिन चैत्र नवरात्रि का प्रारम्भ होता है। .

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कवाध द्वितीय

कवाध द्वितीय फारस के ससानी वंश का राजा तथा खुसरू परवेज का पुत्र था। वह ६२८ ई. की फरवरी में, पिता के गद्दी से उतारे जाने के बाद, सिंहासनारूढ़ हुआ। गद्दी पर बैठते ही उसने रोम के सम्राट् हिराक्लियस से संधि कर ली। वह ६२९ ई. में मरा। श्रेणी:ईरान का इतिहास.

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कॉनकॉर्ड

Aérospatiale-BAC Concorde एक टर्बोजेट-चालित यात्री विमान, एक सुपरसोनिक परिवहन (SST) है। यह इंग्लैंड और फ्रांसिसि सरकार का संयुक्त उत्पाद है। इसका निर्माण एयरोस्पेशियल और ब्रितानी विमान निगमकी संयुक्त प्रौद्योगिकी से हुआ है। इसने 1969 में पहली बार उड़ान भरा तथा 1976 से अपनी सेवाएं देनी प्रारंभ कर दी। इसकी सेवाएं अगले 27 वर्षों तक जारी रही। इसने लंदन के हीथ्रो (ब्रिटिश एयरवेज़) और पेरिस के चार्ल्स डे गॉले हवाई अड्डे से न्यूयॉर्क और वाशिंगटन डीसीके लिए नियमित रूप से उड़ाने भरी। रिकॉर्ड गति से चलने वाले इस विमान ने अन्य विमानों की तुलना में इस ट्रांस-अटलांटिक दूरी को आधे समय में तय की। इसलिए यह विमानन कंपनियों और यात्रियों के लिए काफी लाभप्रद साबित हुआ। इस तरह के केवल 20 विमानों का निर्माण किया गया जो इस बात का द्योतक है कि इसका विकास आर्थिक दृष्टि से नुकसानदायक था। इस विमान को खरीदने के लिए एयर फ़्रांस और ब्रिटिश एयरवेज़ को उनकी सरकारों द्वारा आर्थिक सहायता दी गई थी। 25 जुलाई 2000 को एयर फ्रांस का न्युयॉर्क की उड़ान पर जा रहा कॉनकॉर्ड विमान दुर्घटनाग्रस्त हो गया था जिसमें 113 लोगों की मृत्यु हो गई थी। इस एकमात्र दुर्घटना, 11 सितंबर 2001 के हमलों से उत्पन्न होने वाले आर्थिक प्रभाव और अन्य कारकों के परिणामस्वरूप, 24 अक्टूबर 2003 में इसका प्रचालन बंद कर दिया गया। 26 नवम्बर 2003 को इसने आखिरी उड़ान भरी। एक पूर्व एयर फ़्रांस कॉनकॉर्ड (F-BTSD) की बहाली का प्रयास जारी है और आशा व्यक्त की जा रही है कि वह 2012 ग्रीष्मकालीन ओलंपिक समय पर उड़ान भरेगा। यह कई संस्थाओं द्वारा विमानन प्रतीक के रूप में सम्मानित हुआ। .

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अफ्रीका का विभाजन

स्वतन्त्र सन १८८१ और १९१४ के बीच यूरोपीय शक्तियों द्वारा अफ्रीकी भूभाग पर आक्रमण करके उस पर अधिकार, उपनिवेशीकरण, और उस भूभाग को हड़प लेने को अफ्रीका का विभाजन (Partition of Africa) कहते हैं। इसको अफ्रीका के लिये हाथापाई (Scramble for Africa) और अफ्रीका पर विजय (Conquest of Africa) भी कहते हैं। इस समयावधि को 'नव उपनिवेशवाद काल' कहते हैं। सन १८७० में अफ्रीका के केवल १० प्रतिशत भूभाग पर यूरोपीय शक्तियों का अधिकार था किन्तु १९१४ तक उसके ९० प्रतिशत भूभाग पर यूरोप का अधिकार हो गया था। इस समय केवल अबीसिनिया (इथियोपिया) और लाइबेरिया ही स्वतन्त्र बचे थे। सन १८८४ में सम्पन्न हुए बर्लिन सम्मेलन को प्रायः अफ्रीका के विभाजन का आरम्भिक बिन्दु माना जाता है। १९ शताब्दी के अन्तिम भाग में यूरोपीय साम्राज्यों के बीच जबरदस्त राजनीतिक एवं आर्थिक स्पर्धा होने के बावजूद अफ्रीका को शान्तिपूर्ण ढंग से बाँट लिया और इस बंटवारे ने उन्हें आपस में युद्धरत होने से भी बचा लिया। अफ्रीका का विभाजन यूरोप के इतिहास की एक अत्यंत रोमांचक घटना मानी गयी है। विभाजन के महत्वपूर्ण कार्य को अत्यंत शीघ्रता से संपादित किया गया। यद्यपि विभाजनकर्ता विभिन्न राष्ट्रों में आपस में अनेक मतान्तर थे किन्तु फिर भी बिना कोई युद्ध लड़े इस कार्य को शांतिपूर्ण ढंग से पूर्ण कर लिया गया। .

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अर्थशास्त्र

---- विश्व के विभिन्न देशों की वास्तविक सकल घरेलू उत्पाद की वृद्धि दर (सन २०१४) अर्थशास्त्र सामाजिक विज्ञान की वह शाखा है, जिसके अन्तर्गत वस्तुओं और सेवाओं के उत्पादन, वितरण, विनिमय और उपभोग का अध्ययन किया जाता है। 'अर्थशास्त्र' शब्द संस्कृत शब्दों अर्थ (धन) और शास्त्र की संधि से बना है, जिसका शाब्दिक अर्थ है - 'धन का अध्ययन'। किसी विषय के संबंध में मनुष्यों के कार्यो के क्रमबद्ध ज्ञान को उस विषय का शास्त्र कहते हैं, इसलिए अर्थशास्त्र में मनुष्यों के अर्थसंबंधी कायों का क्रमबद्ध ज्ञान होना आवश्यक है। अर्थशास्त्र का प्रयोग यह समझने के लिये भी किया जाता है कि अर्थव्यवस्था किस तरह से कार्य करती है और समाज में विभिन्न वर्गों का आर्थिक सम्बन्ध कैसा है। अर्थशास्त्रीय विवेचना का प्रयोग समाज से सम्बन्धित विभिन्न क्षेत्रों में किया जाता है, जैसे:- अपराध, शिक्षा, परिवार, स्वास्थ्य, कानून, राजनीति, धर्म, सामाजिक संस्थान और युद्ध इत्यदि। प्रो.

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अवग्रह

अवग्रह (ऽ) एक देवनागरी चिह्न है जिसका प्रयोग संधि-विशेष के कारण विलुप्त हुए 'अ' को प्रदर्शित करने के लिए किया जाता है। जैसे प्रसिद्ध महावाक्य 'सोऽहम्' में। पाणिनीय व्याकरण (अष्टाध्यायी) में इसके संबंध में नियम है- अर्थात्- पद के अन्त में ए/ओ के बाद यदि अकार आये तो अकार लुप्त हो जाता है तथा ए/ओ का पूर्वरूप (पहले जैसा) हो जाता है। यहाँ इसी लुप्त हुए 'अ' को अवग्रह चिह्न 'ऽ' से प्रदर्शित करते हैं। इसी प्रकार- बालकः+अयम्.

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अंग तंत्र

तंत्र का एक उदाहरण - तंत्रिका तंत्र; इस चित्र में दिखाया गया है कि यह तंत्र मूलत: चार अंगों से मिलकर बना है: मस्तिष्क, प्रमस्तिष्क (cerebellum), मेरुदण्ड (spinal cord) तथा तंत्रिकाएं (nerve) नाना प्रकार के ऊतक (tissue) मिलकर शरीर के विभिन्न अंगों (organs) का निर्माण करते हैं। इसी प्रकार, एक प्रकार के कार्य करनेवाले विभिन्न अंग मिलकर एक अंग तंत्र (organ system) का निर्माण करते हैं। कई अंग तंत्र मिलकर जीव (जैसे, मानव शरीर) की रचना करते हैं। .

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