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शब्दकोशों का इतिहास

सूची शब्दकोशों का इतिहास

शब्दकोशों के आरंभिक अस्तित्व की चर्चा में अनेक देशों और जातियों के नाम जुडे़ हुए हैं। भारत में पुरातनतम उपलब्ध शब्दकोश वैदिक 'निघण्टु' है। उसका रचनाकाल कम से कम ७०० या ८०० ई० पू० है। उसके पूर्व भी 'निघंटु' की परंपरा थी। अत: कम से कम ई० पू० १००० से ही निघंटु कोशों का संपादन होने लगा था। कहा जाता है कि चीन में ईसवी सन् के हजारों वर्ष पहले से ही कोश बनने लगे थे। पर इस श्रुतिपरंपरा का प्रमाण बहुत बाद— आगे चलकर उस प्रथम चीनी कोश में मिलता है, जिसका रचना 'शुओ वेन' (एस-एच-यू-ओ-डब्ल्यू-ई-एन) ने पहली दूसरी शदी ई० के आसपास की थी (१२१ ई० भी इसका निर्माण काल कहा गया है)। चीन के 'हान' राजाओं के राज्य- काल में भाषाशास्त्री 'शुओ बेन' के कोश को उपलब्ध कहा गया है। यूरेशिया भूखंड में एक प्राचीनतम 'अक्कादी-सुमेरी' शब्दकोश का नाम लिया जाता है जिसके प्रथम रूप का निर्माण— अनुमान और कल्पना के अनुसार—ई० पू० ७वीं शती में बताया जाता है। कहा जाता है कि हेलेनिस्टिक युग के यूनानियों नें भी योरप में सर्वप्रथम कोशरचना उसी प्रकार आरंभ की थी जिस प्रकार साहित्य, दर्शन, व्याकरण, राजनीति आदि के वाङ्मय की। यूनानियों का महत्व समाप्त होने के बाद और रोमन साम्राज्य के वैभवकाल में तथा मध्यकाल में भी बहुत से 'लातिन' कोश बने। 'लतिन' का उत्कर्ष और विस्तार होने पर लतिन तथा लातिन + अन्यभाषा-कोश, शनै: शनै: बनते चले गए। सातवीं-आठवीं शती ई० में निर्मित एक विशाल 'अरबी शब्दकोश' का उल्लेख भी उपलब्ध है। .

14 संबंधों: पश्चिम में आधुनिक कोशविद्या, पारिभाषिक शब्दावली, पालि, प्राकृत और अपभ्रंश का कोश वाङ्मय, शब्दकल्पद्रुम, शब्दकोश, संस्कृत शब्दकोश, संस्कृत के प्राचीन एवं मध्यकालीन शब्दकोश, संस्कृत के आधुनिक कोश, हिन्दुस्तानी, हिन्दी एवं उर्दू के आधुनिक शब्दकोश, हिन्दीतर भारतीय भाषाओं के आधुनिक शब्दकोश, हिंदी के मध्यकालीन शब्दकोश, वाचस्पत्यम्, कोशकर्म, अंग्रेजी शब्दकोशों का इतिहास

पश्चिम में आधुनिक कोशविद्या

कोई विवरण नहीं।

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पारिभाषिक शब्दावली

पारिभाषिक शब्दावली या परिभाषा कोश, "ग्लासरी" (glossary) का प्रतिशब्द है। "ग्लासरी" मूलत: "ग्लॉस" शब्द से बना है। "ग्लॉस" ग्रीक भाषा का glossa है जिसका प्रारंभिक अर्थ "वाणी" था। बाद में यह "भाषा" या "बोली" का वाचक हो गया। आगे चलकर इसमें और भी अर्थपरिवर्तन हुए और इसका प्रयोग किसी भी प्रकार के शब्द (पारिभाषिक, सामान्य, क्षेत्रीय, प्राचीन, अप्रचलित आदि) के लिए होने लगा। ऐसे शब्दों का संग्रह ही "ग्लॉसरी" या "परिभाषा कोश" है। ज्ञान की किसी विशेष विधा (कार्य क्षेत्र) में प्रयोग किये जाने वाले शब्दों की उनकी परिभाषा सहित सूची पारिभाषिक शब्दावली (glossary) या पारिभाषिक शब्दकोश कहलाती है। उदाहरण के लिये गणित के अध्ययन में आने वाले शब्दों एवं उनकी परिभाषा को गणित की पारिभाषिक शब्दावली कहते हैं। पारिभाषिक शब्दों का प्रयोग जटिल विचारों की अभिव्यक्ति को सुचारु बनाता है। महावीराचार्य ने गणितसारसंग्रहः के 'संज्ञाधिकारः' नामक प्रथम अध्याय में कहा है- इसके बाद उन्होने लम्बाई, क्षेत्रफल, आयतन, समय, सोना, चाँदी एवं अन्य धातुओं के मापन की इकाइयों के नाम और उनकी परिभाषा (परिमाण) दिया है। इसके बाद गणितीय संक्रियाओं के नाम और परिभाषा दी है तथा अन्य गणितीय परिभाषाएँ दी है। द्विभाषिक शब्दावली में एक भाषा के शब्दों का दूसरी भाषा में समानार्थक शब्द दिया जाता है व उस शब्द की परिभाषा भी की जाती है। अर्थ की दृष्टि से किसी भाषा की शब्दावली दो प्रकार की होती है- सामान्य शब्दावली और पारिभाषिक शब्दावली। ऐसे शब्द जो किसी विशेष ज्ञान के क्षेत्र में एक निश्चित अर्थ में प्रयुक्त होते हैं, वह पारिभाषिक शब्द होते हैं और जो शब्द एक निश्चित अर्थ में प्रयुक्त नहीं होते वह सामान्य शब्द होते हैं। प्रसिद्ध विद्वान आचार्य रघुवीर बड़े ही सरल शब्दों में पारिभाषिक और साधारण शब्दों का अन्तर स्पष्ट करते हुए कहते हैं- पारिभाषिक शब्दों को स्पष्ट करने के लिए अनेक विद्वानों ने अनेक प्रकार से परिभाषाएं निश्चित करने का प्रयत्न किया है। डॉ॰ रघुवीर सिंह के अनुसार - डॉ॰ भोलानाथ तिवारी 'अनुवाद' के सम्पादकीय में इसे और स्पष्ट करते हुए कहते हैं- .

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पालि, प्राकृत और अपभ्रंश का कोश वाङ्मय

मध्यकालीन भारतीय आर्यभाषाओं का वाङ्मय भी कोशों से रहित नहीं था। पालि भाषा में अनेक कोश मिलते हैं। इन्हें 'बौद्धकोश' भी कहा गया है। उनकी मुख्य उपयोगिता पालि भाषा के बौद्ब-साहित्य के समझाने में थी। उनकी रचना पद्यबद्ध संस्कृतकोशों की अपेक्षा गद्यमय निघंटुओं के अधिक समीप है। बहुधा इनका संबंध विशेष ग्रंथों से रहा है। पालि का महाव्युत्पति कोश २८५ अध्यायों में लगभग नौ हजार श्लोकों का परिचय देनेवाला है। बौद्ध संप्रदाय के पारिभाषिक शब्दों का अर्थ देने के साथ-साथ पशु पक्षियों, वनस्पतियों और रोगों आदि के पर्यायों का इसमें संग्रह है। इसमें लगभग ९००० शब्द संकलित है। दूसरी और मुहावरों नामधातु के रूपों और वाक्यों के भी संकलन है। पाली का दूसरा विशेष महत्वपूर्ण कोश अभिधान प्रदीपिका (अभिधानप्पदीपिका) है। यह संस्कृत के अमरकोश की रचनाशैली की पद्धति पर तथा उसके अनुकरण पर छंदोबद्ध रूप में निर्मित है। 'अमरकोश' के अनेक श्लोकों का भी इसमें पालिरूपांतरण है। इसी प्रकार भिक्षु सद्धर्मकीर्ति के एकाक्षर कोश का भी नामोल्लेख मिलता है। प्राकृत भाषा में उपलब्ध कोशों की संख्या कम है। जैन भांडागारों से कुछ प्राकृत और अपभ्रंश के कोशों की विद्यमानता का पता चला है। धनपाल (समय ९७२ ई० से ९९७ ई० के बीच) विरचित 'पाइअलच्छीनाममाला' कदाचित् प्राकृत का सर्वप्राचीन उपलब्ध कोश है। इनके गद्यकाव्य 'तिलकमंजरी' के उल्लेखानुसार 'मुंजराज' ने इन्हे 'संरस्वती' उपाधि दी थी। गथाछंद में रचित, अध्यायविरहित इस कोश में क्रम से श्लोक, श्लोकार्ध और पद (चरण) एवं शब्द में पर्यायवाची शब्द निर्दिष्ट है। 'हेमचंद्र' ने अपने 'देशीनाममाला' में इसकी सहायता का टीका में उल्लेख किया है। हेमचंद्र रचित 'देशीनाममाला' नाम से प्रसिद्ध प्राकृत का महत्वपूर्ण और विख्यात कोश कहा जाता है। देश शब्द वस्तुतः प्राकृत का पर्याय नहीं है, उसकी सीमा में प्राकृत और अपभ्रंश का जो हेमचंद्र के समय तक उक्त भाषाओं के ग्रंथो में मिलते थे उन्हीं का संग्रह है। देशी से सामान्यतः आभास यह होता है कि जो शब्द संकृत तत्सम शब्दों से व्युत्पन्न न होकर तत्तत् देश की लौकिक भाषाओं के अव्युत्पन्न शब्द थे उन्हीं को देशी कहा गया है। देशज भी उन्हीं का परिचायक है। पंरतु तथ्य यह नहीं है। देशी, नाममाला के बहुत से शब्द देशज अवश्य है। परंतु जिन तद्भव शब्दों की व्युत्पत्ति संस्कृत तत्सर शब्दों से हेमचंद्र संबद्ध न कर सके उन्हें अव्युत्पन्न देशज शब्द मान लिया। प्राकृत के व्याकरण नियमों के अनुसार जिनकी तद्भवसिद्धि नहीं दिखाई जा सकी, उन्हीं को यहाँ देशी कहकर संकलित किया गया। परंतु 'देशीनाममाला' में ऐसे शब्दों की संख्या बहुत बड़ी है जो संस्कृत के तद्भव व्युत्पन्न शब्द है। चूँकि प्राकृत व्याकरणानुसार हेमचंद्र उनका संबंध, मूल संस्कृत शब्दों से जोड़ने में असमर्थ रहे अतः उन्हें देशी कह दिया। फलतः हम कह सकसे है कि देशी शब्द का यहाँ इतना ही अर्थ है कि उन शब्दों की व्युत्पत्ति का संबंध जीड़ने में हेमचंद्र का व्याकरणाज्ञान असमर्थ रहा। इनके अतिरिक्त दो देशी कोशों का भी उल्लेख मिलते है - एक सूत्नरूप में और दूसरा गोपाल कृत छंदोबद्ध। द्रोणकृत एक देशी कोश का नाम भी मिलता है। इसी तरह शिलांग का भी कोई देशी कोश रहा होगा। हेमचंद्र ने देशीनाममाला में अपना मतभेद और विरोध उक्त केशकार के मत के साथ प्रकट किया। हेमचंद्र के प्राकृत शब्दसमूह में उपलब्ध अनेक तत्पूर्ववर्ती देशी शब्दकोशकारों का उल्लेख मिलता है। हेमचंद्र ने ही जिन कोशकारों को सर्वाधिक महत्व दिया है उनमें राहुलक की रचना और पाद- लिप्ताचार्य का 'देशीकोश' कहा जाता है। 'जिनरत्ननकोश' में भी अनेक मध्यकालीन कोशग्रेथों के नाम मिलते हैं। अभिधानचिंमणिमाला संभवतः वही ग्रंथ है जिसे हेमचंद्र विरचित अभिधानचिंतामणि कहा गया और यह संस्कृत कोश है। विजयराजेंद्र सूरी (१९१३-१९२५ ई०) द्बारा संपदित, संकलित और निर्मित अभिधानराजेंद्र भी प्राकृत का एक बृहद् शब्दकोश है। पर तत्वतः यह जैनों के मत, धर्म और साहित्य का आधुनिक प्रणाली में रचित सात जिल्दों में ग्रथित महाकोश है। पृष्ठ संख्या भी इसकी लगभग दस हजार है। यह वस्तुतः विश्वकोशात्मक ज्ञानकोश की मिश्रित शैली का आधुनिक कोश है। .

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शब्दकल्पद्रुम

शब्दकल्पद्रुम संस्कृत का आधुनिक युग का एक महाशब्दकोश है। यह स्यार राजा राधाकांतदेव बाहादुर द्वारा निर्मित है। इसका प्रकाशन १८२८-१८५८ ई० में हुआ। यह पूर्णतः संस्कृत का एकभाषीय कोश है और सात खण्डों में विरचित है। इस कोश में यथासंभव समस्त उपलब्ध संस्कृत साहित्य के वाङ्मय का उपयोग किया गया है। इसके अतिरिक्त अंत में परिशिष्ट भी दिया गया है जो अत्यंत महत्वपूर्ण है। ऐतिहसिक दृष्टि से भारतीय-कोश-रचना के विकासक्रम में इसे विशिष्ट कोश कहा जा सकता है। परवर्ती संस्कृत कोशों पर ही नहीं, भारतीय भाषा के सभी कोशों पर इसका प्रभाव व्यापक रूप से पड़ता रहा है। यह कोश विशुद्ध शब्दकोश नहीं है, वरन् अनेक प्रकार के कोशों का शब्दार्थकोश, प्रर्यायकोश, ज्ञानकोश और विश्वकोश का संमिश्रित महाकोश है। इसमें बहुबिधाय उद्धरण, उदाहरण, प्रमाण, व्याख्या और विधाविधानों एवं पद्धतियों का परिचय दिया गया है। इसमें गृहीत शब्द 'पद' हैं, सुवंततिंगन्त प्रातिपदिक या धातु नहीं। .

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शब्दकोश

शब्दकोश (अन्य वर्तनी:शब्दकोष) एक बडी सूची या ऐसा ग्रंथ जिसमें शब्दों की वर्तनी, उनकी व्युत्पत्ति, व्याकरणनिर्देश, अर्थ, परिभाषा, प्रयोग और पदार्थ आदि का सन्निवेश हो। शब्दकोश एकभाषीय हो सकते हैं, द्विभाषिक हो सकते हैं या बहुभाषिक हो सकते हैं। अधिकतर शब्दकोशों में शब्दों के उच्चारण के लिये भी व्यवस्था होती है, जैसे - अन्तर्राष्ट्रीय ध्वन्यात्मक लिपि में, देवनागरी में या आडियो संचिका के रूप में। कुछ शब्दकोशों में चित्रों का सहारा भी लिया जाता है। अलग-अलग कार्य-क्षेत्रों के लिये अलग-अलग शब्दकोश हो सकते हैं; जैसे - विज्ञान शब्दकोश, चिकित्सा शब्दकोश, विधिक (कानूनी) शब्दकोश, गणित का शब्दकोश आदि। सभ्यता और संस्कृति के उदय से ही मानव जान गया था कि भाव के सही संप्रेषण के लिए सही अभिव्यक्ति आवश्यक है। सही अभिव्यक्ति के लिए सही शब्द का चयन आवश्यक है। सही शब्द के चयन के लिए शब्दों के संकलन आवश्यक हैं। शब्दों और भाषा के मानकीकरण की आवश्यकता समझ कर आरंभिक लिपियों के उदय से बहुत पहले ही आदमी ने शब्दों का लेखाजोखा रखना शुरू कर दिया था। इस के लिए उस ने कोश बनाना शुरू किया। कोश में शब्दों को इकट्ठा किया जाता है। .

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संस्कृत शब्दकोश

सबसे पहले शब्द-संकलन भारत में बने। भारत की यह शानदार परंपरा वेदों जितनी—कम से कम पाँच हजार वर्ष—पुरानी है। प्रजापति कश्यप का निघण्टु संसार का प्राचीनतम शब्द संकलन है। इस में १८०० वैदिक शब्दों को इकट्ठा किया गया है। निघंटु पर महर्षि यास्क की व्याख्या 'निरुक्त' संसार का पहला शब्दार्थ कोश (डिक्शनरी) एवं विश्वकोश (ऐनसाइक्लोपीडिया) है। इस महान शृंखला की सशक्त कड़ी है छठी या सातवीं सदी में लिखा अमरसिंह कृत 'नामलिंगानुशासन' या 'त्रिकांड' जिसे सारा संसार 'अमरकोश' के नाम से जानता है। अमरकोश को विश्व का सर्वप्रथम समान्तर कोश (थेसेरस) कहा जा सकता है। .

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संस्कृत के प्राचीन एवं मध्यकालीन शब्दकोश

वैदिक निघंटुकोशों और 'निरुक्त ग्रंथों' के अनंतर संस्कृत के प्राचीन और मध्यकालीन कोश हमें उपलब्ध होते हैं। इस संबंध में 'मेक्डानल्ड' ने माना है कि संस्कृत कोशों की परंपरा का उद्भव (निघटु ग्रंथों के अनंतर) धातुपाठों और गणपाठों से हुआ है। पाणिनीय अष्टाध्यायी के पूरक पारिशिष्ट रूप में धातुओं और गणशब्दों का व्याकरणोपयोगी संग्रह इन उपर्युक्त पाठों में हुआ। पर उनमें अर्थनिर्देश न होने के कारण उन्हे केवल धातुसूची और गणसूची कहना अधिक समीचीन होगा। आगे चलकर संस्कृत के अधिकांश कोशों में जिस प्रकार रचनाविधान और अर्थनिर्देश शैली का विकास हुआ है वह धातुपाठ या गणापाठ की शैली से पूर्णतः पृथक् है। निघंटु ग्रंथों से इनका स्वरूप भी कुछ भिन्न है। निघंटुओं में वैदिक शब्दों का संग्रह होता था। उनमें क्रियापदों, नामपदों और अव्ययों का भी संकलन किया जात था। परंतु संस्कृत कोशों में मुख्यतः केवल नामपदों और अव्ययों का ही संग्रह हुआ। 'निरुक्त' के समान अथवा पाली के 'महाव्युत्पत्ति' कोश की तरह इसमें व्युत्पत्तिनिर्देश नहीं है। वैदिक निघंटुओं में संगृहीत शब्दों का संबंध प्रायः विशिष्ट ग्रंथों से (ऋग्वेदसंहिता या अथर्वसंहिता का अथर्वनिघंटु) होता ता। इनकी रचना गद्य में होती थी। परंतु संस्कृत कोश मुख्यतः पद्यात्मक है और प्रमुख रूप से उनमें अनुष्टुप् छंद का योग (अभिधानरन्तमाला आदि को छोड़कर) हुआ है। संस्कृत कोशों द्वारा शब्दो और अर्थ का परिचय कराया गया हैः धनंदय, धरणी' और 'महेश्वर' आदि कोशों के निर्माण का उद्देश्य था संभवतः महत्वपूर्ण विरलप्रयुक्त और कविजनोपयोगी शब्दों का संग्रह बनाना। संस्कृत कोशों का ऐतिहासिक सिंहावलोकन करने से हमें इस विषय को सामान्य जानकारी प्राप्त हो सकती है। इस संबंध में विद्वानों ने 'अमरसिंह' द्वारा रचित और सर्वाधिक लोकप्रिय 'नामलिंगानुशासन' (अमरकोश) को केंद्र में रखकर उसी आधार पर संस्कृत कोशों को तीन कालखंडों में विभाजित किया है-.

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संस्कृत के आधुनिक कोश

भारत में आधुनिक पद्धति पर बने संस्कृत कोशों की दो वर्गों में रखा जा सकता है.

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हिन्दुस्तानी, हिन्दी एवं उर्दू के आधुनिक शब्दकोश

हिंदुस्तानी, हिंदी और उर्दू के आधुनिक कोशों का निर्माणकार्य भी पाश्चात्य विद्वानों ने व्यापक पैमाने पर किया। इन भाषाओं एवं अन्य भारतीय भाषाओं के कोशों का निर्माण जिन प्रेरणाओं से पाश्चात्य विद्वानों ने किया उनमें दो बातें कदाचित् सर्वप्रमुख थीं; (क) धर्म का प्रचार करनेवाले ख्रीष्ट मतावलंबी धर्मोंपदेशक चहते थे कि यहाँ की जनता में घुलमिलकर उनकी भाषा बोल और समझकर उनकी दुर्बलताओं को समझा जाय और तदनुरूप उन्हीं की बोली में इस ढंग से प्रचार किया जाय जिसमें सामाजिक रूढियों ओर बंधनों से पीडित वर्ग, इसाई धर्म के लाभों के लालच में पडकर अपना धर्म- परिवर्तन करे। फरतः यह आवश्यक था कि हिंदी या हिंदुस्तानी, उर्दू तथा बँगला, तमिल, मराठी, मलयालम, कन्नड० तेलगू, उडिया, असमिया आदि भाषाभाषियों के बीच ख्रीष्टीय मत के प्रचारक, उनकी भाषाएँ सीखें और उनमें धडल्लें से व्याख्यान दे सकें तखा ग्रंथरचना कर सकें। परिणामतः इन भाषाओं के अनेक छोटे मोटे व्याकरण और कोशों की विदेशी माध्यम से रचना हुई। (ख) दूसरा प्रमुख वर्ग था शासकों का। शासनकार्य की सुविधा और प्रौढता के लिये, शासित की भावना, संस्कृति, धार्मिक विचार, भाषा और उनके धर्मशास्त्र तथा साहित्य की जानकारी भी अनिवार्य थी। एतदर्थ भी इन भाषाओं के कोश बने। इन दोनों के अतिरिक्त भारती विद्या भारतीय दर्शन, वैदिक तथा वैदिकेतर संस्कृत साहित्य के विद्याप्रेमी ऐर भाषावैज्ञानिक प्राय़ः निःस्वार्थ भाव से संस्कृत एवं अन्य भारतीय भाषाओं के अनुशीलन में प्रवृत्त हुए तथा तत्तत् विषयों के ग्रंथों की रचना की। इसी संदर्भ में महत्वपूर्ण कोशग्रंथ भी बने। संस्कृतकोशों की चर्चा की जा चुकी है। 'ए डिक्शनरी आव् मोहमडन लाँ ऐंड बंगला रेवेन्यू टर्मस' (४ भाग— ई० १७९५), 'ए ग्वासरी आव् इंडियन टर्मस' (८ भाग— १७९७ ई०), बंगाली सिविल सर्विस टर्मूस्' (एच्. एम. इलियट, १८४५ ई०), ए ग्लासरी आव् जुडिशल ऐंड रेबेन्यू टर्मस इत्यादि ग्रंथों का निर्माण किया गया। इनसे एक ओर तो शासनकार्य में सुविधा प्राप्त हुई और दूसरी ओर पाश्चात्य विद्वानों को भी भारतीय भाषा या संस्कृत के ग्रंथों का अपनी अपनी भाषाओं में अनुवाद करने में सहायता मिली। इन कोशों को अलावा पाश्चात्य विद्वानों अथवा उनकी प्रेरणा से भारतीय सुधियों द्वारा उसी पद्धति पर पाली, प्राकृत आदि के कोश भी बने और बन रहे हैं। राबर्ट सीजर ने पाली— संस्कृत— डिक्शनरी का १८७५ ई० में प्रकाशन कराया था। १९२१ ई० में पाली टैकस्ट सोसाइटी के निर्देश्न में पाली — अंग्रेजी—डिक्शनरी बनकर सामने आई। शतावधानी जैनमुनि श्रीनत्नचंद ने 'अर्धमागधी डिक्शनरी' का निर्माण किया। उसमें संस्कृत, गुजराती, हिंदी और अंग्रेजी का प्रयोग उपयोग होने से उसे बहुभाषी शब्दकाश कहना संगत है। 'पाईसद्दमहष्णव' निश्चय ही प्राकृत का अत्यंत विशिष्ट कोश है जिसका पुनः प्रकाशन किया गया है 'प्राकृत टोक्सट सोसाइटी ' की ओर से। भारतीय आधुनिक भाषाओं में हिंदी के विशिष्ट स्थान और महत्व की घोषणा किए बिना भी पाश्चात्य विद्वानों ने उसे हिंदुस्तान की राष्ट्रभाषा मान लिया तथा हिंदी या हिदुस्तानी— दोनों ही नामों का उसके लिये— मेरी समझ में— प्रयोग किया। उर्दू को भी उसी की शैली समझा। अतः हिंदुस्तानी और हिंदी के कोशों की ओर उन्होंने विशेष ध्यान दिया। नीचे इसकी चर्चा हो रही है। .

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हिन्दीतर भारतीय भाषाओं के आधुनिक शब्दकोश

भारतीय हिंदीतर भाषा के कोशों का निर्माण भी प्राचीन काल से लेकर आधुनिक काल तक बराबर चल रहा है। .

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हिंदी के मध्यकालीन शब्दकोश

मध्यकाल में विरचित हिंदी कोशों का उल्लेख मिलता है और उनका स्वरूप सामने आता है। हिंदी ग्रंथों के खोजविवरणों मे पचासों कोश ग्रंथों के नाम मिलते हैं। इनके अतिरिक्त 'पोद्दार अभिनंदन गंथ' में श्री जवाहरलाल चतुर्वेदी ने १४-१५ ऐसे कोशो के नाम दिए है जो खोजविवरणों में नही मिल पाए हैं। इससे ऐसा लगता है कि हिंदी साहित्य के मध्यकाल में और उसके बाद भी छोटे-बड़े सैकड़ों कोश बने थे। उनमें अनेक संभवतः लुप्त हो गए। जिनके नाम ज्ञात हैं उनमें भी अनेक लुप्त या नष्ट होते जा रहे हैं। हिंदी ग्रंथो की खोज करनेवालों को जो कोश उपलब्ध हुए हैं उनमें कतिपय प्रसिद्ध कोशों का संक्षिप्त परिचय दिया जा सकता है। ऐसा जान पड़ता है, इनपर संस्कृत के कोशों से संकलित विषय और उनकी पद्धति का पर्याप्त प्रभाव पड़ा है। अधिकांश कोशों ने मुख्य आधार के रूप में 'अमरकोश' का सहार लिया। उसकी उपजीव्यता का उन्होंने उल्लेख भी किया है। कभी कभी (जैसे उमराव कोश में) अमरकोश का नाम भी उल्लिखित है। पर कुछ केशकारों ने (यथा कर्णाभरण के लेखक हरिचरण दास) मेदिनी हेमकोश आदि से भी सहायता ली है। मध्याकालीन कोश-रचना-पद्धति की झलक आगे निर्दिष्ट कुछ प्रसिद्ध कोशों के नाम देखने से मिल जाती है। 'नाममाला' और 'अनेकार्थमंजरी' 'नंददासं' के दो कोश मिलते हैं। पद्यनिर्मित इन कृतियों के नाममात्र से इनके स्वरूप का बोध हो जाता है। 'गरीबदास' का 'अनंगप्रबोध' १६१५ ई० की रचना कहीं जाती है। 'रत्नजीत' १३ ई०) के दो शब्द कोश (क) भाषशब्दसिंधु और (ख) भाषाधातुमाला —बताए गए हैं। इनके नाम भी स्वरूपपरिचायक है। 'मिर्जा खा' का 'तुहफत् उल— हिन्द (तुहफतुल हिद) 'खुसरो' की 'खालिकबारी'— अत्यंत प्रसिद्ध कोश है; एक 'डिंगल कोश' भी बहुत पहले बन चुका है। इनके अतिरिक्त भी अनेक कोश बने। 'नंददास' के नाम से 'नामचिंतामणि' नामक भी एक कोश कहा गया है। 'अमरकोश' के भी सभवतः अनेक पद्यानुवाद हुए है। इन ग्रथों के परिदर्शन से ज्ञात होता है कि जैसा ऊपर कहा जा चुका है, 'अमरकेश' के तथा कभी कभी अन्य कोशों के आधार पर हिंदी के मध्यकालीन पद्यात्मक कोश बने जो पर्जायवाची, समानार्थी या अनेकार्थक कोश थे। धातुसंग्रह का भी एक कोश— उपर्युक्त धातुमाला —अंतिम वर्णक्रमानुसारी संकलन है। मिर्जाखाँ का कोश अनेक दृष्टियों से नूतन पद्धतियों का निदर्शन उपस्थित करता है। अपने ढंग का यह प्रथम प्रयास कहा गया है। जियाउददीन और सुनीतकुमार चाटुर्ज्या ने इनकी बड़ी प्रसंशा की है। मध्यकालीन हिंदी भाषा के कोशों में शब्दों के क्रमसंयोजन में नूतन और भाष—वैज्ञानिक दृष्टि का इसमें परिचय दिया गया है; साथ ही साथ शब्दों की विस्तृत व्याख्या भी दी गई है। इसके अतिरिक्त उच्चारण मे— लिखित रूप की अपेक्षा। बोलचाल के स्वरूप का अधिक ध्यान रखा गया है। 'गरीबदास' का कोश संत साहित्य के अनेक पारिभाषिक शब्दों का अर्धकोश है। हिंदी में 'खुसरो' का कोश भी यद्यपि विशाल नहीं है तथापि द्विभाषी कोश की प्राचीनरूपता के कारण महत्व रखता है। इसी तरह 'लल्लूलाल' का परवर्ती (१८३७ ई०) अंग्रेजी— हिंदी —फारसी केश भी उल्लेखनीय है। 'एकाक्षरी कोशी' ओषधिवरदनाममाला' आदि अनेक प्रकार के शब्द संग्रहात्मक कोशों का भी निर्माण हुआ है। हिंदी के मध्यकालीन कोशों में प्राचीन वर्गानुसारी विभाजन के आतिरिक्त केवल शीर्षकानुसारी विभाजन भी मिलता है, जैसे— 'अथ गो शब्द', 'अथ सदृश शब्द' इत्यादि। मुरारिदान के डिंगल कोश के अंतर्गत वर्गपद्धति के साथ साथ अन्य शीर्षक भी दिए गए हैं। उक्त कोश में शीर्षक के रूप हैं—(१) अथ वनस्पतिकायमाह, (२) दोहा, (३) वननाम इत्यादि। इसकी एक अन्य विशेषता भी है—इंद्रियों के अनुसार उपशीर्षक जैसे—'अथ द्बीद्रियानाह, त्नीद्रियानाह चतुरिंद्रियानाह पंचेद्रियानाह।' पुनश्च 'जलचरान् पंचेंद्रियानाह' —इत्यादी। 'वायुकायमाह' कहकर वायु से संबद्ध नाना पदार्थों का संकलन है। कहीं कहीं पीड़ा 'पाताल' आदि उपशीर्षक के अंतर्गत भी उन शब्दों का संग्रह है जो अन्यत्न समाविष्ट नहीं किए जा सके। कहीं कहीं ऐसा भी है कि पर्यायों और जातिभेदों के लिये दूसरी पद्धति अपनाई गई है, जैसे, 'व्रिख' के अंतर्गत तो वृक्षों के पर्याय दिए गए है और 'सुरव्रिख' नाम के अंतर्गत वृक्षों के प्रकार गिनाए गए हैं— 'सुरतर गोरक' सिंसण, देवदार, अष्टसिद्धि, नवनिधि, सत्ताईस नक्षत्र, छत्तिस शस्त्रों आदि के नाम दिए गए है। हिंदी के मध्यकालीन कोशग्रथों में शब्दसंकलन का कार्य़ मुख्यतः संस्कृत के अन्य कुछ प्रसिद्ध कोशों के आधार पर हुआ है। इसके अतिरिक्त 'भिखारोदास' आदि के साहित्यिक भाषाग्रंथों से भी शब्द संकलित हुए है। 'खुसरो' और उनसे प्रभावित कोशों के समय से ही जनजीवन या बोलचाल के शब्दों की भी संगृहीत करने की चेष्टा मिलती है। संस्कृत कोशों की पद्धति भी— जिसके अनुसार 'घनसार- श्चंद्रसंवः' कहकर चंद्र की सभी संज्ञाओं कों कपूर का पर्याय भी सकेतित कर दिया गया है— 'उमराव' कोश आदि में मिलती है। परंतु 'अमरकोश' आदि के समान हिंदी कोशों में लिंगनिर्देश की व्यवस्था नहीं ही पाई। शिवसिंह कायस्थ के भाषा अमरकोश (अमरकोश की टीका) में स्पष्ट ही उसे बिना प्रयोजन समझकर छोड़ देने का निर्देश किया गया है। कभी कभी अवश्य एकाध कोश में यह कह दिया गया है कि दिर्घ रूप स्त्रीलिंग है और ह्रस्व पुल्लिंग। अव्ययों का समावेश भी प्रायः नहीं के बराबर उपलब्ध है यद्यपि अनेक कोशों में संस्कृत के परिनिष्ठित पदरूपों को तत्सम भावसे भी कभी कभी निर्दिष्टा किया गया है तथापि संस्कृत अव्ययों के सकलन में यह प्रक्रिया छोड़ दी गई है। जहाँ तक ध्वानियों में विकसित परिर्वतंन को निर्दिष्ट करने का प्रश्न है— 'तुहफतुलहिंद' आदि कोशों के छोड़कर अन्यत्न इसका अभाव है। 'भिखारीदास' ने अवश्य ही एक स्थल पर य, ज री, रि, श, ष, स और ज्ञ आदि का समस्यात्मक उल्लेख मात्र कर दिया है। पर्याय शब्द और नानार्थ के विभिन्न अर्थों की गहना भी कुछ कोशकारों ने या तो अंत में पर्याय—सख्या—सूचना से अथवा प्रत्येक पर्याय के साथ अंक देकर की है। सक्षेप में कह सकतै हैं कि (१) —मध्यकालीन हिंदीकोश अधिकतः पद्य में ही बने जो संस्कृत कोशों से— मृख्यतः 'अमरकोश' से— या ती प्रभावित अथवा अनूदित हैं। अधिकतः ये पर्यायवाची कोश है। कुछ अनेकार्थक कोश भी हैं तथा दो एक 'एकाक्षरीकोश' भी मिल जाते हैं। कुछ 'निघंटु' ग्रंथ भी—जो वैद्यक से संबंधित थे,— संस्कृत से प्रभावित होकर बने। (२) —इन कोशों में नामसंग्रह अधिक है। कभी कभी धातुकोश भी मिल जाते हैं। (गूढार्थ कोश भी बना था।) इसी कारण अधिकतः 'नाममाल', 'नाममंजरी', 'नामप्रकाश', 'नामचिंतामणि', आदि कोशपरक नामों का अधिक प्रयोग हुआ है। (३)— 'आतमबोध' या 'अनल्पप्रबोध' आदि में परिभाषिक—शब्दकोश— पद्धति भी मिलती है। (४) —शब्दक्रम में अधिकतः अंत्य वर्ण आधार बने हैं। शब्दविभाजन या तो वर्गानुसारी है या शीर्षकानुसारी। 'तुहफतुलहिद' में अवश्य ही वर्णवर्गों का विभाजनक्रम मिलता है। कुछ कोशों में उच्चारण और वर्णानुपूर्वी का सामान्य निर्देश भी दिखाई पडता है। (५) —डिंगल के कुछ कोशों में नामपदो के साथ क्रियाओं का संकलन भी दिखाई देता है। (६) —कभी कभी पर्यायगणना भी है और परिभाषाएँ भी। लिंगव्यवस्था आदि अनावम्यक समझे जानेवाले तत्वों का त्याग करने के अतिरिक्त कोश—विद्या—संबधी कोई ऐसी नवीन बात— जो कोश- विज्ञान के विकास में विशिष्ट महत्व रखती हो। —इन कोशों में आविर्भूत नहीं हुई। उच्चारण आदि के संबंध में कभी कभी कोशाकार की पैनी दृष्टि अवश्य आकृष्ट हुई। दूसरो और भाषा में प्रयुक्त होनेवाले और महत्वपूर्ण साहित्यकारों के विशिष्ट साहित्यग्रंथों में प्रयोगागत तदभव, देशी और विदेशी शब्दों के संकलन का प्रयास उतना नहीं हुआ जितना होना आवश्यक था। मध्यकालीन हिंदी कोशदार अपने सामने उपलब्ध संस्कृत कोशों के आधार पर हिदी कोश का कदाचित् निर्माण कर देना चाहते थे। इसका एक और भी अत्यंत महत्वपूर्ण एवं संभावित कारण कहा जा सकता है। कोश का सर्वप्रमुख प्रोयोजन होता है वाड़मय के ग्रंथों का पाठकों के अर्थबोध करना। परंतु संस्कृत कोशों और तदाधारित हिंदी कोशों के निमर्तिओं की मुख्य दृष्टि थी ऐसे कोशों के संपादन पर जो विशेषतः कवियों ओर सामान्य़तः अन्य ग्रंथकारों के प्रयोगार्थ पर्यायवाची शब्दभांडार को सुलभ बना दें। निघंटुभाष्य अर्थात् निरुक्त में वेदार्थ- व्याख्या पर ही सर्वाधिक ध्यान दिया गाया है। संस्कृत साहित्य के रचनात्यक ग्रंथों के टीकाकारों ने अर्थबोधन के लिये ही कोश वचनों के उद्धरण दिए हैं। फिर भी संस्कृत के अधिकांश कोशकारों की दृष्टि में कविता के निर्माण में सहायता पहुँचाना— पर्यायवाची कोशों का कदाचित् एक अति महत्वपूर्ण लक्ष्य़ था इसी प्रकार श्लेष, रूपक आदि अलंकारों में उपयुक्त शब्दोनियोजन के लिये शब्दों को सुलभ बनाना अनेक नानार्थ शब्द —संग्राहकों का मुख्य कोशकर्म था। हिंदी के कोशाकारी ने भी संभवत इस प्रेरणा को अपना प्रियतर उद्देश्य समझा। इसी कारण गतानुगतिक और संस्कृतागत शब्दकोश की निधि को अंसंस्कृत्ज्ञों के लिये सुलभ करने की इतिकर्तव्यता हिदी कोशों में भी हुई। थोड़े से कोशकारों ने आरंभ में पर्याय या अनेकार्थ शब्दो में नए शब्द जोड़े। पर उससे बहुत आगे ब़ढ़ने का स्वतंत्र प्रयास कम हुआ। फिर भी कुछ कोशकारों ने तद्भव आदि शब्दों की थोड़ी बहुत वृद्धि करने का प्रायस किया। कुल मिलाकर कह सकतै है कि मध्यकालीन हिंदी शब्दकोशों में कोशाविद्या के किसी भी तत्व की प्रगति नहीं हो पाई। संस्कृत कोशों की प्रामाणिक प्रौढ़ता में उसी प्रकार कुछ ह्रास ही हुआ जैसे, रीतिकालीन साहित्यशास्त्र के हिंदी-लक्षण-ग्रंथों में संस्कृत के तदविषयक विशिष्टग्रंथों की पौढ़ता का। व्युत्पत्ति का पक्ष हिदी के मध्यकालीन कोशों में पूर्णतः परित्यक्त था। संस्कृत कोशों में भी यह पक्ष उपेक्षित ही रहा पर कोश के अनेक टीकाकारों ने व्युत्पत्ति पर ध्यान दिया। 'अमरकोश' की 'व्याख्यासुधा' या 'रामाश्रयी' टीका (भानुजी दीक्षितकृत) में 'अमरकोश' के प्रत्येक नामपद की व्युत्पत्ति दी गई है। हिंदी के मध्यकालिन कोशों की न तो वैसी टीकाएँ लिखी गई और न तद्भव शब्दों की व्युत्पत्ति का अनुशीलन ही हुआ। अतः कोशविद्या के वैकासिक कौशल की दृष्टि में कोई प्रगति नहीं मिलती। .

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वाचस्पत्यम्

वाचस्पत्यम् संस्कृत का आधुनिक महाशब्दकोश है। इसका संकलन तर्कवाचस्पति तारानाथ भट्टाचार्य (1812-1885) ने किया था जो बंगाल के राजकीय संस्कृत महाविद्यालय में अध्यापक थे। इसका निर्माण सन १८६६ ई में आरम्भ हुआ और १८८४ ई में समाप्त। इस प्रकार इसको पूरा करने में १८ वर्ष लगे। शब्दकल्पद्रुम की अपेक्षा संस्कृत कोश का यह एक बृहत्तर संस्करण है। .

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कोशकर्म

शब्दकोश निर्माण से सम्बन्धित सकल कार्यों का समुच्चय कोशकर्म या कोशविद्या (Lexicography) कहलाती है। विषयों की दृष्टि से शब्दकोशों के वर्ग या विभाग बनाना कठिन है। अलग अलग कोशकर अपनी समझ के अनुसार इस प्रकार के विषयविभाग बनाया करते थे। उनका न तो कोई निश्चित क्रम होता था और न हो ही सकता था। इसलिये लोगों को प्राय: सारा कोश कंठस्थ करना पड़ता था। इसी कारण पाश्चात्य देशों में शब्दकोश अक्षरक्रम से बनने लगे। ऐसे कोश रटने नहीं पड़ते थे और आवश्यकतानुसार जब जिसका जी चाहता था, तब वह उसका उपयोग कर सकता था। आजकल प्राय: सभी देशों और सभी भाषाओं में कोश के क्षेत्र मे इसी क्रम को प्रयोग होने लगा है: जो जिज्ञासु की दृष्टि से सबसे अधिक सुभीते का होता हैं। इसी लिये कोश के जितने प्रकार होते हैं, उन सब में प्राय: अक्षरक्रम का ही प्रयोग किया जाता है। .

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अंग्रेजी शब्दकोशों का इतिहास

'लातिन' की शब्दसूचियों ने आधुनिक कोश-रचना-पद्धति का जिस प्रकार विकास किया, अंग्रेज कोशों के विकास क्रम में उसे देखा जा सकता है। आरंभ में इन शब्दार्थसूचियों का प्रधान विधान था क्लिष्ट 'लातिन' शब्दों का सरल 'लातिन' भाषा में अर्थ सूचित करना। धीरे-धीरे सुविधा के लिये रोमन भूमि से दूरस्थ पाठक अपनी भाषा में भी उन शब्दों का अर्थ लिख देते थे। 'ग्लाँसरी' और 'वोकैब्युलेरि' के अंग्रेजी भाषी विद्वानों की प्रवृत्ति में भी यह नई भावना जगी। इस नवचेतना के परिणामस्वरूप 'लातिन' शब्दों का अंग्रेजी में अर्थनिर्देश करने की प्रवृत्ति बढ़ने लगी। इस क्रम में लैटिन-अंगेजी कोश का आरंभिक रूप सामने आया। दसवीं शताब्दी में ही 'आक्सफोर्ड' के निकटवर्ती स्थान के एक विद्वान धर्मपीठाधीश 'एफ्रिक' ने 'लैटिन' व्याकरण का एक ग्रंथ बनाया था। और उसी के साथ वर्गीकृत 'लातिन' शब्दों का एक 'लैटिन-इंग्लिश', लघुकोश भी जोड दिया था। संभवत: उक्त ढंग के कोशों में यह प्रथम था। १०६६ ई० से लेकर १४०० ई० के बीच की कोशोत्मक शब्दसूचियों को एकत्र करते हुए 'राइट ब्यूलर' ने ऐसी दो शब्दसूचिय़ाँ उपस्थित की है। इनमें भी एक १२ वीं शताब्दी की है। वह पूर्ववर्ती शब्दसूचियों की प्रतिलिपि मात्र हैं। दूसरी शब्दसूची में 'लातिन' तथा अन्य भाषाओं के शब्द हैं। इंग्लैड में सांस्कृतिक और राष्ट्रीय चेतना के उद्बुद्ध होने पर अंग्रेजी राजभाषा हुई। शिक्षा-संस्थाओं में फ्रांसीसी के स्थान पर अंग्रेजी का पठन-पाठन बढा। अंग्रेजी में लेखकों की संख्या भी अधिक होने लगी। फलत: अंग्रेजी के शब्दकोश की आवश्यकता भी बढ गई। १५वीं शती में 'राइट व्यूलर' ने छह महत्त्वपूर्ण पुरानी शब्दार्थसूचियों को मुद्रित किया। अधिकत: विषयगत वर्गों के आधार पर वे बनाई गई थीं। केवल एक शब्दसूची ऐसी थी जिसमें अकारादिक्रम से २५००० शब्दों का संकलन किया गया था। ऐम० ऐम० मैथ्यू ने अंग्रजी कोशों का सर्वेक्षण नामक अपनी रचना में १५वी शती के दो महत्त्वपूर्ण ग्रंथों का उल्लेख किया़ है। प्रथम 'ओरट्स' का 'वोकाब्युलरियम्' था जो पूर्व 'मेड्डला' व्याकरण पर आधारित था। दूसरा था 'ग्लाफेड्स' या 'ज्याफरी' व्याकरण पर आधारित इंग्लिश—लैटिन कोश। इसका पिंसिन द्वारा १४४० ई० में प्रथम मुद्रित संस्करण प्रकाशित किया गया। उसका नाम था प्रोंपटोरियम परव्यूलोरमं सिनक्लोरिकोरं (अर्थात् बच्चों का भांडार या संग्रहालय)। इसका महत्व— ९—१० हजार शब्दों के संग्रह के कारण न होकर इसलिये था इसके द्वारा शब्दसूचि के रचनाविद्यान में नए प्रयोग का संकेत दिखाई पडा़। इसमें संज्ञा और क्रिया के मुख्यांश से व्यतिरिक्त अन्य प्रकार के शब्द (अन्य पार्टस् आँव स्पीच) भी संकलित है। यह 'मेड्डला ग्रामाटिसिज' कदाचित् प्रथम 'लातीन—अंग्रेजी' शब्दकोश था। लोकप्रियता का प्रमाण मिलता है— उसकी बहुत सी उपलब्ध प्रतिलिपियो के कारण। १४८३ ईं में 'वेथोलिअम ऐंग्लिवन् ' नामक शब्दकोश संकलित हुआ था। परंतु महत्त्वपूर्ण कोश होकर भी पूर्वाक्त कोश के समान वह लोकप्रिय न हो सका। इसके पश्चात् १६वी शताब्दी में 'लैटिन-अँग्रँजी' और 'अंग्रेजी-लैटिन' की अनेक शब्दसूचियाँ निर्मित एवं प्रकाशित हुई। 'सर टामस ईलियट' की डिक्शनरी ऐसा सर्वप्रथम ग्रंथ है जिसमें 'डिक्शनरी' अभिधान का अंग्रेजी में प्रयोग मिलता है। मूल शब्द लातिन का 'डिक्शनरियम्' है जिसका अर्थ था कथन (सेइंग)। पर वैयाकरणों द्वारा 'कोश' शब्द के अर्थ में उसका प्रयोग होने लगा था। इससे पूर्व—आरं- भिक शब्दसूचियों और कोशों के लिये अनेक नाम प्रचलित थे, यथा— 'नामिनल', 'नेमबुक', मेडुला ग्रामेटिक्स, 'दी आर्टस् वोकाब्युलेरियम्' गार्डन आफ़ वडंस, दि प्रोम्पटारियम पोरवोरम, कैथोलिकं ऐग्लिकन्, मैनुअलस् वोकैब्युरम्, हैंडफुल आव वोकैब्युलरियस्, 'दि एबेसेडेरियम्, बिबलोथिका, एल्बारिया, लाइब्रेरी, दी टेबुल अल्फाबेटिकल, दी ट्रेजरी या ट्रेजरर्स ऑफ वर्डस् 'दि इंग्लिश एक्सपोजिटर', दि गाइड टु दि टंग्स्, दि ग्लासोग्राफिया, दि न्यू वल्डर्स, आव वर्डस् 'दि इटिमालाँजिकम्' दि फाइलाँलाँजिकम्' आदि। इन्साइक्लोपीडिया ब्रिटैनिका के अनुसार १२२४ ईं में कंठस्थ की जानेवाली 'लातिन' शब्दसूची के हस्तलेख के लिये जान गारलैंडिया ने इस (डिक्शनरी) शब्द का सर्वप्रथम प्रयोग किया गया था। परंतु लगभग तीन शताब्दी बाद सर टामस् ईलियट द्वारा प्रयुक्त यह शब्द क्यों और कैसे लोकप्रिय हो उठा यह कहना सरल नहीं है। १६वीं शती में पूर्वार्ध के व्यतीत होते होते यह विचार स्विकृत होने लगा कि शब्दकोश में शब्दार्थ देखने की पद्धति सुविधापूर्ण और सरल होनी चाहिए। इस दृष्टि से कोश के लिये वर्णमाला क्रम से शब्दानुक्रम की व्यवस्था उपयुक्ततर मानी गई। पश्चिम की इस पद्धति को महत्त्वपूर्ण उपलब्धि और कोशविद्या के नूतन विकास की नई मोड़ माना जा सकता है। एकाक्षर और विश्लेषणात्मक पदरचना वाली चीनी भाषा में एकाक्षर शब्द ही होते हैं। प्रत्येक 'सिलेबुल' स्वतंत्र, सार्थक ज्ञौर विश्लिष्ट होता है। वहाँ के पुराने कोश अर्थानुसार तथा उच्चारण- मूलक पद्धति पर बने हैं। वैसी भाषा के कोशों में उच्चारणानुसारी शब्दों का ढूँढना अत्यंत दुष्कर होता था। परंतु योरप की भाषाओं में अकारादि क्रमानुसारी एक नई दिशा की ओर शब्दकोशरचना का संकेत हुआ। पूर्वोक्त प्रोम्पटोरियम के अनंतर १५१९ में प्रकाशित विलियम हार्नन का शब्दकोश अंग्रेजी लैटिन कोशों में उल्लेख्य है। इसमें कहावतों और सूक्तियों का प्राचीन पद्धति पर संग्रह था। मुद्रित कोशों में इसका अपना स्थान था। १५७३ ई० में रिचार्ड हाउलेट का 'एबेसेडेरियम' और 'जाँन वारेट का लाइब्रेरिया—दो कोश प्रकाशित हुए। प्रथम में लैटिन पर्याय के साथ साथ अंग्रैजी में अर्थ कथन होने से अंग्रेजी कोशों में—विशेषत: प्राचीन काल के—इसे उत्तम और अपने ढंग का महत्वशाली कोश माना गया है। इससे भी पूर्व— ई० १५७० में 'पीटर लेविस' ने एक 'इंगलिश राइमिंग डिक्शनरी' बनाई थी जिसमें अंग्रेजी शब्दों के साथ लैटिन शब्द भी हैं और सभी खास शब्द तुकांत रूप में रखे गए थे। हेनरी अष्टम की बहन, मेरी ट्युडर, जब फ्रांस के १२वें लुई की पत्नी बनी तब उन्हें फ्रांसीसी भाषा पढा़ने के लिये जान पाल ग्रे ने एक ग्रंथ बनाया जिसमें फ्रांसीसी के साथ साथ अंग्रेजी शब्द भी थे। १४३० ई० में यह प्रकाशित हुआ। इस कोश को आधुनिक फ्रांसीसी और आधुनिक अंग्रेजी भाषाओं का प्राचीनतम कोश कहा जा सकता है। गाइल्स दु गेज़ ने लेडी मेरी को फ्रांसीसी पढा़ने के लिये १५२७ में व्याकरणरचना की जो पुस्तक प्रकाशित की थी उसमें भी चुने हुए अंग्रेजी और फ्रांसीसी शब्दों का संग्रह जोड़ दिया गया था। रिचर्ड हाउलेट का एबेसेडिरियम १५५२ ई० में प्रकाशित हुआ; जिसे सर्वप्रथम अंग्रेजी (+ लैटिन) 'डिक्शनरी' कह सकते हैं। जान वारेट का कोश (एल्बरिया) भी १५७३ ई० में प्रकाशित हुआ। रिचार्ड के कोश में अंग्रेजी भाषा द्वारा अर्थव्याख्या की गई है। अत: उसे प्रथम अंग्रेजी कोश— लैटिन अंग्रेजी डिक्शनरी कह सकते हैं। १६वीं शताब्दी में ही (१५९९ ई० में) रिचार्डस परसिवाल ने स्पेनिश अंग्रेजी—कोश मुद्रित कराया था। पलोरियो ने भी दि वर्ल्ड्स आव दि वर्डस् नाम से एक इताली—अग्रेजी—कोश बनाकर मुद्रित किया। उसका परिवर्धित संस्करण १६११ ई० में प्रकाशित हुआ। इसी वर्ष रैंडल काटग्रेव का प्रसिद्ध फ्रेंच—अंग्रेजी—कोश भी प्रकाशित हुआ जिसके अति लोकप्रिय हो जाने के कारण बाद में अनेक संस्करण छपे। केवल अंग्रेजीकोश के अभाववश 'पलोरियो' और 'काटग्रेव' के अंग्रेजी शब्दसंग्रही का अत्यंत महत्व माना गया और 'शेक्सपियर' के युग की भाषा समझने—समझाने में वह बडा़ उपयोगी सिद्ध हुआ। इसी के आस-पास 'बाइबिल' का अंग्रेजी संस्करण भी प्रकाश में आया। १७वी० शताब्दी के प्रथम चरण (१६१० ई० में) में जाँन मिनश्यू ने 'दि गाइड इंटु इग्स ' नामक एक नानाभाषी कोश का निर्माण किया जिसमें अंग्रेजी के अतिरिक्त अन्य दस भाषाओं का (वेल्स लो डच्, हाई डच्, फ्रांसीसी, इताली, पूर्तगाली, स्पेनी लातिन, यूनानी और हिंब्रु शब्द दिए गए थे)। इन कोशों में अंग्रेजी कोश के लिये आवश्यक और उपयोगी सामग्री के रहने पर भी केवल अंग्रेजी के एकभाषी कोश की ओर अधिक ध्यान नहीं दिया गया। प्राचीन अध्ययन के प्रति पुनर्जागर्ति के कारण अंग्रेजी में लातिन, यूनानी, हिब्रू, अरबी आदि के सहस्रों शब्द और प्रयोग प्रचारित होने लगे थे। ये प्रयोग 'इंक हार्डस टमँस्' कहे जाते थे। वे परंपरया आगत नहीं थे। इन क्लिष्ट शब्दों की वर्तनी और कभी कभी अर्थ बतानेवाले ग्रंथों की तत्कालीन अनिवार्य आवश्यकता उठ खडी हुई थी। मुख्यतः इसी की पूर्ति के लिये— न कि अपनी भाषा के शब्दों और मुहावरों का परिचय कराने की भावना से— आरभिक अंग्रेजी- कोशों के निर्माण की कदाचित् मुख्य प्रेरणा मिली। सर्वप्रथम 'टेबुल अल्फावेटिकल आव हार्ड वर्डस' शीर्षक एक लघु पुस्तक राबर्ट काउड ने प्रकाशित की जो १२० पृष्ठों में रचित थी। इसमें तीन हजार शब्दों की शुद्ध वतंनी और अर्थों का निर्देश किया गया था। यह इतना लोकप्रिय हुआ कि आठ वर्षों में इसके तीन संस्करण प्रकाशित करने पडे़। १६१६ ई० में 'ऐन इंगलिश एक्सपोजिटर' नामक — जान बुलाकर का — कोश प्रकाशित हुआ जिनके न जाने कितने संस्करण मुद्रित किए गए। १६२३ ई० में 'एच० सी० जेट' द्वारा रचित 'इंगलिश डिक्शनरी' के नाम से एक कोशग्रथ प्रकाशित हुआ जिसकी रचना से प्रसन्न होकर प्रशंसा में 'जाँन फो़ड' ने प्रमाणपत्र भेजा था। तीन भागों में विभक्त इस कोश की निर्माणपद्धति कुछ विचित्र सी लगती है। इसकी विभाजनपद्धति को देखकर 'यास्क' के निरुक्त में निर्दिष्ट नैगमकांड, नैघंटुककांड और दैबतकाडों में लक्षित वर्गानुसारी पद्धति की स्मृति हो आती है। प्रथम अंश से क्लिष्ट शब्द सामान्य भाषा में अर्थों के साथ दिए गए हैं। द्वितीय अंश में सामान्य शब्दों के अर्थों का क्लिष्ट पर्यायों द्वारा निर्देश हुआ है। देवी देवताओं, नरनारियो, लड़के लडकियों, दैत्वों—राक्षमों, पशु पक्षियों आदि की व्याख्या द्वारा तीसरे भाग के इस अंश में वर्णन किया गया। इसमें शास्त्रीय, ऐतिहासिक, पौराणिक तथा अलौकिक शक्तिसंपन्न व्यक्तियों आदि से संबद्ध कल्पनाआ का भी अच्छा सकलन है। २० साल परिश्रम करके 'ग्लासोग्राफया' नामक एक ऐसे कोश का 'टामस क्लाउंडर ने संग्रह किया था जिसमें यूनानी, लातिन, हिब्रू आदि के उन शब्दों की व्याख्या मिलती है जिनका प्रयोग उस समय की परिनिष्ठित अंग्रजी मे होने लगा था। एस० सी० काकरमैन का कोश भी बडा़ लोकप्रिय था और उसके जाने कितने संस्करण हुए। प्रसिद्ध कवि मिल्टन के भतीजे एडवर्ड फिलिप्स ने १५४५ ई० में दि न्यू वर्ल्ड आव इंगलिश बर्डस, या 'ए जेनरल डिकश्नरी' नामक लोकप्रिय कोश का निर्माण किया था। १६६० तक के प्रकाशित कोशों की निर्माण संबंधी आवश्यकताओं में कदाचित् तात्कालिक प्रयोजन का सर्वाधिक महत्व था विशिष्ट महिलाओं यो अध्ययनशील विदुषियों को सहायता देना। बाद में चलकर कोशनिर्माण का इस प्ररणा का निर्देश नहीं मिलता। १७०२ ई० से १७०७ तेक 'लासोग्राफिया' के अनेक संस्करण छपे। एडवर्ड फिलाप्स का काश भी बाद क संस्करणों में अधिक महत्त्वपूर्ण हो गया। एशिसाकोत्स और एडवर्ड पार्कर के कोश भी इसी समय के आसपास छपे जिनका पुनर्मुद्रण बीसवीं शती तक भी होता रहा। जाँन करेन्सी ने भी 'डिक्शनेरियम एंग्लोब्रिटेनिकन' या 'जनरल इंग्लिश डिक्शनरी' निर्मित की जिसमें पुराने (प्रयोगलुप्त) शब्दों की पर्याप्त संख्या थी। .

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