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वैदिक साहित्य

सूची वैदिक साहित्य

वैदिक साहित्य भारतीय संस्कृति के प्राचीनतम स्वरूप पर प्रकाश डालने वाला तथा विश्व का प्राचीनतम् साहित्य है। वैदिक साहित्य को 'श्रुति' भी कहा जाता है, क्योंकि सृष्टिकर्ता ब्रह्मा ने विराटपुरुष भगवान् की वेदध्वनि को सुनकर ही प्राप्त किया है। अन्य ऋषियों ने भी इस साहित्य को श्रवण-परम्परा से हीे ग्रहण किया था। वेद के मुख्य मन्त्र भाग को संहिता कहते हैं। वैदिक साहित्य के अन्तर्गत ऊपर लिखे सभी वेदों के कई उपनिषद, आरण्यक तथा उपवेद आदि भी आते जिनका विवरण नीचे दिया गया है। इनकी भाषा संस्कृत है जिसे अपनी अलग पहचान के अनुसार वैदिक संस्कृत कहा जाता है - इन संस्कृत शब्दों के प्रयोग और अर्थ कालान्तर में बदल गए या लुप्त हो गए माने जाते हैं। ऐतिहासिक रूप से प्राचीन भारत और हिन्दू-आर्य जाति के बारे में इनको एक अच्छा सन्दर्भ माना जाता है। संस्कृत भाषा के प्राचीन रूप को लेकर भी इनका साहित्यिक महत्व बना हुआ है। रचना के अनुसार प्रत्येक शाखा की वैदिक शब्द-राशि का वर्गीकरण- चार भाग होते हैं। पहले भाग (संहिता) के अलावा हरेक में टीका अथवा भाष्य के तीन स्तर होते हैं। कुल मिलाकर ये हैं.

43 संबंधों: तंत्र साहित्य (भारतीय), तुलू भाषा, पालि भाषा का साहित्य, पुरुष, प्राचीन भारतीय शिक्षा, ब्रह्मदत्त 'जिज्ञासु', भारतीय दर्शन, भारतीय ज्योतिष, महर्षि सांदीपनी राष्ट्रीय वेद विद्या प्रतिष्ठान, उज्जैन, महाभारत, मित्र वरुण, याज्ञवल्क्य, यजुर्वेद, राम, रामकथा : उत्पत्ति और विकास, श्रीपाद दामोदर सतवलेकर, सरस्वती नदी, सामवेद संहिता, स्मार्त सूत्र, हिन्दू धर्म ग्रंथ, जनक, जयदेव वेदालंकार, जैन धर्म, जैन ग्रंथ, वैदिक शाखाएँ, वैदिक संस्कृत, वैदिक स्वराघात, वेद, गधा, गाथा, आश्वलायन, आख्यान, आगम, कमलानाथ, कल्प (वेदांग), कुरुक्षेत्र युद्ध, अथर्ववेद संहिता, अनुलोम विवाह, अनुस्वार, अश्विनीकुमार (पौराणिक पात्र), अंतरिक्ष, ऋभु, ऋग्वेद

तंत्र साहित्य (भारतीय)

तंत्र भारतीय उपमहाद्वीप की एक वैविधतापूर्ण एवं सम्पन्न आध्यात्मिक परिपाटी है। तंत्र के अन्तर्गत विविध प्रकार के विचार एवं क्रियाकलाप आ जाते हैं। तन्यते विस्तारयते ज्ञानं अनेन् इति तन्त्रम् - अर्थात ज्ञान को इसके द्वारा तानकर विस्तारित किया जाता है, यही तंत्र है। इसका इतिहास बहुत पुराना है। समय के साथ यह परिपाटी अनेक परिवर्तनों से होकर गुजरी है और सम्प्रति अत्यन्त दकियानूसी विचारों से लेकर बहुत ही प्रगत विचारों का सम्मिश्रण है। तंत्र अपने विभिन्न रूपों में भारत, नेपाल, चीन, जापान, तिब्बत, कोरिया, कम्बोडिया, म्यांमार, इण्डोनेशिया और मंगोलिया में विद्यमान रहा है। भारतीय तंत्र साहित्य विशाल और वैचित्र्यमय साहित्य है। यह प्राचीन भी है तथा व्यापक भी। वैदिक वाङ्मय से भी किसी किसी अंश में इसकी विशालता अधिक है। चरणाव्यूह नामक ग्रंथ से वैदिक साहित्य का किंचित् परिचय मिलता है, परन्तु तन्त्र साहित्य की तुलना में उपलब्ध वैदिक साहित्य एक प्रकार से साधारण मालूम पड़ता है। तांत्रिक साहित्य का अति प्राचीन रूप लुप्त हो गया है। परन्तु उसके विस्तार का जो परिचय मिलता है उससे अनुमान किया जा सकता है कि प्राचीन काल में वैदिक साहित्य से भी इसकी विशालता अधिक थी और वैचित्र्य भी। संक्षेप में कहा जा सकता है कि परम अद्वैत विज्ञान का सूक्ष्मातिसूक्ष्म विश्लेषण और विवरण जैसा तंत्र ग्रंथों में है, वैसा किसी शास्त्र के ग्रंथों में नहीं है। साथ ही साथ यह भी सच है कि उच्चाटन, वशीकरण प्रभृति क्षुद्र विद्याओं का प्रयोग विषयक विवरण भी तंत्र में मिलता है। स्पष्टत: वर्तमान हिंदू समाज वेद-आश्रित होने पर भी व्यवहार-भूमि में विशेष रूप से तंत्र द्वारा ही नियंत्रित है। .

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तुलू भाषा

तुलू भारत के कर्नाटक राज्य के पश्चिमी किनारे में स्थित दक्षिण कन्नड़ और उडुपि जिलों में तथा उत्तरी केरल के कुछ भागों में प्रचलित भाषा है। पहले तुलू ब्राह्मण वैदिक और संस्कृत साहित्य लिखने के लिये 'तिगलारि' नामक लिपि को उपयोग करते थे। लेकिन बहुत कम साहित्य तुलू भाषा में मिला है। पर आज इस लिपि को जाननेवाले बहुत कम हैं। पुरानी तिगलारि लिपि मलयालम लिपि से बहुत मिलती है। अब तुलू लिखने के लिये कन्नड़ लिपि का प्रयोग किया जाता है। यह पंच द्राविड भाषाओं में एक है। दक्षिण कन्नड और उडुपी जिलों की अधिकांश लोगों की मातृभाषा तुळु है। इसलिए ये दोनो जिले सम्मिलित रूप से तुलुनाडु नाम से जाने जाते हैं। केरल के कासरगोड जिले में भी बहुत लोग तुलू भाषा बोलते हैं। .

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पालि भाषा का साहित्य

पालि साहित्य में मुख्यत: बौद्ध धर्म के संस्थापक भगवान् बुद्ध के उपदेशों का संग्रह है। किंतु इसका कोई भाग बुद्ध के जीवनकाल में व्यवस्थित या लिखित रूप धारण कर चुका था, यह कहना कठिन है। .

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पुरुष

पुरुष शब्द का प्रयोग वैदिक साहित्य में कई जगह मिलता है। जीवात्मा (आत्मा) को कपिल मुनि कृत सांख्य शास्त्र में पुरुष कहा गया है - ध्यान दीजिये इसमें यह लिंग द्योतक न होकर आत्मा द्योतक है। वेदों में नर के लिए पुम् (पुंस, और पुमान) मूलों का इस्तेमाल मिलता है। इसके अलावे बृहदारण्यक उपनिषत में ईश्वर के लिए पुरुष शब्द का इस्तेमाल मिलता है। .

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प्राचीन भारतीय शिक्षा

भारत की प्राचीन शिक्षा पद्धति में हमें अनौपचारिक तथा औपचारिक दोनों प्रकार के शैक्षणिक केन्द्रों का उल्लेख प्राप्त होता है। औपचारिक शिक्षा मन्दिर, आश्रमों और गुरुकुलों के माध्यम से दी जाती थी। ये ही उच्च शिक्षा के केन्द्र भी थे। जबकि परिवार, पुरोहित, पण्डित, सन्यासी और त्यौहार प्रसंग आदि के माध्यम से अनौपचारिक शिक्षा प्राप्त होती थी। विभिन्न धर्मसूत्रों में इस बात का उल्लेख है कि माता ही बच्चे की श्रेष्ठ गुरु है। कुछ विद्वानों ने पिता को बच्चे के शिक्षक के रुप में स्वीकार किया है। जैसे-जैसे सामाजिक विकास हुआ वैसे-वैसे शैक्षणिक संस्थाएं स्थापित होने लगी। वैदिक काल में परिषद, शाखा और चरण जैसे संघों का स्थापन हो गया था, लेकिन व्यवस्थित शिक्षण संस्थाएं सार्वजनिक स्तर पर बौद्धों द्वारा प्रारम्भ की गई थी। गुरुकुलों की स्थापना प्रायः वनों, उपवनों तथा ग्रामों या नगरों में की जाती थी। वनों में गुरुकुल बहुत कम होते थे। अधिकतर दार्शनिक आचार्य निर्जन वनों में निवास, अध्ययन तथा चिन्तन पसन्द करते थे। वाल्मीकि, सन्दीपनि, कण्व आदि ऋषियों के आश्रम वनों में ही स्थित थे और इनके यहाँ दर्शन शास्त्रों के साथ-साथ व्याकरण, ज्योतिष तथा नागरिक शास्त्र भी पढ़ाये जाते थे। अधिकांश गुरुकुल गांवों या नगरों के समीप किसी वाग अथवा वाटिला में बनाये जाते थे। जिससे उन्हें एकान्त एवं पवित्र वातावरण प्राप्त हो सके। इससे दो लाभ थे; एक तो गृहस्थ आचार्यों को सामग्री एकत्रित करने में सुविधा थी, दूसरे ब्रह्मचारियों को भिक्षाटन में अधिक भटकना नहीं पड़ता था। मनु के अनुसार `ब्रह्मचारों को गुरु के कुल में, अपनी जाति वालों में तथा कुल बान्धवों के यहां से भिक्षा याचना नहीं करनी चाहिए, यदि भिक्षा योग्य दूसरा घर नहीं मिले, तो पूर्व-पूर्व गृहों का त्याग करके भिक्षा याचना करनी चाहिये। इससे स्पष्ट होता है कि गुरुकुल गांवों के सन्निकट ही होते थे। स्वजातियों से भिक्षा याचना करने में उनके पक्षपात तथा ब्रह्मचारी के गृह की ओर आकर्षण का भय भी रहता था अतएव स्वजातियों से भिक्षा-याचना का पूर्ण निषेध कर दिया गया था। बहुधा राजा तथा सामन्तों का प्रोत्साहन पाकर विद्वान् पण्डित उनकी सभाओं की ओर आकर्षित होते थे और अधिकतर उनकी राजधानी में ही बस जाते थे, जिससे वे नगर शिक्षा के केन्द्र बन जाते थे। इनमें तक्षशिला, पाटलिपुत्र, कान्यकुब्ज, मिथिला, धारा, तंजोर आदि प्रसिद्ध हैं। इसी प्रकार तीर्थ स्थानों की ओर भी विद्वान् आकृष्ट होते थे। फलत: काशी, कर्नाटक, नासिक आदि शिक्षा के प्रसिद्ध केन्द्र बन गये। कभी-कभी राजा भी अनेक विद्वानों को आमंत्रित करके दान में भूमि आदि देकर तथा जीविका निश्चित करके उन्हें बसा लेते थे। उनके बसने से वहां एक नया गांव बन जाता था। इन गांवों को `अग्रहार' कहते थे। इसके अतिरिक्त विभिन्न हिन्दू सम्प्रदायों एवं मठों के आचार्यों के प्रभाव से ईसा की दूसरी शताब्दी के लगभग मठ शिक्षा के महत्त्वपूर्ण केन्द्र बन गये। इनमें शंकराचार्य, रामानुजाचार्य, मध्वाचार्य आदि के मठ प्रसिद्ध हैं। सार्वजनिक शिक्षण संस्थाएँ सर्वप्रथम बौद्ध विहारों में स्थापित हुई थीं। भगवान बुद्ध ने उपासकों की शिक्षा-दीक्षा पर अत्यधिक बल दिया। इस संस्थाओं में धार्मिक ग्रन्थों का अध्यापन एवं आध्यात्मिक अभ्यास कराया जाता था। अशोक (३०० ई. पू.) ने बौद्ध विहारों की विशेष उन्नति करायी। कुछ समय पश्चात् ये विद्या के महान केन्द्र बन गये। ये वस्तुत: गुरुकुलों के ही समान थे। किन्तु इनमें गुरु किसी एक कुल का प्रतिनिधि न होकर सारे विहार का ही प्रधान होता था। ये धर्म प्रचार की दृष्टि से जनसाधारण के लिए भी सुलभ थे। इनमें नालन्दा विश्वविद्यालय (४५० ई.), वल्लभी (७०० ई.), विक्रमशिला (८०० ई.) प्रमुख शिक्षण संस्थाएँ थीं। इन संस्थाओं का अनुसरण करके हिन्दुओं ने भी मन्दिरों में विद्यालय खोले जो आगे चल कर मठों के रूप में परिवर्तित हो गये। .

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ब्रह्मदत्त 'जिज्ञासु'

पण्डित ब्रह्मदत्त 'जिज्ञासु' (14 अक्टूबर 1882 - 23 दिसम्बर 1964) संस्कृत के विद्वान तथा वैदिक साहित्य के शिक्षक थे। उन्हें 'राष्ट्रीय पण्डित' की पदवी से सम्मानित किया गया था। उन्होने संस्कृत पठन-पाठन की सरलतम विधि विकसित की थी जो पाणिनि के अष्टाध्यायी पर आधारित था। .

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भारतीय दर्शन

भारत में 'दर्शन' उस विद्या को कहा जाता है जिसके द्वारा तत्व का साक्षात्कार हो सके। 'तत्व दर्शन' या 'दर्शन' का अर्थ है तत्व का साक्षात्कार। मानव के दुखों की निवृति के लिए और/या तत्व साक्षात्कार कराने के लिए ही भारत में दर्शन का जन्म हुआ है। हृदय की गाँठ तभी खुलती है और शोक तथा संशय तभी दूर होते हैं जब एक सत्य का दर्शन होता है। मनु का कथन है कि सम्यक दर्शन प्राप्त होने पर कर्म मनुष्य को बंधन में नहीं डाल सकता तथा जिनको सम्यक दृष्टि नहीं है वे ही संसार के महामोह और जाल में फंस जाते हैं। भारतीय ऋषिओं ने जगत के रहस्य को अनेक कोणों से समझने की कोशिश की है। भारतीय दार्शनिकों के बारे में टी एस एलियट ने कहा था- भारतीय दर्शन किस प्रकार और किन परिस्थितियों में अस्तित्व में आया, कुछ भी प्रामाणिक रूप से नहीं कहा जा सकता। किन्तु इतना स्पष्ट है कि उपनिषद काल में दर्शन एक पृथक शास्त्र के रूप में विकसित होने लगा था। तत्त्वों के अन्वेषण की प्रवृत्ति भारतवर्ष में उस सुदूर काल से है, जिसे हम 'वैदिक युग' के नाम से पुकारते हैं। ऋग्वेद के अत्यन्त प्राचीन युग से ही भारतीय विचारों में द्विविध प्रवृत्ति और द्विविध लक्ष्य के दर्शन हमें होते हैं। प्रथम प्रवृत्ति प्रतिभा या प्रज्ञामूलक है तथा द्वितीय प्रवृत्ति तर्कमूलक है। प्रज्ञा के बल से ही पहली प्रवृत्ति तत्त्वों के विवेचन में कृतकार्य होती है और दूसरी प्रवृत्ति तर्क के सहारे तत्त्वों के समीक्षण में समर्थ होती है। अंग्रेजी शब्दों में पहली की हम ‘इन्ट्यूशनिस्टिक’ कह सकते हैं और दूसरी को रैशनलिस्टिक। लक्ष्य भी आरम्भ से ही दो प्रकार के थे-धन का उपार्जन तथा ब्रह्म का साक्षात्कार। प्रज्ञामूलक और तर्क-मूलक प्रवृत्तियों के परस्पर सम्मिलन से आत्मा के औपनिषदिष्ठ तत्त्वज्ञान का स्फुट आविर्भाव हुआ। उपनिषदों के ज्ञान का पर्यवसान आत्मा और परमात्मा के एकीकरण को सिद्ध करने वाले प्रतिभामूलक वेदान्त में हुआ। भारतीय मनीषियों के उर्वर मस्तिष्क से जिस कर्म, ज्ञान और भक्तिमय त्रिपथगा का प्रवाह उद्भूत हुआ, उसने दूर-दूर के मानवों के आध्यात्मिक कल्मष को धोकर उन्हेंने पवित्र, नित्य-शुद्ध-बुद्ध और सदा स्वच्छ बनाकर मानवता के विकास में योगदान दिया है। इसी पतितपावनी धारा को लोग दर्शन के नाम से पुकारते हैं। अन्वेषकों का विचार है कि इस शब्द का वर्तमान अर्थ में सबसे पहला प्रयोग वैशेषिक दर्शन में हुआ। .

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भारतीय ज्योतिष

नक्षत्र भारतीय ज्योतिष (Indian Astrology/Hindu Astrology) ग्रहनक्षत्रों की गणना की वह पद्धति है जिसका भारत में विकास हुआ है। आजकल भी भारत में इसी पद्धति से पंचांग बनते हैं, जिनके आधार पर देश भर में धार्मिक कृत्य तथा पर्व मनाए जाते हैं। वर्तमान काल में अधिकांश पंचांग सूर्यसिद्धांत, मकरंद सारणियों तथा ग्रहलाघव की विधि से प्रस्तुत किए जाते हैं। कुछ ऐसे भी पंचांग बनते हैं जिन्हें नॉटिकल अल्मनाक के आधार पर प्रस्तुत किया जाता है, किंतु इन्हें प्राय: भारतीय निरयण पद्धति के अनुकूल बना दिया जाता है। .

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महर्षि सांदीपनी राष्ट्रीय वेद विद्या प्रतिष्ठान, उज्जैन

महर्षि सांदीपनी राष्ट्रीय वेद विद्या प्रतिष्ठान की स्थापना अगस्त, 1987 में की गई थी। इसकी स्‍थापना के उद्देश्‍य है - वैदिक अध्ययन की मौखिक परंपरा का संरक्षण, प्रोत्साहन एवं विकास, पाठशालाओं के साथ-साथ अन्य साधनों एवं संस्थानों के माध्यम से वेदों का अध्ययन, अनुसंधान गतिविधियों का सृजन तथा प्रोत्साहन ताकि वेदों में अन्‍त निहित ज्ञान को बाहर निकालना तथा इसे समकालीन आवश्यकताओं से संबद्ध करना, अवसंरचनाओं तथा सूचनाओं का एकत्रीकरण तथा प्रासंगिक सामग्री के संग्रहण तथा विभिन्न माध्यमों एवं विद्वानों के माध्यम से प्रकाशन तथा प्रसार तथा वेदों एवं वैदिक साहित्य में अनुसंधान हेतु छात्रवृत्तियाँ/अध्येत्तावृत्तियां करना। .

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महाभारत

महाभारत हिन्दुओं का एक प्रमुख काव्य ग्रंथ है, जो स्मृति वर्ग में आता है। कभी कभी केवल "भारत" कहा जाने वाला यह काव्यग्रंथ भारत का अनुपम धार्मिक, पौराणिक, ऐतिहासिक और दार्शनिक ग्रंथ हैं। विश्व का सबसे लंबा यह साहित्यिक ग्रंथ और महाकाव्य, हिन्दू धर्म के मुख्यतम ग्रंथों में से एक है। इस ग्रन्थ को हिन्दू धर्म में पंचम वेद माना जाता है। यद्यपि इसे साहित्य की सबसे अनुपम कृतियों में से एक माना जाता है, किन्तु आज भी यह ग्रंथ प्रत्येक भारतीय के लिये एक अनुकरणीय स्रोत है। यह कृति प्राचीन भारत के इतिहास की एक गाथा है। इसी में हिन्दू धर्म का पवित्रतम ग्रंथ भगवद्गीता सन्निहित है। पूरे महाभारत में लगभग १,१०,००० श्लोक हैं, जो यूनानी काव्यों इलियड और ओडिसी से परिमाण में दस गुणा अधिक हैं। हिन्दू मान्यताओं, पौराणिक संदर्भो एवं स्वयं महाभारत के अनुसार इस काव्य का रचनाकार वेदव्यास जी को माना जाता है। इस काव्य के रचयिता वेदव्यास जी ने अपने इस अनुपम काव्य में वेदों, वेदांगों और उपनिषदों के गुह्यतम रहस्यों का निरुपण किया हैं। इसके अतिरिक्त इस काव्य में न्याय, शिक्षा, चिकित्सा, ज्योतिष, युद्धनीति, योगशास्त्र, अर्थशास्त्र, वास्तुशास्त्र, शिल्पशास्त्र, कामशास्त्र, खगोलविद्या तथा धर्मशास्त्र का भी विस्तार से वर्णन किया गया हैं। .

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मित्र वरुण

मित्र और वरुण दो हिन्दू देवता है। ऋग्वेद में दोनों का अलग और प्राय: एक साथ भी वर्णन है, अधिकांश पुराणों में 'मित्रावरुण' इस एक ही शब्द द्वारा उल्लेख है।। ये द्वादश आदित्य में भी गिने जाते हैं। इनका संबंध इतना गहरा है कि इन्हें द्वंद्व संघटकों के रूप में गिना जाता है। इन्हें गहन अंतरंग मित्रता या भाइयों के रूप में उल्लेख किया गया है। ये दोनों कश्यप ऋषि की पत्नी अदिति के पुत्र हैं। ये दोनों जल पर सार्वभौमिक राज करते हैं, जहां मित्र सागर की गहराईयों एवं गहनता से संबद्ध है वहीं वरुण सागर के ऊपरी क्षेत्रों, नदियों एवं तटरेखा पर शासन करते हैं। मित्र सूर्योदय और दिवस से संबद्ध हैं जो कि सागर से उदय होता है, जबकि वरुण सूर्यास्त एवं रात्रि से संबद्ध हैं जो सागर में अस्त होती है। मित्र द्वादश आदित्यों में से हैं जिनसे वशिष्ठ का जन्म हुआ। वरुण से अगस्त्य की उत्पति हुई और इन दोनों के अंश से इला नामक एक कन्या उस यज्ञकुंड से प्रगट हुई जिसे प्रजापति मनु ने पुत्रप्राप्ति की कामना से रचाया था। स्कन्दपुराण के अनुसार काशी स्थित मित्रावरुण नामक दो शिवलिंगों की पूजा करने से मित्रलोक एवं वरुणलोक की प्राप्ति होती है। दोनों देवता पृथ्वी एवं आकाश को जल से संबद्ध किये रहते हैं तथा दोनों ही चंद्रमा, सागर एवं ज्वार से जुड़े रहते हैं। भौतिक मानव शरीर में मित्र शरीर से मल को बाहर निकालते हैं जबकि वरुण पोषण को अंदर लेते हैं, इस प्रकार मित्र शरीर के निचले भागों (गुदा एवं मलाशय) से जुड़े हैं वहीं वरुण शरीर के ऊपरी भागों (मुख एवं जिह्वा) पर शासन करते हैं। मित्र, वरुण एवं अग्नि को ईश्वर के नेत्र स्वरूप माना जाता है। वरुण की उत्पत्ति व्रि अर्थात संयोजन यानि जुड़ने से हुई है। इसी प्रका मित्र की उत्पत्ति मींय अर्थात संधि से हुई है। .

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याज्ञवल्क्य

भगवती सरस्वती याज्ञवल्क्य के सम्मुख प्रकट हुईं याज्ञवल्क्य (ईसापूर्व ७वीं शताब्दी), भारत के वैदिक काल के एक ऋषि तथा दार्शनिक थे। वे वैदिक साहित्य में शुक्ल यजुर्वेद की वाजसनेयी शाखा के द्रष्टा हैं। इनको अपने काल का सर्वोपरि वैदिक ज्ञाता माना जाता है। याज्ञवल्क्य का दूसरा महत्वपूर्ण कार्य शतपथ ब्राह्मण की रचना है - बृहदारण्यक उपनिषद जो बहुत महत्वपूर्ण उपनिषद है, इसी का भाग है। इनका काल लगभग १८००-७०० ई पू के बीच माना जाता है। इन ग्रंथों में इनको राजा जनक के दरबार में हुए शास्त्रार्थ के लिए जाना जाता है। शास्त्रार्थ और दर्शन की परंपरा में भी इनसे पहले किसी ऋषि का नाम नहीं लिया जा सकता। इनको नेति नेति (यह नहीं, यह भी नहीं) के व्यवहार का प्रवर्तक भी कहा जाता है। .

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यजुर्वेद

यजुर्वेद हिन्दू धर्म का एक महत्त्वपूर्ण श्रुति धर्मग्रन्थ और चार वेदों में से एक है। इसमें यज्ञ की असल प्रक्रिया के लिये गद्य और पद्य मन्त्र हैं। ये हिन्दू धर्म के चार पवित्रतम प्रमुख ग्रन्थों में से एक है और अक्सर ऋग्वेद के बाद दूसरा वेद माना जाता है - इसमें ऋग्वेद के ६६३ मंत्र पाए जाते हैं। फिर भी इसे ऋग्वेद से अलग माना जाता है क्योंकि यजुर्वेद मुख्य रूप से एक गद्यात्मक ग्रन्थ है। यज्ञ में कहे जाने वाले गद्यात्मक मन्त्रों को ‘'यजुस’' कहा जाता है। यजुर्वेद के पद्यात्मक मन्त्र ॠग्वेद या अथर्ववेद से लिये गये है।। भारत कोष पर देखें इनमें स्वतन्त्र पद्यात्मक मन्त्र बहुत कम हैं। यजुर्वेद में दो शाखा हैं: दक्षिण भारत में प्रचलित कृष्ण यजुर्वेद और उत्तर भारत में प्रचलित शुक्ल यजुर्वेद शाखा। जहां ॠग्वेद की रचना सप्त-सिन्धु क्षेत्र में हुई थी वहीं यजुर्वेद की रचना कुरुक्षेत्र के प्रदेश में हुई।। ब्रज डिस्कवरी कुछ लोगों के मतानुसार इसका रचनाकाल १४०० से १००० ई.पू.

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राम

राम (रामचन्द्र) प्राचीन भारत में अवतार रूपी भगवान के रूप में मान्य हैं। हिन्दू धर्म में राम विष्णु के दस अवतारों में से सातवें अवतार हैं। राम का जीवनकाल एवं पराक्रम महर्षि वाल्मीकि द्वारा रचित संस्कृत महाकाव्य रामायण के रूप में वर्णित हुआ है। गोस्वामी तुलसीदास ने भी उनके जीवन पर केन्द्रित भक्तिभावपूर्ण सुप्रसिद्ध महाकाव्य श्री रामचरितमानस की रचना की है। इन दोनों के अतिरिक्त अनेक भारतीय भाषाओं में अनेक रामायणों की रचना हुई हैं, जो काफी प्रसिद्ध भी हैं। खास तौर पर उत्तर भारत में राम बहुत अधिक पूजनीय हैं और हिन्दुओं के आदर्श पुरुष हैं। राम, अयोध्या के राजा दशरथ और रानी कौशल्या के सबसे बड़े पुत्र थे। राम की पत्नी का नाम सीता था (जो लक्ष्मी का अवतार मानी जाती हैं) और इनके तीन भाई थे- लक्ष्मण, भरत और शत्रुघ्न। हनुमान, भगवान राम के, सबसे बड़े भक्त माने जाते हैं। राम ने राक्षस जाति के लंका के राजा रावण का वध किया। राम की प्रतिष्ठा मर्यादा पुरुषोत्तम के रूप में है। राम ने मर्यादा के पालन के लिए राज्य, मित्र, माता पिता, यहाँ तक कि पत्नी का भी साथ छोड़ा। इनका परिवार आदर्श भारतीय परिवार का प्रतिनिधित्व करता है। राम रघुकुल में जन्मे थे, जिसकी परम्परा प्रान जाहुँ बरु बचनु न जाई की थी। श्रीराम के पिता दशरथ ने उनकी सौतेली माता कैकेयी को उनकी किन्हीं दो इच्छाओं को पूरा करने का वचन (वर) दिया था। कैकेयी ने दासी मन्थरा के बहकावे में आकर इन वरों के रूप में राजा दशरथ से अपने पुत्र भरत के लिए अयोध्या का राजसिंहासन और राम के लिए चौदह वर्ष का वनवास माँगा। पिता के वचन की रक्षा के लिए राम ने खुशी से चौदह वर्ष का वनवास स्वीकार किया। पत्नी सीता ने आदर्श पत्नी का उदहारण देते हुए पति के साथ वन जाना उचित समझा। सौतेले भाई लक्ष्मण ने भी भाई के साथ चौदह वर्ष वन में बिताये। भरत ने न्याय के लिए माता का आदेश ठुकराया और बड़े भाई राम के पास वन जाकर उनकी चरणपादुका (खड़ाऊँ) ले आये। फिर इसे ही राज गद्दी पर रख कर राजकाज किया। राम की पत्नी सीता को रावण हरण (चुरा) कर ले गया। राम ने उस समय की एक जनजाति वानर के लोगों की मदद से सीता को ढूँढ़ा। समुद्र में पुल बना कर रावण के साथ युद्ध किया। उसे मार कर सीता को वापस लाये। जंगल में राम को हनुमान जैसा मित्र और भक्त मिला जिसने राम के सारे कार्य पूरे कराये। राम के अयोध्या लौटने पर भरत ने राज्य उनको ही सौंप दिया। राम न्यायप्रिय थे। उन्होंने बहुत अच्छा शासन किया इसलिए लोग आज भी अच्छे शासन को रामराज्य की उपमा देते हैं। इनके पुत्र कुश व लव ने इन राज्यों को सँभाला। हिन्दू धर्म के कई त्योहार, जैसे दशहरा, राम नवमी और दीपावली, राम की जीवन-कथा से जुड़े हुए हैं। .

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रामकथा : उत्पत्ति और विकास

रामकथा: उत्पत्ति और विकास हिन्दी में एक शोधपत्र (थेसिस) है जिसे फादर कामिल बुल्के ने इलाहाबाद विश्वविद्यालय में डी-फिल के लिये डाॅ० माताप्रसाद गुप्त के निर्देशन में प्रस्तुत किया था। इसे रामकथा सम्बन्धी समस्त सामग्री का विश्वकोष कहा जा सकता है। सामग्री की पूर्णता के अतिरिक्त विद्वान लेखक ने अन्य विद्वानों के मत की यथास्थान परीक्षा की है तथा कथा के विकास के सम्बन्ध में अपना तर्कपूर्ण मत भी दिया है। वास्तव में यह खोजपूर्ण रचना अपने ढंग की पहली ही है और अनूठी भी है। हिन्दी क्या किसी भी यूरोपीय अथवा भारतीय भाषा में इस प्रकार का कोई दूसरा अध्ययन उपलब्ध नहीं है। .

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श्रीपाद दामोदर सतवलेकर

वेदमूर्ति श्रीपाद दामोदर सातवलेकर (19 सितंबर 1867 - 31 जुलाई 1968) वेदों का गहन अध्ययन करनेवाले शीर्षस्थ विद्वान् थे। उन्हें 'साहित्य एवं शिक्षा' के क्षेत्र में सन् 1968 में भारत सरकार ने पद्म भूषण से सम्मानित किया था। .

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सरस्वती नदी

सरस्वती एक पौराणिक नदी जिसकी चर्चा वेदों में भी है। ऋग्वेद (२ ४१ १६-१८) में सरस्वती का अन्नवती तथा उदकवती के रूप में वर्णन आया है। यह नदी सर्वदा जल से भरी रहती थी और इसके किनारे अन्न की प्रचुर उत्पत्ति होती थी। कहते हैं, यह नदी पंजाब में सिरमूरराज्य के पर्वतीय भाग से निकलकर अंबाला तथा कुरुक्षेत्र होती हुई कर्नाल जिला और पटियाला राज्य में प्रविष्ट होकर सिरसा जिले की दृशद्वती (कांगार) नदी में मिल गई थी। प्राचीन काल में इस सम्मिलित नदी ने राजपूताना के अनेक स्थलों को जलसिक्त कर दिया था। यह भी कहा जाता है कि प्रयाग के निकट तक आकार यह गंगा तथा यमुना में मिलकर त्रिवेणी बन गई थी। कालांतर में यह इन सब स्थानों से तिरोहित हो गई, फिर भी लोगों की धारणा है कि प्रयाग में वह अब भी अंत:सलिला होकर बहती है। मनुसंहिता से स्पष्ट है कि सरस्वती और दृषद्वती के बीच का भूभाग ही ब्रह्मावर्त कहलाता था। .

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सामवेद संहिता

सामवेद भारत के प्राचीनतम ग्रंथ वेदों में से एक है, गीत-संगीत प्रधान है। प्राचीन आर्यों द्वारा साम-गान किया जाता था। सामवेद चारों वेदों में आकार की दृष्टि से सबसे छोटा है और इसके १८७५ मन्त्रों में से ६९ को छोड़ कर सभी ऋगवेद के हैं। केवल १७ मन्त्र अथर्ववेद और यजुर्वेद के पाये जाते हैं। फ़िर भी इसकी प्रतिष्ठा सर्वाधिक है, जिसका एक कारण गीता में कृष्ण द्वारा वेदानां सामवेदोऽस्मि कहना भी है। सामवेद यद्यपि छोटा है परन्तु एक तरह से यह सभी वेदों का सार रूप है और सभी वेदों के चुने हुए अंश इसमें शामिल किये गये है। सामवेद संहिता में जो १८७५ मन्त्र हैं, उनमें से १५०४ मन्त्र ऋग्वेद के ही हैं। सामवेद संहिता के दो भाग हैं, आर्चिक और गान। पुराणों में जो विवरण मिलता है उससे सामवेद की एक सहस्त्र शाखाओं के होने की जानकारी मिलती है। वर्तमान में प्रपंच ह्रदय, दिव्यावदान, चरणव्युह तथा जैमिनि गृहसूत्र को देखने पर १३ शाखाओं का पता चलता है। इन तेरह में से तीन आचार्यों की शाखाएँ मिलती हैं- (१) कौमुथीय, (२) राणायनीय और (३) जैमिनीय। .

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स्मार्त सूत्र

पश्चिमी भारत के स्मार्त ब्राह्मण (१८५५ से १८६२ के बीच का चित्र) प्राचीन वैदिक साहित्य की विशाल परंपरा में अंतिम कड़ी सूत्रग्रंथ हैं। यह सूत्र-साहित्य तीन प्रकार का है: श्रौतसूत्र, गृह्यसूत्र तथा धर्मसूत्र। वेद द्वारा प्रतिपादित विषयों को स्मरण कर उन्हीं के आधार पर आचार-विचार को प्रकाशित करनेवाली शब्दराशि को "स्मृति" कहते हैं। स्मृति से विहित कर्म स्मार्त कर्म हैं। इन कर्मों की समस्त विधियाँ स्मार्त सूत्रों से नियंत्रित हैं। स्मार्त सूत्र का नामांतर गृह्यसूत्र है। अतीत में वेद की अनेक शाखाएँ थीं। प्रत्येक शाखा के निमित्त गृह्यसूत्र भी होंगे। वर्तमानकाल में जो गृह्यसूत्र उपलब्ध हैं वे अपनी शाखा के कर्मकांड को प्रतिपादित करते हैं। .

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हिन्दू धर्म ग्रंथ

वैदिक सनातन वर्णाश्रम व्यक्ति प्रवर्तित धर्म नहीं है। इसका आधार वेदादि धर्मग्रन्थ है, जिनकी संख्या बहुत बड़ी है। ये सब दो विभागों में विभक्त हैं-.

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जनक

जनक नाम से अनेक व्यक्ति हुए हैं। पुराणों के अनुसार इक्ष्वाकुपुत्र निमि ने विदेह के सूर्यवंशी राज्य की स्थापना की, जिसकी राजधानी मिथिला हुई। मिथिला में जनक नाम का एक अत्यंत प्राचीन तथा प्रसिद्ध राजवंश था जिसके मूल पुरुष कोई जनक थे। मूल जनक के बाद मिथिला के उस राजवंश का ही नाम 'जनक' हो गया जो उनकी प्रसिद्धि और शक्ति का द्योतक है। जनक के पुत्र उदावयु, पौत्र नंदिवर्धन् और कई पीढ़ी पश्चात् ह्रस्वरोमा हुए। ह्रस्वरोमा के दो पुत्र सीरध्वज तथा कुशध्वज हुए। जनक नामक एक अथवा अनेक राजाओं के उल्लेख ब्राह्मण ग्रंथों, उपनिषदों, रामायण, महाभारत और पुराणों में हुए हैं। इतना निश्चित प्रतीत होता है कि जनक नाम के कम से कम दो प्रसिद्ध राजा अवश्य हुए; एक तो वैदिक साहित्य के दार्शनिक और तत्वज्ञानी जनक विदेह और दूसरे राम के ससुर जनक, जिन्हें वायुपुराण और पद्मपुराण में सीरध्वज कहा गया है। असंभव नहीं, और भी जनक हुए हों और यही कारण है, कुछ विद्वान् वशिष्ठ और विश्वामित्र की भाँति 'जनक' को भी कुलनाम मानते हैं। सीरध्वज की दो कन्याएँ सीता तथा उर्मिला हुईं जिनका विवाह, राम तथा लक्ष्मण से हुआ। कुशध्वज की कन्याएँ मांडवी तथा श्रुतिकीर्ति हुईं जिनके व्याह भरत तथा शत्रुघ्न से हुए। श्रीमद्भागवत में दी हुई जनकवंश की सूची कुछ भिन्न है, परंतु सीरध्वज के योगिराज होने में सभी ग्रंथ एकमत हैं। इनके अन्य नाम 'विदेह' अथवा 'वैदेह' तथा 'मिथिलेश' आदि हैं। मिथिला राज्य तथा नगरी इनके पूर्वज निमि के नाम पर प्रसिद्ध हुए। .

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जयदेव वेदालंकार

डॉ॰ जयदेव वेदालंकार (जन्म: ५ दिसम्बर १९४१) दर्शनशास्‍त्र, वैदिक साहित्य, धर्म और संस्‍कृति के उद्भट्ट विद्वान हैं। इन्‍होंने अनेक ग्रन्‍थों की रचना की है। वे गुरुकुल कांगड़ी विश्वविद्यालय के अनेक उच्‍च पदों जैसे डीन प्राच्‍यविद्या संकाय, प्रोफेसर एवं अध्‍यक्ष दर्शन विभाग और कुल सचिव आदि पदों पर प्रशासनिक कार्यों को सफलतापूर्वक निर्वहण करते रहे हैं। .

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जैन धर्म

जैन ध्वज जैन धर्म भारत के सबसे प्राचीन धर्मों में से एक है। 'जैन धर्म' का अर्थ है - 'जिन द्वारा प्रवर्तित धर्म'। जो 'जिन' के अनुयायी हों उन्हें 'जैन' कहते हैं। 'जिन' शब्द बना है 'जि' धातु से। 'जि' माने - जीतना। 'जिन' माने जीतने वाला। जिन्होंने अपने मन को जीत लिया, अपनी वाणी को जीत लिया और अपनी काया को जीत लिया और विशिष्ट ज्ञान को पाकर सर्वज्ञ या पूर्णज्ञान प्राप्त किया उन आप्त पुरुष को जिनेश्वर या 'जिन' कहा जाता है'। जैन धर्म अर्थात 'जिन' भगवान्‌ का धर्म। अहिंसा जैन धर्म का मूल सिद्धान्त है। जैन दर्शन में सृष्टिकर्ता कण कण स्वतंत्र है इस सॄष्टि का या किसी जीव का कोई कर्ता धर्ता नही है।सभी जीव अपने अपने कर्मों का फल भोगते है।जैन धर्म के ईश्वर कर्ता नही भोगता नही वो तो जो है सो है।जैन धर्म मे ईश्वरसृष्टिकर्ता इश्वर को स्थान नहीं दिया गया है। जैन ग्रंथों के अनुसार इस काल के प्रथम तीर्थंकर ऋषभदेव आदिनाथ द्वारा जैन धर्म का प्रादुर्भाव हुआ था। जैन धर्म की अत्यंत प्राचीनता करने वाले अनेक उल्लेख अ-जैन साहित्य और विशेषकर वैदिक साहित्य में प्रचुर मात्रा में हैं। .

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जैन ग्रंथ

जैन साहित्य बहुत विशाल है। अधिकांश में वह धार्मिक साहित्य ही है। संस्कृत, प्राकृत और अपभ्रंश भाषाओं में यह साहित्य लिखा गया है। महावीर की प्रवृत्तियों का केंद्र मगध रहा है, इसलिये उन्होंने यहाँ की लोकभाषा अर्धमागधी में अपना उपदेश दिया जो उपलब्ध जैन आगमों में सुरक्षित है। ये आगम ४५ हैं और इन्हें श्वेतांबर जैन प्रमाण मानते हैं, दिगंबर जैन नहीं। दिंगबरों के अनुसार आगम साहित्य कालदोष से विच्छिन्न हो गया है। दिगंबर षट्खंडागम को स्वीकार करते हैं जो १२वें अंगदृष्टिवाद का अंश माना गया है। दिगंबरों के प्राचीन साहित्य की भाषा शौरसेनी है। आगे चलकर अपभ्रंश तथा अपभ्रंश की उत्तरकालीन लोक-भाषाओं में जैन पंडितों ने अपनी रचनाएँ लिखकर भाषा साहित्य को समृद्ध बनाया। आदिकालीन साहित्य में जैन साहित्य के ग्रन्थ सर्वाधिक संख्या में और सबसे प्रमाणिक रूप में मिलते हैं। जैन रचनाकारों ने पुराण काव्य, चरित काव्य, कथा काव्य, रास काव्य आदि विविध प्रकार के ग्रंथ रचे। स्वयंभू, पुष्प दंत, हेमचंद्र, सोमप्रभ सूरी आदि मुख्य जैन कवि हैं। इन्होंने हिंदुओं में प्रचलित लोक कथाओं को भी अपनी रचनाओं का विषय बनाया और परंपरा से अलग उसकी परिणति अपने मतानुकूल दिखाई। .

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वैदिक शाखाएँ

मूलवस्तु से निकले हुए विभाग अथवा अंग को शाखा कहते हैं - जैसे वृक्ष की शाखा। वैदिक साहित्य के संदर्भ में वैदिक शाखा शब्द से उन विशेष परंपराओं का बोध होता है जो गुरु-शिष्य-प्रणाली, देशविभाग, उच्चारण की भिन्नता, काल एवं विशेष परिस्थितिजन्य कारणों से चार वेदों के भिन्न-भिन्न पाटों के रूप में विकसित हुई। शाखाओं को कभी कभी 'चरण' भी कहा जाता है। इन शाखाओं का विवरण शौनक के चरणव्यूह और पुराणों में विशद रूप से मिलता है। वैदिक शाखाओं की संख्याएँ सब जगह एक रूप में दी गई हों, ऐसा नहीं। फिर, विभिन्न स्थलों में वर्णित सभी वैदिक शाखाएँ आजकल उपलब्ध भी नहीं है। पतंजलि ने ऋग्वेद की 21, यजुर्वेद की 100, सामवेद की 100 तथा अथर्ववेद की 9 शाखाएँ बताई है। किंतु चरणव्यूह में उल्लिखित संख्याएँ इनसे भिन्न हैं। चरणव्यूह से ऋग्वेद की पाँच शाखाएँ ज्ञात होती हैं - शाकलायन, वाष्कलायन, आश्वलायन, शाखायन और मांडूकायन। पुराणों से उसकी केवल तीन ही शाखाएँ ज्ञात होती हैं - शाकलायन, वाष्कलायन और मांडूकायन। यजुर्वेद की दो शाखायें ज्ञात होती है - शुक्ल यजुर्वेद और कृष्ण यजुर्वेद। शुक्ल यजुर्वेद की 85 शाखाओं की चर्चा मिलती है, किंतु आज उनमें से केवल ये चार ही उपलब्ध है तैत्तिरीय, मैत्रायणी, कठ और कपिष्ठकलकठशाखा। कितु कपिष्ठलशाखा कठ की ही एक उपशाखा है। कठशाखा पंजाब में तथा तैत्तिरीय और मैत्रायणी शाखाएँ क्रमश: नर्मदा नदी के निचले प्रदेशों एव दक्षिण भार में प्रचलित हुई। वहाँ उनकी और भी उपशाखाएँ हो गई। सामवेद की शाखासंख्या पुराणों में १००० बताई गई है। पतंजलि ने भी सामवेद को 'सहस्रवर्त्मा' कहा है। भागवत, विष्णु और वायुपुराणों के अनुसार वेदव्यास के शिष्य जैमिनी हुए। उन्हीं के वंश में सुकर्मा हुए, जिनके दो शिष्य थे - एक हिरण्यनाभ कौसल्य, जो कोसल के राजा थे और दूसरे पौष्पंजि। कोसल की स्थिति पूर्वी (वास्तव में उत्तर पूर्वी) भारत में थी और इस कारण हिरण्यनाभ से चलनेवाली 500 शाखाएँ 'प्राच्य' कहलाई। पौष्यंजि से चलनेवाली 500 शाखाएँ 'उदीच्य' कहलाई। अथर्ववेद की नौ शाखाएँ मिलती हैं। उनमें नाम हैं - पिप्पलाद, स्तौद, मौद, शौनक, जाजल, जलद, ब्रह्मवद, देवदर्श तथा चारणवैद्य। इनमें सर्वाधिक प्रसिद्ध शाखाएँ हैं पिप्पलाद और शौनक। .

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वैदिक संस्कृत

ऋग्वेद में वैदिक संस्कृत का सब से प्राचीन रूप मिलता है ऋग्वेद १०.९०:२ का श्लोक: यह पुरुष वह सर्वस्व है जो हुआ है (भूतं) या होगा (भव्यं)। अमरता का ईश्वर (ईशानः) अन्न से और भी विस्तृत (अतिऽरोहति) होता है। वैदिक संस्कृत २००० ईसापूर्व (या उस से भी पहले) से लेकर ६०० ईसापूर्व तक बोली जाने वाली एक हिन्द-आर्य भाषा थी। यह संस्कृत की पूर्वज भाषा थी और आदिम हिन्द-ईरानी भाषा की बहुत ही निकट की संतान थी। उस समय फ़ारसी और संस्कृत का विभाजन बहुत नया था, इसलिए वैदिक संस्कृत और अवस्ताई भाषा (प्राचीनतम ज्ञात ईरानी भाषा) एक-दूसरे के बहुत क़रीब हैं। वैदिक संस्कृत हिन्द-यूरोपीय भाषा-परिवार की हिन्द-ईरानी भाषा शाखा की सब से प्राचीन प्रमाणित भाषा है।, Alain Daniélou, Kenneth Hurry, Inner Traditions / Bear & Co, 2003, ISBN 978-0-89281-923-2,...

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वैदिक स्वराघात

परम्परागत रूप से वैदिक स्वराघात के तीन विभाग किये जाते हैं- उदात्त, अनुदात्त और स्वरित। .

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वेद

वेद प्राचीन भारत के पवितत्रतम साहित्य हैं जो हिन्दुओं के प्राचीनतम और आधारभूत धर्मग्रन्थ भी हैं। भारतीय संस्कृति में वेद सनातन वर्णाश्रम धर्म के, मूल और सबसे प्राचीन ग्रन्थ हैं, जो ईश्वर की वाणी है। ये विश्व के उन प्राचीनतम धार्मिक ग्रंथों में हैं जिनके पवित्र मन्त्र आज भी बड़ी आस्था और श्रद्धा से पढ़े और सुने जाते हैं। 'वेद' शब्द संस्कृत भाषा के विद् शब्द से बना है। इस तरह वेद का शाब्दिक अर्थ 'ज्ञान के ग्रंथ' है। इसी धातु से 'विदित' (जाना हुआ), 'विद्या' (ज्ञान), 'विद्वान' (ज्ञानी) जैसे शब्द आए हैं। आज 'चतुर्वेद' के रूप में ज्ञात इन ग्रंथों का विवरण इस प्रकार है -.

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गधा

गधा (Equus africanus asinus) अश्व परिवार का पशु है। कई देशों में इसे बोझा ढोने के काम लाया जाता है। गधे को अधिकतर धोबी और कुम्हार वर्ग के लोगों द्वारा पाला जाता है।यह जीव गजब का सहन् शील प्राणी है।इसके चेहरे का भाव एक सा बना रहता ह्ए। ह्रर्र्ष विसाद दोनों में एक सा दिखाई देता है। .

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गाथा

वैदिक साहित्य का यह महत्वपूर्ण शब्द ऋग्वेद की संहिता में गीत या मंत्र के अर्थ में प्रयुक्त हुआ है (ऋग्वेद 8. 32.1, 8.71.14)। 'गै' (गाना) धातु से निष्पन्न होने के कारण गीत ही इसका व्युत्पत्तिलभ्य तथा प्राचीनतम अर्थ प्रतीत होता है। .

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आश्वलायन

ऋग्वेद की 21 शाखाओं में से आश्वलायन अन्यतम शाखा है जिसका उल्लेख 'चरणव्यूह' में किया गया है। इस शाखा के अनुसार न तो आज ऋक्‌संहिता ही उपलब्ध है और न कोई ब्राह्मण ही, परंतु कवींद्राचार्य (17वीं शताब्दी) की ग्रंथसूची में उल्लिखित होने से इन ग्रंथों के अस्तित्व का स्पष्ट प्रमाण मिलता है। इस शाखा के समग्र कल्पसूत्र ही आज उपलब्ध हैं- आश्वलायन श्रौतसूत्र, गृह्मसूत्र और धर्मसूत्र। आश्वलायन श्रौतसूत्र में 12 अध्याय हैं जिनमें होता के द्वारा प्रतिपाद्य विषयों की ओर विशेष लक्ष्य कर यागों का अनुष्ठान विहित है। इसमें पुरोऽनुवाक्या, याज्या तथा ततत्‌ शास्त्रों के अनुष्ठान प्रकार, उनके देश, काल और कर्ता का विधान, स्वर-प्रतिगर-न्यूंख-प्रायश्चित्त आदि का विधान विशेष रूप से वर्णित है। नरसिंह के पुत्र गार्ग्य नारायण द्वारा की गई इस श्रौतसूत्र की व्याख्या नितांत प्रख्यात है। आश्वलायनगृह्यसूत्र में गृह्म कर्म और षोडश संस्कारों का वर्णन किया गया है। ऋग्वेदियों की गृह्यविधि के लिए यही गृह्मसूत्र विशेष लोक्रपिय तथा प्रसिद्ध है। इसकी व्यापकता का कुछ परिचय इसकी विपुल व्याख्या-संपत्ति से भी लगता है। इसके प्रख्यात टीकाग्रंथों में मुख्य ये हैं.

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आख्यान

आख्यान या अनुश्रुति शब्द आरंभ से ही सामान्यत: कथा अथवा कहानी के अर्थ में प्रयुक्त होता रहा है। तारानाथकृत "वाचस्पत्यम्" नामक कोश के प्रथम भाग में, इसकी व्युत्पत्ति "आख्यायते अनेनेति आख्यानम्" दी है। साहित्यदर्पण में आख्यान को "पुरावृत कथन" (आख्यानं पूर्ववृतोक्ति) कहा गया है। डॉ॰ एस.के.

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आगम

भारत के नाना धर्मों में आगम का साम्राज्य है। जैन धर्म में मात्रा में न्यून होने पर भी आगमपूजा का पर्याप्त समावेश है। बौद्ध धर्म का 'वज्रयान' इसी पद्धति का प्रयोजक मार्ग है। वैदिक धर्म में उपास्य देवता की भिन्नता के कारण इसके तीन प्रकार है: वैष्णव आगम (पंचरात्र तथा वैखानस आगम), शैव आगम (पाशुपत, शैवसिद्धांत, त्रिक आदि) तथा शाक्त आगम। .

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कमलानाथ

कमलानाथ शर्मा (के.एन.शर्मा भी) जलविज्ञान, सिंचाई तथा जल-निकास, एवं जल-विद्युत अभियांत्रिकी के अन्तरराष्ट्रीय विशेषज्ञ, वैदिक ग्रंथों में जलविज्ञान, पर्यावरण आदि विषयों के लेखक, साहित्यकार, तथा हिंदी के जानेमाने व्यंग्य लेखक और कहानीकार हैं। जलविज्ञान, जल-विद्युत अभियांत्रिकी व विश्व खाद्यान्न में उल्लेखनीय योगदान के अतिरिक्त के॰एन॰शर्मा ने वेदों, उपनिषदों आदि वैदिक वाङ्मय में जल, पर्यावरण, पारिस्थितिकी आदि पर भी शोध करके प्रचुरता से लिखा है। हिंदी साहित्य में साठ के दशक से कमलानाथ के नाम से उनके व्यंग्य तथा कहानियां भी देश की विभिन्न पत्रिकाओं में छपते रहे हैं। अपने कार्यकाल के दौरान आपने विश्व के लगभग सभी देशों की यात्रा की, वहां के सिंचाई, जलनिकास, जलविज्ञान आदि के विकास में योगदान दिया तथा अनेक अंतरराष्ट्रीय संस्थाओं के कार्यक्रमों तथा परियोजनाओं से संबद्ध रहे। .

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कल्प (वेदांग)

कल्प वेद के छह अंगों (वेदांगों) में एक है जो कर्मकाण्डों का विवरण देता है। अन्य वेदांग हैं- शिक्षा (प्रातिशाख्यादि), व्याकरण, निरुक्त, छंदशास्त्र और ज्योतिष। अनेक वैदिक ऐतिहासिकों के मत से कल्पग्रंथ या कल्पसूत्र षट् वेदांगों में प्राचीनतम और वैदिक साहित्य के अधिक निकट हैं। षट् वेदांगों में कल्प का विशिष्ट महत्व है - क्योंकि जन्म, उपनयन, विवाह, अंत्येष्टि और यज्ञ जैसे विषय इसमें विहित हैं। .

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कुरुक्षेत्र युद्ध

कुरुक्षेत्र युद्ध कौरवों और पाण्डवों के मध्य कुरु साम्राज्य के सिंहासन की प्राप्ति के लिए लड़ा गया था। महाभारत के अनुसार इस युद्ध में भारत के प्रायः सभी जनपदों ने भाग लिया था। महाभारत व अन्य वैदिक साहित्यों के अनुसार यह प्राचीन भारत में वैदिक काल के इतिहास का सबसे बड़ा युद्ध था। महाभारत-गीताप्रेस गोरखपुर,सौप्तिकपर्व इस युद्ध में लाखों क्षत्रिय योद्धा मारे गये जिसके परिणामस्वरूप वैदिक संस्कृति तथा सभ्यता का पतन हो गया था। इस युद्ध में सम्पूर्ण भारतवर्ष के राजाओं के अतिरिक्त बहुत से अन्य देशों के क्षत्रिय वीरों ने भी भाग लिया और सब के सब वीर गति को प्राप्त हो गये। महाभारत-गीताप्रेस गोरखपुर,भीष्मपर्व इस युद्ध के परिणामस्वरुप भारत में ज्ञान और विज्ञान दोनों के साथ-साथ वीर क्षत्रियों का अभाव हो गया। एक तरह से वैदिक संस्कृति और सभ्यता जो विकास के चरम पर थी उसका एकाएक विनाश हो गया। प्राचीन भारत की स्वर्णिम वैदिक सभ्यता इस युद्ध की समाप्ति के साथ ही समाप्त हो गयी। इस महान युद्ध का उस समय के महान ऋषि और दार्शनिक भगवान वेदव्यास ने अपने महाकाव्य महाभारत में वर्णन किया, जिसे सहस्राब्दियों तक सम्पूर्ण भारतवर्ष में गाकर एवं सुनकर याद रखा गया। महाभारत में मुख्यतः चंद्रवंशियों के दो परिवार कौरव और पाण्डव के बीच हुए युद्ध का वृत्तांत है। १०० कौरवों और पाँच पाण्डवों के बीच कुरु साम्राज्य की भूमि के लिए जो संघर्ष चला उससे अंतत: महाभारत युद्ध का सृजन हुआ। उक्त युद्ध को हरियाणा में स्थित कुरुक्षेत्र के आसपास हुआ माना जाता है। इस युद्ध में पाण्डव विजयी हुए थे। महाभारत में इस युद्ध को धर्मयुद्ध कहा गया है, क्योंकि यह सत्य और न्याय के लिए लड़ा जाने वाला युद्ध था। महाभारत काल से जुड़े कई अवशेष दिल्ली में पुराना किला में मिले हैं। पुराना किला को पाण्डवों का किला भी कहा जाता है। कुरुक्षेत्र में भी भारतीय पुरातत्त्व सर्वेक्षण विभाग द्वारा महाभारत काल के बाण और भाले प्राप्त हुए हैं। गुजरात के पश्चिमी तट पर समुद्र में डूबे ७०००-३५०० वर्ष पुराने शहर खोजे गये हैं, जिनको महाभारत में वर्णित द्वारका के सन्दर्भों से जोड़ा गया, इसके अलावा बरनावा में भी लाक्षागृह के अवशेष मिले हैं, ये सभी प्रमाण महाभारत की वास्तविकता को सिद्ध करते हैं। .

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अथर्ववेद संहिता

अथर्ववेद संहिता हिन्दू धर्म के पवित्रतम और सर्वोच्च धर्मग्रन्थ वेदों में से चौथे वेद अथर्ववेद की संहिता अर्थात मन्त्र भाग है। इसमें देवताओं की स्तुति के साथ जादू, चमत्कार, चिकित्सा, विज्ञान और दर्शन के भी मन्त्र हैं। अथर्ववेद संहिता के बारे में कहा गया है कि जिस राजा के रज्य में अथर्ववेद जानने वाला विद्वान् शान्तिस्थापन के कर्म में निरत रहता है, वह राष्ट्र उपद्रवरहित होकर निरन्तर उन्नति करता जाता हैः अथर्ववेद के रचियता श्री ऋषि अथर्व हैं और उनके इस वेद को प्रमाणिकता स्वंम महादेव शिव की है, ऋषि अथर्व पिछले जन्म मैं एक असुर हरिन्य थे और उन्होंने प्रलय काल मैं जब ब्रह्मा निद्रा मैं थे तो उनके मुख से वेद निकल रहे थे तो असुर हरिन्य ने ब्रम्ह लोक जाकर वेदपान कर लिया था, यह देखकर देवताओं ने हरिन्य की हत्या करने की सोची| हरिन्य ने डरकर भगवान् महादेव की शरण ली, भगवन महादेव ने उसे अगले अगले जन्म मैं ऋषि अथर्व बनकर एक नए वेद लिखने का वरदान दिया था इसी कारण अथर्ववेद के रचियता श्री ऋषि अथर्व हुए| .

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अनुलोम विवाह

अनुलोम विवाह के अर्थ में 'अनुलोम' एवं 'प्रतिलोम' शब्दों का व्यवहार वैदिक साहित्य में नहीं पाया जाता। पाणिनि (चतुर्थ,4.28) ने इन शब्दों से व्युत्पन्न शब्द अष्टाध्यायी में गिनाए हैं और इसके बाद स्मृतिग्रंथों में इन शब्दों का बहुतायत से प्रयोग होता दिखाई देता है (गौतम धर्मसूत्र, चतुर्थ 14-15; मनु., दशम, 13; याज्ञवल्क्य स्मृति, प्रथम, 95; वसिष्ठ., 18.7), जिससे अनुमान होता है कि उत्तर वैदिक काल के समाज में अनुलोम एवं प्रतिलोम विवाहों का प्रचार बढ़ा। अनुलोम विवाह का सामान्य अर्थ है अपने वर्ण से निम्नत्तर वर्ण में विवाह करना। इसके विपरीत किसी निम्नस्तर वर्ण के पुरुष और उच्चत्तर वर्ण की कन्या के बीच संबंध का स्थापित होना प्रतिलोम विवाह कहलाता है। प्राय: धर्मशास्त्रों की परीक्षा इसी सिद्धांत का प्रतिपादन करती है कि अनुलोम विवाह ही शास्त्रकारों को मान्य थे, यद्यपि दोनों प्रकार के दृष्टांत स्मृतिग्रंथों में मिलते हैं। अनुलोम विवाह से उत्पन्न संतान के विषय में ऐसा सामान्य मत जान पड़ता है कि उसे माता के वर्ण के अनुरूप मानते हैं। इसका एक विपरीत उदाहरण बौद्ध जातकों में फिक ने 'भद्दसाल जातक' में ढूँढ़ा है; जिसके अनुसार माता का कुल नहीं देखा जाता, पिता का ही कुल देखा जाता है। अनुलोम से उत्पन्न संतानों और प्रजातियों के संबंध में विभिन्न शास्त्रों में विभिन्न मत पाए जाते हैं, जिन सबका यहाँ उल्लेख करना कठिन है। मनु के अनुसार अंबष्ठ, निषाद और उग्र अनुलोम विवाहों से उत्पन्न जातियाँ थीं। ऐसे अनुलोम विवाहों के उदाहरण भारत में मध्यकाल तक काफी पाए जाते हैं। कालिदास के 'मालविकाग्निमित्रम्‌' से पता चलता है कि अग्निमित्र ने, जो ब्राह्मण था, क्षत्राणी मालविका से विवाह किया था। चंद्रगुप्त द्वितीय की राजकन्या प्रभावती गुप्ता ने वाकाटक 'ब्राह्मण' रुद्रसेन द्वितीय से विवाह किया और उसकी पट्टमहिषी बनी। कदंबकुल के सम्राट् काकुत्स्थ वर्मा (एपि. इंडिका, भाग 8, पृ. 24) के तालगुंड अभिलेख से विदित होता है कि कदंबकुल के संस्थापक मयूर शर्मा ब्राह्मण थे, उन्होंने कांची पल्लवों के विरुद्ध शस्त्र ग्रहण किया। अभिलेख से पता चलता है कि काकुत्स्थ वर्मा (मयूर शर्मा चतुर्थ वंशज) ने अपनी कन्याएँ गुप्तों तथा अन्य नरेशों को ब्याही थीं। आगे चलकार ऐसे विवाहों पर प्रतिबंध लगने आरंभ हो गए। .

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अनुस्वार

अनुस्वार एक उच्चारण की मात्रा है जो अधिकांश भारतीय लिपियों में प्रयुक्त होती है। इससे अक्सर ं जैसी ध्वनि नाक के द्वारा निकाली जाती है, अतः इसे नसिक या अनुनासिक कहते हैं। इसको कभी-कभी म (और अन्य) अक्षरों द्वारा भी लिखते हैं। जैसे: कंबल ~ कम्बल; इंफाल ~ इम्फाल इत्यादि। देवनागरी में इसे, उदाहरण-स्वरूप क पर लगाने से कं लिखा जाता है। .

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अश्विनीकुमार (पौराणिक पात्र)

वैदिक साहित्य और हिन्दू धर्म में 'अश्विनौ' यानि दो अश्विनों का उल्लेख देवता के रूप में मिलता है जिन्हें अश्विनीकुमार के नाम से जाना जाता है। वे आयुर्वेद के आदि आचार्य माने जाते हैं। ऋग्वेद (१.३, १.२२, १.३४) के अलावे महाभारत में भी इनका वर्णन है। वैदिक व्याख्या के अनुसार गुणों से ये सूर्य से उत्पन्न माने जाते हैं। पौराणिक कथाओं में 'अश्विनीकुमार' त्वष्टा की पुत्री प्रभा नाम की स्त्री से उत्पन्न सूर्य के दो पुत्र। भारतीय दर्शन के विद्वान उदयवीर शास्त्री ने वैशेषिक शास्त्र की व्याख्या में अश्विनों को विद्युत-चुम्बकत्व बताया है जो आपस में जुड़े रहते हैं और सूर्य से उत्पन्न हुए हैं। इसके अलावे ये अश्व (द्रुत) गति से चलने वाले यानि 'आशु' भी हैं - इनके नाम का मूल यही है। .

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अंतरिक्ष

किसी ब्रह्माण्डीय पिण्ड, जैसे पृथ्वी, से दूर जो शून्य (void) होता है उसे अंतरिक्ष (Outer space) कहते हैं। यह पूर्णतः शून्य (empty) तो नहीं होता किन्तु अत्यधिक निर्वात वाला क्षेत्र होता है जिसमें कणों का घनत्व अति अल्प होता है। इसमें हाइड्रोजन एवं हिलियम का प्लाज्मा, विद्युतचुम्बकीय विकिरण, चुम्बकीय क्षेत्र तथा न्युट्रिनो होते हैं। सैद्धान्तिक रूप से इसमें 'डार्क मैटर' dark matter) और 'डार्क ऊर्जा' (dark energy) भी होती है। .

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ऋभु

ऋभु बहुत प्राचीन शब्द है जिसका अर्थ समय के साथ परिवर्तित होता गया है। वैदिक साहित्य के आरम्भिक ग्रन्थों में ऋभु का अर्थ सूर्य होता था। श्रेणी:हिन्दू देवता.

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ऋग्वेद

ऋग्वेद सनातन धर्म का सबसे आरंभिक स्रोत है। इसमें १०२८ सूक्त हैं, जिनमें देवताओं की स्तुति की गयी है इसमें देवताओं का यज्ञ में आह्वान करने के लिये मन्त्र हैं, यही सर्वप्रथम वेद है। ऋग्वेद को इतिहासकार हिन्द-यूरोपीय भाषा-परिवार की अभी तक उपलब्ध पहली रचनाऔं में एक मानते हैं। यह संसार के उन सर्वप्रथम ग्रन्थों में से एक है जिसकी किसी रूप में मान्यता आज तक समाज में बनी हुई है। यह एक प्रमुख हिन्दू धर्म ग्रंथ है। ऋक् संहिता में १० मंडल, बालखिल्य सहित १०२८ सूक्त हैं। वेद मंत्रों के समूह को सूक्त कहा जाता है, जिसमें एकदैवत्व तथा एकार्थ का ही प्रतिपादन रहता है। ऋग्वेद में ही मृत्युनिवारक त्र्यम्बक-मंत्र या मृत्युंजय मन्त्र (७/५९/१२) वर्णित है, ऋग्विधान के अनुसार इस मंत्र के जप के साथ विधिवत व्रत तथा हवन करने से दीर्घ आयु प्राप्त होती है तथा मृत्यु दूर हो कर सब प्रकार का सुख प्राप्त होता है। विश्व-विख्यात गायत्री मन्त्र (ऋ० ३/६२/१०) भी इसी में वर्णित है। ऋग्वेद में अनेक प्रकार के लोकोपयोगी-सूक्त, तत्त्वज्ञान-सूक्त, संस्कार-सुक्त उदाहरणतः रोग निवारक-सूक्त (ऋ०१०/१३७/१-७), श्री सूक्त या लक्ष्मी सूक्त (ऋग्वेद के परिशिष्ट सूक्त के खिलसूक्त में), तत्त्वज्ञान के नासदीय-सूक्त (ऋ० १०/१२९/१-७) तथा हिरण्यगर्भ सूक्त (ऋ०१०/१२१/१-१०) और विवाह आदि के सूक्त (ऋ० १०/८५/१-४७) वर्णित हैं, जिनमें ज्ञान विज्ञान का चरमोत्कर्ष दिखलाई देता है। ऋग्वेद के विषय में कुछ प्रमुख बातें निम्नलिखित है-.

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