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विष्णु सहस्रनाम

सूची विष्णु सहस्रनाम

विष्णु सहस्रनाम की पाण्डुलिपि, 1690 ई. विष्णु सहस्रनाम भगवान विष्णु के हजार नामों से युक्त एक प्रमुख स्तोत्र है। यह हिन्दू धर्म में सबसे पवित्र तथा प्रचलित स्तोत्रों में से एक है। महाभारत में उपलब्ध विष्णु सहस्रनाम इसका सबसे लोकप्रिय संस्करण है। पद्म पुराण व मत्स्य पुराण में इसका एक और संस्करण उपलब्ध है। प्रत्येक नाम विष्णु के अनगिनत गुणों में से कुछ गुणों को सूचित करता है। कई हिंदु परिवारों मे पूजन के समय इसका पठन करते है। इसके सुनने या पठन से मनुष्य की मनोकामनाएँ पूर्ण होने की मान्यता है। अनुशासनपर्व (महाभारत) के १४९ वें अध्याय के अनुसार, कुरुक्षेत्र मे बाणों की शय्या पर लेटे पितामह भीष्म ने युधिष्ठिर को इसका उपदेश दिया था। .

7 संबंधों: परासर भट्टर, रोहित (नाम), श्रीश, सहस्रनाम, स्तोत्र, हंसावतार, आदि शंकराचार्य की कृतियाँ

परासर भट्टर

श्री परासर भट्टर, रामानुज के अनुयायी थे, १२वीं शताब्दी के वैष्णव शिक्षक थे और उनका जन्म १२वीं शताब्दी के अंत में हुआ था। उन्होनें विष्णु सहस्रनाम पर तमिल भाषा में श्रीवैष्णवी दृष्टिकोण से एक व्याख्यान लिखा, जो आदि शंकर के अद्वैत दृष्टिकोण से भिन्न था। उन्हें स्वयं रामानुज द्वारा अपने उत्तराधिकारी के रूप में श्रीवैष्णवों का प्रधान नियुक्त किया गया। .

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रोहित (नाम)

रोहित एक नाम है जो दक्षिण एशिया में प्रयुक्त किया जाता है। यह एक पुरुष नाम है। इसका हिन्दी में अर्थ है गहरा लाल रंग। यह राजहंस नाम के पक्षी के लिए मराठी नाम भी है। यह भारतीय चलचित्रों में एक बहुत लोकप्रिय नाम भी है। .

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श्रीश

श्रीश (आइपीए:/ɕriːɕə/) भगवान विष्णु के सहस्रनामों में से एक नाम है। "श्रीश" शब्द का सन्धिविच्छेद है – ‘श्रीः+ईश’। "श्री" अर्थात लक्ष्मी और "ईश" अर्थात "स्वामी या पति" अर्थात "भगवान विष्णु"। कई बार लोग "श्रीश" तथा "शिरीष" में भ्रमित हो जाते हैं, "शिरीष" एक पुष्प का नाम है। .

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सहस्रनाम

सहस्रनाम (शाब्दिक अर्थ - हजार नाम) संस्कृत साहित्य में एक प्रकार का स्तोत्र रचना होती है जिसमें किसी देवता के एक सहस्र (हजार) नामों का उल्लेख होता है, जैसे विष्णुसहस्रनाम, ललितासहस्रनाम आदि। .

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स्तोत्र

संस्कृत साहित्य में किसी देवी-देवता की स्तुति में लिखे गये काव्य को स्तोत्र कहा जाता है। संस्कृत साहित्य में यह स्तोत्रकाव्य के अन्तर्गत आता है। महाकवि कालिदास के अनुसार 'स्तोत्रं कस्य न तुष्टये' अर्थात् विश्व में ऐसा कोई भी प्राणी नहीं है जो स्तुति से प्रसन्न न हो जाता हो। इसलिये विभिन्न देवताओं को प्रसन्न करने हेतु वेदों, पुराणों तथा काव्यों में सर्वत्र सूक्त तथा स्तोत्र भरे पड़े हैं। अनेक भक्तों द्वारा अपने इष्टदेव की आराधना हेतु स्तोत्र रचे गये हैं। विभिन्न स्तोत्रों का संग्रह स्तोत्ररत्नावली के नाम से उपलब्ध है। निम्नलिखित स्तोत्र 'सरस्वतीस्तोत्र' से लिया गया है- .

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हंसावतार

हंसावतार, भगवान विष्णु का अवतार है। इसका उल्लेख प्रमुख अवतार के रूप में सर्वप्रथम महाभारत में हुआ है। श्रीविष्णुसहस्रनाम में भी भगवान् के एक नाम के रूप में 'हंस' का भी प्रयोग हुआ है जिसकी व्याख्या आदि शंकराचार्य ने इस तरह की है - 'अहं सः' (वह मैं हूँ) इस प्रकार तादात्म्यभाव से भावना करने वाले का संसारभय नष्ट कर देते हैं, इसलिए भगवान् हंस हैं। । इस अवतार से सम्बद्ध सबसे मुख्य बात उपदेश देने की है। महाभारत के शान्तिपर्व में प्रजापति के द्वारा सुवर्णमय हंस का रूप धारण कर साध्यगणों को उपदेश देने की कथा वर्णित है। यद्यपि 'प्रजापति' का अर्थ प्रायः ब्रह्मा मान लिया जाता है परन्तु वस्तुतः यह शब्द अनेक व्यक्तियों के लिए प्रयुक्त हुआ है। इसलिए इस शब्द के साथ जुड़े अन्य सन्दर्भों के अनुसार इसका अर्थ निर्धारित होता है। महाभारत में अनेक जगह 'विष्णु' तथा 'कृष्ण' के लिए इसका प्रयोग हुआ है। उक्त कथा में भी 'प्रजापति' को 'अज' और 'नित्य' कहा गया है। अतः यह ब्रह्मा से कहीं अधिक ब्रह्म का वाचक है। इस हंस रूप में साध्यगणों को जो उपदेश दिया गया वही 'हंसगीता' के नाम से भी जाना जाता है। कुल 45 श्लोकों के इस अध्याय में कुल 35 श्लोकों का यह उपदेश अत्यन्त महत्त्वपूर्ण है। सरल शब्दों में आध्यात्मिकता के साथ व्यावहारिकता का मणिकांचन योग इसकी अतिरिक्त विशेषता है। बाद में हंस अवतार को गौण माना गया और इसका विस्तृत विवरण पुराणों में उपलब्ध नहीं है। श्रीमद्भागवत महापुराण में इस अवतार को नारद को उपदेश देनेवाला कहा गया है। अन्यत्र इस अवतार के बारे में यह भी माना गया है कि सनकादि ऋषि को इसी रूप में भगवान् ने ज्ञान दिया था और बतलाया था कि विषय और उनका चिन्तन दोनों ही माया है। दोनों में कुछ भेद नहीं है। .

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आदि शंकराचार्य की कृतियाँ

आदि शंकराचार्य ने बहुत से गर्न्थों की रचना की जो अद्वैत वेदान्त के आधार स्तम्भ हैं। उनकी कृतियों में अद्वैत वेदान्त की तर्कपूर्ण स्थापना हुई है। परम्परागत रूप से आदि शंकराचार्य की कृतियों को तीन समूहों में रखा जाता है-.

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यहां पुनर्निर्देश करता है:

विश्नु सहस्त्रानाम्

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